सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ छियालीसवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)
“नारायणकी महिमासम्बन्धी उपाख्यानका उपसंहार”
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! नर-नारायणका वह कथन सुनकर भगवानके प्रति नारदजीकी भक्ति बहुत बढ़ गयी। वे उनके अनन्य भक्त हो गये ।। १ ।।
नर-नारायणके आश्रममें भगवानकी कथा सुनते और प्रतिदिन अविनाशी श्रीहरिका दर्शन करते हुए जब नारदजीके एक हजार दिव्य वर्ष पूरे हो गये तब वे शीघ्र ही हिमालयपर्वतके उस भागमें चले गये, जहाँ उनका अपना आश्रम था ।। २६ ||
तत्पश्चात् वे विख्यात तपस्वी नर-नारायण ऋषि भी पुनः उसी रमणीय आश्रममें रहते हुए उत्तम तपस्यामें संलग्न हो गये ।। ३ $ ।।
जनमेजय! तुम पाण्डवोंके कुलभूषण और अत्यन्त पराक्रमी हो। तुम भी प्रारम्भसे ही इस कथाको सुनकर आज परम पवित्र हो गये हो || ४३ ।।
नृपश्रेष्ठ! जो मन, वाणी, और क्रियाद्वारा अविनाशी भगवान् विष्णुके साथ द्वेष रखता है, उसका न इस लोकमें ठिकाना है और न परलोकमें ।। ५३ ।।
जो देवश्रेष्ठ भगवान् नारायण हरिसे द्वेष करता है, उसके पितर सदाके लिये नरकमें डूब जाते हैं | ६३ ।।
पुरुषसिंह! भगवान् विष्णुको सबका आत्मा जानना चाहिये। यही वास्तविक स्थिति है। कोई भी मनुष्य भला अपने आत्माके साथ द्वेष कैसे कर सकता है? ।। ७३
तात! ये जो हमलोगोंके गुरु गन्धवतीपुत्र महर्षि व्यास बैठे हैं, इन्होंने ही भगवान्के परम उत्तम अविनाशी माहात्म्यका वर्णन किया है। निष्पाप! उन्हींसे मैंने यह सब सुना है और मेरेद्वारा तुमको भी कहा गया है ।। ८-९ ।।
नरेश्वर! देवर्षि नारदने तो रहस्य और संग्रह-सहित इस धर्मको साक्षात् जगदीश्वर नारायणसे ही प्राप्त किया था ।। १० ।।
नृपश्रेष्ठट इस प्रकार यह महान धर्म मैंने तुम्हें पहले हरिगीतामें संक्षेपसे बताया है ।। ११ ||
पुरुषसिंह! तुम कृष्णद्वैपायन व्यासको इस भूतलपर नारायणका ही स्वरूप समझो। भला, भगवानके सिवा दूसरा कौन महाभारतका कर्ता हो सकता है? ।। १२ ।।
भगवानके सिवा दूसरा कौन ऐसा है, जो नाना प्रकारके धर्मोका वर्णन कर सके? तुम्हारा यह महान् यज्ञ, जैसा कि तुमने संकल्प कर रकक््खा है, निरन्तर चालू रहे। तुमने अश्वमेध-यज्ञ करनेका संकल्प लिया है और सब धर्मोका यथार्थ रूपसे श्रवण किया है ।। १३-१४ ।।
सूतपुत्र कहते हैं--शौनक! वैशम्पायनजीके मुखसे यह महान् उपाख्यान सुनकर राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने अपने यज्ञको पूर्ण करनेका सारा कार्य आरम्भ किया ।। १५ ।।
शौनक! आज तुम्हारे प्रश्नके अनुसार इन नैमिषा-रण्यनिवासी मुनियोंके समीप मैंने यहाँ यह नारायणका माहात्म्य-सम्बन्धी उपाख्यान तुम्हें सुनाया है ।। १६ ।।
राजन! पूर्वकालमें नारदजीने ऋषियों, पाण्डवों, श्रीकृष्ण तथा भीष्मके सुनते हुए यह प्रसंग मेरे गुरु व्यासजीको बताया था ।। १७ ।।
वे परम गुरु, जनपति, भुवनपति, विशाल पृथ्वीको धारण करनेवाले, वेदज्ञान और विनयके भण्डार, शम और नियमकी निधि, ब्राह्मणोंके परम हितैषी तथा देवताओंके हितचिन्तक श्रीहरि तुम्हारे आश्रय हों ।। १८ ।।
असुरोंका वध करनेवाले, तपस्याकी निधि, विशाल यशके भाजन, मधु और कैटभके हन्ता, सत्ययुगके धर्मोका ज्ञान रखकर उनका पालन करनेवालोंको सदगति प्रदान करनेवाले, अभयदाता तथा यज्ञका भाग ग्रहण करनेवाले भगवान् नारायण तुम्हें शरण दें ।। १९ ||
जो तीनों गुणोंसे विशिष्ट होते हुए भी निर्गुण हैं, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्म और अनिरुद्ध नामक चार विग्रहोंको धारण करनेवाले हैं, इष्ट (यज्ञ-याग आदि), आपूर्त (वापी, कूप, तड़ाग-निर्माण आदि) के फलभागको ग्रहण करनेवाले हैं, जो कभी किसीसे पराजित नहीं होते तथा धैर्य या मर्यादासे विचलित नहीं होते, वे भगवान् श्रीहरि पुण्यात्मा ऋषियोंको आत्मज्ञानजन्य सदगति प्रदान करें || २० ।।
जो सम्पूर्ण जगत्के साक्षी, अजन्मा, अन्तर्यामी, पुराणपुरुष, सूर्यके समान तेजस्वी, ईश्वर और सब प्रकारसे सबकी गति हैं, उन परमेश्वरको तुम सब लोग एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करो; क्योंकि उन वासुदेवस्वरूप नारायण ऋषिको शेषशायी भी प्रणाम करते हैं । २१ ।।
वे इस जगत्के आदिकारण, अमृतपद (मोक्षके आश्रय) सूक्ष्मस्वरूप, दूसरोंको शरण देनेवाले, अविचल और सनातन पद हैं। उदार शौनक! अपने मनको वशमें रखनेवाले सांख्ययोगी बुद्धिके द्वारा उन्हींका वरण करते हैं ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें नाययणकी महिमाविषयक तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ छियालीसवें अध्याय के श्लोक 1-96 का हिन्दी अनुवाद)
“हयग्रीव-अवतारकी कथा, वेदोंका उद्धार, मधुकैटभका वध तथा नारायणकी महिमाका वर्णन”
शौनकने कहा--सूतनन्दन! हमलोगोंने षड्विधि ऐश्वर्यसे सम्पन्न उन परमात्मा श्रीहरिका माहात्म्य सुना और धर्मके घरमें उन्होंने ही नर-नारायणरूपसे जन्म ग्रहण किया था, इस बातको भी जान लिया ।। १ ।।
निष्पाप सूतपुत्र! भगवान् महावराहने जो प्राचीन कालमें पिण्डोंकी उत्पत्ति करके पिण्डदानकी मर्यादा चलायी तथा प्रवृत्ति और निवृत्तिके विषयमें जिस विधिकी जैसी कल्पना की, वह सब आपके मुखसे हमलोंगोंने सुना | २३ ।।
समुद्रके उत्तर-पूर्वभागमें हव्य और कव्यका भोग ग्रहण करनेवाले भगवान् विष्णुने महान् हयग्रीवावतार धारण किया था, यह बात आपने पहले मुझसे कही थी। साथ ही यह भी बतायी थी कि भगवान् परमेष्ठी ब्रह्माने उस रूपका प्रत्यक्ष दर्शन किया था ।। ३-४ ।।
महान बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ सूतपुत्र! सम्पूर्ण जगत्को धारण करनेवाले श्रीहरिने पूर्वकालमें वह अदभुत प्रभावशाली रूप क्यों प्रकट किया? उनका वैसा रूप तो पहले कभी देखनेमें नहीं आया था ।। ५ ।।
मुने! अमित बलशाली एवं अपूर्वरूपधारी उन पुण्यात्मा सुरश्रेष्ठ हयग्रीवका दर्शन करके ब्रह्माजीने क्या किया? ।। ६ ।।
सूतनन्दन! आपकी बुद्धि बड़ी उत्तम है। महापुरुष भगवानके अवतारसम्बन्धी इस पुरातन ज्ञानके विषयमें हमलोगोंको संशय हो रहा है। आप इसका समाधान कीजिये। आपने यह पुण्यमयी कथा कहकर हमलोगोंको पवित्र कर दिया है || ७३ ।।
सूतपुत्रने कहा--शौनकजी! मैं तुमसे वेदतुल्य प्रमाणभूत सारा पुरातन वृत्तान्त कहूँगा, जिसे भगवान् व्यासने- राजा जनमेजयको सुनाया था || ८६ ।।
भगवान् विष्णुके हयग्रीवावतारकी चर्चा सुनकर तुम्हारी ही तरह राजा जनमेजयको भी संदेह हो गया था। तब उन्होंने इस प्रकार प्रश्न किया-- || ९६ ।।
जनमेजय बोले--सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ मुने! ब्रह्माजीने भगवान्के जिस हयग्रीवावतारका दर्शन किया था, उसका प्रादुर्भाव किसलिये हुआ था? यह मुझे बताइये ।।
वैशम्पायनजीने कहा--प्रजानाथ! इस जगत्में जितने प्राणी हैं, वे सब ईश्वरके संकल्पसे उत्पन्न हुए पाँच महाभूतोंसे युक्त हैं | ११३ ।।
विराट्स्वरूप भगवान् नारायण इस जगत्के ईश्वर और स्रष्टा हैं, वे ही सब जीवोंके अन्तरात्मा, वरदाता, सगुण और निर्मुणरूप हैं || १२३ ।।
नृपश्रेष्ठ अब तुम पञ्चभूतोंके आत्यन्तिक प्रलयकी बात सुनो। पूर्वकालमें जब इस पृथ्वीका एकार्णवके जलमें लय हो गया। जलका तेजमें, तेजका वायुमें, वायुका आकाशमें, आकाशका मनमें, मनका व्यक्त (महत्तत्त्व) में, व्यक्तका अव्यक्त प्रकृतिमें, अव्यक्तका पुरुषमें अर्थात् मायाविशिष्ट ईश्वरमें और पुरुषका सर्वव्यापी परमात्मामें लय हो गया, उस समय सब ओर केवल अन्धकार-ही-अन्धकार छा गया। उसके सिवा और कुछ भी जान नहीं पड़ता था ।। १३-१६ ।।
तमसे जगत्का कारणभूत ब्रह्म (परम व्योम) प्रकट हुआ है। तमका मूल है अधिष्ठानभूत अमृततत्त्व। वह मूलभूत अमृत ही तमसे युक्त हो सभी नाम-रूपमें प्रपठचको प्रकट करता है और विराट् शरीरका आश्रय लेकर रहता है ।। १७ ।।
नृपश्रेष्ठी उसीको अनिरुद्ध कहा गया है। उसीको प्रधान भी कहते हैं तथा उसीको त्रिगुणमय अव्यक्त जानना चाहिये ।। १८ ।।
उस अवस्थामें विद्याशक्तिसे सम्पन्न सर्वव्यापी भगवान् श्रीहरिने योगनिद्राका आश्रय लेकर जलमें शयन किया ।। १९ |।
उस समय वे नाना गुणोंसे उत्पन्न होनेवाली जगत्की अद्भुत सृष्टिके विषयमें विचार करने लगे। सृष्टिके विषयमें विचार करते हुए उन्हें अपने गुण महान् (महत्तत्त्व) का स्मरण हो आया। उससे अहंकार प्रकट हुआ। वह अहंकार ही चार मुखोंवाले ब्रह्माजी हैं, जो सम्पूर्ण लोकोंके पितामह और भगवान् हिरण्यगर्भके नामसे प्रसिद्ध हैं | २०-२१ ।।
ब्रह्माण्डमें कमलमें अनिरुद्ध (अहंकार) से कमलनयन ब्रह्माका उस समय प्रादुर्भाव हुआ था। वे अद्भुत रूपधारी एवं तेजस्वी सनातन भगवान् ब्रह्मा सहखदल कमलपर विराजमान हो जब इधर-उधर दृष्टि डालने लगे, तब उन्हें समस्त जगत् जलमय दिखायी दिया। तब ब्रह्माजी सत्त्वगुणमें स्थित होकर प्राणियोंकी सृष्टिमें प्रवृत्त हुए || २२-२३ ।।
वे जिस कमलपर बैठे थे, उसका पत्ता सूर्यके समान देदीप्यमान होता था। उसपर पहलेसे ही भगवान् नारायणकी प्रेरणासे जलकी बूँदें पड़ी थीं, जो रजोगुण और तमोगुणकी प्रतीक थीं ।। २४ ।।
आदि-अन्तसे रहित भगवान् अच्युतने उन दोनों बूँदोंकी ओर देखा। उनमेंसे एक बूँद भगवानकी दृष्टि पड़ते ही उनकी प्रेरणासे तमोमय मधुनामक दैत्यके आकारमें परिणत हो गयी। उस दैत्यका रंग मधुके समान था और उसकी कान्ति बड़ी सुन्दर थी। जलकी दूसरी बूँद, जो कुछ कड़ी थी, नारायणकी आज्ञासे रजोगुणसे उत्पन्न कैटभ नामक दैत्यके रूपमें प्रकट हुई ।।
तमोगुण और रजोगुणसे युक्त वे दोनों श्रेष्ठ दैत्य मधु और कैटभ बड़े बलवान थे। वे अपने हाथोंमें गदा लिये कमलनालका अनुसरण करते हुए आगे बढ़ने लगे ।। २७ ।।
ऊपर जाकर उन्होंने कमल-पुष्पके आसनपर बैठकर सृष्टि-रचनामें प्रवृत्त हुए अमित तेजस्वी ब्रह्माजीको देखा एवं उनके पास ही मनोहर रूप धारण किये हुए चारों वेदोंको देखा ।। २८ ।।
उन विशालकाय श्रेष्ठ असुरोंने उस समय वेदोंपर दृष्टि पड़ते ही उन्हें ब्रह्माजीके देखतेदेखते सहसा हर लिया ।। २९ |।
सनातन वेदोंका अपहरण करके वे दोनों श्रेष्ठ दानव उत्तर-पूर्ववर्ती महासागरमें घुस गये और तुरंत रसातलमें जा पहुँचे || ३० ।।
वेदोंका अपहरण हो जानेपर ब्रह्माजीको बड़ा खेद हुआ। उनपर मोह छा गया। वे वेदोंसे वंचित होकर मन-ही-मन परमात्मासे इस प्रकार कहने लगे || ३१ ।।
ब्रह्मा बोले--भगवन! वेद ही मेरे उत्तम नेत्र हैं, वेद ही मेरे परम बल हैं। वेद ही मेरे परम आश्रय तथा वेद ही मेरे सर्वोत्तम उपास्य देव हैं || ३२ ।।
मेरे वे सभी वेद आज दो दानवोंने बलपूर्वक यहाँसे छीन लिये हैं। अब वेदोंके बिना मेरे लिये सम्पूर्ण लोक अन्धकारमय हो गये हैं ।। ३३ ।।
मैं वेदोंके बिना संसारकी उत्तम सृष्टि कैसे कर सकता हूँ? अहो! आज वेदोंके नष्ट होनेसे मुझपर बड़ा भारी दुःख आ पड़ा है, जो मेरे शोकमग्न हृदयको दुःसह पीड़ा दे रहा है। आज शोकके समुद्रमें डूबे हुए मुझ असहायका यहाँसे कौन उद्धार करेगा? उन नष्ट हुए वेदोंको कौन लायेगा? मैं किसको इतना प्रिय हूँ, जो मेरी ऐसी सहायता करेगा? ।। ३४-३५।।
नृपश्रेष्ठट ऐसी बातें कहते हुए ब्रह्माजीके मनमें भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करनेका विचार उत्पन्न हुआ। बुद्धिमानोंमें अग्रगण्य नरेश! तब भगवान् ब्रह्माने हाथ जोड़कर उत्तम एवं जपने योग्य स्तोत्रका गान आरम्भ किया || ३६-३७ ।।
ब्रह्माजी बोले-- प्रभो! वेद आपका हृदय है, आपको नमस्कार है। मेरे पूर्वज! आपको प्रणाम है। जगत्के आदि कारण! भुवनश्रेष्ठ! सांख्ययोगनिधे! प्रभो! आपको बारंबार नमस्कार है || ३८ ।।
व्यक्त जगत् और अव्यक्त प्रकृतिको उत्पन्न करनेवाले परमात्मन्! आपका स्वरूप अचिन्त्य है। आप कल्याणमय मार्ममें स्थित हैं। विश्वपालक! आप सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तरात्मा, किसी योनिसे उत्पन्न न होनेवाले, जगत्के आधार और स्वयम्भू हैं। मैं आपकी कृपासे उत्पन्न हुआ हूँ || ३९ ।।
आपसे मेरा प्रथम बार जो जन्म हुआ था, वह द्विजोंद्वारा सम्मानित मानस-जन्म कहा गया है अर्थात् प्रथम बार मैं आपके मनसे उत्पन्न हुआ। तदनन्तर पूर्वकालमें मैं आपके नेत्रसे उत्पन्न हुआ। वह मेरा दूसरा जन्म था || ४० ।।
तत्पश्चात् आपके कृपाप्रसादसे मेरा जो तीसरा महत्त्वपूर्ण जन्म हुआ, वह वाचिक था अर्थात् आपके वचनमात्रसे सुलभ हो गया था। विभो! उसके बाद आपके कानोंसे मेरा चतुर्थ जन्म हुआ था || ४१ ।।
उसके बाद आपकी नासिकासे मेरा पाँचवाँ उत्तम जन्म बताया जाता है। तदनन्तर मैं आपके द्वारा ब्रह्माण्डसे उत्पन्न किया गया। वह मेरा छठा जन्म था ।। ४२ ।।
प्रभो! यह मेरा सातवाँ जन्म है, जो कमलसे उत्पन्न हुआ है। त्रिगुणातीत परमेश्वर! मैं प्रत्येक कल्पमें आपका पुत्र होकर प्रकट होता हूँ ।। ४३ ।।
कमलनयन! आपका पुत्र मैं शुद्ध सत्त्वमय शरीरसे उत्पन्न हुआ हूँ। आप ईश्वर, स्वभाव, स्वयम्भू एवं पुरुषोत्तम हैं || ४४ ।।
आपने मुझे वेदरूपी नेत्रोंसे युक्त बनाया है। आपकी ही कृपासे कालातीत हूँ---मुझपर कालका जोर नहीं चलता। मेरे नेत्ररूप वे वेद दानवोंद्वारा हर लिये गये हैं; अतः मैं अन्धासा हो गया हूँ। प्रभो! निद्रा त्यागकर जागिये। मुझे मेरे नेत्र वापस दीजिये; क्योंकि मैं आपका प्रिय भक्त हूँ और आप मेरे प्रियतम स्वामी हैं || ४५३ ।।
ब्रह्माजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर सब ओर मुखवाले सबके अन्तर्यामी आत्मा भगवानने उसी क्षण निद्रा त्याग दी और वे वेदोंकी रक्षा करनेके लिये उद्यत हो गये || ४६।।
उन्होंने अपने ऐश्वर्यके योगसे दूसरा शरीर धारण किया, जो चन्द्रमाके समान कान्तिमान् था। सुन्दर नासिकावाले शरीरसे युक्त हो वे प्रभु घोड़ेके समान गर्दन और मुखधारण करके स्थित हुए। उनका वह शुद्ध मुख सम्पूर्ण वेदोंका आलय था ।। ४७-४८ ।।
नक्षत्रों और ताराओंसे युक्त स्वर्गलोक उनका सिर था। सूर्यकी किरणोंके समान चमकीले बड़े-बड़े बाल थे || ४९ ।।
आकाश और पाताल उनके कान थे एवं समस्त भूतोंको धारण करनेवाली पृथ्वी ललाट थी। गंगा और सरस्वती उनके नितम्ब तथा दो समुद्र उनकी दोनों भौंहें थे || ५० ।।
चन्द्रमा और सूर्य उनके दोनों नेत्र तथा नासिका संध्या थी। कार संस्कार (आभूषण) और विद्युत् जिह्ना बनी हुई थी। राजन! सोमपान करनेवाले पितर उनके दाँत सुने गये हैं तथा गोलोक और ब्रह्मलोक उन महात्माके ओषछ्ठ थे || ५१-५२ |।
नरेश्वर! तमोमयी कालरात्रि उनकी ग्रीवा थी। इस प्रकार अनेक मूर्तियोंसे आवृत हयग्रीव रूप धारण करके वे जगदीश्वर श्रीहरि वहाँसे अन्तर्धान हो गये और रसातलमें जा पहुँचे || ५३ ३ ।।
रसातलमें प्रवेश करके परम योगका आश्रय ले शिक्षाके नियमानुसार उदात्त आदि स्वरोंसे युक्त उच्च स्वरसे सामवेदका गान करने लगे || ५४ $ ।।
नाद और स्वरसे विशिष्ट सामगानकी वह सर्वथा स्निग्ध एवं मधुर ध्वनि रसातलमें सब ओर फैल गयी, जो समस्त प्राणियोंके लिये गुणकारक थी ।। ५५३ ।।
उन दोनों असुरोंने वह शब्द सुनकर वेदोंको कालपाशसे आबद्ध करके रसातलमें फेंक दिया और स्वयं उसी ओर दौड़े जिधरसे वह ध्वनि आ रही थी || ५६३ ।।
राजन! इसी बीचमें हयग्रीव रूपधारी भगवान् श्रीहरिने रसातलमें पड़े हुए उन सम्पूर्ण वेदोंको ले लिया तथा ब्रह्माजीको पुनः वापस दे दिया और फिर वे अपने आदि रूपमें आ गये ।। ५७-५८ ।।
भगवानने महासागरके पूर्वोत्तरभागमें वेदोंके आश्रयभूत अपने हयग्रीव रूपकी स्थापना करके पुनः पूर्वरूप धारण कर लिया। तबसे भगवान् हयग्रीव वहीं रहने लगे ।। ५९ ||
इधर वेदध्वनिके स्थानपर आकर मधु और कैटभ दोनों दानवोंने जब कुछ नहीं देखा, तब वे बड़े वेगसे फिर वहीं लौट आये, जहाँ उन वेदोंको नीचे डाल रखा था। वहाँ देखनेपर उन्हें वह स्थान सूना ही दिखायी दिया || ६० ३ ।।
तब वे बलवानोंमें श्रेष्ठ दोनों दानव पुनः उत्तम वेगका आश्रय ले रसातलसे शीघ्र ही ऊपर उठे और ऊपर आकर देखते हैं तो वे ही आदिकर्ता भगवान् पुरुषोत्तम दृष्टिगोचर हुए। जो चन्द्रमाके समान विशुद्ध, उज्ज्वल प्रभासे विभूषित, गौरवर्णके थे। वे उस समय अनिरुद्ध-विग्रहमें स्थित थे और वे अमित पराक्रमी भगवान् योगनिद्राका आश्रय लेकर सो रहे थे ।।
पानीके ऊपर शेषनागके शरीरकी शब्या निर्मित हुई थी, जिसकी लम्बाई भगवान्के श्रीविग्रहके अनुरूप ही थी। वह शय्या ज्वालामालाओंसे आवृत जान पड़ती थी। उसके ऊपर विशुद्ध सत्त्वगुणसे सम्पन्न मनोहर कान्तिवाले भगवान् नारायण सो रहे थे। उन्हें देखकर वे दोनों दानवराज ठहाका मारकर जोर-जोरसे हँसने लगे || ६४-६५ ।।
रजोगुण और तमोगुणसे आविष्ट हुए वे दोनों असुर परस्पर कहने लगे, “यह जो श्वेतवर्णवाला पुरुष निद्रामें निमग्न होकर सो रहा है, निश्चय ही इसीने रसातलसे वेदोंका अपहरण किया है। यह किसका पुत्र है? कौन है? और क्यों यहाँ सर्पके शरीरकी शय्यापर सो रहा है?' ।। ६६-६७ ।।
इस प्रकार बातचीत करके उन दोनोंने भगवान्को जगाया। उन्हें युद्धके लिये उत्सुक जान भगवान् पुरुषोत्तम जाग उठे। फिर उन दोनों असुरेन्द्रोंका अच्छी तरह निरीक्षण करके उन्होंने मन-ही-मन उनके साथ युद्ध करनेका निश्चय किया ।। ६८ ई |।
फिर तो उन दोनों असुरोंका और भगवान् नारायणका युद्ध आरम्भ हो गया। भगवान् मधुसूदनने ब्रह्माजीका मान रखनेके लिये तमोगुण और रजोगुणसे आविष्ट शरीरवाले उन दोनों दैत्यों--मधु और कैटभको मार डाला ।।
इस प्रकार वेदोंको वापस लाकर और मधु-कैटभका वध करके भगवान् पुरुषोत्तमने ब्रह्माजीका शोक दूर कर दिया || ७१ ।।
तत्पश्चात् वेदसे सम्मानित और भगवानसे सुरक्षित होकर ब्रह्माजीने समस्त चराचर जगत्की सृष्टि की || ७२ ।।
ब्रह्माजीको लोक-रचनाकी श्रेष्ठ बुद्धि देकर भगवान् नारायणदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। वे जहाँसे आये थे, वहीं चले गये || ७३ ।।
श्रीहरिने इस प्रकार हयग्रीवरूप धारण करके उन दोनों दानवोंका वध किया था। उन्होंने पुनः प्रवृत्तिधर्मका प्रचार करनेके लिये ही उस शरीरको प्रकट किया था ।। ७४ ।।
इस तरह महाभाग श्रीहरिने हयग्रीवरूप धारण किया था। भगवानका यह वरदायक रूप पुरातन एवं पुराण-प्रसिद्ध है ।। ७५ ।।
जो ब्राह्मण प्रतेदिन इस अवतार-कथाको सुनता या स्मरण करता है, उसका अध्ययन कभी नष्ट (निष्फल) नहीं होता है || ७६ ।।
महादेवजीके बताये हुए मार्गपर चलकर उग्र तपस्याद्वारा भगवान् हयग्रीवकी आराधना करके पांचालदेशीय गालवमुनिने वेदोंका क्रमविभाग प्राप्त किया था || ७७ ।।
राजन! तुमने जिसके लिये मुझसे पूछा था, यह हयग्रीवावतारकी वेदानुमोदित प्राचीन कथा मैंने तुम्हें सुना दी || ७८ ।।
परमात्मा कार्यसाधनके लिये जिस-जिस शरीरको धारण करना चाहते हैं, उसे कार्य करते समय स्वयं ही प्रकट कर लेते हैं || ७९ ।।
ये श्रीमान् हरि वेद और तपस्याकी निधि हैं। ये ही योग, सांख्य, ब्रह्म, श्रेष्ठ हविष्प और विभु हैं || ८० ।।
वेदोंका पर्यवसान भगवान् नारायणमें ही है। यज्ञ नारायणके ही स्वरूप हैं। तपस्याके परम फल भगवान् नारायण ही हैं तथा नारायणकी प्राप्ति ही सर्वोत्तम गति है ।। ८१
सत्यके परम लक्ष्य नारायण ही हैं। ऋत नारायणका ही स्वरूप है। जिसके आचरणसे पुनर्जन्मकी प्राप्ति नहीं होती, उस निवृत्तिप्रधान धर्मके भी चरम लक्ष्य भगवान् नारायण ही हैं ।। ८२ ।।
प्रवृत्तिकूप धर्म भी नारायणका ही स्वरूप है। भूमिका श्रेष्ठम गुण गन्ध भी नारायणमय ही है ।। ८३ ।।
राजन्! जलका गुण रस भी नारायणका ही स्वरूप है। तेजका उत्तम गुण रूप भी नारायणमय ही है ।। ८४ ।।
वायुका गुण स्पर्श भी नारायणस्वरूप ही है तथा आकाशका गुण शब्द भी नारायणमय ही है ।। ८५ |।
अव्यक्त गुण एवं लक्षणवाला मन नामक भूत, काल और नक्षत्रमण्डल--ये सब नारायणके ही अश्रित हैं ।। ८६ ।।
कीर्ति, श्री और लक्ष्मी आदि देवियाँ नारायणको ही अपना परम आश्रय मानती हैं। सांख्यका परम तात्पर्य भी नारायण ही हैं और योग भी नारायणका ही स्वरूप है || ८७ ।।
पुरुष, प्रधान, स्वभाव, कर्म तथा दैव-ये जिन वस्तुओंके कारण हैं, वे भी नारायणरूप ही हैं || ८८ ।।
अधिष्ठान, कर्ता, भिन्न-भिन्न प्रकारके करण, नाना प्रकारकी अलग-अलग चेष्टाएँ तथा पाँचवाँ दैव--इन पाँच कारणोंके रूपमें सर्वत्र श्रीहरि ही विराजमान हैं || ८९६ ।।
जो लोग सर्वव्यापक हेतुओंद्वारा तत््वको जाननेकी इच्छा रखते हैं, उनके लिये महायोगी भगवान् नारायण हरि ही एकमात्र ज्ञातव्य तत्त्व हैं | ९० ६ ।।
भगवान् केशव ब्रह्मा आदि देवताओं, सम्पूर्ण लोकों, महात्मा-ऋषियों, सांख्यवेत्ताओं, योगियों और आत्मज्ञानी यतियोंके मनकी बातें भी जानते हैं; परंतु उनके मनमें क्या है? यह उनमेंसे किसीको पता नहीं है ।।
समस्त विश्वमें जो कोई देवताओंके लिये यज्ञ और पितरोंके लिये श्राद्ध करते हैं, दान देते हैं और बड़ी भारी तपस्या करते हैं, उन सबके आश्रय भगवान् विष्णु ही हैं। वे अपने ऐश्वर्ययोगमें स्थित रहते हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंके आवासस्थान होनेके कारण वे “वासुदेव” कहे जाते हैं ।। ९३-९४ ।।
ये परम महर्षि नारायण नित्य, महान् ऐश्वर्यसे युक्त और गुणोंसे रहित हैं तथापि जैसे गुणहीन काल ऋतुके गुणोंसे युक्त होता है, उसी प्रकार वे भी समय-समयपर गुणोंको स्वीकार करके उनसे संयुक्त होते हैं || ९५ ।।
उन महात्माकी गतिको कोई नहीं जानता। उनके आगमनका भी यहाँ किसीको कुछ पता नहीं चलता। जो ज्ञानस्वरूप महर्षि हैं, वे ही उन नित्य, अन्तर्यामी एवं अनन्तगुणविभूषित परमात्माका साक्षात्कार करते हैं ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारायणकी महिमाविषयक तीन सौ सैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- वैशम्पायनजीने जनमेजयको महाभारतकी कथा वेदव्यासजीकी आज्ञासे सुनायी थी इस कारण यहाँ ऐसा लिखा है।
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