सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ छत्तीसवें अध्याय से तीन सौ उनतालीसवें अध्याय तक (From the 336 chapter to the 339 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-65 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा उपरिचरके यज्ञमें भगवानपर बृहस्पतिका क्रोधित होना, एकत आदि मुनियोंका बृहस्पतिसे श्वेतद्वीप एवं भगवान्‌की महिमाका वर्णन करके उनको शान्त करना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! तदनन्तर बीते हुए महान्‌ कल्पके आरम्भमें जब अंगिराके पुत्र बृहस्पति उत्पन्न हुए और देवताओंके पुरोहित बन गये, तब देवताओंको बड़ा संतोष प्राप्त हुआ ।। १ ।।

राजन! बृहत, ब्रह्म और महत--ये तीनों शब्द एक अर्थके वाचक हैं। इन तीनों शब्दोंके गुण देवपुरोहितमें मौजूद थे; इसलिये वे विद्वान्‌ देवगुरु “बृहस्पति” कहलाते थे ।।

उनके श्रेष्ठ शिष्य हुए राजा उपरिचर वसु, जिन्होंने उनसे उन दिनों चित्रशिखण्डियोंके बनाये हुए तन्त्रशास्त्रका विधिवत्‌ अध्ययन किया ।। ६ |।

वे राजा उपरिचर वसु पहले दैवविधानसे भावित हो इस पृथ्वीका उसी प्रकार पालन करने लगे, जैसे इन्द्र स्वर्गका ।। ४ ।।

एक समय उन महात्मा नरेशने महान्‌ अश्व-मेधयज्ञका आयोजन किया। उसमें उनके उपाध्याय बृहस्पति होता हुए ।। ५ ।।

प्रजापतिके तीन पुत्र एकत, द्वित और त्रित नामक महर्षि उस यज्ञमें सदस्य हुए || ६ |।

इनके सिवा (तेरह सदस्य और थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं--) धनुष, रैभ्य, अर्वावसु, परावसु, मुनिवर मेधातिथि, महर्षि ताण्ड्य, महाभाग शान्तिमुनि, वेदशिरा, शालिहोत्रके पिता ऋषिश्रेष्ठ कपिल, आद्यकठ, वैशम्पायनके बड़े भाई तैत्तिरि, कण्व और देवहोत्र। ये कुल मिलाकर सोलह सदस्य बताये गये हैं || ७--९ ।।

राजन! उस महान्‌ यज्ञमें सारे सामान एकत्र किये गये; परंतु उसमें किसी पशुका वध नहीं हुआ। वे राजा उपरिचर इसी भावसे उस यज्ञमें स्थित हुए थे || १० ।।

वे हिंसाभावसे रहित, पवित्र, उदार तथा कामनाओंसे रहित थे और इसी भावसे कर्ममें प्रवृत्त हुए थे। जंगलमें उत्पन्न हुए फल-मूल आदि पदार्थोंसे ही उस यज्ञमें देवताओंके भाग निश्चित किये गये थे || ११ ।।

उस समय पुराणपुरुष देवाधिदेव भगवान्‌ नारायणने प्रसन्न होकर राजाको प्रत्यक्ष दर्शन दिया; परंतु दूसरे किसीको उनका दर्शन नहीं हुआ ।। १२ ।।

भगवान्‌ हयग्रीवने स्वयं अदृश्य रहकर ही अपने लिये अर्पित पुरोडाशको ग्रहण किया और उसे सूँघकर अपने अधीन कर लिया ।। १३ ।।

यह देख बृहस्पति क्रोधमें भर गये। उन्होंने बड़े वेगसे खुवा उठा लिया और आकाशभमें उसे दे मारा। साथ ही वे रोषवश अपने नेत्रोंसे आँसू बहाने लगे || १४ ।।

फिर वे राजा उपरिचरसे बोले--“मैंने जो यह भाग प्रस्तुत किया है, उसे भगवान्‌को मेरी आँखोंके सामने प्रकट होकर ग्रहण करना चाहिये, यही न्याय है, इसमें संशय नहीं है" ।। १५ ||

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जब सभी देवताओंने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपने-अपने भाग ग्रहण किये, तब भगवान्‌ विष्णुने उस यज्ञमें पधारकर भी क्‍यों प्रत्यक्ष दर्शन नहीं दिया? ।। १६ ||

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इसका कारण बताता हूँ, सुनो। वे महान्‌ भूपाल वसु तथा अन्य सम्पूर्ण सदस्य मिलकर उस समय रोषमें भरे हुए मुनि बृहस्पतिको मनाने लगे ।। १७ ।।

सब लोग शान्तचित्त होकर उनसे बोले--“मुने! आप रोष न करें। आपने जो रोष किया है, यह सत्ययुगका धर्म नहीं है || १८ ।।

“बृहस्पते! जिनको यह भाग समर्पित किया गया है वे भगवान्‌ कभी क्रोध नहीं करते। हम और आप उन्हें स्वेच्छासे नहीं देख सकते हैं। जिसपर वे कृपा करते हैं वही उनका दर्शन कर पाता है” || १९६३ ||

तदनन्तर एकत, द्वित और त्रितने तथा चित्रशिखण्डी नामवाले ऋषियोंने उनसे कहा --“बृहस्पते! हमलोग ब्रह्माजीके मानसपुत्र कहलाते हैं। एक बार अपने कल्याणकी इच्छासे हम सबने उत्तर दिशाकी यात्रा की || २०-२१ ।।

“वहाँ मेरुके उत्तर और क्षीरसागरके किनारे एक पवित्र स्थान है, जहाँ हमलोगोंने हजार वर्षोतक एकाग्रचित्त हो काष्ठकी भाँति एक पैरसे खड़े होकर बड़ी कठोर तपस्या की थी। वह उत्तम तपस्या करके हम यही चाहते थे कि किसी तरह वरदायक सनातन देवाधिदेव वरणीय भगवान्‌ नारायणका दर्शन कर लें ।। २२-२४ ।।

“हम बारंबार यही सोचते थे कि हमें श्रीनारायणदेवका दर्शन कैसे प्राप्त होगा? तदनन्तर व्रतकी समाप्ति होनेपर हमें हर्ष प्रदान करनेवाली किसी शरीररहित वाणीने स्नेहपूर्ण गम्भीर स्वरसे इस प्रकार कहा-- || २५३ ।।

“ब्राह्मणो! तुमने प्रसन्न हृदयसे भलीभाँति तप किया है। तुम भगवानके भक्त हो और यह जानना चाहते हो कि उन सर्वव्यापी परमात्माका दर्शन कैसे हो? ।।

“इसका उपाय सुनो। क्षीरसागरके उत्तरभागमें अत्यन्त प्रकाशमान श्वेतद्वीप है। वहाँ भगवान्‌ नारायणका भजन करनेवाले पुरुष रहते हैं, जो चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ हैं ।। २७३६ ।।

वे स्थूल इन्द्रियोंसे रहित, निराहार और निनश्वेष्ट होते हैं। उनके शरीरसे मनोहर सुगन्ध निकलती रहती है तथा वे भगवानके अनन्य भक्त होते हैं और सहस्रों किरणोंवाले उन सनातनदेव भगवान्‌ पुरुषोत्तममें प्रवेश कर जाते हैं | २८-२९ ।।

“मुनियो! वे श्वेतद्वीपके निवासी मेरे एकान्त भक्त हैं, तुम वहीं जाओ। वहाँ मेरे स्वरूपका प्रत्यक्ष दर्शन होता है” || ३० ।।

“इस आकाशवाणीको सुनकर हमलोग उसके बताये हुए मार्गसे उस स्थानको गये ।। ३१ ।।

'श्वेत नामक महाद्वीपमें पहुँचकर हमारा चित्त भगवानमें ही लगा रहा। हम उनके दर्शनकी इच्छासे उत्कण्ठित हो रहे थे। वहाँ जाते ही हमारी दृष्टिशक्ति प्रतिहत हो गयी ।। ३२ ।।

“वहाँके निवासियोंके तेजसे आँखें चौंधिया जानेके कारण हम वहाँ किसी पुरुषको देख नहीं पाते थे। तदनन्तर दैवयोगसे हमारे हृदयमें यह ज्ञान प्रकट हुआ कि तपस्या किये बिना हमलोग भगवान्‌को सुगमतापूर्वक नहीं देख सकते ।। ३३३ ।।

“तदनन्तर हमने तत्काल पुनः सौ वर्षोतक बड़ी भारी तपस्या की। उस तपोमय व्रतके पूर्ण होनेपर हमलोगोंको वहाँके शुभलक्षण पुरुषोंका दर्शन हुआ, जो चन्द्रमाके समान गौरवर्ण और सब प्रकारके उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थे || ३४-३५ ।।

'वे प्रतिदिन ईशानकोणकी ओर मुँह करके हाथ जोड़े हुए ब्रह्मयका मानसजप करते थे ।। ३६ |।

“उनके मनकी इस एकाग्रतासे भगवान्‌ श्रीहरि प्रसन्न होते थे। मुनिश्रेष्ठ! प्रलयकालमें सूर्यकी जैसी प्रभा होती है, वैसी ही उस द्वीपमें रहनेवाले प्रत्येक पुरुषकी थी ।।

“हमलोगोंने तो यही समझा कि यह द्वीप तेजका ही निवासस्थान है। वहाँ कोई किसीसे बढ़कर नहीं था। सबका तेज समान था || ३८ ३ ||

“बृहस्पते! थोड़ी ही देरमें हमारे सामने एक ही साथ हजारों सूर्योके समान प्रभा प्रकट हुई। हमारी दृष्टि सहसा उस ओर खिंच गयी ।। ३९३ ।।

“तदनन्तर वहाँके निवासी पुरुष बड़ी प्रसन्नताके साथ दोनों हाथ जोड़े “नमो नमः: कहते हुए एक ही साथ तीव्र गतिसे उस तेजकी ओर दौड़े || ४०३ ।।

“इसके बाद जब वे स्तुति करने लगे, तब उनकी तुमुल ध्वनि हमारे कानोंमें पड़ी। वे सब लोग उन तेजोमय भगवान्‌को पूजाकी सामग्री अर्पण कर रहे थे ।।

“भगवान्‌के उस अनिर्वचनीय तेजने हमारे चित्तको सहसा खींच लिया था; परंतु हमारे नेत्र, बल और इन्द्रियाँ प्रतिहत हो गयी थीं, इसलिये हम स्पष्ट रूपसे कुछ देख नहीं पाते थे।। ४२६ ||

'पंरतु एक शब्द जो उच्चस्वरसे उच्चारित होकर दूरतक फैल रहा था, हमने भी सुना। सब लोग कह रहे थे--:पुण्डरीकाक्ष! आपकी जय हो। विश्वभावन! आपको प्रणाम है। महापुरुषोंके भी पूर्वज हृषीकेश! आपको नमस्कार है” || ४३-४४ ।।

'शिक्षा और अक्षरसे युक्त यह वाक्य हमलोगोंको श्रवणगोचर हुआ। इतनेहीमें पवित्र और सुगन्धित वायु बहुत-से दिव्य पुष्प और कार्योपयोगी ओषधियाँ ले आयी, जिनसे वहाँके पंचकालवेत्ता अनन्य भक्तोंने बड़ी भक्तिके साथ मन, वाणी और क्रियाद्वारा उन श्रीहरिका पूजन किया || ४५-४६ ३ ।।

“जैसी बातचीत उन्होंने की थी, उससे हमें विश्वास हो गया था कि निश्चय ही यहाँ भगवान्‌ पधारे हुए हैं, परंतु उन्‍्हींकी मायासे मोहित होनेके कारण हम उन्हें देख नहीं पाते थे।। ४७३ ||

“बृहस्पते! जब उस सुगन्धित वायुका चलना बंद हो गया और भगवान्‌को बलिसमर्पणका कार्य पूर्ण हो गया तब हमलोग मन-ही-मन चिन्तासे व्याकुल हो उठे ।।

“वहाँ शुद्ध कुलवाले सहस्रों पुरुष थे; परंतु उनमेंसे किसीने मनसे अथवा दृष्टिपातद्वारा भी हमलोगोंका सत्कार नहीं किया ।। ४९३ ।।

वहाँ जो स्वस्थ मुनिगण थे, वे भी अनन्य भावसे भगवान्‌के भजनमें ही मन लगाये रहते थे। उन ब्रह्मभावमें स्थित मुनियोंने हमलोगोंकी ओर ध्यान नहीं दिया || ५० ई ।।

“हमलोग तपस्यासे थककर अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। उस समय हमलोगोंसे किसी शरीररहित स्वस्थ प्राणी (देवता) ने कहा ।। ५१ ई ।।

देवता बोले--मुनिवरो! तुमलोगोंने श्वेतद्वीपनिवासी श्वेतकाय इन्द्रियरहित पुरुषोंका दर्शन किया। इन श्रेष्ठ द्विजोंके दर्शन होनेसे साक्षात्‌ देवेश्वर भगवानका ही दर्शन हो जाता है ।। ५२३ ||

मुनियो! तुम सब लोग जैसे आये हो, वैसे ही शीघ्र लौट जाओ। भगवान्‌में अनन्य भक्ति हुए बिना किसीको किसी तरह भी उनका साक्षात्‌ दर्शन नहीं हो सकता ।।

हाँ, बहुत समयतक उनकी भक्ति करते-करते जब पूरी अनन्यता आ जायगी, तब ज्योतिःपुंजे. कारण कठिनाईसे देखे जानेवाले भगवान्‌का दर्शन सम्भव हो सकता है ।। ५४ ३ ||

विप्रवरो! इस समय तुम्हें अभी बहुत बड़ा काम करना है। इस सत्ययुगके बीतनेपर जब धर्ममें किंचित्‌ व्यतिक्रम आ जायगा और वैवस्वत मन्वन्तरके त्रेतायुगका आरम्भ होगा, उस समय देवताओं के कार्यकी सिद्धिके लिये तुमलोग ही सहायक होगे ।। ५५-५६ $ ।।

“यह अमृतके समान मधुर एवं अद्भुत वचन सुनकर हमलोग भगवानूकी कृपासे अनायास ही अपने अभीष्ट स्थानपर आ पहुँचे || ५७६ ।।

“बृहस्पते! इस प्रकार हमने बड़ी भारी तपस्या की, हव्य-कव्योंके द्वारा भगवान्‌का पूजन भी किया, तो भी हमें उनका दर्शन न हो सका। फिर तुम कैसे अनायास ही उनका दर्शन पा लोगे? ।। ५८३ ।।

“भगवान्‌ नारायण सबसे महान्‌ देवता हैं। वे ही संसारके स्रष्टा और हव्य-कव्यके भोक्ता हैं। उनका आदि और अन्त नहीं है। उन अव्यक्त परमेश्वरकी देवता और दानव भी पूजा करते हैं! ।। ५९ $ ।।

इस प्रकार एकतके कहनेसे, द्वित और त्रितकी सम्मतिसे तथा अन्य सदस्योंद्वारा अनुनय किये जानेसे उदारबुद्धि बृहस्पतिने उस यज्ञको समाप्त किया और भगवानकी पूजा की ।। ६०-६१ ।।

राजा वसु भी यज्ञ पूरा करके प्रजाका पालन करने लगे। एक बार ब्रह्मशापसे उन्हें स्वर्गसे भ्रष्ट होना पड़ा था। उस समय वे पृथ्वीके भीतर रसातलमें समा गये थे ।। ६२ ।।

नृपश्रेष्ठी सदा धर्मपर अनुराग रखनेवाले सत्यधर्मपरायण राजा उपरिचर भूमिके भीतर प्रवेश करके भी निरन्तर नारायण-मन्त्रका जप करते हुए भी उन्हींकी आराधनामें तत्पर रहते थे। अतः उन्हींकी कृपासे वे पुन: ऊपरको उठे और भूतलसे ब्रह्मलोकमें जाकर उन्होंने परम गति प्राप्त कर ली। अनायास ही उन्हें निष्ठावानोंकी यह उत्तम गति प्राप्त हो गयी ।। ६३--६५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नाययणकी महत्ताका वर्णनविषयक तीन सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ सैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ सैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-42 का हिन्दी अनुवाद)

“यज्ञ  में आहुति के लिये अजका अर्थ अन्न है, बकरा नहीं-इस बात को जानते हुए भी पक्षपात करनेके कारण राजा उपरिचरके अधः:पतनकी और भगवत्कृपासे उनके पुनरुत्थानकी कथा”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! राजा वसु जब भगवानके अत्यन्त भक्त और महान्‌ पुरुष थे, तब वे स्वर्गसे भ्रष्ट होकर पातालमें कैसे प्रविष्ट हुए? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन! इस विषयमें ज्ञानीजन ऋषियों और देवताओंके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासको उद्धृत किया करते हैं-- ।। २ ।।

“अजके द्वारा यज्ञ करना चाहिये--ऐसा विधान है।' ऐसा कहकर देवताओंने वहाँ आये हुए सभी श्रेष्ठ ब्रह्मर्षियोंसे कहा, “यहाँ अजका अर्थ बकरा समझना चाहिये, दूसरा पशु नहीं, ऐसा निश्चय है” ।। ३ ।।

ऋषियोंने कहा-- देवताओ! यज्ञोंमें बीजोंद्वारा यजन करना चाहिये, ऐसी वैदिकी श्रुति है। बीजोंका ही नाम अज है; अतः बकरेका वध करना हमें उचित नहीं है ।। ४ ।।

देवताओ! जहाँ कहीं भी यज्ञमें पशुका वध हो, वह सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। यह श्रेष्ठ सत्ययुग चल रहा है। इसमें पशुका वध कैसे किया जा सकता है? ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इस प्रकार जब ऋषियोंका देवताओंके साथ संवाद चल रहा था, उसी समय नृपश्रेष्ठ वसु भी उस मार्गसे आ निकले और उस स्थानपर पहुँच गये ।। ६ ।।

श्रीमान्‌ राजा उपरिचर अपनी सेना और वाहनोंके साथ आकाशमार्गसे चलते थे। उन अन्तरिक्षचारी वसुको सहसा आते देख ब्रह्मर्षियोंने देवताओंसे कहा--'ये नरेश हमलोगोंका संदेह दूर कर देंगे; क्योंकि ये यज्ञ करनेवाले, दानपति, श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण भूतोंके हितैषी एवं प्रिय हैं । ७-८ ।।

“ये महान्‌ पुरुष वसु शास्त्रके विपरीत वचन कैसे कह सकते हैं।” ऐसी सम्मति करके देवताओं और ऋषियोंने एक साथ राजा वसुके पास आकर अपना प्रश्न उपस्थित किया --|। ९३ ||

“राजन! किसके द्वारा यज्ञ करना चाहिये? बकरेके द्वारा अथवा अन्नद्वारा? हमारे इस संदेहका आप निवारण करें। हमलोगोंकी रायमें आप ही प्रामाणिक व्यक्ति हैं' || १० ६ ।।

तब राजा वसुने हाथ जोड़कर उन सबसे पूछा--'विप्रवरो! आपलोग सच-सच बताइये, आपलोगोंमेंसे किस पक्षको कौन-सा मत अभीष्ट है? कौन अजका अर्थ बकरा मानता है और कौन अन्न?” || ११६ ||

ऋषि बोले--नरेश्वर! हमलोगोंका पक्ष यह है कि अन्नसे यज्ञ करना चाहिये तथा देवताओंका पक्ष यह है कि छाग नामक पशुके द्वारा यज्ञ होना चाहिये। राजन! अब आप हमें अपना निर्णय बताइये || १२३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! देवताओंका मत जानकर राजा वसुने उन्हींका पक्ष लेकर कह दिया कि अजका अर्थ है, छाग (बकरा); अतः उसीके द्वारा यज्ञ करना चाहिये ।। १३६||

यह सुनकर वे सभी सूर्यके समान तेजस्वी ऋषि कुपित हो उठे और विमानपर बैठकर देवपक्षकी बात कहनेवाले वसुसे बोले-- || १४३ ।।

“राजन! तुमने यह जानकर भी कि अजका अर्थ अन्न है, देवताओंका पक्ष लिया है; इसलिये स्वर्गसे नीचे गिर जाओ। आजसे तुम्हारी आकाशमें विचरनेकी शक्ति नष्ट हो गयी। हमारे शापके आघातसे तुम पृथ्वीको भेदकर पातालमें प्रवेश करोगे || १५-१६ ।।

“नरेश्वर! तुमने यदि वेद और सूत्रोंके विरुद्ध कहा हो तो हमारा यह शाप अवश्य लागू हो और यदि हम शास्त्रविरुद्ध वचन कहते हों तो हमारा पतन हो जाय” ।।

राजन्‌! ऋषियोंके इतना कहते ही उसी क्षण राजा उपरिचर आकाशसे नीचे आ गये और तत्काल पृथ्वीके विवरमें प्रवेश कर गये ।। १७ ।।

उस समय भी भगवान्‌ नारायणकी आज्ञासे उनकी स्मरणशक्ति उन्हें छोड़ न सकी। इधर सब देवता एकत्र होकर राजाको शापसे छुटकारा दिलानेका उपाय सोचने लगे। वे शान्तभावसे परस्पर बोले--'राजाने तो पुण्य-ही-पुण्य किया है। उन महात्मा नरेशको हमारे कारणसे ही यह शाप प्राप्त हुआ है ।। १८-१९ ।।

'देवताओ! हमलोगोंको एक साथ होकर उनका अतिशय प्रिय करना चाहिये।” अपनी बुद्धिके द्वारा ऐसा निश्चय करके वे सभी देवता राजा उपरिचर वसुके पास जाकर प्रसन्नचित्त हो बोले-- || २०३ ||

“राजन! तुम ब्रह्मण्यदेव भगवान्‌ विष्णुके भक्त हो और वे श्रीहरि देवता तथा असुर सबके गुरु हैं। उनका मन तुमपर संतुष्ट है; इसलिये वे तुम्हारी इच्छाके अनुसार तुम्हें अवश्य शापसे मुक्त कर देंगे || २१३ ||

“नृपश्रेष्ठ! तुम्हें महात्मा ब्राह्मणोंका सदा ही समादर करना चाहिये। अवश्य ही यह उनकी तपस्याका फल है; जिससे तुम आकाशसे सहसा भ्रष्ट होकर पातालमें चले आये हो ।। २२-२३ ।।

“निष्पाप नृपशिरोमणे! हम तुम्हें अपना एक अनुग्रह प्रदान करते हैं। तुम शापदोषके कारण जबतक-जितने समयतक पृथ्वीके विवरमें रहोगे, तबतक एकाग्रचित्त ब्राह्मणोंद्वारा यज्ञोंमें दी हुई वसुधाराकी आहुति तुम्हें प्राप्त होती रहेगी | २४-२५ ।।

“राजेन्द्र! हमारे चिन्तनसे तुम्हें वसुधाराकी प्राप्ति होगी, जिससे ग्लानि तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकेगी और इस पातालमें रहते हुए भी तुम्हें भूख और प्यासका कष्ट नहीं होगा; क्योंकि वसुधाराका पान करनेसे तुम्हारे तेजकी वृद्धि होती रहेगी। हमारे वरदानसे भगवान्‌ श्रीहरि प्रसन्न हो तुम्हें ब्रह्मलोकमें ले जायँगे” ।।

इस प्रकार राजाको वरदान देकर वे सब देवता तथा तपोधन ऋषि अपने-अपने स्थानको चले गये ।। २८ ।।

भारत! तदनन्तर वसुने भगवान्‌ विष्वक्सेनकी पूजा आरम्भ की और भगवान्‌ नारायणके मुखसे प्रकट हुए जपनीय मन्त्र (35 नमो नारायणाय) का निरन्तर जप करने लगे ।। २९ ।।

शत्रुदमन युधिष्ठिर! वहाँ पातालके विवरमें रहते हुए भी राजा उपरिचर पाँच समय पाँच यज्ञोंद्वारा देवेश्वर श्रीहरिकी आराधना करते थे ।। ३० ।।

उन्होंने अपने मनको जीत लिया था और वे सदा भगवान्‌के भजनमें ही लगे रहते थे। अपने उस अनन्य भक्तकी भक्तिसे भगवान्‌ श्रीनारायण हरि बहुत संतुष्ट हुए ।। ३१ ।।

फिर उन वरदायक भगवान्‌ विष्णुने अपने पास ही खड़े हुए महान्‌ वेगशाली पश्षिराज गरुड़से अपनी अभीष्ट बात इस प्रकार कही-- ।। ३२ ।।

“महाभाग पक्षिप्रवर! तुम मेरी आज्ञासे कठोर व्रतका पालन करनेवाले धर्मात्मा सम्राट्‌ राजा वसुके पास जाकर उन्हें देखो ।। ३३ ।।

'पक्षिराज! वे ब्राह्मणोंके कोपसे पातालमें प्रविष्ट हुए हैं। फिर भी उन्होंने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका सदा सम्मान ही किया है; अतः तुम उनके पास जाओ ।। ३४ ।।

“गरुड! पृथ्वीके विवरमें सुरक्षितरूपसे रहनेवाले इन पातालचारी नृपश्रेष्ठ वसुको तुम मेरी आज्ञासे शीघ्र ही आकाशचारी बना दो” ।। ३५ ||

यह आज्ञा पाकर वायुके समान वेगशाली गरुड अपने दोनों पंख फैलाकर उड़े और पातालमें जहाँ राजा वसु विराजमान थे, घुस गये ।। ३६ ।।

विनतानन्दन गरुड सहसा राजाको वहाँसे ऊपर उठाकर तुरंत आकाशमें ले उड़े और वहीं इन्हें छोड़ दिया ।।

उसी क्षण राजा वसु पुनः उपरिचर हो गये। फिर वे नृपश्रेष्ठ सशरीर ब्रह्मलोकमें चले गये ।। ३८ ।।

कुन्तीनन्दन! इस प्रकार उस महामनस्वी नरेशने भी देवताओंकी आज्ञासे वाचिक अपराध करनेके कारण ब्राह्मणोंके शापसे अधोगति प्राप्त की थी ।। ३९ ।।

फिर उन्होंने केवल पुरुषप्रवर भगवान्‌ श्रीहरिका सेवन किया, जिससे वे उस शापसे शीघ्र ही छूट गये और ब्रह्मलोकमें जा पहुँचे || ४० ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! श्वेतद्वीपके निवासी पुरुष जैसे हैं, उनकी सारी स्थिति मैंने तुमसे कह सुनायी। अब देवर्षि नारद जिस प्रकार श्वेतद्वीपमें गये, वह सब प्रसंग तुमसे कहूँगा। तुम एकचित्त होकर सुनो ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारयणकी महिमा का वर्णनविषयक तीन सौ सैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ४२ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ अड़तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-3 का हिन्दी अनुवाद)

“नारदजीका दो सौ नामोंद्वारा भगवान्‌की स्तुति करना”

भीष्मजी कहते हैं--युथधिष्ठिर! उस महान श्वेतद्वीपमें पहुँचकर भगवान्‌ देवर्षि नारदने जब वहाँके उन चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ पुरुषोंको देखा, तब मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मन-ही-मन उनकी पूजा की। तत्पश्चात्‌ श्वेतद्वीपनिवासी पुरुषोंने भी नारदजीका सत्कार किया। फिर वे भगवानके दर्शनकी इच्छासे उनके नामका जप करने लगे एवं कठोर नियमोंका पालन करते हुए वहाँ रहने लगे ।। १-२ ।।

नारदजी वहाँ अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त हो निर्गुण-सगुणरूप विश्वात्मा भगवान्‌ नारायणकी इस प्रकार (दौ सौ नामोंद्वारा) स्तुति करने लगे ।। ३ ।।

१-देवदेवेश! आपको नमस्कार है। २-आप निष्क्रिय, ३-निर्गुण और ४-समस्त जगतके साक्षी हैं। ५-क्षेत्रज्ञ, ६-पुरुषोत्तम (क्षर-अक्षर पुरुषसे उत्तम), ७-अनन्त, ८ पुरुष, ९महापुरुष, १०-पुरुषोत्तम (परमात्मा), ११-त्रिगुण, १२-प्रधान, १३-अमृत, १४-अमृताख्य, १५-अनन्ताख्य (शेषनागरूप), १६-व्योम (महाकाशरूप), १७-सनातन, १८सदसद्वयक्ताव्यक्त, १९-ऋतधामा (सत्यधामस्वरूप), २०-आदिदेव, २१-वसुप्रद (कर्मफलके दाता), २२-प्रजापते (दक्ष आदि), २३-सुप्रजापते (प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ), २४-वनस्पते, २५-महाप्रजापते (ब्रह्मस्वरूप), २६-ऊर्जस्पते (महाशक्तिशाली), २७-वाचस्पते (बृहस्पति), २८-जगत्पते, २९-मनस्पते, ३०-दिवस्पते (सूर्य), ३१-मरुत्पते (वायुदेवताके स्वामी), ३२- सलिलपते (जलके स्वामी), ३३-पृथ्वीपते, ३४-दिक्पते, ३५-पूर्वनिवास (महाप्रलयके समय जगत्‌के आधाररूप), ३६-गुहा (स्वरूप), ३७-ब्रह्मपुरोहित, ३८-ब्रह्मकायिक, ३९महाराजिक, ४०-चातुर्महाराजिक, ४१-भासुर (प्रकाशमान), ४२-महाभासुर (महाप्रकाशमान), ४३-सप्तमहाभाग, ४४-याम्य, ४५-महायाम्य, ४६-संज्ञासंज्ञ, ४७-तुषित, ४८-महातुषित, ४९-प्रमर्दन (मृत्युरूप), ५०-परिनिर्मित, ५१-अपरिनिर्मित, ५२-वशवर्ती, ५३-अपरिनिन्दित (शमदम आदि गुणसम्पन्न), ५४-अपरिमित (अनन्त), ५५-वशवर्ती, ५६अवशवर्ती, ५७-यज्ञ, ५८-महायज्ञ, ५९-यज्ञसम्भव, ६०-यज्ञयोनि (वेदस्वरूप), ६१-यज्ञगर्भ, ६२-यज्ञहृदय, ६३-यज्ञस्तुत, ६४-यज्ञभागहर, ६५-पगञ्चयज्ञ, ६६-पड्चकालकर्तृपति (अहोरात्र, मास, ऋतु, अयन और संवत्सररूप कालके स्वामी), ६७-पाउ्चरात्रिक, ६८वैकुण्ठ (परमधाम), ६९-अपराजित, ७०-मानसिक, ७१-नानामिक (जिनमें सब नामोंका समावेश है), ७२-परस्वामी (परमेश्वर), ७३-सुस्नात, ७४-हंस, ७५-परमहंस, ७६-महाहंस, ७७-परमयाज्ञिक, ७८-सांख्ययोगरूप, ७९-सांख्यमूर्ति (ज्ञानमूर्ति), ८०-अमृतेशय (विष्णु), ८१-हिरण्येशय, ८२-देवेशय, ८३-कुशेशय, ८४-ब्रहोशय, ८५-पदडोोशय (विष्णु), ८६-विश्वेश्वर और ८७-विष्वक्सेन आदि आपडहीके नाम हैं। ८८-आप ही जगदन्वय (जगत्‌में ओत-प्रोत) तथा ८९-आप ही जगत्‌के कारणस्वरूप हैं। ९०-अग्नि आपका मुख है। ९१-आप ही बड़वानल, ९२-आप ही आहुतिरूप, ९३-सारथि, ९४-वषट्कार, ९५-ओड्कार, ९६तपःस्वरूप, ९७-मनःस्वरूप, ९८-चन्द्रमास्वरूप, ९९-चक्षुके देवता सूर्य आप ही हैं। १००सूर्य, १०१-दिग्गज, १०२-दिग्भानु (दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले), १०३-विदिग्भानु (विदिशाओंको प्रकाशित करनेवाले) तथा १०४-हयग्रीवरूप हैं। १०५-आप प्रथम त्रिसौपर्ण मन्त्र, १०६-ब्राह्मणादि वर्णोंकी धारण करनेवाले तथा १०७-पंचाग्निरूप है। १०८-नाचिकेत नामसे प्रसिद्ध त्रिविध अग्नि भी आप ही हैं। १०९-आप शिक्षा, कल्प, व्याकरण, हन्द, निरुक्त और ज्योतिष नामक छ: अंगोंके भण्डार हैं। ११० प्राग्ज्योतिषस्वरूप, १११-ज्येष्ठ सामगस्वरूप आप ही हैं। ११२-सामिक व्रतधारी, ११३-अथर्वशिरा, ११४पञ्चमहाकल्परूप (आप ही सौर, शाक्त, गाणपत्य, शैव और वैष्णव शास्त्रोंके उपास्यदेव) हैं। ११५-फेनपाचार्य, ११६-वालखिल्य मुनिरूप, ११७-वैखानस मुनिरूप आप ही हैं। ११८-अभग्नयोग (अखण्डयोग), ११९-अभग्नपरिसंख्यान (अखण्ड विचार), १२०-युगादि (युगके आदिरूप), १२१-युगमध्य (युगके मध्यरूप), १२२-युगान्त (युगके अन्तरूप आप ही हैं), १२३-आखण्डल (इन्द्र), १२४-आप ही प्राचीनगर्भ, १२५-कौशिकमुनि, १२६पुरुष्टत (सबके द्वारा प्रचुर स्तुति करने योग्य), १२७-पुरुहृत, १२८-विश्वकृत (विश्वके रचयिता), १२९-विश्वरूप, १३०-अनन्तगति, १३१-अनन्तभोग, १३२-आपका न तो अन्त है, १३३-न आदि, १३४-न मध्य, १३५-अव्यक्तमध्य, १३६-अव्यक्तनिधन, १३७-व्रतावास (व्ररके आश्रय), १३८-समुद्रवासी (क्षीरसागरशायी), १३९-यशोवास, (यशके निवासस्थान), १४०-तपोवास (तपके निवासस्थान), १४१-दमावास (संयमके आधार), १४२-लक्ष्मीनिवास, १४३-विद्याके आश्रय, १४४-कीर्तिके आधार, १४५-सम्पत्तिके आश्रय, १४६-सर्वावास (सबके निवासस्थान), १४७-वासुदेव, १४८-सर्वच्छन्दक (सबकी इच्छा पूर्ण करनेवाले), १४९-हरिहय, १५०-हरिमेध (अश्वमेधयज्ञरूप), १५१-महायज्ञभागहर, १५२वरप्रद (भक्तोंको वरदान देनेवाले), १५३-सुखप्रद (सबको सुख प्रदान करनेवाले), १५४धनप्रद (सबको धन देनेवाले), १५५-हरिमेध (भगवद्धक्त भी आप ही हैं), १५६-यम, १५७नियम, १५८-महानियम आदि साधन भी आप ही हैं। १५९-कृच्छू, १६०-अतिकृच्छू, १६१महाकृच्छू, १६२-सर्वकृच्छु आदि चान्द्रायणव्रत भी आप ही हैं।  १६३-नियमधर (नियमोंको धारण करनेवाले), १६४-निवृत्तभ्रम (भ्रमरहित), १६५-प्रवचनगत (वेदवाक्यके विषय), १६६-पृश्रिगर्भप्रवृत्त, १६७-प्रवृत्तवेदक्रिय. (वैदिक कर्मोंकि प्रवर्तक), १६८-अज (जन्मरहित), १६९-सर्वगति (सर्वव्यापी), १७०-सर्वदर्शी, १७१-अग्राह्मन, १७२-अचल, १७३-महाविभूति (सृष्टिरूप विभूतिवाले), १७४-माहात्म्यशरीर (अतुलित प्रभावशाली स्वरूपवाले), १७५-पवित्र, १७६-महापवित्र (पवित्रोंको भी पवित्र करनेवाले), १७७हिरणमय, १७८-बृहद्‌ (ब्रह्म), १७९-अप्रतर्क्य (तर्कसे जाननेमें न आनेवाले), १८०अविज्ञेय, १८१-ब्रह्माग्रय, १८२-प्रजाकी सृष्टि करनेवाले, १८३-प्रजाका अन्त करनेवाले, १८४-महामायाधर, १८५-चित्रशिखण्डी, १८६-वरप्रद, १८७-पुरोडाश भागको ग्रहण करनेवाले, १८८-गताध्वर (प्राप्तयज्ञ), १८९-छिन्नतृष्ण (तृष्णारहित), १९०-छिन्नसंशय (संशयरहित), १९१-सर्वतोवृत्त (सर्वव्यापक), १९२-निवृत्तिरूप, १९३-ब्राह्मणरूप, १९४ब्राह्मणप्रिय, १९५-विश्वमूर्ति, १९६-महामूर्ति, १९७-बान्धव (जगत्‌के बन्धु), १९८भक्तवत्सल तथा १९९-ब्रह्मण्यदेव आदि नामोंसे पुकारे जानेवाले परमेश्वर! आपको नमस्कार है। मैं आपका भक्त हूँ। आपके दर्शनकी इच्छासे यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। २००एकान्तमें दर्शन देनेवाले आप परमात्माको बारंबार नमस्कार है ।। 

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तीन सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ उनतालीसवें अध्याय के श्लोक १५६½ का हिन्दी अनुवाद)

“श्वेतद्वीपमें नारदजीको भगवानका दर्शन, भगवान्‌का वासुदेव-संकर्षण आदि अपने व्यूह स्वरूपोंका परिचय कराना और भविष्यमें होनेवाले अवतारोंके कार्योकी सूचना देना और इस कथाके श्रवण-पठनका माहात्म्य”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार गुह्म तथा सत्य नामोंसे जब नारदजीने भगवान्‌की स्तुति की, तब उन्होंने विश्वरूप धारण करके उन्हें दर्शन दिया ।। १ ।।

उनका वह स्वरूप कुछ चन्द्रमासे भी अधिक निर्मल और कुछ चन्द्रमासे भी विलक्षण था। कुछ अग्निके समान देदीप्यमान और कुछ नक्षत्रोंक समान जाज्वल्यमान था ।। २ ।।

कुछ तोतेकी पाँखके समान हरा, कुछ स्फटिकमणिके समान उज्ज्वल, कहींसे कज्जलराशिके समान काला और कहींसे सुवर्णके समान कान्तिमान्‌ था ।। ३ ।।

कहीं नवांकुरित पल्‍लवके समान था। कहीं श्वेतवर्ण दिखायी देता था, कहीं सुनहरी आभा दिखायी देती थी और कहीं-कहीं वैदूर्यममणिकी-सी छटा छिटक रही थी ।। ४ ।।

कहीं नीलवैदूर्य, कहीं इन्द्रनीलमणि, कहीं मोरकी ग्रीवाके सदृश वर्ण और कहीं मोतीके हारकी-सी कान्ति दृष्टिगोचर होती थी ।। ५ ।।

इस प्रकार वे सनातन भगवान्‌ श्रीहरि अपने स्वरूपमें नाना प्रकारके रंग धारण किये हुए थे। उनके हजारों नेत्र, सैकड़ों (हजारों) मस्तक, हजारों पैर, हजारों उदर और हजारों हाथ थे। वे अपूर्व कान्तिसे सम्पन्न थे और कहीं-कहीं उनकी आकृति अव्यक्त थी ।। ६६ 

सबको वशमें रखनेवाले वे भगवान्‌ नारायण हरि एक मुखसे तो ओड्कार तथा उससे सम्बन्ध रखनेवाली गायत्रीका जप करते थे एवं अन्यान्य मुखोंसे चारों वेदों और उनके आरण्यकभागका गान कर रहे थे || ७-८ ।।

यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्‌ देवेश्वर विष्णुने उस समय अपने हाथोंमें यज्ञवेदी, कमण्डलु, चमकीले मणिरत्न, उपानह, कुशा, मृगचर्म, दण्ड-काष्ठ और प्रज्वलित अग्नि-ये सब वस्तुएँ ले रखी थीं ।। ९३ ।।

उनका दर्शन करनेके पश्चात्‌ प्रसन्नचित्त हुए द्विजश्रेष्ठ नारदने मौनभावसे नतमस्तक हो उन प्रसन्न हुए परमेश्वरकी वन्दना की || १०६ ||

मस्तक झुकाकर चरणोंमें पड़े हुए नारदजीसे देवताओंके आदिकारण अविनाशी श्रीहरिने इस प्रकार कहा ।। ११ ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--देवर्षे! महर्षि एकत, द्वित और त्रित--ये सब भी मेरे दर्शनकी इच्छासे इस स्थानपर आये हुए थे ।। १२ ।।

किंतु उन्हें मेरा दर्शन न प्राप्त हो सका। वास्तवमें मेरे अनन्य भक्तके सिवा और कोई मनुष्य मेरा दर्शन नहीं कर सकता। तुम तो मेरे अनन्य भक्तोंमें श्रेष्ठ हो; इसीलिये तुम्हें मेरा दर्शन हुआ है ।। १३ ।।

विप्रवर! धर्मके घरमें जो अवतीर्ण हुए हैं, वे नर-नारायण आदि चारों भाई मेरे ही स्वरूप हैं; अतः तुम सदा उनका भजन किया करो तथा जो कार्य प्राप्त हो, उसका साधन करो ।। १४ ।।

द्विजश्रेष्ठ! मैं अविनाशी विश्वरूप परमेश्वर आज तुमपर प्रसन्न हुआ हूँ; अतः तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, वह वर माँग लो || १५ ।।

नारदजीने कहा--देव! जब मैंने आप भगवानका दर्शन पा लिया, तब मुझे तप, यम और नियम--सबका फल तत्काल ही मिल गया ।। १६ |।

भगवन्‌! आप सम्पूर्ण विश्वके द्रष्टा, सिंहके समान निर्भय, सर्वस्वरूप, महान्‌ एवं सनातन प्रभु हैं। आपका जो दर्शन हो गया, यही मेरे लिये सबसे बड़ा वरदान है ।। १७ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार दर्शन देकर भगवानने ब्रह्मपुत्र नारदजीसे फिर कहा, “नारद! जाओ, विलम्ब न करो ।। १८ ।।

'ये इन्द्रिय और आहारसे शून्य, चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ मेरे भक्तजन एकाग्रभावसे मेरा चिन्तन कर सकें और इनके ध्यानमें किसी प्रकारका विघ्न न हो, इसके लिये तुम्हें यहाँसे चले जाना चाहिये ।। १९ ।।

“यहाँ निवास करनेवाले ये सभी महाभाग सिद्ध हो चुके हैं। ये पहले भी मेरे अनन्य भक्त रहे हैं। ये तमोगुण और रजोगुणसे मुक्त हैं; अतः निःसंदेह मुझमें ही प्रवेश करेंगे || २० ।।

जो नेत्रोंसे देखा नहीं जाता, त्वचासे जिसका स्पर्श नहीं होता, गन्ध ग्रहण करनेवाली प्राणेन्द्रियसे जो सूँघनेमें नहीं आता, जो रसनेन्द्रियकी पहुँचसे परे है; सत्त्व, रज और तम नामक गुण जिसपर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते, जो सर्वव्यापी, साक्षी और सम्पूर्ण जगत्‌का आत्मा कहलाता है, सम्पूर्ण प्राणियोंका नाश हो जानेपर भी जो स्वयं नष्ट नहीं होता है, जिसे अजन्मा, नित्य, सनातन, निर्गुण और निष्कल बताया गया है, जो चौबीस तत्त्वोंसे परे पचीसवें तत्त्वके रूपमें विख्यात है, जिसे अन्तर्यामी पुरुष, निष्क्रिय तथा ज्ञानमय नेत्रोंसे ही देखने योग्य बताया जाता है, जिसमें प्रवेश करके श्रेष्ठ द्विज यहाँ मुक्त हो जाते हैं, वही सनातन परमात्मा है। उसीको वासुदेव नामसे जानना चाहिये || २१--२५ 

“नारद! उस परमात्मदेवका माहात्म्य और महिमा तो देखो, जो शुभाशुभ कर्मोंसे कभी लिप्त नहीं होता है ।। २६ ।।

'सत्त्व, रज और तम--ये तीन गुण बताये जाते हैं, जो सम्पूर्ण शरीरोंमें स्थित रहते हैं और विचरते हैं ।।

“इन गुणोंको क्षेत्रज्ञ स्वयं भोगता है, किंतु इन गुणोंके द्वारा वह क्षेत्रज्ञ भोगा नहीं जाता; क्योंकि वह निर्गुण, गुणोंका भोक्ता, गुणोंका स्रष्टा तथा गुणोंसे उत्कृष्ट है ।। २८ ।।

'देवर्ष! यह सम्पूर्ण जगत्‌ जिसपर प्रतिष्ठित है, वह पृथ्वी जलमें विलीन हो जाती है। जलका तेजमें और तेजका वायुमें लय होता है ।। २९ ।।

“वायुका आकाभशमें लय होता है, आकाश मनमें विलीन होता है। मन उत्कृष्ट भूत है। वह अव्यक्त प्रकृतिमें लीन होता है || ३० ।।

“ब्रह्मन्‌! अव्यक्तका निष्क्रिय पुरुषमें लय होता है। उस सनातन पुरुषसे उत्कृष्ट दूसरी कोई वस्तु नहीं है ।। ३१ ।।

'संसारमें उस एकमात्र सनातन पुरुष वासुदेवको छोड़कर कोई भी चराचर भूत नित्य नहीं है ।। ३२ ।।

“महाबली वासुदेव सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--ये पाँच महाभूत हैं ।।

“वे सब महाभूत एक साथ मिलकर ही शरीर नाम धारण करते हैं। ब्रह्म! उस समय अदृश्यभावसे जो शीघ्रगामी चेतन उसमें प्रवेश करता है, वही जीवात्मा है ।। ३४ ।।

“उसका शरीरमें प्रवेश करना ही उत्पन्न होना बताया जाता है। वही शरीरको चेष्टाशील बनाता है। वही इसके संचालनमें समर्थ है। कहीं भी पाँचों भूतोंके मिलित समुदायके बिना कोई शरीर नहीं होता || ३५ ।।

“ब्रह्म! जीवके बिना प्राणवायु चेष्टा नहीं करती। वह जीव ही शेष या भगवान्‌ संकर्षण कहा गया है ।। ३६ ।।

“जो उसी संकर्षण अथवा जीवसे उत्पन्न होकर अपने कर्म (ध्यान, पूजन आदि) के द्वारा सनत्कुमारत्व (जीवन्मुक्ति) प्राप्त कर लेता है, जिसमें समस्त प्राणी लय एवं क्षयको प्राप्त होते हैं, वह सम्पूर्ण भूतोंका मन ही “प्रद्युम्मन' कहलाता है || ३७३ ।।

“उस प्रद्युम्नसे जिसकी उत्पत्ति हुई है, वह (अहंकार ही) तन्मात्रा आदिका कर्ता, परम्परा-सम्बन्धसे महाभूतोंका कारण तथा महत्तत्त्वका कार्य है ।। ३८ 

“उसीसे समस्त चराचर जगतकी उत्पत्ति होती है। वही “अनिरुद्ध/ एवं “ईशान' कहलाता है। वह (कर्तृत्वके अभिमानरूपसे) सम्पूर्ण कर्मामें व्यक्त होता है ।। ३९ ।।

राजेन्द्र! जो भगवान्‌ वासुदेव क्षेत्रज्ञस्वरूप एवं निर्गुणरूपसे जाननेयोग्य बताये गये हैं, वे ही प्रभावशाली संकर्षणरूप जीवात्मा हैं। संकर्षणसे प्रद्युम्नका प्रादुर्भाव हुआ है, जो मनोमय कहलाते हैं। प्रद्युम्मसे जो अनिरुद्ध प्रकट हुए हैं, वे ही अहंकार और ईश्वर हैं || ४०-४१ ।।

“नारद! मुझसे ही समस्त स्थावर-जंगमरूप जगत्‌की उत्पत्ति होती है। क्षर और अक्षर तथा असत्‌ और सत्‌ भी मुझसे ही प्रकट हुए हैं || ४२ ।।

'यहाँ जो मेरे भक्त हैं, वे मुझमें ही प्रवेश करके मुक्त होते हैं। मैं ही पचीसवें तत्त्व निष्क्रिय पुरुषरूपसे जानने योग्य हूँ ।। ४३ ।।

“मैं निर्गुण, निष्कल, द्वन्धोंसे अतीत और परिग्रहसे शून्य हूँ। तुम ऐसा न समझ लेना कि ये रूपवान्‌ हैं, इसलिये दिखायी देते हैं; क्योंकि मैं इच्छा करते ही एक ही क्षणमें अदृश्य हो सकता हूँ; क्योंकि मैं सम्पूर्ण जगत्‌का ईश्वर और गुरु हूँ || ४४६ ।।

“नारद! तुम जो मुझे देख रहे हो, इस रूपमें मैंने माया रची है। तुम मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंके गुणोंसे युक्त न जानो ।। ४५३ ।।

“मैंने अपने वासुदेव, संकर्षण आदि चार स्वरूपोंका तुम्हारे सामने भलीभाँति वर्णन किया है। मैं ही जीव नामसे प्रसिद्ध हूँ, मुझमें ही जीवकी स्थिति है; परंतु तुम्हारे मनमें ऐसा विचार नहीं उठना चाहिये कि मैंने जीवको देखा है || ४६-४७ ।।

“ब्रह्मन्‌! मैं सर्वव्यायी और समस्त प्राणिसमुदायका अन्तरात्मा हूँ। सम्पूर्ण भूतसमुदाय और शरीरोंके नष्ट हो जानेपर भी मेरा नाश नहीं होता है ।। ४८ ।।

“मुने! ये महाभाग श्वेतद्वीपनिवासी सिद्ध हैं। ये पहले मेरे अनन्य भक्त रहे हैं। ये तमोगुण और रजोगुणसे मुक्त हो गये हैं; इसलिये मेरे भीतर प्रवेश करेंगे || ४९ ।।

“जो सम्पूर्ण जगत्‌के आदि, चतुर्मुख, अनिर्वचनीय-स्वरूप, हिरण्यगर्भ एवं सनातन देवता हैं, वे ब्रह्मा मेरे बहुत-से कार्योका चिन्तन करनेवाले हैं ।। ५० ।।

“मेरे क्रोधवश ललाटसे मेरे ही रुद्रदेवका प्राकट्य हुआ है। देखो, ये ग्यारह रुद्र मेरे दाहिने भागमें विराजमान हैं ।। ५१ ।।

“इसी प्रकार मेरे बायें भागमें बारह आदित्य विराज रहे हैं। अग्रभागमें सुरश्रेष्ठ आठ वसु विद्यमान हैं। इन सबको प्रत्यक्ष देखो || ५२ ।।

'मेरे पृष्ठभागमें भी दृष्टिपात करो, जहाँ नासत्य और दख्न-ये दोनों देववैद्य अश्विनीकुमार स्थित हैं। इनके सिवा मेरे विभिन्न अंगोंमें समस्त प्रजापतियों, सप्तर्षियों, सम्पूर्ण वेदों, सैकड़ों यज्ञों, ओषधियों तथा अमृतको भी देखो। तप तथा नाना प्रकारके यमनियम भी यहाँ मूर्तिमान्‌ हैं || ५३-५४ ।।

“आठ प्रकारके ऐश्वर्य भी यहाँ एक ही जगह साकाररूपसे प्रकट हैं, इन्हें देखो। श्री, लक्ष्मी, कीर्ति, पर्वतोंसहित पृथ्वी तथा वेदमाता सरस्वतीदेवी भी मेरे भीतर विराजमान हैं, उन सबका दर्शन करो। नारद! ये नक्षत्रोंमें श्रेष्ठ आकाशचारी ध्रुव दिखायी दे रहे हैं, इनकी ओर भी दृष्टिपात करो ।। ५५-५६ ।।

'साधुशिरोमणे! बादल, समुद्र, सरोवर और सरिताओंको भी मेरे भीतर मूर्तिमान्‌ देख लो। चारों प्रकारके पितृगण भी सशरीर प्रकट हैं, इनका भी दर्शन कर लो | ५७ ।।

“मेरे शरीरमें स्थित हुए मूर्तिरहित इन तीन गुणोंको भी मूर्तिमान्‌ देख लो। मुने! देवकार्यसे भी पितृकार्य बढ़कर है ।। ५८ ।।

“एकमात्र मैं ही देवताओं और पितरोंका भी पिता हूँ। मैं ही हयग्रीवरूप धारण करके समुद्रमें वायव्यकोणकी ओर रहता हूँ और विधिपूर्वक हवन किये हुए हव्य और श्रद्धापूर्वक समर्पित किये हुए कव्यका भी पान करता हूँ ।। ५९ ३ ||

'पूर्वकालमें मेरे द्वारा उत्पन्न किये गये ब्रह्माने स्वयं ही मुझ यज्ञपुरुषका यजन किया था। इससे प्रसन्न होकर मैंने उन्हें उत्तम वरदान दिये थे |। ६० इ ।।

(वे वरदान इस प्रकार हैं--) “ब्रह्मन! तुम प्रत्येक कल्पके आदिदमें मेरे पुत्ररूपसे उत्पन्न होओगे। तुम्हें लोकाध्यक्षका पद प्राप्त होगा। तुम्हारा पर्यायवाची नाम होगा, अहंकारकर्ता। तुम्हारी बाँधी हुई मर्यादाका कोई उल्लंघन नहीं करेगा ।। ६१-६२ ।।

“ब्रह्म! तुम वर चाहनेवाले साधकोंको वर देनेमें समर्थ होओगे। कठोर व्रतका पालन करनेवाले महाभाग तपोधन! तुम देवताओं, असुरों, ऋषियों, पितरों तथा नाना प्रकारके प्राणियोंके सदा ही उपासनीय होओगे ।। ६३-६४ ।।

“ब्रह्म! जब मैं देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये अवतार धारण करूँ, उन दिनों सदा तुम मुझपर शासन करना और पुत्रकी भाँति मुझे प्रत्येक कार्यमें नियुक्त करना” || ६५ |।

“नारद! अमित तेजस्वी ब्रह्माको ये तथा और भी बहुत-से सुन्दर वर देकर मैं प्रसन्नतापूर्वक निवृत्तिपरायण हो गया ।। ६६ ।।

“समस्त कर्मोंसे उपरत हो जाना ही परम निवृत्ति है; अतः जो निवृत्तिको प्राप्त हो गया है, वह सभी अंगोंसे सुखी होकर विचरण करे ।। ६७ ।।

'सांख्यशास्त्रके सिद्धान्तका निश्चय करनेवाले आचार्यगण मुझे ही विद्याकी सहायतासे युक्त, सूर्यमण्डलमें स्थित एवं समाहितचित्त कपिल कहते हैं ।। ६८ ।।

“वेदमें जिनकी स्तुति की गयी है, वे भगवान्‌ हिरण्यगर्भ मेरे ही स्वरूप हैं! ब्रह्मन! योगीलोग जिसमें रमण करते हैं, वह योगशास्त्रप्रसिद्ध पुरुषविशेष ईश्वर भी मैं ही हूँ ।। ६९ ।।

“इस समय मैं सनातन परमात्मा ही व्यक्तरूप धारण करके आकाशमें स्थित हूँ। फिर एक सहखस्र चतुर्युग व्यतीत होनेपर मैं ही इस जगत्‌का संहार करूँगा || ७० ।।

“उस समय सम्पूर्ण चराचर प्राणियोंको अपनेमें लीन करके मैं अकेला ही अपनी विद्याशक्तिके साथ सूने संसारमें विहार करूँगा ।। ७१ ।।

“तदनन्तर सृष्टिका समय आनेपर फिर उस विद्याशक्तिके ही द्वारा संसारके सारे चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करूँगा। मेरी जो चार मूर्तियाँ हैं, उनमें जो चौथी वासुदेव मूर्ति है, उसने अविनाशी शेषको उत्पन्न किया है | ७२ ।।

“उस शेषको ही संकर्षण कहा गया है। संकर्षणने प्रद्युम्मको प्रकट किया है और प्रद्यम्नसे अनिरुद्धका आविर्भाव हुआ है। वह सब मैं ही हूँ। बारंबार उत्पन्न होनेवाला यह सृष्टिविस्तार मेरा ही है ।। ७३ ।।

“मेरी अनिरुद्ध मूर्तिसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए हैं, जिनका प्राकट्य मेरे नाभिकमलसे हुआ है। ब्रह्मासे समस्त चराचर भूत उत्पन्न हुए हैं || ७४ ।।

“कल्पके आदिमें बारंबार इस सृष्टिको मैं प्रकट करता हूँ (और अन्तमें इसका संहार कर डालता हूँ)। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो। जैसे आकाशसे सूर्यका उदय होता है और आकाशमें ही वह अस्त होता है--ये उदय-अस्तके क्रम सदा चलते रहते हैं (उसी प्रकार मुझसे ही जगत्‌की उत्पत्ति होती है और मुझमें ही उसका लय होता है। यह सृष्टि और संहारका क्रम यों ही चला करता है) || ७५ ।।

“जैसे अमिततेजस्वी काल सूर्यके अदृश्य होनेपर पुनः बलपूर्वक उसे दृष्टिपथमें ला देता है, उसी प्रकार मैं भी समस्त प्राणियोंके हितके लिये इस पृथ्वीको समुद्रके जलसे बलपूर्वक ऊपर लाता हूँ ॥। ७६ ।। 

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठचि!र! तदनन्तर नारदजीने भगवान्‌ जनार्दनसे पूछा --'महाप्रभो! किन-किन स्वरूपोंमें आपका दर्शन (और स्मरण) करना चाहिये? ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--महामुनि नारद! तुम मेरे अवतारोंके नाम सुनो--मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, बलराम, श्रीकृष्ण तथा कल्कि--ये दस अवतार हैं ।।

पहले मैं “मत्स्य” रूपसे प्रकट होऊँगा और समस्त प्रजाको निर्भय अवस्थामें स्थापित करूँगा। महासागरमें डूबते हुए लोकों और वेदोंकी भी रक्षा करूँगा ।।

वत्स! मेरा दूसरा अवतार होगा कूर्म--कच्छप। उस समय मैं हेमकूट पर्वतके समान कच्छपरूप धारण करूँगा। द्विजश्रेष्ठ] जब देवता अमृतके लिये क्षीरसागरका मन्थन करेंगे, तब मैं अपनी पीठपर मन्दराचलको धारण करूँगा ।।

जिसके सारे अंग प्राणियोंसे भरे हुए हैं तथा जो समुद्रसे घिरी हुई है, वही यह पृथ्वी जब भारी भारसे दबकर घोर महासागरमें निमग्न हो जायगी, उस समय मैं वाराहरूप धारण करके इसे पुनः अपने स्थानपर ला दूँगा। उसी समय बलके घमंडमें भरे हुए हिरण्याक्ष नामक दैत्यका वध कर डालूँगा || ७७ ६ ।।

तदनन्तर देवताओंके कार्यके लिये नरसिंहरूप धारण करके यज्ञनाशक दितिनन्दन हिरण्यकशिपुका संहार कर डालूँगा || ७८ ६ ।।

विरोचनके एक बलवान पुत्र होगा, जो महासुर बलिके नामसे विख्यात होगा। उसे देवता, असुर तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण लोक भी नहीं मार सकेंगे। वह इन्द्रको राज्यसे भ्रष्ट कर देगा ।। ७९-८० |।

जब वह त्रिलोकीका अपहरण कर लेगा और शचीपति इन्द्र युद्धमें पीठ दिखाकर भाग जायँगे, उस समय मैं कश्यपजीके अंश और अदितिके गर्भसे बारहवाँ आदित्य वामन बनकर प्रकट होऊँगा ।। ८१ ।॥।

द्विजश्रेष्ठ] उस समय सब लोग मेरी स्तुति करेंगे और मैं जटाधारी ब्रह्मचारीके रूपमें बलिके यज्ञमण्डपमें जाकर उसके उस यज्ञकी भूरि-भूरि प्रशंसा करूँगा, जिसे सुनकर बलि बहुत प्रसन्न होगा ।।

जब वह कहेगा कि “ब्रह्मचारी ब्राह्मण! बताओ, क्या चाहते हो?” तब मैं उससे महान्‌ वरकी याचना करूँगा। मैं उस महान्‌ असुरसे कहूँगा कि “मुझे तीन पग भूमिमात्र दे दो” 

वह अपने मन्त्रियोंके मना करनेपर भी मुझपर प्रसन्न होनेके कारण वह वर मुझे दे देगा। ज्यों ही संकल्पका जल मेरे हाथपर आयेगा, त्यों ही तीन पगोंसे त्रिलोकीको नापकर उसका सारा राज्य अमिततेजस्वी इन्द्रको समर्पित कर दूँगा। नारद! इस प्रकार मैं सम्पूर्ण देवताओंको अपने-अपने स्थानोंपर स्थापित कर दूँगा ।।

साथ ही सम्पूर्ण देवताओंके लिये अवध्य श्रेष्ठ दानव बलिको भी पातालतलका निवासी बना दूँगा ।।

फिर त्रेतायुगमें भूगुकुलभूषण परशुरामके रूपमें प्रकट होऊँगा और सेना तथा सवारियोंसे सम्पन्न क्षत्रियकुलका संहार कर डालूँगा || ८४ ।।

तदनन्तर जब त्रेता और द्वापरकी सन्ध्या उपस्थित होगी, उस समय मैं जगत्पति दशरथनन्दन रामके रूपमें अवतार लूँगा || ८५ ।।

त्रित नामक मुनिके साथ विश्वासघात करनेके कारण एकत और द्वित--ये दो प्रजापतिके पुत्र ऋषि विरूप वानरयोनिको प्राप्त होंगे || ८६ ।।

उन दोनोंके वंशमें जो वनवासी वानर जन्म लेंगे, वे महाबली, महापराक्रमी और इन्द्रके तुल्य पराक्रम प्रकट करनेमें समर्थ होंगे || ८७ ।।

ब्रह्मन्‌! वे देवकार्यकी सिद्धिके लिये मेरे सहायक होंगे। तदनन्तर मैं पुलस्त्यकुलांगार भयंकर राक्षसराज रावणको, जो समस्त जगतके लिये भयावह होगा, उसके गणोंसहित मार डालूँगा || ८८६ ।।

फिर द्वापप और कलिकी संधिका समय बीतते-बीतते कंसका वध करनेके लिये मथुरामें मेरा अवतार होगा | ८९३ ।।

उस समय कंस, केशी, कालासुर, महादैत्य अरिष्टासुर, महापराक्रमी चाणूर, महाबली मुष्टिक, प्रलम्ब, धेनुकासुर तथा वृषभरूपधारी अरिष्टको मारकर यमुनाके विशाल कुण्डमें स्थित कालियनागको वशमें करके गोकुलमें इन्द्रके वर्षा करते समय गौओंकी रक्षाके लिये महान्‌ पर्वत गोवर्धनको सात दिन-रात अपने हाथसे छत्रकी भाँति धारण किये रहूँगा। ब्रह्म! जब वर्षा बन्द हो जायगी, तब पर्वतके शिखरपर आखरूढ़ हो मैं इन्द्रके साथ संवाद करूँगा ।।

वहाँ मैं बहुत-से देवकण्टक दानवोंको मारकर कुशस्थलीको द्वारकापुरीके नामसे बसाऊँगा और उसीमें निवास करूँगा || ९० ३ ।।

वहाँ रहकर देवमाता अदितिका अप्रिय करनेवाले भूमिपुत्र नरकासुर, मुर तथा पीठ नामक दानवोंका संहार करूँगा एवं नाना प्रकारके धन-धान्यसे सम्पन्न जो प्राग्ज्योतिषपुर नामक रमणीय नगर है, वहाँ दानवराज नरकका वध करके उसका सारा वैभव कुशस्थलीमें पहुँचा दूँगा ।। ९१-९२ ६ ।।

गिरगिटकी योनिमें पड़े हुए राजा नृगका भी उद्धार करूँगा। उसी अवतारमें अपने पौत्र अनिरुद्धके निमित्त बाणासुरकी राजधानी शोणितपुरमें जाकर वहाँकी असुरसेनाका महान्‌ संहार कर डालूँगा ।।

बाणासुरका प्रिय और हित चाहनेवाले विश्व-वन्दित देवता भगवान्‌ शंकर और कार्तिकिय भी जब मेरे साथ युद्धके लिये उद्यत होंगे, तब उन दोनोंको पराजित कर दूँगा ।। ९३३ |।

तदनन्तर सहस्र भुजाओंसे सुशोभित बलिपुत्र बाणासुरको पराजित करके शाल्वके सौभ विमानमें रहनेवाले समस्त योद्धाओंका विनाश कर डालूँगा | ९४ ३ ।।

द्विजोत्तम! गर्गाचार्यके तेजसे उत्पन्न होकर शक्तिशाली बना हुआ जो कालयवन नामक विख्यात असुर होगा, उसका वध भी मेरे ही द्वारा सम्भव होगा ।।

गिरिव्रजमें जरासंध नामक एक बहुत समृद्धिशाली और बलवान असुर राजा होगा, जो सम्पूर्ण राजाओंसे वैर मोल लेता फिरेगा। मेरे ही बौद्धिक प्रयत्नसे उसका भी वध हो सकेगा ।। ९६-९७ ।।

धर्मपुत्र युधिष्ठिरके यज्ञमें भूमण्डलके समस्त बलवान राजा पधारेंगे, उनके बीचमें मैं शिशुपालका वध कर डालूँगा ।। ९८ ।।

एकमात्र इन्द्रकुमार अर्जुन मेरा सखा एवं सुन्दर सहायक होगा। मैं राजा युधिष्ठिरको उनके भाइयोंसहित पुन: राजपदपर प्रतिष्ठित करूँगा ।। ९९ |।

उस समयके लोग कहेंगे कि “ये ईश्वररूप नर और नारायण नामक ऋषि ही एक साथ उद्यत हो लोकहितके लिये क्षत्रियजातिका संहार कर रहे हैं ।।

साधुशिरोमणे! पृथ्वीदेवीकी इच्छाके अनुसार उसका भार उतारकर मैं द्वारकाके समस्त यादव-शिरोमणियोंका नाश करके अपनी जातिका विनाशरूप घोर कर्म करूँगा || १०१३ ।।

श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्यम्म और अनिरुद्ध--इन चार स्वरूपोंको धारण करनेवाला मैं असंख्य कर्म करके ब्रह्माजीके द्वारा सम्मानित अपने धामको चला जाऊँगा ।।

द्विजश्रेष्ठ) हंस, कूर्म, मत्स्य, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, दशरथनन्दन राम, यदुवंशी श्रीकृष्ण तथा कल्कि--ये सब मेरे अवतार हैं || १०३-१०४ ।।

जब-जब वेद-श्रुति लुप्त हुई है, तब-तब अवतार लेकर मैंने पुन: उसे प्रकाशमें ला दिया है। मैंने ही पहले सत्ययुगमें वेदोंसहित श्रुतियोंको प्रकट किया था || १०५ ।।

मेरे जो अवतार अबतक व्यतीत हो चुके हैं, उन्हें सम्भवतः तुमने पुराणोंमें सुना होगा। मेरे कई उत्तमोत्तम अवतार हो चुके हैं || १०६ ।।

वे अवतार लोकहितके कार्य सम्पन्न करके पुन: अपने मूलस्वरूपमें मिल गये हैं। मुझमें अनन्य भक्ति रखनेके कारण आज तुमने यहाँ जिस स्वरूपका दर्शन पाया है, मेरे ऐसे स्वरूपका दर्शन अबतक ब्रह्माको भी नहीं प्राप्त हो सका है || १०७३६ ।।

ब्रह्मन्‌! साधुप्रवर! तुम मुझमें भक्तिभाव रखनेवाले हो, इसलिये मैंने तुमसे भूत और भविष्यके सारे अवतारोंका रहस्यसहित वर्णन किया है || १०८ $ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! विश्वरूपधारी अविनाशी भगवान्‌ नारायणदेव इतनी बात कहकर वहीं पुनः अन्तर्धान हो गये || १०९३ ।।

तब महातेजस्वी नारदजी भी भगवान्‌का मनोवाञ्छित अनुग्रह पाकर नर-नारायणका दर्शन करनेके लिये बदरिकाश्रमकी ओर चल दिये || ११०३ ।।

यह महान्‌ उपनिषद्‌ (ज्ञान) चारों वेदोंके विज्ञानसे सम्पन्न है। इसमें सांख्य और योगका सिद्धान्त कूट-कूटकर भरा है। इसकी पांचरात्र आगमके नामसे प्रसिद्धि है। साक्षात्‌ नारायणके मुखसे इसका गान हुआ है। तात! इस विषयको नारदजीने श्वेतद्वीपमें जैसा देखा और सुना था, वैसा ही ब्रह्माजीके भवनमें सुनाया था ।।

युधिष्ठिरे पूछा-पितामह! बुद्धिमान्‌ नारायण-देवका माहात्म्य तो बड़ा ही आश्चर्यमय है। क्या ब्रह्माजी इसे नहीं जानते थे कि नारदजीके मुखसे इसका श्रवण किया? ।। ११३ ३ ||

भगवान्‌ ब्रह्मा तो उन्हीं नारायणसे प्रकट हुए हैं। फिर वे उन महातेजस्वी नारायणका प्रभाव कैसे नहीं जानते होंगे? ।। ११४ $ ।।

भीष्मजीने कहा--राजेन्द्र! अबतक सैकड़ों और हजारों महाकल्प बीत चुके हैं, कितने ही सर्ग और प्रलय समाप्त हो चुके हैं। सर्गके आरम्भमें ब्रह्माजी ही प्रजावर्गके सृष्टिकर्ता माने गये हैं | ११५-११६ ।।

नरेश्वर! वे अपनी उत्पत्तिके कारणभूत देवप्रवर नारायणको इससे भी अधिक जानते हैं। उन्हें सर्वेश्षर और परमात्मा समझते हैं || ११७ ।।

ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके अलावा जो दूसरे-दूसरे सिद्धसमुदाय निवास करते हैं, उनके लिये नारदजीने यह वेदतुल्य पुरातन पांचरात्र सुनाया था || ११८ ।।

पवित्र अन्तः:करणवाले उन सिद्धोंके मुखसे भगवान्‌ सूर्यने इस माहात्म्यको सुना। राजन! सूर्यने सुनकर अपने पीछे चलनेवाले साठ हजार भावितात्मा मुनियोंको इसका श्रवण कराया। लोकमें तपते हुए सूर्यके आगे चलनेके लिये जिन ऋषियोंकी सृष्टि हुई है, उन भावितात्माओंको भी सूर्यदेवने भगवान्‌की यह महिमा सुनायी थी || ११९-१२० ई ।।

तात! सूर्यदेवका अनुसरण करनेवाले उन महात्मा ऋषियोंने मेरुपर्वतपर आये हुए देवताओंको वह उत्तम माहात्म्य सुनाया था || १२१६ ।।

राजेन्द्र! मुनिश्रेष्ठ ब्राह्मण असितने देवताओंके मुखसे उस माहात्म्यको सुनकर पितरोंको सुनाया || १२२३ ।।

इस प्रकार परम्परया प्राप्त होकर यह उत्तम ज्ञान महाराज शान्तनुको मिला। तात! फिर पिता शान्तनुने मुझे इसका उपदेश दिया ।। १२३ ।।

भरतनन्दन! पिताजीके मुखसे इस प्रसंगको सुनकर मैंने अब तुमसे इसका वर्णन किया है। देवताओं, मुनियों अथवा जिन लोगोंने भी इस पुरातन ज्ञानको सुना है, वे सभी सब ओर परमात्माका पूजन करते हैं || १२४ $ ।।

नरेश्वर! इस प्रकार यह ऋषिसम्बन्धी आख्यान परम्परासे प्राप्त हुआ है। जो भगवान्‌ वासुदेवका भक्त न हो, उसे किसी तरह भी इसका उपदेश तुम्हें नहीं देना चाहिये || १२५३ ||

नरेश्वर! जो मनुष्य सदा इस उत्तम उपाख्यानको सुनायेगा, वह भक्त मनुष्य पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर शीघ्र ही भगवान्‌ विष्णुके सनातनलोकको प्राप्त होगा ।।

राजन! तुमने मुझसे जो अन्य सैकड़ों उपाख्यान सुने हैं, उन सबका यह सारभाग निकालकर तुम्हारे सामने रखा गया है || १२६३ ।।

युधिष्ठिर! जैसे देवताओं और असुरोंने समुद्रको मथकर उससे अमृत निकाला था, उसी प्रकार प्राचीनकालमें ब्राह्मणोंने सारे शास्त्रोंकी मथकर इस अमृतमयी कथाको यहाँ प्रकाशित किया || १२७३ ।।

जो मनुष्य प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और जो इसे सदा सुनेगा, वह भगवानके प्रति अनन्यभावको प्राप्त होकर उनके अनन्य भक्तोंमें एकाग्रचित्तसे अनुरक्त हो श्वेत नामक महाद्वीपमें पहुँच जायगा और वह मनुष्य चन्द्रमाके समान कान्तिमान्‌ रूप धारण करके उन सहस्रों किरणोंवाले भगवान्‌ नारायणदेवमें प्रवेश करेगा, इसमें संशय नहीं है | १२८-१२९।।

इस कथाको आदिसे ही सुनकर रोगी रोगसे मुक्त हो जायगा, जिज्ञासु पुरुषको इच्छानुसार ज्ञान प्राप्त होगा और भक्त पुरुष भक्तजनोचित गतिको प्राप्त होगा ।।

राजन! तुम्हें भी सदा ही भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि वे ही सम्पूर्ण जगत्‌के माता, पिता और गुरु हैं || १३१६ ।।

महाबाहु युधिष्छिर! ब्राह्मणहितैषी परम बुद्धिमान्‌ सनातन पुरुष भगवान्‌ जनार्दनदेव तुमपर सदा प्रसन्न रहें ।।

वैशम्पायनजी कहते हैं--जनमेजय! इस उत्तम उपाख्यानको सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर और उनके सभी भाई भगवान्‌ नारायणके परम भक्त हो गये || १३३३ ।।

भरतनन्दन! वे नित्यप्रति भगवन्नामके जपमें तत्पर होकर “भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी जय हो' ऐसी वाणी बोला करते थे || १३४ $ ।।

जो हमारे परमगुरु मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास हैं, वे भी परम उत्तम नारायणमन्त्रका जप करते हुए निरन्तर उनकी महिमाका गान करते रहते हैं || १३५३ 

व्यासजी सदा ही आकाशमार्गसे अमृतनिधि क्षीर-सागरके तटपर जाकर देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करनेके पश्चात्‌ पुन: अपने आश्रमपर लौट आते हैं || १३६६ 

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! नारदजीका कहा हुआ यह सारा उपाख्यान मैंने तुमसे कह सुनाया। यह पूर्वपरम्परासे पहले मेरे पिताजीको प्राप्त हुआ। फिर पिताजीने मुझसे कहा था ।। १३७३ ||

सूतपुत्र बोले--शौनक! वैशम्पायनजीका कहा हुआ यह सारा आख्टयान मैंने तुमसे कहा है। जनमेजयने इसे सुनकर उत्तम विधिपूर्वक भगवानका यजन किया। तुमलोग भी तपस्वी और व्रतका पालन करनेवाले हो ।। १३८-१३९ ।।

नैमिषारण्यमें निवास करनेवाले प्रायः सभी ऋषि प्रमुख वेदवेत्ता हैं और सभी श्रेष्ठ द्विज शौनकके इस महायज्ञमें एकत्र हुए हैं || १४० ।।

आप सब लोग विधिवत्‌ हवन करके उत्तम यज्ञोंद्वारा उन सनातन परमेश्वरका यजन करें। यह परम्परासे प्राप्त हुआ उत्तम आख्यान मेरे पिताने पहले-पहल मुझसे कहा था ।। १४१ ||

(इस प्रकार श्रीमह्या भारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारायणका माहात्म्यविषयक तीन सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५½ श्लोक मिलाकर कुल १५६½ श्लोक हैं)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें