सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ तैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तैतालिसवें अध्याय के श्लोक 1-66 का हिन्दी अनुवाद)
“जनमेजयका प्रश्न, देवर्षि नारदका श्वेतद्वीपसे लौटकर नरनारायणके पास जाना और उनके पूछनेपर उनसे वहाँके महत्त्वपूर्ण दृश्यका वर्णन करना”
शौनकने कहा--सूतनन्दन! आपने यह बहुत बड़ा आख्यान सुनाया है। इसे सुनकर समस्त ऋषियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ है ।। १ ।।
सूतकुमार! सम्पूर्ण ऋषि-आश्रमोंकी यात्रा करना और समस्त तीर्थोमें स्नान करना भी वैसा फलदायक नहीं है, जैसी कि भगवान् नारायणकी कथा है ।। २ ।।
समस्त पापोंसे छुड़ानेवाली नारायणसम्बन्धिनी इस पुण्यमयी कथाको आरम्भसे ही सुनकर हमारे तन-मन पवित्र हो गये ।। ३ ।।
सर्वलोकवन्दित भगवान् नारायणदेवका दर्शन तो ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओं तथा अन्यान्य महर्षियोंके लिये भी दुर्लभ है ।। ४ ।।
सूतनन्दन! नारदजीने जो देवदेव नारायण हरिका दर्शन कर लिया, यह निश्चय ही उन भगवान्की अनुमतिसे ही सम्भव हुआ ।। ५ |।
नारदजीने जो अनिरुद्ध-विग्रहमें स्थित हुए जगन्नाथ श्रीहरिका दर्शन किया और पुनः जो वे वहाँसे देवश्रेष्ठ नर-नारायणका दर्शन करनेके लिये उनके पास दौड़े गये, इसका क्या कारण है? यह मुझे बताइये ।। ६३ ।।
सूतपुत्रने कहा--शौनक! राजा जनमेजयका वह यज्ञ विधिपूर्वक चल रहा था। उसमें विभिन्न कर्मोके बीचमें अवकाश मिलनेपर राजेन्द्र जनमेजयने अपने पितामहोंके पितामह वेदनिधि भगवान् कृष्णद्वैपायन महर्षि व्याससे इस प्रकार पूछा || ७-८६ ।।
जनमेजय बोले--भगवन्! भगवान् नारायणके कथनपर विचार करते हुए देवर्षि नारद जब श्वेतद्वीपसे लौट आये, तब उसके बाद उन्होंने क्या किया? ।। ९३ ।।
बदरिकाश्रममें आकर उन दोनों ऋषियोंसे मिलनेके पश्चात् नारदजीने वहाँ कितने समयतक निवास किया और उन दोनोंसे कौन-सी कथा पूछी? ।। १०३ ।।
एक लाख श्लोकोंसे युक्त विस्तृत महाभारत इतिहाससे निकालकर जो आपने यह सारभूत कथा सुनायी है, यह बुद्धिरूपी मथानीके द्वारा ज्ञानके उत्तम समुद्रको मथकर निकाले गये अमृतके समान है ।। ११३ ।।
ब्रह्मन! जैसे दहीसे मक्खन, मलयपर्वतसे चन्दन, वेदोंसे आरण्यक और ओषधियोंसे अमृत निकाला गया है, उसी प्रकार आपने यह कथारूपी अमृत निकालकर रखा है ।। १२-१३ ।।
तपोनिधे! आपने भगवान् नारयणकी कथासे सम्बन्ध रखनेवाली जो बातें कही हैं, वे सब इस ग्रन्थकी सारभूत हैं। सबके ईश्वर भगवान् नारायणदेव सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेवाले हैं || १४ ।।
द्विजश्रेष्ठी उन भगवान् नारायणका तेज अद्भुत है। मनुष्यके लिये उसकी ओर देखना भी कठिन है। कल्पके अन्तमें जिनके भीतर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता, ऋषि, गन्धर्व तथा जो कुछ भी चराचर जगत् है, वह सब विलीन हो जाता है, उनसे बढ़कर परम पावन एवं महान् इस भूतल और स्वर्गलोकमें मैं दूसरे किसीको नहीं मानता ।। १५-१६ ।।
सम्पूर्ण ऋषि-आश्रमोंकी यात्रा करना और समस्त तीर्थोमें स्नान करना भी वैसा फल देनेवाला नहीं है, जैसा कि भगवान् नारायणकी कथा प्रदान करती है ।। १७ ।।
सम्पूर्ण विश्वके स्वामी श्रीहरिकी कथा सब पापोंका नाश करनेवाली है। उसे आरम्भसे ही सुनकर हम सब लोग यहाँ सर्वथा पवित्र हो गये हैं || १८ ।।
मेरे पितामह अर्जुनने जो भगवान् वासुदेवकी सहायता पाकर उत्तम विजय प्राप्त कर ली, वह वहाँ उन्होंने कोई अदभुत कार्य नहीं किया है ।। १९ ।।
त्रिलोकीनाथ भगवान् कृष्ण ही जब उनके सहायक थे, तब उनके लिये तीनों लोकोंमें किसी वस्तुकी प्राप्ति असम्भव रही हो, यह मैं नहीं मानता ।।
ब्रह्मन! मेरे सभी पूर्वज धन्य थे, जिनका हित और कल्याण करनेके लिये साक्षात् जनार्दन तैयार रहते थे ।।
लोकपूजित भगवान् नारायणका दर्शन तो तपस्यासे ही हो सकता है; किंतु मेरे पितामहोंने श्रीवत्सके चिह्से विभूषित उन भगवानका साक्षात् दर्शन अनायास ही पा लिया था ।। २२ ||
उन सबसे भी अधिक धन्यवादके योग्य ब्रह्मपुत्र नारदजी हैं। मैं अविनाशी नारदजीको कम तेजस्वी ऋषि नहीं समझता, जिन्होंने श्वेतद्वीपमें पहुँचकर साक्षात् श्रीहरिका दर्शन प्राप्त कर लिया। उनका वह भगवद्-दर्शन स्पष्ट ही उन भगवान्की कृपाका फल है ।।
मुने! नारदजीने उस समय प्वैतद्वीपमें जाकर जो अनिरुद्ध-विग्रहमें स्थित नारायणदेवका साक्षात्कार किया तथा पुनः नर-नारायणका दर्शन करनेके लिये जो बदरिकाश्रमको प्रस्थान किया, इसका क्या कारण है? ।। २५३६ ।।
ब्रह्मपुत्र नारदजी श्वेतद्वीपसे लौटनेपर जब बदरिकाश्रममें पहुँचकर उन दोनों ऋषियोंसे मिले, तब वहाँ उन्होंने कितने समयतक निवास किया? और वहाँ उनसे किन-किन प्रश्नोंकी पूछा? ।। २६-२७ ।।
श्वेतद्वीपसे लौटे हुए उन नारदजीसे महात्मा नर-नारायण ऋषियोंने क्या बात की थी? ये सब बातें आप यथार्थरूपसे बतानेकी कृपा करें || २८६ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--अमिततेजस्वी भगवान् व्यासको नमस्कार है, जिनके कृपाप्रसादसे मैं भगवान् नारायणकी यह कथा कह रहा हूँ ।। २९६ ।।
राजन! श्वेतनामक महाद्वीपमें जाकर वहाँ अविनाशी श्रीहरिका दर्शन करके जब नारदजी लौटे, तब बड़े वेगसे मेरुपर्वतपर आ पहुँचे। परमात्मा श्रीहरिने उनसे जो कुछ कहा था, उस कार्यभारको वे हृदयसे ढो रहे थे || ३०-३१ ।।
नरेश्वर! तत्पश्चात् उनके मनमें यह सोचकर बड़ा भारी विस्मय हुआ कि मैं इतनी दूरका मार्ग तै करके पुनः यहाँ सकुशल कैसे लौट आया? ।। ३२ ।।
तदनन्तर वे मेरुसे गन्धमादन पर्वतकी ओर चले और बदरीविशालतीर्थके समीप तुरंत ही आकाशसे नीचे उतर पड़े ।। ३३ ।।
वहाँ उन्होंने उन दोनों पुरातन देवता ऋषिश्रेष्ठ नर-नारायणका दर्शन किया, जो आत्मनिष्ठ हो महान् व्रत लेकर बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे ।। ३४ ।।
वे दोनों सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करनेवाले सूर्यसे भी अधिक तेजस्वी थे। उन पूज्य महात्माओंके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सके चिह्न सुशोभित हो रहे थे और वे अपने मस्तकपर जटामण्डल धारण किये हुए थे ।।
उनके हाथोंमें हंसका और चरणोंमें चक्रका चिह्न था। विशाल वक्ष:स्थल, बड़ी-बड़ी भुजाएँ, अण्डकोशमें चार-चार बीज, मुखमें साठ दाँत और आठ दाढ़ें, मेघके समान गम्भीर स्वर, सुन्दर मुख, चौड़े ललाट, बाँकी भौंहें, सुन्दर ठोढ़ी और मनोहर नासिकासे उन दोनोंकी अपूर्व शोभा हो रही थी ।। ३६-३७ ।।
उन दोनों देवताओंके मस्तक छत्रके समान प्रतीत होते थे। ऐसे शुभलक्षणोंसे सम्पन्न उन दोनों महापुरुषोंका दर्शन करके नारदजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। भगवान् नर और नारायणने भी नारदजीका स्वागत-सत्कार करके उनका कुशल-समाचार पूछा ।। ३८-३९ ।।
तदनन्तर नारदजीने उन दोनों पुरुषोत्तमोंकी ओर देखकर मन-ही-मन विचार किया, अहो! मैंने श्वेतद्वीपमें भगवान्की सभाके भीतर जिन सर्वभूतवन्दित सदस्योंको देखा था, ये दोनों ऋषिश्रेष्ठ भी वैसे ही हैं ।।
मन-ही-मन ऐसा सोचकर वे उन दोनोंकी प्रदक्षिणा करके एक सुन्दर कुशासनपर बैठ गये ।। ४१३ ।।
तदनन्तर तपस्या, यश और तेजके भी निवासस्थान वे शम-दमसम्पन्न दोनों ऋषि पूर्वाह्नकालका नित्य कर्म पूर्ण करके फिर शान्त-भावसे पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके नारदजीकी पूजा करने लगे || ४२-४३ ।।
नरेश्वर! अपने नित्यकर्म तथा नारदजीका आतिथ्य-सत्कार करके वे दोनों ऋषि भी कुशासनपर बैठ गये। वहाँ उन तीनोंके बैठ जानेपर वह प्रदेश घीकी आहुतिसे प्रज्वलित विशाल लपटोंवाले तीन अग्नियोंसे प्रकाशित यज्ञमण्डपकी भाँति सुशोभित होने लगा || ४४३६ ||
इसके बाद वहाँ आतिथ्य ग्रहण करके सुखपूर्वक बैठकर विश्राम करते हुए नारदजीसे नारायणने इस प्रकार कहा || ४५३ ।।
नर-नारायण बोले--देवर्षे! क्या तुमने इस समय श्वेतद्वीपमें जाकर हम दोनोंका परम कारणरूप सनातन परमात्मा भगवान्का दर्शन कर लिया? ।। ४६६ ।।
नारदजीने कहा--भगवन! मैंने विश्वरूपधारी उन अविनाशी एवं कान्तिमान् परम पुरुषका दर्शन कर लिया। ऋषियोंसहित देवता तथा सम्पूर्ण लोक उन्हींके भीतर विराजमान हैं || ४७६ ।।
मैं इस समय भी आप दोनों सनातन पुरुषोंको देखकर यहीं श्वेतद्वीपनिवासी भगवानकी झाँकी कर रहा हूँ। वहाँ मैंने अव्यक्तरूपधारी श्रीहरिको जिन लक्षणोंसे सम्पन्न देखा था, आप दोनों व्यक्तरूपधारी पुरुष भी उन्हीं लक्षणोंसे सुशोभित हैं || ४८-४९ ।।
इतना ही नहीं, मैंने आप दोनोंको वहाँ भी परमदेवके पास उपस्थित देखा था और उन्हीं परमात्माके भेजनेसे आज मैं फिर यहाँ आया हूँ || ५० ।।
तीनों लोकोंमें धर्मके पुत्र आप दोनों महापुरुषोंके सिवा दूसरा कौन है, जो तेज, यश और श्रीमें उन्हीं परमेश्वरके समान हो ।। ५१ ।।
उन भगवान् श्रीहरिने मुझसे सम्पूर्ण धर्मका वर्णन किया था। क्षेत्रज्षका भी परिचय दिया था और यहाँ भविष्यमें उनके जो अवतार जैसे होनेवाले हैं, उन्हें भी बताया था ।। ५२ ||
वहाँ जो चन्द्रमाके समान गौरवर्णके पुरुष थे, वे सब-के-सब पाँचों इन्द्रियोंसे रहित अर्थात् पाज्च-भौतिक शरीरसे शून्य, ज्ञानवान् तथा पुरुषोत्तम श्रीविष्णुके भक्त थे || ५३ ।।
वे सदा उन नारायणदेवकी पूजा-अर्चा करते रहते हैं और भगवान् भी सदा उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक क्रीड़ा करते रहते हैं। भगवानको अपने भक्त बहुत ही प्रिय हैं तथा वे परमात्मा श्रीहरि ब्राह्मणोंके भी प्रेमी हैं || ५४ ।।
वे विश्वका पालन करनेवाले सर्वव्यापी भगवान् बड़े भक्तवत्सल हैं। भगवद्धक्तोंके प्रेमी और प्रियतम श्रीहरि उनसे पूजित हो वहाँ सदा सुप्रसन्न रहते हैं ।।
वे ही कर्ता, कारण और कार्य हैं। उनका बल और तेज अनन्त है। वे महायशस्वी भगवान् ही हेतु, आज्ञा, विधि और तत्त्वरूप हैं ।। ५६ ।।
वे अपने आपको तपस्यामें लगाकर श्वेतद्वीपसे भी परे प्रकाशमान तेजोमय स्वरूपसे विख्यात हैं। उनका वह तेज अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है || ५७ ।।
उन पूतात्मा परमात्माने तीनों लोकोंमें उस शान्तिका विस्तार किया है। अपनी इस कल्याणमयी बुद्धिके द्वारा वे नैप्ठिक व्रतका आश्रय लेकर स्थित हैं ।। ५८ ।।
वहाँ सूर्य नहीं तपते, चन्द्रमा नहीं प्रकाशित होते तथा दुष्कर तपस्यामें लगे हुए देवेश्वर श्रीहरिके समीप यह लौकिक वायु भी नहीं चलती है ।। ५९ ।।
वहाँकी भूमिपर एक ऊँची वेदी बनी है, जिसकी ऊँचाई आठ अंगुलियोंकी लंबाईके बराबर है। उसपर आखरूढ़ हो वे विश्वकर्ता परमात्मा दोनों भुजाएँ ऊपर उठाये और उत्तरकी ओर मुँह किये एक पैरसे खड़े हैं ।।
वे अंगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंकी आवृत्ति करते हुए अत्यन्त कठोर तपस्यामें संलग्न हैं। ब्रह्मा, स्वयं महादेव, सम्पूर्ण ऋषि और शेष, श्रेष्ठ देवता तथा दैत्य, दानव, राक्षस, नाग, गरुड, गन्धर्व, सिद्ध एवं राजर्षिगण सदा विधिपूर्वक जो हव्य और कव्य अर्पण करते हैं, वह सब कुछ उन्हीं भगवानके चरणोंमें उपस्थित होता है ।। ६१--६३ ।।
जिनकी बुद्धि अनन्य भावसे एकमात्र भगवानमें ही लगी हुई है, उन भक्तोंद्वारा जो क्रियाएँ समर्पित की जाती हैं, उन सबको वे भगवान् स्वयं शिरोधार्य करते हैं ।। ६४ ।।
वहाँके ज्ञानी-महात्मा भक्तोंसे बढ़कर भगवान्को तीनों लोकोंमें दूसरा कोई प्रिय नहीं है; अतः मैं अनन्य भावसे उन्हींकी शरणमें गया हूँ || ६५ ।।
यहाँ भी मैं उन्हीं परमात्माके भेजनेसे आया हूँ। स्वयं भगवान् श्रीहरिने मुझसे ऐसा कहा था। अब मैं उन्हींकी आराधनामें तत्पर हो आप दोनोंके साथ यहाँ नित्य निवास करूँगा ।। ६६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें नारययणकी महिमाविषयक तीन सौ तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चौवालीसवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
“नर-नारायणका नारदजीकी प्रशंसा करते हुए उन्हें भगवान् वासुदेवका माहात्म्य बतलाना”
नर-नारायणने कहा--नारद! तुमने श्वेतद्वीपमें जाकर जो साक्षात् भगवान्का दर्शन कर लिया, इससे तुम धन्य हो गये। वास्तवमें भगवानने तुमपर बड़ा भारी अनुग्रह किया। तुम्हारे सिवा और किसीने, साक्षात् कमलयोनि ब्रह्माजीने भी भगवान्का इस प्रकार दर्शन नहीं किया ।। १ ।।
नारद! वे भगवान् पुरुषोत्तम अव्यक्त प्रकृतिके मूल कारण हैं। उनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है। द्विजश्रेष्ठ! हम दोनों तुमसे सच कहते हैं कि भगवान्को इस जगतमें भक्तसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है। इसलिये उन्होंने स्वयं ही तुम्हें अपने स्वरूपका दर्शन कराया है ।। २-३ ।।
द्विजोत्तम! तपस्यामें लगे हुए उन परमात्माका जो स्थान है, वहाँ हम दोनोंके सिवा दूसरा कोई नहीं पहुँच सकता ।। ४ ।।
एक हजार सूर्योके एकत्र होनेपर जितनी कान्ति हो सकती है, उतनी ही उस स्थानकी भी कान्ति है, जहाँ भगवान् विराज रहे हैं ।। ५ ।।
विप्रवर! क्षमाशीलोंमें श्रेष्ठ नारद! विश्वविधाता ब्रह्माजीके भी पति उन परमेश्वरसे ही क्षमाकी उत्पत्ति हुई है, जिससे पृथ्वीका संयोग होता है ।। ६ ।।
सम्पूर्ण प्राणियोंका हित चाहनेवाले उन नारायण-देवसे ही रस प्रकट हुआ है, जिसका जलके साथ संयोग है और जिसके कारण जल द्रवीभूत होता है ।। ७ ।।
उन्हींसे रूप-गुणविशिष्ट तेजका प्रादुर्भाव हुआ है, जिससे सूर्यदेव संयुक्त हुए हैं। इसीलिये वे लोकमें प्रकाशित हो रहे हैं || ८ ।।
उन्हीं भगवान् पुरुषोत्तमसे स्पर्शकी उत्पत्ति हुई है, जिससे वायुदेव संयुक्त होते हैं और उससे संयुक्त होनेके कारण ही वे सम्पूर्ण लोकोंमें प्रवाहित होते हैं ।। ९ ।।
उन्हीं सर्वलोकेश्वर प्रभुसे शब्दका प्रादुर्भाव होता है, जिससे आकाशका नित्य संयोग है और जिसके ही कारण वह निरावृत रहता है || १० ।।
उन्हीं नारायणदेवसे सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर रहनेवाले मनकी भी उत्पत्ति हुई है। उस मनसे संयुक्त होकर ही चन्द्रमा प्रकाश-गुणको धारण करता है ।। ११ ।।
जहाँ भगवान् श्रीहरि हव्य और कव्यका भोग ग्रहण करते हुए विद्याशक्तिके साथ विराजमान हैं, वह वेदसंज्ञक स्थान सद्भूतोत्पादक कहलाता है ।। १२ ।।
द्विजश्रेष्ठ! संसारमें जो लोग पुण्य और पापसे रहित एवं निर्मल हैं, वे कल्याणमय मार्गसे भगवद्धामको प्राप्त होते हैं, उस समय सम्पूर्ण लोकोंके अन्धकारका नाश करनेवाले भगवान् सूर्य ही उनके उस मोक्षधामका द्वार बताये जाते हैं ।। १३ ई ।।
सूर्यदेव उनके सम्पूर्ण अंगोंको जलाकर भस्म कर देते हैं। फिर कहीं कोई उन्हें देख नहीं पाता। वे परमाणुस्वरूप होकर उन्हीं सूर्यदेवमें प्रवेश कर जाते हैं ।। १४ ६ ।।
फिर उनसे भी मुक्त होकर वे अनिरुद्धविग्रहमें स्थित होते हैं। फिर मनोमय होकर प्रद्युम्नमें प्रवेश करते हैं ।। १५ ३ ।।
प्रद्यम्नसे भी युक्त होकर वे सांख्यज्ञानसम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मण भगवद्भक्तोंके साथ जीवस्वरूप संकर्षणमें प्रविष्ट होते हैं ।। १६६ ।।
तदनन्तर तीनों गुणोंसे मुक्त हो वे श्रेष्ठ द्विज अनायास ही निर्गुणस्वरूप क्षेत्रज्ञ परमात्मामें प्रवेश कर जाते हैं। तुम सबके निवासस्थान भगवान् वासुदेवको ही क्षेत्रज्ञ समझो || १७-१८ ।।
जिन्होंने अपने मनको एकाग्र कर लिया है, जो शौच संतोष आदि नियमोंसे सम्पन्न और जितेन्द्रिय हैं, वे अनन्य भावसे भगवान्की शरणमें गये हुए भक्त साक्षात् वासुदेवमें प्रवेश करते हैं ।। १९ ।।
द्विजश्रेष्ठ) हम दोनों भी धर्मके घरमें अवतीर्ण हो इस रमणीय बदरिकाश्रमतीर्थका आश्रय ले कठोर तपस्यामें संलग्न हैं || २० ।।
ब्रह्मन! उन्हीं भगवान् परमदेव परमात्माके तीनों लोकोंमें जो देवप्रिय अवतार होनेवाले हैं, उनका सदा ही परम मंगल हो--यही हमारी इस तपस्याका उद्देश्य है ।। २१ ।।
द्विजोत्तम! हम दोनोंने पूर्ववत् अपने कर्ममें संलग्न हो सर्वोत्तम एवं सम्पूर्ण कठिनाइयोंसे युक्त उत्तम व्रतमें तत्पर रहते हुए ही श्वेतद्वीपमें उपस्थित होकर वहाँ तुम्हें देखा था। तपोधन! तुम वहाँ भगवान्से मिले और उनके साथ वार्तालाप किया। ये सारी बातें हम दोनोंको अच्छी तरह विदित हैं। महामुने! चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोकोंमें जो शुभ या अशुभ बात हो चुकी है, हो रही है, अथवा होनेवाली है, वह सब उस समय देवदेव भगवान् श्रीहरिने तुमसे कही थी || २२--२४ ॥।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! कठोर तपस्यामें लगे हुए भगवान् नर और नारायणकी यह बात सुनकर नारदजीने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और नारायणकी शरण लेकर उन्हींकी आराधनामें लग गये || २५ ।।
उन्होंने नारायणसम्बन्धी बहुत-से मन्त्रोंका विधिपूर्वक जप किया और एक सहस्र दिव्य वर्षोतक वे नर-नारायणके आश्रममें टिके रहे || २६ ।।
महातेजस्वी भगवान् नारद मुनि प्रतिदिन उन्हीं भगवान् वासुदेवकी तथा उन दोनों नर और नारायणकी भी आराधना करते हुए वहाँ रहने लगे || २७ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारायणकी महिमाविषयक तीन सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ पैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पैतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान् वराहके द्वारा पितरोंके पूजनकी मर्यादाका स्थापित होना”
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! किसी समय ब्रह्मपुत्र नारदजीने शास्त्रीय विधिके अनुसार पहले देवकार्य (हवन-पूजन) करके फिर पितृकार्य [(श्राद्ध-तर्पण) किया ।। १ ॥।
तब धर्मके ज्येष्ठ पुत्र नरने उनसे इस प्रकार पूछा--'द्विजश्रेष्ठ! तुम बुद्धिमानोंमें अग्रगण्य हो। तुम्हारे द्वारा देवकार्य और पितृकार्यके सम्पादित होनेपर उन कर्मोंस किसकी पूजा सम्पन्न होती है? यह मुझे शास्त्रके अनुसार बताओ। तुम यह कौन-सा कर्म करते हो? और इसके द्वारा किस फलको प्राप्त करना चाहते हो? ।। २-३ ।।
नारदजीने कहा--प्रभो! आपने ही पहले यह कहा था कि देवकर्म सबके लिये कर्तव्य है; क्योंकि देवकर्म उत्तम यज्ञ है और यज्ञ सनातन परमात्माका स्वरूप है ।। ४ ।।
अतः आपके उस उपदेशसे प्रभावित होकर मैं प्रतिदिन अविनाशी भगवान् वैकुण्ठका यजन कराता हूँ। उन्हींसे सर्वप्रथम लोकपितामह ब्रह्माजी प्रकट हुए हैं ।।
परमेष्ठी ब्रह्माने प्रसन्न होकर मेरे पिता प्रजापतिको उत्पन्न किया5। मैं उनका संकल्पजनित प्रथम पुत्र हूँ ।।
साधो! मैं पहले नारायणकी आराधनाका कार्य पूर्ण कर लेनेपर पितरोंका पूजन करता हूँ। इस प्रकार वे भगवान् नारायण ही मेरे पिता, माता और पितामह हैं ।।
पितृयज्ञोंमें सदा श्रीहरिकी ही आराधना की जाती है। एक दूसरी श्रुति है कि पिताओं (देवताओं) नें पुत्रों (अग्निष्वात्त- आदि) का पूजन किया ।। ८ ।।
देवताओंका वेदज्ञान भूल गया था; फिर उनके पुत्रोंने ही उन्हें वेदश्रुतियोंको पढ़ाया। इसीसे वे मन्त्रदाता पुत्र पितृभावको प्राप्त हुए ।। ९ ।।
पुत्रों और पिताओंने जो परस्पर एक-दूसरेका पूजन किया, यह बात आप दोनों शुद्धात्मा पुरुषोंको निश्चय ही पहलेसे ही ज्ञात रही होगी ।। १० ।।
देवताओंने पृथ्वीपर पहले कुश बिछाकर उनपर पितरोंके निमित्त तीन पिण्ड रखकर जो उनका पूजन किया था, इसका क्या कारण है? पूर्वकालमें पितरोंने पिण्डनाम कैसे प्राप्त किया? ।। ११ ।।
नर-नारायण बोले--मुने! यह समुद्रसे घिरी हुई पृथ्वी पहले एकार्णवके जलनमें डूबकर अदृश्य हो गयी थी। उस समय भगवान् गोविन्दने वराहरूप धारण करके शीघ्रतापूर्वक इसका उद्धार किया था ।। १२ ।।
वे पुरुषोत्तम पृथ्वीको अपने स्थानपर स्थापित करके जल और कीचड़से लिपटे अंगोंसे ही लोकहितका कार्य करनेके लिये उद्यत हुए ।। १३ ।।
जब सूर्य दिनके मध्य भागमें आ पहुँचे और तत्कालोचित्त नित्यकर्मका समय उपस्थित हुआ, तब भगवानने अपनी दाढ़ोंमें लगी हुई मिट्टीके सहसा तीन पिण्ड बनाये। नारद! फिर पृथ्वीपर कुश बिछाकर उन्होंने उन कुशोंपर ही वे पिण्ड रख दिये। इसके बाद अपने ही उद्देश्यसे उन पिण्डोंपर विधिपूर्वक पितृपूजनका कार्य सम्पन्न किया ।। १४-१५
अपने ही विधानसे प्रभुने वे तीनों पिण्ड संकल्पित किये। फिर अपने शरीरकी ही गर्मीसे उत्पन्न हुए स्नेहयुक्त तिलों द्वारा अपसव्यभावसे उन पिण्डोंका प्रोक्षण किया। तदनन्तर देवेश्वर श्रीहरिने स्वयं ही पूर्वाभिमुख हो प्रार्थना की और धर्म-मर्यादाकी स्थापनाके लिये यह बात कही ।। १६-१७ ।।
भगवान् वराहने कहा--मैं ही सम्पूर्ण लोकोंका स्रष्टा हूँ। मैं स्वयं ही जब पितरोंकी सृष्टिके लिये उद्यत हो पितृकार्यसम्बन्धी दूसरी विधियोंका चिन्तन करने लगा, उसी क्षण मेरी दो दाढ़ोंसे ये तीन पिण्ड दक्षिण दिशाकी ओर पृथ्वीपर गिर पड़े; अतः ये पिण्ड पितृस्वरूप ही हैं || १८-१९ ।।
तीन पितर मूर्तिहीन या अमूर्त होते हैं, जो पिण्डरूप मूर्ति धारण करके प्रकट हुए हैं, लोकमें मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये ये सनातन पितर हों || २० ।।
पिता, पितामह और प्रपितामह--इनके रूपमें मुझे ही इन तीन पिण्डोंमें स्थित जानना चाहिये || २१ ।।
मुझसे श्रेष्ठ कोई नहीं है; फिर दूसरा कौन है जिसका स्वयं मैं पूजन करूँ? संसारमें मेरा पिता कौन है? सबका दादा-बाबा तो मैं ही हूँ || २२ ।।
पितामहका पिता--परदादा भी मैं ही हूँ। मैं ही इस जगत्का कारण हूँ। विप्रवर! ऐसी बात कहकर देवाधिदेव भगवान् वराहने वराहपर्वतपर विस्तारपूर्वक पिण्डदान दे पितरोंके रूपमें अपने आपका ही पूजन करके वहीं अन्तर्धान हो गये || २३-२४ ।।
ब्रह्म! यह भगवान्की ही नियत की हुई मर्यादा है। इस प्रकार पितरोंको पिण्डसंज्ञा प्राप्त हुई है। भगवान् वराहके कथनानुसार वे पितर सदा सबके द्वारा पूजा प्राप्त करते हैं ।। २५ ।।
जो देवता, पितर, गुरु, अतिथि, गौ, श्रेष्ठ ब्राह्मण, पृथ्वी और माताकी मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा पूजा करते हैं, वे वास्तवमें भगवान् विष्णुकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि भगवान् विष्णु समस्त प्राणियोंके शरीरमें अन्तरात्मारूपसे विराजमान हैं || २६-२७
सुख और दु:खके स्वामी श्रीहरि समस्त प्राणियोंमें समभावसे स्थित हैं। श्रीनारायण महान् महात्मा एवं सर्वात्मा हैं; ऐसा श्रुतिमें कहा गया है || २८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें नाययणकी महिमाविषयक तीन सौ पैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- यद्यपि नारदजी ब्रह्माजीके ही पुत्र हैं तथापि दक्षके शापवश उन्हें पुनः प्रजापतिसे जन्म ग्रहण करना पड़ा यह कथा हरिवंशमें आयी है।
- अग्निष्वात्त आदि पितृगण देवताओंके ही पुत्र हैं। एक समय देवता दीर्घकालतक असुरोंके साथ युद्धमें लगे रहे, इसलिये उन्हें अपने पढ़े हुए वेद भूल गये। फिर उन पुत्रोंसे ही वेदोंको पढ़कर देवताओंने उनको पितृपदपर प्रतिष्ठित किया।
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