सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय व तीन सौ अट्ठारहवाँ अध्याय (From the 319 chapter and the 320 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ उन्नीसवें अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

“जरा-मृत्युका उल्लंघन करनेके विषयमें पजचशिख और राजा जनकका संवाद”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! महान्‌ ऐश्वर्य या प्रचुर धन अथवा बहुत बड़ी आयु पाकर मनुष्य किस तरह मृत्युका उल्लंघन कर सकता है? ।। १ ।।

वह गुरुतर तपस्या करके, महान्‌ कर्मोंका अनुष्ठान करके, वेद-शास्त्रोंका अध्ययन करके अथवा नाना प्रकारके रसायनोंका प्रयोग करके किन उपायोंद्वारा जरा और मृत्युको प्राप्त नहीं होता है? ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष संन्यासी पंचशिख तथा राजा जनकके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ३ ।।

एक समयकी बात है, विदेहदेशके राजा जनकने वेद-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षि पंचशिखसे, जिनके धर्म और अर्थ-विषयक संदेह नष्ट हो गये थे, इस प्रकार प्रश्न किया-- ।।

भगवन्‌! किस आचार, तपस्या, बुद्धि, कर्म अथवा शास्त्रज्ञानके द्वारा मनुष्य जरा और मृत्युको लाँध सकता है?” ।। ५ ।।

उनके इस प्रकार पूछनेपर अपरोक्ष ज्ञानसे सम्पन्न महर्षि पंचशिखने विदेहगाजको इस प्रकार उत्तर दिया--“जरा और मृत्युकी निवृत्ति नहीं होती है, परंतु ऐसा भी नहीं है कि किसी प्रकार उनकी निवृत्ति हो ही नहीं सकती (धन और ऐश्चर्य आदिसे उनकी निवृत्ति नहीं होती, परंतु ज्ञानसे तो पुनर्जन्मकी भी निवृत्ति हो जाती है; फिर जरा और मृत्युकी तो बात ही क्या?) ।। ६ ।।

दिन, रात और महीनोंके जो चक्र चल रहे हैं, वे किसीके टाले नहीं टलते हैं। इसी प्रकार जन्म, मृत्यु और जरा आदिके क्रम प्रायः चलते ही रहते हैं। जिसके जीवनका कुछ ठिकाना नहीं, वह मरणधर्मा मानव कभी दीर्घ-कालके पश्चात्‌ नित्यपथ (मोक्षमार्ग) का आश्रय लेता है ।।

काल समस्त प्राणियोंका उच्छेद कर डालता है। जैसे जलका प्रवाह किसी वस्तुको बहाये लिये जाता है, उसी प्रकार काल सदा ही प्राणियोंको अपने वेगसे बहाया करता है। यह काल बिना नौकाके समुद्रकी भाँति लहरा रहा है। जरा और मृत्यु विशाल ग्राहका रूप धारण करके उसमें बैठे हुए हैं। उस काल-सागरमें बहते और डूबते हुए जीवको कोई भी बचा नहीं सकता ।। ८३ ।।

यहाँ इस जीवका कोई भी अपना नहीं है और वह भी किसीका अपना नहीं है। रास्तेमें मिले हुए राहगीरोंके समान यहाँ पत्नी तथा अन्य बन्धु-बान्धवोंका साथ हो जाता है, परंतु यहाँ पहले कभी किसीने किसीके साथ चिरकालतक सहवासका सुख नहीं उठाया है ।।

जैसे गर्जते हुए बादलोंको हवा बारंबार उड़ाकर छिजन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार काल यहाँ जन्म लेनेवाले प्राणियोंको उनके रोने-चिल्लानेपर भी विनाशकी आगमें झोंक देता है || ११ |।

कोई बलवान हों या दुर्बल, बड़ा हों या छोटा, उन सब प्राणियोंको बुढ़ापा और मौत व्याप्रकी भाँति खा जाती है || १२ ।।

इस प्रकार जब सभी प्राणी विनाशशील ही हैं, तब नित्य-स्वरूप जीवात्मा उन प्राणियोंके लिये जन्म लेनेपर हर्ष किसलिये माने और मर जानेपर शोक क्‍यों करे? ।। १३ ।।

मैं कौन हूँ? कहाँसे आया हूँ? कहाँ जाऊँगा? किसके साथ मेरा क्‍या सम्बन्ध है? किस स्थानमें स्थित होकर कहाँ फिर जन्म लूँगा? इन सब बातोंको लेकर तुम किसलिये क्या शोक कर रहे हो? ।। १४ ।।

जो शुभ और अशुभ कर्म करता है, उसके सिवा दूसरा कौन ऐसा है जो उन कर्मोंके फलस्वरूप स्वर्ग और नरकका दर्शन एवं उपभोग करेगा; अत: शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन न करते हुए सब लोगोंको दान और यज्ञ आदि सत्कर्म करते रहना चाहिये ।। १५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पंचशिख और जनकका संवादविषयक तीन सौ उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बीसवें अध्याय के श्लोक 1-193 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा जनककी परीक्षा करनेके लिये आयी हुई सुलभाका उनके शरीरमें प्रवेश करना, राजा जनकका उसपर दोषारोपण करना एवं सुलभाका युक्तियोंद्वारा निराकरण करते हुए राजा जनकको अज्ञानी बताना”

युधिष्ठिरने पूछा--कुरुकुलराजर्षिशिरोमणि! जहाँ बुद्धिका लय हो जाता है, उस मोक्षतत्त्वको गृहस्थाश्रमका त्याग बिना किये कौन पुरुष प्राप्त हुआ है, यह मुझे बताइये ।। १ ।।

पितामह! यह मनुष्यशरीर जिस प्रकार स्थूल शरीरका त्याग करता है और जिस प्रकार स्थूल शरीरका आत्मा सूक्ष्म शरीरका त्याग करता है अर्थात्‌ स्थूल और सूक्ष्म--इन दोनों शरीरोंके अभिमानसे जिस प्रकार रहित हो सकता है एवं उनके त्यागका जो स्वरूप है और जो मोक्षका तत्त्व है, वह मुझे बताइये ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन! इस विषयमें जानकार मनुष्य जनक और सुलभाके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ३ ।।

प्राचीन कालमें मिथिलापुरीके कोई एक राजा जनक हो गये हैं, जो धर्मध्वज नामसे प्रसिद्ध थे। उन्हें (गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी) संन्यासका जो सम्यगूज्ञानरूप फल है, वह प्राप्त हो गया था ।। ४ ।।

उन्होंने वेदमें, मोक्षशास्त्रमें तथा अपने शास्त्र (दण्डनीति)-में भी बड़ा परिश्रम किया था। वे इन्द्रियोंको एकाग्र करके इस वसुन्धराका शासन करते थे ।। ५ ।।

नरेश्वर! वेदोंके ज्ञाता विद्वान्‌ पुरुष उनकी उस साधुवृत्तिका समाचार सुनकर उन्हींके समान सज्जन होनेकी इच्छा करते थे ।। ६ ।।

वह धर्मप्रधान युगका समय था। उन दिनों सुलभा नामवाली एक संन्यासिनी योगधर्मके अनुष्ठानद्वारा सिद्धि प्राप्त करके अकेली ही इस पृथ्वीपर विचरण करती थी ।। ७ ।।

इस सम्पूर्ण जगत्‌में घूमती हुई सुलभाने यत्र-तत्र अनेक स्थानोंमें त्रिदण्डी संन्यासियोंके मुखसे मोक्षतत्त्वकी जानकारीके विषयमें मिथिलापति राजा जनककी प्रशंसा सुनी ।। ८ ।।

उनके द्वारा कही जानेवाली अत्यन्त सूक्ष्म परब्रह्म-विषयक वार्ता दूसरोंके मुखसे सुनकर सुलभाके मनमें यह संदेह हुआ कि पता नहीं जनकके सम्बन्धमें जो बातें सुनी जाती हैं, वे सत्य हैं या नहीं। यह संशय उत्पन्न होनेपर उसके हृदयमें राजा जनकके दर्शनका संकल्प उदित हुआ ।। ९ ।।

उसने योगशक्तिसे अपना पहला शरीर छोड़कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण कर लिया। अब उसका प्रत्येक अंग अनिन्द्य सौन्दर्यसे प्रकाशित होने लगा। सुन्दर भौंहोंवाली वह कमलनयनी बाला बाणोंके समान तीव्र गतिसे चलकर पलभरमें विदेहदेशकी राजधानी मिथिलामें जा पहुँची || १०-११ ।।

प्रचुर जनसमुदायसे भरी हुई उस रमणीय मिथिलानगरीमें पहुँचकर संन्यासिनी सुलभाने भिक्षा लेनेके बहाने मिथिलानरेशका दर्शन किया ।। १२ ।।

उसके परम सुकुमार शरीर और सौन्दर्यको देखकर राजा जनक आश्वर्यसे चकित हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे, “यह कौन है, किसकी है अथवा कहाँसे आयी है?” ।। १३ ||

तदनन्तर उसका स्वागत करके राजाने उसे सुन्दर आसन समर्पित किया और पैर धुलाकर उसका यथोचित पूजन करनेके पश्चात्‌ उत्तमोत्तम अन्न देकर उसे तृप्त किया ।। १४ ।।

भोजन करके संतुष्ट हुई संन्यासिनी सुलभाने सम्पूर्ण भाष्यवेत्ता विद्वानोंके बीचमें मन्त्रियोंसे घिरकर बैठे हुए राजा जनकसे कुछ प्रश्न करनेका विचार किया ।। १५ ।।

सुलभा मोक्षधर्मके विषयमें राजासे कुछ पूछना चाहती थी। उसके मनमें यह संदेह था कि राजा जनक जीवन्मुक्त हैं या नहीं। वह योगशक्तियोंकी जानकार तो थी ही, अपनी सूक्ष्म बुद्धिद्वारा राजाकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो गयी || १६ ।।

राजा जनकसे प्रश्न करनेके लिये उद्यत हो उसने अपने नेत्रोंकी किरणोंद्वारा उनके नेत्रोंकी किरणोंको संयत करके योगबलसे उनके चित्तको बाँधकर उन्हें वशमें कर लिया ।। १७ |।

नृपश्रेष्ठ॒ तब राजा जनकने सुलभाके अभिप्रायको जानकर उसका आदर करते हुए मुस्कराकर अपने भावद्वारा उसके भावको ग्रहण कर लिया ।। १८ ।।

फिर छत्र आदि राजचिह्नोंसे रहित हुए राजा जनक और त्रिदण्डरूप संन्यास-चिह्नसे मुक्त हुई सुलभाका एक ही शरीरमें रहकर जो संवाद हुआ था, उसे सुनो ।। १९ ।।

जनकने पूछा--भगवति! आपको यह संन्यासकी दीक्षा कहाँसे प्राप्त हुई है, आप कहाँ जायँगी? किसकी हैं और कहाँसे यहाँ आपका शुभागमन हुआ है? ये सब बातें राजा जनकने सुलभासे पूछीं || २० ।।

वे बोले, किसीसे पूछे बिना उसके शास्त्रज्ञान, अवस्था और जातिके विषयमें सच्ची बात नहीं मालूम होती; अतः मेरे साथ जो तुम्हारा समागम हुआ है, इस अवसरपर इन सब विषयोंकी जानकारीके लिये यथार्थ उत्तर जानना आवश्यक है ।। २१ ।।

छत्र आदि जो विशेष राजोचित चिह्न हैं, उन्हें इस समय मैं त्याग चुका हूँ; अतः अब आप मुझे यथार्थरूपसे जान लें। मैं आपका सम्मान करना चाहता हूँ; क्योंकि आप मुझे सम्मानके योग्य जान पड़ती हैं || २२ ।।

मैंने पूर्वकालमें सर्वश्रेष्ठ मोक्षविषयक ज्ञान जिनसे प्राप्त किया था, जिसका उनके सिवा दूसरा कोई प्रतिपादन करनेवाला नहीं है, उस ज्ञान और ज्ञानदाता गुरुका भी परिचय आप मुझसे सुनो ।। २३ ।।

पराशरगोत्री संन्यास-धर्मावलम्बी वृद्ध महात्मा पंचशिख मेरे गुरु हैं। मैं उनका परम प्रिय शिष्य हूँ ।।

सांख्यज्ञान, योगविद्या तथा राजधर्म--इन तीन प्रकारके मोक्षधर्ममें मुझे गन्तव्य मार्ग गुरुदेवसे प्राप्त हो चुका है। इन विषयोंके मेरे सारे संशय दूर हो गये हैं ।।

पहलेकी बात है, वे आचार्यचरण शास्त्रोक्त मार्गसे चलते हुए घूमते-घामते इधर आ निकले और वर्षा-ऋतुके चार महीने मेरे यहाँ सुखपूर्वक रहे || २६ ।।

वे सांख्यशास्त्रके प्रमुख विद्वान्‌ हैं और सारा सिद्धान्त उन्हें यथावत्‌ रूपसे प्रत्यक्षकी भाँति ठीक-ठीक ज्ञात है। उन्होंने मुझे त्रिविध मोक्षधर्म श्रवण कराया है, परंतु राज्यसे दूर हटनेकी आज्ञा नहीं दी है ।। २७ ।।

इस प्रकार उपदेश पाकर मैं विषयोंकी आसक्तिसे रहित हो मुक्तिविषयक तीन प्रकारकी समस्त वृत्तियोंका आचरण करता हूँ और अकेला ही परमपदमें स्थित हूँ ।।

वैराग्य ही इस मुक्तिका प्रधान कारण है और ज्ञानसे ही वह वैराग्य प्राप्त होता है, जिससे मनुष्य मुक्त हो जाता है || २९ ।।

मनुष्य ज्ञानके द्वारा मुक्ति पानेके लिये यत्न करता है। उस यत्नसे महान्‌ आत्मज्ञानकी प्राप्ति होती है। वह महान्‌ आत्मज्ञान ही सुख-दुःख आदि द्वद्धोंसे छुटकारा दिलानेका साधन है, वही सिद्धि है, जो काल (मृत्यु)-को भी लाँघ जानेवाली है ।। ३० ।।

मेरा मोह दूर हो गया है। मैं समस्त संसर्गोंका त्याग कर चुका हूँ; इसलिये मैंने इस गृहस्थधर्ममें रहते हुए ही बुद्धिकी परम निर्द्धन्द्ता प्राप्त कर ली है ।। ३१ ।।

जैसे जिस खेतको जोतकर खूब मुलायम बना दिया गया हो और यथासमय उसे पानीसे सींचा गया हो, वही बोये हुए बीजमें अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार मनुष्योंका शुभ-अशुभ कर्म ही पुनर्जन्मका उत्पादन करता है ।। ३२ ।।

जैसे मिट्टीके खपरेमें या और किसी भी बर्तनमें भूना गया बीज बीज न रह जानेके कारण अंकुर उगाने योग्य खेतमें पड़कर भी नहीं जमता है, उसी प्रकार मेरे संन्यासी गुरु भगवान्‌ पंचशिखने मुझे जो ज्ञान प्रदान किया है, वह निर्बीज है। इसलिये विषयोंके क्षेत्रमें अंकुरित नहीं होता है | ३३-३४ ।।

मेरी बुद्धि किसी अनर्थमें अथवा भोगोंके संग्रहमें भी आसक्त नहीं होती है। स्त्री आदिके विषयमें जो अनुराग और शत्रु आदिके विषयमें जो क्रोध होता है, वह व्यर्थ होनेके कारण उसकी ओर मेरी बुद्धिकी प्रवृत्ति नहीं होती है ।। ३५ ।।

जो मेरी दाहिनी बाँहपर चन्दन छिड़के और जो बायीं बाँहको बँसूलेसे काटे तो ये दोनों ही मनुष्य मेरे लिये एक समान हैं ।। ३६ ।।

मैं आप्तकाम होकर सदा सुखका अनुभव करता हूँ। मेरी दृष्टिमें मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्ण सब एक-से हैं। मैं आसक्तिरहित होकर राजाके पदपर प्रतिष्ठित हूँ। अतः अन्य त्रिदण्डी साधुओंसे मेरा स्थान विशिष्ट है ।। ३७ ।।

अलौकिक जो ज्ञान है, अलौकिक जो संन्यास है तथा जो कर्मोंका अलौकिक अनुष्ठान है अर्थात्‌ निष्काम भावसे कर्मोका करना है--इन तीन प्रकारकी निष्ठाओंको ही मोक्षवेत्ता विद्वानोंने मोक्षका उपाय देखा और समझा है ।। ३८ ।।

मोक्षशास्त्रका ज्ञान रखनेवाले एक श्रेणीके लोग कहते हैं कि ज्ञाननिष्ठा ही मोक्षका साधन है तथा दूसरे सूक्ष्मदर्शी यति लोग कर्मनिष्ठाको ही मुक्तिका उपाय बताते हैं ।। ३९ ।।

किंतु उन महात्मा पंचशिखाचार्यने पूर्वोक्त केवल ज्ञान और केवल कर्म--इन दोनों पक्षोंका परित्याग करके एक तीसरी निष्ठा बतायी है || ४० ।।

यम, नियम, काम, द्वेष, परिग्रह, मान, दम्भ तथा स्नेह करके उनसे होनेवाले लाभ और हानिमें संन्यासी भी गृहस्थोंके ही तुल्य है अर्थात्‌ यम-नियम आदिका अभ्यास करनेपर गृहस्थ भी मोक्षलाभ कर सकते हैं और कामना तथा द्वेष होनेपर संन्यासी भी मुक्तिसे वंचित हो सकते हैं || ४१ ।।

संन्यासी त्रिदण्ड आदि धारण करते हैं और गृहस्थ नरेश छत्र-चँवर आदि। यदि त्रिदण्ड धारण करनेपर किसीको ज्ञानद्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है तो छत्र आदि धारण करनेपर दूसरेको उसी ज्ञानके द्वारा मोक्ष कैसे प्राप्त नहीं हो सकता? क्योंकि प्रतिबन्धका कारण परिग्रह दोनोंके लिये समान है--एक त्रिदण्ड आदिका संग्रह करता है और दूसरा छत्र आदिका ।। ४२ ।।

अपने-अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये जिस मनुष्यको जिस-जिस साधनभूत वस्तुसे प्रयोजन होता है, वे सभी अपना-अपना काम बनानेके लिये उन-उन वस्तुओंका आश्रय लेते हैं ।। ४३ ।।

जो गृहस्थ-आश्रममें दोष देखकर उसका परित्याग करके दूसरे आश्रममें चला जाता है, वह भी कुछ छोड़ता है और कुछ ग्रहण करता है; अतः उसे भी संगदोषसे छुटकारा नहीं मिलता है ।। ४४ ।।

किसीका निग्रह और किसीपर अनुग्रह करना ही आधिपत्य (प्रभुत्व) कहलाता है। यह जैसे राजामें है, वैसे संन्यासीमें भी है। इस दृष्टिसे जब संन्यासी भी राजाओंके ही समान हैं, तब केवल वे ही मुक्त होते हैं--ऐसा माननेका क्या कारण है? ।। ४५ ।।

मनुष्यरूप उत्तम शरीरमें स्थित हुए प्राणी प्रभुत्व रखते हुए भी केवल ज्ञानके ही बलसे यहाँ समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं || ४६ ।।

मेरी तो यह धारणा है कि गेरुआ वस्त्र पहनना, मस्तक मुड़ा लेना तथा त्रिदण्ड और कमण्डलु धारण करना--ये सब उत्कृष्ट संन्यासमार्गका परिचय देनेवाले चिह्नमात्र हैं। इनके द्वारा मोक्षकी सिद्धि नहीं होती ।।

यदि इन चिह्ढोंके रहते हुए भी यहाँ दुःखसे सर्वथा मोक्ष पानेके लिये एकमात्र ज्ञान ही उपाय है तो जितने भी चिह्न धारण किये जाते हैं, वे सब निरर्थक हैं || ४८ ।।

अथवा यदि कहें कि त्रिदण्ड और गैरिक वस्त्र आदि धारण करनेसे कुछ सुविधा प्राप्त होती है और कष्ट कम होता है, इसलिये संन्यासियोंने उन चिह्लोंको धारण करनेका विचार किया है तो छत्र आदि धारण करनेमें भी इसी सामान्य प्रयोजनकी ओर क्‍यों न दृष्टि रखी जाय? ।। ४९ ||

न तो अकिंचनता (दरिद्रता)-में मोक्ष है और न किंचनता (आवश्यक वस्तुओंसे सम्पन्न होने)-में बन्धन ही है। धन और निर्धनता दोनों ही अवस्थाओंमें ज्ञानसे ही जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है ।। ५० ।।

इसलिये धर्म, अर्थ, काम तथा राज्यपरिग्रह--इन बन्धनके स्थानोंमें रहते हुए भी मुझे आप बन्धनरहित (जीवन्मुक्त) पदपर प्रतिष्ठित समझें || ५१ ।।

मैंने मोक्षरूपी पत्थरपर रगड़कर तेज किये हुए त्याग-वैराग्यरूपी तलवारसे राज्य और ऐश्वर्यरूपी पाशको तथा स्नेहके आश्रयभूत स्त्री-पुत्र आदिके ममत्वरूपी बन्धनको काट डाला है || ५२ |।

संन्यासिनी! इस प्रकार मैं जीवन्मुक्त हूँ। आपमें योगका प्रभाव देखकर यद्यपि आपके प्रति मेरी आस्था और आदर-बुद्धि हो गयी है तथापि मैं आपके इस रूप और सौन्दर्यको योगसाधनाके योग्य नहीं मानता, अत: इस विषयमें मैं जो कुछ कहता हूँ, मेरे उस वचनको आप सुनिये ।। ५३ ।।

सुकुमारता, सौन्दर्य, मनोहर शरीर तथा यौवनावस्था--ये सारी वस्तुएँ योगके विरुद्ध हैं; फिर भी आपमें इन सब गुणोंके साथ-साथ योग और नियम भी हैं ही, यह कैसे सम्भव हुआ? यही मेरे मनमें संदेह है ।। ५४ ।।

यह जो त्रिदण्डधारणरूप चिह्न है, उसके अनुरूप आपकी कोई चेष्टा नहीं है। यह मुक्त है या नहीं, इसकी परीक्षा लेनेके लिये आपने मेरे शरीरको अभिभूत कर दिया है--उसपर बलात्‌ अधिकार जमा लिया है ।। ५५ |।

मनुष्य योगयुक्त होकर भी यदि कामभोगमें आसक्त हो जाय तो उसका त्रिदण्ड धारण करना अनुचित एवं व्यर्थ है। आप अपने इस बर्तावद्वारा संन्यास-आश्रमके नियमकी रक्षा नहीं कर रही हैं। यदि अपने स्वरूपको छिपानेके लिये आपने ऐसा किया हो तो जीवन्मुक्त पुरुषके लिये आत्मगोपन आवश्यक नहीं है || ५६ ।।

आपने स्वभावत: सोच-समझकर मेरे पूर्व-शरीरका आश्रय लेनेकी चेष्टा की है, अतः मेरे पक्षका आश्रय लेने--मेरे शरीरमें प्रवेश करनेके कारण आपसे जो व्यतिक्रम बन गया है, उसे बताता हूँ, सुनिये || ५७ ।।

आपने किस कारणसे मेरे राज्य अथवा नगरमें प्रवेश किया है अथवा किसके संकेतसे आप मेरे हृदयमें घुस आयी हैं? ।। ५८ ।।

वर्णोमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी जो कन्याएँ हैं, उन सबमें आप प्रमुख हैं। आप ब्राह्मणी हैं और मैं क्षत्रिय हूँ; अतः हम दोनोंका एकत्र संयोग होना कदापि उचित नहीं है; इसलिये आप वर्णसंकर नामक दोषका उत्पादन न कीजिये ।। ५९ ।।

आप मोक्षधर्म (संन्यास-आश्रम)-के अनुसार बर्ताव करती हैं और मैं गृहस्थ-आश्रममें स्थित हूँ; अत: आपके द्वारा यह दूसरा आश्रमसंकर नामक दोषका उत्पादन किया जा रहा है, जो अत्यन्त कष्ट प्रद है ।।

मैं यह भी नहीं जानता कि आप सतगोत्रा हैं या असगोत्रा। इसी प्रकार आप भी मेरे विषयमें कुछ नहीं जानतीं। अतः मुझ सगोत्रमें प्रवेश करनेके कारण आपके द्वारा तीसरा गोत्रसंकर नामक दोष उत्पन्न किया गया है || ६१ ।।

यदि आपके पति जीवित हैं अथवा कहीं परदेशमें चले गये हैं तो आप परायी स्त्री होनेके कारण मेरे लिये सर्वथा अगम्य हैं। ऐसी दशामें आपका यह बर्ताव धर्मसंकर नामक चौथा दोष है ।। ६२ ।।

आप कार्य-साधनकी अपेक्षा रखकर अज्ञान अथवा मभिशथ्याज्ञानसे युक्त हो ये सब न करने योग्य कार्य कर डालनेको उद्यत हो गयी हैं ।। ६३ ।।

अथवा यदि आप स्वतन्त्र हैं तो कभी आपके द्वारा यदि कुछ शास्त्रका श्रवण किया गया हो तो आपने अपने ही दोषसे वह सब व्यर्थ कर दिया है ।। ६४ ।।

आपका जो दोष छिपा हुआ था, उसे आपने स्वयं ही प्रकाशित कर दिया। इससे आप दुष्टा जान पड़ती हैं। आपकी दुष्टताका यह और चौथा चिह्न स्पष्ट दिखायी दे रहा है, जो हृदयकी प्रीतिपर आघात करनेवाला है ।। ६५ ।।

आप अपनी विजय चाहती हैं। आपने केवल मुझे ही जीतनेकी इच्छा नहीं की है, अपितु यह जो मेरी सारी सभा बैठी है, इसे भी जीतना चाहती हैं ।। ६६ ।।

आप मेरे पक्षकी पराजय और अपने पक्षकी विजयके लिये इन माननीय सभासदोंपर भी बारंबार अपनी दृष्टि फेंक रही हैं ।। ६७ ।।

आप अपनी असहिष्णुताजनित योगसमृद्धिके मोहसे मोहित हो विष और अमृतको एक करनेके समान कामके साथ योगका सम्बन्ध जोड़ रही हैं || ६८ ।।

स्त्री और पुरुष जब एक-दूसरेको चाहते हों, उस समय उन्हें जो संयोग-सुखका लाभ होता है, वह अमृतके समान मधुर है। यदि अनुरक्त नारीको अनुरक्त पुरुषकी प्राप्ति नहीं हुई तो वह दोष विषके समान भयंकर होता है ।। ६९ |।

आप मेरा स्पर्श न करें। मेरे चरित्रको उत्तम और निष्कलंक समझें और अपने शास्त्र (संन्यास-धर्म)-का निरन्तर पालन करती रहें। आपने मेरे विषयमें यह जाननेकी इच्छा की थी कि यह राजा जीवन्मुक्त है या नहीं। यह सारा भाव आपके हृदयमें प्रच्छन्नभावसे स्थित था, अत: इस समय आप मुझसे इसको छिपा नहीं सकतीं || ७० ।।

यदि आप अपने कार्यसे या किसी दूसरे राजाके कार्यसे यहाँ वेष बदलकर आयी हों तो अब आपके लिये यथार्थ बातको गुप्त रखना उचित नहीं है || ७१ ।।

मनुष्यको चाहिये कि वह किसी राजाके पास या किसी ब्राह्मणके निकट अथवा स्त्रीजनोचित पातिव्रत्य गुणसे सम्पन्न किसी सती-साध्वी नारीके समीप छद्ववेष धारण करके न जाय; क्योंकि ये राजा, ब्राह्मण और पतिव्रता स्त्री उस छद्मवेषधारी मनुष्यके धोखा देनेपर उसपर कुपित हो उसका विनाश कर देते हैं || ७२ ।।

राजाओंका बल एऐश्वर्य है, वेदज्ञ ब्राह्मणोंका बल वेद है तथा स्त्रियोंका परम उत्तम बल रूप, यौवन और सौभाग्य है ।। ७३ ।।

ये इन्हीं बलोंसे बलवान होते हैं। अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धि चाहनेवाले पुरुषको इनके पास सरलभावसे जाना चाहिये; क्योंकि इनके प्रति किया हुआ कुटिल भाव विनाशका कारण बन जाता है ।। ७४ ।।

अतः संनन्‍्यासिनि! आपको अपनी जाति, शास्त्रज्ञान, चरित्र, अभिप्राय, स्वभाव एवं यहाँ आगमनका प्रयोजन भी यथार्थरूपसे बताना उचित है || ७५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! राजा जनकने इन दुःखजनक, अयोग्य और असंगत वचनोंद्वारा उसका बड़ा तिरस्कार किया, तो भी सुलभा अपने मनमें तनिक भी विचलित नहीं हुई ।। ७६ |।

जब राजाकी बात समाप्त हो गयी, तब परम सुन्दरी सुलभाने अत्यन्त मधुर वचनोंमें भाषण देना आरम्भ किया ।। ७७ |।

सुलभा बोली--राजन्‌! वाणी और बुद्धिको दूषित करनेवाले जो नौ-नौ दोष हैं, उनसे रहित, अठारह गुणोंसे सम्पन्न और युक्तिसंगत अर्थसे युक्त पदसमूहको वाक्य कहते हैं। उस वाक्यमें सौक्ष्म्य, सांख्य, क्रम, निर्णय और प्रयोजन-ये पाँच प्रकारके अर्थ रहने चाहिये ।। ७८-७९ ।।

ये जो सौक्ष्म्य आदि अर्थ हैं, ये पद, वाक्य, पदार्थ और वाक्यार्थरूपसे खोलकर बताये जा रहे हैं। आप इनमेंसे एक-एकका अलग-अलग लक्षण सुनिये ।। ८० ।।

जहाँ अनेक भिन्न-भिन्न ज्ञेय (अर्थ) उपस्थित हों और “यह घट है, यह पट है” इस प्रकार वस्तुओंका पृथक्‌-पृथक्‌ ज्ञान होता हो, ऐसे स्थलोंमें यथार्थ निर्णय करनेवाली जो बुद्धि है, उसीका नाम सौक्ष्म्य है ।। ८१ ।।

जहाँ किसी विशेष अर्थको अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणोंकी विभागपूर्वक गणना की जाती है, उस अर्थको संख्या अथवा सांख्य समझना चाहिये ।।

परिगणित गुणों और दोषोंमेंसे अमुक गुण या दोष पहले कहना चाहिये और अमुकको पीछे कहना अभीष्ट है। इस प्रकार जो पूर्वापरके क्रमका विचार होता है, उसका नाम क्रम है और जिस वाकयमें ऐसा क्रम हो, उस वाक्यको वाक्यतवेत्ता विद्वान्‌ क्रमयुक्त कहते हैं ।।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके विषयमें किसी एकका विशेषरूपसे प्रतिपादन करनेकी प्रतिज्ञा करके प्रवचनके अन्तमें “यही वह अभीष्ट विषय है” ऐसा कहकर जो सिद्धान्त स्थिर किया जाता है, उसीका नाम निर्णय है | ८४ ।।

नरेश्वर! इच्छा अथवा द्वेषसे उत्पन्न हुए दुःखोंद्वारा जहाँ किसी एक प्रकारके दुःखकी प्रधानता हो जाय, वहाँ जो वृत्ति उदय होती है, उसीको प्रयोजन कहते हैं || ८५ ।।

जनेश्वर! जिस वाक्यमें पूर्वोक्त सौक्ष्म्यम आदि गुण एक अर्थमें सम्मिलित हों, मेरे वैसे ही वाक्यको आप श्रवण करें ।। ८६ ।।

मैं ऐसा वाक्य बोलूँगी, जो सार्थक होगा। उसमें अर्थभेद नहीं होगा। वह न्याययुक्त होगा। उसमें आवश्यकतासे अधिक, कर्णकटु एवं संदेहडजनक पद नहीं होंगे। इस प्रकार मैं परम उत्तम वाक्य बोलूँगी ।।

मेरे इस वचनमें गुरु एवं निष्ठर अक्षरोंका संयोग नहीं होगा; उसमें कोमलकान्त सुकुमार पदावली होगी। वह पराड्मुख व्यक्तियोंके लिये सुखद नहीं होगा। वह न तो झूठ होगा न धर्म, अर्थ और कामके विरुद्ध और संस्कारशून्य ही होगा ।। ८८ ।।

मेरे उस वाक्यमें न्यूनपदत्व नामक दोष नहीं रहेगा, कष्टकर शब्दोंका प्रयोग नहीं होगा, उसका क्रमरहित उच्चारण नहीं होगा। उसमें दूसरे पदोंके अध्याहार और लक्षणकी आवश्यकता नहीं होगी। यह वाक्य निष्प्रयोजन और युक्तिशून्य भी नहीं होगा ।। ८९ ।।

मैं काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्य, अनार्यता, लज्जा, दया तथा अभिमानसे किसी तरह कोई बात नहीं बोलूँगी ।। ९० ।।

नरेश्वर! बोलनेकी इच्छा होनेपर जब वक्ता, श्रोता और वाक्य--तीनों अविकलभावसे सम-स्थितिमें आ जाते हैं, तब वक्ताका कहा हुआ अर्थ प्रकाशित होता है (श्रोताके समझमें आ जाता है) ।। ९१ |।

जब बोलते समय वक्ता श्रोताकी अवहेलना करके दूसरेके लिये अपनी बात कहने लगता है, उस समय वह वाक्य श्रोताके हृदयमें प्रवेश नहीं करता है ।।

और जो मनुष्य स्वार्थ त्यागकर दूसरेके लिये कुछ कहता है, उस समय उसके प्रति श्रोताके हृदयमें आशंका उत्पन्न होती है, अतः वह वाक्य भी दोषयुक्त ही है ।। ९३ ।।

परंतु नरेश्वर! जो वक्ता अपने और श्रोता दोनोंके लिये अनुकूल विषय ही बोलता है, वही वास्तवमें वक्ता है, दूसरा नहीं ।। ९४ ।।

अत: राजन्‌! आप स्थिरचित्त एवं एकाग्र होकर यह वाक्यसम्पत्तिसे युक्त सार्थक वचन सुनिये || ९५ ।।

महाराज! आपने मुझसे पूछा था कि आप कौन हैं, किसकी हैं और कहाँसे आयी हैं? अतः इसके उत्तरमें मेरा यह कथन एकचित्त होकर सुनिये ।। ९६ ।।

राजन! जैसे काठके साथ लाह और धूलके साथ पानीकी बूंदें मिलकर एक हो जाती हैं, उसी प्रकार इस जगतमें प्राणियोंका जन्म कई तत्त्वोंके मेलसे होता है ।।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तथा पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ--ये आत्मासे पृथक्‌ होनेपर भी काष्ठमें सटे हुए लाहके समान आत्माके साथ जुड़े हुए हैं; परंतु इनमें स्वतन्त्र कोई प्रेरणाशक्ति नहीं है। यही विद्वानोंका निश्चय है ।। ९८३ ।।

इनमेंसे एक-एक इन्द्रियको न तो अपना ज्ञान है और न दूसरेका। नेत्र अपने नेत्रत्वको नहीं जानता। इसी प्रकार कान भी अपने विषयमें कुछ नहीं जानता ।। ९९६ ।।

इसी तरह ये इन्द्रियाँ और विषय परस्पर एक-दूसरेसे मिल-जुलकर भी नहीं जान सकते। जैसे कि जल और धूल परस्पर मिलकर भी अपने सम्मिश्रणको नहीं जानते || १०० ३ ||

शरीरस्थ इन्द्रियाँ विषयोंका प्रत्यक्ष अनुभव करते समय अन्यान्य बाह्य गुणोंकी अपेक्षा रखती हैं। उन गुणोंको आप मुझसे सुनिये। रूप, नेत्र और प्रकाश--ये तीन किसी वस्तुको प्रत्यक्ष देखनेमें हेतु हैं ।। १०१३ ।।

जैसे प्रत्यक्ष दर्शनमें ये तीन हेतु हैं, उसी प्रकार अन्यान्य ज्ञान और ज्ञेयमें भी तीन-तीन हेतु जानने चाहिये। ज्ञान और ज्ञातव्य विषयोंके बीचमें किसी ज्ञानेन्द्रियके अतिरिक्त मन नामक एक दूसरा गुण भी रहता है, जिससे यह जीवात्मा किसी विषयमें भले-बुरेका निश्चय करनेके लिये विचार करता है ।।

वहीं एक और बारहवाँ गुण भी है, जिसका नाम है बुद्धि। जिससे किसी ज्ञातव्य विषयमें संशय उत्पन्न होनेपर मनुष्य एक निश्चयपर पहुँचता है || १०४ ।।

उस बारहवें गुण बुद्धिमें सत्व्नामक एक (तेरहवाँ) गुण है, जिससे महासत्त्व और अल्पसत्त्व प्राणीका अनुमान किया जाता है | १०५ ||

उस सत्त्वमें “मैं कर्ता हूँ" ऐसे अभिमानसे युक्त अहंकार नामक एक अन्य चौदहवाँ गुण है, जिससे जीवात्मा “यह वस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है! ऐसा मानता है ।। १०६ 

राजन! उस अहंकारमें वासना नामक एक गुण और माना गया है, जो पंद्रहवाँ है। वहाँ पृथक्‌ू-पृथक्‌ कलाओंके समूहकी जो समग्रता है, वह एक अन्य गुण है। वह संघातकी भाँति यहाँ सोलहवाँ कहा जाता है || १०७६ ।।

जिसमें प्रकृति (माया) और व्यक्ति (प्रकाश)-ये दो गुण आश्रित हैं (यहाँतक सब अठारह हुए) ।। १०८ ।।

सुख और दुःख, जरा और मृत्यु, लाभ और हानि तथा प्रिय और अप्रिय इत्यादि द्न्द्दोंका जो योग है, यह उन्नीसवाँ गुण माना गया है | १०९ |।

इस उजन्नीसवें गुणसे परे काल नामक दूसरा गुण और है। इसे बीसवाँ गुण समझिये। इसीसे प्राणियोंकी उत्पत्ति और लय होते हैं || ११० ।।

इन बीस गुणोंका समुदाय एवं पाँच महाभूत तथा सद्भावयोग5 और असद्धभावयोगर-ये दो अन्य प्रकाशक गुण, ये सब मिलकर सत्ताईस हैं ।। १११ ।।

ये जो बीस और सात गुण बताये गये हैं, इनके सिवा तीन गुण और हैं--विधिः, शुक्र और बल+ ||

इस प्रकार गणना करनेसे बीस और दस तीस गुण होते हैं। ये सारे-के-सारे गुण जहाँ विद्यमान हैं, उसको शरीर कहा गया है ।। ११३ ||

कोई-कोई विद्दान्‌ अव्यक्त प्रकृतिको इन तीस कलाओंका उपादान कारण मानते हैं। दूसरे स्थूलदर्शी विचारक व्यक्त अर्थात्‌ परमाणुओंको कारण मानते हैं तथा कोई-कोई अव्यक्त और व्यक्तको अर्थात्‌ प्रकृति और परमाणु--इन दोनोंको उनका उपादान कारण समझते हैं || ११४ ।।

अव्यक्त हो, व्यक्त हो, दोनों हों अथवा चारों (ब्रह्म, माया, जीव और अविद्या) कारण हों, अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले विद्वान्‌ प्रकृतिको ही सम्पूर्ण भूतोंका उपादान कारण समझते हैं ।। ११५ ।।

राजेन्द्र! यह जो अव्यक्त प्रकृति सबका उपादान कारण है, यही पूर्वोक्त तीस कलाओंके रूपमें व्यक्तभावको प्राप्त हुई है। मैं, आप तथा जो अन्य शरीरधारी हैं, उन सबके शरीरोंकी उत्पत्ति प्रकृतिसे ही हुई है ११६ ।।

प्राणियोंकी वीर्यस्थापनासे लेकर रजोवीर्यसंयोग-सम्भूत कुछ ऐसी अवस्थाएँ हैं, जिनके सम्मिश्रणसे ही 'कलल' नामक एक पदार्थ उत्पन्न होता है ।। ११७ ।।

कललसे बुदबुदकी उत्पत्ति होती है। बुदबुदसे मांसपेशीका प्रादुर्भाव माना गया है। पेशीसे विभिन्न अंगोंका निर्माण होता है और अंगोंसे रोमावलियाँ तथा नख प्रकट होते हैं ।। ११८ ।।

मिथिलानरेश! गर्भमें नौ मास पूर्ण हो जानेपर जीव जन्म ग्रहण करता है। उस समय उसे नाम और रूप प्राप्त होता है तथा वह विशेष प्रकारके चिह्नसे स्त्री अथवा पुरुष समझा जाता है ।। ११९ ||

जिस समय बालकका जन्म होता है, उस समय उसका जो रूप देखनेमें आता है, उसके नख और अंगुलियाँ ताँबेके समान लाल-लाल होती हैं, फिर जब वह कुमारावस्थाको प्राप्त होता है तो उस समय उसका पहलेका वह रूप नहीं उपलब्ध होता है || १२० ।।

इसी प्रकार कुमारावस्थासे जवानीको और जवानीसे बुढ़ापेको वह प्राप्त होता है। इस क्रमसे उत्तरोत्तर अवस्थामें पहुँचनेपर पूर्व पूर्व अवस्थाका रूप नहीं देखनेमें आता है ।।

सभी प्राणियोंमें विभिन्न प्रयोजनकी सिद्धिके लिये जो पूर्वोक्त कलाएँ हैं, उनके स्वरूपमें प्रतिक्षण भेद या परिवर्तन हो रहा है; परंतु वह इतना सूक्ष्म है कि जान नहीं पड़ता || १२२ ।।

राजन! प्रत्येक अवस्थामें इन कलाओंका लय और उद्भव होता रहता है, किंतु दिखायी नहीं देता है; ठीक उसी तरह जैसे दीपककी लौ क्षण-क्षणमें मिटती और उत्पन्न होती रहती है, पर दिखायी नहीं देती || १२३ ।।

जैसे दौड़ता हुआ अच्छा घोड़ा इतनी तीव्र गतिसे एक स्थानको छोड़कर दूसरे स्थानपर पहुँच जाता है कि कुछ कहते नहीं बनता, उसी प्रकार यह प्रभावशाली लोक निरन्तर वेगपूर्वक एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें जा रहा है, अतः उसके विषयमें यह प्रश्न नहीं बन सकता कि “कौन कहाँसे आता है और कौन कहाँसे नहीं आता है, यह किसका है? किसका नहीं है? किससे उत्पन्न हुआ है और किससे नहीं हुआ है? प्राणियोंका अपने अंगोंके साथ भी यहाँ क्‍या सम्बन्ध है?” अर्थात्‌ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । १२४-१२५ ।।

जैसे सूर्यकी किरणोंका सम्पर्क पाकर सूर्यकान्त-मणिसे आग प्रकट हो जाती है, परस्पर रगड़ खानेपर काठसे अग्निका प्रादुर्भाव हो जाता है, इसी प्रकार पूर्वोक्त कलाओंके समुदायसे जीव जन्म ग्रहण करते हैं || १२६ ।।

जैसे आप स्वयं अपने द्वारा अपनेहीमें आत्माका दर्शन करते हैं, उसी प्रकार अपने द्वारा दूसरोंमें आत्माका दर्शन क्‍यों नहीं करते हैं? || १२७ ।।

यदि आप अपनेमें और दूसरेमें भी समभाव रखते हैं तो मुझसे बारंबार क्‍यों पूछते हैं कि “आप कौन हैं और किसकी हैं?” ।। १२८ ।।

मिथिलानरेश! “यह मुझे प्राप्त हो जाय, यह न हो।' इत्यादि रूपसे जो द्वन्दवविषयक चिन्ता प्राप्त होती है, उससे यदि आप मुक्त हैं तो “आप कौन हैं? किसकी हैं? अथवा कहाँसे आयी हैं?” इन वचनोंद्वारा प्रश्न करनेसे आपका कया प्रयोजन है? ।। १२९ ।।

शत्रु-मित्र और मध्यस्थके विषयमें, विजय, संधि और विग्रहके अवसरोंपर जिस भूपालने यथोचित कार्य किये हैं, उसमें जीवन्मुक्तका क्या लक्षण है? ।। १३० ।।

धर्म, अर्थ और कामको त्रिवर्ग कहते हैं। यह सात रूपोंमें अभिव्यक्त होता है। जो कर्मोमें इस त्रिवर्गको नहीं जानता तथा जो सदा त्रिवर्गसे सम्बन्ध रखता है, ऐसे पुरुषमें जीवन्मुक्तका क्‍या लक्षण है? ।। १३१ ।।

प्रिय अथवा अप्रियमें, दुर्बल अथवा बलवानमें जिसकी समदृष्टि नहीं है, उसमें मुक्तका क्या लक्षण है? ।।

नरेश्वर! वास्तवमें आप योगयुक्त नहीं हैं तथापि आपको जो जीवन्मुक्तिका अभिमान हो रहा है, वह आपके सुहृदोंको दूर कर देना चाहिये अर्थात्‌ यह नहीं मानना चाहिये कि आप जीवन्मुक्त हैं, ठीक उसी तरह जैसे अपथ्यशील रोगीको दवा देना बंद कर दिया जाता है || १३३ |।

शत्रुओंका दमन करनेवाले महाराज! नाना प्रकारके जो-जो पदार्थ हैं, उन सबको आसक्तिके स्थान समझकर अपने द्वारा अपनेहीमें अपनेको देखे। इसके सिवा मुक्तका और क्या लक्षण हो सकता है? ।। १३४ ।।

राजन! अपने मोक्षका आश्रय लेकर भी ये और दूसरे जो कुछ चार अंगोंमें प्रवृत्त आसक्तिके जो सूक्ष्म स्थान हैं, उनको भी अपना रखा है, उन्हें बताती हूँ, आप मुझसे सुनें || १३५ ।।

जो इस सारी पृथ्वीका एकच्छत्र शासन करता है, वह एक ही सार्वभौम नरेश भी एकमात्र नगरमें ही निवास करता है ।। १३६ ।।

उस नगरमें भी उसके लिये एक ही महल होता है, जिसमें वह निवास करता है। उस महलमें भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिसपर वह रातमें सोता है | १३७ ।।

उस शगय्याके भी आधे भागपर राजाकी स्त्रीका अधिकार होता है; अतः इस प्रसंगसे वह बहुत अल्प फलका ही भागी होता है ।। १३८ ।।

इसी प्रकार उपभोग, भोजन, आच्छादन तथा अन्यान्य परिमित विषयोंके सेवनमें और दुष्टोंके दमन एवं शिष्ट पुरुषोंके प्रति अनुग्रहके विषयमें भी राजा सदा ही परतन्त्र है। इसी प्रकार वह बहुत थोड़े कार्योमें भी स्वतन्त्र नहीं है तो भी उनमें आसक्त रहता है। संधि और विग्रह करनेमें भी राजाको कहाँ स्वतन्त्रता प्राप्त है? | १३९-१४० ।।

स्त्री-सहवास, क्रीड़ा और विहारमें भी उसे सदा परतन्त्रता रहती है। मन्त्रियोंकी सभामें बैठकर मन्त्रणा करते समय भी उसे कहाँ स्वतन्त्रता रहती है ।। १४१ ।।

राजा जिस समय दूसरोंको कुछ करनेकी आज्ञा देता है, उस समय वहाँ उसकी स्वतन्त्रता बतायी जाती है; परंतु ऐसे अवसरोंपर भी भिन्न-भिन्न क्षणोंमें राजासनपर बैठा हुआ नरेश सलाह देनेवाले मन्त्रियोंद्वारा अपनी इच्छाके विपरीत करनेके लिये विवश कर दिया जाता है ।। १४२ ।।

वह सोना चाहता है, परंतु कार्यार्थी मनुष्योंद्वारा घिरा रहनेके कारण सोने नहीं पाता। शय्यापर सोये हुए राजाको भी लोगोंके अनुरोधसे विवश होकर उठना पड़ता है ।। १४३ ।।

महाराज! स्नान कीजिये, तेल लगवाइये, पानी पीजिये, भोजन कीजिये, आहुति दीजिये, अग्निहोत्रमें संलग्न होइये, अपनी कहिये और दूसरोंकी सुनिये।” इत्यादि बातें कहकहकर दूसरे लोग राजाको वैसा करनेके लिये विवश कर देते हैं | १४४ ।।

याचक मनुष्य सदा निकट आ-आकर राजासे धनकी याचना करते हैं; किंतु जो लोग दानके श्रेष्ठ पात्र हैं, उनके लिये भी वह कुछ देनेका साहस नहीं करता। अपने धनको सर्वथा सुरक्षित रखना चाहता है ।। १४५ ।।

यदि सबको धनका दान करे तो उसका खजाना ही खाली हो जाय और किसीको कुछ न दे तो सबके साथ वैर बढ़ जाय। उसके सामने क्षण-क्षणमें ऐसे दोष उपस्थित होते हैं, जो उसे राज-काजसे विरक्त कर देते हैं || १४६ ।।

विद्वानों, शूरवीरों तथा धनियोंको भी जब वह एक स्थानपर जुटा हुआ देख लेता है, तब उसके मनमें उनके प्रति शंका उत्पन्न हो जाती है। जहाँ भयका कोई कारण नहीं है, वहाँ भी राजाको भय होता है। जो लोग सदा उसके पास उठते-बैठते या सेवामें रहते हैं, उनसे भी वह सशंक बना रहता है ।। १४७ ।।

राजन! मैंने जिनका नाम लिया है, वे विद्वान्‌ और शूरवीर आदि अपने प्रति राजाकी आशंका देखकर सचमुच ही उसके प्रति दुर्भाव रखने लगते हैं और फिर उनसे राजाको जैसा भय प्राप्त होता है, उसको आप स्वयं ही समझ लें ।। १४८ ।।

जनक! सब लोग अपने-अपने घरमें राजा हैं और सभी अपने-अपने घरमें गृहस्वामी हैं, सभी किसीको दण्ड देते और किसीपर अनुग्रह करते हैं; अतः वे सब लोग राजाओंके समान ही हैं ।। १४९ ।।

स्त्री, पुत्र, शरीर, कोष, मित्र तथा संग्रह--ये सब वस्तुएँ राजाओंकी भाँति दूसरोंके पास भी साधारणतया रहते ही हैं। जिन कारणोंसे वह राजा कहलाता है, उन्हीं युक्तियोंसे दूसरे लोग भी उसके समान ही कहे जा सकते हैं || १५० ।।

“हाय! देश नष्ट हो गया, सारा नगर आगसे जल गया और वह प्रधान हाथी मर गया।' यद्यपि ये सब बातें सब लोगोंके लिये साधारण हैं--सबपर समान रूपसे ये कष्ट प्राप्त होते हैं तथापि राजा अपने मिथ्याज्ञानके कारण केवल अपनी ही हानि समझकर संतप्त होता रहता है ।। १५१ ।।

इच्छा, द्वेघष और भयजनित मानसिक दुःख राजाको कभी नहीं छोड़ते हैं। सिरदर्द आदि शारीरिक रोग भी उसे सब ओरसे नियन्त्रणमें रखकर व्याकुल किये रहते हैं । १५२ ।।

वह नाना प्रकारके द्वन्द्*ोंस आहत और सब ओरसे शंकित हो रातें गिनता हुआ अनेक शत्रुओंसे भरे हुए राज्यका सेवन करता है ॥। १५३ ।।

जिसमें सुख तो बहुत थोड़ा, किंतु दुःख बहुत अधिक है, जो सर्वथा सारहीन है, जो घास-फूसमें लगी आगके समान क्षणस्थायी और फेन तथा बुद्बुदके समान क्षणभंगुर है, ऐसे राज्यको कौन ग्रहण करेगा? और ग्रहण कर लेनेपर कौन शान्ति पा सकता है? ।।

नरेश्वरर आप जो इस नगरको, राष्ट्रको, सेनाको तथा कोष और मन्त्रियोंको भी “ये सब मेरे हैं' ऐसा कहते हुए अपना मानते हैं, वह आपका भ्रम ही है। मैं पूछती हूँ, ये सब किसके हैं और किसके नहीं हैं? ।।

मित्र, मन्त्री, नगर, राष्ट्र दण्ड, कोष और राजा-ये राज्यके सात अंग हैं। जैसे मेरे हाथमें त्रिदण्ड है, वैसे आपके हाथमें यह राज्य स्थित है। आपका सात अंगोंवाला राज्य और मेरा त्रिदण्ड-ये दोनों परस्पर उत्कृष्ट गुणोंसे युक्त हैं। फिर इनमेंसे कौन किस गुणके कारण अधिक है? || १५६-१५७ ।।

राज्यके जो सात अंग हैं, उनमें सभी समय-समयपर अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं। जिस अंगसे जो कार्य सिद्ध होता है, उसके लिये उसीकी प्रधानता मानी जाती है ।। १५८ ।।

नृपश्रेष्ठ) उक्त सात अंगोंका समुदाय और तीन अन्य शक्तियाँ (प्रभु-शक्ति, उत्साहशक्ति और मन्त्रशक्ति)--ये सब मिलकर राज्यके दस वर्ग हैं। ये दसों वर्ग संगठित होकर राजाके समान ही राज्यका उपभोग करते हैं ।। १५९ ।।

जो राजा महान्‌ उत्साही और क्षत्रिय-धर्ममें तत्पर होता है, वह “कर' के रूपमें प्रजाकी आयका दसवाँ भाग लेकर संतुष्ट हो जाता है तथा उससे भिन्न साधारण भूपाल दसवें भागसे कम लेकर भी संतोष कर लेते हैं || १६० ।।

साधारण प्रजा न हो तो कोई राजा नहीं हो सकता। राजा न हो तो राज्य नहीं टिक सकता। राज्य न हो तो धर्म कैसे रह सकता है और धर्म न हो तो परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? ।। १६१ ।।

यहाँ राजा और राज्यके लिये जो परम धर्म और परम पवित्र वस्तु है, उसे सुनिये। जिसकी पृथ्वी दक्षिणा-रूपमें दे दी जाती है अर्थात्‌ जो अपनी राज्यभूमिका दान कर देता है, वह अश्वमेध यज्ञके पुण्यफलका भागी होता है ।।

मिथिलानरेश! जो राजाको दु:ख देनेवाले हैं, ऐसे सैकड़ों और हजारों कर्म मैं यहाँ बता सकती हूँ || १६३ ।।

मेरी तो अपने ही शरीरमें आसक्ति नहीं है, फिर दूसरेके शरीरमें कैसे हो सकती है? इस प्रकार योगयुक्त रहनेवाली मुझ संन्यासिनीके प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ।। १६४ ।।

नरेश्वरर जब आपने महर्षि पंचशिखाचार्यसे उपाय (निदिध्यासन), उपनिषद्‌ (उसके श्रवण-मनन), उपासंग (यम-नियम आदि योगाड़) और निश्चय (ब्रह्म और जीवात्माकी एकताका अनुभव)--इन सबके सहित सम्पूर्ण मोक्षशास्त्रका श्रवण किया है, आप आसत्तियोंसे मुक्त हो गये हैं और सम्पूर्ण बन्धनोंको काटकर खड़े हैं, तब आपकी छत्रचवँर आदि विशेष-विशेष वस्तुओंमें आसक्ति कैसे हो रही है? ।। १६५-१६६ ।।

मैं समझती हूँ कि आपने पंचशिखाचार्यसे शास्त्रका श्रवण करके भी श्रवण नहीं किया है अथवा उनसे यदि कोई शास्त्र सुना है तो उसे सुनकर भी मिथ्या कर दिया है; या यह भी हो सकता है कि आपने वेदशास्त्र-जैसा प्रतीत होनेवाला कोई और ही शास्त्र उनसे सुना हो ।। १६७ ।।

इतनेपर भी यदि आप “विदेहराज” “मिथिलापति” आदि इन लौकिक नामोंमें ही प्रतिष्ठित हो रहे हैं तो आप दूसरे साधारण मनुष्योंकी भाँति आसक्ति और अवरोधसे ही बाँधे हुए हैं ।। १६८ ।।

यदि आप सर्वथा मुक्त हैं तो मैंने जो बुद्धिके द्वारा आपके भीतर प्रवेश किया है, इसमें आपका क्या अपराध किया है? ।। १६९ |।

इन सभी वर्णोमें यह नियम प्रसिद्ध है कि संन्यासियोंको एकान्त स्थानमें रहना चाहिये। मैंने भी आपके शून्य शरीरमें निवास करके किसकी किस वस्तुको दूषित कर दिया है? ।। १७० ।।

निष्पाप नरेश! न तो हाथोंसे, न भुजाओंसे, न पैरोंसे, न जाँघोंसे और न शरीरके दूसरे ही अवयवोंसे मैं आपका स्पर्श कर रही हूँ || १७१ ।।

आप महान्‌ कुलमें उत्पन्न, लज्जाशील तथा दीर्घदर्शी पुरुष हैं। हम दोनोंने परस्पर भला या बुरा जो कुछ भी किया है, उसे आपको इस भरी सभामें नहीं कहना चाहिये ।। १७२ ।।

यहाँ ये सभी वर्णोके गुरु ब्राह्मण विद्यमान हैं। इन गुरुओंकी अपेक्षा भी उत्तम कितने ही माननीय महापुरुष यहाँ बैठे हैं तथा आप भी राजा होनेके कारण इन सबके लिये गुरुस्वरूप हैं। इस प्रकार आप सबका गौरव एक दूसरेपर अवलम्बित है ।। १७३ ।।

अतः इस प्रकार विचार करके यहाँ क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसको जाँचबूझ लेना आवश्यक है। इस भरी सभामें आपको स्त्री-पुरुषोंके संयोगकी चर्चा कदापि नहीं करनी चाहिये ।। १७४ ।।

मिथिलानरेश! जैसे कमलके पत्तेपर पड़ा हुआ जल उस पत्तेका स्पर्श नहीं करता है, उसी प्रकार मैं आपका स्पर्श न करती हुई आपके भीतर निवास करूँगी ।। १७५ ।।

यद्यपि मैं स्पर्श नहीं कर रही हूँ तो भी यदि आप मेरे स्पर्शका अनुभव करते हैं तो मुझे यह कहना पड़ता है कि उन संन्यासी महात्मा पंचशिखने आपको ज्ञानका उपदेश कैसे कर दिया? क्योंकि आपने उसे निर्बीज कर दिया? ।। १७६ |।

परस्त्रीके स्पर्शका अनुभव करनेके कारण आप गार्हस्थ्यधर्मसे तो गिर गये और दुर्बोध एवं दुर्लभ मोक्ष भी नहीं पा सके, अतः केवल मोक्षकी बात करते हुए आप गार्हस्थ्य और मोक्ष दोनोंके बीचमें लटक रहे हैं ।।

जीवन्मुक्त ज्ञानीका जीवन्मुक्त ज्ञानीके साथ, एकत्वका पृथक्त्वके साथ तथा भाव (आत्मा) का अभाव (प्रकृति) के साथ संयोग होनेपर वर्णसंकरताकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।। १७८ ।।

मैं मानती हूँ कि समस्त वर्ण और आश्रम पृथक्‌-पृथक्‌ बताये गये हैं। तथापि जिसे ब्रह्मका साक्षात्कार हो गया है, जो अभेदज्ञानसे सम्पन्न है और यह जानकर सारा बर्ताव करता है कि आत्मासे भिन्न दूसरी किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है तथा अन्य वस्तु अपनेसे भिन्न दूसरी वस्तुमें विद्यमान नहीं है, उसका किसी अन्यके साथ संयोग होना सम्भव नहीं है; अतः वर्णसंकरता नहीं हो सकती ।। १७९ ।।

हाथमें कुंडी है, कुंडीमें दूध है और दूधमें मक्खी पड़ी हुई है। ये तीनों परस्पर पृथक्‌ होते हुए भी आधाराधेय-भाव सम्बन्धसे एक दूसरेके आश्रित हो एक साथ हो गये हैं । १८० ।।

फिर भी कुंडीमें दुग्धत्व नहीं आया है और दूध भी मक्खी नहीं बन गया है। ये सारे आधेय पदार्थ स्वयं ही अपनेसे भिन्न आधारको प्राप्त होते हैं ।| १८१ ।।

सारे आश्रम पृथक्‌-पृथक्‌ हैं तथा चारों वर्ण भी भिन्न हैं। जब इनमें परस्पर पार्थक्य बना हुआ है, तब पृथक्त्वको जाननेवाले आपके वर्णका संकर कैसे हो सकता है? ।। १८२ ।

राजन! मैं जातिसे ब्राह्मणी नहीं हूँ और न वैश्या अथवा शाूद्वा ही हूँ। मैं तो आपके समान वर्णवाली क्षत्रिया ही हूँ। मेरा जन्म शुद्ध वंशमें हुआ है और मैंने अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया है ।। १८३ ।।

आपने प्रधान नामक राजर्षिका नाम अवश्य सुना होगा। मैं उन्हींके कुलमें उत्पन्न हुई हूँ। आपको मालूम होना चाहिये कि मेरा नाम सुलभा है || १८४ ।।

मेरे पूर्वजोंके यज्ञोंमें देवराज इन्द्रके सहयोगसे द्रोण, शतशृंग और चक्रद्वधार नामक पर्वत यज्ञवेदीमें ईंटोंकी जगह चुने गये थे || १८५ ।।

मेरा जन्म उसी महान्‌ कुलमें हुआ है। मैंने अपने योग्य पतिके न मिलनेपर मोक्षधर्मकी शिक्षा ली तथा मुनिव्रत धारण करके मैं अकेली विचरती रहती हूँ ।।

मैंने संन्यासिनीका छद्मवेष नहीं धारण किया है। मैं पराये धनका अपहरण नहीं करती हूँ और न धर्मसंकरता ही फैलाती हूँ। मैं दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करती हुई अपने धर्ममें स्थित रहती हूँ ।।

जनेश्वर! मैं अपनी प्रतिज्ञासे कभी विचलित नहीं होती हूँ। बिना सोचे-समझे कोई बात नहीं बोलती हूँ और आपके पास भी यहाँ खूब सोच-विचारकर ही आयी हूँ ।। १८८ ।।

मैंने सुना था कि आपकी बुद्धि मोक्षधर्ममें लगी हुई है, अतः आपकी मंगलाकांक्षिणी होकर आपके इस मोक्षज्ञानका मर्म जाननेके लिये मैं यहाँ आयी हूँ || १८९ ।।

मैं स्वपक्ष और परपक्षमेंसे अपने पक्षमें स्थित हो पक्षपातपूर्वक यह बात नहीं कह रही हूँ, आपके हितको दृष्टिमें रखकर बोलती हूँ; क्योंकि जो वाणीका व्यायाम नहीं करता और जो शान्त परब्रह्ममें निमग्न रहता है, वही मुक्त है || १९० ।।

जैसे नगरके किसी सूने घरमें संन्यासी एक रात निवास कर लेता है, इसी तरह आपके इस शरीरमें मैं आजकी रात रहूँगी || १९१ ।।

आपने मुझे बड़ा सम्मान दिया। अपनी वाणीरूप आतिथ्यके द्वारा मेरा भलीभाँति सत्कार किया। मिथिलानरेश! अब मैं प्रसन्नतापूर्वक आपके शरीररूपी सुन्दर गृहमें सोकर कल सबेरे यहाँसे चली जाऊँगी ।। १९२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! सुलभाके ये युक्तियुक्त और सार्थक वचन सुनकर राजा जनक इसके बाद और कोई बात नहीं बोले ।। १९३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें एुलभा और जनकका संवादविषयक तीन सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  • १.“इह घटो अस्ति (यहाँ घड़ा है)'--इत्यादि रूपसे जो सत्तासूचक व्यवहार होता है, उसका नाम “सदभावयोग'” है। २. 'इह घटो नास्ति (यहाँ घड़ा नहीं है)/--इत्यादि रूपसे जो असत्तासूचक व्यवहार होता है, वही 'असदभावयोग” है। ३. यहाँ “विधि” शब्दसे वासनाके बीजभूत धर्म और अधर्म समझने चाहिये। ४. वासनाका उद्घोधक संस्कार ही 'शुक्र' है। ५. वासनाके अनुसार विषयकी प्राप्तिके अनुकूल जो यत्न है, वही “बल” है।


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