सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासन पर्व) के पहला अध्याय व दूसरा अध्याय (From the one chapter and the two chapter of the entire Mahabharata (anushashn Parva))

 ॥ॐ श्रीपरमात्मने नमः॥


सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

पहला अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व)  पहले अध्याय के श्लोक 1-83 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिषिरको सान्त्वना देनेके लिये भीष्मजीके द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादका वर्णन”

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान्‌ श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत) का पाठ करना चाहिये ।।

युधिष्ठिरे कहा--पितामह! आपने नाना प्रकारसे शान्तिके सूक्ष्म स्‍्वरूपका (शोकसे मुक्त होनेके विविध उपायोंका) वर्णन किया; परंतु आपका यह ऐसा उपदेश सुनकर भी मेरे हृदयमें शान्ति नहीं है || १ ।।

दादाजी! आपने इस विषयमें शान्तिके बहुत-से उपाय बताये, परंतु इन नाना प्रकारके शान्तिदायक उपायोंको सुनकर भी स्वयं ही किये गये अपराधसे मनको शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है || २ ।।

वीरवर! बाणोंसे भरे हुए आपके शरीर और इसके गहरे घावको देखकर मैं बार-बार अपने पापोंका ही चिन्तन करता हूँ; अत: मुझे तनिक भी चैन नहीं मिलता है ।। ३ ।।

पुरुषसिंह! पर्वतसे गिरनेवाले झरनेकी तरह आपके शरीरसे रक्तकी धारा बह रही है-आपके सारे अड़ खूनसे लथपथ हो रहे हैं | इस अवस्थामें आपको देखकर मैं वर्षाकालके कमलकी तरह गला (दुःखित होता) जाता हूँ ।। ४ ।।

मेरे ही कारण समराड्डणमें शत्रुओंने जो पितामहको इस अवस्थामें पहुँचा दिया, इससे बढ़कर कष्टकी बात और क्या हो सकती है? ।। ५ ।।

आपके सिवा और भी बहुत-से नरेश मेरे ही कारण अपने पुत्रों और बान्धवोंसहित युद्धमें मारे गये हैं। इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या होगी? ।। ६ ।।

नरेश्वर! हम पाण्डव और धूृतराष्ट्रके सभी पुत्र काल और क्रोधके वशीभूत हो यह निन्दित कर्म करके न जाने किस दुर्गतिको प्राप्त होंगे! ॥७।।

नरेश्वर! मैं राजा दुर्योधनके लिये उसकी मृत्युको श्रेष्ठ समझता हूँ, जिससे कि वह आपको इस अवस्थामें पड़ा हुआ नहीं देखता है ।। ८ ।।

मैं ही आपके जीवनका अन्त करनेवाला हूँ और मैं ही दूसरे-दूसरे सुहदोंका भी वध करनेवाला हूँ। आपको इस दुःखमयी दुरवस्थामें भूमिपर पड़ा देख मुझे शान्ति नहीं मिलती है।। ९।।

दुरात्मा एवं कुलाड़ार दुर्योधन सेना और बन्धुओं सहित क्षत्रियधर्मके अनुसार होनेवाले इस युद्धमें मारा गया ।। १० ।।

वह दुष्टात्मा आज आपको इस तरह भूमिपर पड़ा हुआ नहीं देख रहा है, अत: उसकी मृत्युको ही मैं यहाँ श्रेष्ठ मानता हूँ; किन्तु अपने इस जीवनको नहीं ।। ११ ।।

अपनी मर्यादासे कभी नीचे न गिरनेवाले वीरवर! यदि भाइयोंसहित मैं शत्रुओंद्वारा पहले ही युद्धमें मार डाला गया होता तो आपको इस प्रकार सायकोंसे पीड़ित और अत्यन्त दुःखसे आतुर अवस्थामें नहीं देखता ।। १२ | ।।

नरेश्वर! निश्चय ही विधाताने हमें पापी ही रचा है। राजन! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे परलोकमें भी मुझे इस पापसे छुटकारा मिल सके ।। १३-१४ ।।

भीष्मजी कहते हैं--महाभाग! तुम तो सदा परतन्त्र हो (काल, अदृष्ट और ईश्वरके अधीन हो), फिर अपनेको शुभाशुभ कर्मोंका कारण क्‍यों समझते हो? वास्तवमें कर्मोका कारण क्या है, यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियोंकी पहुँचसे बाहर है ।। १५ ।।

इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और कालके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। १६ ।।

कुन्तीनन्दन! पूर्वकालमें गौतमी नामवाली एक बूढ़ी ब्राह्मणी थी, जो शान्तिके साधनमें संलग्न रहती थी। एक दिन उसने देखा, उसके इकलौते बेटेको साँपने डैस लिया और उसकी चेतनाशक्ति लुप्त हो गयी ।।

इतनेहीमें अर्जुनक नामवाले एक व्याधने उस साँपको ताँतके फाँसमें बाँध लिया और अमर्षवश वह उसे गौतमीके पास ले आया || १८ ।।

लाकर उसने कहा--“महाभागे! यही वह नीच सर्प है, जिसने तुम्हारे पुत्रको मार डाला है। जल्दी बताओ, मैं किस तरह इसका वध करूँ? ।। १९ ||

“मैं इसे आगमें झोंक दूँ या इसके टुकड़े-टुकड़े कर डालूँ? बालककी हत्या करनेवाला यह पापी सर्प अब अधिक समयतक जीवित रहने योग्य नहीं है” ।।

गौतमी बोली--अर्जुनक! छोड़ दे इस सर्पको। तू अभी नादान है। तुझे इस सर्पको नहीं मारना चाहिये। होनहारको कोई टाल नहीं सकता--इस बातको जानते हुए भी इसकी उपेक्षा करके कौन अपने ऊपर पापका भारी बोझ लादेगा? ।। २१ |।

संसारमें धर्माचरण करके जो अपनेको हलके रखते हैं (अपने ऊपर पापका भारी बोझ नहीं लादते हैं), वे पानीके ऊपर चलनेवाली नौकाके समान भवसागरसे पार हो जाते हैं; परंतु जो पापके बोझसे अपनेको बोझिल बना लेते हैं, वे जलमें फेंके हुए हथियारकी भाँति नरक-समुद्रमें डूब जाते हैं । २२ ।।

इसको मार डालनेसे मेरा यह पुत्र जीवित नहीं हो सकता और इस सर्पके जीवित रहनेपर भी तुम्हारी क्या हानि हो सकती है? ऐसी दशामें इस जीवित प्राणीके प्राणोंका नाश करके कौन यमराजके अनन्त लोकमें जाय? ।। २३ ।।

व्याधने कहा--गुण और अवगुणको जाननेवाली देवि! मैं जानता हूँ कि बड़े-बूढ़े लोग किसी भी प्राणीको कष्टमें पड़ा देख इसी तरह दुःखी हो जाते हैं। परंतु ये उपदेश तो स्वस्थ पुरुषके लिये हैं (दुःखी मनुष्यके मनपर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता)। अतः मैं इस नीच सर्पको अवश्य मार डालूँगा ।। २४ ।।

शान्ति चाहनेवाले पुरुष कालकी गति बताते हैं (अर्थात्‌ कालने ही इसका नाश कर दिया है, ऐसा कहते हुए शोकका त्याग करके संतोष धारण करते हैं)। परंतु जो अर्थवेत्ता हैं --बदला लेना जानते हैं, वे शत्रुका नाश करके तुरंत ही शोक छोड़ देते हैं। दूसरे लोग श्रेयका नाश होनेपर मोहवश सदा उसके लिये शोक करते रहते हैं; अतः इस शत्रुभूत सर्पके मारे जानेपर तुम भी तत्काल ही अपने पुत्र-शोकको त्याग देना ।। २५ ।।

गौतमी बोली--अर्जुनक! हम-जैसे लोगोंको कभी किसी तरहकी हानिसे भी पीड़ा नहीं होती। धर्मात्मा सज्जन पुरुष सदा धर्ममें ही लगे रहते हैं। मेरा यह बालक सर्वथा मरनेहीवाला था; इसलिये मैं इस सर्पको मारनेमें असमर्थ हूँ || २६ ।।

ब्राह्मणोंको क्रोध नहीं होता; फिर वे क्रोधवश दूसरोंको पीड़ा कैसे दे सकते हैं; अतः साधो! तू भी कोमलताका आश्रय लेकर इस सर्पके अपराधको क्षमा कर और इसे छोड़ दे | २७ ।।

व्याधने कहा--देवि! इस सर्पको मार डालनेसे जो बहुतोंका भला होगा, यही अक्षय लाभ है। बलवानोंसे बलपूर्वक लाभ उठाना ही उत्तम लाभ है। कालसे जो लाभ होता है वही सच्चा लाभ है। इस नीच सर्पके जीवित रहनेसे तुम्हें कोई श्रेय नहीं मिल सकता ।। २८ ।।

गौतमी बोली--अर्जुनक! शत्रुको कैद करके उसे मार डालनेसे क्या लाभ होता है; तथा शत्रुकी अपने हाथमें पाकर उसे न छोड़नेसे किस अभीष्ट मनोरथकी प्राप्ति हो जाती है? सौम्य! क्‍या कारण है कि मैं इस सर्पके अपराधको क्षमा न करूँ? तथा किसलिये इसको छुटकारा दिलानेका प्रयत्न न करूँ? ।। २९ ।।

व्याधने कहा--गौतमी! इस एक सर्पसे बहुतेरे मनुष्योंके जीवनकी रक्षा करनी चाहिये। (क्योंकि यदि यह जीवित रहा तो बहुतोंको काटेगा।) अनेकोंकी जान लेकर एककी रक्षा करना कदापि उचित नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष अपराधीको त्याग देते हैं; इसलिये तुम भी इस पापी सर्पको मार डालो || ३० ।।

गौतमी बोली--व्याध! इस सर्पके मारे जानेपर मेरा पुत्र पुनः जीवन प्राप्त कर लेगा, ऐसी बात नहीं है। इसका वध करनेसे दूसरा कोई लाभ भी मुझे नहीं दिखायी देता है। इसलिये इस सर्पको तुम जीवित छोड़ दो || ३१ ।।

व्याधने कहा--देवि! वृत्रासुरका वध करके देवराज इन्द्र श्रेष्ठ पदके भागी हुए और त्रिशूलधारी रुद्रदेवने दक्षके यज्ञका विध्वंस करके उसमें अपने लिये भाग प्राप्त किया। तुम भी देवताओंद्वारा किये गये इस बर्तावका ही पालन करो। इस सर्पको शीघ्र ही मार डालो। इस कार्यमें तुम्हें शंका नहीं करनी चाहिये ।। ३२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! व्याधके बार-बार कहने और उकसानेपर भी महाभागा गौतमीने सर्पको मारनेका विचार नहीं किया || ३३ ।।

उस समय बन्धनसे पीड़ित होकर धीरे-धीरे साँस लेता हुआ वह साँप बड़ी कठिनाईसे अपनेको सँभालकर मन्दस्वरसे मनुष्यकी वाणीमें बोला ।। ३४ ।।

सर्पने कहा--ओ नादान अर्जुनक! इसमें मेरा क्या दोष है? मैं तो पराधीन हूँ। मृत्युने मुझे विवश करके इस कार्यके लिये प्रेरित किया था ।। ३५ ।।

उसके कहनेसे ही मैंने इस बालकको डँसा है, क्रोधसे और कामनासे नहीं। व्याध! यदि इसमें कुछ अपराध है तो वह मेरा नहीं, मृत्युका है | ३६ ।।

व्याधने कहा--ओ सर्प! यद्यपि तूने दूसरेके अधीन होकर यह पाप किया है तथापि तू भी तो इसमें कारण है ही; इसलिये तू भी अपराधी है || ३७ ।।

सर्प! जैसे मिट्टीका बर्तन बनाते समय दण्ड और चाक आदिको भी उसमें कारण माना जाता है, उसी प्रकार तू भी इस बालकके वधमें कारण है ।। ३८ ।।

भुजंगम! जो भी अपराधी हो, वह मेरे लिये वध्य है; पन्नग! तू भी अपराधी है ही; क्योंकि तू स्वयं अपने आपको इसके वधमें कारण बताता है ।। ३९ ।।

सर्पने कहा--व्याध! जैसे मिट्टीका बर्तन बनानेमें ये दण्ड-चक्र आदि सभी कारण पराधीन होते हैं, उसी प्रकार मैं भी मृत्युके अधीन हूँ। इसलिये तुमने जो मुझपर दोष लगाया है, वह ठीक नहीं है ।। ४० ।।

अथवा यदि तुम्हारा यह मत हो कि ये दण्ड-चक्र आदि भी एक-दूसरेके प्रयोजक होते हैं; इसलिये कारण हैं ही। किंतु ऐसा माननेसे एक-दूसरेको प्रेरणा देनेवाला होनेके कारण कार्य-कारणभावके निर्णयमें संदेह हो जाता है || ४१ ।।

ऐसी दशामें न तो मेरा कोई दोष है और न मैं वध्य अथवा अपराधी ही हूँ। यदि तुम किसीका अपराध समझते हो तो वह सारे कारणोंके समूहपर ही लागू होता है || ४२ ।।

व्याधने कहा--सर्प! यदि मान भी लें कि तू अपराधका न तो कारण है और न कर्ता ही है तो भी इस बालककी मृत्यु तो तेरे ही कारण हुई है, इसलिये मैं तुझे मारने योग्य समझता हूँ || ४३ ।।

सर्प! तेरे मतके अनुसार यदि दुष्टतापूर्ण कार्य करके भी कर्ता उस दोषसे लिप्त नहीं होता है, तब तो चोर या हत्यारे आदि जो अपने अपराधोंके कारण राजाओंके यहाँ वध्य होते हैं, उन्हें भी वास्तवमें अपराधी या दोषका भागी नहीं होना चाहिये। (फिर तो पाप और उसका दण्ड भी व्यर्थ ही होगा) अत: तू क्यों बहुत बकवाद कर रहा है ।।

सर्पने कहा--व्याध! प्रयोजक (प्रेरक) कर्ता रहे या न रहे, प्रयोज्य कर्ताके बिना क्रिया नहीं होती; इसलिये यहाँ यद्यपि हमलोग (मैं और मृत्यु) समानरूपसे हेतु हैं; तो भी प्रयोजक होनेके कारण मृत्युपर ही विशेषरूपसे यह अपराध लगाया जा सकता है। यदि तुम मुझे इस बालककी मृत्युका वस्तुतः कारण मानते हो तो यह तुम्हारी भूल है। वास्तवमें विचार करनेपर प्रेरणा करनेके कारण दूसरा ही (मृत्यु ही) अपराधी सिद्ध होगा; क्योंकि वही प्राणियोंके विनाशमें अपराधी है || ४५-४६ ।।

व्याधने कहा--खोटी बुद्धिवाले नीच सर्प! तू बालहत्यारा और क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाला है; अतः निश्चय ही मेरे हाथसे वधके योग्य है। तू वध्य होकर भी अपनेको निर्दोष सिद्ध करनेके लिये क्‍यों बहुत बातें बना रहा है? ।। ४७ ।।

सर्पने कहा--व्याध! जैसे यजमानके यहाँ यज्ञमें ऋत्विज्‌ लोग अग्निमें आहुति डालते हैं; किंतु उसका फल उन्हें नहीं मिलता। इसी प्रकार इस अपराधके फल या दण्डको भोगनेमें मुझे नहीं सम्मिलित करना चाहिये (क्योंकि वास्तवमें मृत्यु ही अपराधी है) ।। ४८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! मृत्युकी प्रेरणासे बालकको डँसनेवाला सर्प जब बारंबार अपनेको निर्दोष और मृत्युको दोषी बताने लगा तब मृत्यु देवता भी वहाँ आ पहुँचा और सर्पसे इस प्रकार बोला ।। ४९ |।

मृत्युने कहा--सर्प! कालसे प्रेरित होकर ही मैंने तुओ इस बालकको डँसनेके लिये प्रेरणा दी थी; अतः: इस शिशुप्राणीके विनाशमें न तो तू कारण है और न मैं ही कारण हूँ || ५० ||

सर्प! जैसे हवा बादलोंको इधर-उधर उड़ा ले जाती है, उन बादलोंकी ही भाँति मैं भी कालके वशमें हूँ || ५१ ।।

सात््विक, राजस और तामस जितने भी भाव हैं, वे सब कालात्मक हैं और कालकी ही प्रेरणासे प्राणियोंको प्राप्त होते हैं ।। ५२ ।।

सर्प! पृथ्वी अथवा स्वर्गलोकमें जितने भी स्थावर-जड़म पदार्थ हैं, वे सभी कालके अधीन हैं। यह सारा जगत्‌ ही कालस्वरूप है ।। ५३ ।।

इस लोकमें जितने प्रकारकी प्रवृत्ति-निवृत्ति तथा उनकी विकृतियाँ (फल) हैं, ये सब कालके ही स्वरूप हैं ।। ५४ ।।

पन्नग! सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, पर्जन्य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र तथा भाव और अभाव--ये सभी कालके द्वारा ही रचे जाते हैं और काल ही इनका संहार कर देता है ।।

सर्पने कहा--मृत्यो! मैं तुम्हें न तो निर्दोष बताता हूँ और न दोषी ही। मैं तो इतना ही कह रहा हूँ कि इस बालकको डँसनेके लिये तूने ही मुझे प्रेरित किया था ।। ५८ ।।

इस विषयमें यदि कालका दोष है अथवा यदि वह भी निर्दोष है तो हो, मुझे किसीके दोषकी जाँच नहीं करनी है और जाँच करनेका मुझे कोई अधिकार भी नहीं है ।। ५९ ।।

परंतु मेरे ऊपर जो दोष लगाया गया है, उसका निवारण तो मुझे जैसे-तैसे करना ही है। मेरे कहनेका यह प्रयोजन नहीं है कि मृत्युका भी दोष सिद्ध हो जाय ।। ६० ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर सर्पने अर्जुनकसे कहा--“तुमने मृत्युकी बात तो सुन ली न? अब मुझ निरपराधको बन्धनमें बाँधकर कष्ट देना तुम्हारे लिये उचित नहीं है ।। ६१ ।।

व्याधने कहा--पन्नग! मैंने मृत्युकी और तेरी--दोनोंकी बातें सुन लीं; किंतु भुजंगम! इससे तेरी निर्दोषता नहीं सिद्ध हो रही है ।। ६२ ।।

इस बालकके विनाभमें तू और मृत्यु--दोनों ही कारण हो; अतः मैं दोनोंको ही कारण या अपराधी मानता हूँ, किसी एकको अपराधी या निरपराध नहीं मानता ।। ६३ ।।

श्रेष्ठ पुरुषोंको दुःख देनेवाले इस क्रूर एवं दुरात्मा मृत्युको धिक्‍्कार है और तू तो इस पापका कारण है ही; इसलिये तुझ पापात्माका वध मैं अवश्य करूँगा ।। ६४ ।।

मृत्युने कहा--व्याध! हम दोनों कालके अधीन होनेके कारण विवश हैं। हम तो केवल उसके आदेशका पालनमात्र करते हैं। यदि तुम अच्छी तरह विचार करोगे तो हमलोगोंपर दोषारोपण नहीं करोगे ।।

व्याधने कहा--मृत्यु और सर्प! यदि तुम दोनों कालके अधीन हो तो मुझ तटस्थ व्यक्तिको परोपकारीके प्रति हर्ष और दूसरोंका अपकार करनेवाले तुम दोनोंपर क्रोध क्‍यों होता है, यह मैं जानना चाहता हूँ ।। ६६ ।।

मृत्युने कहा--व्याध! जगत्‌में जो कोई भी चेष्टा हो रही है, वह सब कालकी प्रेरणासे ही होती है। यह बात मैंने तुमसे पहले ही बता दी है || ६७ ।।

अत: व्याध! हम दोनोंको कालके अधीन और कालके ही आदेशका पालक समझकर तुम्हें कभी हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं करना चाहिये ।। ६८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर धार्मिक विषयमें संदेह उपस्थित होनेपर काल भी वहाँ आ पहुँचा; तथा सर्प, मृत्यु एवं अर्जुनक व्याधसे इस प्रकार बोला ।। ६९

कालने कहा--व्याथ! न तो मैं, न यह मृत्यु और न यह सर्प ही इस जीवकी मृत्युमें अपराधी हैं। हमलोग किसीकी मृत्युमें प्रेरक या प्रयोजक भी नहीं हैं || ७० ।।

अर्जुनक! इस बालकने जो कर्म किया है वही इसकी मृत्युमें प्रेरक हुआ है, दूसरा कोई इसके विनाशका कारण नहीं है। यह जीव अपने कर्मसे ही मरता है ।। ७१ ।।

इस बालकने जो कर्म किया है, उसीसे यह मृत्युको प्राप्त हुआ है। इसका कर्म ही इसके विनाशका कारण है। हम सब लोग कर्मके ही अधीन हैं ।। ७२ ।।

संसारमें कर्म ही मनुष्योंका पुत्र-पौत्रके समान अनुगमन करनेवाला है। कर्म ही दुःखसुखके सम्बन्धका सूचक है। इस जगतमें कर्म ही जैसे परस्पर एक-दूसरेको प्रेरित करते हैं, वैसे ही हम भी कर्मोंसे ही प्रेरित हुए हैं || ७३ ।।

जैसे कुम्हार मिट्टीके लोंदेसे जो-जो बर्तन चाहता है वही बना लेता है। उसी प्रकार मनुष्य अपने किये हुए कर्मके अनुसार ही सब कुछ पाता है ।। ७४ ।।

जैसे धूप और छाया दोनों नित्य-निरन्तर एक-दूसरेसे मिले रहते हैं, उसी प्रकार कर्म और कर्ता दोनों अपने कर्मानुसार एक-दूसरेसे सम्बद्ध होते हैं || ७५ ।।

इस प्रकार विचार करनेसे न मैं, न मृत्यु, न सर्प, न तुम (व्याध) और न यह बूढ़ी ब्राह्यणी ही इस बालककी मृत्युमें कारण है। यह शिशु स्वयं ही कर्मके अनुसार अपनी मृत्युमें कारण हुआ है || ७६ 

नरेश्वरर कालके इस प्रकार कहनेपर गौतमी ब्राह्मणीको यह निश्चय हो गया कि मनुष्यको अपने कर्मोंके अनुसार ही फल मिलता है। फिर वह अर्जुनकसे बोली ।।

गौतमीने कहा--व्याध! न यह काल, न सर्प और न मृत्यु ही यहाँ कारण हैं। यह बालक अपने कर्मोसे ही प्रेरित हो कालके द्वारा विनाशको प्राप्त हुआ है || ७८ 

अर्जुनक! मैंने भी वैसा कर्म किया था जिससे मेरा पुत्र मर गया है। अतः काल और मृत्यु अपने-अपने स्थानको पधारें; और तू इस सर्पको छोड़ दे || ७९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर काल, मृत्यु और सर्प जैसे आये थे वैसे ही चले गये; और अर्जुनक तथा गौतमी ब्राह्मणीका भी शोक दूर हो गया ।।

नरेश्वर! इस उपाख्यानको सुनकर तुम शान्ति धारण करो, शोकमें न पड़ो। सब मनुष्य अपने-अपने कर्मोके अनुसार प्राप्त होनेवाले लोकोंमें ही जाते हैं ।।

तुमने या दुर्योधनने कुछ नहीं किया है। कालकी ही यह सारी करतूत समझो, जिससे समस्त भूपाल मारे गये हैं ।। ८२ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! भीष्मकी यह बात सुनकर महातेजस्वी धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिरकी चिन्ता दूर हो गयी; तथा उन्होंने पुनः इस प्रकार प्रश्न किया || ८३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें गौतमी ब्राह्मणी; व्याध, सर्प मृत्यु और कालका संवादविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

दूसरा अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (अनुशासनपर्व) दूसरे अध्याय के श्लोक 1-96 का हिन्दी अनुवाद)

“प्रजापति मनुके वंशका वर्णन, अग्निपुत्र सुदर्शनका अतिथिसत्काररूपी धर्मके पालनसे मृत्युपर विजय पाना”

युधिष्ठिरने कहा--बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सर्वशास्त्र-विशारद महाप्राज्ञ पितामह! इस महत्त्वपूर्ण उपाख्यानको मैंने बड़े ध्यानसे सुना है ।। १ ।।

नरेश्वर! अब मैं पुन: आपके मुखसे कुछ और धर्म तथा अर्थयुक्त उपदेश सुनना चाहता हूँ, अतः आप मुझे इस विषयको विस्तारपूर्वक बताइये ।। २ ।।

भूपाल! किस गृहस्थने केवल धर्मका आश्रय लेकर मृत्युपर विजय पायी है? यह सब बातें आप यथार्थरूपसे कहिये ।। ३ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! एक गृहस्थने जिस प्रकार धर्मका आश्रय लेकर मृत्युपर विजय पायी थी, उसके विषयमें एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। ४ ।।

नरेश्वर! प्रजापति मनुके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम था इक्ष्वाकु। राजा इक्ष्वाकु सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्होंने सौ पुत्रोंकी जन्म दिया ।। ५ |।

भारत! उनमेंसे दसवें पुत्रका नाम दशाश्व था जो माहिष्मतीपुरीमें राज्य करता था। वह बड़ा ही धर्मात्मा और सत्यपराक्रमी था ।। ६ ।।

दशाश्वका पुत्र भी बड़ा धर्मात्मा राजा था। उसका मन सदा सत्य, तपस्या और दानमें ही लगा रहता था ।।

वह राजा इस भूतलपर मदिराश्वके नामसे विख्यात था और सदा वेद एवं धर्नुर्वेदके अभ्यासमें संलग्न रहता था ।। ८ ।।

मदिराश्वका पुत्र महाभाग, महातेजस्वी, महान्‌ धैर्यशशाली और महाबली द्युतिमान्‌ नामसे प्रसिद्ध राजा हुआ || ९ |।

द्युतिमानका पुत्र परम धर्मात्मा राजा सुवीर हुआ जो सम्पूर्ण लोकोंमें विख्यात था। वह धर्मात्मा, कोश (धन-भण्डार)-से सम्पन्न तथा दूसरे देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी था ।। १०३ ||

सुवीरका पुत्र दुर्जय नामसे विख्यात हुआ। वह सभी संग्रामोंमें शत्रुओंके लिये दुर्जय तथा सम्पूर्ण शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ था ।। ११३६ ।।

इन्द्रके समान शरीरवाले राजा दुर्जयके एक पुत्र हुआ जो अश्विनीकुमारोंके समान कान्तिमान्‌ था। उसका नाम था दुर्योधन। वह राजर्षियोंमें श्रेष्ठ महान्‌ राजा था ।। १२३

इन्द्रके समान पराक्रमी और युद्धसे कभी पीछे न हटनेवाले राजा दुर्योधनके राज्यमें इन्द्र सदा ठीक समयपर और उचित मात्रामें ही वर्षा करते थे ।। १३६ ।।

उनका नगर और राज्य रत्न, धन, पशु तथा भाँति-भाँतिके धान्योंसे उन दिनों भरा-पूरा रहता था ।।

उनके राज्यमें कहीं कोई भी कृपण, दुर्गतिग्रस्त, रोगी अथवा दुर्बल मनुष्य नहीं दृष्टिगोचर होता था || १५३६ ।।

वह राजा अत्यन्त उदार, मधुरभाषी, किसीके दोष न देखनेवाला, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, दयालु और पराक्रमी था। वह कभी अपनी प्रशंसा नहीं करता था | १६ ।।

राजा दुर्योधन वेद-वेदाड़ोंका पारजड्गत विद्वान, यज्ञकर्ता, जितेन्द्रिय, मेधावी, ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ था। वह सबको दान देता और किसीका भी अपमान नहीं करता था ।। १७ ||

भारत! एक समय शीतल जलवाली पवित्र एवं कल्याणमयी देवनदी नर्मदा उस पुरुषसिंहको सम्पूर्ण हृदयसे चाहने लगी और उसकी पत्नी बन गयी ।। १८ ।।

राजन! उस नदीके गर्भसे राजाके द्वारा एक कमललोचना कन्या उत्पन्न हुई जो नामसे तो सुदर्शना थी ही, रूपसे भी सुदर्शना (सुन्दर एवं दर्शनीय) थी ।।

युधिष्ठिर! दुर्योधनकी वह सुन्दर वर्णवाली पुत्री जैसी रूपवती थी, वैसी रूपसौन्दर्यशालिनी स्त्री नारियोंमें पहले कभी नहीं हुई थी || २० ।।

राजन! राजकन्या सुदर्शनापर साक्षात्‌ अग्निदेव आसक्त हो गये और उन्होंने ब्राह्मणका रूप धारण करके राजासे उस कन्याको माँगा ।। २१ ।।

राजा यह सोचकर कि एक तो यह दरिद्र है और दूसरे मेरे समान वर्णका नहीं है, अपनी पुत्री सुदर्शनाको उस ब्राह्मणके हाथमें नहीं देना चाहते थे || २२ ।।

तब अग्निदेव रुष्ट होकर राजाके आरम्भ हुए यज्ञमेंसे अदृश्य हो गये। इससे राजाको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने ब्राह्मणोंसे कहा-- ।। २३ ।।

विप्रवरो! मुझसे या आपलोगोंसे कौन-सा ऐसा दुष्कर्म बन गया है जिससे अग्निदेव दुष्ट मनुष्योंके प्रति किये गये उपकारके समान नष्ट हो गये हैं | २४ ।।

“हमलोगोंका थोड़ा-सा अपराध नहीं है जिससे अग्निदेव अदृश्य हो गये हैं। वह अपराध आपलोगोंका है या मेरा--इसका ठीक-ठीक विचार करें" || २५ ।।

भरतश्रेष्ठ] राजाकी यह बात सुनकर उन ब्राह्मणोंने शौच-संतोष आदि नियमोंके पालनपूर्वक मौन हो भगवान्‌ अग्निदेवकी शरण ली || २६ ।।

तब भगवान्‌ हव्यवाहनने रातमें अपना तेजस्वी रूप प्रकट करके शरत्कालके सूर्यके सदृश द्युतिमान्‌ हो उन ब्राह्मणोंको दर्शन दिया || २७ ।।

उस समय महात्मा अग्निने जन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे कहा--'“मैं दुर्योधनकी पुत्रीका अपने लिये वरण करता हूँ ॥। २८ ।।

यह सुनकर आश्वर्यचकित हुए सब ब्राह्मणोंने सबेरे उठकर, अग्निदेवने जो कहा था वह सब कुछ राजासे निवेदन किया ।। २९ |।

ब्रह्मगादी ऋषियोंका यह वचन सुनकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ और उन बुद्धिमान्‌ नरेशने “तथास्तु' कहकर अग्निदेवका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया ।। ३० ।।

तदनन्तर उन्होंने कन्या के शुल्करूपसे भगवान्‌ अग्निसे याचना की--'चित्रभानो! इस नगरीमें आपका सदा निवास बना रहे” ।। ३१ ।।

यह सुनकर भगवान्‌ अग्निने राजासे कहा, “एवमस्तु (ऐसा ही होगा)”। तभीसे आजतक माहिष्मती नगरीमें अग्निदेवका निवास बना हुआ है ।। ३२ ।।

सहदेवने दक्षिण दिशाकी विजय करते समय वहाँ अग्निदेवको प्रत्यक्ष देखा था। अग्निदेवके वहाँ रहना स्वीकार कर लेनेपर राजा दुर्योधनने अपनी कन्याको सुन्दर वस्त्र पहनाकर नाना प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत करके महात्मा अग्निके हाथमें दे दिया ।। ३३ कल

अग्निने वेदोक्त विधिसे राजकन्या सुदर्शनाको उसी प्रकार ग्रहण किया, जैसे वे यज्ञमें वसुधारा ग्रहण करते हैं ।। ३४ $ ।।

सुदर्शनाके रूप, शील, कुल, शरीरकी आकृति और कान्तिको देखकर अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसमें गर्भाधान करनेका विचार किया || ३५३६ ।।

कुछ कालके पश्चात्‌ उसके गर्भसे अग्निके एक पुत्र हुआ जिसका नाम सुदर्शन रखा गया। वह रूपमें पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर था और उसे बचपनमें ही सर्वस्वरूप सनातन परब्रह्मका ज्ञान हो गया था ।।

उन दिनों राजा नृगके पितामह ओघवान्‌ इस पृथ्वीपर राज्य करते थे। उनके ओघवती नामवाली एक कन्या और ओघरथ नामवाला एक पुत्र था || ३८ ।।

ओघवती देवकन्याके समान सुन्दरी थी। ओघवानने अपनी उस पुत्रीको विद्वान्‌ सुदर्शनको पत्नी बनानेके लिये दे दिया ।। ३९ ।।

राजन! सुदर्शन उसके साथ गृहस्थ-धर्मका पालन करने लगे। उन्होंने ओधवतीके साथ कुरक्षेत्रमें निवास किया ।। ४० ।।

प्रजानाथ! प्रभो! उद्दीप्त तेजवाले उस बुद्धिमान सुदर्शनने यह प्रतिज्ञा कर ली कि मैं गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए ही मृत्युकोी जीत लूँगा || ४१ ।।

राजन्‌! अग्निकुमार सुदर्शनने ओघवतीसे कहा--'देवि! तुम्हें अतिथिके प्रतिकूल किसी तरह कोई कार्य नहीं करना चाहिये” ।। ४२ ।।

“जिस-जिस वस्तुसे अतिथि संतुष्ट हो, वह वस्तु तुम्हें सदा ही उसे देनी चाहिये। यदि अतिथिके संतोषके लिये तुम्हें अपना शरीर भी देना पड़े तो मनमें कभी अन्यथा विचार न करना ।। ४३ ।।

'सुन्दरी! अतिथि-सेवाका यह व्रत मेरे हृदयमें सदा स्थित रहता है। गृहस्थोंके लिये अतिथि-सेवासे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है ।। ४४ ।।

“वामोरु शोभने! यदि तुम्हें मेरा वचन मान्य हो तो मेरी इस बातको शान्त भावसे सदा अपने हृदयमें धारण किये रहना ।। ४५ ।।

“कल्याणि! निष्पाप! यदि तुम मुझे आदर्श मानती हो तो मैं घरमें रहूँ या घरसे कहीं दूर निकल जाऊँ, तुम्हें किसी भी दशामें अतिथिका अनादर नहीं करना चाहिये' || ४६ ।।

यह सुनकर ओघवतीने दोनों हाथ जोड़ मस्तकमें लगाकर कहा--“कोई भी ऐसा कार्य नहीं है जो मैं आपकी आज्ञासे किसी कारणवश न कर सकूँ” || ४७ ।।

राजन! उन दिनों गृहस्थ-धर्ममें स्थित हुए सुदर्शनको जीतनेकी इच्छासे मृत्यु उनका छिद्र खोजती हुई सदा उनके पीछे लगी रहती थी ।। ४८ ।।

एक दिन अम्निपुत्र सुदर्शन जब समिधा लानेके लिये बाहर चले गये, उसी समय उनके घरपर एक तेजस्वी ब्राह्मण अतिथि आया और ओघवतीसे बोला-- || ४९ ||

“वरवर्णिनि! यदि तुम गृहस्थसम्मत धर्मको मान्य समझती हो तो आज मैं तुम्हारे द्वारा किया गया आतिथ्यसत्कार ग्रहण करना चाहता हूँ || ५० ।।

प्रजानाथ! उस ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर यशस्विनी राजकुमारी ओघवतीने वेदोक्त विधिसे उसका पूजन किया ।। ५१ ।।

ब्राह्मणको बैठनेके लिये आसन और पैर धोनेके लिये जल देकर ओघवतीने उससे पूछा--“विप्रवर! आपको किस वस्तुकी आवश्यकता है? मैं आपकी सेवामें क्‍या भेंट करूँ?” ।। ५२ ।।

तब ब्राह्मणने दर्शनीय सौन्दर्यसे सुशोभित राजकुमारी ओघवतीसे कहा--“कल्याणि! मुझे तुमसे ही काम है। तुम नि:शंक होकर मेरा यह प्रिय कार्य करो ।। ५३ ।।

“रानी! यदि तुम्हें गृहस्थसम्मत धर्म मान्य है तो मुझे अपना शरीर देकर मेरा प्रिय कार्य करना चाहिये” ।। ५४ ।।

राजकन्याने दूसरी कोई अभीष्ट वस्तु माँगनेके लिये उस अतिथिसे बारंबार अनुरोध किया, किंतु उस ब्राह्मणने उसके शरीर-दानके सिवा और कोई अभिलषित पदार्थ उससे नहीं माँगा || ५५ |।

तब राजकुमारीने पहले कहे हुए पतिके वचनको याद करके लजाते-लजाते उस द्विजश्रेष्ठठे कहा--“अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है” || ५६ ।।

गृहस्थाश्रम-धर्मके पालनकी इच्छा रखनेवाले पतिकी कही हुई बातको स्मरण करके जब उसने ब्राह्मणके समक्ष 'हाँ' कर दिया, तब उस विप्र ऋषिने मुसकराकर ओघवतीके साथ घरके भीतर प्रवेश किया ।। ५७ ।।

इतनेहीमें अग्निकुमार सुदर्शन समिधा लेकर लौट आये। मृत्यु क्रूर भावनासे सदा उनके पीछे लगी रहती थी, मानो कोई स्नेही बन्धु अपने प्रिय बन्धुके पीछे-पीछे चल रहा हो ।। ५८ ।।

आश्रमपर पहुँचकर फिर अग्निपुत्र सुदर्शन अपनी पत्नी ओघवतीको बारंबार पुकारने लगे--'देवि! तुम कहाँ चली गयी?” ।। ५९ ।।

परंतु ओधवतीने उस समय अपने पतिको कोई उत्तर नहीं दिया। अतिथिरूपमें आये हुए ब्राह्मणने अपने दोनों हाथोंसे उसे छू दिया था। इससे वह सती-साध्वी पतिव्रता अपनेको दूषित मानकर अपने स्वामीसे भी लज्जित हो गयी थी; इसीलिये वह साध्वी चुप हो गयी। कुछ भी बोल न सकी ।। ६०-६१ ।।

अब सुदर्शन फिर पुकार-पुकारकर इस प्रकार कहने लगे--“मेरी वह साध्वी पत्नी कहाँ है? वह सुशीला कहाँ चली गयी? मेरी सेवासे बढ़कर कौन गुरुतर कार्य उसपर आ पड़ा। वह पतित्रता, सत्य बोलनेवाली और सदा सरलभावसे रहनेवाली है। आज पहलेकी ही भाँति मुसकराती हुई वह मेरी अगवानी क्‍यों नहीं कर रही है?” ।। ६२-६३ ।।

यह सुनकर आश्रमके भीतर बैठे हुए ब्राह्मणने सुदर्शनको उत्तर दिया--“अग्निकुमार! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं ब्राह्मण हूँ और तुम्हारे घरपर अतिथिके रूपमें आया हूँ ।। ६४ ।।

'साधुशिरोमणे! तुम्हारी इस पत्नीने अतिथि-सत्कारके द्वारा मेरी इच्छा पूर्ण करनेका वचन दिया है। ब्रह्मन! तब मैंने इसे ही वरण कर लिया है ।। ६५ ।।

“इसी विधिके अनुसार यह सुमुखी इस समय मेरी सेवामें उपस्थित हुई है। अब यहाँ तुम्हें दूसरा जो कुछ उचित प्रतीत हो, वह कर सकते हो” ।। ६६ ।।

इसी समय मृत्यु हाथमें लोहदण्ड लिये सुदर्शनके पीछे आकर खड़ी हो गयी। वह सोचती थी कि अब तो यह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ बैठेगा। इसलिये इसे यहीं मार डालूँगी || ६७ ।।

परंतु सुदर्शन मन, वाणी, नेत्र और क्रियासे भी ईर्ष्या तथा क्रोधका त्याग कर चुके थे। वे हँसते-हँसते यों बोले-- ।। ६८ ।।

“विप्रवर! आपकी सुरत कामनापूर्ण हो। इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता है; क्योंकि घरपर आये हुए अतिथिका पूजन करना गृहस्थके लिये सबसे बड़ा धर्म है ।। ६९ ।।

“जिस गृहस्थके घरपर आया हुआ अतिथि पूजित होकर जाता है उसके लिये उससे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है--ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं || ७० ।।

“मेरे प्राण, मेरी पत्नी तथा मेरे पास और जो कुछ धन-दौलत हैं, वह सब मेरी ओरसे अतिथियोंके लिये निछावर है, ऐसा मैंने व्रत ले रखा है ।। ७१ ।।

“ब्रह्मन! मैंने जो यह बात कही है, इसमें संदेह नहीं है। इस सत्यको सिद्ध करनेके लिये मैं स्वयं ही अपने शरीरको छूकर शपथ खाता हूँ || ७२ ।।

“धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, नेत्र, बुद्धि, आत्मा, मन, काल और दिशाएँ--से दस गुण (वस्तुएँ) सदा ही प्राणियोंके शरीरमें स्थित होकर उनके पुण्य और पापकर्मको देखा करते हैं || ७३-७४ ।।

“आज मेरी कही हुई यह वाणी यदि मिथ्या नहीं है तो इस सत्यके प्रभावसे देवता मेरी रक्षा करें, अथवा मिथ्या होनेपर मुझे जलाकर भस्म कर डालें” ।। ७५ ||

भरतनन्दन! सुदर्शनके इतना कहते ही सम्पूर्ण दिशाओंसे बारंबार आवाज आने लगी -- तुम्हारा कथन सत्य है। इसमें झूठका लेश भी नहीं है” || ७६ ।।

तत्पश्चात्‌ वह ब्राह्मण उस आश्रमसे बाहर निकला। वह अपने शरीरसे वायुकी भाँति पृथ्वी और आकाशको व्याप्त करके स्थित हो गया || ७७ ।।

शिक्षाके अनुकूल उदात्त आदि स्वरसे तीनों लोकोंको प्रतिध्वनित करते हुए उस ब्राह्मणने पहले धर्मज्ञ सुदर्शनको सम्बोधित करके उससे इस प्रकार कहा-- ।। ७८ ।।

“निष्पाप सुदर्शन! तुम्हारा कल्याण हो। मैं धर्म हूँ और तुम्हारी परीक्षा लेनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुममें सत्य है--यह जानकर मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हुआ हूँ ।। ७९ ।।

“तुमने इस मृत्युको, जो सदा तुम्हारा छिद्र ढूँढ़ती हुई तुम्हारे पीछे लगी रहती थी, जीत लिया। तुमने अपने धैर्यसे मृत्युको वशमें कर लिया है || ८० ।।

“पुरुषोत्तम! तीनों लोकोंमें किसीकी भी ऐसी शक्ति नहीं है जो तुम्हारी इस सती-साध्वी पतिव्रता पत्नीकी ओर कलुषित भावनासे आँख उठाकर देख भी सके' ।। ८१ 

“यह तुम्हारे गुणोंसे तथा अपने पातित्रत्यके गुणोंद्वारा भी सदा सुरक्षित है। कोई भी इसका पराभव नहीं कर सकता। यह जो बात अपने मुहसे निकालेगी वह सत्य ही होगी । मिथ्या नहीं हो सकती ।। ८२।

“अपने तपोबलसे युक्त यह ब्रह्मवादिनी नारी संसारको पवित्र करनेके लिये अपने आधे शरीरसे ओघवती नामवाली श्रेष्ठ नदी होगी और आधे शरीरसे यह परम सौभाग्यवती सती तुम्हारी सेवामें रहेगी। योग सदा इसके वशमें रहेगा || ८३-८४ ।।

“तुम भी इसके साथ अपनी तपस्यासे प्राप्त हुए उन सनातन लोकोंमें जाओगे जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता || ८५ ।।

“तुम इसी शरीरसे उन दिव्य लोकोंमें जाओगे; क्योंकि तुमने मृत्युको जीत लिया है और तुम्हें उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त है ।। ८६ ।।

“अपने पराक्रमसे पञ्चभूतोंको लाँधचकर तुम मनके समान वेगवान्‌ हो गये हो। इस गृहस्थ-धर्मके आचरणसे ही तुमने काम और क्रोधपर विजय पा ली है” ।। ८७ ।।

'राजन्‌! राजकुमारी ओघवतीने भी तुम्हारी सेवाके बलसे स्नेह (आसक्ति), राग, आलस्य, मोह और द्रोह आदि दोषोंको जीत लिया है” ।। ८८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर भगवान्‌ इन्द्र भी श्वेत रंगके एक हजार घोड़ोंसे जुते हुए उत्तम रथको लेकर उनसे मिलनेके लिये आये ।। ८९ ।।

इस प्रकार सुदर्शनने अतिथि-सत्कारके पुण्यसे मृत्यु, आत्मा, लोक, पज्चभूत, बुद्धि, काल, मन, आकाश, काम और क्रोधको भी जीत लिया ।। ९० ||

पुरुषसिंह! इसलिये तुम अपने मनमें यह निश्चित विचार कर लो कि गृहस्थ पुरुषके लिये अतिथिको छोड़कर दूसरा कोई देवता नहीं है ।। ९१ ।।

यदि अतिथि पूजित होकर मन-ही-मन गृहस्थके कल्याणका चिन्तन करे तो उससे जो फल मिलता है उसकी सौ यज्ञोंसे भी तुलना नहीं हो सकती अर्थात्‌ सौ यज्ञोंसे भी बढ़कर है। ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है ।। ९२ ।।

जो गृहस्थ सुपात्र और सुशील अतिथिको पाकर उसका यथोचित सत्कार नहीं करता, वह अतिथि उसे अपना पाप दे उसका पुण्य लेकर चला जाता है ।। ९३ ।।

बेटा! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार पूर्वकालमें गृहस्थने जिस प्रकार मृत्युपर विजय पायी थी, वह उत्तम उपाख्यान मैंने तुमसे कहा ।। ९४ ।।

यह उत्तम आख्यान धन, यश और आयुकी प्राप्ति करानेवाला है। इससे सब प्रकारके दुष्कर्मोंका नाश हो जाता है, अतः अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको सदा ही इसके प्रति आदरबुद्धि रखनी चाहिये ।। ९५ ।।

भरतनन्दन! जो विद्दान्‌ सुदर्शनके इस चरित्रका प्रतिदिन वर्णन करता है वह पुण्यलोकोंको प्राप्त होता है- ।। ९६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्वके अन्तर्गत दानधर्मपर्वमें सुदर्शनका उपाख्यानविषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ)

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  • इस अध्यायमें वर्णित चरित्र असाधारण शक्तिसम्पन्न पुरुषोंके हैं। आजकलके साधारण मनुष्योंको इसके उस अंशका अनुकरण नहीं करना चाहिये जिसमें स्त्रीके लिये अपने शरीर-प्रदानकी बात कही गयी है। अतिथिको अन्न, जल, बैठनेके लिये आसन, रहनेके लिये स्थान, सोनेके लिये बिस्तर और वस्त्र आदि वस्तुएँ अपनी शक्तिके अनुसार समर्पित करनी चाहिये। मीठे वचनोंद्वारा उसका आदर-सत्कार भी करना चाहिये। इतना ही इस अध्यायका तात्पर्य है।


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