सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय (From the 348 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ अड़तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-88 का हिन्दी अनुवाद)

“सात्वत-धर्मकी उपदेश-परम्परा तथा भगवान्‌के प्रति ऐकान्तिक भावकी महिमा”

जनमेजयने कहा--ब्रह्मन! भगवान्‌ अनन्यभावसे भजन करनेवाले सभी भक्तोंको प्रसन्न करते और उनकी विधिवत्‌ की हुई पूजाको स्वयं ग्रहण करते हैं; यह कितने आनन्दकी बात है ।। १ ।।

संसारमें जिन लोगोंकी वासनाएँ दग्ध हो गयी हैं और जो पुण्य-पापसे रहित हो गये हैं, उन्हें परम्परासे जो गति प्राप्त होती है, उसका भी आपने वर्णन किया है ।।

जो भगवानके अनन्य भक्त हैं, वे साधुपुरुष अनिरुद्ध, प्रद्युम्म और संकर्षणकी अपेक्षा न रखकर वासुदेवसंज्ञक चौथी गतिमें पहुँचकर भगवान्‌ पुरुषोत्तम एवं उनके परमपदको प्राप्त कर लेते हैं ।। ३ ।।

निश्चय ही यह अनन्यभावसे भगवान्‌का भजनरूप धर्म श्रेष्ठ एवं श्रीनारायणको परम प्रिय है; क्योंकि इसका आश्रय लेनेवाले भक्तजन उक्त तीन गतियोंको प्राप्त न होकर सीधे चौथी गतिमें पहुँचकर अविनाशी श्रीहरिको प्राप्त कर लेते हैं ।। ४ ।।

जो ब्राह्मण उपनिषदोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका भलीभाँति आश्रय ले उनका विधिपूर्वक स्वाध्याय करते हैं तथा जो संन्यासधर्मका पालन करनेवाले हैं, इन सबसे उत्तम गति उन्हींको प्राप्त होती है, जो भगवानके अनन्य भक्त होते हैं ।। ५६ ।।

भगवन्‌! इस भक्तिरूप धर्मका किस देवता अथवा ऋषिने उपदेश किया है? अनन्य भक्तोंकी जीवनचर्या क्या है? और वह कबसे प्रचलित हुई? मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। इस विषयको सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ।। ६-७ ।।

वैशम्पायनजीने कहा--राजन्‌! जिस समय कौरव और पाण्डवोंकी सेनाएँ युद्धके लिये आमने-सामने डटी हुई थीं और अर्जुन युद्धसे अनमने हो रहे थे, उस समय स्वयं भगवानने उन्हें गीतामें इस धर्मका उपदेश दिया ।। ८ ।।

मैंने पहले तुमसे गति और अगतिका स्वरूप भी बताया था। यह धर्म गहन तथा अजितात्मा पुरुषोंके लिये दुर्गम है ।। ९ ।।

राजन! यह धर्म सामवेदके समान है। प्राचीनकालके सत्ययुगसे ही यह प्रचलित हुआ है। स्वयं जगदीश्वर भगवान्‌ नारायण ही इस धर्मको धारण करते हैं ।। १० ।।

महाराज! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरने ऋषियोंके बीचमें महाभाग नारदजीसे यही विषय पूछा था। उस समय श्रीकृष्ण और भीष्म भी इस विषयको सुन रहे थे ।। ११ ।।

नृपश्रेष्ठ! मेरे गुरु व्यासजीने और मैंने भी यह विषय कहा था; परंतु वहाँ नारदजीने उस विषयका जैसा वर्णन किया था, उसे बताता हूँ, सुनो || १२ ।।

भूपाल! सृष्टिके आदिमें जब भगवान्‌ नारायणके मुखसे ब्रह्माजीका मानसिक जन्म हुआ था, उस समय साक्षात्‌ नारायणने उन्हें इस धर्मका उपदेश किया था। भरतनन्दन! नारायणने उस धर्मसे देवताओं और पितरोंका पूजनादि कर्म किया था। फिर फेनप ऋषियोंने उस धर्मको ग्रहण किया ।। १३-१४ ।।

फेनपोंसे वैखानसोंने उस धर्मको उपलब्ध किया। उनसे सोमने उसे ग्रहण किया। तदनन्तर वह धर्म फिर लुप्त हो गया || १५ ।।

नरेश्वर! जब ब्रह्माजीका नेत्रजनित द्वितीय जन्म हुआ, तब उन्होंने सोमसे उस नारायण-स्वरूप धर्मको सुना था। राजन! ब्रह्माजीने रुद्रको इसका उपदेश दिया ।। १६।।

नरेश्वर! तत्पश्चात्‌ योगनिष्ठ रुद्रने पूर्वकालके कृतयुगमें सम्पूर्ण बालखिल्य ऋषियोंको इस धर्मसे अवगत कराया; तदनन्तर भगवान्‌ विष्णुकी मायासे वह धर्म फिर लुप्त हो गया ।। १७-१८ ।।

राजन्‌! जब भगवान्‌की वाणीसे ब्रह्माजीका तीसरा महत्त्वपूर्ण जन्म हुआ, तब फिर साक्षात्‌ नारायणसे ही यह धर्म प्रकट हुआ ।। १९ ।।

सुपर्ण नामक ऋषिने इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह-पूर्वक भलीभाँति तपस्या करके भगवान्‌ पुरुषोत्तमसे इस धर्मको प्राप्त किया | २० ।।

सुपर्णने प्रतिदिन इस उत्तम धर्मकी तीन आवृत्ति की थी, इसलिये इस व्रत या धर्मको यहाँ 'त्रिसौपर्ण” कहते हैं || २१ ।।

यह दुष्कर धर्म ऋग्वेदके पाठमें स्पष्टरूपसे पढ़ा गया है। नरश्रेष्ठ! सुपर्णसे उस सनातन धर्मको इस जगत्‌के प्राणस्वरूप वायुने प्राप्त किया || २२६ ।।

वायुसे विघसाशी ऋषियोंने इस धर्मका उपदेश ग्रहण किया। उनसे महोदधिको इस उत्तम धर्मकी प्राप्ति हुई। तत्पश्चात्‌ यह धर्म फिर लुप्त होकर भगवान्‌ नारायणमें विलीन हो गया ।। २३-२४ ।।

पुरुषसिंह! जब पुनः भगवानके कानोंसे महात्मा ब्रह्माजीकी चौथी बार उत्पत्ति हुई, तब जिस प्रकार इस धर्मका प्रादुर्भाव हुआ था, वह बताता हूँ, सुनो || २५ ।।

साक्षात्‌ भगवान्‌ नारायण हरिने जगत्‌की सृष्टि करनेकी इच्छासे एक ऐसे पुरुषका चिन्तन किया, जो संसारकी सृष्टि करनेमें पूर्णतः समर्थ हो ।। २६ ।।

कहा जाता है, चिन्तन करते समय भगवानके दोनों कानोंसे एक पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ। वही प्रजाकी सृष्टि करनेवाला ब्रह्मा हुआ। जगदीश्वर नारायणने ब्रह्मासे कहा--'बेटा! तुम अपने मुखसे लेकर पैरतकके अंगोंसे समस्त प्रजाकी सृष्टि करो || २७६ ।।

“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पुत्र! मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा और तुम्हारे भीतर तेज एवं बलकी वृद्धि करता रहूँगा। तुम मुझसे इस सात्वत नामक धर्मको ग्रहण करो और उसके द्वारा विधिपूर्वक सत्ययुगकी सृष्टि करके उसकी स्थापना करो” ।। २८-२९ ।।

तदनन्तर ब्रह्माने भगवान्‌ श्रीहरिको नमस्कार किया और उन्हीं नारायणदेवके मुखसे प्रकट आरण्यक, रहस्य तथा संग्रहसहित उस श्रेष्ठ धर्मका उपदेश ग्रहण किया || ३०३ 

अमिततेजस्वी ब्रह्माको इस धर्मका उपदेश देकर उस समय भगवानने उनसे कहा --/तुम निष्कामभावसे सारे कर्म करते हुए युगधर्मोंके प्रवर्तक बनो” ।। ३१३ ।।

यह आदेश देकर वे अज्ञानान्धकारसे परे विराजमान अपने परम अव्यक्त धामको चले गये। तदनन्तर वरदायक देवता लोकपितामह ब्रह्माने सम्पूर्ण चराचर लोकोंकी सृष्टि की ।। ३२-३३ ।।

फिर तो सृष्टिके आरम्भमें कल्याणकारी कृतयुगकी प्रवृत्ति हुई और तबसे सात्वतधर्म सारे संसारमें व्याप्त हो गया ।। ३४ ।।

लोकस॒ष्टा ब्रह्माने उसी आदिदधर्मके द्वारा देवेश्वर भगवान्‌ नारायण हरिकी आराधना की ।। ३५ ।।

फिर इस धर्मकी प्रतिष्ठाके लिये समस्त लोकोंके हितकी कामनासे उन्होंने स्वारोचिषमनुको उस समय इस धर्मका उपदेश किया ।। ३६ ।।

नरेश्वर! उन दिनों स्वारोचिष मनु ही सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति एवं प्रभु थे। उन्होंने शान्तभावसे पहले अपने पुत्र शंखपदको स्वयं इस धर्मका ज्ञान प्रदान किया || ३७ ।।

भारत! फिर शंखपदने भी अपने औरस पुत्र दिक्पाल सुवर्णाभको इस धर्मका अध्ययन कराया। इसके बाद त्रेतायुग प्राप्त होनेपर वह धर्म फिर लुप्त हो गया || ३८ ।।

नृपश्रेष्ठ! फिर पूर्वकालमें ब्रह्माजीने नासिकाके द्वारा जब पाँचवाँ जन्म ग्रहण किया, तब स्वयं कमलनयन भगवान्‌ नारायण हरिने ब्रह्माजीके सामने इस धर्मका उपदेश दिया || ३९३ ।।

नरेश्वर! तत्पश्चात्‌ भगवान्‌ सनत्कुमारने उनसे उस सात्वत-धर्मका उपदेश ग्रहण किया। कुरुश्रेष्ठट सनत्कुमारसे वीरण प्रजापतिने कृतयुगके आदिमें इस धर्मका उपदेश ग्रहण किया ।। ४०-४१ ।।

वीरणने इसका अध्ययन करके रैभ्यमुनिको उपदेश दिया। रैभ्यने उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रेष्ठ बुद्धिसे युक्त धर्मात्मा एवं शुद्ध आचार-विचारवाले अपने पुत्र दिक्पाल कुक्षिको इसका उपदेश दिया। तदनन्तर नारायणके मुखसे निकला हुआ यह सात्वत धर्म फिर लुप्त हो गया ।। ४२-४३ ।।

इसके बाद जब ब्रह्माजीका अण्डसे छठा जन्म हुआ, तब भगवानसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजीके लिये पुनः भगवान्‌ नारायणके मुखसे यह धर्म प्रकट हुआ ।। ४४ ।।

राजन! ब्रह्माजीने इस धर्मको ग्रहण किया और वे विधिपूर्वक उसे अपने उपयोगमें लाये। नरेश्वर! फिर उन्होंने बर्हिषद्‌ नामवाले मुनियोंको इसका अध्ययन कराया ।। ४५ ।।

बर्हिषद्‌ नामक ऋषियोंसे इस धर्मका उपदेश ज्येष्ठ नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मणको मिला, जो सामवेदके पारंगत विद्वान थे। ज्ये'्ठतामकी उपासनाका उन्होंने व्रत ले रखा था। इसलिये वे ज्येष्ठसामव्रती हरि कहलाते थे || ४६ ।।

राजन! ज्येष्ठसे राजा अविकम्पनको इस धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ। प्रभो! तदनन्तर यह भागवत-धर्म फिर लुप्त हो गया ।। ४७ ।।

नरेश्वर! यह जो ब्रह्माजीका भगवान्‌के नाभिकमलसे सातवाँ जन्म हुआ है, इसमें स्वयं नारायणने ही कल्पके आरम्भमें जगद्धाता शुद्धस्वरूप ब्रह्माको इस धर्मका उपदेश दिया; फिर ब्रह्माजीने सबसे पहले प्रजापति दक्षको इस धर्मकी शिक्षा दी || ४८-४९ ।।

नृपश्रेष्ठ! इसके बाद दक्षने अपने ज्येष्ठ दौहित्र-अदितिके सवितासे भी बड़े पुत्रको इस धर्मका उपदेश दिया। उन्हींसे विवस्वान्‌ (सूर्य) ने इस धर्मका उपदेश ग्रहण किया ।। ५० ।।

फिर त्रेतायुगके आरम्भमें सूर्यने मनुको और मनुने सम्पूर्ण जगत्‌के कल्याणके लिये अपने पुत्र इक्ष्वाकुको इसका उपदेश दिया ।। ५१ ।।

इक्ष्वाकुके उपदेशसे इस सात्वत धर्मका सम्पूर्ण जगतमें प्रचार और प्रसार हो गया। नरेश्वर! कल्पान्तमें यह धर्म फिर भगवान्‌ नारायणको ही प्राप्त हो जायगा ।।

नृपश्रेष्ठ यतियोंका जो धर्म है, वह मैंने पहले ही तुम्हें हरिगीतामें संक्षेप शैलीसे बता दिया है || ५३ ।।

महाराज! नारदजीने रहस्य और संग्रहसहित इस धर्मको साक्षात्‌ जगदीश्वर नारायणसे भलीभाँति प्राप्त किया था ।। ५४ ।।

राजन्‌! इस प्रकार यह आदि एवं महान्‌ धर्म सनातनकालसे चला आ रहा है। यह दूसरोंके लिये दुर्ज्ेय और दुष्कर है। भगवानके भक्त सदा ही इस धर्मको धारण करते हैं ।। ५५ ।।

इस धर्मको जाननेसे और अहिंसाभावसे युक्त इस सात्वतधर्मको क्रियारूपसे आचरणमें लानेसे जगदीश्वर श्रीहरि प्रसन्न होते हैं || ५६ ।।

भगवानके भक्तोंद्वारा कभी केवल एक व्यूह--भगवान्‌ वासुदेवकी, कभी दो व्यूह-वासुदेव और संकर्षणकी, कभी प्रद्युम्मसहित तीन व्यूहोंकी और कभी अनिरुद्धसहित चार व्यूहोंकी उपासना देखी जाती है ।।

भगवान्‌ श्रीहरि ही क्षेत्रज्ञ हैं, ममतारहित और निष्कल हैं। ये ही सम्पूर्ण भूतोंमें पाज्चभौतिक गुणोंसे अतीत जीवात्मारूपसे विराजमान हैं || ५८ ।।

राजन! पाँचों इन्द्रियोंका प्रेरक जो विख्यात मन है, वह भी श्रीहरि ही हैं। ये बुद्धिमान्‌ श्रीहरि ही सम्पूर्ण जगतके प्रेरक और स्रष्टा हैं ।। ५९ ।।

नरेश्वर! ये अविनाशी पुरुष नारायण ही अकर्ता, कर्ता, कार्य तथा कारण हैं। ये जैसा चाहते हैं, वैसे ही क्रीड़ा करते हैं || ६० ।।

नृपश्रेष्ठ) यह मैंने तुमसे गुरुकृपासे ज्ञात हुए अनन्य भक्तिरूप धर्मका वर्णन किया है। जिनका अन्तःकरण पवित्र नहीं है, ऐसे लोगोंके लिये इस धर्मका ज्ञान होना बहुत ही कठिन है ।। ६१ ।।

नरेश्वर! भगवानके अनन्य भक्त दुर्लभ हैं, क्योंकि ऐसे पुरुष बहुत नहीं हुआ करते। कुरुनन्दन! यदि सम्पूर्ण भूतोंके हितमें तत्पर रहनेवाले, आत्मज्ञानी, अहिंसक एवं अनन्य भक्तोंसे जगत्‌ भर जाय तो यहाँ सर्वत्र सत्ययुग ही छा जाय और कहीं भी सकाम कर्मोंका अनुष्ठान न हो ।। ६२-६३ ।।

प्रजानाथ! इस प्रकार मेरे धर्मज्ञ गुरु द्विजश्रेष्ठ भगवान्‌ व्यासने श्रीकृष्ण और भीष्मके सुनते हुए ऋषि-मुनियोंके समीप धर्मराजको इस धर्मका उपदेश किया था ।। ६४ ३ 

राजन! उनसे भी प्राचीनकालमें महातपस्वी नारदजीने इसका प्रतिपादन किया था। नारायणकी आराधनामें लगे हुए अनन्य भक्त चन्द्रमाके समान गौरवर्णवाले उन्हीं परब्रह्मस्वरूप भगवान्‌ अच्युतको प्राप्त होते हैं || ६५-६६ ।।

जनमेजयने पूछा--मुने! इस प्रकार ज्ञानी पुरुषोंद्वारा सेवित जो यह अनेक सदगुणोंसे सम्पन्न धर्म है, इसे नाना प्रकारके व्रतोंमें लगे हुए दूसरे ब्राह्मण क्यों आचरणमें नहीं लाते हैं? || ६७ 

वैशम्पायनजीने कहा--भरतनन्दन! शरीरके बन्धनमें बँधे हुए जो जीव हैं, उनके लिये ईश्वरने तीन प्रकारकी प्रकृतियाँ बनायी हैं--सातक्चिकी, राजसी और तामसी ।। ६८ ।।

पुरुषसिंह! कुरुकुलधुरंधर वीर! इन तीन प्रकृतियोंवाले जीवोंमें जो सात््विकी प्रकृतिसे युक्त सात्विक पुरुष है, वही श्रेष्ठ है; क्योंकि वही मोक्षका निश्चित अधिकारी है ।। ६९ ।।

यहाँ भी वह इस बातको अच्छी तरह जानता है कि परमपुरुष नारायण सर्वोत्तम वेदवेत्ता हैं और मोक्षके परम आश्रय भगवान्‌ नारायण ही हैं, इसीलिये वह मनुष्य सात्त्विक माना गया है || ७० ।।

भगवान्‌ नारायणके आश्रित उनका अनन्य भक्त अपने मनके अभीष्ट भगवान्‌ पुरुषोत्तमका निरन्तर चिन्तन करता हुआ उनको प्राप्त कर लेता है || ७१ ।।

मोक्षधर्ममें तत्यर रहनेवाले जो कोई भी मनीषी यति हैं तथा जिनकी तृष्णाका सर्वथा नाश हो गया है, उनके योग-क्षेमका भार स्वयं भगवान्‌ नारायण वहन करते हैं ।। ७२ ।।

जन्म-मरणके चक्करमें पड़े हुए जिस पुरुषको भगवान्‌ मधुसूदन अपनी कृपा-दृष्टिसे देख लेते हैं, उसे सात्विक जानना चाहिये। वह मोक्षका सुनिश्चित अधिकारी हो जाता है || ७३ ।।

एकान्त भक्तोंद्वारा सेवित धर्म सांख्य और योगके तुल्य है। उसके सेवनसे मनुष्य नारायणस्वरूप मोक्षमें ही परम गतिको प्राप्त होते हैं | ७४ ।।

राजन! जिसपर भगवान्‌ नारायणकी कृपादृष्टि हो जाती है, वह पुरुष ही ज्ञानवान्‌ होता है। इस तरह अपनी इच्छामात्रसे कोई ज्ञानी नहीं होता || ७५ 

प्रजानाथ! राजसी और तामसी--ये दो प्रकृतियाँ दोषोंसे मिश्रित होती हैं। जो पुरुष राजस और तामस प्रकृतिसे युक्त होकर जन्म धारण करता है, वह प्रायः सकाम कर्ममें प्रवृत्तिके लक्षणोंसे युक्त होता है। अतः भगवान्‌ श्रीहरि उसकी ओर नहीं देखते || ७६६ ।।

ऐसा पुरुष जब जन्म लेता है, तब उसपर लोकपितामह ब्रह्माकी कृपादृष्टि होती है (और वे उसे प्रवृत्तिमार्गमें नियुक्त कर देते हैं)।| उसका मन रजोगुण और तमोगुणके प्रवाहमें डूबा रहता है || ७७३ ।।

नृपश्रेष्ठ॒ देवता और ऋषि कामनायुक्त सत्त्वगुणमें स्थित होते हैं। उनमें भी शुद्ध सत्त्वगुणकी कमी होती है, इसलिये वे वैकारिक माने जाते हैं || ७८ ई ।।

जनमेजयने पूछा--मुने! वैकारिक पुरुष भगवान्‌ पुरुषोत्तमको कैसे प्राप्त कर सकता है? यह सब आप अपने अनुभवके अनुसार बताइये और उसकी प्रवृत्तिका भी क्रमशः वर्णन कीजिये || ७९६ ।।

वैशम्पायनजीने कहा--जो अत्यन्त सूक्ष्म, सत्त्गगुणसे संयुक्त तथा अकार, उकार और मकार--इन तीन अक्षरोंसे युक्त प्रणवस्वरूप है, उस परम पुरुष परमात्माको पचीसवाँ तत्त्वरूप पुरुष (जीवात्मा) कर्तृत्वके अहंकारसे शून्य होनेपर प्राप्त करता है || ८०३ ।।

इस प्रकार आत्मा और अनात्माका विवेक करानेवाला सांख्य, चित्तवृत्तियोंके निरोधका उपदेश देनेवाला योग, जीव और ब्रह्मके अभेदका बोध करानेवाला वेदोंका आरण्यकभाग (उपनिषद्‌) तथा भक्तिमार्गका प्रतिपादन करनेवाला पाउचरात्र आगम--ये सब शास्त्र एक लक्ष्यके साधक होनेके कारण एक बताये जाते हैं। ये सब एक-दूसरेके अंग हैं। सारे कर्मोंको भगवान्‌ नारायणके चरणारविन्दोंमें समर्पित कर देना यह एकान्त भक्तोंका धर्म है ।। ८१-८२ ।।

राजन! जैसे सारे जल-प्रवाह समुद्रसे ही प्रसारको प्राप्त होते हैं और फिर उस समुद्रमें ही आकर मिल जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी जलके महान्‌ प्रवाह नारायणसे ही प्रकट होकर फिर उन्हींमें लीन हो जाते हैं ।। ८३ ।।

भरतभूषण! कुरुनन्दन! यह तुम्हें सात्वत-धर्मका परिचय दिया गया है। यदि तुमसे हो सके तो यथोचितरूपसे इस धर्मका पालन करो || ८४ ।।

इस प्रकार महाभाग नारदजीने मेरे गुरु व्यासजीसे श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थों और काषायवस्त्रधारी संन्‍्यासियोंकी अविनश्वर एकान्त गतिका वर्णन किया है ।। ८५ ।।

व्यासजीने भी बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिरको प्रेमपूर्वक इस धर्मका उपदेश दिया। गुरुके मुखसे प्रकट हुए उसी धर्मका मैंने यहाँ तुम्हारे लिये वर्णन किया है ।। ८६ ।।

नृपश्रेष्ठ इस तरह यह धर्म दुष्कर है। तुम्हारी तरह दूसरे लोग भी इसके विषयमें मोहित हो जाते हैं || ८७ ।।

प्रजानाथ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण लोकोंके पालक, मोहक, संहारक तथा कारण हैं (अतः तुम उन्हींका भक्तिभावसे भजन करो।) ।। ८८ ।॥।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारययणकी महिमा एवं उनके प्रति ऐकान्तिकभावविषयक तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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