सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ इकत्तीसवें अध्याय से तीन सौ पैतीसवें अध्याय तक (From the 331 chapter to the 335 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ इकत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ इकत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-65 का हिन्दी अनुवाद)

“नारदजीका शुकदेवको कर्मफल-प्राप्तिमें परतन्त्रताविषयक उपदेश तथा शुकदेवजीका सूर्यलोकमें जानेका निश्चय”

नारदजी कहते हैं--शुकदेव! जब मनुष्य सुखको दुःख और दुःखको सुख समझने लगता है, उस समय बुद्धि, उत्तम नीति और पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाता ।।१।।

अतः मनुष्यको स्वभावत: ज्ञानप्राप्तिके लिये यत्न करना चाहिये; क्योंकि यत्न करनेवाला पुरुष कभी दु:खमें नहीं पड़ता। आत्मा सबसे बढ़कर प्रिय है; अतः जरा, मृत्यु और रोगोंके कष्टसे उसका उद्धार करे ।।२।।

शारीरिक और मानसिक रोग सुदृढ़ धनुष धारण करनेवाले वीर पुरुषोंके छोड़े हुए तीक्ष्ण बाणोंके समान शरीरको पीड़ा देते हैं। ॥३॥

तृष्णासे व्यथित, दुखी एवं विवश होकर जीनेकी इच्छा रखनेवाले मनुष्यका शरीर विनाशकी ओर ही खिंचता चला जाता है ।। ४ ।।

जैसे नदियोंका प्रवाह आगेकी ओर ही बढ़ता चला जाता है, पीछेकी ओर नहीं लौटता, उसी प्रकार रात और दिन भी मनुष्योंकी आयुका अपहरण करते हुए बारंबार आते और बीतते चले जाते हैं ।। ५ ।।

शुक्ल और कृष्ण--दोनों पक्षोंका निरन्तर होनेवाला यह परिवर्तन मनुष्योंको जराजीर्ण कर रहा है। यह कुछ क्षणके लिये भी विश्राम नहीं लेता है || ६ ।।

सूर्य प्रतिदिन अस्त होते और फिर उदय होते हैं। वे स्वयं अजर होकर भी प्रतिदिन प्राणियोंके सुख और दुःखको जीर्ण करते रहते हैं || ७ ।।

ये रात्रियाँ मनुष्योंके लिये कितनी ही अपूर्व तथा असम्भावित प्रिय-अप्रिय घटनाएँ लिये आती और चली जाती हैं ।। ८ ।।

यदि जीवके किये हुए कर्मोंका फल पराधीन न होता तो जो जिस वस्तुकी इच्छा करता, वह अपनी उसी कामनाको रुचिके अनुसार प्राप्त कर लेता | ९ ।।

बड़े-बड़े संयमी, बुद्धिमान्‌ और चतुर मनुष्य भी समस्त कर्मोसे श्रान्‍्त होकर असफल होते देखे जाते हैं ।।

किंतु दूसरे मूर्ख, गुणहीन और अधम मनुष्य भी किसीका आशीर्वाद न मिलनेपर भी सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न दिखायी देते हैं ।। ११ ।।

कोई-कोई मनुष्य तो सदा प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता है और सब लोगोंको धोखा दिया करता है, तो भी वह सुख ही भोगते-भोगते बूढ़ा होता है ।। १२ ।।

कितने ही ऐसे हैं, जो कोई काम न करके चुपचाप बैठे रहते हैं, फिर भी लक्ष्मी उनके पास अपने-आप पहुँच जाती है और कुछ लोग काम करके भी अपनी प्राप्य वस्तुको उपलब्ध नहीं कर पाते ।। १३ ।।

इसमें स्वभावत: पुरुषका ही अपराध (प्रारब्ध-दोष) समझो। वीर्य अन्यत्र उत्पन्न होता है और संतानोत्पादनके लिये अन्यत्र जाता है || १४ ।।

कभी तो वह योनिमें पहुँचकर गर्भ धारण करानेमें समर्थ होता है और कभी नहीं होता तथा कभी-कभी आमके बौरके समान वह व्यर्थ ही झर जाता है ।। १५ ।।

कुछ लोग पुत्रकी इच्छा रखते हैं और उस पुत्रके भी संतान चाहते हैं तथा इसकी सिद्धिके लिये सब प्रकारसे प्रयत्न करते हैं, तो भी उनके एक अंडा भी उत्पन्न नहीं होता ।। १६ ।।

बहुत-से मनुष्य बच्चा पैदा होनेसे उसी तरह डरते हैं, जैसे क्रोधमें भरे हुए विषधर सर्पसे लोग भयभीत रहते हैं, तथापि उनके यहाँ दीर्घजीवी पुत्र उत्पन्न होता है और क्‍या मजाल है कि वह कभी किसी तरह रोग आदिसे मृतकतुल्य हो सके || १७ ।।

पुत्रकी अभिलाषा रखनेवाले दीन स्त्री-पुरुषोंद्वारा देवताओंकी पूजा और तपस्या करके दस मासतक गर्भ धारण किया जाता है तथापि उनके कुलांगार पुत्र उत्पन्न होते हैं ।।

तथा बहुत-से ऐसे हैं, जो आमोद-प्रमोदमें ही जन्म धारण करके पिताके संचित किये हुए अपार धनधान्य एवं विपुल भोगोंके अधिकारी होते हैं ।। १९ ।।

पति-पत्नीकी पारस्परिक इच्छाके अनुसार मैथुनके लिये जब उनका समागम होता है, उस समय किसी उपद्रवके समान गर्भ योनिमें प्रवेश करता है || २० ।।

जिसका स्थूल शरीर क्षीण हो गया है तथा जो कफ और मांसमय शरीरसे घिरा हुआ है, उस देहधारी प्राणीको मृत्युके बाद शीघ्र ही दूसरे शरीर उपलब्ध हो जाते हैं ।।

जैसे एक नौकाके भग्न होनेपर उसपर बैठे हुए लोगोंको उतारनेके लिये दूसरी नाव प्रस्तुत रहती है, उसी प्रकार एक शरीरसे मृत्युको प्राप्त होते हुए जीवको लक्ष्य करके मृत्युके बाद उसके कर्मफल-भोगके लिये दूसरा नाशवान्‌ शरीर उपस्थित कर दिया जाता है ।। २२ ।।

शुकदेव! पुरुष स्त्रीके साथ समागम करके उसके उदरमें जिस अचेतन शुक्रबिन्दुको स्थापित करता है, वही गर्भरूपमें परिणत होता है। फिर वह गर्भ किस यत्नसे यहाँ जीवित रहता है, क्या तुम कभी इसपर विचार करते हो? ।। २३ ।।

जहाँ खाये हुए अन्न और जल पच जाते हैं तथा सभी तरहके भक्ष्य पदार्थ जीर्ण हो जाते हैं, उसी पेटमें पड़ा हुआ गर्भ अन्नके समान क्‍यों नहीं पच जाता है ।।

गर्भमें मल और मूत्रके धारण करने या त्यागमें कोई स्वभावनियत गति है; किंतु कोई स्वाधीन कर्ता नहीं है। कुछ गर्भ माताके पेटसे गिर जाते हैं, कुछ जन्म लेते हैं और कितनोंकी ही जन्म लेनेके बाद मृत्यु हो जाती है || २५-२६ ।।

इस योनि-सम्बन्धसे कोई सकुशल जीता हुआ बाहर निकल आता है, तब कोई संतानको प्राप्त होता है और पुनः परस्परके सम्बन्धमें संलग्न हो जाता है ।।

अनादिकालसे साथ उत्पन्न होनेवाले शरीरके साथ जीवात्मा अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। इस शरीरकी गर्भवास, जन्म, बाल्य, कौमार, पौगण्ड, यौवन, वृद्धत्व, जरा, प्राणरोध और नाश--ये दस दशाएँ होती हैं। इनमेंसे सातवीं और नवीं दशाको भी शरीरगत पाँचों भूत ही प्राप्त होते हैं, आत्मा नहीं। आयु समाप्त होनेपर शरीरकी नवीं दशामें पहुँचनेपर ये पाँच भूत नहीं रहते। अर्थात्‌ दसवीं दशाको प्राप्त हो जाते हैं || २८ ।।

जैसे व्याध छोटे मृगोंको कष्ट पहुँचाते हैं, उसी प्रकार जब नाना प्रकारके रोग मनुष्योंको मथ डालते हैं, तब उनमें उठने-बैठनेकी भी शक्ति नहीं रह जाती, इसमें संशय नहीं है ।। २९ ।।

रोगोंसे पीड़ित हुए मनुष्य वैद्योंको बहुत-सा धन देते हैं और वैद्यलोग रोग दूर करनेकी बहुत चेष्टा करते हैं, तो भी उन रोगियोंकी पीड़ा दूर नहीं कर पाते हैं ।।

बहुत-सी ओषधियोंका संग्रह करनेवाले चिकित्सामें कुशल चतुर वैद्य भी व्याधोंके मारे हुए मृगोंकी भाँति रोगोंके शिकार हो जाते हैं || ३१ ।।

वे तरह-तरहके काढ़े और नाना प्रकारके घी पीते रहते हैं, तो भी बड़े-बड़े हाथी जैसे वृक्षोंको झुका देते हैं, वैसे ही वृद्धावस्था उनकी कमर टेढ़ी कर देती है; यह देखा जाता है ।। ३२ ।।

इस पृथ्वीपर मृग, पक्षी, हिंसक पशु और दरिद्र मनुष्योंको जब रोग सताता है, तब कौन उनकी चिकित्सा करने जाते हैं? किंतु प्राय: उन्हें रोग होता ही नहीं है ।।

परन्तु बड़े-बड़े पशु जैसे छोटे पशुओंपर आक्रमण करके उन्हें दबा देते हैं, उसी प्रकार प्रचण्ड तेजवाले, घोर एवं दुर्धर्ष राजाओंपर भी बहुत-से रोग आक्रमण करके उन्हें अपने वशमें कर लेते हैं ।। ३४ ।।

इस प्रकार सब लोग भवसागरके प्रबल प्रवाहमें सहसा पड़कर इधर-उधर बहते हुए मोह और शोकमें डूब रहे हैं और आर्तनादतक नहीं कर पाते हैं || ३५ ।।

विधाताके द्वारा कर्मफल-भोगमें नियुक्त हुए देहधारी मनुष्य धन, राज्य तथा कठोर तपस्याके प्रभावसे प्रकृतिका उल्लंघन नहीं कर सकते ।। ३६ ।।

यदि प्रयत्नका फल अपने हाथमें होता तो मनुष्य न तो बूढ़े होते और न मरते ही। सबकी समस्त कामनाएँ पूरी हो जातीं और किसीको अप्रिय नहीं देखना पड़ता ।। ३७ ।।

सब लोग लोकोंके ऊपर-से-ऊपर स्थानमें जाना चाहते हैं और यथाशक्ति इसके लिये चेष्टा भी करते हैं; किंतु वैसा करनेमें समर्थ नहीं होते || ३८ ।।

प्रमादरहित पराक्रमी शूरवीर भी ऐश्वर्य तथा मदिराके मदसे उन्मत्त रहनेवाले शठ मनुष्योंकी सेवा करते हैं ।।

कितने ही लोगोंके क्लेश ध्यान दिये बिना ही निवृत्त हो जाते हैं तथा दूसरोंको अपने ही धनमेंसे समयपर कुछ भी नहीं मिलता ।। ४० ।।

कर्मोके फलमें भी बड़ी भारी विषमता देखनेमें आती है। कुछ लोग पालकी ढोते हैं और दूसरे लोग उसी पालकीमें बैठकर चलते हैं || ४१ ।।

सभी मनुष्य धन और समृद्धि चाहते हैं; परंतु उनमेंसे थोड़े-से ही ऐसे लोग होते हैं, जो रथपर चढ़कर चलते हैं। कितने ही पुरुष स्त्रीरहित हैं और सैकड़ों मनुष्य कई स्त्रियोंवाले हैं | ४२ ।।

सभी प्राणी सुख-दुःख आदि द्वद्धोंमें रम रहे हैं। मनुष्य उनमेंसे एक-एकका अनुभव करते हैं अर्थात्‌ किसीको सुखका अनुभव होता है, किसीको दुःखका। यह जो ब्रह्म नामक वस्तु है, इसे सबसे भिन्न एवं विलक्षण समझो। इसके विषयमें तुम्हें मोहग्रस्त नहीं होना चाहिये ।। ४३ ।।

धर्म और अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्य दोनोंका त्याग करो। सत्य और असत्य दोनोंका त्याग करके जिससे त्याग करते हो, उस अहंकारको भी त्याग दो ।। ४४ ।।

मुनिश्रेष्ठ! यह मैंने तुमसे परम गूढ़ बात बतलायी है, जिससे देवतालोग मर्त्यलोक छोड़कर स्वर्गलोकको चले गये ।। ४५ ||

मुनिश्रेष्ठ! यह मैंने तुमसे परम गूढ़ बात बतलायी है, जिससे देवतालोग मर्त्यलोक छोड़कर स्वर्गलोकको चले गये ।। ४५ ||

नारदजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान्‌ और धीरचित्त शुकदेवजीने मन-ही-मन बहुत विचार किया; किंतु सहसा वे किसी निश्चयपर न पहुँच सके ।। ४६ ।।

वे सोचने लगे, स्त्री-पुत्रोंके झमेलेमें पड़नेसे महान्‌ क्लेश होगा। विद्याभ्यासमें भी बहुत अधिक परिश्रम है। कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे सनातन पद प्राप्त हो जाय। उस साधनमें क्लेश तो थोड़ा हो, किन्तु अभ्युदय महान्‌ हो || ४७ ।।

तदनन्तर उन्होंने दो घड़ीतक अपनी निश्चित गतिके विषयमें विचार किया; फिर भूत और भविष्यके ज्ञाता शुकदेवजीको अपने धर्मकी कल्याणमयी परम गतिका निश्चय हो गया | ४८ ।।

फिर वे सोचने लगे, मैं सब प्रकारकी उपाधियोंसे मुक्त होकर किस प्रकार उस उत्तम गतिको प्राप्त करूँ, जहाँसे फिर इस संसार-सागरमें आना न पड़े ।। ४९ ।।

जहाँ जानेपर जीवकी पुनरावृत्ति नहीं होती, मैं उसी परमभावको प्राप्त करना चाहता हूँ। सब प्रकारकी आसक्तियोंका परित्याग करके मैंने मनके द्वारा उत्तम गति प्राप्त करनेका निश्चय किया है || ५० ।।

अब मैं वहीं जाऊँगा, जहाँ मेरे आत्माको शान्ति मिलेगी तथा जहाँ मैं अक्षय, अविनाशी और सनातनरूपसे स्थित रहूँगा || ५१ ।।

परंतु योगके बिना उस परम गतिको नहीं प्राप्त किया जा सकता। बुद्धिमानका कर्मोंके निकृष्ट बन्धनसे बँँधा रहना उचित नहीं है ।। ५२ ।।

अतः मैं योगका आश्रय ले इस देह-गेहका परित्याग करके वायुरूप हो तेजोराशिमय सूर्यमण्डलमें प्रवेश करूँगा || ५३ ।।

देवतालोग चन्द्रमाका अमृत पीकर जिस प्रकार उसे क्षीण कर देते हैं, उस प्रकार सूर्यदेवका क्षय नहीं होता। धूममार्गसे चन्द्रमण्डलमें गया हुआ जीव कर्मभोग समाप्त होनेपर कम्पित हो फिर इस पृथ्वीपर गिर पड़ता है। इसी प्रकार नूतन कर्मफल भोगनेके लिये वह पुनः चन्द्रलोकमें जाता है (सारांश यह कि चन्द्रलोकमें जानेवालेको आवागमनसे छुटकारा नहीं मिलता है) || ५४ ।।

इसके सिवा चन्द्रमा सदा घटता-बढ़ता रहता है। उसकी हास-वृद्धिका क्रम कभी टूटता नहीं है। इन सब बातोंको जानकर मुझे चन्द्रलोकमें जाने या हास-वृद्धिके चक्‍्करमें पड़नेकी इच्छा नहीं होती है ।। ५५ ।।

सूर्यदेव अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समस्त जगत्‌को संतप्त करते हैं। वे सब जगहसे तेजको स्वयं ग्रहण करते हैं (उनके तेजका कभी हास नहीं होता); इसलिये उनका मण्डल सदा अक्षय बना रहता है || ५६ ||

अतः उद्दीप्त तेजवाले आदित्यमण्डलमें जाना ही मुझे अच्छा जान पड़ता है। इसमें मैं निर्भीकचित्त होकर निवास करूँगा। किसीके लिये भी मेरा पराभव करना कठिन होगा ।। ५७ |।

इस शरीरको सूर्यलोकमें छोड़कर मैं ऋषियोंके साथ सूर्यदेवके अत्यन्त दुःसह तेजमें प्रवेश कर जाऊँगा ।।

इसके लिये मैं नग-नाग, पर्वत, पृथ्वी, दिशा, द्युलोक, देव, दानव, गन्धर्व, पिशाच, सर्प और राक्षसोंसे आज्ञा माँगता हूँ ।। ५९ ।।

आज मैं निःसन्देह जगत्‌के सम्पूर्ण भूतोंमें प्रवेश करूँगा। समस्त देवता और ऋषि मेरी योगशक्तिका प्रभाव देखें || ६० ।।

ऐसा निश्चय करके शुकदेवजीने विश्वविख्यात देवर्षि नारदजीसे आज्ञा माँगी। उनसे आज्ञा लेकर वे अपने पिता व्यासजीके पास गये ।। ६१ ।।

वहाँ अपने पिता महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन मुनिको प्रणाम करके शुकदेवजीने उनकी प्रदक्षिणा की और उनसे जानेके लिये आज्ञा माँगी || ६२ ।।

शुकदेवकी यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए महात्मा व्यासने उनसे कहा--“बेटा! बेटा! आज यहीं रहो, जिससे तुम्हें जी-भर निहारकर अपने नेत्रोंको तृप्त कर लूँ” || ६३ ।।

परंतु शुकदेवजी स्नेहका बन्धन तोड़कर निरपेक्ष हो गये थे। तत्त्वके विषयमें उन्हें कोई संशय नहीं रह गया था; अतः बारंबार मोक्षका ही चिन्तन करते हुए उन्होंने वहाँसे जानेका ही विचार किया ।। ६४ ।।

पिताको वहीं छोड़कर मुनिश्रेष्ठ शुकदेव सिद्ध समुदायसे सेवित विशाल कैलासशिखरपर चले गये ॥६५॥

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका प्रस्थानविषयक तीन सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद)

“शुकदेवजीकी ऊर्ध्वगतिका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--भरतनन्दन! कैलास-शिखरपर आखरूढ़ हो व्यासपुत्र शुकदेव एकान्तमें तृणरहित समतल भूमिपर बैठ गये और शास्त्रोक्त विधिसे पैरसे लेकर सिरतक सम्पूर्ण अंगोंमें क्रमश: आत्माकी धारणा करने लगे। वे क्रमयोगके पूर्ण ज्ञाता थे ।। १-२ ।।

थोड़ी ही देरमें जब सूर्योदय हुआ, तब ज्ञानी शुकदेव हाथ-पैर समेटकर विनीतभावसे पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके बैठे और योगमें प्रवृत्त हो गये। उस समय बुद्धिमान्‌ व्यासनन्दन जहाँ योगयुक्त हो रहे थे, वहाँ न तो पक्षियोंका समुदाय था, न कोई शब्द सुनायी पड़ता था और न दृष्टिको आकृष्ट करनेवाला कोई दृश्य ही उपस्थित था ।। ३-४ ।।

उस समय उन्होंने सब प्रकारके संगोंसे रहित आत्माका दर्शन किया। उस परमतत्त्वका साक्षात्कार करके शुकदेवजी जोर-जोरसे हँसने लगे || ५ ।।

फिर मोक्षमार्गकी उपलब्धिके लिये योगका आश्रय ले महान्‌ योगेश्वर होकर वे आकाश में उड़नेके लिये तैयार हो गये ।। ६ ।।

तदनन्तर देवर्षि नारदके पास जा उनकी प्रदक्षिणा की और उन परम ऋषिसे अपने योगके सम्बन्धमें इस प्रकार निवेदन किया ।। ७ ।।

शुकदेव बोले--महातेजस्वी तपोधन! आपका कल्याण हो। अब मुझे मोक्षमार्गका दर्शन हो गया। मैं वहाँ जानेको तैयार हूँ। आपकी कृपासे मैं अभीष्ट गति प्राप्त करूँगा ।। ८ ।।

नारदजीकी आज्ञा पाकर व्यासकुमार शुकदेवजी उन्हें प्रणाम करके पुनः योगमें स्थित हो आकाशमें प्रविष्ट हुए। कैलासशिखरसे उछलकर वे तत्काल आकाशमें जा पहुँचे और सुनिश्चित ज्ञान पाकर वायुका रूप धारण करके श्रीमान्‌ शुकदेव अन्तरिक्षमें विचरने लगे ।। ९-१० ||

उस समय समस्त प्राणियोंने ऊपर जाते हुए द्विजश्रेष्ठ शुकदेवको विनतानन्दन गरुड़के समान कान्तिमान्‌ तथा मन और वायुके समान वेगशाली देखा ।। ११ ।।

वे निश्चयात्मक बुद्धिके द्वारा सम्पूर्ण त्रिलोकीको आत्मभावसे देखते हुए बहुत दूरतक आगे बढ़ गये। उस समय उनका तेज सूर्य और अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था ।। १२ ||

उन्हें निर्भय होकर शान्त और एकाग्रचित्तसे ऊपर जाते समय समस्त चराचर प्राणियोंने देखा और अपनी शक्ति तथा रीतिके अनुसार उनका यथोचित पूजन किया। देवताओं ने उनपर दिव्य फूलोंकी वर्षा की || १३-१४ ।।

उन्हें इस प्रकार जाते देख समस्त गन्धर्व, अप्सराओंके समुदाय तथा सिद्ध ऋषि-मुनि महान्‌ आश्चर्यमें पड़ गये ।।

और आपसमें कहने लगे--“तपस्यासे सिद्धिको प्राप्त हुआ यह कौन महात्मा आकाश कभमार्गसे जा रहा है, जिसका मुख-मण्डल ऊपरकी ओर और शरीरका निचला भाग नीचेकी ओर ही है? हमारी आँखें बरबस इसकी ओर खिंच जाती हैं" ।। १६ ।।

तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध परम धर्मात्मा शुकदेवजी पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके सूर्यको देखते हुए मौनभावसे आगे बढ़ रहे थे ।। १७ ।।

वे अपने शब्दसे सम्पूर्ण आकाशको पूर्ण-सा कर रहे थे। राजन! उन्हें सहसा आते देख सम्पूर्ण अप्सराएँ मन ही-मन घबरा उठीं और अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गयीं ।। १८ ३ ।।

पञ्चचूडा आदि अप्सराओंके नेत्र विस्मयसे अत्यन्त खिल उठे थे। वे परस्पर कहने लगीं कि उत्तम गतिका आश्रय लेकर यह कौन-सा देवता यहाँ आ रहा है? इसका निश्चय अत्यन्त दृढ़ है। यह सब प्रकारके बन्धनों तथा संशयोंसे मुक्त-सा हो गया है और इसके भीतर किसी वस्तुकी कामना नहीं रह गयी है ।।

कुछ ही देरमें वे मलय नामक पर्वतपर जा पहुँचे, जहाँ उर्वशी और पूर्वचित्ति--ये दो अप्सराएँ सदा निवास करती हैं ।। २१ ।।

ब्रह्मर्षि व्यासजीके पुत्रकी यह उत्तम गति देख उन दोनोंको बड़ा विस्मय हुआ। वे आपसमें कहने लगीं, “अहो! इस वेदाभ्यासपरायण ब्राह्मणकी बुद्धिमें कितनी अदभुत एकाग्रता है? पिताकी सेवासे थोड़े ही समयमें उत्तम बुद्धि पाकर यह चन्द्रमाके समान आकाशकमें विचर रहा है || २२-२३ ।।

“यह बड़ा ही तपस्वी और पितृभक्त था और अपने पिताका बहुत ही प्यारा बेटा था। उनका मन सदा इसीमें लगा रहता था; फिर भी उन्होंने इसे जानेकी आज्ञा कैसे दे दी?” ।। २४ ।।

उर्वशीकी बात सुनकर परम धर्मज्ञ शुकदेवजीने सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर देखा। उस समय उनका चित्त उसकी बातोंकी ओर चला गया था ।। २५ ।।

आकाश, पर्वत, वन और काननोंसहित पृथ्वी एवं सरोवरों और सरिताओंकी ओर भी उन्होंने दृष्टि डाली || २६ ।।

उस समय इन सबकी अधिष्ठात्री देवियोंने सब ओरसे बड़े आदरके साथ द्वैपायनकुमार शुकदेवजीको देखा। वे सब-की-सब अंजलि बाँधे खड़ी थीं || २७ ।।

तब परम धर्मज्ञ शुकदेवजीने उन सबसे कहा--'देवियो! यदि मेरे पिताजी मेरा नाम लेकर पुकारते हुए इधर आ निकलें तो आप सब लोग सावधान होकर मेरी ओरसे उन्हें उत्तर देना। आप लोगोंका मुझपर बड़ा स्नेह है; इसलिये आप सब मेरी इतनी-सी बात मान लेना' ॥| २८-२९ |।

शुकदेवजीकी यह बात सुनकर कानर्नोसहित सम्पूर्ण दिशाओं, समुद्रों, नदियों, पर्वतों और पर्वतोंकी अधिष्ठात्री देवियोंने सब ओरसे यह उत्तर दिया-- || ३० ।।

ब्रह्म! आप जैसी आज्ञा देते हैं, निश्चय ही वैसा ही होगा। जब महर्षि व्यास आपको पुकारेंगे, तब हम सब लोग उन्हें उत्तर देंगी' || ३१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवजीका ऊर्ध्वगमनविषयक तीन सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ तेंतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तेंतीसवें अध्याय के श्लोक 1-42 का हिन्दी अनुवाद)

“शुकदेवजीकी परमपद-प्राप्ति तथा पुत्र-शोकसे व्याकुल व्यासजीको महादेवजीका आश्वासन देना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!र[ यह वचन कहकर महातपस्वी शुकदेवजी सिद्धि पानेके उद्देश्यस्से आगे बढ़ गये। बुद्धिमान्‌ शुकने चार प्रकारके दोषोंका, आठ प्रकारके तमोगुणका तथा पाँच प्रकारके रजोगुणका परित्याग करके सत्त्वगुणको भी त्याग दिया-; यह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। १-२ ।।

तत्पश्चात्‌ वे नित्य निर्गुण एवं लिंगरहित ब्रह्मपदमें स्थित हो गये। उस समय उनका तेज धूमहीन अग्निकी भाँति देदीप्यमान हो रहा था ।। ३ ।।

उसी क्षण उल्काएँ टूटकर गिरने लगीं। दिशाओंमें दाह होने लगा और धरती डोलने लगी। यह सब आश्वर्यकी-सी घटना घटित हुई ।। ४ ।।

वृक्षोंने अपनी शाखाएँ अपने-आप तोड़कर गिरा दीं। पर्वतोंने अपने शिखर भंग कर दिये। वज्रपातके शब्दोंसे गिरिराज हिमालय विदीर्ण-सा होता जान पड़ता था ।। ५ ।।

सूर्यकी प्रभा फीकी पड़ गयी। आग प्रज्वलित नहीं होती थी। सरोवर, सरिता और समुद्र सभी क्षुब्ध हो उठे ।।

इन्द्रने सरस और सुगन्धित जलकी वर्षा की तथा दिव्य गन्ध फैलाती हुई परम पवित्र वायु चलने लगी ।।

भरतनन्दन! आगे बढ़नेपर श्रीशुकदेवजीने पर्वतके दो दिव्य एवं सुन्दर शिखर देखे, जो एक-दूसरेसे सटे हुए थे। उनमेंसे एक हिमालयका शिखर था और दूसरा मेरुपर्वतका। हिमालयका शिखर रजतमय होनेके कारण श्वेत दिखायी देता था और सुमेरुका स्वर्णमय शंंग पीले रंगका था। इन दोनोंकी लंबाई-चौड़ाई और ऊँचाई सौ-सौ योजनकी थी। उत्तरदिशाकी ओर जाते समय ये दोनों सुरम्य शिखर शुकदेवजीकी दृष्टिमें पड़े | ८-९ ।।

उन्हें देखकर वे पूर्ववत्‌ निःशंक मनसे उनके ऊपर चढ़ गये। फिर तो वे दोनों पर्ववशिखर सहसा दो भागोंमें बँट गये और बीचसे फटे हुए-से दिखायी देने लगे। महाराज! यह एक अद्भुत-सी बात हुई ।। १०३ ।।

तत्पश्चात्‌ उन पर्वतशिखरोंसे वे सहसा आगे निकल गये। वह श्रेष्ठ पर्वत उनकी गतिको रोक न सका ।।

यह देख सम्पूर्ण देवताओं, गन्धर्वों, ऋषियों तथा जो उस पर्वतपर रहनेवाले दूसरे लोग थे, उन सबने बड़े जोरसे हर्षनाद किया। उनकी हर्षध्वनि आकाशमें चारों ओर गूँज उठी ।। १२६ ।।

भारत! शुकदेवजीको पर्वत लाँधकर आगे बढ़ते और उस पर्वतको दो टुकड़ोंमें विदीर्ण होते देख वहाँ सब ओर 'साधु-साधु” शब्द सुनायी पड़ने लगे || १३ ३ ||

महाराज! देवता, गन्धर्व, ऋषि, यक्ष, राक्षस और विद्याधरोंने उनका पूजन किया। वहाँसे शुकदेवजीके ऊपर उठते समय उनके चढ़ाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षसे वहाँ सब ओरका सारा आकाश छा गया ।। १४-१५३ ।|।

राजन! धर्मात्मा शुकने ऊर्ध्वलोकमें जाते समय खिले हुए वृक्षों और वनोंसे सुशोभित रमणीय मन्दाकिनी (आकाशगंगा) का दर्शन किया ।। १६६ ।।

उसमें बहुत-सी अप्सराएँ स्नान एवं जलक्रीड़ा कर रही थीं। यद्यपि वे नंगी थीं, तो भी शुकदेवजीको शून्याकार (बाह्ज्ञानसे रहित एवं आत्मनिष्ठ) देख अपने शरीरको ढकने या छिपानेके लिये उद्यत नहीं हुईं ।।

उन्हें इस प्रकार सिद्धिके लिये उत्क्रण करते जान उनके पिता वेदव्यासजी भी स्नेहवश उत्तम गतिका आश्रय ले उनके पीछे-पीछे जाने लगे || १८३ ।।

उधर शुकदेव वायुसे आकाशगामिनी ऊर्ध्वगतिका आश्रय ले अपना प्रभाव दिखाकर तत्काल ब्रह्मीभूत हो गये ।।

महातपस्वी व्यासजी दूसरी महायोगसम्बन्धिनी गतिका अवलम्बन करके ऊपरको उठे और पलक मारते-मारते उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँसे उन पर्वत-शिखरोंको दो भागोंमें विदीर्ण करके शुकदेवजी आगे बढ़े थे। वह स्थान शुकाभिपतनके नामसे प्रसिद्ध हो गया था। उन्होंने उस स्थानको देखा || २०-२१ ।।

वहाँ रहनेवाले ऋषियोंने आकर व्यासजीसे उनके पुत्रका वह अलौकिक कर्म कह सुनाया। तब व्यासजीने शुकदेवका नाम लेकर बड़े जोरसे रोदन किया ।। २२ ।।

जब पिताने उच्च स्वरसे तीनों लोकोंको गुँजाते हुए पुकारा, तब सर्वव्यापी, सर्वात्मा एवं सर्वतोमुख होकर धर्मात्मा शुकने “भो:” शब्दसे सम्पूर्ण जगतको प्रतिध्वनित करते हुए पिताको उत्तर दिया ।। २३६ ।।

उसीके साथ-साथ सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ने उच्च स्वरसे “भो:' इस एकाक्षर शब्दका उच्चारण करते हुए उत्तर दिया ।।

तभीसे आजतक पर्वतोंके शिखरपर अथवा गुफाओंके आस-पास जब-जब आवाज दी जाती है, तब-तब वहाँके चराचर निवासी प्रतिध्वनिके रूपमें उसका उत्तर देते हैं, जैसा कि उन्होंने शुकदेवजीके लिये किया था ।।

इस प्रकार अपना प्रभाव दिखलाकर शुकदेवजी अन्तर्धान हो गये और शब्द आदि गुणोंका परित्याग करके परमपदको प्राप्त हुए | २६६ ।।

अपने अमिततेजस्वी पुत्रकी यह महिमा देखकर व्यासजी उसीका चिन्तन करते हुए उस पर्वतके शिखरपर बैठ गये ।। २७३६ ।।

उस समय मन्दाकिनीके तटपर क्रीड़ा करती हुई समस्त अप्सराएँ महर्षि व्यासको अपने निकट पाकर बड़ी घबराहटमें पड़ गयीं, अचेत-सी हो गयीं। कोई जलमें छिप गयीं और कोई लताओंकी झुरमुटमें ।।

कुछ अप्सराओंने मुनिश्रेष्ठ व्यासको देखकर अपने वस्त्र पहन लिये। उस समय अपने पुत्रकी मुक्तता जानकर मुनि बड़े प्रसन्न हुए और अपनी आसक्तिका विचार करके वे बहुत लज्जित भी हुए ।।३०.३१।।

इसी समय देवताओं और गन्धर्वोंसे घिरे हुए तथा महर्षियोंसे पृूजित पिनाकधारी भगवान्‌ शंकर वहाँ आ पहुँचे और पुत्र-शोकसे संतप्त वेदव्यासजीको सान्त्वना देते हुए कहने लगे-- || ३२-३३ ।।

“ब्रह्म! तुमने पहले अग्नि, भूमि, जल, वायु और आकाशके समान शक्तिशाली पुत्र होनेका मुझसे वरदान माँगा था; अतः तुम्हें तुम्हारी तपस्याके प्रभाव तथा मेरी कृपासे पालित वैसा ही पुत्र प्राप्त हुआ। वह ब्रह्मतेजसे सम्पन्न और परम पवित्र था || ३४-३५ ।।

“ब्रह्म! इस समय उसने ऐसी उत्तम गति प्राप्त की है, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों तथा देवताओंके लिये भी दुर्लभ है, फिर भी तुम उसके लिये क्‍यों शोक कर रहे हो? ।। ३६ ।।

जबतक इस संसारमें पर्वतोंकी सत्ता रहेगी और जबतक समुद्रोंकी स्थिति बनी रहेगी, तबतक तुम्हारी और तुम्हारे पुत्रकी अक्षय कीर्ति इस संसारमें छायी रहेगी ।।

“महामुने! तुम मेरे प्रसादसे इस जगत्‌में सदा अपने पुत्रसदृश छायाका दर्शन करते रहोगे। वह सब ओर दिखायी देगी, कभी तुम्हारी आँखोंसे ओझल न होगी” ।।

भरतनन्दन! साक्षात्‌ भगवान्‌ शंकरके इस प्रकार आश्वासन देनेपर सर्वत्र अपने पुत्रकी छाया देखते हुए मुनिवर व्यास बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर लौट आये ।। ३९ ।।

भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रहे थे, वह शुकदेवजीके जन्म और परमपद-प्राप्तिकी कथा मैंने तुम्हें विस्तारसे सुनायी है || ४० ।।

राजन! सबसे पहले देवर्षि नारदजीने यह वृत्तान्त मुझे बताया था। महायोगी व्यासजी भी बातचीतके प्रसंगमें पद-पदपर इस प्रसंगको दुहराया करते हैं ।। ४१ ।।

जो पुरुष मोक्षधर्मसे युक्त इस परम पवित्र इतिहासको सुनकर या पढ़कर अपने हृदयमें धारण करेगा, वह शान्तिपरायण हो परमगति (मोक्ष) को प्राप्त होगा || ४२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवजीकी ऊर्ध्वगतिके वर्णनकी समाप्ति नामक तीन सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • सत्त्वगगुण भी सुख और ज्ञानके सम्बन्धसे बाँधनेवाला होता है। मैं सुखी हूँ, अज्ञानी हूँ,” ऐसा जो अभिमान हो जाता है, वह ज्ञानीको गुणातीत अवस्थासे वंचित रख देता है। इसलिये यहाँ सत्त्वगुणको भी त्याग देनेकी बात कही गयी है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चौतीसवें अध्याय के श्लोक 1-45½ का हिन्दी अनुवाद)

“बदरिकाश्रममें नारदजीके पूछनेपर भगवान्‌ नारायणका परमदेव परमात्माको ही सर्वश्रेष्ठ पूजनीय बताना”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ अथवा संन्यासी जो भी सिद्धि पाना चाहे, वह किस देवताका पूजन करे? ।। १ ।।

मनुष्यको अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? उसे परम कल्याण किस साधनसे सुलभ हो सकता है? वह किस विधिसे देवताओं तथा पितरोंके उद्देश्यसे होम करे? ।। २ ।।

मुक्त पुरुष किस गतिको प्राप्त होता है? मोक्षका क्‍या स्वरूप है? स्वर्गमें गये हुए मनुष्यको क्‍या करना चाहिये, जिससे वह स्वर्गसे नीचे न गिरे? ।। ३ ।।

देवताओंका भी देवता और पितरोंका भी पिता कौन है? अथवा उससे भी श्रेष्ठ तत्त्व क्या है? पितामह! इन सब बातोंको आप मुझे बताइये ।। ४ ।।

भीष्मजीने कहा--निष्पाप युधिष्ठिर! तुम प्रश्न करना खूब जानते हो। इस समय तुमने मुझसे बड़ा गूढ़ प्रश्न किया है। राजन! भगवान्‌की कृपा अथवा ज्ञानप्रधान शास्त्रके बिना केवल तर्कके द्वारा सैकड़ों वर्षो्में भी इन प्रश्नोंका उत्तर नहीं दिया जा सकता। शत्रुसूदन! यद्यपि यह विषय समझनेमें बहुत कठिन है, तो भी तुम्हारे लिये तो इसकी व्याख्या करनी ही है || ५-६ ।।

इस विषयमें जानकार लोग देवर्षि नारद और नारायण ऋषिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ७ ।।

मेरे पिताजीने मुझे यह बताया था कि भगवान्‌ नारायण सम्पूर्ण जगत्‌के आत्मा, चतुर्मूर्ति और सनातन देवता हैं। वे ही एक समय धर्मके पुत्ररूपसे प्रकट हुए थे ।। ८ ।।

महाराज! स्वायम्भुव मन्वन्तरके सत्ययुगमें उन स्वयम्भू भगवान्‌ वासुदेवके चार अवतार हुए थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं--नर, नारायण, हरि और कृष्ण ।। ९ ।।

उनमेंसे अविनाशी नारायण और नर बदरिकाश्रममें जाकर एक सुवर्णमय रथपर स्थित हो घोर तपस्या करने लगे ।। १० ।।

उनका वह मनोरम रथ आठ पहियोंसे युक्त था और उसमें अनेकानेक प्राणी जुते हुए थे। वे दोनों आदिपुरुष जगदीश्वर तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये। उनके शरीरकी नसें दिखायी देने लगीं। तपस्यासे उनका तेज इतना बढ़ गया था कि देवताओंको भी उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था। जिनपर वे कृपा करते थे, वही उन दोनों देवेश्वरोंका दर्शन कर सकता था ।। ११-१२ ||

निश्चय ही उन दोनोंकी इच्छाके अनुसार अपने हृदयमें अन्तर्यामीकी प्रेरणा होनेपर देवर्षि नारद महामेरु पर्वतके शिखरसे गन्धमादन पर्वतपर उतर पड़े ।। १३ ।।

राजन! नारदजी सम्पूर्ण लोकोंमें विचरते थे; अतः वे शीघ्रगामी मुनि बदरिकाश्रमके उस विशाल प्रदेशमें घूमते-घामते आ पहुँचे, जो महान्‌ प्राणियोंसे युक्त था ।।

जब वहाँ भगवान्‌ नर और नारायणके नित्यकर्मका समय हुआ, उसी समय नारदजीके मनमें उनके दर्शनके लिये बड़ी उत्कण्ठा हुई। वे सोचने लगे, “अहो! यह उन्हीं भगवान्‌का स्थान है, जिनके भीतर देवता, असुर, गन्धर्व, किन्नर और महान्‌ नागोंसहित सम्पूर्ण लोक निवास करते हैं ।।

पहले ये एक ही रूपमें विद्यमान थे; फिर धर्मकी वंश-परम्पराका विस्तार करनेके लिये ये चार विग्रहोंमें प्रकट हुए। इन चारोंने अपने उपार्जित धर्मसे धर्मदेवकी वंशपरम्पराको बढ़ाया है। अहो! इस समय नर, नारायण, कृष्ण और हरि--इन चारों देवताओं ने धर्मपर बड़ा अनुग्रह किया है ।। १६-१७ ३ ।।

“इनमेंसे हरि और कृष्ण किसी और कार्यमें संलग्न हैं; परंतु ये दोनों भाई नारायण और नर धर्मको ही प्रधान मानते हुए तपस्यामें संलग्न हैं || १८ ३ ।।

'ये ही दोनों परमधामस्वरूप हैं। इनका यह नित्यकर्म कैसा है? ये दोनों यशस्वी देवता सम्पूर्ण प्राणियोंके पिता और देवता हैं। ये परम बुद्धिमान्‌ दोनों बन्धु भला किस देवताका यजन और किन पितरोंका पूजन करते हैं?” || १९-२० ।।

मन-ही-मन ऐसा सोचकर भगवान्‌ नारायणके प्रति भक्तिसे प्रेरित हो नारदजी सहसा उन देवताओंके समीप प्रकट हो गये ।। २१ ।।

भगवान्‌ नर और नारायण जब देवता और पितरोंकी पूजा समाप्त कर चुके, तब उन्होंने नारदजीको देखा और शास्त्रमें बतायी हुई विधिसे उनका पूजन किया ।। २२ ।।

उनके द्वारा शास्त्रविधिका यह अपूर्व विस्तार और अत्यन्त आश्चर्यजनक व्यवहार देखकर उनके पास ही बैठे हुए देवर्षि भगवान्‌ नारद अत्यन्त प्रसन्न हुए ।। २३ ।।

प्रसन्न चित्तसे महादेव भगवान्‌ नारायणकी ओर देखकर नारदजीने उन्हें नमस्कार किया और इस प्रकार कहा ।। २४ ।।

नारदजी बोले--भगवन्‌! अंग और उपांगोंसहित सम्पूर्ण वेदों तथा पुराणोंमें आपकी ही महिमाका गान किया जाता है। आप अजन्मा, सनातन, सबके माता-पिता और सर्वोत्तम अमृतरूप हैं || २५ ।।

देव! आपमें ही भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन यह सम्पूर्ण जगत प्रतिष्ठित है। गार्हस्थ्यमूलक चारों आश्रमोंके सब लोग नाना रूपोंमें स्थित हुए आपकी ही प्रतिदिन पूजा करते हैं । २६६ ।।

आप ही सम्पूर्ण जगत्‌के माता, पिता और सनातन गुरु हैं, तो भी आज आप किस देवता और किस पितरकी पूजा करते हैं? यह मैं समझ नहीं पाया। अतः महाभाग! मैं आपसे पूछ रहा हूँ मुझे बताइये कि आप किसकी पूजा करते हैं? | २७ ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--ब्रह्मन! तुमने जिसके विषयमें प्रश्न किया है, वह अपने लिये गोपनीय विषय है। यद्यपि यह सनातन रहस्य किसीसे कहने योग्य नहीं है, तथापि तुम-जैसे भक्त पुरुषको तो उसे बताना ही चाहिये; अतः मैं यथार्थ रूपसे इस विषयका वर्णन करूँगा ।। २८ ।।

जो सूक्ष्म, अज्ञेय, अव्यक्त, अचल और ध्रुव है, जो इन्द्रियों, विषयों और सम्पूर्ण भूतोंसे परे है, वही सब प्राणियोंका अन्तरात्मा है; अतः क्षेत्रज् नामसे कहा जाता है, वही त्रिगुणातीत तथा पुरुष कहलाता है। उसीसे त्रिगुणमय अव्यक्तकी उत्पत्ति हुई है। द्विजश्रेष्ठ! उसीको व्यक्तभावमें स्थित, अविनाशिनी अव्यक्त प्रकृति कहा गया है ।। २९--३१ ।।

वह सदसत्स्वरूप परमात्मा ही हम दोनोंकी उत्पत्तिका कारण है, इस बातको जान लो। हम दोनों उसीकी पूजा करते तथा उसीको देवता और पितर मानते हैं || ३२ ।।

ब्रह्म! उससे बढ़कर दूसरा कोई देवता या पितर नहीं है। वही हमलोगोंका आत्मा है, यह जानना चाहिये। अतः हम उसीकी पूजा करते हैं |। ३३ ।।

ब्रह्म! उसीने लोकको उन्नतिके पथपर ले जानेवाली यह धर्मकी मार्यादा स्थापित की है। देवताओं और पितरोंकी पूजा करनी चाहिये, यह उसीकी आज्ञा है ।।

ब्रह्मा, रद्र, मनु, दक्ष, भृगु, धर्म, तप, यम, मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ, परमेष्ठी, सूर्य, चन्द्रमा, कर्दम, क्रोध, और विक्रीत--ये इकक्‍्कीस प्रजापति उसी परमात्मासे उत्पन्न बताये गये हैं तथा उसी परमात्माकी सनातन धर्म-मर्यादाका पालन एवं पूजन करते हैं ।। ३५-३७ ।।

श्रेष्ठ द्विज उसीके उद्देश्यसे किये जानेवाले देवता तथा पितृ-सम्बन्धी कार्योकी ठीकठीक जानकर अपनी अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेते हैं || ३८ ।।

स्वर्गमें रहनेवाले प्राणियोंमेंसे भी जो कोई उस परमात्माको प्रणाम करते हैं, वे उसके कृपा-प्रसादसे उसीकी आज्ञाके अनुसार फल देनेवाली उत्तम गतिको प्राप्त करते हैं ।। ३९ ।।

जो पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धिरूप सत्रह गुणोंसे, सब कर्मोसे रहित हो पंद्रह कलाओंको त्याग करके स्थित हैं, वे ही मुक्त हैं, यह शास्त्रका सिद्धान्त है || ४० ।।

ब्रह्म! मुक्त पुरुषोंकी गति क्षेत्रज्ञ परमात्मा निश्चित किया गया है। वही सर्वसदगुणसम्पन्न तथा निर्मुण भी कहलाता है ।। ४१ ।।

ज्ञानयोगके द्वारा उसका साक्षात्कार होता है। हम दोनोंका आविर्भाव उसीसे हुआ है-ऐसा जानकर हम दोनों उस सनातन परमात्माकी पूजा करते हैं || ४२ ।।

चारों वेद, चारों आश्रम तथा नाना प्रकारके मतोंका आश्रय लेनेवाले लोग भक्तिपूर्वक उसकी पूजा करते हैं और वह इन सबको शीघ्र ही उत्तम गति प्रदान करता है || ४३ ।।

जो सदा उसका स्मरण करते तथा अनन्य भावसे उसकी शरण लेते हैं, उन्हें सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वे उसके स्वरूपमें प्रवेश कर जाते हैं |। ४४ ।।

नारद! ब्रह्मर्ष! तुममें भगवानके प्रति भक्ति और प्रेम है। हमलोगोंके प्रति भी तुम्हारा भक्तिभाव बना हुआ है। इसलिये हमने तुम्हारे सामने इस गोपनीय विषयका वर्णन किया है और तुम्हें इसे सुननेका शुभ अवसर मिला है || ४५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तीन सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ श्लोक मिलाकर कुल ४५½ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ पैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-56 का हिन्दी अनुवाद)

“नारदजीका श्वेतद्वीपदर्शन, वहाँके निवासियोंके स्वरूपका वर्णन, राजा उपरिचरका चरित्र तथा पाञ्चरात्रकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! पुरुषोत्तम भगवान्‌ नारायणने जब पुरुषप्रवर नारदजीसे इस प्रकार कहा, तब वे लोकहितके आश्रयभूत पुरुषाग्रगण्य भगवान्‌ नारायणसे यों बोले ।। १ ।।

नारदजीने कहा--प्रभो! आप समस्त पदार्थोंकी उत्पत्तिके कारण हैं। आपने जिसके लिये धर्मके गृहमें चार स्वरूपोंमें अवतार धारण किया है उस प्रयोजनकी लोकहितके लिये सिद्धि कीजिये। अब मैं [(श्वेतद्वीपमें स्थित) आपके आदिविग्रहका दर्शन करने जाता हूँ ।। २ ।।

लोकनाथ! मैं गुरुजननोंका सदा आदर करता हूँ। किसीकी गुप्त बात पहले कभी दूसरोंके समक्ष प्रकट नहीं की है। मैंने वेदोंका स्वाध्याय किया, तपस्या की और कभी असत्यभाषण नहीं किया है ।। ३ ।।

शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार हाथ, पैर, उदर और उपस्थ--इन चारोंकी मैंने रक्षा की है। शत्रु और मित्रके प्रति मैं सदा समानभाव रखता हूँ। इन आदिदेव परमात्मा श्रीनारायणकी निरन्तर शरण लेकर मैं अनन्य-भावसे सदा उन्हींका भजन करता हूँ। इन सब विशेष कारणोंसे मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो गया है। ऐसी दशामें मैं उन अनन्त परमेश्वरका दर्शन कैसे नहीं कर सकता हूँ? ।। ४६ ।।

ब्रह्मपुत्र नारदजीका यह वचन सुनकर सनातन धर्मके रक्षक भगवान्‌ नारायणने उनकी विधिवत्‌ पूजा करके उन्हें जानेकी आज्ञा दे दी | ५६ ।।

उनसे विदा लेकर ब्रह्मकुमार नारद उन पुरातन ऋषि नारायणका पूजन करके उत्तम योगसे युक्त हो आकाशकी ओर उड़े और सहसा मेरुपर्वतपर पहुँचकर अदृश्य हो गये ।। ६ *

मेरुके शिखरपर एकान्त स्थानमें जाकर नारद मुनिने दो घड़ीतक विश्राम किया। फिर वहाँसे उत्तर-पश्चिमकी ओर दृष्टिपात करनेपर उन्होंने पूर्व-वर्णित एक अद्भुत दृश्य देखा ।। ७३ |।

क्षीरसागरके उत्तरभागमें जो श्वेत नामसे प्रसिद्ध विशाल द्वीप है, वह उनके सामने प्रकट हो गया। विद्वानोंने उस द्वीपको मेरुपर्वतसे बत्तीस हजार योजन ऊँचा बताया है। वहाँके निवासी इन्द्रियोंसे रहित, निराहार तथा चेष्टारहित एवं ज्ञानसम्पन्न होते हैं। उनके अंगोंसे उत्तम सुगन्ध निकलती रहती है ।। ८-९ ।।

उस द्वीपमें सब प्रकारके पापोंसे रहित श्वेत वर्णवाले पुरुष निवास करते हैं। उनकी ओर देखनेसे पापी मनुष्योंकी आँखे चौंधिया जाती हैं। उनके शरीर तथा हडडियाँ वज्रके समान सुदृढ़ होती हैं। वे मान और अपमानको समान समझते हैं। उनके अंग दिव्य होते हैं। वे शुभ (योगके प्रभावसे उत्पन्न) बलसे सम्पन्न होते हैं। उनके मस्तकका आकार छत्रके समान और स्वर मेघोंकी घटाके गर्जनकी भाँति गम्भीर होता है। उनके बराबर-बराबर चार भुजाएँ होती हैं। उनके पैर सैकड़ों कमलसदृश रेखाओंसे सुशोभित होते हैं। उनके मुँहमें साठ सफेद दाँत और आठ दाढ़ें होती हैं। वे सूर्यके समान कान्तिमान्‌ तथा सम्पूर्ण विश्वको अपने मुखमें रखनेवाले महाकालको भी अपनी जिह्ठाओंसे चाट लेते हैं || १०-११ 

जिनसे सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है, सारे लोक प्रकट हुए हैं, वेद, धर्म, शान्त स्वभाववाले मुनि तथा सम्पूर्ण देवता जिनकी सृष्टि हैं, उन अनन्त शक्ति-सम्पन्न परमेश्वरको श्वेतद्वीपके निवासी भक्तिभावसे अपने हृदयमें धारण करते हैं || १२ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! श्वेतद्वीपमें रहनेवाले पुरुष इन्द्रिय, आहार, तथा चेष्टासे रहित क्‍यों होते हैं? उनके शरीरसे सुन्दर गन्ध क्‍यों निकलती है? उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई है तथा वे किस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं? || १३ ।।

भरतश्रेष्ठ] इस लोकसे मुक्त होनेवाले पुरुषोंका शास्त्रोंमें जो लक्षण बताया गया है, वैसा ही आपने श्वेतद्वीपके निवासियोंका भी बताया है। इसलिये मुझे संदेह होता है, अतः मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। इसे जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है। आप सम्पूर्ण ज्ञाममयी कथाओंमें रस लेनेवाले हैं और हम आपके शरणागत हैं || १४-१५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! यह कथा बहुत विस्तृत है। इसे मैंने अपने पिताजीके निकट सुना था। इस समय जो कथा तुम्हारे सामने कहनी है, वह सम्पूर्ण कथाओंकी सारभूत मानी गयी है ।। १६ ।।

पूर्वकालमें मेरे पिता महाराज शान्तनुके पूछनेपर मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उनसे यह कथा कही थी। उसी समय वहाँ मैंने भी इसे सुना था ।।

पहलेकी बात है, इस पृथ्वीपर एक उपरिचर नामक राजा राज्य करते थे। वे इन्द्रके मित्र और पापहारी भगवान्‌ नारायणके विख्यात भक्त थे ।। १७ ।।

वे धर्मात्मा तथा पिताके नित्य भक्त थे। आलस्यका उनमें सर्वथा अभाव था। पूर्वकालमें भगवान्‌ नारायणके वरसे उन्होंने भूमण्डलका साम्राज्य प्राप्त किया था || १८ ।।

जो पहले भगवान्‌ सूर्यके मुखसे प्रकट हुआ था, उस वैष्णव शास्त्रोक्त विधिका आश्रय ले वे प्रथम तो देवेश्वर भगवान्‌ नारायणका पूजन करते। फिर उनकी सेवासे बचे हुए पदार्थोंसे पितरोंका, पितरोंकी सेवासे बचे हुए पदार्थोंसे ब्राह्मणोंका तथा अन्य आश्रितजनोंका विभागपूर्वक सत्कार करते थे। सबको देनेके अनन्तर बचे हुए अन्नका भोजन करते थे, सत्यमें तत्पर रहते और किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं करते थे ।। १९-२० ||

वे आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अविनाशी, लोककर्ता देवदेव जनार्दनके भजनमें सम्पूर्णभावसे लगे रहते थे || २१ ।।

भगवान्‌ नारायणमें भक्ति रखनेवाले उस शत्रुसूदन नरेशपर प्रसन्न हो देवराज इन्द्र उन्हें अपने साथ एक शय्या और एक आसनपर बिठाया करते थे ।। २२ ।।

राजा उपरिचरने अपने राज्य, धन, स्त्री और वाहन आदि सब उपकरणोंको भगवान्‌की ही वस्तु समझकर सब उन्हींको समर्पित कर रखा था ।। २३ ।।

राजन! वे सदा सावधान रहकर सकाम और नैमित्तिक यज्ञोंकी सम्पूर्ण क्रियाओंको वैष्णवशास्त्रोक्त विधिसे सम्पन्न किया करते थे || २४ ।।

उन महात्मा नरेशके घरमें पाउचरात्र शास्त्रके मुख्य-मुख्य विद्वान्‌ सदा मौजूद रहते थे; और भगवान्‌को समर्पित किया हुआ प्रसाद अथवा भोज्य पदार्थ सबसे पहले वे ही भोजन करते थे | २५ ।।

धर्मपूर्वक राज्यका शासन करते हुए उन शत्रुघाती नरेशने न तो कभी असत्य भाषण किया और न कभी उनका मन ही बुरे विचारोंसे दूषित हुआ। अपने शरीरके द्वारा उन्होंने कभी छोटे-से-छोटा पाप भी नहीं किया था || २६६ ।।

(अब मैं जिस प्रकार तन्त्र, स्मृति और आगमकी उत्पत्ति हुई है, उसे बताता हूँ, सुनो --) मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और महातेजस्वी वसिष्ठ--ये सात प्रसिद्ध ऋषि चित्रशिखण्डी कहलाते हैं। ये जो चित्रशिखण्डी नामसे विख्यात सात ऋषि हैं, इन्होंने महागिरि मेरुपर एकमत होकर जिस उत्तम शास्त्रका प्रवचन एवं निर्माण किया, वह चारों वेदोंक समान आदरणीय एवं प्रमाणभूत है। उसमें सात मुखोंसे प्रकट हुए उत्तम लोकधर्मकी व्याख्या हुई है ।। २७--२९ ।।

ये सातों ऋषि प्रकृतिके सात रूप हैं अर्थात्‌ प्रजाके स्रष्टा हैं। आठवाँ ब्रह्मा है। ये सब मिलकर इस सम्पूर्ण जगतको धारण करते हैं। इन्हींके द्वारा शास्त्रका प्राकट्य हुआ है। ये सब-के-सब ऋषि एकाग्रचित्त, जितेन्द्रिय, संयमपरायण, भूत, भविष्य और वर्तमानके ज्ञाता तथा सत्य-धर्ममें तत्पर रहनेवाले हैं || ३०-३१ ।।

इन्होंने मन-ही-मन यह सोचकर कि अमुक साधनसे जगत्‌का कल्याण होगा, अमुकसे परमात्माकी प्राप्ति होगी तथा अमुक उपायसे संसारका सर्वोत्तम हितसाधन होगा, शास्त्रकी रचना की ।। ३२ ।।

उसमें पहले धर्म, अर्थ, और कामका फिर मोक्षका भी वर्णन है तथा स्वर्ग एवं मर्त्यलोकमें प्रचलित नाना प्रकारकी मर्यादाओंका भी प्रतिपादन किया गया है ।। ३३ ।।

उपर्युक्त ऋषियोंने अन्य ऋषियोंके साथ एक हजार दिव्य वर्षोतक तपस्या करके भगवान्‌ नारायणकी आराधना की थी। उससे प्रसन्न होकर भगवानने सरस्वतीदेवीको उनके पास भेजा। नारायणकी आज्ञासे सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये उस समय सरस्वती देवीने उन सम्पूर्ण ऋषियोंके भीतर प्रवेश किया था ।। ३४-३५ ।।

तब उन तपस्वी ब्राह्मणोंने शब्द, अर्थ और हेतुसे युक्त वाणीका प्रयोग किया। यह उनकी प्रथम रचना थी ।। ३६ ।।

उस शास्त्रके आरम्भमें ही ३>कार स्वरका प्रयोग किया गया है। ऋषियोंने सबसे पहले जहाँ उस शास्त्रको सुनाया, वहाँ वे करूणामय भगवान्‌ विराजमान्‌ थे ।।

तदनन्तर अनिर्वचनीय शरीरमें स्थित भगवान्‌ पुरुषोत्तम प्रसन्न हो अदृश्य रहकर ही उन सब ऋषियोंसे बोले-- ।। ३८ ।।

मुनिवरो! तुमलोगोंने एक लाख श्लोकोंका यह उत्तम शास्त्र बनाया है। इससे सम्पूर्ण लोकतन्त्रका धर्म प्रचलित होगा ।। ३९ ।।

"प्रवृत्ति और निवृत्तिके विषयमें यह ऋक्‌, यजुट, साम और अथर्व वेदके मन्त्रोंसे अनुमोदित ग्रन्थके समान प्रमाणभूत होगा ।। ४० ।।

ब्राह्मणो! जैसे मेरे प्रसादसे उत्पन्न ब्रह्मा प्रमाणभूत हैं एवं जैसे क्रोधसे उत्पन्न रुद्र, तुम सब प्रजापति, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, भूमि, जल, अग्नि, सम्पूर्ण नक्षत्रणण तथा अन्यान्य भूतनामधारी पदार्थ और ब्रह्मवादी ऋषिगण अपने-अपने अधिकारके अनुसार बर्ताव करते हुए प्रमाणभूत माने जाते हैं, उसी प्रकार तुमलोगोंका बनाया हुआ यह उत्तम शास्त्र भी प्रामाणिक माना जायगा, यह मेरी आज्ञा है || ४१-४३ $ ।।

'स्वायम्भुव मनु स्वयं इसी ग्रन्थके अनुसार धर्मोका उपदेश करेंगे। शुक्राचार्य और बृहस्पति जब प्रकट होंगे तब वे भी तुम्हारी बुद्धिसे निकले हुए इस शास्त्रका प्रवचन करेंगे || ४४-४५ ।।

द्विजश्रेष्ठगण! स्वायम्भुव मनुके धर्मशास्त्र, शुक्राचार्यके शास्त्र तथा बृहस्पतिके मतका जब लोकमें प्रचार हो जायगा, तब प्रजापालक वसु (राजा उपरिचर) बृहस्पतिजीसे तुम्हारे बनाये हुए इस शास्त्रका अध्ययन करेगा ।। ४६-४७ ।।

सत्पुरुषोंद्वारा सम्मानित वह राजा मेरा बड़ा भक्त होगा और लोकमें उसी शास्त्रके अनुसार सम्पूर्ण कार्य करेगा || ४८ ।।

“तुम्हारा बनाया हुआ यह शास्त्र सब शास्त्रोंसे श्रेष्ठ माना जायगा। यह धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं उत्तम रहस्यमय ग्रन्थ है || ४९ ।।

इसके प्रचारसे तुम सब लोग संतानवान्‌ होओगे; अर्थात्‌ तुम्हारी प्रजाकी वृद्धि होगी तथा राजा उपरिचर भी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न एवं महान्‌ पुरुष होगा ।। ५० ।।

“उस राजाके दिवंगत होनेके बाद यह सनातन शास्त्र सर्वसाधारणकी दृष्टिसे लुप्त हो जायगा। इसके सम्बन्धमें सारी बातें मैंने तुमलोगोंको बता दीं” || ५१ ।।

अदृश्यभावसे ऐसी बात कहकर भगवान्‌ पुरुषोत्तम उन समस्त ऋषियोंको वहीं छोड़कर किसी अज्ञात दिशाकी ओर चल दिये |। ५२ ।।

तत्पश्चात्‌ सम्पूर्ण लोकोंका हितचिन्तन करनेवाले उन लोकपिता प्रजापतियोंने धर्मके मूलभूत उस सनातन शास्त्रका जगतमें प्रचार किया ।। ५३ ।।

फिर आदिकल्पके प्रारम्भिक युगमें जब बृहस्पतिका प्रादुर्भाव हुआ, तब उन्होंने साड़ोपाड़ वेद और उपनिषदों-सहित वह शास्त्र उनको पढ़ाया। तदनन्तर सब धर्मोंका प्रचार और समस्त लोकोंको धर्ममर्यादाके भीतर स्थापित करनेवाले वे ऋषिगण तपस्याका निश्चय करके अपने अभीष्ट स्थानको चले गये ।। ५४-५५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें नाययणका महत्त्वविषयक तीन सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ५६ श्लोक हैं)

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