सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ इक्यावनवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्मा और रुद्रके संवादमें नारायणकी महिमाका विशेषरूपसे वर्णन”
ब्रह्माजीने कहा--बेटा! यह विराट् पुरुष जिस प्रकार सनातन, अविकारी, अविनाशी, अप्रमेय और सर्वव्यापी बताया जाता है, वह सुनो ।। १ ।।
साधुशिरोमणे! तुम, मैं अथवा दूसरे लोग भी उस सगुण-निर्गुण विश्वात्मा पुरुषको इन चर्म-चक्षुओंसे नहीं देख सकते। वे ज्ञानसे ही देखने योग्य माने गये हैं। ॥२ ।।
वे स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरोंसे रहित होकर भी सम्पूर्ण शरीरोंमें निवास करते हैं और उन शरीरोंमें रहते हुए भी कभी उनके कर्मोंसे लिप्त नहीं होते हैं |। ३ ।।
वे मेरे, तुम्हारे तथा दूसरे जो देहधारी संज्ञावाले जीव हैं, उनके भी अन्तरात्मा हैं। सबके साक्षी वे पुरुषोत्तम श्रीहरि कहीं किसीके द्वारा भी पकड़में नहीं आते ।। ४ ।।
सम्पूर्ण विश्व ही उनका मस्तक, भुजा, पैर, नेत्र और नासिका है। वे स्वच्छन्द विचरनेवाले एकमात्र पुरुषोत्तम सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें सुखपूर्वक विचरण करते हैं ।।
वे योगात्मा श्रीहरि क्षेत्रसंत्चक शरीरोंको और शुभाशुभ कर्मरूप उनके कारणको भी जानते हैं, इसलिये क्षेत्रज् कहलाते हैं ।। ६ ।।
समस्त प्राणियोंमेंसे कोई भी यह नहीं जान पाता कि वे किस तरह शरीरोंमें आते और जाते हैं? मैं क्रमश: सांख्य और योगकी विधिसे उनकी गतिका चिन्तन करता हूँ; परंतु उस उत्कृष्ट गतिको समझ नहीं पाता। तथापि मुझे जैसा अनुभव है, उसके अनुसार उस सनातन पुरुषका वर्णन करता हूँ ।। ७-८ ।।
उनमें एकत्व भी है और महत्त्व भी; अतः एकमात्र वे ही पुरुष माने गये हैं। एक सनातन श्रीहरि ही महापुरुष नाम धारण करते हैं ।। ९ ।।
अग्नि एक ही है; परंतु वह अनेक रूपोंमें प्रजजलित एवं प्रकाशित होती है। एक ही सूर्य सारे जगत्को ताप एवं प्रकाश देते हैं। तप अनेक प्रकारका है; परंतु उसका मूल एक ही है। एक ही वायु इस जगतमें विविध रूपसे प्रवाहित होती है तथा समस्त जलोंकी उत्पत्ति और लयका स्थान समुद्र भी एक ही है। उसी प्रकार वह निर्गुण विश्वरूप पुरुष भी एक ही है। उसी निर्गुण पुरुषमें सबका लय होता है || १० ।।
देह, इन्द्रिय आदि समस्त गुणमय पदार्थोकी ममता छोड़कर शुभाशुभ कर्मको त्यागकर तथा सत्य और मिथ्या दोनोंका परित्याग करके ही कोई साधक निर्गुण हो सकता है ।। ११ ||
जो चारों सूक्ष्म भावोंसे युक्त उस निर्गुण पुरुषको अचिन्त्य जानकर अहंकारशून्य होकर विचरण करता है, वही कल्याणमय परम पुरुषको प्राप्त होता है || १२ ।।
इस प्रकार कुछ विद्वान् (अपनेसे भिन्न) परमात्माको पाना चाहते हैं। कुछ अपनेसे अभिन्न परमात्मा-एकात्माको पानेकी इच्छा रखते हैं तथा दूसरे विचारक केवल आत्माको ही जानना या पाना चाहते हैं ।। १३ ।।
इनमें जो परमात्मा है, वह नित्य निर्गुण माना गया है। उसीको नारायण नामसे जानना चाहिये। वही सर्वात्मा पुरुष है ।। १४ ।।
जैसे कमलका पत्ता पानीमें रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मा कर्मफलोंसे निर्लिप्त रहता है। परंतु जो कर्मोका कर्ता है एवं बन्धन और मोक्षसे सम्बन्ध जोड़ता है, वह जीवात्मा उससे भिन्न है ।। १५ ||
उसीका पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मन्द्रिय, पाँच भूत, मन और बुद्धि--इन सत्रह तत्त्वोंके राशिभूत सूक्ष्म शरीरसे संयोग होता है। वही कर्मभेदसे देव-तिर्यक् आदि भावोंको प्राप्त होनेके कारण बहुविध बताया गया है। इस प्रकार तुम्हें क्रमशः पुरुषकी एकता और अनेकताकी बात बतायी गयी ।। १६ ।।
जो लोकततन्त्रका सम्पूर्ण धाम या प्रकाशक है, वह परम पुरुष ही वेदनीय (जाननेयोग्य) परम तत्त्व है। वही ज्ञाता और वही ज्ञातव्य है। वही मनन करनेवाला और वही मननीय वस्तु है। वही भोक्ता और वही भोज्य पदार्थ है। वही सूँघनेवाला और वही सूँघनेयोग्य वस्तु है। वही स्पर्श करनेवाला तथा वही स्पर्शके योग्य वस्तु है ।। १७ ।।
वही द्रष्टा और द्रष्टव्य है। वही सुनानेवाला और सुनानेयोग्य वस्तु है। वही ज्ञाता और ज्ञेय है तथा वही सगुण और निर्गुण है। तात! जिसे सम्यक् प्रधान तत्त्व कहा गया है, वह भी यह पुरुष ही है। यह नित्य सनातन और अविनाशी तत्त्व है ।। १८ ।।
वही मुझ विधाताके आदि विधानको उत्पन्न करता है। विद्वान ब्राह्यण उसीको अनिरुद्ध कहते हैं। लोकमें सकाम भावसे जो वैदिक सत्कर्म किये जाते हैं, वे उस अनिरुद्धात्मा पुरुषकी प्रसन्नताके लिये ही होते हैं--ऐसा चिन्तन करना चाहिये ।। १९ ।।
सम्पूर्ण देवता और शान्त स्वभाववाले मुनि यज्ञशालामें यज्ञभागोंद्वारा उसीका यजन करते हैं। मैं प्रजाओंका आदि ईश्वर ब्रह्मा उसी परम पुरुषसे उत्पन्न हुआ हूँ और मुझसे तुम्हारी उत्पत्ति हुई है || २० ।।
पुत्र! मुझसे यह चराचर जगत् तथा रहस्यसहित सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं ।।
वासुदेव आदि चार व्यूहोंमें विभक्त हुए वे परम पुरुष ही जैसी इच्छा होती है, वैसी क्रीड़ा करते हैं। इसी तरह वे भगवान् अपने ही ज्ञानसे जाननेमें आते हैं || २२ ।।
पुत्र! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने यथावत््रूपसे ये सब बातें बतायी हैं। सांख्य और योगमें इस विषयका यथार्थरूपसे वर्णन किया गया है ।। २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारायणकी मह्दिमाका उपसंहारविषयक तीन सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बावनवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“नारदके द्वारा इन्द्रको उज्छवृत्तिवाले ब्राह्णकी कथा सुनानेका उपक्रम”
युधिष्ठिरने कहा--पितामह! आपके बतलाये हुए कल्याणमय मोक्षसम्बन्धी धर्मोंका मैंने श्रवण किया। अब आप आश्रमधर्मोंका पालन करनेवाले मनुष्योंके लिये जो सबसे उत्तम धर्म हो, उसका उपदेश करें || १ ॥।
भीष्मजीने कहा--राजन्! सभी आश्रमोंमें स्वरर्भपालनका विधान है, सबमें स्वर्गका तथा महान् सत्यफल--मोक्षका भी साधन है। धर्मके यज्ञ, दान, तप आदि बहुत-से द्वार हैं; अतः इस जगत्में धर्मकी कोई भी क्रिया निष्फल नहीं होती || २ ।।
भरतश्रेष्ठ! जो-जो मनुष्य जिस-जिस विषय-स्वर्ग या मोक्षके लिये साधन करके उसमें सुनिश्चित सफलताको प्राप्त कर लेता है, उसी साधन या धर्मको वह श्रेष्ठ समझता है, दूसरेको नहीं ।। ३ ।।
पुरुषसिंह! इस विषयमें मैं तुम्हें एक कथा सुना रहा हूँ, उसे सुनो। पूर्वकालमें महर्षि नारदने इन्द्रको यह कथा सुनायी थी || ४ ।।
राजन! महर्षि नारद तीनों लोकोंद्वारा सम्मानित सिद्ध पुरुष हैं। वायुके समान उनकी सर्वत्र अबाधित गति है। वे क्रमश: सभी लोकोंमें घूमते रहते हैं || ५ ।।
महाधनुर्धर नरेश! एक समय वे नारदजी देवराज इन्द्रके यहाँ पधारे। इन्द्रने उन्हें अपने समीप ही बिठाकर उनका बड़ा आदर-सत्कार किया ॥। ६ ।।
जब नारदजी थोड़ी देर बैठकर विश्राम ले चुके, तब शचीपति इन्द्रने पूछा-“निष्पाप महर्षे! इधर आपने कोई आश्चर्यजनक घटना देखी है क्या? ।। ७ ।।
“ब्रह्मर्ष। आप सिद्ध पुरुष हैं और कौतूहलवश चराचर प्राणियोंसे युक्त तीनों लोकोंमें सदा साक्षीकी भाँति विचरते रहते हैं ।। ८ ।।
*देवर्ष! जगतमें कोई भी ऐसी बात नहीं है, जो आपको ज्ञात न हो। यदि आपने कोई अद्भुत बात देखी हो, सुनी हो अथवा अनुभव की हो तो वह मुझे बताइये' ।। ९ ।।
राजन्! उनके इस प्रकार पूछनेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ नारदजीने अपने पास ही बैठे हुए सुरेन्द्रको एक विस्तृत कथा सुनायी ।। १० ।।
इन्द्रके पूछनेपर द्विजश्रेष्ठ नारदने उन्हें जैसे और जिस ढंगसे वह कथा कही थी, वैसे ही मैं भी कहूँगा। तुम भी मेरी कही हुई उस कथाको ध्यान देकर सुनो ।।११।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तिरपनवें अध्याय के श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
“महापदपुरमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मगके सदाचारका वर्णन और उसके घरपर अतिथिका आगमन”
भीष्मजी कहते हैं--नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर! (नारदजीने जो कथा सुनायी, वह इस प्रकार है --) गंगाके दक्षिणतटपर महापद्म नामक कोई श्रेष्ठ नगर है। वहाँ एक ब्राह्मण रहता था। वह एकाग्रचित्त और सौम्य स्वभावका मनुष्य था। उसका जन्म चन्द्रमाके कुलमें-अत्रिगोत्रमें हुआ था। वेदमें उसकी अच्छी गति थी और उसके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था। वह सदा धर्मपरायण, क्रोधरहित, नित्य संतुष्ट, जितेन्द्रिय, तप और स्वाध्यायमें संलग्न, सत्यवादी और सत्पुरुषोंके सम्मानका पात्र था। न्यायोपार्जित धन और अपने ब्राह्मणोचित शीलसे सम्पन्न था ।। १--३ ।।
उसके कुलमें सगे-सम्बन्धियोंकी संख्या अधिक थी। सभी लोग सच्त्वप्रधान सदगुणोंका सहारा लेकर श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करते थे। उस महान् एवं विख्यात कुलमें रहकर वह उत्तम आजीविकाके सहारे जीवन-निर्वाह करता था ।। ४ ।।
राजन! उसने देखा कि मेरे बहुत-से पुत्र हो गये, तब वह लौकिक कार्यसे विरक्त हो महान् कर्ममें संलग्न हो गया और अपने कुलधर्मका आश्रय ले धर्माचरणमें ही तत्पर रहने लगा ।। ५ ||
तदनन्तर उसने वेदोक्त धर्म, शास्त्रोक्त धर्म तथा शिष्ट पुरुषोंद्वारा आचरित धर्म--इन तीन प्रकारके धर्मोंपर मन-ही-मन विचार करना आरम्भ किया-- ।।
क्या करनेसे मेरा कल्याण होगा? मेरा क्या कर्तव्य है तथा कौन मेरे लिये परम आश्रय है?” इस प्रकार वह सदा सोचते-सोचते खिन्न हो जाता था; परंतु किसी निर्णयपर नहीं पहुँच पाता था | ७ ||
एक दिन जब वह इसी तरह सोच-विचारमें पड़ा हुआ कष्ट पा रहा था, उसके यहाँ एक परम धर्मात्मा तथा एकाग्रचित्त ब्राह्मण अतिथिके रूपमें आ पहुँचा ।। ८ ।।
ब्राह्मणने उस अतिथिका क्रियायुक्त हेतु (शास्त्रोक्त विधि) से आदर-सत्कार किया और जब वह सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करने लगा, तब उससे इस प्रकार कहा ।। ९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चौवनवें अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
“अतिथिद्दारा स्वर्गके विभिन्न मार्गोका कथन”
ब्राह्मण बोला--निष्पाप! आपकी मीठी बातें सुनकर ही मैं आपके प्रति स्नेह धनसे बँँध गया हूँ। आपके ऊपर मेरा मित्रभाव हो गया है; अतः आपसे कुछ कह रहा हूँ मेरी बात सुनिये ।। १ |।
विप्रवर! मैं गृहस्थ-धर्मको अपने पुत्रोंके अधीन करके सर्वश्रेष्ठ धर्मका पालन करना चाहता हूँ। ब्रह्म! बताइये, मेरे लिये कौन-सा मार्ग श्रेयस्कर होगा? ।। २ ।।
कभी मेरी इच्छा होती है कि अकेला ही रहूँ और आत्माका आश्रय लेकर उसीमें स्थित हो जाऊँ? परंतु इन तुच्छ विषयोंसे बँधा होनेके कारण वह इच्छा नष्ट हो जाती है || ३ ।।
अबतककी सारी आयु पुत्रसे फल पानेकी कामनामें ही बीत गयी। अब ऐसे धर्ममय धनका संग्रह करना चाहता हूँ, जो परलोकके मार्गमें पाथेय (राहखर्च) का काम दे सके ।। ४ ।।
मुझे इस संसारसागरसे पार जानेकी इच्छा हुई है, अतः मेरे मनमें यह जिज्ञासा हो रही है कि मुझे धर्ममयी नौका कहाँसे प्राप्त होगी? ।। ५ ।।
जब मैं सुनता हूँ कि संसारमें विषयोंके सम्पर्कमें आये हुए साक्चिक पुरुष भी तरह तरहकी यातनाएँ भोगते हैं तथा जब देखता हूँ कि समस्त प्रजाके ऊपर यमराजकी ध्वजाएँ फहरा रही हैं, तब भोगकालमें भोगोंके प्राप्त होनेपर भी उन्हें भोगनेकी रुचि मेरे मनमें नहीं होती है। जब संन्यासियोंको भी दूसरोंके दरवाजोंपर अन्न-वस्त्रकी भीख माँगते देखता हूँ, तब उस संन्यास-धर्ममें भी मेरा मन नहीं लगता है; अतः: अतिथिदेव! आप अपनी ही बुद्धिके बलसे अब मुझे धर्मद्वारा धर्ममें लगाइये ।। ६-७ ।।
धर्मयुक्त वचन बोलनेवाले उस ब्राह्मणकी बात सुनकर उस विद्वान् अतिथिने मधुर वाणीमें यह उत्तम वचन कहा ।। ८ ।।
अतिथिने कहा--विप्रवर! मेरा भी ऐसा ही मनोरथ है। मैं भी आपकी ही भाँति श्रेष्ठ धर्मका आश्रय लेना चाहता हूँ, परंतु मुझे भी इस विषयमें मोह ही बना हुआ है। स्वर्गके अनेक द्वार (साधन) हैं, अतः किसका आश्रय लिया जाय? इसका निश्चय मैं भी नहीं कर पाता हूँ ।। ९ ।।
कोई द्विज मोक्षकी प्रशंसा करते हैं तो कोई यज्ञफलकी। कोई वानप्रस्थ-धर्मका आश्रय लेते हैं तो कोई गार्हस्थ्य-धर्मका ।। १० ।।
कोई राजधर्म, कोई आत्मज्ञान, कोई गुरुशुश्रुषा और कोई मौनव्रतका ही आश्रय लिये बैठे हैं ।। ११ ।।
कुछ लोग माता-पिताकी सेवा करके ही स्वर्गमें चले गये। कोई अहिंसासे और कोई सत्यसे ही स्वर्गलोकके भागी हुए हैं ।। १२ ।।
कुछ वीर पुरुष युद्धमें शत्रुओंका सामना करते हुए मारे जाकर स्वर्गलोकमें जा पहुँचे हैं। कितने ही मनुष्य उज्छवृत्तिके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके स्वर्गगामी हुए हैं ।। १३ ।।
कुछ बुद्धिमान् पुरुष संतुष्टचित्त और जितेन्द्रिय हो वेदोक्त व्रतका पालन तथा स्वाध्याय करते हुए शुभसम्पन्न हो स्वर्गलोकमें स्थान प्राप्त कर चुके हैं ।। १४ ।।
कितने ही सरल और शुद्धात्मा पुरुष सरलतासे ही संयुक्त हो कुटिल मनुष्योंद्वारा मारे गये और स्वर्ग-लोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं || १५ ।।
इस प्रकार लोकमें धर्मके विविध एवं बहुत-से दरवाजे खुले हुए हैं, उनसे मेरी बुद्धि भी उसी प्रकार उद्विग्न एवं चंचल हो उठी है, जैसे वायुसे मेघोंकी घटा ।। १६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पचपनवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“अतिथिद्वारा नागराज पद्मनाभके सदाचार और सदगुणोंका वर्णन तथा ब्राह्णको उसके पास जानेके लिये प्रेरणा”
अतिथिने कहा--विप्रवर! मेरे गुरुने इस विषयमें जो तातक््विक बात बतलायी है, उसीका मैं तुमको क्रमश: उपदेश करूँगा। तुम मेरे इस कथनको सुनो ।। १ ।।
द्विजश्रेष्ठ! पूर्वकल्पमें जहाँ प्रजापतिने धर्मचक्र प्रवर्तित किया था, सम्पूर्ण देवताओंने जहाँ यज्ञ किया था तथा जहाँ राजाओंमें श्रेष्ठ मान्धाता यज्ञ करनेमें इन्द्रसे भी आगे बढ़ गये थे, उस नैमिषारण्यमें गोमतीके तटपर नागपुर नामक एक नगर है ।। २-३ ।।
वहाँ एक महान् धर्मात्मा सर्प निवास करता है। उस महानागका नाम तो है पद्मनाभ; परंतु पद्म नामसे ही उसकी प्रसिद्धि है ।। ४ ।।
द्विजश्रेष्ठ ! पद्म मन, वाणी और क्रियाद्वारा कर्म, उपासना और ज्ञान--इन तीनों मार्गोका आश्रय लेकर रहता और सम्पूर्ण भूतोंको प्रसन्न रखता है ।। ५ ।।
वह विषमतापूर्ण बर्ताव करनेवाले पुरुषको साम, दान, दण्ड और भेद-नीतिके द्वारा राहपर लाता है, समदर्शीकी रक्षा करता है और नेत्र आदि इन्द्रियोंको विचारके द्वारा कुमार्गमें जानेसे बचाता है || ६ ।।
तुम उसीके पास जाकर विधिपूर्वक अपना मनोवांछित प्रश्न पूछो। वह तुम्हें परम उत्तम धर्मका दर्शन करायेगा; मिथ्या धर्मका उपदेश नहीं करेगा ।। ७ ।।
वह नाग बड़ा बुद्धिमान् और शास्त्रोंका पण्डित है। सबका अतिथि-सत्कार करता है। समस्त अनुपम तथा वाउ्छनीय सदगुणोंसे सम्पन्न है || ८ ।।
स्वभाव तो उसका पानीके समान है। वह सदा स्वाध्यायमें लगा रहता है। तप, इन्द्रियसंयम तथा उत्तम आचार-विचारसे संयुक्त है ।। ९ |।
वह यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला, दानियोंका शिरोमणि, क्षमाशील, श्रेष्ठ सदाचारमें संलग्न, सत्यवादी, दोषदृष्टिसे रहित, शीलवान् और जितेन्द्रिय है ।। १० ।।
यज्ञशेष अन्नका वह भोजन करता है, अनुकूल वचन बोलता है, हित और सरलभावसे रहता है। उत्कृष्ट कर्तव्य और अकर्तव्यको जानता है, किसीसे भी वैर नहीं करता है। समस्त प्राणियोंके हितमें लगा रहता है तथा वह गंगाजीके समान पवित्र एवं निर्मल कुलमें उत्पन्न हुआ है ।। ११ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें उज्छवृत्तिका उपाख्यानविषयक तीन सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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