सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ इकतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)
“भगवान् श्रीकृष्णका अर्जुनको अपने प्रभावका वर्णन करते हुए अपने नामोंकी व्युत्पत्ति एवं माहात्म्य बताना”
जनमेजयने कहा--भगवन्! शिष्योंसहित महर्षि व्यासने जिन नाना प्रकारके नामोंद्वारा इन मधुसूदनका स्तवन किया था, उनका निर्वचन (व्युत्पत्ति) मुझे बतानेकी कृपा करें। मैं प्रजापतियोंके पति भगवान् श्रीहरिके नामोंकी व्याख्या सुनना चाहता हूँ; क्योंकि उन्हें सुनकर मैं शरच्चन्द्रके समान निर्मल एवं पवित्र हो जाऊँगा ॥१-२॥
वैशम्पायनजीने कहा--राजन्! भगवान् श्रीहरिने अर्जुनपर प्रसन्न होकर उनसे गुण और कर्मके अनुसार स्वयं अपने नामोंकी जैसी व्याख्या की थी, वही तुम्हें सुना रहा हूँ, सुनो ।। ३ ।।
नरेश्वर! जिन नामोंके द्वारा उन महात्मा केशवका कीर्तन किया जाता है, शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले अर्जुनने श्रीकृष्णसे उनके विषयमें इस प्रकार पूछा ।। ४ ।।
अर्जुन बोले--भूत, वर्तमान और भविष्य--तीनों कालोंके स्वामी, सम्पूर्ण भूतोंके स्रष्टा, अविनाशी, जगदाधार तथा सम्पूर्ण लोकोंको अभय देनेवाले जगन्नाथ, भगवन्, नारायणदेव! महर्षियोंने आपके जो-जो नाम कहे हैं तथा पुराणों और वेदोंमें कर्मानुसार जो-जो गोपनीय नाम पढ़े गये हैं, उन सबकी व्याख्या मैं आपके मुहसे सुनना चाहता हूँ। प्रभो! केशव! आपके सिवा दूसरा कोई उन नामोंकी व्युत्पत्ति नहीं बता सकता || ५--७ ।।
श्रीभगवान्ने कहा--अर्जुन! ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, उपनिषद् पुराण, ज्योतिष, सांख्यशास्त्र, योगशास्त्र तथा आयुर्वेदमें महर्षियोंने मेरे बहुत-से नाम कहे हैं ।। ८-९ ।।
उनमें कुछ नाम तो गुणोंके अनुसार हैं और कुछ कर्मोंसे हुए हैं। निष्पाप अर्जुन! तुम पहले एकाग्रचित होकर मेरे कर्मजनित नामोंकी व्याख्या सुनो || १० ।।
तात! मैं तुमसे उन नामोंकी व्युत्पत्ति बताता हूँ, क्योंकि पूर्वकालसे ही तुम मेरे आधे शरीर माने गये हो। जो समस्त देहधारियोंके उत्कृष्ट आत्मा हैं, उन महायशस्वी, निर्मुण सगुणरूप विश्वात्मा भगवान् नारायणदेवको नमस्कार है ।। ११३ ।।
जिनके प्रसादसे ब्रह्मा और क्रोधसे रुद्र प्रकट हुए हैं, वे श्रीहरि ही सम्पूर्ण चराचर जगतकी उत्पत्तिके कारण हैं ।। १२६ ।।
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! अठारह- गुणोंवाला जो सत्त्व है अर्थात् आदिपुरुष है, वही मेरी परा प्रकृति है। पृथ्वी और आकाशकी आत्मस्वरूपा वह योगबलसे समस्त लोकोंको धारण करनेवाली है। वही ऋता (कर्मफलभूत गतिस्वरूपा), सत्या (त्रिकालाबाधित ब्रह्मरूपा) अमर, अजेय तथा सम्पूर्ण लोकोंकी आत्मा है || १३-१४ ।।
उसीसे सृष्टि और प्रलय आदि सम्पूर्ण विकार प्रकट होते हैं। वही तप, यज्ञ और यजमान है, वही पुरातन विराट पुरुष है, उसे ही अनिरुद्ध कहा गया है। उसीसे लोकोंकी सृष्टि और प्रलय होते हैं || १५६ ।।
जब प्रलयकी रात व्यतीत हुई थी, उस समय उन अमित तेजस्वी अनिरुद्धकी कृपासे एक कमल प्रकट हुआ। कमलनयन अर्जुन! उसी कमलसे ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। वे ब्रह्मा भगवान् अनिरुद्धके प्रसादसे ही उत्पन्न हुए हैं । १६-१७ ।।
ब्रह्माका दिन बीतनेपर क्रोधके आवेशमें आये हुए उस देवके ललाटसे उनके पुत्ररूपमें संहारकारी रुद्र प्रकट हुए ।। १८ ।।
ये दोनों श्रेष्ठ देवता--ब्रह्मा और रुद्र भगवानके प्रसाद और क्रोधसे प्रकट हुए हैं तथा उन्हींके बताये हुए मार्गका आश्रय ले सृष्टि और संहारका कार्य पूर्ण करते हैं || १९ ।।
समस्त प्राणियोंको वर देनेवाले वे दोनों देवता सृष्टि और प्रलयके निमित्तमात्र हैं। (वास्तवमें तो वह सब कुछ भगवान्की इच्छासे ही होता है।) इनमेंसे संहारकारी रुद्रके कपर्दी (जटाजूटधारी), जटिल, मुण्ड, श्मशानगृहका सेवन करनेवाले, उग्र व्रतका आचरण करनेवाले, रुद्र, योगी, परम दारुण, दक्षयज्ञ-विध्वंसक तथा भगनेत्रहारी आदि अनेक नाम हैं ।। २०-२१ ।।
पाण्डुनन्दन! इन भगवान् रुद्रको नारायणस्वरूप ही जानना चाहिये। पार्थ! प्रत्येक युगमें उन देवाधिदेव महेश्वरकी पूजा करनेसे सर्वसमर्थ भगवान् नारायणकी ही पूजा होती है।। २२३६ ||
पाण्डुकुमार! मैं सम्पूर्ण जगत्का आत्मा हूँ। इसलिये मैं पहले अपने आत्मारूप रुद्रकी ही पूजा करता हूँ || २३३ ।।
यदि मैं वरदाता भगवान् शिवकी पूजा न करूँ तो दूसरा कोई भी उन आत्मरूप शंकरका पूजन नहीं करेगा, ऐसी मेरी धारणा है || २४ ६ ||
मेरे किये हुए कार्यको प्रमाण या आदर्श मानकर सब लोग उसका अनुसरण करते हैं। जिनकी पूजनीयता वेदशास्त्रोंद्वारा प्रमाणित है, उन्हीं देवताओंकी पूजा करनी चाहिये। ऐसा सोचकर ही मैं रुद्रदेवकी पूजा करता हूँ। जो रुद्रको जानता है, वह मुझे जानता है। जो उनका अनुगामी है, वह मेरा भी अनुगामी है ।।
कुन्तीनन्दन! रुद्र और नारायण दोनों एक ही स्वरूप हैं, जो दो स्वरूप धारण करके भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंमें स्थित हो संसारमें यज्ञ आदि सब कर्मामें प्रवृत्त होते हैं ।। २७ ।।
पाण्डवोंको आनन्दित करनेवाले अर्जुन! मुझे दूसरा कोई वर नहीं दे सकता; यही सोचकर मैंने पुत्र-प्राप्तिके लिये स्वयं ही अपने आत्मस्वरूप पुराणपुरुष जगदीश्वर रुद्रकी आराधना की थी || २८३६ ।।
विष्णु अपने आत्मस्वरूप रुद्रके सिवा किसी दूसरे देवताको प्रणाम नहीं करते; इसलिये मैं रुद्रका भजन करता हूँ ।। २९३ ।।
ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र तथा ऋषियोंसहित सम्पूर्ण देवता सुरश्रेष्ठ नारायणदेव श्रीहरिकी अर्चना करते हैं || ३०६ ।।
भरतनन्दन! भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंमें होनेवाले समस्त पुरुषोंके भगवान् विष्णु ही अग्रगण्य हैं; अतः सबको सदा उन्हींकी सेवा-पूजा करनी चाहिये ।। ३१ |
कुन्तीकुमार! तुम हव्यदाता विष्णुको नमस्कार करो, शरणदाता श्रीहरिको शीश झुकाओ, वरदाता विष्णुकी वन्दना करो तथा हव्यकव्यभोक्ता भगवान्को प्रणाम करो || ३२६ ||
तुमने मुझसे सुना है कि आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी--ये चार प्रकारके मनुष्य मेरे भक्त हैं। इनमें जो एकान्ततः मेरा ही भजन करते हैं, दूसरे देवताओंको अपना आराध्य नहीं मानते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ हैं। निष्कामभावसे समस्त कर्म करनेवाले उन भक्तोंकी परमगति मैं ही हूँ ।।
जो शेष तीन प्रकारके भक्त हैं, वे फलकी इच्छा रखनेवाले माने गये हैं। अतः वे सभी नीचे गिरनेवाले होते हैं--पुण्यभोगके अनन्तर स्वर्गादिलोकोंसे च्युत हो जाते हैं, परंतु ज्ञानी भक्त सर्वश्रेष्ठ फल (भगवत्प्राप्ति)का भागी होता है ।। ३५ ।।
ज्ञानी भक्त ब्रह्मा, शिव तथा दूसरे देवताओंकी निष्काम भावसे सेवा करते हुए भी अन्तमें मुझ परमात्माको ही प्राप्त होते हैं || ३६ ।।
पार्थ! यह मैंने तुमसे भक्तोंका अन्तर बतलाया है। कुन्तीनन्दन! तुम और मैं दोनों ही नर-नारायण नामक ऋषि हैं और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये हमने मानव-शरीरमें प्रवेश किया है || ३७३ |।
भारत! मैं अध्यात्मयोगोंको जानता हूँ तथा मैं कौन हूँ और कहाँसे आया हूँ--इस बातका भी मुझे ज्ञान है। लौकिक अभ्युदयका साधक प्रवृत्तिधर्म ओर नि:श्रेयस प्रदान करनेवाला निवृत्तिधर्म भी मुझसे अज्ञात नहीं है। एकमात्र मैं सनातन पुरुष ही सम्पूर्ण मनुष्योंका सुविख्यात आश्रयभूत नारायण हूँ ।। ३८-३९ ।।
नरसे उत्पन्न होनेके कारण जलको नार कहा गया है। वह नार (जल) पहले मेरा अयन (निवासस्थान) था; इसलिये ही मैं “नारायण” कहलाता हूँ ।। ४० ।।
(जो सबमें व्याप्त हो अथवा जो किसीका निवासस्थान हो, उसे “वासु” कहते हैं) मैं ही सूर्यरूप धारण करके अपनी किरणोंसे सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करता हूँ तथा मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंका वासस्थान हूँ; इसलिये मेरा नाम “वासुदेव” है || ४१ ।।
भारत! मैं सम्पूर्ण प्राणियोंकी गति ओर उत्पत्तिका स्थान हूँ। पार्थ! मैंने आकाश और पृथ्वीको व्याप्त कर रखा है। मेरी कान्ति सबसे बढ़कर है। भरतनन्दन! समस्त प्राणी अन्तकालनमें जिस ब्रह्मको पानेकी इच्छा करते हैं, वह भी मैं ही हूँ। कुन्तीकुमार! मैं सबका अतिक्रमण करके स्थित हूँ। इन सभी कारणोंसे मेरा नाम “विष्णु” हुआ है- || ४२-४३।।
मनुष्य दम (इन्द्रियसंयम) के द्वारा सिद्धि पानेकी इच्छा करते हुए मुझे पाना चाहते हैं तथा दमके द्वारा ही वे पृथ्वी, स्वर्ग एवं मध्यवर्ती लोकोंमें ऊँची स्थिति पानेकी अभिलाषा करते हैं, इसलिये मैं “दामोदर” कहलाता हूँ (“दम एव दाम: तेन उदीर्यति--उन्न्तिं प्राप्नोति यस्मात् स दामोदर:“--यह दामोदर शब्दकी व्युत्पत्ति है) || ४४ ।।
अन्न, वेद, जल और अमृतको पृश्नि कहते हैं। ये सदा मेरे गर्भमें रहते हैं; इसलिये मेरा नाम पृश्निगर्भ” है ।।
जब त्रितमुनि अपने भाइयोंद्वारा कुएँमें गिरा दिये गये, उस समय ऋषियोंने मुझसे इस प्रकार प्रार्थना की--'पृश्चिगर्भ! आप एकत और द्वितके गिराये हुए त्रितको डूबनेसे बचाइये।” उस समय मेरे पृश्चिगर्भ नामका बारंबार कीर्तन करनेसे ब्रह्माजीके आदि पुत्र ऋष्िप्रवर त्रित उस कुएँसे बाहर हो गये || ४६-४७ ।।
जगत्को तपानेवाले सूर्यकी तथा अग्नि और चन्द्रमाकी जो किरणें प्रकाशित होती हैं, वे सब मेरा केश कहलाती हैं। उस केशसे युक्त होनेके कारण सर्वज्ञ द्विजश्रेष्ठ मुझे "केशव" कहते हैं || ४८ $ ||
अर्जुन! इस प्रकार मेरा “केशव” नाम सम्पूर्ण देवताओं और महात्मा ऋषियोंके लिये वरदायक है ।।
अग्नि सोमके साथ संयुक्त हो एक योनिको प्राप्त हुए, इसलिये सम्पूर्ण चराचर जगत् अग्नि-सोममय है || ५० ।।
पुराणमें यह कहा गया है कि अग्नि और सोम एकयोनि हैं तथा सम्पूर्ण देवताओंके
मुख अग्नि हैं। एकयोनि होनेके कारण ये एक-दूसरेको आनन्द प्रदान करते और समस्त लोकोंको धारण करते हैं ।। ५१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें नारययणकी महिमाविषयक तीन सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- प्रीति, प्रकाश, उत्कर्ष, हलकापन, सुख, कृपणताका अभाव, रोषका अभाव, संतोष, श्रद्धा, क्षमा, धृति, अहिंसा, शौच, अक्रोध, सरलता, समता, सत्य तथा दोषदृष्टिका अभाव--ये सत्त्वके अठारह गुण हैं।
- - “विच्छ गतौ” (तुदादि), 'विच्छ दीप्तौ' (चुरादि), “विषु सेचने' (भ्वादि), “विष्लू व्याप्तौ' (जुहोत्यादि), “विश प्रवेशने'
- (तुदादि), “ष्णु प्रखवणे" (अदादि)--इन सभी धातुओंसे “विष्णु” शब्दकी सिद्धि होती है, अत: गति, दीप्ति, सेचन, व्याप्ति, प्रवेश तथा प्रख्रवण--ये सभी अर्थ “विष्णु” शब्दमें निहित हैं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बयालीसवें अध्याय के श्लोक 1-144 का हिन्दी अनुवाद)
“सृष्टिकी प्रारम्भिक अवस्थाका वर्णन, ब्राह्मणोंकी महिमा बतानेवाली अनेक प्रकारकी संक्षिप्त कथाओंका उल्लेख, भगवन्नामोंके हेतु तथा रुद्रके साथ होनेवाले युद्धमें नारायणकी विजय”
अर्जुनने पूछा--मधुसूदन! अग्नि और सोम पूर्वकालमें एकयोनि कैसे हो गये? मेरे मनमें यह संदेह उत्पन्न हुआ है। आप इसका निवारण कीजिये ।। १ ॥।
श्रीभगवान् बोले--पाण्डुनन्दन! कुन्तीकुमार! अपने तेजके उद्धवका प्राचीन वृत्तान्त मैं तुम्हें हर्षपूर्वक बताऊँगा। तुम एकचित्त होकर मुझसे सुनो ।। २ ।।
एक सहस्र चतुर्युग बीत जानेपर सम्पूर्ण लोकोंके लिये प्रलयकाल आ पहुँचा था। समस्त भूतोंका अव्यक्तमें लय हो गया था। स्थावर-जंगम सभी प्राणी विलीन हो गये थे। पृथ्वी, तेज और वायुका कहीं पता नहीं था। चारों ओर घोर अन्धकार छा रहा था तथा समस्त संसार एकार्णवके जलमें निमग्न हो चुका था ।। ३ ।।
सब ओर केवल जल-ही-जल स्थित था। दूसरा कोई तत्त्व नहीं दिखायी देता था, मानो एकमात्र उद्वितीय ब्रह्म अपनी ही महिमामें प्रतिष्ठित हो ।। ४ ।।
उस समय न रात थी, न दिन। न सत् था, न असत। न व्यक्त था और न अव्यक्तकी ही स्थिति थी ।। ५ ।।
इस अवस्थामें नारायणके गुणोंका आश्रय लेकर रहनेवाले उस अजर, अमर, इन्द्रियरहित, अग्राह्यू, असम्भव, सत्यस्वरूप, हिंसारहित, सुन्दर, नाना प्रकारकी विशेष प्रवृत्तियोंके हेतुभूत, वैररहित, अक्षय, अमर, जरारहित, निराकार, सर्वव्यापी तथा सर्वकर्ता सत्त्वसे अविनाशी सनातन पुरुष हरिका प्रादुर्भाव हुआ ।। ६ |।
उस प्रलयकालमें न दिन था न रात थी, न सत् था न असत् था, केवल तम ही सामने था। वही सर्वरूप हो रहा था। वही विश्वात्माकी रात्रि है। इस प्रकार इस श्रुतिका अर्थ कहना और समझना चाहिये ।। ८ ।।
उस समय उस मायाविशिष्ट ईश्वरसे प्रकट हुए उस ब्रह्मयोनि पुरुषसे जब ब्रह्माजीका प्रादर्भाव हुआ, तब उस पुरुषने प्रजासृष्टिकी इच्छासे अपने नेत्रोंद्वारा अग्नि और सोमको उत्पन्न किया। इस प्रकार भौतिक सर्गकी सृष्टि हो जानेपर प्रजाकी उत्पत्तिके समय क्रमशः ब्रह्म और क्षत्रका प्रादुर्भाव हुआ। जो सोम है, वही ब्रह्म है और जो ब्रह्म है, वही ब्राह्मण। जो अनिे है, वही क्षत्र या क्षत्रिय जाति है। क्षत्रियसे ब्राह्मण जाति अधिक प्रबल है। यदि कहो, कैसे? तो इसका उत्तर यह है कि ब्राह्मणकी यह प्रबलताका गुण सब लोगोंको प्रत्यक्ष है। यथा ब्राह्मणसे बढ़कर कोई प्राणी पहले कभी उत्पन्न नहीं हुआ। जो ब्राह्मणके मुखमें भोजन देता है, वह मानो प्रज्वलित अग्निमें आहुति प्रदान करता है। यही सोचकर मैं ऐसा कहता हूँ। ब्रह्माने भूतोंकी सृष्टि की और सम्पूर्ण भूतोंको यथास्थान स्थापित करके वे तीनों लोकोंको धारण करते हैं। यह मन्त्रवाक्य भी इसी बातका समर्थक है ।। ९ ।।
अग्ने! तुम यज्ञोंके होता तथा सम्पूर्ण देवताओं, मनुष्यों और सारे जगत्के हितैषी हो ।। १० ।।
इस विषयमें यह दृष्टान्त भी है--हे अग्निदेव! तुम सम्पूर्ण यज्ञोंक होता हो। समस्त देवताओं तथा मनुष्योंसहित जगत्के हितैषी हो || ११ ।।
अग्निदेव यज्ञोंके होता और कर्ता हैं। वे अग्निदेव ब्राह्मण हैं || १२ ।
क्योंकि मन्त्रोंके बिना हवन नहीं होता और पुरुषके बिना तपस्या सम्भव नहीं होती। हविष्ययुक्त मन्त्रोंके सम्बन्धसे देवताओं, मनुष्यों और ऋषियोंकी पूजा होती है; इसलिये हे अग्निदेव! तुम होता नियुक्त किये गये हो। मनुष्योंमें जो होताके अधिकारी हैं, वे ब्राह्मणके ही हैं; क्योंकि उसीके लिये यज्ञ करानेका विधान है। द्विजातियोंमें जो क्षत्रिय और वैश्य हैं, उन्हें यज्ञ करानेका अधिकार नहीं है; इसलिये अग्निस्वरूप ब्राह्मण ही यज्ञोंका भार वहन करते हैं। वे यज्ञ देवताओंको तृप्त करते हैं और देवता भूमण्डलको धन-धान्यसे सम्पन्न बनाते हैं। शतपथब्राह्मणमें भी ब्राह्मणके मुखमें आहुति देनेकी बात कही गयी है ।। १३ ।।
जो दिद्वान् ब्राह्मणके मुखरूपी अग्निमें अन्नकी आहुति देता है, वह मानो प्रज्वलित अग्निमें होम करता है ।। १४ ।।
इस प्रकार ब्राह्मण अग्निस्वरूप हैं। विद्वान् ब्राह्मण अग्निकी आराधना करते हैं। अग्निदेव विष्णु हैं। वे समस्त प्राणियोंके भीतर प्रवेश करके उनके प्राणोंको धारण करते हैं ।। १५ ।।
इसके सिवा इस विषयमें सनत्कुमारजीके द्वारा गाये हुए श्लोक भी उपलब्ध होते हैं। सबके आदिकारण ब्रह्माजीने (जो ब्राह्मण ही हैं) पहले निर्मल विश्वकी सृष्टि की थी। ब्रह्म ही जिनकी उत्पत्तिके स्थान हैं, वे अमर देवता ब्राह्मणोंकी वेदध्वनिसे ही स्वर्गलोकको जाते हैं ।। १६ ||
जैसे छींका दूध, दही आदिको धारण करता है, उसी प्रकार ब्राह्मणोंकी बुद्धि, वाक्य, कर्म, श्रद्धा, तप और वचनामृत पृथ्वी और स्वर्गको धारण करते हैं ।।
सत्यसे बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है। माताके समान दूसरा कोई गुरु नहीं है तथा ब्राह्मणोंसे बढ़कर इहलोक और परलोकमें कल्याण करनेवाला और कोई नहीं है || १८ ।।
जिनके राज्यमें ब्राह्मणोंक लिये कोई आजीविका न हो उन राजाओंकी सवारी, बैल और घोड़े नहीं रहते; दूसरोंको देनेके लिये उनके यहाँ दही-दूधके मटके नहीं मथे जाते हैं तथा वे अपनी मर्यादासे भ्रष्ट होकर लुटेरे हो जाते हैं ।। १९ ।।
वेद, पुराण और इतिहासके प्रमाणसे यह सिद्ध है कि ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति भगवान् नारायणके मुखसे हुई है; अतः वे ब्राह्मण सर्वात्मा, सर्वकर्ता और सर्वभावस्वरूप हैं || २० ।।
वाणीके संयमकालमें सबके हितैषी, वरदाता, देवाधिदेव ब्रह्माजीके द्वारा सबसे पहले ब्राह्मण उत्पन्न हुए। फिर ब्राह्मणोंसे शेष वर्णोका प्रादुर्भाव हुआ ।। २१ ।।
इस प्रकार ब्राह्मण देवताओं और असुरोंसे भी श्रेष्ठ हैं। पूर्वकालमें मैंने स्वयं ही ब्रह्मारूप होकर उन ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया था। देवता, असुर और महर्षि आदि जो भूतविशेष हैं, उन्हें ब्राह्मणोंने ही उनके अधिकारपर स्थापित किया और उनके द्वारा अपराध होनेपर उन्हें दण्ड भी दिया || २२ ।।
अहल्यापर बलात्कार करनेके कारण गौतमके शापसे इन्द्रको हरिश्मश्रु (हरी दाढ़ीमूछोंसे युक्त) होना पड़ा तथा विश्वामित्रके शापसे इन्द्रको अपना अण्डकोष खो देना पड़ा और उनके भेंड़ेके अण्डकोष जोड़े गये || २३ ॥।
अश्विनीकुमारोंके लिये नियत यज्ञभागका निषेध करनेके लिये वज्र उठाये हुए इन्द्रकी दोनों भुजाओंको महर्षि च्यवनने स्तम्भित कर दिया था ।। २४ ।।
इसी प्रकार दक्ष प्रजापतिने रुद्रद्वारा किये गये अपने यज्ञके विध्वंससे कुपित हो बड़ी भारी तपस्या की और रुद्रदेवके ललाटमें एक तीसरा नेत्र-चिह्न प्रकट कर दिया था ।। २५ ||
जिस समय रुद्रने त्रिपुरनिवासी दैत्योंके वधके लिये दीक्षा ली थी, उस समय शुक्राचार्यने अपने मस्तकसे जटाएँ उखाड़कर उन्हींका महादेवजीपर प्रयोग किया। फिर तो उन जटाओंसे बहुतेरे सर्प उत्पन्न हुए, जिन्होंने रुद्रदेवके कण्ठमें डँसना आरम्भ किया। इससे उनका कण्ठ नीला हो गया तथा पहले स्वायम्भुव मन्वन्तरमें नारायणने अपने हाथसे उनका कण्ठ पकड़ा था, इसलिये भी कण्ठका रंग नीला हो जानेसे वे रुद्रदेव नीलकण्ठ हो गये ।। २६ ।।
अंगिराके पुत्र बृहस्पतिने अमृत उत्पन्न करनेके समय पुरश्षरण आरम्भ किया। उस समय जब वे आचमन करने लगे, तब जल स्वच्छ नहीं हुआ। इससे बृहस्पति जलके प्रति कुपित हो उठे और बोले--'मेरे आचमन करते समय भी तुम स्वच्छ न हुए, मैले ही बने रह गये; इसलिये आजसे मत्स्य, मकर और कछुए आदि जन्तुओंद्वारा तुम कलुषित होते रहो।' तभीसे सारे जलाशय जल-जन्तुओंसे भरे रहने लगे || २७ ।।
त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप देवताओंके पुरोहित थे। वे असुरोंके भानजे लगते थे; अतः देवताओंको प्रत्यक्ष और असुरोंको परोक्षरूपसे यज्ञोंका भाग दिया करते थे | २८ ।।
कुछ कालके अनन्तर हिरण्यकशिपुको आगे करके सब असुर विश्वरूपकी माताके पास गये और उनसे वर माँगने लगे--“बहिन! यह तुम्हारा पुत्र विश्वरूप, जिसके तीन सिर हैं, देवताओंका पुरोहित बना हुआ है। यह देवताओंको तो प्रत्यक्ष भाग देता है और हमलोगोंको परोक्षरूपसे भाग समर्पित करता है। इससे देवता तो बढ़ते हैं और हमलोग निरन्तर क्षीण होते चले जा रहे हैं। तुम इसे मना कर दो, जिससे यह देवताओंको छोड़कर हमारा पक्ष ग्रहण करे” ।। २९ ।।
तब एक दिन माताने नन्दनवनमें गये हुए विश्वरूपसे कहा--“बेटा! क्यों तुम दूसरे पक्षकी वृद्धि करते हुए मामाके पक्षका नाश कर रहे हो? तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिये।' विश्वरूपने माताकी आज्ञाको अलंघनीय मानकर उसका सम्मान करके विदा कर दिया और वे स्वयं हिरण्यकशिपुके पास चले गये ।। ३० ।॥।
(हिरण्यकशिपुने उन्हें अपना होता बना लिया) इधर ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठकी ओरसे हिरण्यकशिपुको शाप प्राप्त हुआ--“तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरा होता चुन लिया है; इसलिये इस यज्ञकी समाप्ति होनेसे पहले ही किसी अभूतपूर्व प्राणीके हाथसे तुम्हारा वध हो जायगा।” वसिष्ठजीके वैसा शाप देनेसे हिरण्यकशिपु वधको प्राप्त हुआ ।। ३१ ।।
तदनन्तर विश्वरूप मातृपक्षकी वृद्धि करनेके लिये बड़ी भारी तपस्यामें संलग्न हो गये। यह देख उनके व्रतको भंग करनेके लिये इन्द्रने बहुत-सी सुन्दरी अप्सराओंको नियुक्त कर दिया। उन अप्सराओंको देखते ही विश्वरूपका मन चंचल हो गया और वे तुरंत ही उनमें आसक्त हो गये। उन्हें आसक्त जानकर अप्सराओंने कहा--“अब हमलोग जहाँसे आयी हैं, वहीं जा रही हैं! ।। ३२ ।।
तब त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपने उनसे कहा--“कहाँ जाओगी? अभी यहीं मेरे साथ रहो। इससे तुम्हारा भला होगा।” यह सुनकर वे अप्सराएँ बोलीं--“हम सब देवांगना--अप्सराएँ हैं। हमने पहलेसे ही वरदायक देवता प्रभावशाली इन्द्रका वरण कर लिया है” || ३३ ।।
तब विश्वरूपने उनसे कहा--“आज ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंका अभाव हो जायगा।” ऐसा कहकर वे मन्त्रोंका जप करने लगे। उन मन्त्रोंसे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। तीन सिरोंवाले विश्वरूप अपने एक मुखसे सारे संसारके क्रियानिष्ठ ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक यज्ञोंमें होमे गये सोमरसको पी लेते थे, दूसरेसे अन्न खाते थे और तीसरेसे इन्द्र आदि देवताओंके तेजको पी लेते थे। इन्द्रने देखा, विश्वरूपका सारा शरीर सोमपानसे परिपुष्ट हो रहा है। यह देखकर देवताओंसहित इन्द्रको बड़ी चिन्ता हुई ।। ३४ ।।
तदनन्तर इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता ब्रह्माजीके पास गये और इस प्रकार बोले --'भगवन्! विश्वरूप सम्पूर्ण यज्ञोंमें विधिपूर्वक होमे गये सोमरसको पी लेते हैं। हम यज्ञभागसे वंचित हो गये। असुरपक्ष बढ़ रहा है और हमलोग क्षीण होते जा रहे हैं; अतः आपको अब हमलोगोंका कल्याण-साधन करना चाहिये” ।। ३५ |।
तब ब्रह्माजीने उन देवताओंसे कहा--“भृगुवंशी दधीचि ऋषि तपस्या करते हैं। उनके पास जाकर ऐसा वर माँगो, जिससे वे अपने शरीरको त्याग दें। फिर उन्हींकी हड्डियोंसे वज्र नामक अस्त्रका निर्माण करो! ।।
तब देवता वहाँ गये, जहाँ भगवान् दधीचि ऋषि तपस्या करते थे। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले--“"भगवन्! आपकी तपस्या सकुशल चल रही है न? उसमें कोई बाधा तो नहीं आती है?” ।। ३७ ।।
दधीचिने इन देवताओंसे कहा--“आपलोगोंका स्वागत है। बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप जो कहेंगे, वही करूँगा” ।। ३८ ।।
यह सुनकर दधीचिके मनमें पूर्ववत् सोत्साह बना रहा, तनिक भी उदासी नहीं हुई। वे सुख और दु:खमें समान भाव रखनेवाले महान् योगी थे। उन्होंने आत्माको परमात्मामें लगाकर अपने शरीरका परित्याग कर दिया || ४० ।।
उनके परमात्मामें लीन हो जानेपर उनकी उन अस्थियोंका संग्रह करके धाताने वज्ञास्त्रका निर्माण किया। ब्राह्मणकी हड्डीसे बने हुए उस अभेद्य एवं दुर्जय वज्रसे, जिसमें भगवान् विष्णु प्रविष्ट हुए थे, इन्द्रने विश्वरूपका वध कर डाला और उनके तीनों सिरोंको काट दिया। तदनन्तर त्वष्टा प्रजापतिने विश्वरूपके शरीरका मन््थन करके जिसे उत्पन्न किया था, उस अपने वैरी वृत्रासुरका भी इन्द्रने उसी वज्ञसे संहार कर डाला ।। ४१ ।।
अब इन्द्रके पास दोहरी ब्रह्महत्या उपस्थित हुई। उसके भयसे इन्द्रने देवराजपदका परित्याग कर दिया और मानसरोवरके जलनमें उत्पन्न हुई एक शीतल कमलिनीके पास जा पहुँचे। वहाँ अणिमा आदि ऐश्वर्यके योगसे इन्द्र अणुमात्र रूप धारण करके कमलनालकी ग्रन्थिमें प्रविष्ट हो गये || ४२ ।।
ब्रह्महत्याके भयसे त्रिलोकीनाथ शचीपति इन्द्रके भागकर अदृश्य हो जानेपर इस जगत्का कोई ईश्वर नहीं रहा। देवताओंमें रजोगुण और तमोगुणका आवेश हो गया। महर्षियोंके मन्त्र अब कुछ काम नहीं दे रहे थे। राक्षस बढ़ गये। वेदोंका स्वाध्याय बंद हो गया। तीनों लोक इन्द्रसे अरक्षित होनेके कारण निर्बल एवं सुगमतासे जीत लेने योग्य हो गये ।। ४३ ।।
तदनन्तर देवताओं और ऋषियोंने आयुके पुत्र नहुषको देवराजके पदपर अभिषिक्त कर दिया। नहुषके ललाटमें समस्त प्राणियोंके तेजको हर लेनेवाली पाँच सौ प्रज्वलित ज्योतियाँ जगमगाती रहती थीं। उनके द्वारा वे स्वर्गके राज्यका पालन करने लगे ।। ४४ ।।
ऐसा होनेपर सब लोग स्वाभाविक स्थितिमें आ गये। सभी स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गये ।। ४५ ।।
कुछ कालके पश्चात् नहुषने देवताओंसे कहा--'इन्द्रके उपभोगमें आनेवाली अन्य सारी वस्तुएँ तो मेरी सेवामें उपस्थित हैं। केवल शची मुझे नहीं मिली हैं।! ऐसा कहकर वे शचीके पास गये और उनसे बोले--'सौभाग्यशालिनि! मैं देवताओंका राजा इन्द्र हूँ। मेरी सेवा स्वीकार करो।” शचीने उत्तर दिया--'महाराज! आप स्वभावसे ही धर्मवत्सल और चन्द्रवंशके रत्न हैं। आपको परायी स्त्रीपर बलात्कार नहीं करना चाहिये” || ४६ ।।
तब नहुषने शचीसे कहा--'देवि! इस समय मैं इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित हूँ। इन्द्रके राज्य और रत्न दोनोंका अधिकारी हो गया हूँ; अतः तुम्हारे साथ समागम करनेमें कोई अधर्म नहीं है; क्योंकि तुम इन्द्रके उपभोगमें आयी हुई वस्तु हो।/ यह सुनकर शचीने कहा--“महाराज! मैंने एक व्रत ले रखा है। वह अभी समाप्त नहीं हुआ है। उसकी समाप्ति हो जानेपर कुछ ही दिनोंमें मैं आपकी सेवामें उपस्थित होऊँगी।' शचीके ऐसा कहनेपर नहुष चले गये ।। ४७ ।।
इसके बाद नहुषके भयसे डरी हुई शची दुःख-शोकसे आतुर तथा पतिके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो बृहस्पतिजीके पास गयीं। उन्हें अत्यन्त उद्विग्न देख बृहस्पतिजीने ध्यानस्थ होकर यह जान लिया कि यह अपने स्वामीके कार्यसाधनमें लगी हुई है। तब उन्होंने शचीसे कहा--'देवि! इसी व्रत और तपस्यासे सम्पन्न हो तुम वरदायिनी देवी उपश्रुतिका आवाहन करो, तब वह तुम्हें इन्द्रका दर्शन करायेगी।” गुरुका यह आदेश पाकर महान् नियममें तत्पर हुई शचीने मन्त्रोंद्वारा वरदायिनी देवी उपश्रुतिका आह्वान किया, तब उपश्रुतिदेवी शचीके समीप आयीं और उनसे इस प्रकार बोलीं-- इन्द्राणी! यह मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ। तुमने बुलाया और मैं तत्काल उपस्थित हो गयी। बोलो, मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? शचीने देवीके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया और कहा--“भगवति! आप मुझे मेरे पतिदेवके दर्शन करानेकी कृपा करें। आप ही ऋत और सत्य हैं।' उपश्रुति शचीको मानसरोवरपर ले गयीं। वहाँ उसने मृणालकी ग्रन्थियोंमें छिपे हुए इन्द्रका उन्हें दर्शन करा दिया || ४८ ।।
अपनी पत्नी शचीको दुर्बल और दुखी देख इन्द्र मन-ही-मन कहने लगे--“अहो! यह बड़े दुःखकी बात है कि मैं यहाँ छिपा हुआ बैठा हूँ और मेरी यह पत्नी दुःखसे आतुर हो मुझे ढूँढ़ती हुई यहाँतक आयी है।” इस प्रकार खेद प्रकट करके इन्द्रने अपनी पत्नीसे कहा --देवि! कैसे दिन बिता रही हो?” शची बोली--'प्राणनाथ! राजा नहुष इन्द्र बना बैठा है और मुझे अपनी पत्नी बनानेके लिये बुला रहा है। इसके लिये मुझे कुछ ही दिनोंका समय मिला है और मैंने नियत समयके बाद उसकी बात माननेका वचन दे दिया है।” “तब इन्द्रने उनसे कहा “जाओ और नहुषसे इस प्रकार कहो-- राजन्! आप ऋषियोंसे जुते हुए अपूर्व वाहनपर आरूढ़ होकर आइये और मुझे अपनी सेवामें ले चलिये। इन्द्रके पास मनको प्रिय लगनेवाले बड़े-बड़े वाहन हैं, किंतु उन सबपर मैं आरूढ़ हो चुकी हूँ, अत: आप उन सबसे भिन्न किसी और ही विलक्षण वाहनसे मेरे पास आइये।” इन्द्रके इस प्रकार सुझाव देनेपर शची हर्षपूर्वक लौट गयीं और इन्द्र भी पुनः उस कमलनालकी ग्रन्थिमें ही प्रविष्ट हो गये ।। ४९ ।।
इन्द्राणीको आयी हुई देख नहुषने उससे कहा--'देवि! तुमने जो समय दिया था, वह पूरा हो गया है।” तब शचीने इन्द्रके बताये अनुसार सारी बातें कह सुनायीं। नहुष महर्षियोंसे जुते हुए वाहनपर आरूढ़ हो शचीके समीप चले || ५० ।।
इसी समय मित्रावरुणके पुत्र कुम्भज मुनिवर अगस्त्यने देखा कि नहुष महर्षियोंको तीव्र गतिसे चलनेके लिये धिक्कार और फटकार रहा है। उसने अगस्त्यके शरीरमें भी दोनों पैरोंसे धक्के दिये। तब अगस्त्यने नहुषसे कहा--“न करने योग्य नीच कर्ममें प्रवृत्त हुए पापी नहुष! तू अभी पृथ्वीपर गिर जा तथा जबतक पृथ्वी और पर्वत स्थिर रहें, तबतकके लिये सर्प हो जा।” महर्षिके इतना कहते ही नहुष उस वाहनसे नीचे गिर पड़ा ।। ५१ ।।
नहुषका पतन हो जानेपर त्रिलोकीका राज्य पुन: बिना इन्द्रके हो गया, तब देवता और ऋषि इन्द्रके लिये भगवान् विष्णुकी शरणमें गये और उनसे बोले--“भगवन! ब्रह्महत्यासे पीड़ित हुए इन्द्रकी रक्षा कीजिये” तब वरदायक भगवान् विष्णुने उन देवताओंसे कहा --'देवगण! इन्द्र विष्णुके उद्देश्यसे अश्वमेध यज्ञ करें। तब वे फिर अपना स्थान प्राप्त करेंगे।' यह सुनकर देवता और महर्षि इन्द्रको ढूँढ़ने लगे। जब वे कहीं उनका पता न पा सके, तब वे शचीसे बोले- सुभगे! तुम्हीं जाओ और इन्द्रको यहाँ ले आओ।' तब शची पुनः मानसरोवरपर गयीं। शचीके कहनेसे इन्द्र उस सरोवरसे निकलकर बृहस्पतिजीके पास आये। बृहस्पतिजीने इन्द्रके लिये अश्वमेध नामक महायज्ञका अनुष्ठान किया। उस यजञ्ञमें उन्होंने कृष्णसारंग नामक यज्ञिय अश्वको छोड़ा था। उसीको वाहन बनाकर बृहस्पतिने पुनः देवराज इन्द्रको अपने पदपर प्रतिष्ठित किया ।। ५२ ।।
तदनन्तर देवताओं और ऋषियोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए देवराज इन्द्र निष्पाप हो स्वर्गलोकमें रहने लगे। अपनी ब्रह्महत्याको उन्होंने स्त्री, अग्नि, वृक्ष और गौ--इन चार स्थानोंमें विभक्त कर दिया। ब्रह्मतेजके प्रभावसे वृद्धिको प्राप्त हुए इन्द्रने शत्रुओंका वध करके पुन: अपना स्थान प्राप्त कर लिया ।। ५३ ।।
उधर नहुषको शापसे छुटकारा दिलानेके लिये देवताओं और ऋषियोंके प्रार्थना करनेपर अगस्त्यने कहा--“जब नहुषके कुलमें उत्पन्न हुए श्रीमान् धर्मराज युधिष्ठिर उनके प्रश्नोंका उत्तर देकर भीमसेनको उनके बन्धनसे छुड़ा देंगे, तब नहुषको भी वे शापसे मुक्त कर देंगे! ।।
प्राचीन कालमें महर्षि भरद्वाज आकाश-गंगाके जलमें खड़े हो आचमन कर रहे थे। उस समय तीन पगसे त्रिलोकीको नापते हुए भगवान् विष्णु उनके पासतक आ पहुँचे। तब भरद्वाजने जलसहित हाथसे उनकी छातीमें प्रहार किया। इससे उनकी छातीमें एक चिह्न बन गया ।। ५४ ।।
महर्षि भूगुके शापसे अग्निदेव सर्वभक्षी हो गये || ५५ ।।
अदितिने देवताओंके लिये इस उद्देश्यसे रसोई तैयार की थी कि वे इसे खाकर असुरोंका वध कर सकेंगे। इसी समय बुध अपनी व्रतचर्या समाप्त करके अदितिके पास गये और बोले--'मुझे भिक्षा दीजिये।! अदितिने सोचा यह अन्न पहले देवताओंको ही खाना चाहिये, दूसरे किसीको नहीं; इसलिये उन्होंने बुधको भिक्षा नहीं दी। भिक्षा न मिलनेसे रोषमें भरे हुए ब्राह्मण बुधने अदितिको यह शाप दिया कि “अण्ड नामधारी विवस्वानके दूसरे जन्मके समय अदितिके उदरमें पीड़ा होगी।” माता अदितिके पेटका वह अण्ड उस पीड़ाद्वारा मारा गया। मृत अण्डसे प्रकट होनेके कारण श्राद्धदेवसंज्ञक विवस्वान् मार्तण्ड नामसे प्रसिद्ध हुए ।। ५६ ।।
प्रजापति दक्षके साठ कन्याएँ थीं। उनमेंसे तेरहका विवाह उन्होंने कश्यपजीके साथ कर दिया। दस कन्याएँ धर्मको, दस मनुको और सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको दे डालीं। उन सत्ताईस कन्याओंकी नक्षत्र नामसे प्रसिद्धि हुई। यद्यपि वे सब-की-सब एक समान रूपवती थीं तो भी चन्द्रमा सबसे अधिक रोहिणीपर ही प्रेम करने लगे। यह देख शेष पत्नियोंके मनमें ईर्ष्या हुई और उन्होंने पिताके समीप जाकर यह बात बतायी--'भगवन्! हम सब बहिनोंका प्रभाव एक-सा है तो भी चन्द्रदेव रोहिणीपर ही अधिक स्नेह रखते हैं।' यह सुनकर दक्षने कहा-- इनके भीतर यक्ष्माका प्रवेश होगा।” इस प्रकार ब्राह्मण दक्षके शापसे राजा सोमके शरीरमें यक्ष्माने प्रवेश किया। यक्ष्मासे ग्रस्त होकर राजा सोम प्रजापति दक्षके पास गये। रोषका कारण पूछनेपर दक्षने उनसे कहा--'तुम अपनी सभी पत्रनियोंके प्रति समान बर्ताव नहीं करते हो, उसीका यह दण्ड है।” वहाँ दूसरे ऋषियोंने सोमसे कहा--“तुम यक्ष्मासे क्षीण होते चले जा रहे हो। अतः पश्चिम दिशामें समुद्रके तटपर जो हिरण्यसर नामक तीर्थ है, वहाँ जाकर अपने-आपको स्नान कराओ।” तब सोमने हिरण्यसर तीर्थमें जाकर वहाँ स्नान किया। स्नान करके उन्होंने अपने-आपको पापसे छुड़ाया। उस तीर्थमें वे दिव्य प्रभासे प्रभासित हो उठे थे, इसलिये उसी समयसे वह स्थान प्रभासतीर्थके नामसे विख्यात हो गया ।। ५७ |।
उसी शापसे आज भी चन्द्रमा कृष्णपक्षमें अमावास्यातक क्षीण होता रहता है और शुक्लपक्षमें पूर्णिमातक उसकी वृद्धि होती रहती है। उसका मण्डलाकार स्वरूप मेघकी श्याम रेखासे आच्छन्न-सा दिखायी देता है। उसके शरीरमें खरगोशका-सा चिह्न मेघके समान श्यामवर्णका है। वह स्पष्टरूपसे प्रतीत होता है ।। ५८ ।।
पूर्वकालकी बात है, मेरुपर्वतके पूर्वोत्तर भागमें स्थूलशिरा नामक महर्षि बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। उनके तपस्या करते समय सब प्रकार सुगन्ध लिये पवित्र वायु बहने लगी। उस वायुने प्रवाहित होकर मुनिके शरीरका स्पर्श किया। तपस्यासे संतप्त शरीरवाले उन कृशकाय मुनिने उस वायुसे वीजित हो अपने हृदयमें बड़े संतोषका अनुभव किया। वायुके द्वारा व्यजन डुलानेसे संतुष्ट हुए मुनिके समक्ष वृक्षोंने तत्काल फूलकी शोभा दिखलायी। इससे रुष्ट होकर मुनिने उन्हें शाप दिया कि तुम हर समय फूलोंसे भरे-पूरे नहीं रहोगे ।। ५९ ।।
एक समय भगवान् नारायण लोकहितके लिये बडवामुख नामक महर्षि हुए। जब वे मेरुपर्वतपर तपस्या कर रहे थे, उन्हीं दिनों उन्होंने समुद्रका आवाहन किया; किंतु वह नहीं आया। इससे अमर्षमें भरकर उन्होंने अपने शरीरकी गर्मीसे समुद्रके जलको चंचल कर दिया और पसीनेके प्रवाहकी भाँति उसमें खारापन प्रकट कर दिया ।। ६० ।।
साथ ही उससे कहा--'समुद्र! तू पीनेयोग्य नहीं रह जायगा। तेरा यह जल बडवामुखके द्वारा बारंबार पीया जानेपर मधुर होगा।” यह बात आज भी देखनेमें आती है। बडवामुखसंज्ञक अग्नि समुद्रसे जल लेकर पीती है || ६१ ।।
हिमवानकी पुत्री उमाको जब वह कुमारी अवस्थामें थी तभी रुद्रने पानेकी इच्छा की। दूसरी ओरसे महर्षि भूगु भी वहाँ आकर हिमवानसे बोले--“अपनी यह कन्या मुझे दे दो।' तब हिमवानने उनसे कहा--“इस कन्याके लिये देख-सुनकर लक्षित किये हुए वर रुद्रदेव हैं।! तब भूगुने कहा--“मैं कन््याका वरण करनेकी भावना लेकर यहाँ आया था, किंतु तुमने मेरी उपेक्षा कर दी है; इसलिये मैं शाप देता हूँ कि तुम रत्नोंके भण्डार नहीं होओगे' ।। ६२ ।।
आज भी महर्षिका वह वचन हिमवानपर ज्यों-का-त्यों लागू हो रहा है। ऐसा ब्राह्मणोंका माहात्म्य है ।। ६३ ।।
क्षत्रिय जाति भी ब्राह्मणोंकी कृपासे ही सदा रहनेवाली इस अविनाशिनी पृथ्वीको पत्नीकी भाँति पाकर इसका उपभोग करती है ।। ६४ ।।
यह जो अग्नि और सोमसम्बन्धी ब्रह्म है, उसीके द्वारा सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है ।। ६५ ||
कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा (अग्नि और सोम) मेरे नेत्र हैं तथा उनकी किरणोंको केश कहा गया है। सूर्य और चन्द्रमा जगत्को क्रमश: ताप और मोद प्रदान करते हुए पृथक्-पृथक् उदित होते हैं ।। ६६ ।।
अब मैं अपने नामोंकी व्याख्या करूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो। जगत्को मोद और ताप प्रदान करनेके कारण चन्द्रमा और सूर्य हर्षदायक होते हैं। पाण्डुनन्दन! अग्नि और सोमद्वारा किये गये इन कर्मोद्वारा मैं विश्वभावन वरदायक ईश्वर ही 'हषीकेश'कहलाता हूँ || ६७ ।।
यज्ञमें 'इलोपहूता सह दिवा” आदि मन्त्रसे आवाहन करनेपर मैं अपना भाग हरण (स्वीकार) करता हूँ तथा मेरे शरीरका रंग भी हरित (श्याम) है, इसलिये मुझे “हरि” कहते हैं ।। ६८ ।।
प्राणियोंके सारका नाम है धाम और ऋतका अर्थ है सत्य, ऐसा विद्वानोंने विचार किया है! इसीलिये ब्राह्मणोंने तत्काल मेरा नाम 'ऋतधामा” रख दिया था ||
मैंने पूर्वकालमें नष्ट होकर रसातलमें गयी हुई पृथ्वीको पुनः वराहरूप धारण करके प्राप्त किया था, इसलिये देवताओंने अपनी वाणीद्वारा “गोविन्द” कहकर मेरी स्तुति की थी (गां विन्दति इति गोविन्द:--जो पृथ्वीको प्राप्त करे, उसका नाम गोविन्द है) || ७० ।।
मेरे “शिपिविष्ट” नामकी व्याख्या इस प्रकार है। रोमहीन प्राणीको शिपि कहते हैं--तथा विष्टका अर्थ है व्यापक। मैंने निराकाररूपसे समस्त जगतको व्याप्त कर रखा है, इसलिये मुझे 'शिपिविष्ट” कहते हैं || ७१ ।।
यास्कमुनिने शान्तचित्त होकर अनेक यज्ञोंमें शिपिविष्ट कहकर मेरी महिमाका गान किया है; अतः मैं इस गुह्मननामको धारण करता हूँ || ७२ ।।
उदारचेता यास्क मुनिने शिपिविष्ट नामसे मेरी स्तुति करके मेरी ही कृपासे पाताललोकमें नष्ट हुए निरुक्तशास्त्रको पुनः प्राप्त किया था ।। ७३ ।।
मैंने न तो पहले कभी जन्म लिया है, न अब जन्म लेता हूँ और न आगे कभी जन्म लूँगा। मैं समस्त प्राणियोंके शरीरमें रहनेवाला क्षेत्रज्ञ आत्मा हूँ। इसीलिये मेरा नाम “अज' है || ७४ ।।
मैंने कभी ओछी या अश्लील बात मुँहसे नहीं निकाली है। सत्यस्वरूपा ब्रह्मपुत्री सरस्वतीदेवी मेरी वाणी है। कुन्तीकुमार! सत् और असतको भी मैंने अपने भीतर ही प्रविष्ट कर रक्खा है; इसलिये मेरे नाभि-कमलरूप ब्रह्मलोकमें रहनेवाले ऋषिगण मुझे “सत्य' कहते हैं || ७५-७६ ।।
धनंजय! मैं पहले कभी सत्त्वसे च्युत नहीं हुआ हूँ। सत्त्वको मुझसे ही उत्पन्न हुआ समझो। मेरा वह पुरातन सत्त्व इस अवतारकालमें भी विद्यमान है। सत्त्वके कारण ही मैं पापसे रहित हो निष्कामकर्ममें लगा रहता हूँ। भगवत्प्राप्त पुरुषोंके सात्त्वतज्ञान (पांचरात्रादि वैष्णवतन्त्र) से मेरे स््वरूपका बोध होता है। इन सब कारणोंसे लोग मुझे 'सात्त्वत” कहते ।। ७७-७८ ।।
पृथापुत्र अर्जुन! मैं काले लोहेका विशाल फाल बनकर इस पृथ्वीको जोतता हूँ तथा मेरे शरीरका रंग भी काला है, इसलिये मैं “कृष्ण' कहलाता हूँ: || ७९ ।।
मैंने भूमिको जलके साथ, आकाशको वायुके साथ और वायुको तेजके साथ संयुक्त किया है। इसलिये (विगता कुण्ठा पंचानां भूतानां मेलने असामर्थ्य यस्य स: विकुण्ठ:, विकुण्ठ एव वैकुण्ठ:--पाँचों भूतोंको मिलानेमें जिनकी शक्ति कभी कुण्ठित नहीं होती, वे भगवान् वैकुण्ठ हैं, इस व्युत्पत्तिके अनुसार) मैं 'वैकुण्ठ” कहलाता हूँ || ८० ।।
परम शान्तिमय जो ब्रह्म है, वही परम धर्म कहा गया है। उससे पहले कभी मैं च्युत नहीं हुआ हूँ, इसलिये लोग मुझे “अच्युत' कहते हैं || ८१ ।।
(“अधः का अर्थ है पृथ्वी, “अक्ष' का अर्थ है आकाश और “ज' का अर्थ है इनको धारण करनेवाला) पृथ्वी और आकाश दोनों सर्वतोमुखी एवं प्रसिद्ध हैं। उनको अनायास ही धारण करनेके कारण लोग मुझे “अधोक्षज' कहते हैं || ८२ ।।
वेदोंके शब्द और अर्थपर विचार करनेवाले वेदवेत्ता विद्वान प्राग्वंश (यज्ञशालाके एक भाग) में बैठकर अधोक्षज नामसे मेरी महिमाका गान करते हैं; इसलिये भी मेरा नाम 'अधोक्षज' है || ८३ ।।
जिसके अनुग्रहसे जीव अधोगतिमें पड़कर क्षीण नहीं होता, उन भगवान्को दूसरे लोग इसी व्युत्पत्तिके अनुसार 'अधोक्षज' कहते हैं ।।
महर्षि लोग अधोक्षज शब्दको पृथक्-पृथक् तीन पदोंका एक समुदाय मानते हैं--“अ' का अर्थ है लय-स्थान, 'धोक्ष' का अर्थ है पालन-स्थान और “ज'” का अर्थ है उत्पत्तिस्थान। उत्पत्ति, स्थिति और लयके स्थान एकमात्र नारायण ही हैं; अत: उन भगवान् नारायणको छोड़कर संसारमें दूसरा कोई “अधोक्षज' नहीं कहला सकता ।। ८४ ।।
प्राणियोंके प्राणोंकी पुष्टि करनेवाला घृत मेरे स्वरूपभूत अग्निदेवकी अर्चिष् अर्थात् ज्वालाको जगानेवाला है; इसलिये शान्तचित्त वेदज्ञ दिद्वानोंने मुझे 'घृतार्चि” कहा है ।। ८५ ||
शरीरमें तीन धातु विख्यात हैं वात, पित्त और कफ। वे सब-के-सब कर्मजन्य माने गये हैं। इनके समुदायको त्रिधातु कहते हैं। जीव इन धातुओंके रहनेसे जीवन धारण करते हैं और उनके क्षीण हो जानेपर क्षीण हो जाते हैं। इसलिये आयुर्वेदके विद्वान् मुझे “त्रिधातु कहते हैं || ८६-८७ ।।
भरतनन्दन! भगवान् धर्म सम्पूर्ण लोकोंमें वृषके नामसे विख्यात हैं। वैदिक शब्दार्थथोधक कोशमें वृषका अर्थ धर्म बताया गया है; अतः उत्तम धर्मस्वरूप मुझ वासुदेवको “वृष! समझो ।। ८८ ।।
कपि शब्दका अर्थ वराह एवं श्रेष्ठ है और वृष कहते हैं धर्मको। मैं धर्म और श्रेष्ठ वराहरूपधारी हूँ; इसलिये प्रजापति कश्यप मुझे “वृषाकपि' कहते हैं ।।
मैं जगत्का साक्षी और सर्वव्यापी ईश्वर हूँ। देवता तथा असुर भी मेरे आदि, मध्य और अन्तका कभी पता नहीं पाते हैं; इसलिये मैं “अनादि', “अमध्य” और “अनन्त” कहलाता हूँ ।। ९० ।।
धनंजय! मैं यहाँ पवित्र एवं श्रवण करने योग्य वचनोंको ही सुनता हूँ और पापपूर्ण बातोंको कभी ग्रहण नहीं करता हूँ, इसलिये मेरा नाम “शुचिश्रवा' है ।। ९१ ।।
पूर्वकालमें मैंने एक सींगवाले वराहका रूप धारण करके इस पृथ्वीको पानीसे बाहर निकाला और सारे जगत्का आनन्द बढ़ाया; इसलिये मैं 'एकशुंग” कहलाता हूँ ।। ९२ ।।
इसी प्रकार वराहरूप धारण करनेपर गौर शरीरमें तीन ककुद् (ऊँचे स्थान) थे; इसलिये शरीरके मापसे मैं 'त्रिककुद' नामसे विख्यात हुआ ।। ९३ ।।
कपिल मुनिके द्वारा प्रतिपादित सांख्यशास्त्रका विचार करनेवाले विद्वानोंने जिसे विरिंच कहा है, यह सर्वलोकस्रष्टा प्रजापति 'विरिंच' मैं ही हूँ, क्योंकि मैं ही सबको चेतना प्रदान करता हूँ ।। ९४ ।।
तत्त्वका निश्चय करनेवाले सांख्यशास्त्रके आचार्योने मुझे आदित्य मण्डलमें स्थित, विद्या-शक्तिके साहचर्यसे सम्पन्न सनातन देवता “कपिल” कहा है ।। ९५ ।।
वेदोंमें जिनकी स्तुति की गयी है तथा इस जगत्में योगीजन सदा जिनकी पूजा और स्मरण करते हैं, वह तेजस्वी “हिरण्यगर्भ” मैं ही हूँ ॥। ९६ ।।
वेदके विद्वान् मुझे ही इक्कीस हजार ऋचाओंसे युक्त “ऋग्वेद” और एक हजार शाखाओंवाला 'सामवेद' कहते हैं ।। ९७ ।।
आरण्यकॉमें ब्राह्मणलोग मेरा ही गान करते हैं। वे मेरे परम भक्त दुर्लभ हैं। जिस यजुर्वेदकी छप्पन+आठ+सैंतीस-एक सौ एक शाखाएँ मौजूद हैं, उस यजुर्वेदमें भी मेरा ही गान किया गया है ।। ९८३ ।।
अथर्ववेदी ब्राह्मण मुझे ही कृत्याओं आभिचारिक प्रयोगोंसे सम्पन्न पंचकल्पात्मक “अथर्ववेद' मानते हैं ।।९९।।
वेदोंमें जो भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं, उन शाखाओंमें जितने गीत हैं तथा उन गीतोंमें स्वर और वर्णके उच्चारण करनेकी जितनी रीतियाँ हैं, उन सबको मेरी बनायी हुई ही समझो || १०१ ||
महात्मा पांचालने वामदेवके बताये हुए ध्यान-मार्गसे मेरी आराधना करके मुझ सनातन पुरुषके ही कृपाप्रसादसे वेदका क्रमविभाग प्राप्त किया था ।।
बाभ्रव्य-गोत्रमें उत्पन्न हुए वे महर्षि गालव भगवान् नारायणसे वर एवं परम उत्तम योग पाकर वेदके क्रमविभाग एवं शिक्षाका प्रणयन करके सबसे पहले क्रमविभागके पारंगत विद्वान हुए थे || १०३-१०४ ।।
कण्डरीक-कुलमें उत्पन्न हुए प्रतापी राजा ब्रह्मदत्तने सात जन्मोंके जन्म-मृत्युसम्बन्धी दुःखोंका बार-बार स्मरण करके तीव्रतम वैराग्यके कारण शीघ्र ही योगजनित एऐश्वर्य प्राप्त कर लिया था || १०५३ ||
कुरुश्रेष्ठ! कुन्तीकुमार! पूर्वकालमें किसी कारणवश मैं धर्मके पुत्ररूपसे प्रसिद्ध हुआ था। इसीलिये मुझे 'धर्मज” कहा गया है ।। १०६६ ।।
पहले नर और नारायणने जब धर्ममय रथपर आरूढ़ हो गन्धमादन पर्वतपर अक्षय तप किया था, उसी समय प्रजापति दक्षका यज्ञ आरम्भ हुआ || १०७-१०८ ।।
भारत! उस यज्ञमें दक्षने रुद्रके लिये भाग नहीं दिया था; इसलिये दधीचिके कहनेसे रुद्रदेवने दक्षके यज्ञका विध्वंस कर डाला ॥। १०९ ||
रुद्रने क्रोधपूर्वक अपने प्रज्वलित त्रिशूलका बारंबार प्रयोग किया। वह त्रिशूल दक्षके विस्तृत यज्ञको भस्म करके सहसा बदरिकाश्रममें हम दोनों (नर और नारायण) के निकट आ पहुँचा || ११० ३ ||
पार्थ! उस समय नारायणकी छातीमें वह त्रिशूल बड़े वेगसे जा लगा। उससे निकलते हुए तेजकी लपेटमें आकर नारायणके केश मूँजके समान रंगवाले हो गये। इससे मेरा नाम “मुउजकेश' हो गया ।। १११-११२ ।।
तब महात्मा नारायणने हुंकारध्वनिके द्वारा उस त्रिशूलको पीछे हटा दिया। नारायणके हुंकारसे प्रतिहत होकर वह शंकरजीके हाथमें चला गया ।। ११३ ।।
यह देख रुद्र तपस्यामें लगे हुए उन ऋषियोंपर टूट पड़े। तब विश्वात्मा नारायणने अपने हाथसे उन आक्रमणकारी रुद्रदेवका गला पकड़ लिया। इसीसे उनका कण्ठ नीला हो जानेके कारण वे “नीलकण्ठ' के नामसे प्रसिद्ध हुए | ११४६ ।।
इसी समय रुद्रका विनाश करनेके लिये नरने एक सींक निकाली और उसे मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके शीघ्र ही छोड़ दिया। वह सींक एक बहुत बड़े परशुके रूपमें परिणत हो गयी ।। ११५६ ।।
नरका चलाया हुआ वह परशु सहसा रुद्रके द्वारा खण्डित कर दिया गया। मेरे परशुका खण्डन हो जानेसे मैं 'खण्डपरशु” कहलाया ।। ११६३ |।
अर्जुनने पूछा--वृष्णिनन्दन! त्रिलोकीका संहार करनेवाले उस युद्धके उपस्थित होनेपर वहाँ रुद्र और नारायणमेंसे किसको विजय प्राप्त हुई? जनार्दन! आप यह बात मुझे बताइये ।। ११७३ ।।
श्रीभगवान् बोले--अर्जुन! रुद्र और नारायण जब इस प्रकार परस्पर युद्धमें संलग्न हो गये, उस समय सम्पूर्ण लोकोंके समस्त प्राणी सहसा उद्विग्न हो उठे। अग्निदेव यज्ञोंमें विधिपूर्वक होम किये गये विशुद्ध हविष्यको भी ग्रहण नहीं कर पाते थे || ११८-११९ ।।
पवित्रात्मा ऋषियोंको वेदोंका स्मरण नहीं हो पाता था। उस समय देवताओंमें रजोगुण और तमोगुणका आवेश हो गया था ।। १२० ।।
पृथ्वी काँपने लगी, आकाश विचलित हो गया। समस्त तेजस्वी पदार्थ (ग्रह-नक्षत्र आदि) निष्प्रभ हो गये। ब्रह्मा अपने आसनसे गिर पड़े। समुद्र सूखने लगा और हिमालय पर्वत विदीर्ण होने लगा || १२१ ||
पाण्डुनन्दन! ऐसे अपशकुन प्रकट होनेपर ब्रह्माजी देवताओं तथा महात्मा ऋषियोंको साथ ले शीघ्र उस स्थानपर आये, जहाँ वह युद्ध हो रहा था ।। १२२-१२३ ।।
निरुक्तगम्य भगवान् चतुर्मुखने हाथ जोड़कर रुद्रदेवसे कहा--'प्रभो! समस्त लोकोंका कल्याण हो! विश्वेश्वरर! आप जगत्के हितकी कामनासे अपने हथियार रख दीजिये ।। १२४ ई |
“जो सम्पूर्ण जगत्का उत्पादक, अविनाशी और अव्यक्त ईश्वर हैं, जिन्हें ज्ञानी पुरुष कूटस्थ, निर्दधन्द्, कर्ता और अकर्ता मानते हैं, व्यक्त-भावको प्राप्त हुए उन्हीं परमेश्वरकी यह एक कल्याणमयी मूर्ति है ।।
“धर्मकुलमें उत्पन्न हुए ये दोनों महाव्रती देवश्रेष्ठ नर और नारायण महान् तपस्यासे युक्त हैं || १२७ |।
“किसी निमित्तसे उन्हीं नारायणके कृपाप्रसादसे मेरा जन्म हुआ है। तात! आप भी पूर्वसर्गमें उन्हीं भगवानके क्रोधसे उत्पन्न हुए सनातन पुरुष हैं ।। १२८ ।।
“वरद! आप देवताओं और महर्षियोंके तथा मेरे साथ शीघ्र इन भगवानको प्रसन्न कीजिये, जिससे सम्पूर्ण जगतमें शीघ्र ही शान्ति स्थापित हो” ।। १२९ ।।
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर रुद्रदेवने अपनी क्रोधाग्निका त्याग किया। फिर आदिदेव, वरेण्य, वरदायक, सर्वसमर्थ भगवान् नारायणको प्रसन्न किया और उनकी शरण ली || १३० ।।
तब क्रोध और इन्द्रियोंको जीत लेनेवाले वरदायक देवता नारायण वहाँ बड़े प्रसन्न हुए और रुद्रदेवसे गले मिले || १३१ ।।
तदनन्तर देवताओं, ऋषियों और ब्रह्माजीसे अत्यन्त पूजित हो जगदीश्वर श्रीहरिने रुद्रदेवले कहा--'प्रभो! जो तुम्हें जानता है, वह मुझे भी जानता है। जो तुम्हारा अनुगामी है, वह मेरा भी अनुगामी है। हम दोनोंमें कुछ भी अन्तर नहीं है। तुम्हारे मनमें इसके विपरीत विचार नहीं होना चाहिये || १३२-१३३ ।।
“आजसे तुम्हारे शूलका यह चिह्न मेरे वक्ष:-स्थलमें “श्रीवत्स” के नामसे प्रसिद्ध होगा और तुम्हारे कण्ठमें मेरे हाथके चिह्से अकिंत होनेके कारण तुम भी “श्रीकण्ठ' कहलाओगे' || १३४ ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--'पार्थ! इस प्रकार अपने-अपने शरीरमें एक दूसरेके द्वारा किये हुए ऐसे लक्षण (चिह्न) उत्पन्न करके वे दोनों ऋषि रुद्रदेवके साथ अनुपम मैत्री स्थापित कर देवताओंको विदा करनेके पश्चात् शान्तचित्त हो पूर्ववत् तपस्या करने लगे। इस प्रकार मैंने तुम्हें युद्धमें नारायणकी विजयका वृत्तान्त बताया है ।। १३५-१३६ ।।
भारत! मेरे जो गोपनीय नाम हैं, उनकी व्युत्पत्ति मैंने बतायी है। ऋषियोंने मेरे जो नाम निश्चित किये हैं, उनका भी मैंने तुमसे वर्णन किया है || १३७ ।।
कुन्तीनन्दन! इस प्रकार अनेक तरहके रूप धारण करके मैं इस पृथ्वीपर विचरता हूँ, ब्रह्मलोकमें रहता हूँ और सनातन गोलोकमें विहार करता हूँ ।। १३८ ।।
मुझसे सुरक्षित होकर तुमने महाभारत युद्धमें महान् विजय प्राप्त की है। कुन्तीनन्दन! युद्ध उपस्थित होनेपर जो पुरुष तुम्हारे आगे-आगे चलते थे, उन्हें तुम जटाजूटधारी देवाधिदेव रुद्र समझो। उन्हींको मैंने तुमसे क्रोधद्वारा उत्पन्न बताया है। वे ही काल कहे गये हैं ।।
तुमने जिन शत्रुओंको मारा है, वे पहले ही रुद्रदेवके हाथसे मार दिये गये थे। उनका प्रभाव अप्रमेय है। तुम उन देवाधिदेव, उमावल्लभ विश्वनाथ, पापहारी एवं अविनाशी महादेवजीको संयतचित्त होकर नमस्कार करो ।।
धनंजय! जिन्हें क्रोधज बताकर मैंने तुमसे बारंबार उनका परिचय दिया है और पहले तुमने जो कुछ सुन रक््खा है, वह सब उन रुद्रदेवका ही प्रभाव है ।। १४२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें नाययणकी महिमाविषयक तीन सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १४४ श्लोक हैं)
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