सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ बाईसवें अध्याय से तीन सौ पच्चीसवें अध्याय तक (From the 322 chapter to the 325 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ बाईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बाईसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“शुभाशुभ कर्मोंका परिणाम कर्ताको अवश्य भोगना पड़ता है, इसका प्रतिपादन”

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! यदि दान, यज्ञ, तप अथवा गुरु-शुश्रूषा करनेसे कोई फल मिलता है तो वह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! जब बुद्धि काम-क्रोध आदि अनर्थोसे युक्त हो जाती है, तब उससे प्रेरित हुए मनुष्यका मन पापमें प्रवृत्त होने लगता है। फिर वह मनुष्य दोषयुक्त कर्म करके महान्‌ क्लेशमें पड़ जाता है || २ ।।

पापकर्म करनेवाले दरिद्र मानव दुर्भिक्षसे दुर्भिक्षको, क्लेशसे क्लेशको तथा भयसे भयको पाते हुए मरे हुओंसे भी अधिक मृतकतुल्य हो जाते हैं ।। ३ ।।

जो श्रद्धालु, जितेन्द्रिय, धनसम्पन्न तथा शुभकर्म-परायण होते हैं, वे उत्तवसे अधिक उत्सवको, स्वर्गसे अधिक स्वर्गको तथा सुखसे अधिक सुखको पाते हैं ।।

नास्तिक मनुष्योंके हाथमें हथकड़ी डालकर राजा उन्हें राज्यसे दूर निकाल देता है और वे उन जंगलोंमें चले जाते हैं, जो मतवाले हाथियोंके कारण दुर्गम तथा सर्प और चोर आदिके भयसे भरे हुए होते हैं। इससे बढ़कर उन्हें और क्या दण्ड मिल सकता है? ।। ५ 

जिन्हें देवपूजा और अतिथि-सत्कार प्रिय है, जो उदार हैं तथा श्रेष्ठ पुरुष जिन्हें अच्छे लगते हैं, वे पुण्यात्मा मनुष्य अपने दाहिने हाथके समान मंगलकारी एवं मनको वशमें रखनेवाले योगियोंको ही प्राप्त होने योग्य मार्गपर आरूढ़ होते हैं ।। ६ ।।

जिनका उद्देश्य धर्मपालन नहीं है, ऐसे मनुष्य मानव-समाजके भीतर वैसे ही समझे जाते हैं, जैसे धानोंमें थोथा धान और पक्षियोंमें सड़ा हुआ अंडा || ७ ।।

जिस-जिस मनुष्यने जैसा कर्म किया है, वह उसके पीछे लगा रहता है। यदि कर्ता पुरुष शीघ्रतापूर्वक दौड़ता है तो वह भी उतनी ही तेजीके साथ उसके पीछे जाता है। जब वह सोता है, तब उसका कर्मफल भी उसीके साथ सो जाता है। जब वह खड़ा होता है, तब वह भी उसके पास ही खड़ा रहता है और जब मनुष्य चलता है, तब वह भी उसके पीछेपीछे चलने लगता है। इतना ही नहीं, कोई कार्य करते समय भी कर्म-संस्कार उसका साथ नहीं छोड़ता। सदा छायाके समान पीछे लगा रहता है ।। ८-९ ।।

जिस-जिस मनुष्यने अपने-अपने पूर्वजन्मोंमें जैसे-जैसे कर्म किये हैं, वह अपने ही किये हुए उन कर्मोंका फल सदा अकेला ही भोगता है ।। १० ।।

अपने-अपने कर्मका फल एक धरोहरके समान है, वह शास्त्रविधानके अनुसार सुरक्षित रहता है। उपयुक्त अवसर आनेपर यह काल इस प्राणिसमुदायको कर्मानुसार खींच ले जाता है ।। ११ ।।

जैसे फूल और फल किसीकी प्रेरणाके बिना ही अपने समयपर वृक्षोंमें लग जाते हैं, उसी प्रकार पहलेके किये हुए कर्म भी अपने फलभोगके समयका उल्लंघन नहीं करते हैं । १२ ।।

सम्मान-अपमान, लाभ-हानि तथा उन्नति-अवनति--ये पूर्वजन्मके कर्मोके अनुसार पग-पगपर प्राप्त होते हैं और प्रारब्धभोगके पश्चात्‌ पुनः निवृत्त हो जाते हैं ।। १३ ।।

दुःख अपने ही किये हुए कर्मोका फल है और सुख भी अपने ही पूर्वकृत कर्मोंका परिणाम है। जीव माताकी गर्भशय्यामें आते ही पूर्व शरीरद्वारा उपार्जित सुख-दुःखका उपभोग करने लगता है ।। १४ ।।

कोई बालक हो, तरुण हो या बूढ़ा हो, वह जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, जन्मजन्मान्तरमें उसी अवस्थामें उस-उस कर्मका फल भोगता है || १५ ।।

जैसे बछड़ा हजारों गौओंमेंसे अपनी माँको पहचानकर उसे पा लेता है, वैसे ही पहलेका किया हुआ कर्म भी अपने कर्ताके पास पहुँच जाता है ।। १६ ।।

जैसे मलिन हुआ वस्त्र पीछे जलसे धोनेपर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार जो उपवासपूर्वक तपस्या करते हैं, (उनका अन्तःकरण शुद्ध होकर) उन्हें कभी समाप्त न होनेवाला महान्‌ सुख मिलता है || १७ ।।

महामते! दीर्घकालतक की हुई तपस्यासे तथा धर्माचरणद्वारा जिनके सारे पाप धुल गये हैं, उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं ।। १८ ।।

जैसे आकाशकमें पक्षियोंके और जलमें मछलियोंके चरण-चिह्न दिखायी नहीं देते, उसी प्रकार पुण्यात्मा ज्ञानियोंकी भी गतिका पता नहीं चलता ।। १९ |।

दूसरोंको उलाहना देने तथा लोगोंके अन्यान्य अपराधोंकी चर्चा करनेसे कोई प्रयोजन नहीं है। जो सुन्दर, अनुकूल और अपने लिये हितकर जान पड़े, वही कर्म करना चाहिये ।। २० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें धर्ममुलिकनामक तीन सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ तेईसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तेईसवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)

“व्यासजीकी पुत्रप्राप्तिके लिये तपस्या और भगवान्‌ शंकरसे वरप्राप्ति”

युधिष्ठिरने कहा--पितामह! व्यासजीके यहाँ महातपस्वी और धर्मात्मा शुकदेवजीका जन्म कैसे हुआ? तथा उन्होंने परम सिद्धि कैसे प्राप्त की? यह मुझे बताइये ।। १ ।।

तपस्याके धनी व्यासजीने किस स्त्रीके गर्भसे शुकदेवजीको उत्पन्न किया? हमें उन महात्मा शुकदेवजीकी माताका नाम नहीं मालूम है और हम उनके श्रेष्ठ जन्मका वृत्तान्त भी नहीं जानते हैं || २ ।।

शुकदेवजी अभी बालक थे तो भी सूक्ष्मज्ञानमें उनकी बुद्धि कैसे लगी? इस संसारमें उनके सिवा दूसरे किसीकी ऐसी बुद्धि नहीं देखी गयी ।। ३ ।।

महामते! मैं इस प्रसंगको विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। आपका यह अमृतके समान उत्तम एवं मधुर प्रवचन सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है || ४ ।।

पितामह! आप मुझे शुकदेवजीका माहात्म्य, आत्मयोग और विज्ञान यथार्थ रीतिसे क्रमश: बताइये ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! कोई अधिक वर्षोकी अवस्था हो जानेसे, बाल पक जानेसे, अधिक धन होनेसे तथा भाई-बन्धुओंकी संख्या बढ़ जानेसे भी बड़ा नहीं होता। ऋषियोंने यह नियम बनाया है कि हमलोगोंमेंसे जो वेदोंका प्रवचन कर सकेगा, वही महान्‌ माना जायगा ।। ६ |।

पाण्डुनन्दन! तुम मुझसे जिसके विषयमें पूछ रहे हो, उस सबकी जड़ तपस्या है। इन्द्रियोंका संयम करनेसे ही तपस्याकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं ।। ७ ।।

इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य इन्द्रियोंकी विषयासक्तिके कारण ही दोषको प्राप्त होता है और उन्हीं इन्द्रियोंको काबूमें कर लेनेपर वह सिद्धिका भागी होता है ।। ८ ।।

तात! सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञोंका जो फल है, वह योगकी सोलहवीं कलाके फलकी भी समानता नहीं कर सकता ।। ९ |।

राजन! मैं तुम्हें शुकदेवजीका जन्म-वृत्तान्त, योगफल तथा अजितात्मा पुरुषोंकी समझमें न आनेवाली उनकी उत्कृष्ट गति बता रहा हूँ ।। १० ।।

कहते हैं, पूर्वकालमें कनेरके वनोंसे सुशोभित मेरुपर्वतके शिखरपर भगवान्‌ शंकर भयानक भूतगणोंको साथ ले विहार करते थे || ११ ।।

वहीं गिरिराजकुमारी उमादेवी भी उनके साथ ही निवास करती थीं। उन्हीं दिनों श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास उस पर्वतपर दिव्य तपस्या कर रहे थे ।। १२ ।।

कुरुश्रेष्ठ योगधर्मपरायण व्यास योगके द्वारा अपने मनको परमात्मामें लगाकर धारणापूर्वक तपका अनुष्ठान करते थे। उनके तपका उद्देश्य था पुत्रकी प्राप्ति ।। १३ ।।

उन्होंने यह संकल्प लेकर कि मुझे अग्नि, भूमि, जल, वायु अथवा आकाशके समान धैर्यशाली पुत्र प्राप्त हो, तपस्या आरम्भ की थी ।। १४ ।।

उक्त संकल्प लेकर योगके द्वारा उत्तम तपस्यामें लगे हुए वेदव्यासजीने अजितात्मा पुरुषोंके लिये दुर्लभ देवेश्वर महादेवजीसे वर-प्रार्थना की ।। १५ ।।

शक्तिशाली व्यासजी सौ वर्षोतक केवल वायुभक्षण करते हुए अनेक रूपधारी उमापति महादेवजीकी आराधनामें लगे रहे || १६ ।।

वहाँ सम्पूर्ण ब्रह्मर्षि, सभी राजर्षि, लोकपाल, बहुत-से अनुचरोंके सहित साध्य, आदित्य, रुद्र, सूर्य, चन्द्रमा, वसुगण, मरुद्गण, समुद्र, सरिताएँ, दोनों अश्विनीकुमार, देवता, गन्धर्व, नारद, पर्वत, गन्धर्वराज विश्वावसु, सिद्ध तथा अप्सराएँ भी लोकेश्वर महादेवजीकी आराधना करती थीं ।। १७--१९ |।

वहाँ महान्‌ रुद्रदेव कनेर पुष्पोंकी मनोहर माला धारण किये चाँदनीसहित चन्द्रमाके समान शोभा पाते थे। देवताओं तथा देवर्षियोंसे भरे हुए उस दिव्य रमणीय वनमें पुत्रप्राप्तिके लिये परम योगका आश्रय ले मुनिवर व्यास तपस्यामें प्रवृत्त थे और उससे विचलित नहीं होते थे | २०-२१ ।।

ऐसा कठोर तप करनेपर भी न तो उनके प्राण नष्ट हुए और न उन्हें थकान ही हुई। यह तीनों लोकोंके लिये अद्भुत-सी बात हुई || २२ ।।

योगयुक्त हुए अमित तेजस्वी व्यासजीकी जटाएँ उनके तेजसे आगकी लपटोंके समान प्रज्वलित दिखायी देती थीं || २३ ।।

मुझे तो यह वृत्तान्त भगवान्‌ मार्कण्डेयजीने सुनाया था। वे मुझे सदा ही देवताओंके चरित्र सुनाया करते थे ।।

तात! उसी तपस्यासे उद्दीप्त हुई महात्मा व्यासजीकी ये जटाएँ आज भी अग्निके समान प्रकाशित हो रही हैं ।।

भारत! उनकी ऐसी तपस्या और भक्ति देखकर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने मन-ही-मन उन्हें अभीष्ट वर देनेका विचार किया ।। २६ ।।

भगवान्‌ शिव व्यासजीके सामने आये और हँसते हुए-से बोले--'द्वैपायन! तुम जैसा चाहते हो, वैसा ही पुत्र तुम्हें प्राप्त होगा || २७ ।।

“जैसे अग्नि, जैसे वायु, जैसे पृथ्वी, जैसे जल और जैसे आकाश शुद्ध है, तुम्हारा पुत्र भी वैसा ही शुद्ध एवं महान्‌ होगा || २८ ।।

“वह भगवद्धावमें रँगा होगा, भगवानमें ही उसकी बुद्धि होगी, भगवानमें ही उसका मन लगा रहेगा और एकमात्र भगवानको ही वह अपना आश्रय समझेगा। उसके तेजसे तीनों लोक व्याप्त हो जायँगे और तुम्हारा वह पुत्र महान्‌ यश प्राप्त करेगा” || २९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवकी उत्पत्तिविषयक तीन सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चौबीसवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“शुकदेवजीकी उत्पत्ति और उनके यज्ञोपवीत, वेदाध्ययन एवं समावर्तन-संस्कारका वृत्तान्त”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! महादेवजीसे उत्तम वर पाकर एक दिन सत्यवतीनन्दन व्यासजी अग्नि प्रकट करनेकी इच्छासे दो अरणी काष्ठ लेकर उनका मन्थन करने लगे ।। १ ।।

नरेश्वरर इसी समय उन भगवान्‌ महर्षि व्यासने वहाँ आयी हुई घृताची नामक अप्सराको देखा, जो अपने तेजसे परम मनोहर रूप धारण किये हुए थी ।। २ ।।

युधिष्ठिर! उस वनमें उस अप्सराको देखकर ऋषि भगवान्‌ व्यास सहसा कामसे मोहित हो गये। महाराज! उस समय व्यासजीका हृदय कामसे व्याकुल हुआ देख घृताची अप्सरा शुकी होकर उनके पास आयी ।। ३-४ ।।

उस अप्सराको दूसरे रूपसे छिपी हुई देख उनके सम्पूर्ण शरीरमें कामवेदना व्याप्त हो गयी ।। ५ ।।

मुनिवर व्यास महान्‌ धैर्यके साथ अपने कामवेगको रोकने लगे; परंतु अप्सराकी ओर गये हुए मनको रोकनेमें वे किसी तरह समर्थ न हो सके ।। ६ ।।

होनहार होकर ही रहती है; इसलिये व्यासजी घृताचीके रूपसे आकृष्ट हो गये। अग्नि प्रकट करनेकी इच्छासे अपने कामवेगको यत्नपूर्वक रोकते हुए महर्षि व्यासका वीर्य सहसा उस अरणीकाष्ठ पर ही गिर पड़ा ।।

नरेश्वर! उस समय भी द्विजश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि व्यास निःशंक मनसे दोनों अरणियोंके मन्थनमें ही लगे रहे। उसी समय अरणीसे शुकदेवजी प्रकट हो गये ।। ८ | ।।

अरणीके साथ-साथ शुक्रका भी मन्थन होनेसे महातपस्वी तथा महायोगी परम ऋषि शुकदेवजीका जन्म हो गया। वे अरणीके ही गर्भसे प्रकट हुए ।। ९६ ।।

जैसे यज्ञमें हविष्पका वहन करनेवाली प्रज्वलित अग्नि प्रकाशित होती है, वैसे ही रूपसे शुकदेवजी प्रकट हुए थे। वे अपने तेजसे मानो जाज्वल्यमान हो रहे थे || १०३ ।

कुरुनन्दन! अपने पिताके समान ही परम उत्तम रूप और कान्ति धारण किये पवित्रात्मा शुकदेव धूमरहित अग्निके समान देदीप्यमान हो रहे थे || ११३ ।।

जनेश्वर! उसी समय सरिताओंमें श्रेष्ठ श्रीगंगाजी मूर्तिमती होकर मेरुपर्वतपर आयीं और उन्होंने अपने जलसे शुकदेवजीको तृप्त किया ।। १२६ ।।

कुरुनन्दन! राजेन्द्र! आकाशसे महात्मा शुकदेवके लिये दण्ड और काला मृगचर्म--ये दोनों वस्तुएँ पृथ्वीपर गिरी ।। १३ ई |।

गन्धर्व गाने और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं। देवताओंकी दुंदुभियाँ बड़े जोर-जोरसे बज उठीं। विश्वावसु, तुम्बुर, नारद, हाहा और हूहू आदि गन्धर्व शुकदेवजीके जन्मकी बधाई गाने लगे || १४-१५३ ||

इन्द्र आदि सम्पूर्ण लोकपाल, देवता, देवर्षि और ब्रह्मर्षि भी वहाँ आये ।। १६३ 

वायुने सब प्रकारके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा की। चर और अचर सारा संसार हर्षसे खिल उठा || १७३ ||

तब महातेजस्वी महात्मा भगवान्‌ शंकरने देवी पार्वतीके साथ स्वयं प्रसन्नतापूर्वक पधारकर महर्षि व्यासके उस नवजात पुत्रका विधिपूर्वक उपनयन-संस्कार किया ।। १८ $ई

प्रभो! उस समय देवेश्वर इन्द्रने उन्हें प्रेमपूर्वक दिव्य एवं अद्भुत कमण्डलु तथा देवोचित वस्त्र प्रदान किये || १९६ ।।

भारत! सहसौ्रों हंस, शतपत्र, सारस, शुक और नीलकण्ठ आदि पक्षी उनकी प्रदक्षिणा करने लगे || २० $ ।।

तदनन्तर महातेजस्वी अरणिसम्भूत शुक वह दिव्य जन्म पाकर ब्रह्मचर्यकी दीक्षा ले वहीं रहने लगे। वे बड़े बुद्धिमान, व्रतपालक तथा चित्तको एकाग्र रखनेवाले थे || २१३ ।।

महाराज! शुकदेवजीके जन्म लेते ही रहस्य और संग्रहसहित सम्पूर्ण वेद उसी प्रकार उनकी सेवामें उपस्थित हो गये, जैसे वे उनके पिता वेदव्यासकी सेवामें उपस्थित हुए थे ।। २२६ ||

महाराज! वेद-वेदांगोंकी विस्तृत व्याख्याके ज्ञाता शुकदेवजीने धर्मका विचार करके बृहस्पतिको अपना गुरु बनाया || २३६ ।।

प्रभो! महामुनि शुकदेवने उनसे रहस्य और संग्रहसहित सम्पूर्ण वेदोंका, समूचे इतिहासका तथा राजशास्त्रका भी अध्ययन करके गुरुको दक्षिणा दे समावर्तन-संस्कारके पश्चात्‌ घरको प्रस्थान किया ।।

उन्होंने एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए उग्र तपस्या प्रारम्भ की। महातपस्वी शुकदेव ज्ञान और तपस्याके द्वारा बाल्यकालमें भी देवताओं तथा ऋषियोंके आदरणीय और उन्हें सलाह देने योग्य हो गये थे || २६ ।।

नरेश्वर! वे मोक्षधर्मपर ही दृष्टि रखते थे; अतः उनकी बुद्धि गार्हस्थ्य आश्रमपर अवलम्बित रहनेवाले तीनों आश्रमोंमें प्रसन्नताका अनुभव नहीं करती थी ।। २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवकी उत्पत्तिविषयक तीन सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ पच्चीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पच्चीसवें अध्याय के श्लोक 1-45 का हिन्दी अनुवाद)

“पिताकी आज्ञासे शुकदेवजीका मिथिलामें जाना और वहाँ उनका द्वारपाल, मन्त्री और युवती स्त्रियोंके द्वारा सत्कृत होनेके उपरान्त ध्यानमें स्थित हो जाना”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! शुकदेवजी मोक्षका विचार करते हुए ही अपने पिता एवं गुरु व्यासजीके पास गये और विनीतभावसे उनके चरणोंमें प्रणाम करके कल्याणप्राप्तिकी इच्छा रखकर उनसे इस प्रकार बोले-- || १ ।।

'प्रभो! आप मोक्षधर्ममें कुशल हैं; अतः मुझे ऐसा उपदेश कीजिये, जिससे मेरे चित्तको परम शान्ति मिले' ।।

पुत्रकी वह बात सुनकर महर्षि व्यासने कहा, “बेटा! तुम मोक्ष तथा अन्यान्य विविध धर्मोका अध्ययन करो' ।। ३ ।।

भारत! पिताकी आज्ञासे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ शुकने सम्पूर्ण योगशास्त्र तथा समस्त सांख्यका अध्ययन किया ।। ४ ।।

जब व्यासजीने यह समझ लिया कि मेरा पुत्र ब्रह्मतेजसे सम्पन्न और मोक्षधर्ममें कुशल हो गया है तथा समस्त शास्त्रोंमें इसकी ब्रह्माके समान गति हो गयी है, तब उन्होंने कहा --बेटा! अब तुम मिथिलाके राजा जनकके पास जाओ। वे मिथिलानरेश तुम्हें सम्पूर्ण मोक्षशास्त्रका सार सिद्धान्त बता देंगे” ।। ५-६ ।।

नरेश्वरर पिताकी आज्ञा पाकर शुकदेवजी धर्मकी निष्ठा और मोक्षका परम आश्रय पूछनेके लिये मिथिलाकी ओर चल दिये || ७ ।।

जाते समय व्यासजीने फिर बिना किसी विस्मयके कहा--“बेटा! जिस मार्गसे साधारण मनुष्य चलते हों, उसीसे तुम भी जाना। अपनी योगशक्तिका आश्रय लेकर आकाशमार्गसे कदापि यात्रा न करना ।। ८ ।।

सरलभावसे ही यात्रा करनी चाहिये। रास्तेमें सुख और सुविधाकी खोज नहीं करनी चाहिये। विशेष-विशेष व्यक्तियों अथवा स्थानोंका अनुसंधान न करना; क्योंकि इससे उनके प्रति आसक्ति हो जाती है ।। ९ ।।

राजा जनक मेरे यजमान हैं, ऐसा समझकर उनके प्रति अहंकार न प्रकट करना तथा सब प्रकारसे उनकी आज्ञाके अधीन रहना। वे तुम्हारी सब शंकाओंका समाधान कर देंगे ।। १० ।।

“मेरे यजमान राजा जनक धर्मनिपुण तथा मोक्ष-शास्त्रमें प्रवीण हैं। वे तुम्हें जो आज्ञा दें, उसीका नि:शंक होकर पालन करना” ।। ११ ।।

पिताके ऐसा कहनेपर धर्मात्मा मुनि शुकदेवजी मिथिलाकी ओर चल दिये। यद्यपि वे आकाशभमार्गसे सारी पृथ्वीको लाँघ जानेमें समर्थ थे, तो भी पैदल ही चले ।। १२ ।।

मार्ममें उन्हें अनेक पर्वत, नदी, तीर्थ और सरोवर पार करने पड़े। बहुत-से सर्पों और वन्य पशुओंसे भरे हुए कितने ही जंगलोंमें होकर जाना पड़ा। उन सबको लाँघकर क्रमशः मेरु (इलावृत) वर्ष, हरिवर्ष और हैमवत (किम्पुरुष) वर्षको पार करते हुए वे भारतवर्षमें आये ।। १३-१४ ।।

चीन और हूण जातिके लोगोंसे सेवित नाना प्रकारके देशोंका दर्शन करते हुए महामुनि शुकदेवजी इस आर्यावर्त देशमें आ पहुँचे || १५ ।।

पिताकी आज्ञा मानकर उसी ज्ञातव्य विषयका चिन्तन करते हुए उन्होंने सारा मार्ग पैदल ही तै किया। जैसे आकाशचारी पक्षी आकाशगमें विचरता है, उसी प्रकार वे भूतलपर विचरण करते थे ।। १६ ।।

रास्तेमें बड़े सुन्दर-सुन्दर शहर और कस्बे तथा समृद्धिशाली नगर दिखायी पड़े। भाँतिभाँतिके विचित्र रत्न दृष्टिगोचर हुए; किंतु शुकदेवजी उनकी ओर देखते हुए भी नहीं देखते थे।। १७ |।

पथिक शुकदेवजीने बहुत-से मनोहर उद्यान तथा घर और मन्दिर देखकर उनकी उपेक्षा कर दी। कितने ही पवित्र रत्न उनके सामने पड़े, परंतु वे सबको लाँचकर आगे बढ़ गये ।। १८ ।।

इस प्रकार यात्रा करते हुए वे थोड़े ही समयमें धर्मराज महात्मा जनकद्वारा पालित विदेहप्रान्तमें जा पहुँचे || १९ ।।

वहाँ बहुत-से गाँव उनकी दृष्टिमें आये, जहाँ अन्न, पानी तथा नाना प्रकारकी खाद्य सामग्री प्रचुर मात्रामें मौजूद थी। छोटी-छोटी टोलियाँ तथा गोष्ठ (गौओंके रहनेके स्थान) भी दृष्टिगोचर हुए, जो बड़े समृद्धिशाली और बहुसंख्यक गोसमुदायोंसे भरे हुए थे || २० ।।

सारे विदेहप्रान्तमें सब ओर अगहनी धानकी खेती लहलहा रही थी। वहाँके निवासी धन-धान्यसे सम्पन्न थे। उस देशमें चारों ओर हंस और सारस निवास करते थे। कमलोंसे अलंकृत सैकड़ों सुन्दर सरोवर विदेह-राज्यकी शोभा बढ़ा रहे थे || २१ ।।

इस प्रकार समृद्धिशाली मनुष्योंद्वारा सेवित विदेह-देशको लाँधघकर वे मिथिलाके समृद्धिसम्पन्न रमणीय उपवनके पास जा पहुँचे || २२ ।।

वह स्थान हाथी, घोड़े और रथोंसे भरा था। असंख्य नर-नारी वहाँ आते-जाते दिखायी देते थे। अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले शुकदेवजी वह सब देखकर भी नहीं देखते हुए-से वहाँसे आगे बढ़ गये || २३ ।।

मनसे जिज्ञासाका भार वहन करते और उस ज्ञेय वस्तुका ही चिन्तन करते हुए आत्माराम प्रसन्नचित्त शुकदेवने मिथिलामें प्रवेश किया || २४ ।।

नगरद्वारपर पहुँचकर वे नि:ःशंकभावसे उसके भीतर प्रवेश करने लगे। तब वहाँ द्वारपालोंने कठोर वाणीद्धारा उन्हें डाँटकर भीतर जानेसे रोक दिया || २५ ।।

शुकदेवजी वहीं खड़े हो गये; किंतु उनके मनमें किसी प्रकारका खेद या क्रोध नहीं हुआ। रास्तेकी थकावट और सूर्यकी धूपसे उन्हें संताप नहीं पहुँचा था। भूख और प्यास उन्हें कष्ट नहीं दे सकी थी ।। २६ ।।

वे उस धूपसे न तो संतप्त होते थे, न ग्लानिका अनुभव करते थे और न धूपसे हटकर छायामें ही जाते थे। उस समय उन द्वारपालोंमेंसे एकको अपने व्यवहारपर बड़ा दुःख हुआ || २७ ||

उसने मध्याह्नकालीन तेजस्वी सूर्यकी भाँति शुकदेवजीको चुपचाप खड़ा देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शास्त्रीय विधिके अनुसार उनकी यथोचित पूजा करके उन्हें राजभवनकी दूसरी कक्षामें पहुँचा दिया ।।

तात! वहाँ एक जगह बैठकर महातेजस्वी शुकदेवजी मोक्षका ही चिन्तन करने लगे। धूप हो या छाया, दोनोंमें उनकी समान दृष्टि थी || २९३ ।।

थोड़ी ही देरमें राजमन्त्री हाथ जोड़े हुए वहाँ पधारे और उन्हें अपने साथ महलकी तीसरी ड्योढ़ीमें ले गये ।।

वहाँ अन्तःपुरसे सटा हुआ एक बहुत सुन्दर विशाल बगीचा था, जो चैत्ररथ वनके समान मनोहर जान पड़ता था। उसमें पृथक्‌-पृथक्‌ जल-क्रीड़ाके लिये अनेक सुन्दर जलाशय बने हुए थे। वह रमणीय उपवन खिले हुए वृक्षोंसे सुशोभित होता था। उस उत्तम उद्यानका नाम था प्रमदावन। मन्त्रीने शुकदेवजीको उसके भीतर पहुँचा दिया || ३१-३२ 

वहाँ उनके लिये सुन्दर आसन बताकर राजमन्त्री पुनः प्रमदावनसे बाहर निकल आये। मन्त्रीके जाते ही पचास प्रमुख वारांगनाएँ शुकदेवजीके पास दौड़ी आयीं। उनकी वेश-भूषा बड़ी मनोहारिणी थी। वे सब-की-सब देखनेमें परम सुन्दरी और नवयुवती थीं। वे सुरम्य कटिप्रदेशसे सुशोभित थीं। उनके सुन्दर अंगोंपर लाल रंगकी महीन साड़ियाँ शोभा पा रही थीं। तपाये हुए सुवर्णके आभूषण उनका सौन्दर्य बढ़ा रहे थे। वे बातचीत करनेमें कुशल और नाचने-गानेकी कलामें बड़ी प्रवीण थीं। उनका रूप अप्सराओंके समान था, वे मन्द मुसकानके साथ बातें करतीं और दूसरोंके मनका भाव समझ लेती थीं। कामचर्यामें कुशल और सम्पूर्ण कलाओंका विशेष ज्ञान रखनेवाली थीं || ३३--३५ ३ ।।

उन्होंने पाद्य, अर्घ्य आदि निवेदन करके उत्तम विधिसे शुकदेवजीका पूजन किया और उन्हें समयानुकूल स्वादिष्ठ अन्न भोजन कराकर पूर्णतः तृप्त किया || ३६३ ।।

तात! भरतनन्दन! जब वे भोजन कर चुके, तब वे वारांगनाएँ उन्हें साथ लेकर अन्तःपुरके उस सुरम्य कानन--प्रमदावनकी सैर कराने और वहाँकी एक-एक वस्तुको दिखाने लगीं || ३७३६ ।।

उस समय वे हँसती, गाती तथा नाना प्रकारकी सुन्दर क्रीड़ाएँ करती थीं। मनके भावको समझनेवाली वे सुन्दरियाँ उन उदारचित्त शुकदेवजीकी सब प्रकारसे सेवा करने लगीं || ३८६ ।।

परंतु अरणिसम्भव शुकदेवजीका अन्तःकरण पूर्णतः: शुद्ध था। वे इन्द्रियों और क्रोधपर विजय पा चुके थे। उन्हें न तो किसी बातपर हर्ष होता था और न वे किसीपर क्रोध ही करते थे। उनके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था और वे सदा अपने कर्तव्यका पालन किया करते थे || ३९६ ।।

उन सुन्दरी रमणियोंने देवताओंके बैठने योग्य एक दिव्य पलंग, जिसमें रत्न जड़े हुए थे और जिसपर बहुमूल्य बिछौने बिछे थे, शुकदेवजीको सोनेके लिये दिया || ४० ई ।।

परंतु शुकदेवजीने पहले हाथ-पैर धोकर संध्योपासना की। उसके बाद पवित्र आसनपर बैठकर वे मोक्षतत्त्वका ही विचार करने लगे। रातके पहले पहरमें वे ध्यानस्थ होकर बैठे रहे। फिर रात्रिके मध्यभाग (दूसरे और तीसरे पहर) में प्रभावशाली शुकने यथोचित निद्राको स्वीकार किया || ४१-४२ ३ ।।

तदनन्तर जब दो घड़ी रात बाकी रह गयी, उस समय ब्रह्मवेलामें वे पुन: उठ गये और शौच-स्नान करनेके अनन्तर बुद्धिमान्‌ शुकदेव फिर परमात्माके ध्यानमें ही निमग्न हो गये। उस समय भी वे सुन्दरी स्त्रियाँ उन्हें घेरकर बैठी थीं || ४३-४४ ।।

भरतनन्दन! इस विधिसे अपनी मर्यादासे च्युत न होनेवाले व्यासनन्दन शुकने दिनका शेष भाग और समूची रात उस राजभवनमें रहकर व्यतीत की || ४५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुककी उत्पत्तिविषयक तीन सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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