सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ उनचासवाँ अध्याय व तीन सौ पचासवाँ अध्याय (From the 349 chapter and the 350 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ उन्चासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ उन्चासवें अध्याय के श्लोक 1-74 का हिन्दी अनुवाद)

“व्यासजीका सृष्टिके प्रारम्भमें भगवान्‌ नारायणके अंशसे सरस्वतीपुत्र अपान्तरतमाके रूपमें जन्म होनेकी और उनके प्रभावकी कथा”

जनमेजयने पूछा--ब्रह्मर्ष! सांख्य, योग, पाउ्चरात्र और वेदोंके आरण्यकभाग--ये चार प्रकारके ज्ञान सम्पूर्ण लोकोंमें प्रचलित हैं || १ ।।

मुने! क्या ये सब एक ही लक्ष्यका बोध करानेवाले हैं अथवा पृथक्‌-पृथक्‌ लक्ष्यके प्रतिपादक हैं? मेरे इस प्रश्नचका आप यथावत्‌ उत्तर दें और प्रवृत्तिका भी क्रमश: वर्णन करें ।। २ ।॥।

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! देवी सत्यवतीने यमुनातटवर्ती द्वीपमें पराशर मुनिसे अपने शरीरका संयोग करके जिन बहुज्ञ और अत्यन्त उदार महर्षिको पुत्ररूपसे उत्पन्न किया था, अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करनेवाले ज्ञानसूर्यस्वरूप उन गुरुदेव व्यासजीको मेरा नमस्कार है ।। ३ ।।

ब्रह्माजीके आदिपुरुष जो नारायण हैं, उनके स्वरूपभूत जिन महर्षिको पूर्वपुरुष नारायणसे छठी पीढ़ीमें- उत्पन्न बताते हैं, जो ऋषियोंके सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं, नारायणके अंशसे उत्पन्न हैं, अपने पिताके एक ही पुत्र हैं और द्वीपमें उत्पन्न होनेके कारण द्वैपायन कहलाते हैं, उन वेदके महान्‌ भण्डाररूप व्यासजीको मैं प्रणाम करता हूँ ।। ४ ।।

प्राचीनकालमें उदार तेजस्वी, महान्‌ वैभवसम्पन्न भगवान्‌ नारायणने वैदिक ज्ञानकी महानिधिरूप महात्मा अजन्मा और पुराणपुरुष व्यासजीको अपने पुत्ररूपसे उत्पन्न किया था।। ५।।

जनमेजयने कहा--द्विजश्रेष्ठ] आपहीने पहले आदिपर्वकी कथा सुनाते समय यह कहा था कि वसिष्ठके पुत्र शक्ति, शक्तिके पुत्र पराशर और पराशरके पुत्र मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास हैं और अब पुन: आप इन्हें नारायणका पुत्र बतला रहे हैं || ६-७ ।।

श्रेष्ठ बुद्धिवाले मुनीश्वर! क्या अमिततेजस्वी व्यासजीका इससे पहले भी कोई जन्म हुआ था? नारायणसे व्यासजीका जन्म कब और कैसे हुआ? यह बतानेकी कृपा करें ।। ८ ।।

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! मेरे धर्मिष्ठ गुरु वेदव्यास तपस्याकी निधि और ज्ञाननिष्ठ हैं। पहले वे वेदोंके अर्थका वास्तविक ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे हिमालयके एक शिखरपर रहते थे। ये महाभारत नामक इतिहासकी रचना करके तपस्या करते-करते थक गये थे। उन दिनों इन बुद्धिमान्‌ गुरुकी सेवामें तत्पर हम पाँच शिष्य उनके साथ रहते थे। सुमन्तु, जैमिनि, दृढ़तापूर्वक उत्तम धर्मका पालन करनेवाले पैल, चौथा मैं और पाँचवें व्यासपुत्र शुकदेव थे | ९-११ ।।

इन पाँच उत्तम शिष्योंसे घिरे हुए व्यासजी हिमालयके शिखरपर भूतोंसे परिवेष्टित भूतनाथ भगवान्‌ शिवके समान शोभा पाते थे ।। १२ ।।

वहाँ व्यासजी अंगोंसहित सब वेदों तथा महाभारतके अर्थोकी आवृत्ति करते और हम सब शिष्योंको पढ़ाते थे एवं हम सब लोग सदा उद्यत रहकर उन एकाग्रचित्त एवं जितेन्द्रिय गुरुकी सेवा करते थे || १३ ।।

एक दिन किसी बातचीतके प्रसंगमें हमलोगोंने द्विजश्रेष्ठ व्यासजीसे वेदों और महाभारतका अर्थ तथा भगवान्‌ नारायणसे उनके जन्म होनेका वृत्तान्त पूछा ।। १४ ।।

तत्त्वज्ञानी व्यासजीने पहले हमें वेदों और महाभारतका अर्थ बताया। उसके बाद भगवान्‌ नारायणसे अपने जन्मका वृत्तान्त इस प्रकार बताना आरम्भ किया-- || १५ ||

“विप्रमण! ऋषिसम्बन्धी यह उत्तम आख्यान सुनो। प्राचीन कालका यह वृत्तान्त मैंने तपस्याके द्वारा जाना है ।। १६ ।।

“जब सातवें कल्पके आरम्भमें सातवीं बार ब्रह्माजीके कमलसे जन्म-ग्रहण करनेका अवसर आया, तब शुभ और अशुभसे रहित अमिततेजस्वी महायोगी भगवान्‌ नारायणने सबसे पहले अपने नाभिकमलसे ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। जब ब्रह्माजी प्रकट हो गये, तब उनसे भगवानने यह बात कही-- ।। १७-१८ ।।

ब्रह्मन्‌! तुम मेरी नाभिसे प्रजावर्गकी सृष्टि करनेके लिये उत्पन्न हुए हो और इस कार्यमें समर्थ हो; अत: जड-चेतनसहित नाना प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टि करो” || १९ ।।

“भगवान्‌के इस प्रकार आदेश देनेपर ब्रह्माजीका मन चिन्तासे व्याकुल हो उठा। वे सृष्टिकार्यसे विमुख हो वरदायक देवता सर्वेश्वर श्रीहरिको प्रणाम करके इस प्रकार बोले -- || २० ||

“देवेश्वर! मुझमें प्रजाकी सृष्टि करनेकी क्या शक्ति है? आपको नमस्कार है। देव! मैं सृष्टिविषयक बुद्धिसे सर्वथा रहित हँ--यह जानकर अब आपको जो उचित जान पड़े, वह कीजिये” ।। २१ ।।

“ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ देवेश्वर भगवान्‌ विष्णुने अदृश्य होकर बुद्धिका चिन्तन किया ।। २२ ।।

“उनके चिन्तन करते ही मूर्तिमती बुद्धि उन सामर्थ्यशाली श्रीहरिकी सेवामें उपस्थित हो गयी। तदनन्तर जिनपर दूसरोंका वश नहीं चलता, उन भगवान्‌ नारायणने स्वयं ही उस बुद्धिको उस समय योगशक्तिसे सम्पन्न कर दिया ।। २३ ।।

“अविनाशी प्रभु नारायणदेवने ऐश्वर्ययोगमें स्थित हुई उस सती-साध्वी प्रगतिशील बुद्धिसे कहा-- ।। २४ ।।

“तुम संसारकी सृष्टिरूप अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये ब्रह्माजीके भीतर प्रवेश करो।' ईश्वरका यह आदेश पाकर बुद्धि शीघ्र ही ब्रह्माजीमें प्रवेश कर गयी ।।

“जब ब्रह्माजी सृष्टिविषयक बुद्धिसे संयुक्त हो गये, तब श्रीहरिने पुन: उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टिसि देखा और फिर इस प्रकार कहा--“अब तुम इन नाना प्रकारकी प्रजाओंकी सृष्टि करो” || २६ |।।

“तब “बहुत अच्छा” कहकर उन्होंने श्रीहरिकी आज्ञा शिरोधार्य की। इस प्रकार उन्हें सृष्टिका आदेश देकर भगवान्‌ वहीं अन्तर्धान हो गये |। २७ ।।

“वे एक ही मुहूर्तमें अपने देवधाममें जा पहुँचे और अपनी प्रकृतिको प्राप्त हो उसके साथ एकीभूत हो गये ।। २८ ।।

“तदनन्तर कुछ कालके बाद भगवानके मनमें फिर दूसरा विचार उठा। वे सोचने लगे, परमेष्ठी ब्रह्माने इन समस्त प्रजाओंकी सृष्टि तो कर दी ।। २९ ।।

“किंतु दैत्य, दानव, गन्धर्व और राक्षसोंसे व्याप्त हुई यह तपस्विनी पृथ्वी भारसे पीड़ित हो गयी है ।।

“इस पृथ्वीपर बहुत-से ऐसे बलवान्‌ दैत्य, दानव और राक्षस होंगे, जो तपस्यामें प्रवृत्त हो उत्तमोत्तम वर प्राप्त करेंगे || ३१ ।।

“वरदानसे घमंडमें आकर वे समस्त दानव निश्चय ही देवसमूहों तथा तपोधन ऋषियोंको बाधा पहुँचायेंगे || ३२ ।।

“अत: अब मुझे पृथ्वीपर क्रमश: नाना अवतार धारण करके इसके भारको उतारना उचित होगा ।। ३३ ।।

'पापियोंको दण्ड देने और साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेसे यह तपस्विनी सत्यस्वरूपा पृथ्वी बलसे टिकी रह सकेगी ।। ३४ ।।

“मैं पातालमें शेषनागके रूपसे रहकर इस पृथ्वीको धारण करता हूँ और मेरेद्वारा धारित होकर यह सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को धारण करती है || ३५ ।।

“इसलिये मैं अवतार लेकर इस पृथ्वीकी रक्षा अवश्य करूँगा। ऐसा सोच-विचारकर भगवान्‌ मधुसूदनने जगत्‌के लिये अवतार ग्रहण करनेके निमित्त अपने अनेक रूपोंकी सृष्टि की अर्थात्‌ वाराह, नरसिंह, वामन एवं मनुष्यरूपोंका स्मरण किया। उन्होंने यह निश्चय किया था कि मुझे इन अवतारोंद्वारा उद्दण्ड दैत्योंका वध करना है | ३६-३७ ३

“तदनन्तर जगत्स्रष्टा श्रीहरिने “भो:” शब्दसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रतिध्वनित करते हुए सरस्वती (वाणी) का उच्चारण किया। इससे वहाँ सारस्वतका आविर्भाव हुआ। सरस्वती या वाणीसे उत्पन्न हुए उस शक्तिशाली पुत्रका नाम “अपान्तरतमा” हुआ ।। ३८-३९ ।।

“वे अपान्तरतमा भूत, वर्तमान और भविष्यके ज्ञाता, सत्यवादी तथा दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले थे। मस्तक झुकाकर खड़े हुए उस पुत्रसे देवताओंके आदिकारण अविनाशी श्रीहरिने कहा-- ।। ४० ।।

“'बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ मुने! तुम्हें वेदोंकी व्याख्याके लिये ऋकू, साम, यजुष्‌ आदि श्रुतियोंका पृथक्‌-पृथक्‌ संग्रह करना चाहिये। अतः तुम मेरी आज्ञाके अनुसार कार्य करो। मुझे तुमसे इतना ही कहना है” ।। ४१ ।।

“अपान्तरतमाने स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार वेदोंका विभाग किया। उनके इस कर्मसे तथा उनके द्वारा की हुई उत्तम तपस्या, यम और नियमसे भी भगवान्‌ श्रीहरि बहुत संतुष्ट हुए और बोले--“बेटा! तुम सभी मन्वन्तरोंमें इसी प्रकार धर्मके प्रवर्तक होओगे” ।।

“ब्रह्मन! तुम सदा ही अविचल एवं अजेय बने रहोगे। फिर द्वापर और कलियुगकी संधिका समय आनेपर भरतवंभशमें कुरुवंशी क्षत्रिय होंगे। वे महामनस्वी राजा समस्त भूमण्डलमें विख्यात होंगे ।।

द्विजश्रेष्ठ उनमेंसे जो लोग तुम्हारी संतानोंके वंशज होंगे, उनमें परस्पर विनाशके लिये फूट हो जायगी। तुम्हारे सहयोगके बिना उनमें विग्रह होगा || ४५३ ।।

“उस समय भी तुम तपोबलसे सम्पन्न हो वेदोंक अनेक विभाग करोगे। उस समय कलियुग आ जानेपर तुम्हारे शरीरका वर्ण काला होगा || ४६३ ।।

“तुम नाना प्रकारके धर्मोंके प्रवर्तक, ज्ञानदाता और तपस्वी होओगे, परंतु रागसे सर्वथा मुक्त नहीं रहोगे || ४७ ।।

“तुम्हारा पुत्र भगवान्‌ महेश्वरकी कृपासे वीतराग होकर परमात्मस्वरूप हो जायगा। मेरी यह बात टल नहीं सकती ।। ४८ ।।

जिन्हें ब्राह्मणलोग ब्रह्माजीका मानसपुत्र कहते ऐं, जो उत्तम बुद्धिसे युक्त, तपस्याकी निधि एवं सर्वश्रेष्ठ वसिष्ठ मुनिके नामसे प्रसिद्ध हैं और जिनका तेज भगवान्‌ सूर्यसे भी बढ़कर प्रकाशित होता है, उन्हीं ब्रह्मर्षि वसिष्ठके वंशमें पराशर नामवाले महान्‌ प्रभावशाली महर्षि होंगे। वे वैदिक ज्ञानके भण्डार, मुनियोंमें श्रेष्ठ, महान्‌ तपस्वी एवं तपस्याके आवासस्थान होंगे। वे ही पराशर मुनि उस समय तुम्हारे पिता होंगे || ४९-५० ।।

उन्हीं ऋषिसे तुम पिताके घरमें रहनेवाली एक कुमारी कन्याके पुत्ररूपसे जन्म लोगे और कानीनगर्भ (कन्याकी संतान) कहलाओगे ।। ५१ ।।

“भूत, वर्तमान और भविष्यके सभी विषयोंमें तुम्हारा संशय नष्ट हो जायगा। पहले जो सहस्न-युगोंके कल्प व्यतीत हो चुके हैं, उन सबको मेरी आज्ञासे तुम देख सकोगे और तपोबलसे सम्पन्न बने रहोगे। भविष्यमें होनेवाले अनेक कल्प भी तुम्हें दृष्टिगोचर होंगे ।। ५२-५३ ।।

“मुने! तुम निरन्तर मेरा चिन्तन करनेसे जगत्‌में मुझ अनादि और अनन्त परमेश्वरको चक्र हाथमें लिये देखोगे। मेरी यह बात कभी मिथ्या नहीं होगी || ५४ ।।

“महान्‌ शक्तिशाली मुनीश्वर! जगतमें तुम्हारी अनुपम ख्याति होगी। वत्स! जब सूर्यपुत्र शनैश्वर मन्वन्तरके प्रवर्तक हो महामनुके पदपर प्रतिष्ठित होंगे, उस मन्वन्तरमें तुम्हीं मेरे कृपाप्रसादसे मन्वादि गणोंमें प्रधान होओगे। इसमें संशय नहीं है || ५५-५६ ।।

“संसारमें जो कुछ हो रहा है, वह सब मेरी ही चेष्टाका फल है। दूसरे लोग दूसरी-दूसरी बातें सोचते रहते हैं, परंतु मैं स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी इच्छाके अनुसार कार्य करता हूँ! ।। ५७ ||

“सरस्वती-पुत्र अपान्तरतम मुनिसे ऐसा कहकर भगवान्‌ उन्हें विदा करते हुए बोले --'जाओ, अपना काम करो” ।। ५८ ।।

“इस प्रकार मैं भगवान्‌ विष्णुके कृपा-प्रसादसे पहले अपान्तरतमा नामसे उत्पन्न हुआ था और अब उन्हीं श्रीहरिकी आज्ञासे पुनः वसिष्ठकुलनन्दन व्यासके नामसे उत्पन्न होकर प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ हूँ ।। ५९ ।।

“नारायणकी कृपासे और उन्हींके अंशसे जो पहले मेरा जन्म हुआ था, उसका यह वत्तान्त मैंने तुम सब लोगोंसे कहा है || ६० ।।

“बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ शिष्यगण! पूर्वकालमें मैंने उत्तम समाधिके द्वारा अत्यन्त कठोर एवं बड़ी भारी तपस्या की थी || ६१ ।।

'पुत्रो! तुमलोग मुझसे जो कुछ पूछते थे, वह सब मैंने तुम्हें कह सुनाया। तुम गुरुभक्त शिष्योंके स्नेहवश ही मैंने यह अपने पूर्वजन्म और भविष्यका वृत्तान्त तुम्हें बताया है! || ६२ ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--नरेश्वर! तुमने जैसा मुझसे प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने पहले क्लेशरहित चित्तवाले अपने गुरु व्यासजीके जन्मका वृत्तान्त कहा है। अब दूसरी बातें सुनो ।। ६३ ।।

राजर्षे! सांख्य, योग, पाउचरात्र, वेद और पाशुपत-शास्त्र--इन ज्ञानोंको तुम नाना प्रकारके मत समझो ।।

सांख्यशास्त्रके वक्ता कपिल हैं। वे परम ऋषि कहलाते हैं। योगशास्त्रके पुरातन ज्ञाता हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी ही हैं, दूसरा नहीं ।। ६५ ।।

मुनिवर अपान्तरतमा वेदोंके आचार्य बताये जाते हैं। यहाँ कुछ लोग उन महर्षिको प्राचीनगर्भ कहते हैं ।।

ब्रह्माजीके पुत्र भूतनाथ श्रीकण्ठ उमापति भगवान्‌ शिवने शान्तचित्त होकर पाशुपतज्ञानका उपदेश किया है ।।

नृपश्रेष्ठ! सम्पूर्ण पाउचरात्रके ज्ञाता तो साक्षात्‌ भगवान्‌ नारायण ही हैं। यदि वेदशास्त्र और अनुभवके अनुसार विचार किया जाय तो इन सभी ज्ञानोंमें इनके परम तात्पर्यरूपसे भगवान्‌ नारायण ही स्थित दिखायी देते हैं। प्रजानाथ! जो अज्ञानमें डूबे हुए हैं, वे लोग भगवान्‌ श्रीहरिको इस रूपमें नहीं जानते हैं | ६८-६९ ।।

शास्त्रके रचयिता ज्ञानीजन उन नारायण ऋषिको ही समस्त शास्त्रोंका परम लक्ष्य बताते हैं; दूसरा कोई उनके समान नहीं है--यह मेरा कथन है || ७० ।।

ज्ञानके बलसे जिनके संशयका निवारण हो गया है, उन सबके भीतर सदा श्रीहरि निवास करते हैं; परंतु कुतर्कके बलसे जो संशयमें पड़े हुए हैं, उनके भीतर भगवान्‌ माधवका निवास नहीं है || ७१ ।।

नरेश्वर! जो पाउच्रात्रके ज्ञाता हैं और उसमें बताये हुए क्रमके अनुसार सेवापरायण हो अनन्यभावसे भगवान्‌की शरणमें प्राप्त हैं, वे उन भगवान्‌ श्रीहरिमें ही प्रवेश करते हैं ।| ७२ ।।

राजन! सांख्य और योग--ये दो सनातन शास्त्र तथा सम्पूर्ण वेद सर्वथा यही कहते हैं और समस्त ऋषियोंने भी यही बताया है कि यह पुरातन विश्व भगवान्‌ नारायण ही हैं ।| ७३।।

स्वर्ग, अन्तरिक्ष, भूतल और जल--इन सभी स्थानोंमें और सम्पूर्ण लोकोंमें जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म होता बताया गया है, वह सब नारायणकी सत्तासे ही हो रहा है--ऐसा जानना चाहिये ।। ७४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें द्रैपायनकी उत्पत्तिविषयक तीन सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  •  १, नारायण, २. ब्रह्मा, ३. वसिष्ठ, ४. शक्ति, ५. पराशर, ६. व्यास--इस प्रकार व्यासजी छठी पीढ़ीमें उत्पन्न हुए हैं।

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शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पचासवें अध्याय के श्लोक 1-74 का हिन्दी अनुवाद)

“वैजयन्त पर्वतपर ब्रह्मा और रुद्रका मिलन एवं ब्रह्माजीद्वारा परम पुरुष नारायणकी महिमाका वर्णन”

जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! पुरुष अनेक हैं या एक? इस जगत्‌में कौन पुरुष सबसे श्रेष्ठ है? अथवा किसे यहाँ सबकी उत्पत्तिका स्थान बताया जाता है? ।।

वैशम्पायनजीने कहा--कुरुकुलका भार वहन करनेवाले नरेश! सांख्य और योगकी विचारधाराके अनुसार इस जगतमें पुरुष अनेक हैं। वे 'एकपुरुषवाद” नहीं स्वीकार करते हैं ।। २ ।।

बहुत-से पुरुषोंकी उत्पत्तिका स्थान एक ही पुरुष कैसे बताया जाता है? यह समझानेके लिये आत्मज्ञानी, तपस्वी, जितेन्द्रिय एवं वन्दनीय परमर्षि गुरु व्यासजीको नमस्कार करके मैं तुम्हारे सामने अधिक गुणशाली विश्वात्मा पुरुषकी व्याख्या करूँगा ।। ३-४ ।।

राजन! यह पुरुषसम्बन्धी सूक्त तथा ऋत और सत्य सम्पूर्ण वेदोंमें विख्यात है। ऋषिसिंह व्यासने इसका भलीभाँति चिन्तन किया है ।। ५ ।।

भारत! कपिल आदि ऋषियोंने सामान्य और विशेषरूपमें अध्यात्म-तत्त्वका चिन्तन करके विभिन्न शास्त्रोंका प्रतिपादन किया है ।। ६ ।।

परंतु व्यासजीने संक्षेपसे पुरुषकी एकताका जिस तरह प्रतिपादन किया है, उसीको मैं भी उन अमिततेजस्वी गुरुके कृपा-प्रसादसे तुम्हें बताऊँगा ।। ७ ।।

प्रजानाथ! इस विषयमें जानकार मनुष्य ब्रह्माजीके साथ रुद्रके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ८ ।।

नरेश्वर! क्षीरसागरके मध्यभागमें वैजयन्त नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ पर्वत है, जो सुवर्णकी-सी कान्तिसे प्रकाशित होता है ।। ९ ।।

वहाँ एकाकी ब्रह्मा अध्यात्मगतिका चिन्तन करनेके लिये ब्रह्मलोकसे प्रतिदिन आते और उस वैजयन्त पर्वतका सेवन करते थे ।। १० ।।

पहले एक दिन बुद्धिमान्‌ चतुर्मुख ब्रह्माजी जब वहाँ बैठे हुए थे, उसी समय उनके ललाटसे उत्पन्न हुए पुत्र महायोगी त्रिनेत्रधारी भगवान्‌ शिव अनायास ही आकाशमार्गसे घूमते हुए वैजयन्तपर्वतके सामने आये और शीघ्र ही आकाशसे उस पर्वतशिखरपर उतर पड़े | ११-१२ |।

सामने ब्रह्माजीको देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनके दोनों चरणोंमें सिर झुकाकर प्रणाम किया। भगवान्‌ शिवको अपने चरणोंमें पड़ा देख उस समय एकमात्र सर्वसमर्थ भगवान्‌ प्रजापतिने दाहिने हाथसे उन्हें उठाया और दीर्घकालके पश्चात्‌ अपने निकट आये हुए पुत्रसे इस प्रकार कहा ।। १३-१४ ।।

ब्रह्माजी बोले--महाबाहो! तुम्हारा स्वागत है। सौभाग्यसे मेरे निकट आये हो। बेटा! तुम्हारा स्वाध्याय और तप सदा सकुशल चल रहा है न? तुम सर्वदा कठोर तपस्यामें ही लगे रहते हो; इसलिये मैं तुमसे बारंबार तपके विषयमें पूछता हूँ || १५-१६ ।।

रुद्रने कहा--भगवन्‌! आपकी कृपासे मेरे स्वाध्याय और तप सकुशल चल रहे हैं; कभी भंग नहीं हुए हैं। सम्पूर्ण जगत्‌ भी कुशल-क्षेमसे है ।। १७ ।।

प्रभो! बहुत दिन हुए, मैंने ब्रह्मलोकमें आपका दर्शन किया था। इसीलिये आज आपके चरणोंद्वारा सेवित इस पर्वतपर पुन: दर्शनके लिये आया हूँ ।। १८ ।।

पितामह! आपके एकान्तमें जानेसे मेरे मनमें बड़ा कौतूहल पैदा हुआ। मैंने सोचा, इसका कोई छोटा-मोटा कारण नहीं होगा ।। १९ ।।

क्या कारण है कि क्षुधा-पिपासासे रहित उस श्रेष्ठ धामको, जहाँ निरन्तर देवता, असुर, अमिततेजस्वी ऋषि, गन्धर्व और अप्सराओंके समूह आपकी सेवामें उपस्थित रहते हैं, छोड़कर आप अकेले इस श्रेष्ठ पर्वतपर चले आये हैं? | २०-२१ ।।

ब्रह्माजीने कहा--वत्स! मैं इन दिनों गिरिवर वैजयन्तका जो निरन्तर सेवन कर रहा हूँ, इसका कारण यह है कि यहाँ एकाग्रचित्तसे विराट्‌ पुरुषका चिन्तन किया करता हूँ ।। २२ ।।

रुद्र बोले--ब्रह्मन्‌! आप स्वयम्भू हैं। आपने बहुत-से पुरुषोंकी सृष्टि की है और अभी दूसरे-दूसरे पुरुषोंकी सृष्टि करते जा रहे हैं। वह विराट्‌ भी तो एक पुरुष ही है, फिर उसमें क्या विशेषता है? || २३ ।।

प्रभो! आप जिन एक पुरुषोत्तमका चिन्तन करते हैं, वे कौन हैं? मेरे इस संशयका समाधान कीजिये। इस विषयको सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ।। २४ ।।

ब्रह्माजीनी कहा--बेटा! तुमने जिन बहुत-से पुरुषोंका उल्लेख किया है, उनके विषयमें तुम्हारा यह कथन ठीक ही है। जिनकी सृष्टि मैं करता हूँ, उनका चिन्तन मैं क्यों करूँगा? ।। २५ ।।

मैं तुम्हें उस एक पुरुषके सम्बन्धमें बताऊँगा, जो सबका आधार है और जिस प्रकार वह बहुत-से पुरुषोंका एकमात्र कारण बताया जाता है || २६ ।।

जो लोग साधन करते-करते गुणातीत हो जाते हैं, वे ही उस विश्वरूप, अत्यन्त महान्‌, सनातन एवं निर्गुण परम पुरुषमें प्रवेश करते हैं। ।।२७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नाययणकी महिमाके प्रसंगमें ब्रह्मा तथा रुद्रका संवादविषयक तीन सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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