सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ इक्कीसवें अध्याय के श्लोक 1-94 का हिन्दी अनुवाद)
“व्यासजीका अपने पुत्र शुकदेवको वैराग्य और धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! पूर्वकालमें व्यासपुत्र शुकदेवको किस प्रकार वैराग्य प्राप्त हुआ था? मैं यह सुनना चाहता हूँ। इस विषयमें मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है ।। १ ।।
कुरुनन्दन! इसके सिवा आप मुझे व्यक्त और अव्यक्त तत्त्वोंका बुद्धिद्वारा निश्चित किया हुआ स्वरूप बतलाइये तथा अजन्मा भगवान् नारायणका जो चरित्र है, उसे भी सुनानेकी कृपा करें ।। २ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! पुत्र शुकदेवको साधारण लोगोंकी भाँति आचरण करते और सर्वथा निर्भय विचरते देख पिता श्रीव्यासजीने उन्हें सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कराया और फिर यह उपदेश दिया ।। ३ ।।
व्यासजीने कहा--बेटा! तुम सदा धर्मका सेवन करते रहो और जितेन्द्रिय होकर कड़ीसे कड़ी सर्दी, गर्मी, भूख-प्यासको सहन करते हुए प्राणवायुपर विजय प्राप्त करो || ४ ।।
सत्य, सरलता, अक्रोध, दोषदर्शनका अभाव, इन्द्रिय-संयम, तप, अहिंसा और दया आदि धर्मोंका विधिपूर्वक पालन करो || ५ |।
सत्यपर डटे रहो तथा सब प्रकारकी वक्रता छोड़कर धर्ममें अनुराग करो। देवताओं और अतिथियोंका सत्कार करके जो अन्न बचे, उसीका प्राणरक्षाके लिये आस्वादन करो ।। ६ ।।
बेटा! यह शरीर जलके फेनकी तरह क्षणभंगुर है। इसमें जीव पक्षीकी तरह बसा हुआ है और यह प्रियजनोंका सहवास भी सदा रहनेवाला नहीं है। फिर भी तुम क्यों सोये पड़े हो? ।। ७ ।।
तुम्हारे शत्रु सर्ववा सावधान, जो हुए, सर्वथा उद्यत और तुम्हारे छिद्रोंको देखनेमें लगे हुए हैं; परंतु तुम अभी बालक हो, इसलिये समझ नहीं रहे हो । ८ ।।
तुम्हारी आयुके दिन गिने जा रहे हैं। आयु क्षीण होती जा रही है और जीवन मानो कहीं लिखा जा रहा है (समाप्त हो रहा है)। फिर तुम उठकर भागते क्यों नहीं हो? (शीघ्रतापूर्वक कर्तव्यपालनमें लग क्यों नहीं जाते हो?) ।। ९ ।।
अत्यन्त नास्तिक मनुष्य केवल इस लोकके स्वार्थको चाहते हुए शरीरमें मांस और रक्तको बढ़ाने-वाली चेष्टा ही करते रहते हैं। पारलौकिक कार्योंकी ओरसे तो वे सदा सोये ही रहते हैं || १० ।।
जो बुद्धिके व्यामोहमें डूबे हुए मनुष्य धर्मसे द्वेष करते हैं, वे सदा कुमार्गसे ही चलते हैं। उनकी तो बात ही क्या है, उनके अनुयायियोंको भी कष्ट भोगना पड़ता है ।। ११ ।।
इसलिये जो महान् धर्मबलसे सम्पन्न महात्मा पुरुष संतुष्ट और श्रुतिपरायण होकर सर्वदा धर्मपथपर ही आरूढ़ रहते हैं, तुम उन्हींकी सेवामें रहो और उन्हींसे अपना कर्तव्य पूछो || १२
उन धर्मदर्शी विद्वानोंका मत जानकर तुम अपनी श्रेष्ठ बुद्धिके द्वारा अपने कुपथगामी मनको काबूमें करो ।। १३ ।।
जिसकी केवल वर्तमान सुखपर ही दृष्टि रहती है, उस बुद्धिके द्वारा भावी परिणामको बहुत दूर जानकर जो निर्भय रहते और सब प्रकारके अभक्ष्य पदार्थोंको खाते रहते हैं, वे बुद्धिहीन मनुष्य इस कर्मभूमिके महत्त्वको नहीं देख पाते हैं ।। १४ ।।
तुम धर्मरूपी सीढ़ीको पाकर धीरे-धीरे उसपर चढ़ते जाओ। अभी तो तुम रेशमके कीड़ेकी तरह अपने-आपको वासनाओंके जालसे ही लपेटते जा रहे हो, तुम्हें चेत नहीं हो रहा है ।। १५ ।।
जो नास्तिक हो, धर्मकी मर्यादा भंग कर रहा हो और किनारेको तोड़फोड़कर गिरा देनेवाले नदीके महान् जल-प्रवाहकी भाँति स्थित हो, ऐसे मनुष्यको उखाड़े हुए बाँसकी तरह बिना किसी हिचकके त्याग दो || १६ ।।
काम, क्रोध, मृत्यु और जिसमें पाँच इन्द्रियरूपी जल भरा हुआ है, ऐसी विषयासक्तिरूपी नदीको तुम सात्विकी धृतिरूप नौकाका आश्रय ले पार कर लो और इस प्रकार जन्म-मृत्युरूपी दुर्गण संकटसे पार हो जाओ || १७ ।।
सारा संसार मृत्युके थपेड़े खाता हुआ वृद्धावस्थासे पीड़ित हो रहा है। ये रातें प्राणियोंकी आयुका अपहरण करके अपनेको सफल बनाती हुई बीत रही हैं। तुम धर्मरूपी नौकापर चढ़कर भवसागरसे पार हो जाओ ।।
मनुष्य खड़ा हो या सो रहा हो, मृत्यु निरन्तर उसे खोजती फिरती है। जब इस प्रकार तुम अकमस्मात् मृत्युके ग्रास बन जानेवाले हो, तब इस तरह निश्चिन्त एवं शान्त कैसे बैठे हो? ।। १९ ।।
मनुष्य भोगसामग्रियोंके संचयमें लगा ही रहता है और उनसे तृप्त भी नहीं होने पाता है कि भेड़के बच्चेको उठा ले जानेवाली बाघिनकी भाँति मौत उसे अपनी दाढ़में दबाकर चल देती है || २० ।।
यदि तुम्हें इस संसाररूपी अन्धकारमें प्रवेश करना है तो हाथमें उस धर्मबुद्धिमय महान् दीपकको यत्नपूर्वक धारण कर लो, जिसकी शिखा क्रमशः प्रज्वयलित हो रही हो || २१ ।।
बेटा! जीव अनेक प्रकारके शरीरोंमें जन्मता-मरता हुआ कभी इस मानवयोनिमें आकर ब्राह्मणका शरीर पाता है, अतः तुम ब्राह्मणोचित कर्तव्यका पालन करो ।।
ब्राह्मणका यह शरीर भोग भोगनेके लिये नहीं पैदा होता है। यह तो यहाँ क्लेश उठाकर तपस्या करने और मृत्युके पश्चात् अनुपम सुख भोगनेके लिये रचा गया है || २३ ।।
बहुत समयतक बड़ी भारी तपस्या करनेसे ब्राह्मणका शरीर मिलता है। उसे पाकर विषयानुरागमें फँसकर बरबाद नहीं करना चाहिये। अतः यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो कुशलप्रद कर्ममें संलग्न हो सदा स्वाध्याय, तपस्या और इन्द्रियसंयममें पूर्णतः तत्पर रहनेका प्रयत्न करो || २४ ।।
मनुष्योंका आयुरूप अश्व बड़े वेगसे दौड़ा जा रहा है। इसका स्वभाव अव्यक्त है। कला-काष्ठा आदि इसके शरीर हैं। इसका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है। क्षण, त्रुटि (चुटकी) और निमेष आदि इसके रोम हैं। ऋतुएँ मुख हैं। समान बलवाले शुक्ल और कृष्णपक्ष नेत्र हैं तथा महीने इसके विभिन्न अंग हैं। वह भयंकर वेगशाली अश्व यहाँकी किसी वस्तुकी अपेक्षा न रखकर निरन्तर अविराम गतिसे वेगपूर्वक भागा जा रहा है। उसे देखकर यदि तुम्हारी ज्ञानदृष्टि दूसरेके द्वारा चलानेपर चलनेवाली नहीं है; तो तुम्हारा मन धर्ममें ही लगना चाहिये। तुम दूसरे धर्मात्माओंपर भी दृष्टि डालो || २५-२६ ।।
जो लोग यहाँ धर्मसे विचलित हो स्वेच्छाचारमें लगे हुए हैं, दूसरोंको बुराभला कहते हुए सदा अनिष्टकारी अशुभ कर्मांमें ही लगे हुए हैं, वे मरनेके बाद यातनादेह पाकर अपने अनेक पापकर्मोंके कारण अत्यन्त क्लेश भोगते हैं || २७ ।।
जो राजा सर्वदा धर्मपरायण रहकर उत्तम और अधम प्रजाका यथायोग्य विचारपूर्वक पालन करता है, वह पुण्यात्माओंके लोकोंको प्राप्त होता है। यदि वह स्वयं भी नाना प्रकारके शुभ कर्मोंका आचरण करता है तो उसके फलस्वरूप उसे अप्राप्त एवं निर्दोष सुख प्राप्त होता है ।। २८ ।।
परंतु जो गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन करते हैं, उनके मरणके पश्चात् नरकमें स्थित भयानक शरीरवाले कुत्ते, लौहमुख पक्षी, कौए-गीध आदि पक्षियोंके समुदाय तथा रक्त पीनेवाले कीट उनके यातना-शरीरपर आक्रमण करके उसे नोचते और काटते हैं | २९ ।।
जो मनुष्य मनचाही करनेके कारण स्वायम्भुवमनुकी बाँधी हुई धर्मकी दसप्रकारकी मर्यादाओंको तोड़ता है, वह पापात्मा पितृलोकके असिपत्रवनमें जाकर वहाँ अत्यन्त दुःख भोगता रहता है ।। ३० ।।
जो पुरुष अत्यन्त लोभी, असत्यसे प्रेम करनेवाला और सर्वदा कपटभरी बातें बनानेवाला और ठगाईमें रत है तथा जो तरह-तरहके साधनोंसे दूसरोंको दुःख देता है, वह पापात्मा घोर नरकमें पड़कर अत्यन्त दुःख भोगता है ।। ३१ ||
उसे अत्यन्त उष्ण महानदी वैतरणीमें गोता लगाना पड़ता है। असिपत्रवनमें उसका अंग-अंग छिजन्न-भिन्न हो जाता है और परशुवनमें उसे शयन करना पड़ता है। इस प्रकार महानरकमें पड़कर वह अत्यन्त आतुर हो उठता है और विवश होकर उसीमें निवास करता है || ३२ ।।
तुम ब्रह्मलोक आदि बड़े-बड़े स्थानोंकी बातें तो बनाते हो, परंतु परमपदपर तुम्हारी दृष्टि नहीं है। भविष्यमें जो मृत्युकी परिचारिका वृद्धावस्था आनेवाली है, उसका तुम्हें पता ही नहीं है ।। ३३ ।।
वत्स! चुपचाप क्यों बैठे हो? जल्दीसे आगे बढ़ो। तुम्हारे ऊपर हृदयको अत्यन्त मथ डालनेवाला, भयंकर एवं महान् भय उठ खड़ा हुआ है; अतः परमानन्दकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करो ।। ३४ ।।
तुम्हें मरनेपर यमराजकी आज्ञासे भयानक यमदूतोंद्वारा उनके सामने उपस्थित किया जाय, इसके पहले ही सरलतारूप धर्मके सम्पादनके लिये प्रयत्न करो ।। ३५ ।।
यमराज सबके स्वामी हैं। वे किसीका दुःख-दर्द नहीं समझते हैं। वे मूल और बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारे प्राण हर लेंगे। उन्हें रोकनेवाला कोई नहीं है। वह समय आनेके पहले ही तुम अपनी रक्षाके लिये प्रबन्ध कर लो ।। ३६ ।।
जिस समय यमराजके आगे-आगे चलनेवाला प्रचण्ड कालरूपी पवन चल पड़ेगा, उस समय वह अकेले तुम्हींको वहाँ ले जायगा; अतः तुम पहलेसे ही परलोकमें सुख देनेवाले धर्मका आचरण करो ।। ३७ ।।
पूर्वजन्ममें तुम्हारे सामने जो प्राणनणाशक पवन चल रहा था, आज वह कहाँ है? अब भी जब मृत्युरूप महान् भय उपस्थित होगा, तब तुम्हें सम्पूर्ण दिशाएँ घूमती दिखायी देंगी; अत: पहलेसे ही सावधान हो जाओ ।। ३८ ।।
बेटा! जब तुम इस शरीरको छोड़कर चलने लगोगे, उस समय व्याकुलताके कारण तुम्हारी श्रवणशक्ति भी नष्ट हो जायगी। इसलिये तुम सुदृढ़ समाधि प्राप्त कर लो ।। ३९ ||
तुम पहले असावधानतावश जो अनुचितरूपसे शुभाशुभ कर्म कर चुके हो, उसे स्मरण करके उनके फलभोगसे संतप्त होनेके पहले ही अपने लिये केवल ज्ञानका भण्डार भर लो || ४० ।।
देखो, बल, अंग और रूपका विनाश करनेवाली वृद्धावस्था एक दिन तुम्हारे शरीरको जर्जर कर डालेगी, उसके पहले ही तुम अपने लिये ज्ञानका भण्डार भर लो ।। ४१ ।।
रोग जिसका सारथि है, वह काल हठात् तुम्हारे शरीरको विदीर्ण कर डालेगा, इसलिये इस जीवनका नाश होनेसे पूर्व ही तुम महान् तपका अनुष्ठान कर लो ।। ४२ ।।
इस मानव-शरीरमें रहनेवाले काम-क्रोध आदि भयंकर व्याप्र तुमपर चारों ओरसे आक्रमण कर रहे हैं, इसलिये पहलेसे ही तुम पुण्यसंचयके लिये प्रयत्न करो ।।
मरनेके समय तुम्हें पहले घोर अन्धकार दिखलायी देगा। फिर पर्वतके शिखरपर सुनहरे वृक्ष दृष्टिगोचर होंगे। वह समय आनेसे पहले ही अपने कल्याणके लिये तुम शीघ्र प्रयत्न करो || ४४ ।।
इस संसारमें दुष्ट पुरुषोंक संग तथा ऊपरसे मित्रभाव एवं भीतरसे शत्रुता रखनेवाले लोग दर्शनमात्रसे तुम्हें कर्तव्यपथसे विचलित कर देंगे, इसलिये तुम पहलेसे ही परम उत्तम पुण्यसंचयके लिये प्रयत्न करो ।।
जिस धनको न तो राजासे भय है और न चोरसे ही तथा जो मर जानेपर भी जीवका साथ नहीं छोड़ता है, उस धर्मरूपी धनका उपार्जन करो || ४६ ।।
अपने कर्मोके अनुसार प्राप्त हुए उस धनको परलोकमें परस्पर बाँटना नहीं पड़ता है। वहाँ तो जो जिसकी निजी सम्पत्ति है, उसे ही वह भोगता है ।। ४७ ।।
बेटा! जिससे परलोकमें भी जीवन-निर्वाह हो सकता है तथा जो अविनाशी और अटल धन है, उसीका दान करो एवं उसीका स्वयं भी उपार्जन करते रहो ।। ४८ ।।
बेटा! घरपर आये हुए किसी समादरणीय अतिथिके लिये जितनी देरमें यावक (घृत और खाँड़ मिलाकर तैयार किया हुआ जौके आटेका पूआ) पकाया जाता है, उसके पकनेसे भी पहले तुम्हारी मृत्यु हो सकती है; अतः तुम ज्ञानरूपी धनके उपार्जनके लिये शीघ्रता करो ।। ४९ ।।
जीव जब अकेला ही परलोकके पथपर प्रस्थान करता है, उस संकटके समय माता, पुत्र, भाई-बन्धु तथा अन्यान्य प्रशंसित प्रियजन भी उसके साथ नहीं जाते हैं || ५० ।।
पुत्र! परलोकमें जाते समय अपना पहलेका किया हुआ जो शुभाशुभ कर्म होता है, केवल वही साथ रहता है ।। ५१ ।।
मनुष्यके द्वारा अच्छे-बुरे सभी तरहके कर्म करके जो सुवर्ण और रत्नोंके ढेर इकट्ठे किये जाते हैं, वे भी उस मनुष्यके शरीरका नाश होनेपर उसके किसी काम नहीं आते हैं (क्योंकि वे सब यहीं रह जाते हैं) || ५२ ।।
परलोककी यात्रा करते समय तुम्हारे किये और न किये हुए कर्मका साक्षी आत्माके समान मनुष्योंमें दूसरा कोई नहीं है ।। ५३ ।।
परलोकमें जाते समय इस मनुष्य-शरीरका अभाव हो जाता है अर्थात् यह यहीं छूट जाता है। जीव सूक्ष्म शरीरसे लोकान्तरमें प्रवेश करके अपने बुद्धिरूपी नेत्रसे वहाँ सब कुछ देखता है ।। ५४ ।।
इस लोकमें अग्नि, वायु और सूर्य--ये तीन देवता जीवके शरीरका आश्रय करके रहते हैं। वे ही उसके धर्माचरणको देखनेवाले हैं और वे ही परलोकमें उसके साक्षी होते हैं || ५५ ।।
दिन सब पदार्थोंको प्रकाशित करता है और रात्रि उन्हें छिपा लेती है। ये सर्वत्र व्याप्त हैं और सभी वस्तुओंका स्पर्श करते हैं, अतः तुम इनकी वेलामें सर्वदा अपने धर्मका ही पालन करो || ५६ |।
परलोकके मार्गपर बहुत-से लुटेरे और बटमार रहते हैं तथा विकराल एवं भयंकर डाँस एवं मक्खियाँ होती हैं। वहाँ केवल अपना किया हुआ कर्म ही साथ जाता है; अतः तुम्हें अपने सत्कर्मकी ही रक्षा करनी चाहिये || ५७ ।।
वहाँ अपने कर्मके अनुसार जो फल प्राप्त होता है, उसका किसीके साथ बँटवारा नहीं होता। वहाँ तो अपने किये हुए कर्मोका ही फल भोगना होता है ।। ५८ ।।
जैसे महर्षियोंके साथ झुंड-करी-झुंड अप्सराएँ होती हैं और वे सब पुण्यके फलस्वरूप सुख भोगते हैं, उसी प्रकार वहाँ पुण्यात्मा लोग विमानोंपर चढ़कर इच्छानुसार विचरते और पुण्यकर्मजनित सुख भोगते हैं ।। ५९ ।।
निष्पाप पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा इस लोकमें जो शुभ कर्म सम्पादित होता है, जन्मान्तरमें विशुद्ध योनिमें जन्म लेकर उसका वैसा ही फल पाते हैं ।। ६० ।।
गृहस्थ-धर्मकी मर्यादाका पालन करनेवाले लोग प्रजापति, बृहस्पति अथवा इन्द्रके लोकमें उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं || ६१ ।।
वत्स! मैं तुम्हारे सामने हजारों तथा उससे भी अधिक बार यह बात जोर देकर कह सकता हूँ कि सर्वशक्तिमान् तथा सबको पवित्र करनेवाले धर्मने, जिसकी बुद्धिपर मोह नहीं छा गया है, उस धर्मात्मा पुरुषको सदा ही पुण्यलोकमें पहुँचाया है || ६२ ।।
बेटा! तुम्हारी आयुके चौबीस वर्ष बीत गये। अब निश्चय ही तुम पचीस सालके हो गये; अतः धर्मका संचय करो। तुम्हारी सारी आयु यों ही बीती जा रही है || ६३ ।।
देखो, तुम्हारा जो प्रमाद है, उसमें निवास करनेवाला काल तुम्हारी इन्द्रियोंके समुदायको मुखरहित (भोगशक्तिसे हीन) कर रहा है। इनके असमर्थ हो जानेके पहले ही तुम खड़े हो जाओ और अपने शरीरसे धर्मका पालन करनेके लिये जल्दी करो ।। ६४ ।।
जिस समय तुम शरीर छोड़कर परलोककी राह लोगे, उस समय तुम्हीं पीछे रहोगे और तुम्हीं आगे चलोगे--तुम्हारे सिवा दूसरा कोई वहाँ आगे-पीछे चलनेवाला न होगा। ऐसी दशामें किसी अपने या पराये व्यक्तिसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है? ।। ६५ ।।
भय उपस्थित होनेपर अकेले यात्रा करनेवाले सत्पुरुषोंके लिये परलोकमें जो हितकर होता है, उस धर्म या ज्ञानकी निधिको शुद्धभावसे संचित करो || ६६ |।
सर्वसमर्थ काल किसीके प्रति भी स्नेह नहीं करता। वह कूल और मूल अर्थात् आदि-अन्तसहित समस्त बन्धु-बान्धवोंको हर ले जाता है। उसको रोकनेवाले कोई नहीं हैं; इसलिये तुम धर्मका संचय करो || ६७ ।।
बेटा! मैंने अपने शास्त्रज्ञान और अनुमानके द्वारा इस समय तुम्हें जिस ज्ञानका उपदेश किया है, तुम उसीके अनुसार आचरण करो ।। ६८ ।।
जो पुरुष अपने सत्कर्मोंद्वारा धर्मको धारण करता है और जिस किसीको भी निष्कामभावसे दान देता है, वह अकेला ही मोहरहित बुद्धिसे प्राप्त होनेवाले गुणोंसे संयुक्त होता है ।। ६९ ।।
जो समस्त शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करता और तदनुसार शुभ कर्मोंके अनुष्ठानमें लगा रहता है, उसीके लिये इस ज्ञानका उपदेश किया गया है; क्योंकि कृतज्ञ पुरुषको जो भी उपदेश दिया जाता है, वही सफल होता है || ७० ।।
मनुष्य जब गाँवमें रहकर वहींके पदार्थोंसे प्रेम करने लगता है, वह उसे बाँधनेवाली रस्सी ही है। पुण्यात्मा लोग इसे काटकर उत्तम लोकोंमें चले जाते हैं, परंतु पापात्मा पुरुष इसे नहीं काट पाते हैं || ७१ ।।
बेटा! जब तुम्हें एक दिन मरना ही है, तब धन, बन्धु और पुत्र आदिसे तुम्हें क्या लेना है; अतः तुम हृदयरूपी गुफामें छिपे हुए आत्मतत्त्वका अनुसंधान करो। सोचो तो सही; आज तुम्हारे सारे पूर्वज--पितामह कहाँ चले गये? ।। ७२ ।।
जो काम कल करना हो, उसे आज ही कर लेना चाहिये और जो दोपहरबाद करना हो, उसे पहले ही पहरमें पूरा कर डालना चाहिये; क्योंकि मौत यह नहीं देखती कि इसका काम पूरा हुआ है या नहीं ।। ७३ ।।
मृत्युके बाद भाई-बन्धु, कुटुम्बी और सुहृद् श्मशान-भूमितक पीछे-पीछे जाते हैं और मृत पुरुषके शरीरको चिताकी आगमें डालकर लौट आते हैं ।। ७४ ।।
अतः तुम परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके इच्छुक हो आलस्य छोड़कर नास्तिक, निर्दय तथा पापबुद्धि मनुष्योंको बिना किसी हिचकके बायें कर दो--कभी भूलकर भी उनका साथ न दो ।। ७५ ।।
इस प्रकार जब सारा संसार कालसे आहत और पीड़ित हो रहा है, तब तुम महान् धैर्यका आश्रय ले सम्पूर्ण हृदयसे धर्मका आचरण करो ।। ७६ ।।
जो मनुष्य परमात्माके साक्षात्कारके इस साधनको भलीभाँति जानता है, वह इस लोकमें स्वधर्मका ठीक-ठीक पालन करके परलोकमें सुख भोगता है | ७७ |।
जो ऐसा जानते हैं कि शरीरका नाश हो जानेपर भी अपनी मृत्यु नहीं होती है और शिष्ट पुरुषोंद्वारा पालित धर्म-मार्गपर चलनेवालोंका कभी नाश नहीं होता है, वे ही बुद्धिमान हैं। जो इन सब बातोंको सोच-विचारकर धर्मको बढ़ाता रहता है, वह विद्वान् है। जो धर्मसे गिर जाता है, वही मोहग्रस्त अथवा मूढ़ है ।।
कर्मके मार्गपर प्रयोग (आचरण) में लाये गये जो अपने शुभाशुभ कर्म हैं, उनका फल कर्ताको उस कर्मके अनुसार प्राप्त होता है। नीच कर्म करनेवाला नरकमें पड़ता है और धर्माचरणमें पारड्गत पुरुष स्वर्गलोकको जाता है || ७९ ।।
यह दुर्लभ मानव-शरीर स्वर्गलोकमें पहुँचनेके लिये सीढ़ीके समान है। इसे पाकर अपने-आपको इस प्रकार धर्ममें एकाग्र करे, जिससे फिर उसे स्वर्गसे नीचे न गिरना पड़े ।। ८० ।।
स्वर्गलोकके मार्गका अनुसरण करनेवाली जिसकी बुद्धि धर्मका कभी उल्लंघन नहीं करती, उसको पुण्यात्मा कहते हैं। वह पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके लिये कदापि शोचनीय नहीं है ।। ८१ ।।
जिसकी बुद्धि दूषित न होकर दृढ़ निश्चयका सहारा लेती है, उसने स्वर्गमें अपने लिये स्थान बना लिया है। उसे नरकका महान् भय नहीं प्राप्त होता ।। ८२ ।।
जो लोग तपोवनोंमें पैदा हुए और वहीं मृत्युको प्राप्त हो गये, उन्हें थोड़े-से ही धर्मकी प्राप्ति होती है; क्योंकि वे काम-भोगोंको जानते ही नहीं थे (अतः उन्हें त्यागनेके लिये उनको कष्ट सहन नहीं करना पड़ता) ।।
जो भोगोंका परित्याग करके तपोवनमें जाकर शरीरसे तपस्या करता है, उसके लिये कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो प्राप्त न हो। वही फल मुझे अधिक जान पड़ता है।।
हजारों माता-पिता और सैकड़ों स्त्री-पुत्र पहले जन्मोंमें हो चुके हैं और भविष्यमें होंगे। वे हममेंसे किसके हैं और हम उनमेंसे किसके हैं? || ८५ ।।
मैं अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं दूसरे किसीका हूँ। मैं ऐसे किसी पुरुषको नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा ऐसा भी कोई नहीं दिखायी देता, जो मेरा हो || ८६ ।।
न उनका तुम कुछ कर सकते हो और न वे तुम्हारे किसी काम आ सकते हैं। वे अपने कर्मोके साथ चले गये और तुम भी चले जाओगे ।। ८७ ।।
इस संसारमें जो धनवान हैं, उन्हींके स््वजन उनके साथ स्वजनोचित बर्ताव करते हैं; दरिद्रोंके स््वजन तो उनके जीते-जी ही उन्हें छोड़कर उनकी आँखसे ओझल हो जाते हैं ।। ८८ ।।
मनुष्य अपनी स्त्रीके लिये अशुभ कर्मका संचय करता है, फिर उसके फलरूपमें इहलोक और परलोकमें भी कष्ट उठाता है ।। ८९ |।
मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही इस जीव-जगत््को छिजन्न-भिन्न हुआ देखता है, अत: बेटा! मैंने जो कुछ कहा है, वह सब काममें लाओ ।। ९० ।।
इहलोक कर्मभूमि है--ऐसा समझकर इसकी ओर देखते हुए दिव्य लोकोंकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको शुभ कर्मोंका ही आचरण करना चाहिये ।। ९१ ।।
यह कालरूपी रसोइया बलपूर्वक सब जीवोंको पका रहा है। मास और ऋतु नामक करछुलसे वह जीवोंको उलटता-पलटता रहता है। सूर्य उसके लिये आगका काम देते हैं और कर्मफलके साक्षी रात और दिन उसके लिये ईंधन बने हुए हैं || ९२ ।।
उस धनसे क्या लाभ, जिसे मनुष्य न तो किसीको दे सकता और न अपने उपभोगमें ही ला सकता है? उस बलसे क्या लाभ, जिससे शत्रुओंको बाधित न किया जा सके? उस शास्त्रज्ञानसे क्या लाभ, जिसके द्वारा मनुष्य धर्माचरण न कर सके? और उस जीवात्मासे क्या लाभ, जो न तो जितेन्द्रिय है और न मनको ही वशमें रख सकता है? ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! व्यासजीके कहे हुए ये हितकर वचन सुनकर शुकदेवजी अपने पिताको छोड़कर मोक्षतत्त्वके उपदेशक गुरुके पास चले गये ।। ९४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पावकाध्ययन नामक तीन सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- मनुजीने धर्मके दस भेद ये बताये हैं-
- धृति: क्षमा दमो5स्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।। 'धृति, क्षमा, मनोनिग्रह, पवित्रता, इन्द्रियसंयम, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध--ये धर्मके दस लक्षण हैं।
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