सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चालीसवें अध्याय के श्लोक 1-119 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यासजीका अपने शिष्योंको भगवानद्वारा ब्रह्मादि देवताओंसे कहे हुए प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप धर्मके उपदेशका रहस्य बताना”
शौनकजीने कहा--सूतनन्दन! वे प्रभावशाली वेदवेद्य भगवान् नारायणदेव यज्ञोंमें प्रथम भाग ग्रहण करनेवाले माने गये हैं तथा वे ही वेदों और वेदांगोंके ज्ञाता परमेश्वर नित्यनिरन्तर यज्ञधारी (यज्ञकर्ता) भी बताये गये हैं। एक ही भगवानमें यज्ञोंके कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों कैसे सम्भव होते हैं? ॥१॥
सबके स्वामी क्षमाशील भगवान् नारायण स्वयं तो निवृत्तिधर्ममें ही स्थित हैं और उन्हीं सर्वशक्तिमान् भगवानने निवृत्तिधर्मोंका विधान किया है। ॥२॥
इस प्रकार निवृत्तिधर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने देवताओंको प्रवृत्तिधर्मोमें अर्थात् यज्ञादि कर्मोमें भाग लेनेका अधिकारी क्यों बनाया? तथा ऋषि-मुनियोंको विषयोंसे विरक्तबुद्धि और निवृत्तिधर्मपरायण किस कारण बनाया? ।। ३ ।।
सूतनन्दन! यह गूढ़ संदेह हमारे मनमें सदा उठता रहता है, आप इसका निवारण कीजिये; क्योंकि आपने भगवान् नारायणकी बहुत-सी धर्मसंगत कथाएँ सुन रखी हैं ।। ४ ।।
सूतपुत्रने कहा--मुनिश्रेष्ठ शौनक! राजा जनमेजयने बुद्धिमान् व्यासजीके शिष्य वैशम्पायनजीके सम्मुख जो प्रश्न उपस्थित किया था, उस पुराणप्रोक्त विषयका मैं तुम्हारे सामने वर्णन करता हूँ ।। ५ ।।
परम बुद्धिमान् जनमेजयने समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप इन परमात्मा नारायणदेवका माहात्म्य सुनकर उनसे इस प्रकार कहा ।। ६ ।।
जनमेजय बोले--मुने! ब्रह्मा, देवगण, असुरगण तथा मनुष्योंसहित ये समस्त लोक लौकिक अभ्युदयके लिये बताये गये कर्मोंमें ही आसक्त देखे जाते हैं || ७ ।।
ब्रह्म! परंतु आपने मोक्षको परम शान्ति एवं परम सुखस्वरूप बताया है। जो मुक्त होते हैं, वे पुण्य और पापसे रहित हो सहस्रों किरणोंसे प्रकाशित होनेवाले भगवान् नारायणदेवमें प्रवेश करते हैं, यह बात मैंने सुन रखी है ।। ८६ ||
किंतु यह सनातन मोक्षधर्म अत्यन्त दुष्कर जान पड़ता है, जिसे छोड़कर सब देवता हव्य और कट्योंके भोक्ता बन गये हैं ।। ९६ ।।
इसके सिवा ब्रह्मा, रुद्”र और बलासुरका वध करनेवाले सामर्थ्यशाली इन्द्र एवं सूर्य, तारापति चन्द्रमा, वायु, अग्नि, वरुण, आकाश, पृथ्वी तथा जो अवशिष्ट देवता बताये गये हैं, वे सब क्या परमात्माके रचे हुए अपने मोक्षमार्गको नहीं जानते हैं? जिससे कि निश्चल, क्षयशून्य एवं अविनाशी मार्गका आश्रय नहीं लेते हैं? || १०--१२ ।।
जो लोग नियत कालतक प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि फलोंको लक्ष्य करके प्रवृत्तिमार्गका आश्रय लेते हैं, उन कर्मपरायण पुरुषोंके लिये यही सबसे बड़ा दोष है कि वे कालकी सीमामें आबद्ध रहकर ही कर्मका फल भोग करते हैं ।। १३ ।।
विप्रवर! यह संशय मेरे हृदयमें काँटेके समान चुभता है। आप इतिहास सुनाकर मेरे संदेहका निवारण करें। मेरे मनमें इस विषयको जाननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है ।। १४ ।।
द्विजश्रेष्ठी देवताओंको यज्ञोंमें भाग लेनेका अधिकारी क्यों बताया गया है? ब्रह्मन! स्वर्गलोकमें निवास करनेवाले देवताओंकी ही यज्ञमें किसलिये पूजा की जाती है? । १५ ||
ब्राह्मणशिरोमणे! जो यज्ञोंमें भाग ग्रहण करते हैं, वे देवता जब स्वयं महायज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, तब किसको भाग समर्पित करते हैं? ।। १६ ।।
वैशम्पायनजीने कहा--जनेश्वर! तुमने बड़ा गूढ़ प्रश्न उपस्थित किया है। जिसने तपस्या नहीं की है तथा जो वेदों और पुराणोंका विद्वान् नहीं है, वह मनुष्य अनायास ही ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता ।। १७३ ||
अब मैं प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारे प्रश्नका उत्तर देता हूँ। पूर्वकालमें मेरे पूछनेपर वेदोंका विस्तार करनेवाले गुरुदेव महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने जो कुछ बताया था, वही मैं तुमसे कहूँगा ।। १८६ ।।
सुमन्तु, जैमिनि, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पैल--इन तीनके सिवा व्यासजीका चौथा शिष्य मैं ही हूँ और पाँचवें शिष्य उनके पुत्र शुकदेव माने गये हैं ।। १९३
ये पाँचों शिष्य इन्द्रिययमन एवं मनोनिग्रहसे सम्पन्न, शौच तथा सदाचारसे संयुक्त, क्रोधशून्य और जितेन्द्रिय हैं। अपनी सेवामें आये हुए इन सभी शिष्योंको व्यासजीने चारों वेदों तथा पाँचवें वेद महाभारतका अध्ययन कराया ।।
सिद्धों और चारणोंसे सेवित गिरिवर मेरुके रमणीय शिखरपर वेदाभ्यास करते हुए हम सब शिष्योंके मनमें किसी समय यही संदेह उत्पन्न हुआ, जिसे आज तुमने पूछा है। भारत! व्यासजीने हम शिष्योंको जो उत्तर दिया, उसे मैंने भी उन्हींके मुखसे सुना था। वही आज तुम्हें भी बताना है ।। २२-२३ ।।
अपने शिष्योंका संशययुक्त वचन सुनकर सबके अज्ञानान्धकारका निवारण करनेवाले पराशरनन्दन श्रीमान् व्यासजीने यह बात कही-- ।। २४ ।।
'साधु पुरुषोंमें श्रेष्ठ शिष्यगण! एक समयकी बात है कि मैंने भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये अत्यन्त कठोर और बड़ी भारी तपस्या की || २५ |।
“जब मैं इन्द्रियोंको वशमें करके अपनी तपस्या पूर्ण कर चुका, तब भगवान् नारायणके कृपाप्रसादसे क्षीरसागरके तटपर मुझे मेरी इच्छाके अनुसार यह तीनों कालोंका ज्ञान प्राप्त हुआ। अतः मैं तुम्हारे संदेहके निवारणके लिये उत्तम एवं न््यायोचित बात कहूँगा। तुमलोग ध्यान देकर सुनो || २६-२७ ।।
“कल्पके आदिदमें जैसा वृत्तान्त घटित हुआ था और जिसे मैंने ज्ञानदृष्टिसे देखा था, वह सब बता रहा हूँ। सांख्य और योगके विद्वान जिन्हें परमात्मा कहते हैं, वे ही अपने कर्मके प्रभावसे महापुरुष नाम धारण करते हैं। उन्हींसे अव्यक्तकी उत्पत्ति हुई है, जिसे विद्वान् पुरुष प्रधानके नामसे भी जानते हैं || २८-२९ ।।
“जगत्की सृष्टिके लिये उन्हीं महापुरुष और अव्यक्तसे व्यक्तकी उत्पत्ति हुई, जिसे सम्पूर्ण लोकोंमें अनिरुद्ध एवं महान् आत्मा कहते हैं || ३०
“व्यक्तभावको प्राप्त हुए उन्हीं अनिरुद्धने पितामह ब्रह्माकी सृष्टि की। वे ब्रह्मा सम्पूर्ण तेजोमय हैं और उन्हींको समष्टि अहंकार कहा गया है ।। ३१ ।।
“पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज--ये पाँच सूक्ष्म महाभूत अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं । ३२ ।।
“अहंकारस्वरूप ब्रह्माने पजचमहाभूतोंकी सृष्टि करके फिर उनके शब्द-स्पर्श आदि गुणोंका निर्माण किया। उन भूतोंसे जो मूर्तिमान् प्राणी उत्पन्न हुए, उनके नाम सुनो ।। ३३ ।।
“मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, महात्मा वसिष्ठ और स्वायम्भुव मनु || ३४ ।।
“इन आठोंको प्रकृति जानना चाहिये, जिनमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। लोकपितामह ब्रह्माने सम्पूर्ण लोकोंके जीवन-निर्वाहके लिये वेद-वेदांग और यज्ञांगोंसे युक्त यज्ञोंकी सृष्टि की है। पूर्वोक्त आठ प्रकृतियोंसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है ।। ३५-३६ ।।
“ब्रह्माजीके रोषसे रुद्रका प्रादुर्भाव हुआ है। उन रुद्रने स्वयं ही दस अन्य रुद्रोंकी भी सृष्टि कर ली है। इस प्रकार ये ग्यारह रुद्र हैं, जो विकारपुरुष माने गये हैं ।। ३७ ।।
वे ग्यारह रुद्र, आठ प्रकृति और समस्त देवर्षिगण, जो लोकरक्षाके लिये उत्पन्न हुए थे, ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित हुए || ३८ ।।
(और इस प्रकार बोले--) “भगवन्! पितामह! आप महान् प्रभावशाली हैं। आपने ही हमलोगोंकी सृष्टि की है। हममेंसे जिसको जिस अधिकार या कार्यमें प्रवृत्त होना है तथा आपके द्वारा जिस अर्थसाधक अधिकारका निर्देश किया गया है, उसका पालन अहंकारयुक्त कतकि द्वारा कैसे हो सकता है? ।। ३९-४० ।।
“उस अधिकार और प्रयोजनका चिन्तन करनेवाला जो पुरुष है, उसे आप कर्तव्यपालनकी शक्ति प्रदान कीजिये।” उनके ऐसा कहनेपर महान् देव ब्रह्माजीने उन देवताओंसे इस प्रकार कहा ।। ४१ ।।
ब्रद्माजी बोले--देवताओ! तुमने मुझे अच्छी बात सुझायी है! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे हृदयमें जो चिन्ता उत्पन्न हुई है, वही मेरे हृदयमें भी पैदा हुई है ।।
किस प्रकार तीनों लोकोंके अधिकृत कार्यका सम्पादन किया जाय तथा किस तरह तुम्हारी और मेरी शक्तिका भी क्षय न हो || ४३ ।।
हम सब लोग यहाँसे अव्यक्त लोकसाक्षी महापुरुष नारायणदेवकी शरणमें चलें। वे हमारे लिये हितकी बात बतायेंगे || ४४ ।।
तदनन्तर वे सब ऋषि और देवता सम्पूर्ण जगत्के हितकी भावना लेकर ब्रह्माजीके साथ क्षीरसागरके उत्तर तटपर गये ।। ४५ ।।
वहाँ ब्रह्माजीके कथनानुसार उन सबने वेदोक्त रीतिसे तपस्या आरम्भ की। उनका वह महान् नियम सभी तपस्याओंमें कठोर था ।। ४६ ।।
उनकी आँखें ऊपरकी ओर लगी थीं, भुजाएँ भी ऊपरकी ओर ही उठी हुई थीं। मन एकाग्र था। वे सब-के-सब समाहितचित्त हो एक पैरसे खड़े हो काष्ठके समान जान पड़ते थे।। ४७ |।
एक हजार दिव्य वर्षोतक अत्यन्त कठोर तपस्या करनेके पश्चात् उन्हें वेद और वेदांगोंसे विभूषित मधुर वाणी सुनायी दी ।। ४८ ।।
श्रीभगवान् बोले--हे तपस्याके धनी ब्रह्मा आदि देवताओ तथा ऋषियो! मैं स्वागतके द्वारा तुम सबका सत्कार करके तुम्हें यह उत्तम वचन सुनाता हूँ ।। ४९ ।।
तुम्हारा प्रयोजन क्या है? यह मुझे ज्ञात हो गया है। वह सम्पूर्ण जगत्के लिये अत्यन्त हितकर है। तुम्हें प्रवृत्तियुक्त धर्मका पालन करना चाहिये। वह तुम्हारे प्राणोंका पोषक तथा शक्तिका संवर्द्धन करनेवाला होगा ।। ५० ।।
महान् धैर्यशशाली देवताओ! तुमलोगोंने मेरी आराधनाकी इच्छासे बड़ी भारी तपस्या की है। उस तपस्याके उत्तम फलका तुम अवश्य उपभोग करोगे ।। ५१ ।।
ये सम्पूर्ण जगत्के महान् गुरु लोकपितामह ब्रह्मा और तुम सभी श्रेष्ठ देवगण एकाग्रचित्त हो यज्ञोंद्वारा मेरा यजन करो ।। ५२ ।।
लोकेश्वरो! तुम सब लोग यज्ञोंमें सदा मेरे लिये भाग समर्पित करते रहो। ऐसा होनेपर मैं तुम्हें तुम्हारे अधिकारके अनुसार कल्याणमार्गका उपदेश करता रहूँगा || ५३ ।।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! देवाधिदेव भगवान् नारायणका यह वचन सुनकर उन सबके रोम हर्षसे खिल उठे। तदनन्तर उन सब देवताओं, महर्षियों और ब्रह्माजीने वेदोक्त विधिसे वैष्णव यज्ञका अनुष्ठान किया। उस यज्ञमें ब्रह्माजीने स्वयं भगवानके लिये भाग निश्चित किया ।। ५४-५५ ||
उसी प्रकार देवताओं और देवर्षियोंने भी अपना-अपना भाग भगवानके लिये निश्चित किया। सत्ययुगके न्यायानुसार निश्चित किये हुए वे उत्तम यज्ञ-भाग सबके द्वारा अत्यन्त सत्कृत हुए ।। ५६ |।
ऋषि कहते हैं कि “भगवान् नारायण सूर्यके समान तेजस्वी, अन्तर्यामी पुरुष, अज्ञानान्धकारसे परे, सर्वव्यापी, सर्वगामी, ईश्वर, वरदाता और सर्वसमर्थ हैं! || ५७ ||
यज्ञभाग निश्चित हो जानेपर उन वरदायक देवता महेश्वर नारायणदेवने आकाशमें बिना शरीरके ही स्थित हो वहाँ खड़े हुए उन समस्त देवताओंसे यह बात कही-- ।। ५८ ।।
“देवताओ! जिसने जो भाग हमारे लिये निश्चित किया था, वह उसी रूपमें मुझे प्राप्त हो गया। इससे प्रसन्न होकर आज मैं तुम्हें पुनरावृत्तिरूप फल प्रदान करता हूँ ।। ५९ ।।
“देवताओ! मेरी कृपासे तुम्हारा ऐसा ही लक्षण होगा। तुम प्रत्येक युगमें उत्तम दक्षिणाओंसे संयुक्त यज्ञोंद्वारा यजन करके प्रवृत्तिरूप धर्मफलके भागी होओगे || ६० ई
“देवगण! सम्पूर्ण लोकोंमें जो मनुष्य यज्ञोंद्वारा यजन करेंगे, वे तुम्हारे लिये वेदके कथनानुसार यज्ञभाग निश्चित करेंगे ।। ६१३ ।।
“इस महान् यज्ञमें जिस देवताने मेरे लिये जैसा भाग निश्चित किया है, वह वैदिक सूत्रमें मेरेद्वारा वैसे ही यज्ञभागका अधिकारी बनाया गया ।। ६२ ६ ।।
“तुमलोग यज्ञमें भाग लेकर यजमानको उसका फल देनेमें प्रवृत्त हो जगतमें अपने अधिकारके अनुसार सबके सभी मनोरथोंका चिन्तन करते हुए सब लोगोंको उन्नतिशील बनाओ ।। ६३ $ ||
'प्रवृत्तिफलसे समादृत होनेवाली जिन यज्ञ-क्रियाओंका जगतमें प्रचार होगा, उन्हींसे तुम्हारे बलकी वृद्धि होगी और बलिष्ठ होकर तुमलोग सम्पूर्ण लोकोंका भरण-पोषण करोगे ।। ६४ ६ ।।
“सम्पूर्ण यज्ञोंमें मनुष्य तुम्हारा यजन करके तुम्हें उन्नतिशील एवं पुष्ट बनायेंगे, फिर तुमलोग भी मुझे इसी प्रकार परिपुष्ट करोगे। यही तुम्हारे लिये मेरा उपदेश है || ६५३
“इसीके लिये मैंने वेदों तथा ओषधियों (अन्न-फल आदि) सहित यज्ञोंकी सृष्टि की है। इनका भलीभाँति पृथ्वीपर अनुष्ठान होनेसे सम्पूर्ण देवता तृप्त होंगे || ६६ $ ।।
'देवश्रेष्ठगण! मैंने प्रवृत्तिप्रधान गुणके सहित तुमलोगोंकी सृष्टि की है, अतः लोकेश्चरो! जबतक कल्पका अन्त न हो जाय, तबतक तुमलोग अपने अधिकारके अनुसार लोगोंका हितचिन्तन करते रहो ।।
“मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ--ये सात ऋषि ब्रह्माजीके द्वारा मनसे उत्पन्न किये गये हैं ।। ६९ ।।
'ये प्रधान वेदवेत्ता और प्रवृत्ति-धर्मावलम्बी हैं। इन सबको वेदाचार्य माना गया है और प्रजापतिके पदपर प्रतिष्ठित किया गया है || ७० ।।
“यह कर्मपरायण पुरुषोंके लिये सनातन मार्ग प्रकट हुआ है। इस पद्धतिसे लोकोंकी सृष्टि करनेवाले प्रभावशाली पुरुषको अनिरुद्ध कहा गया है || ७१ ।।
“सन, सनत्सुजात, सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, कपिल तथा सातवें सनातन--ये सात ऋषि भी ब्रह्माके मानस पुत्र कहे गये हैं। इन्हें स्वयं विज्ञान प्राप्त है और ये निवृत्तिधर्ममें स्थित हैं || ७२-७३ ।।
'ये प्रमुख योगवेत्ता, सांख्यज्ञान-विशारद, धर्मशास्त्रोंके आचार्य तथा मोक्षधर्मके प्रवर्तक हैं || ७४ ।।
'पूर्वकालमें अव्यक्त प्रकृतिसे जो त्रिगुणात्मक महान् अहंकार प्रकट हुआ था, उससे अत्यन्त परे जिसकी स्थिति है, वह समष्टि चेतन क्षेत्रज्ञ माना गया है || ७५ ।।
“वह क्षेत्रज्ञ मैं हूँ। जो कर्मपरायण मनुष्य हैं, वे पुनरावृत्तिशील हैं; अतः उनके लिये यह निवृत्तिमार्ग दुर्लभ है। जिस प्राणीका जिस प्रकार निर्माण हुआ है तथा वह जिस-जिस प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप कर्ममें संलग्न होता है, वह उसीके महान् फलका भागी होता है ।। ७६६ ।।
'ये लोकगुरु ब्रह्मा जगत्के आदि स्रष्टा और प्रभु हैं। ये ही तुम्हारे माता-पिता और पितामह हैं। मेरी आज्ञाके अनुसार ये सम्पूर्ण भूतोंको वर प्रदान करनेवाले होंगे | ७७-७८ ।।
“इनके ललाटसे जो रुद्र उत्पन्न हुए हैं, वे भी इन (ब्रह्माजी) के ही पुत्र हैं। ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे सम्पूर्ण भूतोंकी रक्षा करनेमें समर्थ होंगे || ७९ ।।
“तुम सब लोग जाओ और अपने-अपने अधिकारोंका विधिपूर्वक पालन करो। समस्त लोकोंमें सम्पूर्ण वैदिक क्रियाएँ अविलम्ब प्रचलित हो जानी चाहिये || ८० ।।
'सुरश्रेष्ठटण! तुमलोग प्राणियोंको उनके कर्म, उन कर्मोंके अनुसार प्राप्त होनेवाली गति तथा नियत कालतककी आयु प्रदान करो ।। ८१ ।।
“यह सत्ययुग नामक श्रेष्ठ समय चल रहा है। इस युगमें यज्ञ-पशुओंकी हिंसा नहीं की जाती। अहिंसा-धर्मके विपरीत यहाँ कुछ भी नहीं होता है || ८२ ।।
“देवताओ! इस सत्ययुगमें चारों चरणोंसे युक्त सम्पूर्ण धर्मका पालन होगा। तदनन्तर त्रेतायुग आयेगा, जिसमें वेदत्रयीका प्रचार होगा || ८३ ।।
“उस युगमें यज्ञमें मन्त्रोंद्वारा पवित्र किये गये पशुओंका वध किया जायगा- और धर्मका एक पाद--चतुर्थ अंश कम हो जायगा ।। ८४ ।।
“उसके बाद द्वापर युगका आगमन होगा। वह समय धर्म और अधर्मके सम्मिश्रणसे युक्त होगा। उस युगमें धर्मके दो चरण नष्ट हो जायँगे || ८५ ।।
“तदनन्तर पुष्य नक्षत्रमें कलियुगका पदार्पण होगा। उस समय यत्र-तत्र धर्मका एक चरण ही शेष रह जायगा” ।। ८६ ।।
तब देवताओं और देवर्षियोंने उपर्युक्त बात कहनेवाले गुरुस्वरूप भगवान्से कहा --“भगवन्! जब कलियुगमें जहाँ-कहीं भी धर्मका एक ही चरण अवशिष्ट रहेगा, तब हमें क्या करना होगा? यह बताइये” ।। ८७३ ।।
श्रीभगवान् बोले--सुरश्रेष्ठटटण! जहाँ वेद, यज्ञ, तप, सत्य, इन्द्रियसंयम और अहिंसाधर्म प्रचलित हों, उसी देशका तुम्हें सेवन करना चाहिये। ऐसा करनेसे तुम्हें अधर्म अपने एक पैरसे भी नहीं छू सकेगा ।।
व्यासजी कहते हैं--शिष्यो! भगवान्का यह उपदेश पाकर ऋषियोंसहित देवता उन्हें नमस्कार करके अपने अभीष्ट देशोंको चले गये ।। ९० ।।
स्वर्गवासी देवताओंके चले जानेपर अकेले ब्रह्माजी ही वहाँ खड़े रहे। वे अनिरुद्धविग्रहमें स्थित भगवान् श्रीहरिका दर्शन करना चाहते थे ।। ९१ ।।
तब भगवानने महान् हयग्रीवरूप धारण करके ब्रह्माजीको दर्शन दिया। वे कमण्डलु और त्रिदण्ड धारण करके छहों अंगोंसहित वेदोंकी आवृत्ति कर रहे थे ।। ९२ ।।
उस समय अमित पराक्रमी भगवान् हयग्रीवका दर्शन करके सम्पूर्ण जगत॒के हितकी कामनासे लोककर्ता भगवान् ब्रह्माने उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और उन वरदायक देवताके सम्मुख वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब भगवानने उनको हृदयसे लगाकर यह बात सुनायी ।। ९३-९४ ।।
श्रीभगवान् बोले--ब्रह्मन्! तुम सम्पूर्ण लोकोंके समस्त कर्मों और उनसे मिलनेवाली गतियोंका विधिपूर्वक चिन्तन करो; क्योंकि तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियोंके धाता हो, तुम्हीं सबके प्रभु हो और तुम्हीं इस जगतके गुरु हो ।। ९५ ।।
तुमपर यह भार रखकर मैं अनायास ही धैर्य धारण करूँगा। जब कभी तुम्हारे लिये देवताओंका कार्य असहा हो जायगा, तब मैं आत्मज्ञानका उपदेश देनेके लिये तुम्हारे सामने प्रकट हो जाऊँगा। ऐसा कहकर भगवान् हयग्रीव वहीं अन्तर्धान हो गये || ९६-९७ ।।
भगवानका यह उपदेश पाकर ब्रह्मा भी शीघ्र ही अपने लोकको चले गये। इस प्रकार ये महाभाग सनातन पुरुष भगवान् पदमनाभ यज्ञोंमें अग्रभोक्ता और सदा ही यज्ञके पोषक एवं प्रवर्तक बताये गये हैं। वे कभी अक्षयधर्मी महात्माओंके निवृत्तिधर्मका आश्रय लेते हैं और कभी लोककी विचित्र चित्तवृत्ति करके प्रवृत्तिधर्मका विधान करते हैं || ९८-९९ ।।
वे ही भगवान् नारायण प्रजाके आदि, मध्य और अन्त हैं। वे ही धाता, धेय, कर्ता और कार्य हैं। वे ही युगान्तके समय सम्पूर्ण लोकोंका संहार करके सो जाते हैं और वे ही कल्पके आदियमें जाग्रत् हो सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करते हैं | १०० ।।
शिष्यो! तुम उन्हीं अजन्मा, विश्वरूप, सम्पूर्ण देवताओंके आश्रय निर्गुण परमात्मा नारायणदेवको नमस्कार करो || १०१ |।
वे ही महाभूतोंके अधिपति तथा रुद्रों, आदित्यों और वसुओंके स्वामी हैं। उन्हें नमस्कार करो ।। १०२ ।।
वे अश्विनीकुमारोंक पति, मरुदगणोंके पालक, वेद और यज्ञोंके अधिपति तथा वेदांगोंके भी स्वामी हैं। उन्हें प्रणाम करो || १०३ ।।
जो सदा समुद्रमें निवास करते हैं, जिनका केश मूँजके समान है तथा जो समस्त प्राणियोंको मोक्षधर्मका उपदेश देते हैं, उन शान्तस्वरूप श्रीहरिको नमस्कार करो ।। १०४ ।।
जो तप, तेज, यश, वाणी तथा सरिताओं के स्वामी एवं नित्य संरक्षक हैं, उन श्रीहरिको नमस्कार करो ।। १०५ |।
जो जटाजूटधारी, एक सींगवाले वराह, बुद्धिमान् विवस्वान्ू, हयग्रीव तथा चतुर्मूर्तिधारी हैं, उन श्रीनारायण-देवको सदा नमस्कार करो || १०६ ।।
जिनका स्वरूप गुह्य है, जो ज्ञानरूपी नेत्रसे ही देखे जाते हैं तथा अक्षर और क्षररूप हैं, उन श्रीहरिको प्रणाम करो। ये अविनाशी नारायणदेव सर्वत्र संचरण करते हैं; इनकी सर्वत्र गति है ।। १०७ ।।
ये ही परब्रह्म हैं। विज्ञानमय नेत्रसे ही इनका दर्शन एवं ज्ञान हो सकता है। पूर्वकालमें मैंने ज्ञानदृष्टिसे ही इनका इस प्रकार साक्षात्कार किया था || १०८ ।।
शिष्यो! तुमलोगोंके पूछनेपर मैंने ये सारी बातें यथार्थरूपसे कही हैं। तुम मेरी बात मानो और सर्वेश्वर श्रीहरिका सेवन करो। वेदमन्त्रोंद्वारा उन्हींकी महिमाका गान और उन्हींका विधिपूर्वक पूजन करो ।। १०९ |।
वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! परम बुद्धिमान् वेदव्यासने हम सब शिष्योंको तथा अपने परम धर्मज्ञ पुत्र शुकदेवको ऐसा ही उपदेश दिया ।। ११० ।।
प्रजानाथ! फिर हमारे उपाध्याय व्यासने हमारे साथ चारों वेदोंकी ऋचाओंद्वारा उन नारायणदेवका स्तवन किया ।। १११ ।।
राजन! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। पूर्वकालमें मेरे गुरु व्यासजीने मुझे ऐसा ही उपदेश दिया था ।। ११२ ।।
जो प्रतिदिन इसे सुनता है और जो भगवान्को नमस्कार करके एकाग्रचित्त हो सदा इसका पाठ करता है, वह बुद्धिमान, बलवान, रूपवान् तथा रोगरहित होता है। रोगी रोगसे और बँधा हुआ पुरुष बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। ११३-११४ ।।
कामनावाला पुरुष मनोवांछित कामनाओंको पाता है तथा बड़ी भारी आयु प्राप्त कर लेता है। ब्राह्मण सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञाता और क्षत्रिय विजयी होता है ।। ११५ ।।
वैश्य इसको पढ़ने और सुननेसे महान् लाभका भागी होता है। शूद्र सुख पाता है। पुत्रहीनको पुत्र और कनन््याको मनोवांछित पतिकी प्राप्ति होती है ।। ११६ ।।
जिसका गर्भ अटक गया हो, वह इसको सुननेसे उस संकटसे छूट जाती है। गर्भवती स्त्री यथासमय पुत्र पैदा करती है। वन्ध्या भी प्रसवको प्राप्त होती है तथा उसका वह प्रसव पुत्र-पौत्र एवं समृद्धिसे सम्पन्न होता है ।। ११७ ।।
जो मार्गमें इसका पाठ करता है, वह कुशलतापूर्वक अपनी यात्रा पूरी करता है। इसे पढ़ने और सुननेवाला पुरुष जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है || ११८ ।।
पुरुषप्रवर महात्मा महर्षि व्यासके कहे हुए इस सिद्धान्तभूत वचनको तथा ऋषियों और देवताओंके समागम-सम्बन्धी इस वृत्तान्तको श्रवण करके भक्तजन उत्तम सुख पाते हैं ।। ११९ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्चमें नारययणकी महिमाविषयक तीन सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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