सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ छप्पनवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“अतिथिके वचनोंसे संतुष्ट होकर ब्राह्मणका उसके कथनानुसार नागराजके घरकी ओर प्रस्थान”
ब्राह्मणने कहा--अतिथिदेव! मुझपर बड़ा भारी बोझ-सा लदा हुआ था, उसे आज आपने उतार दिया। यह बहुत बड़ा कार्य हो गया। आपकी यह बात जो मैंने सुनी है, दूसरोंको पूर्ण सान्त्वना प्रदान करनेवाली है || १ ।।
राह चलनेसे थके हुए बटोहीको शय्या, खड़े-खड़े जिसके पैर दुख रहे हों, उसके लिये बैठनेका आसन, प्यासेको पानी और भूखसे पीड़ित मनुष्यको भोजन मिलनेसे जितना संतोष होता है, उतनी ही प्रसन्नता मुझे आपकी यह बात सुनकर हुई है ।। २ ।।
भोजनके समय मनोवाजञ्छित अन्नकी प्राप्ति होनेसे अतिथिको, समयपर अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होनेसे अपने मनको, पुत्रकी प्राप्ति होनेसे वृद्धको तथा मनसे जिसका चिन्तन हो रहा हो, उसी प्रेमी मित्रका दर्शन होनेसे मित्रको जितना आनन्द प्राप्त होता है, आज आपने जो बात कही है, वह मुझे उतना ही आनन्द दे रही है ।। ३-४ ।।
आपने मुझे यह उपदेश क्या दिया, अन्धेको आँख दे दी। आपके इस ज्ञानमय वचनको सुनकर मैं आकाशकी ओर देखता और कर्तव्यका विचार करता हूँ ।। ५ ।।
विद्वन! आप मुझे जैसी सलाह दे रहे हैं, अवश्य ऐसा ही करूँगा। साधो! वे भगवान् सूर्य अस्ताचलकी ओर जा रहे हैं। उनकी किरणें मन्द हो गयी हैं; अतः आप इस रातमें मेरे साथ यहीं रहिये और सुखपूर्वक विश्राम करके भलीभाँति अपनी थकावट दूर कीजिये; फिर सबेरे अपने अभीष्ट स्थानको चले जाइयेगा ।। ६-७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--शत्रुसूदन! तदनन्तर वह अतिथि उस ब्राह्मणका आतिथ्य ग्रहण करके रातभर वहीं उस ब्राह्मणके साथ रहा ।। ८ ।।
मोक्षधर्मके सम्बन्धमें बातें करते हुए उन दोनोंकी वह सारी रात दिनके समान ही बड़े सुखसे बीत गयी ।। ९ ।।
फिर सबेरा होनेपर अपने कार्यकी सिद्धि चाहने-वाले उस ब्राह्मणद्वारा यथाशक्ति सम्मानित हो वह अतिथि चला गया ।। १० |।
तत्पश्चात् वह धर्मात्मा ब्राह्मण अपने अभीष्ट कार्यको पूर्ण करनेका निश्चय करके स्वजनोंकी अनुमति ले अतिथिके बताये अनुसार यथासमय नागराजके घरकी ओर चल दिया। उसने अपने शुभ कार्यको सिद्ध करनेका एक दृढ़ निश्चय कर लिया था ।। ११ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“नागपत्नीके द्वारा ब्राह्मणका सत्कार और वार्तालापके बाद ब्राह्मणके द्वारा नागराजके आगमनकी प्रतीक्षा”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! वह ब्राह्मण क्रमशः अनेकानेक विचित्र वनों, तीर्थों और सरोवरोंको लाँघता हुआ किसी मुनिके आश्रमपर उपस्थित हुआ ।। १ ।।
उस मुनिसे ब्राह्मणने अपने अतिथिके बताये हुए नागका पता पूछा। मुनिने जो कुछ बताया, उसे यथावत््रूपसे सुनकर वह पुनः आगे बढ़ा ।। २ ।।
अपने उद्देश्यको ठीक-ठीक समझनेवाला वह ब्राह्मण विधिपूर्वक यात्रा करके नागके घरपर जा पहुँचा। घरके द्वारपर पहुँचकर उसने “भो:' शब्दसे विभूषित वचन बोलते हुए पुकार लगायी--*कोई है? मैं यहाँ द्वारपर आया हूँ ।। ३ ।।
उसकी वह बात सुनकर धर्मके प्रति अनुराग रखनेवाली नागराजकी परम सुन्दरी पतिव्रता पत्नीने उस ब्राह्मणको दर्शन दिया ।। ४ ।।
उस धर्मपरायणा सतीने ब्राह्मणका विधिपूर्वक पूजन किया और स्वागत करते हुए कहा--'ब्राह्मणदेव! आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?” ।। ५ ।।
ब्राह्मणने कहा--देवि! आपने मधुर वाणीसे मेरा स्वागत और पूजन किया। इससे मेरी सारी थकावट दूर हो गयी। अब मैं परम उत्तम नागदेवका दर्शन करना चाहता हूं।।
यही मेरा सबसे बड़ा कार्य है और यही मेरा महान् मनोरथ है, मैं इसी उददेश्यसे आज नागराजके इस आश्रमपर आया हूँ ।। ७ ।।
नागपत्नीने कहा--विप्रवर! मेरे माननीय पतिदेव सूर्यदेवका रथ ढोनेके लिये गये हुए हैं। वर्षें एक बार एक मासतक उन्हें यह कार्य करना पड़ता है। पंद्रह दिनोंमें ही वे यहाँ दर्शन देंगे--इसमें संशय नहीं है || ८ ।।
मेरे पतिदेव-आर्यपुत्रके प्रवासका यह कारण आपको विदित हो। उनके दर्शनके सिवा और क्या काम है? यह मुझे बताइये; जिससे वह पूर्ण किया जाय ।। ९ |।
ब्राह्मणने कहा--सती-साध्वी देवि! मैं उनके दर्शन करनेका निश्चय करके ही यहाँ आया हूँ; अतः उनके आगमनकी प्रतीक्षा करता हुआ मैं इस महान् वनमें निवास करूँगा ।। १० ।।
जब नागराज यहाँ आ जाये, तब उन्हें शान्तभावसे यह बतला देना चाहिये कि मैं यहाँ आया हूँ। तुम्हें ऐसी बात उनसे कहनी चाहिये, जिससे वे मेरे निकट आकर मुझे दर्शन दें ।। ११ |।
मैं भी यहाँ गोमतीके सुन्दर तटपर परिमित आहार करके तुम्हारे बताये हुए समयकी प्रतीक्षा करता हुआ निवास करूँगा ।। १२ ।।
तदनन्तर वह श्रेष्ठ ब्राह्मण नागपत्नीको बारंबार (नागराजको भेजनेके लिये) जताकर गोमती नदीके तटपर ही चला गया ।। १३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ अट्ठावनवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“नागराजके दर्शनके लिये ब्राह्णकी तपस्या तथा नागराजके परिवारवालोंका भोजनके लिये ब्राह्मणसे आग्रह करना”
भीष्मजी कहते हैं--नरश्रेष्ठ]! तदनन्तर गोमतीके तटपर रहता हुआ वह ब्राह्मण निराहार रहकर तपस्या करने लगा। उसके भोजन न करनेसे वहाँ रहनेवाले नागोंको बड़ा दुःख हुआ ।। १ |।
तब नागराजके भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र सब मिलकर उस ब्राह्मणके पास गये ।। २ ।।
उन्होंने देखा, ब्राह्मण गोमतीके तटपर एकान्त प्रदेशमें व्रत और नियमके पालनमें तत्पर हो निराहार बैठा हुआ है और मन्त्रका जप कर रहा है ।। ३ ।।
अतिथि-सत्कारके लिये प्रसिद्ध हुए नागराजके सब भाई-बन्धु ब्राह्मणके पास जा उसकी बारंबार पूजा करके संदेहरहित वाणीमें बोले-- ।। ४ ।।
धर्मवत्सल तपोधन! आपको यहाँ आये आज छ: दिन हो गये; किंतु अभीतक आप कुछ भोजन लानेके लिये हमें आज्ञा नहीं दे रहे हैं || ५ ।।
आप हमारे घर अतिथिके रूपमें आये हैं और हम आपकी सेवामें उपस्थित हुए हैं। आपका आतिथ्य करना हमारा कर्तव्य है; क्योंकि हम सब लोग गृहस्थ हैं ।।
द्विजश्रेष्ठ ब्राह्मणदेव! आप क्षुधाकी निवृत्तिके लिये हमारे लाये हुए फल-मूल, साग, दूध अथवा अन्नको अवश्य ग्रहण करनेकी कृपा करें ।। ७ ।।
“इस वनमें रहकर आपने भोजन छोड़ दिया है। इससे हमारे धर्ममें बाधा आती है। बालकसे लेकर वृद्धतक हम सब लोगोंको इस बातसे बड़ा कष्ट हो रहा है || ८ ।।
“हमारे इस कुलमें कोई भी ऐसा नहीं है, जिसने कभी भ्रूणहत्या की हो, जिसकी संतान पैदा होकर मर गयी हो, जिसने मिथ्या भाषण किया हो अथवा जो देवता, अतिथि एवं बन्धुओंकों अन्न देनेके पहले ही भोजन कर लेता हो” ।। ९ ।।
ब्राह्मणने कहा--नागगण! आपलोगोंके इस उपदेशसे ही मैं तृप्त हो गया। आपलोग ऐसा समझें कि मैंने यह आहार ही प्राप्त कर लिया। नागराजके आनेमें केवल आठ रातें बाकी हैं ।। १० ।।
यदि आठ रात बीत जानेपर भी नागराज नहीं आयेंगे तो मैं भोजन कर लूँगा। उनके आगमनके लिये ही मैंने यह व्रत लिया है ।। ११ ।।
आपलोगोंको इसके लिये संताप नहीं करना चाहिये। आप जैसे आये हैं, वैसे ही घर लौट जाइये। नागराजके दर्शनके लिये ही मेरा यह सारा व्रत और नियम है। अतः आपलोग इसे भंग न करें ।। १२ ।।
नरश्रेष्ठ! उस ब्राह्मणके इस प्रकार आदेश देनेपर वे नाग अपने प्रयत्नमें असफल हो घरको ही लौट गये ।। १३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ उनसठवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“नागराजका घर लौटना, पत्नीके साथ उनकी धर्मविषयक बातचीत तथा पत्नीका उनसे ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये अनुरोध”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर कई दिनोंका समय पूरा होनेपर जब नागराजका काम पूरा हो गया, तब सूर्यदेवकी आज्ञा पाकर वे अपने घरको लौटे ।। १ ।।
वहाँ नागराजकी पत्नी पैर धोनेके लिये जल--पाद्य आदि उत्तम सामग्रियोंके साथ पतिकी सेवामें उपस्थित हुई। अपनी साध्वी पत्नीको समीप आयी देख नागराजने पूछा --|[।२॥।।
“कल्याणि! मेरे द्वारा बतायी हुई उपयुक्त विधिसे युक्त हो तुम मेरे ही समान देवताओं और अतिथियोंके पूजनमें तत्पर तो रही हो न? ।। ३ ।।
'सुन्दरि! मेरे वियोगने तुम्हें शिथिल तो नहीं कर दिया था? तुम्हारी स्त्री-बुद्धिके कारण कहीं धर्मकी मर्यादा असफल या अरक्षित तो नहीं रह गयी और उसके कारण तुम धर्मपालनसे विमुख या दूर तो नहीं हो गयी? ।। ४ ।।
नागपत्नीने कहा--शिष्योंका धर्म है गुरुकी सेवा करना, ब्राह्मणोंका धर्म है वेदोंको धारण करना, सेवकोंका धर्म है स्वामीकी आज्ञाका पालन तथा राजाका धर्म है प्रजावर्गका सतत संरक्षण ।। ५ ||
इस जगत्में समस्त प्राणियोंकी रक्षा करना क्षत्रिय-धर्म बताया जाता है। अतिथिसत्कारके साथ-साथ यज्ञोंका अनुष्ठान करना वैश्योंका धर्म कहा गया है ।। ६ ।।
नागराज! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--तीनों वर्णोकी सेवा करना शूद्रका कर्तव्य बताया गया है और समस्त प्राणियोंके हितकी इच्छा रखना गृहस्थका धर्म है ।। ७ ।।
नियमित आहारका सेवन और विधिवत् व्रतका पालन सबका धर्म है। धर्म-पालनके सम्बन्धसे इन्द्रियोंकी विशेषरूपसे शुद्धि होती है ।। ८ ।।
“मैं किसका हूँ? कहाँसे आया हूँ, मेरा कौन है? तथा इस जीवनका प्रयोजन क्या है?! इत्यादि बातोंका सदा विचार करते हुए ही संन्यासीको संन्यास-आश्रममें रहना चाहिये ।। ९ ।।
नागराज! पत्नीके लिये पातिव्रत्य ही सबसे बड़ा धर्म कहा जाता है। आपके उपदेशसे अपने उस धर्मको मैं अच्छी तरह समझती हूँ || १० ।।
जब आप- मेरे पतिदेव सदा धर्मपर स्थित रहते हैं, तब धर्मको जानती हुई भी मैं कैसे सन्मार्गका त्याग करके कुमार्गपर पैर रखूँगी? ।। ११ ।।
महाभाग! देवताओंकी आराधनारूप धर्मचर्यामें कोई कमी नहीं आयी है, अतिथियोंके सत्कारमें भी मैं सदा आलस्य छोड़कर लगी रही हूँ |। १२ ।।
परंतु आज पंद्रह दिनसे एक ब्राह्मणदेवता यहाँ पधारे हुए हैं। वे मुझसे अपना कोई कार्य नहीं बता रहे हैं। केवल आपका दर्शन चाहते हैं ।। १३ ।॥।
वे कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण वेदोंका पारायण करते हुए आपके दर्शनके लिये उत्सुक हो गोमतीके किनारे बैठे हुए हैं || १४ ।।
नागराज! उन्होंने मुझसे पहले सच्ची प्रतिज्ञा करा ली है कि नागराजके आते ही तुम उन्हें मेरे पास भेज देना || १५ ।।
महाप्राज्ञ नागराज! मेरी यह बात सुनकर अब आपको वहाँ जाना चाहिये और ब्राह्मणदेवताको दर्शन देना चाहिये || १६ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ साठवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“पत्नीके धर्मयुक्त वचनोंसे नागराजके अभिमान एवं रोषका नाश और उनका ब्राह्मणको दर्शन देनेके लिये उद्यत होना”
नागने पूछा--पवित्र मुसकानवाली देवि! ब्राह्मणरूपमें तुमने किसका दर्शन किया है? वे ब्राह्मण कोई मनुष्य हैं या देवता? ।। १ ।।
यशस्विनि! भला, कौन मनुष्य मुझे देखनेकी इच्छा कर सकता है और यदि दर्शनकी इच्छा करे भी तो कौन इस तरह मुझे आज्ञा देकर बुला सकता है? ।। २ ।।
भाविनि! सुरसाके वंशज नाग महापराक्रमी और अत्यन्त वेगशाली होते हैं। वे देवताओं, असुरों और देवर्षियोंके लिये भी वन्दनीय हैं। हमलोग भी अपने सेवकको वर देनेवाले हैं। विशेषतः मनुष्योंके लिये हमारा दर्शन सुलभ नहीं है, ऐसी मेरी धारणा है || ३-४ ||
नागपत्नी बोली--अत्यन्त क्रोधी स्वभाववाले वायुभोजी नागराज! उन ब्राह्मणकी सरलतासे तो मैं यही समझती हूँ कि वे देवता नहीं हैं। मुझे उनमें एक बहुत बड़ी विशेषता यह जान पड़ी है कि वे आपके भक्त हैं ।। ५ ।।
जैसे वर्षकि जलका प्रेमी प्यासा पपीहा पक्षी पानीके लिये वर्षाकी बाट जोहता रहता है, उसी प्रकार वे ब्राह्मण किसी दूसरे कार्यको सिद्ध करनेकी इच्छासे आपका दर्शन चाहते हैं।
वे आपका दर्शन छोड़कर दूसरी किसी वस्तुको विघ्न समझते हैं; अतः वह विषघ्न उन्हें नहीं प्राप्त होना चाहिये। उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ आपके समान कोई सदगृहस्थ अतिथिकी उपेक्षा करके घरमें नहीं बैठता है ।। ७ ।।
अतः आप अपने सहज रोषको त्यागकर इन ब्राह्मणदेवताका दर्शन कीजिये। आज इनकी आशा भंग करके अपने-आपको भस्म न कीजिये ।। ८ ।।
जो आशा लगाकर अपनी शरणमें आये हों, उनके आँसू जो नहीं पोंछता है, वह राजा हो या राजकुमार, उसे भ्रूणहत्याका पाप लगता है || ९ ।।
मौन रहनेसे ज्ञानरूपी फलकी प्राप्ति होती है, दान देनेसे महान् यशकी वृद्धि होती है। सत्य बोलनेसे वाणीकी पटुता और परलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त होती है ।।
भूदान करनेसे मनुष्य आश्रम-धर्मके पालनके समान उत्तम गति पाता है। न्यायपूर्वक धनका उपार्जन करके पुरुष श्रेष्ठ फलका भागी होता है || ११ ।।
अपनी रुचिके अनुकूल कर्म भी यदि पापके सम्पर्कसे रहित और अपने लिये हितकर हो तो उसे करके कोई भी नरकमें नहीं पड़ता है। ऐसा धर्मज्ञ पुरुष जानते हैं ।। १२।।
नागने कहा--साध्वि! मुझमें अहंकारके कारण अभिमान नहीं है; अपितु जातिदोषके कारण महान् रोष भरा हुआ है। मेरे उस संकल्पजनित रोषको अब तुमने अपनी वाणीरूप अग्निसे जलाकर भस्म कर दिया ।। १३ |।
पतिव्रते! मैं रोषसे बढ़कर मोहमें डालनेवाला दूसरा कोई दोष नहीं देखता और क्रोधके लिये सर्प ही अधिक बदनाम हैं ।। १४ ।।
इन्द्रसे भी टक्कर लेनेवाला प्रतापी दशानन रावण रोषके ही अधीन होकर युद्धमें श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे मारा गया ।। १५ ।।
“होमधेनुके बछड़ेका अपहरण करके उसे राजाके अन्तःपुरमें रख दिया गया है” ऐसा सुनकर परशुरामजीने तिरस्कारजनक रोषसे भरे हुए कार्तवीर्य-पुत्रोंकी मार डाला ।। १६ ।।
महाबली राजा कार्तवीर्य अर्जुन इन्द्रके समान पराक्रमी था; परंतु रोषके ही कारण जमदग्निनन्दन परशुरामके द्वारा युद्धमें मारा गया || १७ ।।
इसलिये आज तुम्हारी बात सुनकर ही तपस्याके शत्रु और कल्याणमार्गसे भ्रष्ट करनेवाले इस क्रोधको मैंने काबूमें कर लिया है || १८ ।।
विशाललोचने! मैं अपनी एवं अपने सौभाग्यकी विशेषरूपसे प्रशंसा करता हूँ, जिसे तुम-जैसी सदगुणवती तथा कभी विलग न होनेवाली पत्नी प्राप्त हुई है ।। १९ ।।
यह लो, अब मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ वे ब्राह्मण देवता विराजमान हैं। वे जो कहेंगे वही करूँगा। वे सर्वथा कृतार्थ होकर यहाँसे जायँगे || २० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें