सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा जनकके द्वारा शुकदेवजीका पूजन तथा उनके प्रश्षका समाधान करते हुए ब्रह्मचर्याश्रममें परमात्माकी प्राप्ति होनेके बाद अन्य तीनों आश्रमोंकी अनावश्यकताका प्रतिपादन करना तथा मुक्त पुरुषके लक्षणोंका वर्णन”
भीष्मजी कहते हैं--भारत! तदनन्तर मन्त्रियोंसहित राजा जनक अन्तःपुरकी सम्पूर्ण स्त्रियों और पुरोहितको आगे करके आसन तथा नाना प्रकारके रत्नोंकी भेंट लिये मस्तकपर अर्घ्यपात्र रखकर गुरुपुत्र शुकदेवजीके पास आये ।। १-२ ।।
उस समय जिसे पुरोहितने ले रखा था, वह सर्वतोभद्र नामक बहुरत्नजटित आसन, जिसपर मूल्यवान् बिछौने बिछे हुए थे, उनके हाथसे अपने हाथमें लेकर राजा जनकने गुरुपुत्र शुकदेवको समर्पित किया। वह आसन समृद्धिसे सम्पन्न था ।। ३-४ ।।
व्यासपुत्र शुकदेव जब उस आसनपर विराजमान हुए, तब राजा जनकने शास्त्रके अनुसार उनका पूजन आरम्भ किया। पहले पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके राजाने उन्हें एक गौ प्रदान की ।। ५ ।।
द्विजश्रेष्ठ शुकदेवजीने राजा जनककी ओरसे प्राप्त हुई वह मन्त्रयुक्त सविधि पूजा स्वीकार की। पूजा ग्रहण करनेके पश्चात् गोदान स्वीकार करके राजाको आदर देते हुए महातेजस्वी शुकने उनका सदा बना रहनेवाला कुशल-समाचार पूछा ।। ६-७ ||
राजेन्द्र! सेवकोंसहित राजाके आरोग्यका समाचार भी उन्होंने पूछा। फिर उनकी आज्ञा ले राजा अपने अनुचरवर्गके साथ वहाँ हाथ जोड़े हुए भूमिपर ही बैठ गये। राजाका हृदय तो उदार था ही, उनका कुल भी परम उदार था। उन पृथ्वीपति नरेशने व्यासनन्दन शुकसे उनके कुशल-मंगलकी जिज्ञासा करके पूछा--'ब्रह्मम! किस निमित्तसे यहाँ आपका शुभागमन हुआ है?” || ८-९ |।
शुकदेवजीने कहा--राजन्! आपका कल्याण हो। मेरे पिताजीने मुझसे कहा है कि मेरे यजमान लोकप्रसिद्ध विदेहगाज जनक मोक्षधर्मके विशेषज्ञ हैं। यदि प्रवृत्ति या निवृत्तिधर्मके विषयमें तुम्हारे हृदयमें कोई संदेह हो तो तुरंत ही उनके पास चले जाओ। वे तुम्हारी सारी शंकाओंका समाधान कर देंगे |। १०-११ ।।
धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश! पिताकी इस आज्ञासे ही मैं यहाँ आपके पास कुछ पूछनेके लिये आया हूँ। आप मेरे प्रश्नोंका यथावत् उत्तर दें ।। १२ ।।
ब्राह्मणका कर्तव्य कया है? मोक्ष नामक पुरुषार्थका क्या स्वरूप है? उस मोक्षको ज्ञानसे अथवा तपस्यासे किस साधनसे प्राप्त किया जा सकता है? ।। १३ ।।
जनकने कहा--तात! ब्राह्णको जन्मसे लेकर जो-जो कर्म करने चाहिये, उनको सुनिये--यज्ञोपवीत संस्कार हो जानेके बाद ब्राह्मण-बालकको वेदाध्ययनमें तत्पर होना चाहिये ।। १४ ।।
प्रभो! तपस्या, गुरुकी सेवा तथा ब्रह्मचर्यका पालन--इन तीन कर्मोके साथ-साथ वेदाध्ययनका कार्य सम्पन्न करना चाहिये। हवनकर्मद्वारा देवताओंके और तर्पणद्वारा वह पितरोंके ऋणसे मुक्त होनेका यत्न करे। किसीके दोष न देखे और संयमपूर्वक रहकर वेदाध्ययन समाप्त करनेके पश्चात् गुरुको दक्षिणा दे और उनकी आज्ञा लेकर समावर्तनसंस्कारके पश्चात् घरको लौटे ।।
घर आनेपर विवाह करके गार्हस्थ्य धर्मका पालन करे और अपनी ही स्त्रीके प्रति अनुराग रखे। दूसरोंके दोष न देखकर सबके साथ यथोचित बर्ताव करे और अग्निकी स्थापनाके पश्चात् प्रतिदिन अग्निहोत्र करता रहे || १७ ।।
वहाँ पुत्र-पौत्र उत्पन्न करके पुत्रको गार्हस्थ्य धर्मका भार सौंपकर वनमें जा वानप्रस्थआश्रममें रहे। उस समय भी शास्त्रविधिके अनुसार उन्हीं गार्हपत्य आदि अग्नियोंकी आराधना करते हुए अतिथियोंका प्रेमपूर्वक सत्कार करे || १८ ।।
इसके बाद धर्मज्ञ पुरुष शास्त्रीय विधिके अनुसार अग्निहोत्रकी अग्नियोंका आत्मामें आरोप करके निर्दध्ध एवं वीतराग होकर ब्रह्मचिन्तनसे सम्बन्ध रखनेवाले संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे ।। १९ ।।
शुकदेवजीने पूछा--राजन्! यदि किसीके हृदयमें ब्रह्मचर्य-आश्रममें ही सनातन ज्ञान-विज्ञान प्रकट हो जाय और हृदयके राग-द्वेष आदि द्वन्द्ध दूर हो जायँ तो भी क्या उसके लिये शेष तीन आश्रमोंमें रहना आवश्यक है? ।। २० ।।
नरेश्वर! मैं यही बात आपसे पूछता हूँ। आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें। वेदके वास्तविक सिद्धान्तके अनुसार क्या करना उचित है? यह आप मुझे बताइये ।। २१ ।।
जनकने कहा--ब्रह्मन! जैसे ज्ञान-विज्ञानके बिना मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती, उसी प्रकार सदगुरुसे सम्बन्ध हुए बिना ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।। २२ ।।
गुरु इस संसारसागरसे पार उतारनेवाले हैं और उनका दिया हुआ ज्ञान यहाँ नौकाके समान बताया जाता है। मनुष्य उस ज्ञानको पाकर भवसागरसे पार और कृतकृत्य हो जाता है। जैसे नदीको पार कर लेनेपर मनुष्य नाव और नाविक दोनोंको छोड़ देता है, उसी प्रकार मुक्त हुआ पुरुष गुरु और ज्ञान दोनोंको छोड़ दे || २३ ।।
पहलेके विद्वान् लोकमर्यादाकी तथा कर्मपरम्पराकी रक्षा करनेके लिये चारों आश्रमोंसहित वर्णधर्मोका पालन करते थे ।। २४ ।।
इस तरह क्रमशः नाना प्रकारके कर्मोका अनुष्ठान करते हुए शुभाशुभ कर्मोकी आसक्तिका परित्याग करनेसे यहाँ मोक्षकी प्राप्ति होती है ।। २५ ।।
अनेक जन्मोंसे कर्म करते-करते जब सम्पूर्ण इन्द्रियाँ पवित्र हो जाती हैं, तब शुद्ध अन्तःकरणवाला मनुष्य पहले ही आश्रममें अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रममें मोक्षरूप ज्ञान प्राप्त कर सकता है ॥| २६ ।।
उसे पाकर जब ब्रह्मचर्य-आश्रममें ही तत्त्वका साक्षात्कार हो जाय तो परमात्माको चाहनेवाले जीवन्मुक्त विद्वानके लिये शेष तीन आश्रमोंमें जानेकी क्या आवश्यकता है? अर्थात् कोई आवश्यकता नहीं है || २७ ।।
विद्वानुको चाहिये कि वह राजस और तामस दोषोंका सदा ही परित्याग कर दे और सात््विक मार्गका आश्रय लेकर बुद्धिके द्वारा आत्माका साक्षात्कार करे ।।
जो सम्पूर्ण भूतोंमें आत्माको और आत्मामें सम्पूर्ण भूतोंको देखता है, वह संसारमें उसी तरह कहीं भी आसक्त नहीं होता जैसे जलचर पक्षी जलमें रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता ।। २९ ||
वह तो घोंसलेको छोड़कर उड़ जानेवाले पक्षीकी भाँति इस देहसे पृथक हो निर्द्धन्द्व एवं शान्त होकर परलोकमें अक्षयपद (मोक्ष)-को प्राप्त हो जाता है || ३० ।।
तात! इस विषयमें पूर्वकालमें राजा ययातिके द्वारा गायी हुई गाथाएँ सुनिये, जिन्हें मोक्षशास्त्रके ज्ञाता द्विज सदा याद रखते हैं ।। ३१ ।।
अपने भीतर ही आत्मज्योतिका प्रकाश है, अन्यत्र नहीं। वह ज्योति सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर समानरूपसे स्थित है। अपने चित्तको भलीभाँति एकाग्र करनेवाला उसको स्वयं देख सकता है ।। ३२ ।।
जिससे दूसरा कोई प्राणी नहीं डरता, जो स्वयं दूसरे किसी प्राणीसे भयभीत नहीं होता तथा जो न तो किसी वस्तुकी इच्छा करता है और न किसीसे द्वेष ही रखता है, वह तत्काल ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। ३३ ||
जब मनुष्य मन, वाणी तथा क्रियाके द्वारा किसी भी प्राणीके प्रति पापभाव नहीं करता अर्थात् समस्त प्राणियोंमें द्वेषरहित हो जाता है, उस समय वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। ३४ ||
जब मोहमें डालनेवाली ईर्ष्या, काम एवं मोहका त्याग करके साधक अपने मनको आत्मामें लगा देता है, उस समय वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है ।। ३५ ।।
जब यह साधक सुनने और देखने योग्य पदार्थोमें तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान भाववाला हो जाता है एवं सुख-दुःख आदि द्वल्धोंसे रहित हो जाता है, उस समय वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। ३६ ।।
जिस समय मनुष्य निनन्दा और स्तुतिको समान भावसे समझता है, सोना-लोहा, सुखदुःख, सर्दी-गर्मी, अर्थ-अनर्थ, प्रिय-अप्रिय तथा जीवन-मरणमें भी उसकी समान दृष्टि हो जाती है, उस समय वह साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। ३७-३८ ।।
जैसे कछुआ अपने अंगोंको फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार संन्यासीको मनके द्वारा इन्द्रियोंपर नियन्त्रण रखना चाहिये ।। ३९ |।
जैसे अन्धकारसे आच्छादित हुआ घर दीपकके प्रकाशसे देखा जाता है, उसी प्रकार अज्ञानान्धकारसे आवृत हुए आत्माका विशुद्ध बुद्धिरूपी दीपकके द्वारा साक्षात्कार किया जा सकता है ।। ४० ।।
बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ शुकदेवजी! उपर्युक्त सारी बातें मुझे आपके भीतर दिखायी देती हैं। इनके अतिरिक्त भी जो कुछ जानने योग्य तत्त्व है, उसे आप ठीक-ठीक जानते हैं ।। ४१
ब्रह्मर्ष! मैं आपको अच्छी तरह जान गया। आप अपने पिताजीकी कृपा और उन्हींसे मिली हुई शिक्षाद्वारा विषयोंसे परे हो चुके हैं || ४२ ।।
महामुने! उन्हीं गुरुदेवकी कृपासे मुझे भी यह दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है, जिससे मैं आपकी स्थितिको ठीक-ठीक समझ गया हूँ ।। ४३ ।।
आपका विज्ञान, आपकी गति और आपका एऐश्वर्य--ये सभी अधिक हैं; परंतु आपको इस बातका पता नहीं है ।। ४४ ।।
बालस्वभावके कारण, संशयसे अथवा मोक्ष न मिलनेके काल्पनिक भयसे मनुष्यको विज्ञान प्राप्त हो जानेपर भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती | ४५ ।।
मेरे-जैसे लोगों द्वारा जिसका संशय नष्ट हो गया है, वह साधक विशुद्ध निश्चयके द्वारा हृदयकी गाँठे खोलकर उस परमगतिको प्राप्त कर लेता है || ४६ ।।
ब्रह्म! आपको ज्ञान प्राप्त हो चुका है। आपकी बुद्धि भी स्थिर है तथा आपमें विषयलोलुपताका भी सर्वथा अभाव हो गया है, परंतु विशुद्ध निश्चयके बिना कोई परमात्मभावको नहीं प्राप्त होता है ।। ४७ ।।
आप सुख-दुःखमें कोई अन्तर नहीं समझते। आपके मनमें लोभ नहीं है। आपको न तो नाच देखनेकी उत्कण्ठा होती है और न गीत सुननेकी। किसी विषयके प्रति आपके मनमें रण नहीं उत्पन्न होता है || ४८ ।।
महाभाग! न तो भाई-बन्धुओंमें आपकी आसक्ति है, न भयदायक पदार्थोंसे आपको भय ही होता है। मैं देखता हूँ, आपके लिये मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्ण एक-से हैं ।। ४९ ||
मैं तथा दूसरे मनीषी पुरुष भी आपको अक्षय एवं अनामय परम मार्ग (मोक्ष) में स्थित मानते हैं || ५० ।।
ब्रह्म! इस जगत्में ब्राह्मण होनेका जो फल है और मोक्षका जो स्वरूप है, उसीमें आपकी स्थिति है। अब और क्या पूछना चाहते हैं? || ५१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकोत्पत्तिविषयक तीन सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ सत्ताईसवें अध्याय के श्लोक 1-52 का हिन्दी अनुवाद)
“शुकदेवजीका पिताके पास लौट आना तथा व्यासजीका अपने शिष्योंको स्वाध्यायकी विधि बताना”
भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठि!र राजा जनककी यह बात सुनकर विशुद्ध अन्तःकरणवाले शुकदेवजी एक दृढ़ निश्चयपर पहुँच गये और बुद्धिके द्वारा आत्मामें स्थित होकर स्वयं अपने आत्मस्वरूपका साक्षात्कार करके कृतार्थ हो गये। एवं आनन्दमग्न हो, बड़ी शान्तिका अनुभव करते हुए हिमालयपर्वतको लक्ष्य करके वायुके समान वेगसे चुपचाप उत्तर दिशाकी ओर चल दिये ।। १-२ ।।
इसी समय देवर्षि नारद सिद्धों और चारणोंसे सेवित हिमालय पर्वतपर उसका दर्शन करनेके लिये आये ।। ३ ।।
उस पर्वतपर सब ओर अप्सराएँ विचर रही थीं। चारों ओर विविध प्राणियोंकी शान्तिमयी ध्वनिसे वहाँका सारा प्रान्त व्याप्त हो रहा था। सहस्रों किन्नर, भ्रमर, मदगु, विचित्र खंजरीट, चकोर, सैकड़ों मधुर वाणीसे सुशोभित विचित्र वर्णवाले मयूर, राजहंसोंके समुदाय तथा काले कोकिल वहाँ अपनी शान्त मधुर ध्वनि फैला रहे थे ।। ४-६ ।।
पक्षिराज गरुड उस पर्वतपर नित्य विराजमान होते हैं। चारों लोकपाल, देवता तथा ऋषिगण सम्पूर्ण जगत॒के हितकी कामनासे वहाँ सदा आते रहते हैं ।। ७६ ।।
वहीं महात्मा श्रीविष्णु (श्रीकृष्ण) ने पुत्रके लिये तप किया था। वहीं कुमार कार्तिकेयने बाल्यावस्थामें देवताओंपर आक्षेप किया था और त्रिलोकीका अपमान करके पृथ्वीमें अपनी शक्ति गाड़ दी थी ।। ८-९ |।
उस समय वहाँ स्कन्दने सम्पूर्ण जगतपर आक्षेप करते हुए यह बात कही थी-“जो कोई भी दूसरा पुरुष मुझसे अधिक बलवान हो, जिसे ब्राह्मण अधिक प्रिय हों, जो दूसरा व्यक्ति मुझसे भी अधिक ब्राह्मणभक्त तथा तीनों लोकोंमें पराक्रमशाली हो, वह इस शक्तिको उखाड़ दे अथवा हिला दे” ॥। १०-११ ।।
उनकी यह तिरस्कारपूर्ण घोषणा सुनकर सब लोग व्यथित हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे, “भला, कौन वीर इस शक्तिको उखाड़ सकता है?” उस समय भगवान् विष्णुने देखा कि सम्पूर्ण देवताओंकी इन्ट्रियाँ और चित्त भयसे व्याकुल हैं तथा असुर और राक्षसोंसहित सम्पूर्ण जगतपर स्कन्दद्वारा आक्षेप किया गया है। यह देखकर वे सोचने लगे कि यहाँ क्या करना अच्छा होगा? ।। १२-१३ ।।
तब उस आक्षेपको सहन न करके विशुद्धात्मा भगवान् विष्णुने अग्निकुमार स्कन्दकी ओर देखा। फिर उन पुरुषोत्तमने उस समय उस प्रज्वलित शक्तिको बायें हाथसे पकड़कर हिला दिया ।। १४६ ||
बलवान् भगवान् विष्णुके द्वारा उस शक्तिके कम्पित किये जानेपर पर्वत, वन और काननोंसहित सारी पृथ्वी काँप उठी ।। १५३ ।।
यद्यपि प्रभावशाली भगवान् विष्णु उसे उखाड़ फेंकनेमें समर्थ थे तो भी उन्होंने कुमार स्कन्दका तिरस्कार नहीं होने दिया। उन्हें अपमानसे बचा लिया ।। १६६ ।।
उस शक्तिको हिलाकर भगवानने प्रह्नादसे कहा--'देखो, कुमारमें कितना बल है? यह कार्य दूसरा कोई नहीं कर सकेगा” ।। १७३ ।।
भगवानके इस कथनको सहन न कर सकनेके कारण प्रह्नादने स्वयं ही उस शक्तिको उखाड़ फेंकनेका दृढ़ निश्चय कर लिया और उस शक्तिको पकड़कर खींचा; परंतु वे उसे हिला भी न सके ।। १८६ |।
हिरण्यकशिपुकुमार प्रह्नाद बड़े जोरसे चिग्घाड़कर मूर्च्छिंत एवं व्याकुल हो उस पर्वतशिखरकी भूमिपर गिर पड़े || १९३ ।।
तात! उसी गिरिराज हिमालयके पार्श्नभागमें उत्तर दिशाकी ओर जाकर भगवान् वृषध्वज शिवने नित्य-निरन्तर दुर्धर्ष तपस्या की है || २० ३ ।।
भगवान् शंकरके उस आश्रमको प्रज्वलित अग्निने चारों ओरसे घेर रक्खा है। उस पर्ववशिखरका नाम आदित्यगिरि है, जिसपर अजितात्मा पुरुष नहीं चढ़ सकते। यक्ष, राक्षस और दानवोंके लिये वहाँ पहुँचना सर्वधा असम्भव है ।। २१-२२ ।।
वह दस योजन विस्तृत शिखर आगकी लपटोंसे घिरा हुआ है। शक्तिशाली भगवान् अग्निदेव वहाँ स्वयं विराजमान हैं || २३ ।।
परम बुद्धिमान् महादेवजी सहस्र दिव्य वर्षोतक वहाँ एक पैरसे खड़े रहे और उनकी तपस्याके सम्पूर्ण विघ्नोंका निवारण करते हुए अग्निदेव वहीं विराजमान थे। महान् व्रतधारी महादेवजी वहाँ देवताओंको संतप्त करते हुए महान् तपमें प्रवृत्त थे | २४३ ।।
उसी बुद्धिमान् गिरिराज हिमवानकी पूर्व दिशाका आश्रय लेकर पर्वतके एकान्त तटप्रान्तमें महातपस्वी महाबुद्धिमान् पराशरनन्दन व्यास अपने शिष्य महाभाग सुमन्तु, महाबुद्धिमान् जैमिनि, तपस्वी पैल तथा वैशम्पायन-इन चार शिष्योंको वेद पढ़ा रहे थे ।। २५-२७ ।।
जहाँ महातपस्वी व्यास अपने शिष्योंसे घिरे हुए बैठे थे, वहाँ शुकदेवजीने अपने पिताके उस रमणीय एवं उत्तम आश्रमको देखा ।। २८ ।।
उस समय विशुद्ध अन्तः:करणवाले अरणीनन्दन शुकदेव आकाशगमें स्थित सूर्यके समान प्रकाशित हो रहे थे, इतनेहीमें व्यासजीने भी प्रज्वलित अग्नि तथा सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रको सब ओर अपनी प्रभा बिखेरते हुए आते देखा || २९३ ।।
योगयुक्त महात्मा शुकदेव धनुषकी डोरीसे छूटे हुए बाणके समान तीव्र गतिसे आ रहे थे। वे वृक्षों और पर्वतोंमें कहीं भी अटक नहीं पाते थे || ३० ।।
निकट आकर अरणीपुत्र महामुनि शुकदेवने पिताके दोनों पैर पकड़ लिये और शान्तभावसे उनके अन्य सब शिष्योंके साथ भी मिले || ३१ ।।
तदनन्तर प्रसन्नचित्त हुए शुकने राजा जनकके साथ जो वार्तालाप हुआ था, वह साराका-सारा वृत्तान्त अपने पितासे कह सुनाया ।। ३२ ।।
इस प्रकार शक्तिशाली महामुनि पराशरनन्दन व्यास अपने शिष्यों और पुत्रको पढ़ाते हुए हिमालयके शिखरपर ही रहने लगे ।। ३३ ।।
तदनन्तर किसी समय वेदाध्ययनसे सम्पन्न, शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, सांगवेदमें पारंगत और तपस्वी शिष्यगण गुरुवर व्यासजीको चारों ओरसे घेरकर बैठ गये और उनसे हाथ जोड़कर इस प्रकार बोले ।। ३४-३५ ।।
शिष्योंने कहा--गुरुदेव! हम आपकी कृपासे महान् तेजस्वी हो गये हैं। हमारा यश भी चारों ओर बढ़ गया है। अब इस समय हम यह चाहते हैं कि आप एक बार और हमलोगोंपर अनुग्रह करें || ३६ ।।
शिष्योंकी यह बात सुनकर ब्रह्मर्षि व्यासने उनसे कहा--“बच्चो! कहो, क्या चाहते हो? मुझे तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करना है?” ।। ३७ ।।
गुरुदेवका यह वचन सुनकर उन शिष्योंका हृदय हर्षसे खिल उठा। राजन! वे पुनः हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर गुरुजीको प्रणाम करके एक साथ यह उत्तम वचन बोले--मुनिश्रेष्ठ ! आप हमारे उपाध्याय हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो हम धन्य हो गये ।। ३८-३९ ।।
“हम सब लोग यह चाहते हैं कि महर्षि एक वरदान दें, वह यह कि आपका कोई छठा शिष्य प्रसिद्ध न हो। यहाँ हमलोगोंपर इतनी ही कृपा कीजिये ।। ४० ।।
“हम चार आपके शिष्य हैं और पंचम शिष्य गुरुपुत्र शुकदेव हैं। इन पाँचोंमें ही आपके पढ़ाये हुए सम्पूर्ण वेद प्रतिष्ठित हों; यही हमारे लिये मनोवाजञ्छित वर है, || ४१ ।।
शिष्योंकी यह बात सुनकर वेदार्थके तत्त्वज्ञ, पारलौकिक अर्थका चिन्तन करनेवाले, धर्मात्मा, पराशरनन्दन बुद्धिमान् व्यासजीने अपने समस्त शिष्योंसे यह धर्मानुकूल कल्याणकारी वचन कहा-- || ४२३ ||
शिष्यगण! जो ब्रह्मलोकमें अटल निवास चाहता हो, उसका कर्तव्य है कि वह पढ़नेकी इच्छासे आये हुए ब्राह्मणको सदा ही वेद पढ़ावे | ४३ $ ।।
“तुमलोग बहुसंख्यक हो जाओ और इस वेदका विस्तार करो। जिसका मन वशमें न हो, जो ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन न करता हो तथा जो शिष्यभावसे पढ़ने न आया हो, उसे वेदाध्ययन नहीं कराना चाहये || ४४ $ ।।
'ये सभी शिष्यके गुण हैं। किसीको शिष्य बनानेसे पहले उसके इन गुणोंको यथार्थरूपसे परख लेना चाहिये। जिसके सदाचारकी परीक्षा न ली गयी हो, उसे किसी प्रकार विद्यादान नहीं देना चाहिये || ४५३ ।।
“जैसे आगमें तपाने, काटने और कसौटीपर कसनेसे शुद्ध सोनेकी परख की जाती है, उसी प्रकार कुल और गुण आदिके द्वारा शिष्योंकी परीक्षा करनी चाहिये ।।
“तुमलोग अपने शिष्योंको किसी अनुचित या महान् भयदायक कार्यमें न लगाना। तुम्हारे पढ़ानेपर भी जिसकी जैसी बुद्धि होगी और जो पढ़नेमें जैसा परिश्रम करेगा, उसीके अनुसार उसकी विद्या सफल होगी। सब लोग दुर्गम संकटसे पार हों और सभी अपना कल्याण देखें ।। ४७-४८ ।।
'ब्राह्णफो आगे रखकर चारों वर्णोको उपदेश देना चाहिये। यह वेदाध्ययन महान् कार्य माना गया है। इसे अवश्य करना चाहिये ।। ४९ ।।
स्वयम्भू ब्रह्माने यहाँ देवताओंकी स्तुतिके लिये वेदोंकी सृष्टि की है। जो मोहवश वेदके पारंगत ब्राह्मणकी निन्दा करता है, वह उसके अनिष्ट-चिन्तनके कारण निस्संदेह पराभवको प्राप्त होता है ।। ५० ३ ।।
“जो धार्मिक विधिका उल्लंघन करके प्रश्न करता है और जो अधर्मपूर्वक उसका उत्तर देता है, उन दोनोंमेंसे एककी मृत्यु हो जाती है अथवा एक दूसरेके द्वेषका पात्र बन जाता है ।। ५१३६ ||
“यह सब मैंने तुमलोगोंसे स्वाध्यायकी विधि बतायी है। यह तुम्हारे हृदयमें सदा स्मरण रहे; क्योंकि यह शिष्योंका उपकार कर सकती है” ।। ५२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तीन सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ अट्ठाईसवें अध्याय के श्लोक 1-57 का हिन्दी अनुवाद)
“शिष्योंके जानेके बाद व्यासजीके पास नारदजीका आगमन और व्यासजीको वेदपाठके लिये प्रेरित करना तथा व्यासजीका शुकदेवको अनध्यायका कारण बताते हुए “प्रवह” आदि सात वायुओंका परिचय देना”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! अपने गुरु व्यासके इस उपदेशको सुनकर उनके महातेजस्वी शिष्य मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और आपसमें एक-दूसरेको हृदयसे लगाने लगे ।। १ ।।
फिर व्यासजीसे बोले--“भगवन्! आपने भविष्यमें हमारे हितका विचार करके जो बातें बतायी हैं, वे हमारे मनमें बैठ गयी हैं। हम अवश्य उनका पालन करेंगे” || २ ॥।
इस प्रकार परस्पर वार्तालाप करके गुरु और शिष्य सभी मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर प्रवचनकुशल शिष्योंने गुरुसे इस प्रकार निवेदन किया-- ।। ३ ।।
“महामुने! अब हम इस पर्वतसे पृथ्वीपर जाना चाहते हैं। वेदोंके अनेक विभाग करके उनका प्रचार करना ही हमारी इस यात्राका उद्देश्य है। प्रभो! यदि आपको यह रुचिकर जान पड़े तो हमें जानेकी आज्ञा दें” || ४ ।।
शिष्योंकी यह बात सुनकर पराशरनन्दन भगवान् व्यास यह धर्म और अर्थयुक्त हितकर वचन बोले ।। ५ ।।
शिष्यो! यदि तुम्हें यही अच्छा लगता है तो तुम पृथ्वीपर या देवलोकमें जहाँ चाहो जा सकते हो; परंतु प्रमाद न करना; क्योंकि वेदमें बहुत सी प्ररोचनात्मक श्रुतियाँ हैं, जो व्याजसे (फलोंका लोभ दिखाकर) धर्मका प्रतिपादन करती हैं? ।। ६ ।।
सत्यवादी गुरुकी यह आज्ञा पाकर सभी शिष्योंने उनके चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे व्यासजीकी प्रदक्षिणा करके वहाँसे चले गये” || ७ ।।
पृथ्वीपर उतरकर उन्होंने चातुहोंत्र कर्म (अग्निहोत्रसे लेकर सोमयागतक) का प्रचार किया और गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्योंके यज्ञ कराते हुए वे द्विजातियोंसे पूजित हो बड़े आनन्दसे रहने लगे। यज्ञ कराने और वेदोंकी शिक्षा देनेमें ही वे तत्पर रहते थे। इन्हीं कर्मोके कारण वे श्रीसम्पन्न और लोक-विख्यात हो गये थे ।। ८-९ ।।
शिष्योंके पर्वतसे नीचे उतर जानेपर व्यासजीके साथ उनके पुत्र शुकदेवके सिवा और कोई नहीं रह गया। वे बुद्धिमान् व्यासजी एकान्तमें ध्यानमग्न होकर चुपचाप बैठे थे ।। १० ।।
उसी समय महातपस्वी नारदजी उस आश्रमपर पधारकर व्यासजीसे मिले और मधुर अक्षरोंसे युक्त मीठी वाणीमें उनसे इस प्रकार बोले-- ।। ११ ।।
हे ब्रह्मर्षिवासिषप्ठी] आज आपके इस आश्रममें वेदमन्त्रोंकी ध्वनि क्यों नहीं हो रही है? आप अकेले ध्यानमग्न होकर चुपचाप क्यों बैठे हैं? जान पड़ता है, आप किसी चिन्तामें मग्न हैं ।। १२ ।।
“वेदध्वनि न होनेके कारण इस पर्वतकी पहले-जैसी शोभा नहीं रही। रज और तमसे आच्छन्न हो यह राहुग्रस्त चन्द्रमाके समान जान पड़ता है। देवर्षियोंसे सेवित होनेपर भी यह शैलशिखर ब्रह्मघोषके बिना भीलोंके घरकी तरह श्रीहीन प्रतीत होता है ।। १३-१४ ।।
“यहाँके ऋषि, देवता और महाबली गन्धर्व भी ब्रह्मघोषसे विमुक्त हो अब पहलेकी भाँति शोभा नहीं पा रहे हैं! || १५ ।।
नारदजीकी बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासने कहा--'वेदविद्याके विद्वान् सहर्षे! आपने जो कुछ कहा है, यह मेरे मनके अनुकूल ही है। आप ही ऐसी बात कह सकते हैं। आप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और सर्वत्रकी बातें जाननेके लिये उत्कण्ठित रहनेवाले हैं || १६-१७ ।।
“तीनों लोकोंमें जो बात होती है या हो चुकी है, वह सब आपकी जानकारीमें है। ब्रह्मर्ष! बताइये, आज्ञा दीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? || १८ ॥।
“ब्रह्मर्षि नारद! इस समय मेरा जो कर्तव्य है, उसे भी बताइये। अपने प्यारे शिष्योंसे बिछुड़ जानेके कारण इस समय मेरा यह मन विशेष प्रसन्न नहीं है” || १९ ।।
नारदजीने कहा--व्यासजी! वेद पढ़कर उसका अभ्यास ([पुनरावृत्ति) न करना वेदाध्ययनका दूषण है। व्रतका पालन न करना ब्राह्मणका दूषण है। वाहीक देशके लोग पृथ्वीके दूषण हैं और नये-नये खेल-तमाशा देखनेकी लालसा स्त्रीके लिये दोषकी बात है ।।
आप अपने वेदोच्चारणकी ध्वनिसे राक्षसअभयजनित अन्धकारका नाश करते हुए बुद्धिमान् पुत्र शुकदेवजीके साथ वेदोंका स्वाध्याय करते रहें ।। २१ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! नारदजीकी बात सुनकर परम धर्मज्ञ व्यासजीने “बहुत अच्छा” कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और हर्षमें भरकर वे वेदाभ्यासरूपी व्रतका दृढ़तापूर्वक पालन करने लगे ।।
उन्होंने अपने पुत्र शुकदेवके साथ शिक्षाके नियमानुसार उच्चस्वरसे तीनों लोकोंको परिपूर्ण करते हुए-से वेदोंकी आवृत्ति आरम्भ कर दी ।। २३ ।।
नाना प्रकारके धर्मोका प्रतिपादन करनेवाले वे पिता-पुत्र उक्त रूपसे वेदोंका अभ्यास कर ही रहे थे कि समुद्री हवासे प्रेरित होकर बड़े जोरकी आँधी चलने लगी ।। २४ ।।
तब अनध्याय-काल बताकर व्यासजीने अपने पुत्रको वेद पढ़नेसे उस समय रोक दिया। उनके मना करनेपर शुकदेवजीके मनमें इसका कारण जाननेके लिये प्रबल उत्कण्ठा हुई || २५ ||
उन्होंने अपने पितासे पूछा--'ब्रह्मन! इस वायुकी उत्पत्ति किससे हुई है? आप वायुकी सारी चेष्टाओंका विस्तारपूर्वक वर्णन करें” || २६ ।।
शुकदेवजीका यह वचन सुनकर व्यासजी अत्यन्त आश्चर्यसे चकित हो उठे और अनध्यायके कारणपर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार बोले--- ।। २७ ।।
“बेटा! तुम्हें स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है। तुम्हारा हृदय अत्यन्त निर्मल है। तुम रजोगुण और तमोगुणसे रहित होकर सत्त्वगुणमें प्रतिष्ठित हो || २८ ।।
“जैसे लोग दर्पणमें अपना प्रतिबिम्ब देखते हैं, उसी प्रकार तुम बुद्धिके द्वारा आत्माका साक्षात्कार करते हो; अतः स्वयं ही वेदोंको अपने भीतर स्थापित करके बुद्धिद्वारा अनध्यायके कारणभूत वायुके विषयमें विचार करो || २९ ।।
“मरकर ऊपरके लोकोंमें जानेवाले और नीचेके लोकोंमें जानेवाले मनुष्योंके लिये दो मार्ग हैं, एक तो देवयान जो कि विष्णुलोकका मार्ग है, अतः सात््विक है, दूसरा पितृयान जो कि तामस है ।। ३० ।।
पृथ्वीपर या आकाशमें जहाँ भी हवा चलती है, उसके बहनेके लिये सात मार्ग हैं। तुम क्रमश: उनका वर्णन सुनो ।। ३१ ।।
“पृथ्वी और आकाशमें जो महाबली और महान् भूत-स्वरूप साध्य नामक देवगण अदृश्यभावसे रहते हैं, उनके दुर्जय पुत्रका नाम है समान ।। ३२ ।।
“समानका पुत्र है उदान, उदानका पुत्र है व्यान, उसके पुत्रका नाम अपान जानना चाहिये और अपानसे प्राणकी उत्पत्ति हुई है || ३३ ।।
'प्राणके कोई संतान नहीं हुई। वह शत्रुओंको संताप देनेवाला और दुर्जय है। उन सबके कर्म पृथक्-पृथक् हैं, जिनका मैं तुमसे यथावत््रूपसे वर्णन करता हूँ || ३४ ।।
वायुदेव प्राणियोंकी पृथक्ू-पृथक् समस्त चेष्टाओंका सम्पादन करते हैं तथा सम्पूर्ण भूतोंको अनुप्राणित (जीवित) रखते हैं, इसलिये “प्राण” कहलाते हैं |। ३५ ।।
“जो धूम तथा गर्मीसे उत्पन्न बादलों और ओलोंको इधरसे उधर ले जाता है, वह प्रथम मार्गमें प्रवाहित होनेवाला 'प्रवह” नामक प्रथम वायु है ।। ३६ ।।
“जो आकाशमें रसकी मात्राओं और बिजली आदिकी उत्पत्तिके लिये प्रकट होता है, वह महान् तेजसे सम्पन्न द्वितीय वायु “आवह' नामसे प्रसिद्ध है। वह बड़ी भारी आवाजके साथ बहता है ।। ३७ ।।
“जो सदा सोम, सूर्य आदि ग्रहोंका उदय एवं उद्भव करता है, मनीषी पुरुष शरीरके भीतर जिसे “उदान” कहते हैं, जो चारों समुद्रोंस जलको ऊपर उठाकर जीमूत नामक मेघोंमें स्थापित करता है तथा जीमूत नामक मेघोंको जलसे संयुक्त करके उन्हें पर्जन्यके हवाले कर देता है, वह महान् वायु 'उद्बह” कहलाता है, जो तृतीय मार्गपर चलनेके कारण तीसरा कहा गया है ।। ३८-४० ।।
“जिसके द्वारा इधर-उधर ले जाये गये अनेक प्रकारके महामेघ घटा बाँधकर जल बरसाना आरम्भ करते हैं, घटाके रूपमें घनीभूत होनेपर भी जिसकी प्रेरणासे सारे बादल फट जाते हैं, फिर वे वेणुनादके समान शब्द करनेके कारण “नद” कहलाते हैं तथा प्राणियोंकी रक्षाके लिये पुन: जलका संग्रह करके घनीभूत हो जाते हैं, जो वायु देवताओंके आकाशगभमार्गसे जानेवाले विमानोंको स्वयं ही वहन करता है, वह पर्वतोंका मान मर्दन करनेवाला चतुर्थ वायु 'संवह' नामसे प्रसिद्ध है | ४१--४३ ।।
“जो रुक्षभावसे वेगपूर्वक महान् शब्दके साथ बहकर बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ देता और उखाड़ फेंकता है तथा जिसके द्वारा संगठित हुए प्रलयकालीन मेघ “बलाहक' संज्ञा धारण करते हैं, जिस वायुका संचरण भयानक उत्पात लानेवाला होता है तथा जो आकाशसे अपने साथ मेघोंकी घटाएँ लिये चलता है, उस अत्यन्त वेगशाली पंचम वायुको “विवह' नाम दिया गया है || ४४-४५ ।।
“जिस वायुके आधारपर आकाशमें दिव्य जल ऊपर-ही-ऊपर प्रवाहित होते हैं, जो आकाशगंगाके पवित्र जलको धारण करके स्थित है और जिसके द्वारा दूरसे ही प्रतिहत होकर सहसीरों किरणोंके उत्पत्तिस्थान सूर्यदेव, जिनसे यह पृथ्वी प्रकाशित होती है, एक ही किरणसे युक्त जान पड़ते हैं तथा जिससे अमृतकी दिव्य निधि चन्द्रमाका भी पोषण होता है, वह विजयशीलोमें श्रेष्ठ छठा वायुतत्त्व 'परिवह' नामसे प्रसिद्ध है ।। ४६--४८ ।।
जो वायु अन्तकालमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्राणोंको शरीरसे निकालता है, जिसके इस प्राणनिष्कासनरूप मार्गका मृत्यु तथा वैवस्वत यम अनुगमनमात्र करते हैं, सदा अध्यात्मचिन्तनमें लगी हुई शान्त बुद्धिके द्वारा भलीभाँति अनुसंधान करनेवाले तथा ध्यानके अभ्यासमें ही सानन्द रत रहनेवाले पुरुषोंको जो अमृतत्व देनेमें समर्थ है, जिसमें स्थित होकर प्रजापति दक्षके दस हजार पुत्र सम्पूर्ण दिशाओंके अन्तमें पहुँच गये तथा जिससे स्पर्शित होकर विलीन हुआ प्राणी यहाँसे केवल जाता है वापस नहीं लौटता, उस सर्वश्रेष्ठ सप्तम वायुका नाम “परावह' है। उसका अतिक्रमण करना सभीके लिये सर्वथा कठिन है || ४९--५२ ।।
“इस प्रकार ये सात मरुद्गण दितिके अत्यन्त अदभुत पुत्र हैं। इनकी सर्वत्र गति है। ये निरन्तर बहते और सबको धारण करते हैं ।। ५३ ।।
'यह बड़े आश्वर्यकी बात है कि अत्यन्त वेगसे बहते हुए उस वायुके द्वारा यह पर्वतोंमें श्रेष्ठ हिमालय भी सहसा काँप उठा है || ५४ ।।
“तात! यह भगवान् विष्णुका नि:श्वास है। जब कभी सहसा वह नि:श्वास वेगसे निकल पड़ता है, उस समय यह सारा जगत् व्यथित हो उठता है | ५५ ।।
“इसलिये ब्रह्मवेत्ता पुरुष प्रचण्ड वायु (आँधी) चलनेपर वेदका पाठ नहीं करते हैं। वेद भी भगवानका नि:श्वास ही है। उस समय वेदपाठ करनेपर वायुको वायुसे भय प्राप्त होता है और उस वेदको भी पीड़ा होती है” ॥। ५६ ।।
अनध्यायके विषयमें यह बात कहकर पराशरनन्दन भगवान् व्यास अपने पुत्र शुकदेवसे बोले--“अब तुम वेदपाठ करो।” यों कहकर वे आकाशगंगाके तटपर चल गये ।। ५७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें अनध्यायके कारणका कथन नामक तीन सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ उनत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ उनत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“शुकदेवजीको नारदजीका वैराग्य और ज्ञानका उपदेश”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! व्यासजीके चले जानेके बाद उस सूने आश्रममें स्वाध्याययपरायण शुकदेवसे अपना इच्छित वेदोंका अर्थ कहनेके लिये देवर्षि नारदजी पधारे ।। १ |।
देवर्षि नारदको उपस्थित देख शुकदेवने वेदोक्त विधिसे अर्घ्ध आदि निवेदन करके उनका पूजन किया ।। २ ||
उस समय नारदजीने प्रसन्न होकर कहा--“वत्स! तुम धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हो। बताओ, तुम्हें किस श्रेष्ठ वस्तुकी प्राप्ति कराऊँ?” यह बात उन्होंने बड़े हर्षके साथ कही ।। ३ ।।
भरतनन्दन! नारदजीकी यह बात सुनकर शुकदेवने कहा--“इस लोकमें जो परम कल्याणका साधन हो, उसीका मुझे उपदेश देनेकी कृपा करें” ।। ४ ।।
नारदजीने कहा--वत्स! पूर्वकालकी बात है, पवित्र अन्तःकरणवाले ऋषियोंने तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रश्न किया। उसके उत्तरमें भगवान् सनत्कुमारने यह उपदेश दिया ।। ५ |।
विद्याके समान कोई नेत्र नहीं है। सत्यके समान कोई तप नहीं है। रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके सदृश कोई सुख नहीं है ।। ६ ।।
पापकर्मोंसे दूर रहना, सदा पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करना, श्रेष्ठ पुरुषोंके-से बर्ताव और सदाचारका पालन करना--यही सर्वोत्तम श्रेय (कल्याण)-का साधन है ।। ७ ।।
जहाँ सुखका नाम भी नहीं है, ऐसे इस मानव-शरीरको पाकर जो विषयोंमें आसक्त होता है, वह मोहको प्राप्त होता है। विषयोंका संयोग दुःखरूप ही है, अतः दुःखोंसे छुटकारा नहीं दिला सकता || ८ ।।
विषयासक्त पुरुषकी बुद्धि चंचल होती है। वह मोहजालको बढ़ानेवाली है, मोहजालसे बँधा हुआ पुरुष इस लोक तथा परलोकमें दुःख ही भोगता है ।। ९ ।।
जिसे कल्याणप्राप्तिकी इच्छा हो, उसे सभी उपायोंसे काम और क्रोधको दबाना चाहिये; क्योंकि ये दोनों दोष कल्याणका नाश करनेके लिये उद्यत रहते हैं || १० ।।
मनुष्यको चाहिये कि वह सदा तपको क्रोधसे, लक्ष्मीको डाहसे, विद्याको मानापमानसे और अपने-आपको प्रमादसे बचावे ।। ११ ।।
क्रूर स्वभावका परित्याग सबसे बड़ा धर्म है। क्षमा सबसे बड़ा बल है। आत्माका ज्ञान ही सबसे उत्कृष्ट ज्ञान है और सत्यसे बढ़कर तो कुछ है ही नहीं || १२ ।
सत्य बोलना सबसे श्रेष्ठ है; परंतु सत्यसे भी श्रेष्ठ है हितकारक वचन बोलना। जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता हो, वही मेरे विचारसे सत्य है || १३ ।।
जो कार्य आरम्भ करनेके सभी संकल्पोंको छोड़ चुका है, जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी वस्तुका संग्रह नहीं करता तथा जिसने सब कुछ त्याग दिया है, वही विद्वान है और वही पण्डित ।। १४ ।।
जो अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा यहाँ अनासक्त भावसे विषयोंका अनुभव करता है, जिसका चित्त शान्त, निर्विकार और एकाग्र है तथा जो आत्मस्वरूप प्रतीत होनेवाले देह और इन्द्रियाँ हैं, उनके साथ रहकर भी उनसे तद्रूप न हो अलग-सा ही रहता है, वह मुक्त है और उसे बहुत शीघ्र परम कल्याणकी प्राप्ति होती है ।। १५-१६ ।।
मुने! जिसकी किसी प्राणीकी ओर दृष्टि नहीं जाती, जो किसीका स्पर्श तथा किसीसे बातचीत नहीं करता, वह परम कल्याणको प्राप्त होता है ।। १७ ।।
किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे। सबके प्रति मित्रभाव रखते हुए विचरे तथा यह मनुष्य-जन्म पाकर किसीके साथ वैर न करे ।। १८ ।।
जो आत्मतत्त्वका ज्ञाता तथा मनको वशमें रखनेवाला है, उसके लिये यही परम कल्याणका साधन बताया गया है कि वह किसी वस्तुका संग्रह न करे, संतोष रखे तथा कामना और चंचलताको त्याग दे ।। १९ ||
तात शुकदेव! तुम संग्रहका त्याग करके जितेन्द्रिय हो जाओ तथा उस पदको प्राप्त करो, जो इस लोक और परलोकमें भी निर्भय एवं सर्वथा शोकरहित है ।। २० ।।
जिन्होंने भोगोंका परित्याग कर दिया है, वे कभी शोकमें नहीं पड़ते, इसलिये प्रत्येकमनुष्यको भोगासक्तिका त्याग करना चाहिये। सौम्य! भोगोंका त्याग कर देनेपर तुम दुःख और संतापसे छूट जाओगे ।। २१ ।।
जो अजित (परमात्मा)-को जीतनेकी इच्छा रखता हो, उसे तपस्वी, जितेन्द्रिय, मननशील, संयतचित्त और विषयोंमें अनासक्त रहना चाहिये || २२ ।।
जो ब्राह्मण त्रिगुणात्मक विषयोंमें आसक्त न होकर सदा एकान्तवास करता है, वह शीघ्र ही सर्वोत्तम सुखरूप मोक्षको प्राप्त कर लेता है ।। २३ ।।
जो मुनि मैथुनमें सुख माननेवाले प्राणियोंके बीचमें रहकर भी अकेले रहनेमें ही आनन्द मानता है, उसे विज्ञानसे परितृप्त समझना चाहिये। जो ज्ञानसे तृप्त होता है, वह कभी शोक नहीं करता ।। २४ ।।
जीव सदा कर्मोके अधीन रहता है। वह शुभ कर्मोंके अनुष्ठानसे देवता होता है, दोनोंके सम्मिश्रणसे मनुष्य-जन्म पाता है और केवल अशुभ कर्मोंसे पशु-पक्षी आदि नीच योनियोंमें जन्म लेता है ।।
उन-उन योनियोंमें जीवको सदा जरा-मृत्यु और नाना प्रकारके दुःखोंसे संतप्त होना पड़ता है। इस प्रकार संसारमें जन्म लेनेवाला प्रत्येक प्राणी संतापकी आगमें पकाया जाता है--इस बातकी ओर तुम क्यों नहीं ध्यान देते? || २६ ।।
तुमने अहितमें ही हित-बुद्धि कर ली है, जो अध्रुव (विनाशशील) वस्तुएँ हैं, उन्हींको "ध्रुव" (अविनाशी) नाम दे रखा है और अनर्थमें ही तुम्हें अर्थका बोध हो रहा है। यह बात तुम्हारी समझमें क्यों नहीं आती है? ।। २७ ।।
जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही शरीरसे उत्पन्न हुए तन्तुओंद्वारा अपने-आपको आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार तुम भी मोहवश अपनेहीसे उत्पन्न सम्बन्धके बन्धनोंद्वारा अपने-आपको बाँधते जा रहे हो तो भी यह बात तुम्हारी समझमें नहीं आ रही है || २८ ।
यहाँ विभिन्न वस्तुओंके संग्रहकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संग्रहसे महान् दोष प्रकट होता है। रेशमका कीड़ा अपने संग्रह-दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता है || २९ ।।
स्त्री-पुत्र और कुट॒म्बमें आसक्त रहनेवाले प्राणी उसी प्रकार कष्ट पाते हैं, जैसे जंगलके बूढ़े हाथी तालाबके दलदलमें फँसकर दुःख उठाते हैं || ३० ।।
जिस प्रकार महान् जालमें फँसकर पानीसे बाहर आये हुए मत्स्य तड़पते हैं, उसी प्रकार स्नेहजालसे आकृष्ट होकर अत्यन्त कष्ट उठाते हुए इन प्राणियोंकी ओर दृष्टिपात करो ।। ३१ ।।
संसारमें कुट॒म्ब, स्त्री, पुत्र, शरीर और संग्रह--सब कुछ पराया है। सब नाशवान् है। इसमें अपना क्या है, केवल पाप और पुण्य ।। ३२ ।।
जब सब कुछ छोड़कर तुम्हें यहाँसे विवश होकर चल देना है, तब इस अनर्थमय जगत्में क्यों आसक्त हो रहे हो? अपने वास्तविक अर्थ--मोक्षका साधन क्यों नहीं करते हो? ।। ३३ ।।
जहाँ ठहरनेके लिये कोई स्थान नहीं, कोई सहारा देनेवाला नहीं, राहखर्च नहीं तथा अपने देशका कोई साथी अथवा राह बतानेवाला नहीं है, जो अन्धकारसे व्याप्त और दुर्गम है, उस मार्गपर तुम अकेले कैसे चल सकोगे? ।।
जब तुम परलोककी राह लोगे, उस समय तुम्हारे पीछे कोई नहीं जायगा। केवल तुम्हारा किया हुआ पुण्य या पाप ही वहाँ जाते समय तुम्हारा अनुसरण करेगा ।। ३५ ।।
अर्थ (परमात्मा) की प्राप्तिके लिये ही विद्या, कर्म, पवित्रता और अत्यन्त विस्तृत ज्ञानका सहारा लिया जाता है। जब कार्यकी सिद्धि (परमात्माकी प्राप्ति) हो जाती है, तब मनुष्य मुक्त हो जाता है ।। ३६ ।।
गाँवोंमें रहनेवाले मनुष्यकी विषयोंके प्रति जो आसक्ति होती है, वह उसे बाँधनेवाली रस्सीके समान है। पुण्यात्मा पुरुष उसे काटकर आगे--परमार्थके पथपर बढ़ जाते हैं; किंतु जो पापी हैं, वे उसे नहीं काट पाते ।। ३७ ।।
यह संसार एक नदीके समान है, जिसका उपादान या उदगम सत्य है, रूप इसका किनारा, मन स्रोत, स्पर्श द्वीप और रस ही प्रवाह है, गन्ध उस नदीकी कीचड़, शब्द जल और स्वर्गरूपी दुर्गम घाट है। शरीररूपी नौकाकी सहायतासे उसे पार किया जा सकता है। क्षमा इसको खेनेवाली लग्गी और धर्म इसको स्थिर करनेवाली रस्सी (लंगर) है। यदि त्यागरूपी अनुकूल पवनका सहारा मिले तो इस शीघ्रगामिनी नदीको पार किया जा सकता है। इसे पार करनेका अवश्य प्रयत्न करे || ३८-३९ ।।
धर्म और अधर्मको छोड़ो। सत्य और असत्यको भी त्याग दो और उन दोनोंका त्याग करके जिसके द्वारा त्याग करते हो, उसको भी त्याग दो | ४० ।।
संकल्पके त्यागद्वारा धर्मको और लिप्साके अभावद्वारा अधर्मको भी त्याग दो। फिर बुद्धिके द्वारा सत्य और असत्यका त्याग करके परमतत्त्वके निश्चयद्वारा बुद्धिको भी त्याग दो ।। ४१ ।।
यह शरीर पंचभूतोंका घर है। इसमें हड्डियोंके खंभे लगे हैं। यह नस-नाड़ियोंसे बँधा हुआ, रक्त-मांससे लिपा हुआ और चमड़ेसे मढ़ा हुआ है। इसमें मल-मूत्र भरा है, जिससे दुर्गग्ध आती रहती है। यह बुढ़ापा और शोकसे व्याप्त, रोगोंका घर, दुःखरूप, रजोगुणरूपी धूलसे ढका हुआ और अनित्य है; अतः तुम्हें इसकी आसक्तिको त्याग देना चाहिये ।।
यह सम्पूर्ण चराचर जगत् पंचमहाभूतोंसे उत्पन्न हुआ है। इसलिये महाभूतस्वरूप ही है। जो शरीरसे परे है, वह महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच सूक्ष्म महाभूत अर्थात् तन्मात्राएँ, पाँच प्राण तथा सत्त्व आदि गुण--इन सत्रह तत्त्वोंके समुदायका नाम अव्यक्त है ।।
इनके साथ ही इन्द्रियोंके पाँच विषय अर्थात् स्पर्श, शब्द, रूप, रस और गन्ध एवं मन और अहंकार--इन सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्तको मिलानेसे चौबीस तत्त्वोंका समूह होता है, उसे व्यक्ताव्यक्तमय समुदाय कहा गया है ।।
इन सब तत्त्वोंसे जो संयुक्त है, उसे पुरुष कहते हैं। जो पुरुष धर्म, अर्थ, काम, सुखदुःख और जीवन-मरणके तत्त्वको ठीक-ठीक समझता है, वही उत्पत्ति और प्रलयके तत्त्वको भी यथार्थरूपसे जानता है ।।
ज्ञानके सम्बन्धमें जितनी बातें हैं, उन्हें परम्परासे जानना चाहिये। जो पदार्थ इन्द्रियोंद्वारा ग्रहण किये जाते हैं, उन्हें व्यक्त कहते हैं और जो इन्ट्रियोंक अगोचर होनेके कारण अनुमानसे जाने जाते हैं, उनको अव्यक्त कहते हैं || ४८-४९ ।।
जिनकी इन्द्रियाँ अपने वशमें हैं, वे जीव उसी प्रकार तृप्त हो जाते हैं, जैसे वर्षाकी धारासे प्यासा मनुष्य। ज्ञानी पुरुष अपनेको प्राणियोंमें व्याप्त और प्राणियोंको अपनेमें स्थित देखते हैं | ५० ।।
उस परावरदर्शी ज्ञानी पुरुषकी ज्ञाममूलक शक्ति कभी नष्ट नहीं होती। जो सम्पूर्ण भूतोंको सभी अवस्थाओंमें सदा देखा करता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंक सहवासमें आकर भी कभी अशुभ कर्मोंसे युक्त नहीं होता अर्थात् अशुभ कर्म नहीं करता ।। ५१३ ।।
जो ज्ञानके बलसे मोहजनित नाना प्रकारके क्लेशोंसे पार हो गया है, उसके लिये जगतमें बौद्धिक प्रकाशसे कोई भी लोक-व्यवहारका मार्ग अवरुद्ध नहीं होता ।।
मोक्षके उपायको जाननेवाले भगवान् नारायण कहते हैं कि आदि-अन्तसे रहित, अविनाशी, अकर्ता और निराकार जीवात्मा इस शरीरमें स्थित है ।। ५३ ६ ।।
जो जीव अपने ही किये हुए विभिन्न कर्मोके कारण सदा दुःखी रहता है, वही उस दुःखका निवारण करनेके लिये नाना प्रकारके प्राणियोंकी हत्या करता है ।।
तदनन्तर वह और भी बहुत-से नये-नये कर्म करता है और जैसे रोगी अपथ्य खाकर दुःख पाता है, उसी प्रकार उस कर्मसे वह अधिकाधिक कष्ट पाता रहता है || ५५३ ।।
जो मोहसे अन्धा (विवेकशून्य) हो गया है, वह सदा ही दुःखद भोगोंमें ही सुखबुद्धि कर लेता है और मथानीकी भाँति कर्मोसे बँधता एवं मथा जाता है || ५६३ ।।
फिर प्रारब्ध कर्मोके उदय होनेपर वह बद्ध प्राणी कर्मके अनुसार जन्म पाकर संसारमें नाना प्रकारके दुःख भोगता हुआ उसमें चक्रकी भाँति घूमता रहता है ।। ५७६ ।।
इसलिये तुम कर्मोसे निवृत्त, सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त, सर्वज्ञ, सर्वविजयी, सिद्ध और सांसारिक भावनासे रहित हो जाओ ।। ५८ $ ||
बहुत-से ज्ञानी पुरुष संयम और तपस्याके बलसे नवीन बन्धनोंका उच्छेद करके अनन्त सुख देनेवाली अबाध सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं ।। ५९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवकेि अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तीन सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तीसवें अध्याय के श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद)
“शुकदेवको नारदजीका सदाचार और अध्यात्मविषयक उपदेश”
नारदजी कहते हैं--शुकदेव! शास्त्र शोकको दूर करनेवाला, शान्तिकारक और कल्याणमय है। जो अपने शोकका नाश करनेके लिये शास्त्रका श्रवण करता है, वह उत्तम बुद्धि पाकर सुखी हो जाता है ।। १ ।।
शोकके सहस्रों और भयके सैकड़ों स्थान हैं, जो प्रतिदिन मूढ़ पुरुषोंपर ही अपना प्रभाव डालते हैं, विद्वानूपर नहीं ।। २ ।।
इसलिये अपने अनिष्टका नाश करनेके लिये मेरा यह उपदेश सुनो--यदि बुद्धि अपने वशमें रहे तो सदाके लिये शोकका नाश हो जाता है |। ३ ।।
मन्दबुद्धि मनुष्य ही अप्रिय वस्तुकी प्राप्ति और प्रिय वस्तुका वियोग होनेपर मन-हीमन दुखी होते हैं ।। ४ ।।
जो वस्तु भूतकालके गर्भमें छिप गयी (नष्ट हो गयी), उसके गुणोंका स्मरण नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो आदरपूर्वक उसके गुणोंका चिन्तन करता है, उसका उसके प्रति आसक्तिका बन्धन नहीं छूटता है ।। ५ ।।
जहाँ चित्तकी आसक्ति बढ़ने लगे, वहीं दोषदृष्टि करनी चाहिये और उसे अनिष्टको बढ़ानेवाला समझना चाहिये। ऐसा करनेपर उससे शीघ्र ही वैराग्य हो जाता है || ६ ।।
जो बीती बातके लिये शोक करता है, उसे न तो अर्थकी प्राप्ति होती है न धर्मकी और न यशकी ही प्राप्ति होती है। वह उसके अभावका अनुभव करके केवल दु:ख ही उठाता है। उससे अभाव दूर नहीं होता || ७ ।।
सभी प्राणियोंको उत्तम पदार्थोंसे संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं। किसी एकपर ही यह शोकका अवसर आता हो, ऐसी बात नहीं है ।। ८ ।।
जो मनुष्य भूतकालमें मरे हुए किसी व्यक्तिके लिये अथवा नष्ट हुई किसी वस्तुके लिये निरन्तर शोक करता है, वह एक दुःखसे दूसरे दुःखको प्राप्त होता है। इस प्रकार उसे दो अनर्थ भोगने पड़ते हैं ।। ९ ।।
जो मनुष्य संसारमें अपनी संतानकी मृत्यु हुई देखकर भी अश्रुपात नहीं करते, वे ही धीर हैं। सभी वस्तुओंपर समीचीन भावसे दृष्टिपात या विचार करनेपर किसीका भी आँसू बहाना युक्तिसंगत नहीं जान पड़ता है || १० ।।
यदि कोई शारीरिक या मानसिक दुःख उपस्थित हो जाय और उसे दूर करनेके लिये कोई यत्न किया जा सके अथवा किया हुआ यत्न काम न दे सके तो उसके लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।। ११ ।।
दुःख दूर करनेकी सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका बार-बार चिन्तन न किया जाय। चिन्तन करनेसे वह घटता नहीं, बल्कि बढ़ता ही जाता है ।। १२ |।
इसलिये मानसिक दु:खको बुद्धिके द्वारा विचारसे और शारीरिक कष्टको औषधसेवनद्वारा नष्ट करना चाहिये। शास्त्रज्ञानके प्रभावसे ही ऐसा होना सम्भव है। दुःख पड़नेपर बालकोंकी तरह रोना उचित नहीं है ।।
रूप, यौवन, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य तथा प्रियजनोंका सहवास--ये सब अनित्य हैं। विद्वान् पुरुषको इनमें आसक्त नहीं होना चाहिये || १४ ।।
सारे देशपर आये हुए संकटके लिये किसी एक व्यक्तिको शोक करना उचित नहीं है। यदि उस संकटको टालनेका कोई उपाय दिखलायी दे तो शोक छोड़कर उसे ही करना चाहिये ।। १५ ।।
इसमें संदेह नहीं कि जीवनमें सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक होता है। किंतु सभीको मोहवश विषयोंके प्रति अनुराग होता है और मृत्यु अप्रिय लगती है ।। १६ ।।
जो मनुष्य सुख और दु:ख दोनोंकी ही चिन्ता छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है। विद्वान पुरुष उसके लिये शोक नहीं करते ।। १७ ।।
धन खर्च करते समय बड़ा दुःख होता है। उसकी रक्षामें भी सुख नहीं है और उसकी प्राप्ति भी बड़े कष्टसे होती है, अत: धनको प्रत्येक अवस्थामें दु:खदायक समझकर उसके नष्ट होनेपर चिन्ता नहीं करनी चाहिये || १८ ।।
मनुष्य धनका संग्रह करते-करते पहलेकी अपेक्षा ऊँची धन-सम्पन्न स्थितिको प्राप्त होकर भी कभी तृप्त नहीं होते। वे और अधिककी आशा लिये हुए ही मर जाते है; किंतु विद्वान् पुरुष सदा संतुष्ट रहते हैं (वे धनकी तृष्णामें नहीं पड़ते || १९ ।।
संग्रहका अन्त है विनाश। ऊँचे चढ़नेका अन्त है नीचे गिरना। संयोगका अन्त है वियोग और जीवनका अन्त है मरण ।। २० ।।
तृष्णाका कभी अन्त नहीं होता। संतोष ही परम सुख है, अत: पण्डितजन इस लोकमें संतोषको ही उत्तम धन समझते हैं || २१ ।।
आयु निरन्तर बीती जा रही है। वह पलभर भी ठहरती नहीं है। जब अपना शरीर ही अनित्य है, तब इस संसारकी किस वस्तुको नित्य समझा जाय ।। २२ ।।
जो मनुष्य सब प्राणियोंके भीतर मनसे परे परमात्माकी स्थिति जानकर उन्हींका चिन्तन करते हैं, वे संसार-यात्रा समाप्त होनेपर परमपदका साक्षात्कार करते हुए शोकके पार हो जाते हैं || २३ ।।
जैसे जंगलमें नयी-नयी घासकी खोजमें विचरते हुए अतृप्त पशुको सहसा व्याघ्र आकर दबोच लेता है, उसी प्रकार भोगोंकी खोजमें लगे हुए अतृप्त मनुष्यको मृत्यु उठा ले जाती है || २४ ।।
तथापि सबको दुःखसे छूटनेका उपाय अवश्य सोचना चाहिये। जो शोक छोड़कर साधन आरम्भ करता है और किसी व्यसनमें आसक्त नहीं होता, वह निश्चय ही दु:खोंसे मुक्त हो जाता है ।। २५ ।।
धनी हो या निर्धन, सबको उपभोगकालनमें ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस और उत्तम गन्ध आदि विषयोंमें किंचित् सुखकी प्रतीति होती है, उपभोगके पश्चात् नहीं ।। २६ ।।
प्राणियोंके एक-दूसरेसे संयोग होनेके पहले कोई दुःख नहीं रहता। जब संयोगके बाद वियोग होता है तभी सबको दुःख हुआ करता है। अतः अपने स्वरूपमें स्थित विवेकी पुरुषको किसीके वियोगमें कभी भी शोक नहीं करना चाहिये ।। २७ ।।
मनुष्यको चाहिये कि वह धैर्यके द्वारा शिश्र और उदरकी, नेत्रके द्वारा हाथ और पैरकी, मनके द्वारा आँख और कानकी तथा सद्विद्याके द्वारा मन और वाणीकी रक्षा करे |।
जो पूजनीय तथा अन्य मनुष्योंमें आसक्तिको हटाकर विनीतभावसे विचरण करता है, वही सुखी और वही विद्वान है ।। २९ ।।
जो अध्यात्मविद्यामें अनुरक्त, कामनाशून्य तथा भोगासक्तिसे दूर है, जो अकेला ही विचरण करता है, वह सुखी होता है ।। ३० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका ऊर्ध्वगमनविषयक तीन सौ तीसवाँ अध्याय प्रा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें