सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ इकसठवें अध्याय से तीन सौ पैसठवें अध्याय तक (From the 361 chapter to the 365 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ इकसठवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

 “नागराज और ब्राह्मणका परस्पर मिलन तथा बातचीत”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!र[ यह कहकर नागराज मन-ही-मन उस ब्राह्मणके कार्यका विचार करते हुए उसके पास गये ।। १ ।।

नरेश्वर! उसके निकट पहुँचकर बुद्धिमान्‌ नागेन्द्र, जो स्वभावसे ही धर्मानुरागी थे, मधुर वाणीमें बोले-- ।।

हे ब्राह्मणदेव! आप मेरे अपराधोंको क्षमा करें। मुझपर रोष न करें। मैं आपसे पूछता हूँ कि आप यहाँ किसके लिये आये हैं? आपका क्या प्रयोजन है? ।। ३ ।।

“ब्रह्मन! मैं आपके सामने आकर प्रेमपूर्वक पूछता हूँ कि गोमतीके इस एकान्त तटपर आप किसकी उपासना करते हैं?” ।। ४ ।।

ब्राह्मणने कहा--द्विजश्रेष्ठ] आपको विदित हो कि मेरा नाम धर्मरिण्य है। मैं नागराज पद्मनाभका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ। उन्हींसे मुझे कुछ काम है ।। ५ ।।

उनके स्वजनोंसे मैंने सुना है कि वे यहाँसे दूर गये हुए हैं, अतः जैसे किसान वर्षाकी राह देखता है, उसी तरह मैं भी उनकी बाट जोहता हूँ ।। ६ ।।

उन्हें कोई क्लेश न हो। वे सकुशल घर लौटकर आ जाया, इसके लिये नीरोग एवं योगयुक्त होकर मैं वेदोंका पारायण कर रहा हूँ ।। ७ ।।

नागने कहा--महाभाग! आपका आचरण बड़ा ही कल्याणमय है। आप बड़े ही साधु हैं और सज्जनोंपर स्नेह रखते हैं। किसी भी दृष्टिसे आप निन्दनीय नहीं हैं; क्योंकि दूसरोंको स्नेहदृष्टिसे देखते हैं || ८ ।।

ब्रह्मर्षे! मैं ही वह नाग हूँ, जिससे आप मिलना चाहते हैं। आप मुझे जैसा जानते हैं, मैं वैसा ही हूँ। इच्छानुसार आज्ञा दीजिये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? ।। ९ ।।

ब्रह्म! अपने स्वजन (पत्नी) से मैंने आपके आगमनका समाचार सुना है; इसलिये स्वयं ही आपका दर्शन करनेके लिये चला आया हूँ || १० ।।

द्विजश्रेष्ठी जब आप यहाँतक आ गये हैं, तब अब कृतार्थ होकर ही यहाँसे लौटेंगे; अतः बेखटके मुझे अपने अभीष्ट कार्यके साधनमें लगाइये || ११ ।।

आपने हम सब लोगोंको विशेषरूपसे अपने गुणोंसे खरीद लिया है; क्योंकि आप अपने हितकी बातको अलग रखकर मेरे ही कल्याणका चिन्तन कर रहे हैं || १२ ।।

ब्राह्मणने कहा--महाभाग नागराज! मैं आपहीके दर्शनकी लालसासे यहाँ आया हूँ। आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, जिसे मैं स्वयं नहीं जानता हूँ || १३ ।।

मैं विषयोंसे निवृत्त हो अपने-आपमें ही स्थित रहकर जीवात्माओंकी परमगतिस्वरूप परब्रह्म परमात्माकी खोज कर रहा हूँ, तो भी महान बुद्धियुक्त गृहमें आसक्त हुए इस चंचल चित्तकी उपासना करता हूँ (अतः मैं न तो आसक्त हूँ और न विरक्त ही हूँ) || १४ ।।

आप चन्द्रमाकी किरणोंकी भाँति सुखद स्पर्शवाले और स्वतः प्रकाशित होनेवाले सुयशरूपी किरणोंसे युक्त अपने मनोरम गुणोंसे ही प्रकाशमान हैं || १५ ।।

पवनाशन! इस समय मेरे मनमें एक नया प्रश्न उठा है। पहले इसका समाधान कीजिये। उसके बाद मैं आपसे अपना कार्य निवेदन करूँगा और आप उसे ध्यानसे सुनियेगा ।। १६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बासठवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

“नागराजका ब्राद्मणके पूछनेपर सूर्यमण्डलकी आश्चर्यजनक घटनाओंको सुनाना”

ब्राह्मणने कहा--नागराज! आप सूर्यके एक पहियेके रथको खींचनेके लिये बारीबारीसे जाया करते हैं। यदि वहाँ कोई आश्चर्यजनक बात आपने देखी हो तो उसे बतानेकी कृपा करें ।। १ ।।

नागने कहा--ब्रह्मन! भगवान्‌ सूर्य तो अनेकानेक आश्वर्योके स्थान हैं; क्योंकि तीनों लोकोंमें जितने भी प्राणी हैं, वे सब उन्हींसे प्रेरित होकर अपने-अपने कार्योमें प्रवृत्त होते हैं ।। २ ।।

जैसे वृक्षकी शाखाओंपर बहुत-से पक्षी बसेरा लेते हैं, उसी प्रकार सूर्यदेवकी सहस्रों किरणोंका आश्रय ले देवताओंसहित सिद्ध और मुनि निवास करते हैं ।। ३ 

महान्‌ वायुदेव सूर्यमण्डलसे निकलकर सूर्यकी किरणोंका आश्रय ले समूचे आकाशमें फैल जाते हैं। इससे बढ़कर आश्चर्य और क्‍या होगा? ।। ४ ||

ब्रह्मर्ष! प्रजाके हितकी कामनासे भगवान्‌ सूर्य उस वायुको अनेक भागोंमें विभक्त करके वर्षा-ऋतुमें जो जलकी वृष्टि करते हैं, उससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा? ।। ५ ।।

सूर्यमण्डलके मध्यमें उसके अन्तर्यामी महात्मा सूर्यदेव अपनी उत्तम प्रभासे प्रकाशित होते हुए समस्त लोकोंका निरीक्षण करते हैं, उससे बढ़कर आश्चर्य और क्‍या होगा? ।। ६ 

शुक्र नामक काला मेघ, जो आकाशमें वर्षकि समय जल उत्पन्न करता है, वह इस सूर्यका ही स्वरूप है। इससे बढ़कर और क्या आश्चर्य होगा? ।। ७ ।।

सूर्यदेव बरसातमें पृथ्वीपर जो पानी बरसाते हैं, उसे अपनी विशुद्ध किरणोंद्वारा आठ महीनेमें पुनः खींच लेते हैं। इससे बढ़कर आश्वर्यकी बात और क्या होगी? ।।

विप्रवर! जिन सूर्यदेवके विशिष्ट तेजमें साक्षात्‌ परमात्माका निवास है, जिनसे नाना प्रकारके बीज उत्पन्न होते हैं, जिनके ही सहारे चराचर प्राणियोंसहित यह समस्त पृथ्वी टिकी हुई है तथा जिनके मण्डलमें आदि-अन्तरहित महाबाहु सनातन पुरुषोत्तम भगवान्‌ नारायण विराजमान हैं, उनसे बढ़कर आश्वर्यकी वस्तु और क्या हो सकती है? ।। ९-१० ।।

किंतु इन सब आश्वर्योमें भी एक परम आश्वर्यकी यह बात जो मैंने सूर्यके सहारे निर्मल आकाशमें अपनी आँखों देखी है, उसे बता रहा हूँ--सुनिये ।। ११ ।।

पहलेकी बात है, एक दिन मध्याह्नकालमें भगवान्‌ भास्कर सम्पूर्ण लोकोंको तपा रहे थे। उसी समय दूसरे सूर्यके समान एक तेजस्वी पुरुष दिखायी दिया, जो सब ओरसे प्रकाशित हो रहा था ।। १२ ।।

वह अपने तेजसे सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करता हुआ मानो आकाशको चीरकर सूर्यकी ओर बढ़ा आ रहा था ।। १३ ।।

घीकी आहुति डालनेसे प्रज्वलित हुई अग्निके समान वह अपनी तेजोमयी किरणोंसे समस्त ज्योति-र्मण्डलको व्याप्त करके अनिर्वचनीयरूपसे द्वितीय सूर्यकी भाँति देदीप्यमान होता था ।| १४ ।।

जब वह निकट आया, तब भगवान्‌ सूर्यने उसके स्वागतके लिये अपनी दोनों भुजाएँ उसकी ओर बढ़ा दीं। उसने भी उनके सम्मानके लिये अपना दाहिना हाथ उनकी ओर बढ़ा दिया ।। १५ ।।

तत्पश्चात्‌ आकाशको भेदकर वह सूर्यकी किरणोंके समूहमें समा गया और एक ही क्षणमें तेजोराशिके साथ एकाकार होकर सूर्यस्वरूप हो गया || १६ ।।

उस समय उन दोनों तेजोंके मिल जानेपर हमलोगोंके मनमें यह संदेह हुआ कि इन दोनोंमें असली सूर्य कौन थे? जो उस रथपर बैठे हुए थे वे, अथवा जो अभी पधारे थे वे? ।। १७ ।।

ऐसी शंका होनेपर हमने सूर्यदेवसे पूछा--“भगवन्‌! ये जो दूसरे सूर्यके समान आकाशको लाँघकर यहाँतक आये थे, कौन थे?” ।। १८ ।॥।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ तीरसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तीरसठवें अध्याय के श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)

“उज्छ एवं शिलवृत्तिसे सिद्ध हुए पुरुषकी दिव्य गति”

सूर्यदेवने कहा--से न तो वायुके सखा अग्निदेव थे, न कोई असुर थे और न नाग ही थे। ये उज्छवृत्तिसे जीवननिर्वाहके व्रतका पालन करनेसे सिद्धिको प्राप्त हुए एक मुनि थे, जो दिव्यधाममें आ पहुँचे हैं ।। १ ।।

ये ब्राह्मणदेवता फल-मूलका आहार करते, सूखे पत्ते चबाते अथवा पानी या हवा पीकर रह जाते थे और सदा एकाग्रचित्त होकर ध्यानमग्न रहते थे ।। २ ।।

इन श्रेष्ठ ब्राह्मणने संहिताके मन्त्रोंद्वारा भगवान्‌ शंकरका स्तवन किया था। इन्होंने स्वर्गलोक पानेकी साधना की थी, इसलिये ये स्वर्गमें गये हैं |। ३ ।।

नागराज! ये ब्राह्मण असंग रहकर लौकिक कामनाओंका त्याग कर चुके थे और सदा उउज्छ- एवं शिलवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्नको ही खाते थे। ये निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितसाधनमें संलग्न रहते थे || ४ ।।

ऐसे लोगोंको जो उत्तम गति प्राप्त होती है, उसे न देवता, न गन्धर्व, न असुर और न नाग ही पा सकते हैं ।।

विप्रवर! सूर्यमण्डलमें मुझे यह ऐसा ही आश्चर्य दिखायी दिया था कि उज्छवृत्तिसे सिद्ध हुआ वह मनुष्य इच्छानुसार सिद्ध-गतिको प्राप्त हुआ। ब्रह्म! अब वह सूर्यके साथ रहकर समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करता है || ६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. 'उज्छ: कणश आदानं कणिशाद्यर्जनं शिलम्‌ ।' कटे हुए खेतसे वहाँ गिरे हुए अन्नके दाने बीनकर लाना अथवा बाजार उठ जानेपर वहाँ बिखरे हुए अनाजके एक-एक दानेको बीन लाना “उज्छ” कहलाता है। इसी तरह धान, गेहूँ और जौ आदिकी बाल बीनकर लाना 'शिल' कहा गया है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ चौसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चौसठवें अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणका नागराजसे बातचीत करके और उज्छव्रतके पालनका निश्चय करके अपने घरको जानेके लिये नागराजसे विदा माँगना”

ब्राह्मणने कहा--नागराज! इसमें संदेह नहीं कि यह एक आश्चर्यजनक वृत्तान्त है। इसे सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। मेरे मनमें जो अभिलाषा थी, उसके अनुकूल वचन कहकर आपने मुझे रास्ता दिखा दिया ।।

भुजंग शिरोमणे! आपका कल्याण हो। अब मैं यहाँसे चला जाऊँगा, यदि आपको मुझे कहीं भेजना हो या किसी काममें नियुक्त करना हो तो ऐसे अवसरोंपर मेरा अवश्य स्मरण करना चाहिये ।। २ ।।

नागने कहा--विप्रवर! आपने अभी अपने मनकी बात तो बतायी ही नहीं, फिर इस समय आप कहाँ चले जा रहे हैं? आपका जो कार्य है, जिसके लिये आप यहाँ आये हैं, उसे बताइये तो सही ।। ३ ।।

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले द्विजश्रेष्ठड आप कहें या न कहें। मेरे द्वारा जब आपका कार्य सम्पन्न हो जाय, तब आप मुझसे पूछकर, मेरी अनुमति लेकर अपने घरको जाइयेगा ।। ४ ।।

ब्रह्मर्ष! आपका मुझमें प्रेम है; इसलिये वृक्षके नीचे बैठे हुए बटोहीकी तरह केवल मुझे देखकर ही चल देना आपके लिये उचित नहीं है ।। ५ ।।

विप्रवर! आपमें मैं हूँ और मुझमें आप हैं, इसमें संशय नहीं है। निष्पाप ब्राह्मण! यह समस्त लोक आपका ही है। मेरे रहते हुए आपको किस बातकी चिन्ता है? ।। ६ ।।

ब्राह्मणने कहा--महाप्राज्ञ आत्मज्ञानी नागराज! यह इसी प्रकार है। देवता भी आपसे बढ़कर नहीं हैं। यह बात सर्वथा यथार्थ है ।। ७ ।।

(आपने सूर्यमण्डलमें जिन पुरुषोत्तम नारायणदेवकी स्थिति बतायी है) मैं, आप तथा समस्त प्राणी सदा जिसमें स्थित हैं वही आप हैं, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही आप भी हैं ।। ८ ।।

नागराज! मुझे पुण्यसंग्रहके विषयमें संशय हो गया था। मैं यह निश्चय नहीं कर पाता था कि किस साधनको अपनाऊँ? किंतु अब वह संदेह दूर हो गया है। साधो! अब मैं अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये उज्छव्रतका ही आचरण करूँगा ।। ९ |।

महात्मन्‌! यही मेरा निश्चय है। आपके द्वारा मेरा कार्य बड़े उत्तम ढंगसे सम्पन्न हो गया। भुजंगम! मैं कृतार्थ हो गया। आपका कल्याण हो। अब मैं जानेकी आज्ञा चाहता हूँ ।। १० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ पैसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पैसठवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

“नागराजसे विदा ले ब्राह्मणका च्यवनमुनिसे  उज्छवृत्तिकी दीक्षा लेकर साधनपरायण होना और इस कथाकी परम्पराका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--युधिषप्ठिर! इस प्रकार नागराजकी अनुमति लेकर वह दृढ़ निश्चयवाला ब्राह्मण उज्छव्र॒तकी दीक्षा लेनेके लिये भृूगुवंशी च्यवन ऋषिके पास गया ।। १ ।।

उन्होंने उसका दीक्षा-संस्कार सम्पन्न किया और वह धर्मका ही आश्रय लेकर रहने लगा। राजन! उसने उज्छवृत्तिकी महिमासे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथाको च्यवन मुनिसे भी कहा ।। २ ||

राजेन्द्र! च्यवनने भी राजा जनकके दरबारमें महात्मा नारदजीसे यह पवित्र कथा कही ।। ३ ।।

नृपश्रेष्॒ भरतभूषण! फिर अनायास ही उत्तम कर्म करनेवाले नारदजीने भी देवराज इन्द्रके भवनमें उनके पूछनेपर यह कथा सुनायी ।। ४ ।।

पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात्‌ पूर्वकालमें देवराज इन्द्रने सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके समक्ष यह शुभ कथा कही ।। ५ |।

राजन्‌! जब परशुरामजीके साथ मेरा भयंकर युद्ध हुआ था, उस समय वसुओंने मुझे यह कथा सुनायी थी ।।

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठि? इस समय जब तुमने परम धर्मके सम्बन्धमें मुझसे प्रश्न किया है, तब उसीके उत्तरमें मैंने यथार्थरूपसे यह पुण्यमयी धर्मसम्मत श्रेष्ठ कथा तुमसे कही है ।। ७ ।।

भरतनन्दन नरेश्वर! तुमने जिसके विषयमें मुझसे पूछा था, वह श्रेष्ठ धर्म यही है। वह धीर ब्राह्मण निष्काम-भावसे धर्म और अर्थसम्बन्धी कार्यमें संलग्न रहता था ।॥।

नागराजके उपदेशके अनुसार अपने कर्तव्यको समझकर उस ब्राह्मणने उसके पालनका दृढ़ निश्चय कर लिया और दूसरे वनमें जाकर उज्छशिलवृत्तिसे प्राप्त हुए परिमित अन्नका भोजन करता हुआ यम-नियमका पालन करने लगा ।। ९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


[शान्तिपर्व समाप्त]

 स्त्रीपर्व की सम्पूर्ण श्लोक संख्या  १४७२५।।।

 अब “अनुशासन पर्व ”आरंभ होता है 


अनुष्टुप्‌        (अन्य बड़े छन्द )       बड़ेछन्दोंका ३२ अक्षरोंकि    गद्य     कुल योग                                                      अनुष्टुप्‌ मानकर गिननेपर

उत्तर भारतीय पाठसे लिये गये

१३२९६॥          (६०९ )                  ८३७ ।                    १३७॥      १४२७१ ॥

दक्षिण भारतीय पाठसे लिये गये

 ४३०॥              (१७)                    २३॥                                         ४५३॥

 शान्तिपर्वकी कुल श्लोक-संख्या                                               १४७२५ ।।


 ॐ श्री परमात्मने नमः 

[महाभारत- सार]

“मनुष्य इस जगतमें हजारों माता-पिताओं तथा सैकड़ों स्त्री-पुत्रोंके संयोग-वियोगका अनुभव कर चुके हैं, करते हैं और करते रहेंगे।'

'अज्ञानी पुरुषको प्रतिदिन हर्षके हजारों और भयके सैकड़ों अवसर प्राप्त होते रहते हैं; किन्तु विद्वान पुरुषके मनपर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।'

“मैं दोनों हाथ ऊपर उठाकर पुकार-पुकारकर कह रहा हूँ, पर मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्मसे मोक्ष तो सिद्ध होता ही है; अर्थ और काम भी सिद्ध होते हैं तो भी लोग उसका सेवन क्‍यों नहीं करते!”

“कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी धर्मका त्याग न करे। धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु अनित्य।'

“यह महाभारतका सारभूत उपदेश “भारत-सावित्री” के नामसे प्रसिद्ध है। जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इसका पाठ करता है, वह सम्पूर्ण महाभारतके अध्ययनका फल पाकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है।'।   

महाभारत, स्वर्गारोहण० ५/६०-- ६४


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