सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ सौलहवें अध्याय से तीन सौ अट्ठारहवें अध्याय तक (From the 316 chapter to the 318 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ सौलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ सौलहवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“योगका वर्णन और उसके साधनसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति”

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ! मैं सांख्यसम्बन्धी ज्ञान तो तुम्हें बतला चुका। अब जैसा मैंने देखा, सुना या समझा है, उसके अनुसार योगशास्त्रका तात्विक ज्ञान मुझसे सुनो | १ ||

सांख्यके समान कोई ज्ञान नहीं है। योगके समान कोई बल नहीं है। इन दोनोंका लक्ष्य एक है और वे दोनों ही मृत्युका निवारण करनेवाले माने गये हैं ।। २ ।।

राजन! जो मनुष्य अज्ञानपरायण हैं, वे ही इन दोनों शास्त्रोंको सर्वथा भिन्न मानते हैं। हम तो विचार के द्वारा पूर्ण निश्चय करके दोनोंको एक ही समझते हैं || ३ ।।

योगी जिस तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं, वही सांख्योंद्वारा भी देखा जाता है; अतः जो सांख्य और योगको एक देखता है, वही तत्त्वज्ञानी है ।। ४ ।।

शत्रुदमन नरेश! योग-साधनोंमें रुद्र अर्थात्‌ प्राण प्रधान है। इन सबको तुम सर्वश्रेष्ठ समझो। प्राणको अपने वशमें कर लेनेपर योगी इसी शरीरसे दसों दिशाओंमें स्वच्छन्द विचरण कर सकते हैं ।। ५ ।।

प्रिय निष्पाप भूपाल! जबतक मृत्यु न हो जाय, तबतक ही योगी योगबलसे स्थूल शरीरको यहीं छोड़कर अष्टविध ऐश्वर्यसे युक्त सूक्ष्मशरीरके द्वारा लोक-लोकान्तरोंमें सुखपूर्वक विचरण करता है || ६ ।।

नृपश्रेष्ठ! मनीषी पुरुषोंका कहना है कि वेदमें स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकारके योगोंका वर्णन है। उनमें स्थूल योग अणिमा आदि आठ प्रकारकी सिद्धि प्रदान करनेवाला है और सूक्ष्म योग ही (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि--इन आठ गुणों (अंगों) से युक्त है; दूसरा नहीं ।। ७ ।।

योगका मुख्य साधन दो प्रकारका बताया गया है--सगुण और निर्गुण (सबीज और निर्बीज)। ऐसा ही शास्त्रोंका निर्णय है ।। ८ ।।

पृथ्वीनाथ! किसी विशेष देशमें चित्तको स्थापित करनेका नाम “धारणा” है। मनकी धारणाके साथ किया जानेवाला प्राणायाम सगुण है और देश-विशेषका आश्रय न लेकर मनको निर्बीज समाधिमें एकाग्र करना निर्गुण प्राणायाम कहलाता है ।। ९ ।।

सगुण प्राणायाम मनको निर्गुण अर्थात्‌ वृत्तिशून्य करके स्थिर करनेमें सहायक होता है। मैथिलशिरोमणे! यदि पूरक आदिके समय नियत देवता आदिका ध्यानद्वारा साक्षात्कार किये बिना ही कोई प्राणवायुका रेचन करता है तो उसके शरीरमें वायुका प्रकोप बढ़ जाता है; अतः ध्यान-रहित प्राणायामको नहीं करना चाहिये ।। १० ।।

रातके पहले पहरमें वायुको धारण करनेकी बारह प्रेरणाएँ बतायी गयी हैं। मध्य रात्रिमें रात्रिके बिचले दो पहरोंमें सोना चाहिये तथा पुनः अन्तिम प्रहरमें बारह प्रेरणाओंका ही अभ्यास करना चाहिये: ।। ११ ।।

इस प्रकार प्राणायामके द्वारा मनको वशमें करके शान्त और जितेन्द्रिय हो एकान्तवास करनेवाले आत्माराम ज्ञानीको चाहिये कि मनको परमात्मामें लगावे। इसमें संशय नहीं है ।। १२ ।।

मिथिलानरेश! शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये इन्द्रियोंके पाँच दोष हैं। इन दोषोंको दूर करे। फिर लय और विक्षेपको शान्त करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको मनमें स्थिर करे। नरेश्वर! तत्पश्चात्‌ मनको अहंकारमें, अहंकारको बुद्धिमें और बुद्धिको प्रकृतिमें स्थापित करे। इस प्रकार सबका लय करके योगी पुरुष केवल उस परमात्माका ध्यान करते हैं, जो रजोगुणसे रहित, निर्मल, नित्य, अनन्त, शुद्ध, छिद्ररहित, कूटस्थ, अन्तर्यामी, अभेद्य, अजर, अमर, अविकारी, सबका शासन करनेवाला और सनातन ब्रह्म है ।।१३- १७।।

महाराज! अब समाधिमें स्थित हुए योगीके लक्षण सुनो। जैसे तृप्त हुआ मनुष्य सुखसे सोता है, उसी प्रकार योगयुक्त पुरुषके चित्तमें सदा प्रसन्नता बनी रहती है--वह समाधिसे विरत होना नहीं चाहता। यही उसकी प्रसन्नताकी पहचान है ।। १८ ।।

जैसे तेलसे भरा हुआ दीपक वायुशून्य स्थानमें एकतार जलता रहता है। उसकी शिखा स्थिरभावसे ऊपरकी ओर उठी रहती है, उसी तरह समाधिनिष्ठ योगीको भी मनीषी पुरुष स्थिर बताते हैं || १९ ।।

जैसे बादलकी बरसायी हुई बूँदोंके आघातसे पर्वत चंचल नहीं होता, उसी तरह अनेक प्रकारके विक्षेप आकर योगीको विचलित नहीं कर सकते। यही योगयुक्त पुरुषकी पहचान है || २० ।।

उसके पास बहुत-से शंख और नगाड़ोंकी ध्वनि हो और तरह-तरहके गाने-बजाने किये जायूँ तो भी उसका ध्यान भंग नहीं हो सकता। यही उसकी सुदृढ़ समाधिकी पहचान है ।। २१ |।

जैसे मनको संयममें रखनेवाला सावधान मनुष्य हाथोंमें तेलसे भरा कटोरा लेकर सीढ़ीपर चढ़े और उस समय बहुतसे पुरुष हाथमें तलवार लेकर उसे डराने-धमकाने लगें तो भी वह उनके डरसे एक बूँद भी तेल पात्रसे गिरने नहीं देता, उसी प्रकार योगकी ऊँची स्थितिको प्राप्त हुआ एकाग्रचित्त योगी इन्द्रियोंकी स्थिरता और मनकी अविचल स्थितिके कारण समाधिसे विचलित नहीं होता। योगसिद्ध मुनिके ऐसे ही लक्षण समझने चाहिये || २२--२४ ।।

जो अच्छी तरह समाधिमें स्थित हो जाता है, वह महान्‌ अन्धकारके बीचमें प्रकाशित होनेवाली प्रज्वलित अग्निके समान हृदयदेशमें स्थित अविनाशी (ज्ञानस्वरूप) परब्रह्मका साक्षात्कार करता है || २५ ।।

राजन्‌! इस साधथनाके द्वारा मनुष्य दीर्घकालके पश्चात्‌ इस अचेतन देहका परित्याग करके केवल (प्रकृतिके संसर्गसे रहित) परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाता है। ऐसी सनातन श्रुति है ।। २६ ।।

यही योगियोंका योग है। इसके सिवा योगका और क्या लक्षण हो सकता है? इसे जानकर मनीषी पुरुष अपने-आपको कृतकृत्य मानते हैं || २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज़्वल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • एक प्राणायाममें पूरक, कुम्भक और रेचकके भेदसे तीन प्रेरणाएँ समझनी चाहिये। इस प्रकार जहाँ बारह प्रेरणाओंके अभ्यासका विधान किया गया है, वहाँ चार-चार प्राणायाम करनेकी विधि समझनी चाहिये। तात्पर्य यह कि रातके पहले और पिछले पहरोंमें ध्यानपूर्वक चार-चार प्राणायामोंका नित्य अभ्यास करना योगीके लिये अत्यन्त आवश्यक है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ सत्तरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ सत्तरहवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“विभिन्न अंगोंसे प्राणोंके उत्क्राणका फल तथा मृत्युसूचक लक्षणोंका वर्णन और मृत्युको जीतनेका उपाय”

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--नरेश्वर! देह-त्यागके समय मनुष्यके जिन-जिन अंगोंसे निकलकर प्राण जिन-जिन ऊर्ध्वलोकोंमें जाते हैं, उनके विषयमें बता रहा हूँ; तुम सावधान होकर सुनो। पैरोंके मार्गसे प्राणोंके उत्क्रमण करनेपर मनुष्यको भगवान्‌ विष्णुके परमधामकी प्राप्ति होती बतायी जाती है ।। १ ।।

जिसके प्राण दोनों पिण्डलियोंके मार्गसे बाहर निकलते हैं, वह वसु नामक देवताओंके लोकमें जाता है; ऐसा हमने सुन रक्खा है। घुटनोंसे प्राणत्याग करनेपर महाभाग साध्य-देवताओंके लोकोंकी प्राप्ति होती है ।।

जिसके प्राण गुदामार्गसे निकलकर ऊपरकी ओर जाते हैं, वह मित्रदेवताके उत्तम स्थानको पाता है। कटिके अग्रभागसे प्राण निकलनेपर पृथ्वीलोककी और दोनों जाँघोंसे निकलनेपर प्रजापतिलोककी प्राप्ति होती है ।।

दोनों पसलियोंसे प्राणोंका निष्क्रमण हो तो मरुत्‌ नामक देवताओंकी, नाभिसे हो तो इन्द्रपदकी, दोनों भुजाओंसे हो तो भी इन्द्रपदकी ही और वक्ष:स्थलसे हो तो रुद्रलोककी प्राप्ति होती है ।। ४ ।।

ग्रीवासे प्राणोंका निष्क्रमण होनेपर मनुष्य मुनियोंमें श्रेष्ठ परम उत्तम नरका सांनिध्य प्राप्त करता है। मुखसे प्राणत्याग करनेपर वह विश्वेदेवोंको और श्रोत्रसे प्राण त्यागनेपर दिशाओंकी अधिष्ठात्री देवियोंको प्राप्त होता है ।।

नासिकासे प्राणोंका उत्क्रमण हो तो मनुष्य वायुदेवताको, दोनों नेत्रोंसे हो तो अग्निदेवताको, दोनों भौंहोंसे हो तो अश्विनीकुमारोंको और ललाटसे हो तो पितरोंको प्राप्त होता है ।। ६ ।।

मस्तकसे प्राणोंका परित्याग करनेपर मनुष्य देवताओंके अग्रज भगवान्‌ ब्रह्माजीके लोकको जाता है। मिथिलेश्वर! ये प्राणोंके निष्क्रमणके स्थान बताये गये हैं ।। ७ ।।

अब मैं ज्ञानी पुरुषोंद्वारा नियत किये हुए अमंगल अथवा मृत्युको सूचित करनेवाले उन चिह्ढोंका वर्णन करता हूँ, जो देहधारीके शरीर छूटनेमें केवल एक वर्ष शेष रह जानेपर उसके सामने प्रकट होते हैं || ८ ।।

जो कभी पहलेकी देखी हुई अरुन्धती और ध्रुवको न देख पाता हो तथा पूर्णचन्द्रमाका मण्डल और दीपककी शिखा जिसे दाहिने भागसे खण्डित जान पड़े, ऐसे लोग केवल एक वर्षतक जीवित रहनेवाले होते हैं || ९६ ।।

पृथ्वीनाथ! जो लोग दूसरेके नेत्रोंमें अपनी परछाईं न देख सकें, उनकी आयु भी एक ही वर्षतक शेष समझनी चाहिये ।। १० $ ।।

यदि मनुष्यकी बहुत बढ़ी-चढ़ी कान्ति भी अत्यन्त फीकी पड़ जाय, अधिक बुद्धिमत्ता भी बुद्धिहीनतामें परिणत हो जाय और स्वभावमें भी भारी उलट-फेर हो जाय तो यह उसके छ: महीनेके भीतर ही होनेवाली मृत्युका सूचक है ।। ११।।

जो काले रंगका होकर भी पीला पड़ने लगे, देवताओंका अनादर करे और ब्राह्मणोंक साथ विरोध करे, वह भी छः: महीनेसे अधिक नहीं जी सकता, यह उक्त लक्षणोंसे सूचित होता है | १२३ ।।

जो मनुष्य सूर्य और चन्द्रमाके मण्डलको मकड़ीके जालेके समान छिठ्रयुक्त देखता है, वह सात रातमें ही मृत्युका भागी होता है ।। १३३ ।।

जो देवमन्दिरमें बैठकर वहाँकी सुगन्धित वस्तुमें सड़े मुर्देकी-सी दुर्गन्धका अनुभव करता है, वह सात दिनमें ही मृत्युको प्राप्त हो जाता है ।। १४६ ।।

नरेश्वरर! जिसके नाक और कान टेढ़े हो जाय, दाँत और नेत्रोंका रंग बिगड़ जाय, जिसे बेहोशी होने लगे, जिसका शरीर ठंडा पड़ जाय तथा जिसकी बायीं आँखसे अकस्मात्‌ आँसू बहने और मस्तकसे धुआँ उठने लगे, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। उपर्युक्त लक्षण तत्काल होनेवाली मृत्युके सूचक हैं ।।

इन मृत्युसूचक लक्षणोंको जानकर मनको वशमें रखनेवाला साधक रातदिन परमात्माका ध्यान करे और जिस समय मृत्यु होनेवाली हो, उस कालकी प्रतीक्षा करता रहे || १७-१८ ।।

नरेश्वर! यदि योगीको मृत्यु अभीष्ट न हो, अभी वह इस जगत्‌में रहना चाहे तो यह क्रिया करे। पूर्वोक्त रीतिसे पंचभूतविषयक धारणा करके पृथ्वी आदि तत्त्वोंपर विजय प्राप्त करते हुए सम्पूर्ण गन्धों, रसों तथा रूप आदि विषयोंको अपने वशमें करे- || १९ ||

नरश्रेष्ठ) सांख्य और योगके अनुसार धारणा-पूर्वक आत्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करके ध्यानयोगके द्वारा अन्तरात्माको परमात्मामें लगा देनेसे योगी मृत्युको जीत लेता है || २० ।।

ऐसा करनेसे वह उस सनातन पदको प्राप्त करता है, जो अशुद्ध चित्तवाले पुरुषोंको दुर्लभ है तथा जो अक्षय, अजन्मा, अचल, अविकारी, पूर्ण एवं कल्याणमय है ।।२१।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ सतरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • धारणाद्वारा पंचभूतोंपर विजय या अधिकार प्राप्त करके योगी जन्म, जरा, मृत्यु आदिको जीत लेता है; इस विषयमें यह सूत्र भी प्रमाण है-

पृथ्व्यप्तेजोडनिलखे समुत्थिते पंचात्मके योगगुणे प्रवृत्ते । 

न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु: प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्‌ ।।

  • ध्यानयोगका साधन करते-करते जब पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--इन पाँच महाभूतोंका उत्थान हो जाता है अर्थात्‌ जब साधकका इन पाँचों महाभूतोंपर अधिकार हो जाता है और इन पाँचों महाभूतोंसे सम्बन्ध रखनेवाली योगविषयक पाँचों सिद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं, उस समय योगाग्निमय शरीरको प्राप्त कर लेनेवाले उस योगीके शरीरमें न तो रोग होता है, न बुढ़ापा आता है और न उसकी मृत्यु ही होती है। अभिप्राय यह कि उसकी इच्छाके बिना उसका शरीर नष्ट नहीं हो सकता (योगद० ३।४६, ४७)।

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शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ अट्ठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक 1-113 का हिन्दी अनुवाद)

“याज्ञवल्क्यद्वारा अपनेको सूर्यसे वेदज्ञानकी प्राप्तिका प्रसंग सुनाना, विश्वावसुको जीवात्मा और परमात्माकी एकताके ज्ञानका उपदेश देकर उसका फल मुक्ति बताना तथा जनकको उपदेश देकर विदा होना”

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--नरेश्वर! तुमने जो मुझसे अव्यक्तमें स्थित परब्रह्मके विषयमें प्रश्न किया है, वह अत्यन्त गूढ़ है। उसके विषयमें ध्यान देकर सुनो ।।

मिथिलापते! पूर्वकालमें मैंने शास्त्रोक्त विधिसे व्रतका आचरण करते हुए नतमस्तक होकर भगवान्‌ सूर्यसे जिस प्रकार शुक्लयजुर्वेदके मन्त्र उपलब्ध किये थे, वह सब प्रसंग सुनो || २ ।।

निष्पाप नरेश! पहलेकी बात है, मैंने बड़ी भारी तपस्या करके तपनेवाले भगवान्‌ सूर्यकी आराधना की थी। उससे प्रसन्न होकर भगवान्‌ सूर्यने मुझसे कहा-- ।।

“ब्रह्मर्ष! तुम्हारी जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो। वह अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी मैं तुम्हें दे दूँगा; क्योंकि मेरा मन तुम्हारी तपस्यासे बहुत संतुष्ट है। मेरा कृपाप्रसाद प्राय: दुर्लभ है' || ४ ।।

तब मैंने मस्तक झुकाकर तपनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ सूर्यको प्रणाम किया और उनसे कहा--'प्रभो! मैं शीघ्र ही ऐसे यजुर्मन्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ” जो आजसे पहले दूसरे किसीके उपयोगमें नहीं आये हैं" ।। ५ ।।

तब भगवान्‌ सूर्यने मुझसे कहा--“ब्रह्मन! मैं तुम्हें यजुर्वेद प्रदान करता हूँ। तुम अपना मुँह खोलो। वाड्मयी सरस्वती देवी तुम्हारे शरीरमें प्रवेश करेंगी।” यह सुनकर मैंने मुँह खोल दिया और सरस्वती देवी उसमें प्रविष्ट हो गयीं ।। ६-७ ।।

निष्पाप नरेश! सरस्वतीके प्रवेश करते ही मैं तापसे जलने लगा और जलनमें घुस गया। महात्मा भास्करकी महिमाको न जानने तथा अपनेमें सहनशीलता न होनेके कारण मुझे उस समय विशेष कष्ट हुआ था ।। ८ ।।

तदनन्तर मुझे तापसे दग्ध होता देख भगवान्‌ सूर्यने कहा--“तात! तुम दो घड़ीतक इस तापको सहन करो। फिर यह स्वयं ही शीतल एवं शान्त हो जायगा” ।।

जब मैं पूर्ण शीतल हो गया, तब मुझे देखकर भगवान्‌ भास्करने कहा--'विप्रवर! खिल और उपनिषदों-सहित सम्पूर्ण वेद तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित होंगे || १० ।।

द्विजश्रेष्ठ! तुम सम्पूर्ण शतपथका भी प्रणयन (सम्पादन) करोगे। इसके बाद तुम्हारी बुद्धि मोक्षमें स्थिर होगी || ११ ।।

“तुम उस अभीष्ट पदको प्राप्त करोगे, जिसे सांख्यवेत्ता तथा योगी भी पाना चाहते हैं।' इतना कहकर भगवान्‌ सूर्य वहीं अदृश्य हो गये || १२ ।।

मैंने सूर्य्येवका वह कथन सुना। फिर जब वे चले गये, तब मैंने घर आकर प्रसन्नतापूर्वक सरस्वतीका चिन्तन किया ।। १३ ।।

मेरे स्मरण करते ही स्वर और व्यंजन-वर्णोसे विभूषित अत्यन्त मंगलमयी सरस्वतीदेवी ३5कारको आगे करके मेरे सम्मुख प्रकट हुईं || १४ ।।

तब मैंने सरस्वतीदेवी तथा तपनेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान्‌ भास्करको अर्घ्य निवेदन किया और उन्हींका चिन्तन करता हुआ बैठ गया ।। १५ ।।

उस समय बड़े हर्षके साथ मैंने रहस्य, संग्रह और परिशिष्टभागसहित समस्त शतपथका संकलन किया ।। १६ ।।

महाराज! तदनन्तर मैंने अपने सौ उत्तम शिष्योंको शतपथका अध्ययन कराया। इसके बाद शिष्यसहित अपने महामनस्वी मामाका (जो पहले मुझे तिरस्कृत कर चुके थे) अप्रिय करनेके लिये किरणोंसे प्रकाशित होनेवाले सूर्यकी भाँति शिष्योंसे सुशोभित हो मैंने तुम्हारे पिता महात्मा राजा जनकके यज्ञका अनुष्ठान कराया ।। १७-१८ ।।

उस समय अपने वेदकी दक्षिणाके लिये मामाके द्वारा विशेष आग्रह होनेपर महर्षि देवलके सामने ही मैंने आधी दक्षिणा उन्हें दे दी और आधी स्वयं ग्रहण की ।। १९ ।।

तदनन्तर सुमन्तु, पैल, जैमिनि, तुम्हारे पिता तथा अन्य ऋषि-मुनियोंने मेरा बड़ा आदर-सत्कार किया ।। २० ।।

निष्पाप नरेश! इस प्रकार मैंने सूर्यदेवसे शुक्लयजुर्वेदकी पंद्रह शाखाएँ प्राप्त की। इसी तरह रोमहर्षण सूतसे मैंने पुराणोंका अध्ययन किया ।। २१ ।।

नरेश्वर! तदन्तर मैंने बीजरूप प्रणव और सरस्वती देवीको सामने करके भगवान्‌ सूर्यकी कृपासे शतपथकी रचना आरम्भ की और इस अपूर्व ग्रन्थको पूर्ण कर लिया और जो मोक्षका मार्ग मुझे अभीष्ट था, उसका भी भलीभाँति सम्पादन किया || २२-२३ ।।

फिर मैंने शिष्योंको वह सारा ग्रन्थ रहस्य और संग्रह-सहित पढ़ाया और उन्हें घर जानेकी अनुमति दे दी। फिर वे सभी शुद्ध आचार-विचारवाले शिष्य अत्यन्त हर्षित हो अपने-अपने घरको चले गये ।। २४ ।।

इस प्रकार सूर्यदेवके द्वारा उपदेश की हुई शुक्लयजुर्वेद विद्याकी इन पंद्रह शाखाओंका ज्ञान प्राप्त करके मैंने इच्छानुसार वेद्यतत्त्वका चिन्तन किया है | २५ ।।

राजन्‌! एक समय वेदान्तज्ञानमें कुशल विश्वावसु नामक गन्धर्व मेरे पास आया एवं इस बातका विचार करते हुए कि यहाँ ब्राह्मण-जातिके लिये हितकर क्‍या है? सत्य और सर्वोत्तम ज्ञातव्य वस्तु क्या है? मुझसे पूछने लगा ।। २६३६ ।।

पृथ्वीनाथ! तत्पश्चात्‌ उन्होंने वेदके सम्बन्धमें चौबीस प्रश्न पूछे। फिर आन्चीक्षिकी विद्याके सम्बन्धमें पचीसवाँ प्रश्न उपस्थित किया। वे चौबीस प्रश्न इस प्रकार हैं--१. विश्वा क्या है? २. अविश्व क्या है? ३. अश्वा कया है? ४. अश्व क्या है? ५. मित्र क्या है? ६. वरुण क्या है?। ७, ज्ञान क्‍या है? ८. ज्ञेय क्या है? ९, ज्ञाता क्या है? १०. अज्ञ क्या है? ११. क कौन है? १२. कौन तपस्वी है? १३. और कौन अतपस्वी है? १४. कौन सूर्य है? १५. तथा कौन अतिसूर्य? १६. और विद्या क्या है? १७. तथा अविद्या क्या है? | २७- २९ ।।

१८. राजन! वेद्य क्या है? १९. अवेद्य क्या है? २०. चल क्या है? २१. अचल क्या है? २२. अपूर्व क्या है? २३. अक्षय क्‍या है? २४. और विनाशशील क्या है? ये ही उनके परम उत्तम प्रश्न हैं || ३० ।।

महाराज! इन प्रश्नोंको सुनकर मैंने गन्धर्वशिरोमणि राजा विश्वावसुसे कहा--“राजन! आपने क्रमश: बड़े उत्तम प्रश्न उपस्थित किये हैं। आप अर्थके ज्ञाता हैं। थोड़ी देर ठहर जाइये, तबतक मैं आपके इन प्रश्नोंपर विचार कर लेता हूँ।' तब “बहुत अच्छा” कहकर गन्धर्वराज चुपचाप बैठे रहे || ३१-३२ ।।

तदनन्तर मैंने पुन: सरस्वतीदेवीका मन-ही-मन चिन्तन किया। फिर तो जैसे दहीसे घी निकल आता है, उसी प्रकार उन प्रश्नोंका उत्तर निकल आया ।। ३३ ।।

राजन्‌! तात! उस समय मैं वहाँ उपनिषद्‌, उसके परिशिष्ट भाग और परम उत्तम आन्वीक्षिकी विद्यापर दृष्टिपात करके मनके द्वारा उन सबका मन्थन करने लगा ।। ३४ ।।

नृपश्रेष्ठ! यह आन्वीक्षिकी विद्या (त्रयी, वार्ता और दण्डनीति--इन तीन विद्याओंकी अपेक्षासे) चौथी बतायी गयी है। यह मोक्षमें सहायक है। पचीसवें तत्त्वरूप पुरुषसे अधिष्ठित उस विद्याका मैंने तुमसे प्रतिपादन किया था (वही विश्वावसुके निकट भी कही गयी) ॥।

राजन्‌! उस समय मैंने राजा विश्वावसुसे कहा--“गन्धर्वराज! आपने यहाँ मुझसे जो प्रश्न पूछे हैं, उनका उत्तर सुनिये || ३६ ।।

गन्धर्वपते! आपने जो विश्वा और अविश्व इत्यादि कहकर यह प्रश्नावली उपस्थित की है, उसमें विश्वा अव्यक्त प्रकृतिका नाम है। यह संसार-बन्धनमें डालनेवाली होनेके कारण भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालोंमें भयंकर है--इस बातको आप अच्छी तरह समझ लें।।

इस प्रकार विश्वा नामसे प्रसिद्ध जो अव्यक्त प्रकृति है, वह त्रिगुणमयी है; क्योंकि वही त्रिगुणात्मक जगत्‌को उत्पन्न करनेवाली है। उससे भिन्न जो निष्कल (कलाओंसे रहित) आत्मा है, वही अविश्व कहलाता है। इसी तरह अश्व और अश्वाकी जोड़ी भी देखी जाती है (अर्थात्‌ अश्वा अव्यक्त प्रकृति है और अश्व पुरुष) ।।

अव्यक्त प्रकृतिको सगुण बताया गया है और पुरुषको निर्गुण। इसी प्रकार वरुणको प्रकृति समझना चाहिये और मित्रको पुरुष || ३९ |।

(भौतिक) ज्ञान शब्दसे प्रकृतिका प्रतिपादन किया गया है और निष्कल आत्माको ज्ञेय बताया गया है। इसी तरह अज्ञ प्रकृति है और उससे भिन्न निष्कल पुरुषको 'ज्ञाता' बताया गया है ।। ४० ।।

क, तपा और अतपाके विषयमें जो प्रश्न उपस्थित किया गया है, उसके विषयमें बताया जाता है। पुरुषको ही “क' कहते हैं। प्रकृतिका ही नाम तपा है और निष्कल पुरुषको अतपा नाम दिया गया है ।। ४१ ।।

अव्यक्त प्रकृतिको ही सूर्य और निष्कल पुरुषको अतिसूर्य कहा गया है। प्रकृतिको अविद्या जानना चाहिये और पुरुष विद्या कहलाता है ।।

इसी तरह अवेद्य नामसे अव्यक्त प्रकृतिका और वेद्य नामसे पुरुषका प्रतिपादन किया जाता है। आपने जो चल और अचलके विषयमें प्रश्न किया है, उसका भी उत्तर सुनिये ।। ४२ ।।

सृष्टि और संहारकी कारणभूता प्रकृतिको “चला' कहा गया है और सृष्टि तथा प्रलयका कर्ता पुरुष ही निश्चल पुरुष माना गया है ।। ४३ ।।

उसी प्रकार अव्यक्त प्रकृति वेद्य (जाननेमें आनेवाली) है और पुरुष अवेद्य (जाननेमें न आनेवाला)। अध्यात्मतत्त्वका निश्चयात्मक ज्ञान रखनेवाले विद्वान्‌ कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अज्ञ हैं, दोनों ही निश्चल हैं और दोनों ही अक्षय, अजन्मा तथा नित्य हैं || ४४-४५ ।।

ज्ञानी पुरुषोंका कथन है कि जन्म ग्रहण करनेपर भी क्षयरहित होनेके कारण यहाँ पुरुषको अजन्मा, अविनाशी और अक्षय कहा गया है; क्योंकि उसका कभी क्षय नहीं होता है || ४६ ||

गुणोंका क्षय होनेके कारण प्रकृति क्षयशील मानी गयी है और उसका प्रेरक होनेके कारण पुरुषको विद्दानोंने अक्षय कहा है। गन्धर्वराज! यह मैंने आपको चौथी आन्चवीक्षिकी विद्या, जो मोक्षमें सहायक है, बतायी है || ४७ ।।

विश्वावसों! आन्वीक्षिकी विद्यासहित वेद-विद्यारूपी धनका उपार्जन करके प्रयत्नपूर्वक नित्यकर्ममें संलग्न रहना चाहिये। सभी वेद एकान्ततः स्वाध्याय और मनन करनेके योग्य माने गये हैं || ४८ ।।

गन्धर्वराज! समस्त भूत जिसमें स्थित हैं, जिससे उत्पन्न होते और जिसमें लीन हो जाते हैं, उस वेदप्रतिपाद्य ज्ञेय परमात्माको जो नहीं जानते हैं, वे परमार्थसे भ्रष्ट होकर जन्मते और मरते रहते हैं ।। ४९ ।।

सांगोपांग वेद पढ़कर भी जो वेदोंके द्वारा जाननेके योग्य परमेश्वरको नहीं जानता, वह मूढ़ केवल वेदोंका बोझ ढोनेवाला है || ५० ।।

गन्धर्वशिरोमणे! जो घी पानेकी इच्छा रखकर गधीके दूधको मथता है, उसे वहाँ विष्ठा ही दिखायी देती है। उसे न तो वहाँ मक्खन ही मिलता है और न घी ही ।। ५१ ।।

इसी प्रकार जो वेदोंका अध्ययन करके भी वेद्य और अवेद्यका तत्त्व नहीं जानता, वह मूढ़बुद्धि मानव केवल ज्ञानका बोझ ढोनेवाला माना गया है ।। ५२ ।।

मनुष्यको सदा ही तत्पर होकर अन्तरात्माके द्वारा इन दोनों प्रकृति और पुरुषका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जिससे बारंबार उसे जन्म-मृत्युके चक्‍्करमें न पड़ना पड़े || ५३ ।।

संसारमें जन्म और मरणकी परम्परा निरन्तर चलती रहती है--ऐसा सोचकर वैदिक कर्मकाण्डमें बताये हुए सभी कर्मों और उनके फलोंको विनाशशील जानकर उनका परित्याग करके मनुष्यको यहाँ अक्षय धर्मका आश्रय लेना चाहिये ।। ५४ ।।

कश्यपनन्दन! जब साधक प्रतिदिन परमात्माके स्वरूपका विचार एवं चिन्तन करने लगता है, तब वह प्रकृतिके संसर्गसे रहित होकर छब्बीसवें तत्त्वरूप परमेश्वरको प्राप्त कर लेता है ।। ५५ ।।

मूढ़बुद्धि मानव उस आत्माके सम्बन्धमें द्वैतभावसे युक्त धारणा रखते हुए कहते हैं --'सनातन अव्यक्त परमात्मा दूसरा है और पचीसवाँ तत्त्वरूप जीवात्मा दूसरा, परंतु साधु पुरुष उन दोनोंको एक मानते हैं ।।

वे जन्म और मृत्युके भयसे रहित होकर परमपद पानेकी इच्छा रखनेवाले सांख्यवेत्ता और योगी जीवात्मा और परमात्माको एक-दूसरेसे भिन्न नहीं मानते हैं। जीव और ईश्वरका अभेद बतानेवाला जो यह पूर्वोक्त दर्शन अथवा साधुमत है, उसका वे भी अभिनन्दन करते ही हैं || ५७ ।।

विश्वावसुने कहा--ब्राह्मणशिरोमणे! आपने जो यह पचीसवें तत्त्वरूप जीवात्माको परमात्मासे अभिन्न बताया है, उसमें यह संदेह उठता है कि जीवात्मा वास्तवमें परमात्मासे अभिन्न है या नहीं? अत: आप इस बातका स्पष्टरूपसे वर्णन करें ।। ५८ ।।

मैंने मुनिवर जैगीषव्य, असित, देवल, ब्रह्मर्षि पराशर, बुद्धिमान्‌ वार्षगण्य, भृगु, पञचशिख, कपिल, शुक, गौतम, आर्डशिषेण, महात्मा गर्ग, नारद, आसुरि, बुद्धिमान्‌ पुलस्त्य, सनत्कुमार, महात्मा शुक्र तथा अपने पिता कश्यपजीके मुखसे भी पहले इस विषयका प्रतिपादन सुना था || ५९--६१ ||

तदनन्तर रुद्र, बुद्धिमान विश्वरूप, अन्यान्य देवता, पितर तथा दैत्योंसे भी जहाँ-तहाँसे यह सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। वे सब लोग ज्ञेय तत्त्वको पूर्ण और नित्य बतलाते हैं | ६२-६३ ।।

ब्राह्मणदेव! अब मैं इस विषयमें आपकी बुद्धिसे किये गये निर्णयको सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आप दिद्वानोंमें श्रेष्ठ, शास्त्रोंके प्रगल्भ पण्डित ओर अत्यन्त बुद्धिमान्‌ हैं || ६४ ।।

ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसे आप न जानते हों। वैदिक ज्ञानके तो आप भण्डार ही माने जाते हैं। ब्रह्मन! देवलोक और पितृलोकमें भी आपकी ख्याति है || ६५ ।।

ब्रह्मलोकमें गये हुए महर्षि भी आपकी महिमाका वर्णन करते हैं। तपनेवाले तेजस्वी ग्रहोंके पति अदितिनन्दन सनातन भगवान्‌ सूर्यने आपको वेदका उपदेश किया है ।।

ब्रह्म! याज्ञवल्क्थ! आपने सम्पूर्ण सांख्य तथा योगशास्त्रका भी विशेष ज्ञान प्राप्त किया है ।। ६७ ।।

इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि आप पूर्ण ज्ञानी हैं और सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को जानते हैं; अतः मैं माखनमय घीके समान स्वादिष्ट एवं सारभूत वह तत्त्वज्ञान आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ || ६८ ।।

याज्ञवल्क्थजीने कहा--अर्थात्‌ मैंने उत्तर दिया-गन्धर्वशिरोमणे! आपको मैं निः:संदेह सम्पूर्ण ज्ञानॉंको धारण करनेवाली मेधाशक्तिसे सम्पन्न मानता हूँ। राजन! आप सब कुछ जानते हुए भी मुझसे प्रश्न करते और मेरे विचारको जानना चाहते हैं; इसलिये मैंने जैसा सुना है, वह बताता हूँ सुनिये |। ६९ ।।

गन्धर्व! प्रकृति जड है, इसलिये उसे पचीसवाँ तत्त्व--जीवात्मा तो जानता है; किंतु प्रकृति जीवात्माको नहीं जानती || ७० ।।

सांख्य और योगके तत्त्वज्ञानी विद्वान्‌ श्रुतिमें किये हुए निरूपणके अनुसार जलमें प्रतिबिम्बित होनेवाले चन्द्रमाके समान प्रकृतिमें ज्ञानस्वरूप जीवात्माके बोधका प्रतिबिम्ब पड़नेसे उस प्रकृतिको प्रधान कहते हैं || ७१ ।।

निष्पाप गन्धर्व! जीवात्मा जाग्रत्‌ आदि अवस्थाओंमें सब कुछ देखता है। सुषुप्ति और समाधि अवस्थामें कुछ भी नहीं देखता है तथा परमात्मा सदा ही छब्बीसवें तत्त्वरूप अपनेआपको, पचीसरतवें तत्त्वरूप जीवात्माको और चौबीसतवें तत्त्वरूप प्रकृतिको भी देखता रहता है ।।

किंतु यदि जीवात्मा यह अभिमान करता है कि मुझसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है तो जो परमात्मा उसे निरन्तर देखता है, उसे वह समझता हुआ भी नहीं समझता ।। ७३ 

तत्त्वज्ञानी मनुष्योंको चाहिये कि वे प्रकृतिको आत्मभावसे ग्रहण न करें। जैसे मत्स्य जलका अनुसरण करता है, परंतु अपनेको उससे भिन्न ही मानता है, उसी प्रकार मनुष्य उसकी प्रवृत्तिके अनुसार स्वयं भी प्रवृत्त होवे; परंतु प्रकृतिको अपना स्वरूप न माने || ७४ ।।

जैसे मछली जलमें रहती हुई भी उस जलको अपनेसे भिन्न समझती है, उसी प्रकार यह जीवात्मा प्राकृत शरीरमें रहकर भी प्रकृतिसे अपनेको भिन्न समझता है तथापि वह शरीरके प्रति स्नेह, सहवास और अभिमानके कारण जब परमात्माके साथ अपनी एकताका अनुभव नहीं करता है, तब कालके समुद्रमें डूब जाता है। परंतु जब वह समत्वबुद्धिसे युक्त हो अपनी और परमात्माकी एकताको समझ लेता है, तब उस कालसमुद्रसे उसका उद्धार हो जाता है || ७५-७६ ।।

जब द्विज इस बातको समझ लेता है कि मैं अन्य हूँ और यह प्राकृत शरीर अथवा अनात्म-जगत्‌ मुझसे सर्वथा भिन्न है, तब वह प्रकृतिके संसर्गसे रहित हो छब्बीसवें तत्त्व परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है ।।

राजन! परमात्मा भिन्न है और जीवात्मा भिन्न; क्योंकि परमात्मा जीवात्माका आश्रय है; परंतु ज्ञानी संत-महात्मा उन दोनोंको एक ही देखते और समझते हैं ।।

कश्यपनन्दन! जन्म और मृत्युके भयसे डरे हुए योग और सांख्यके साधक भगवत्परायण हो शुद्ध भावसे छब्बीसवें तत्त्व परमात्माका दर्शन करते हुए जीवात्मा और परमात्माको एक समझते हैं और इस अभेद-दर्शनका सदा अभिनन्दन ही करते हैं ।। ७९ |।

जब जीवात्मा प्रकृतिके संसर्गसे रहित हो परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है, तब वह सर्वज्ञ विद्वान होकर इस संसारमें पुनर्जन्म नहीं पाता है || ८० ।।

निष्पाप गन्धर्वराज! इस प्रकार मैंने तुमसे जड प्रकृति, चेतन जीवात्मा और बोधस्वरूप परमात्माका श्रुतिके अनुसार यथावत्रूपसे निरूपण किया है ।। ८१ ।।

कश्यपनन्दन! जो मनुष्य जीवात्माको और प्रकृति आदि जडवर्गको पृथक्‌-पृथक्‌ नहीं जानता, मंगलकारी तत्त्वपर दृष्टि नहीं रखता, केवल (प्रकृति-संसर्गसे रहित), अकेवल (प्रकृति-संसर्गसे युक्त), सबके आदिकारण जीवात्मा तथा परब्रह्म परमात्माको भी यथार्थरूपसे नहीं जानता (वह आवागमनके चक्‍्करमें पड़ा रहता है) || ८२ ।।

विश्वावसुने कहा--प्रभो! आपने सब देवताओंके आदिकारण ब्रह्मके विषयमें जो यथावत्‌ वर्णन किया है, वह सत्य, शुभ, सुन्दर तथा परम मंगलकारी है। आपका मन सदा ही इसी प्रकार ज्ञानमें स्थित रहे तथा आपको नित्य अक्षय कल्याणकी प्राप्ति हो (अच्छा, अब मैं जाता हूँ) ।। ८३ ।।

याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर महामना गन्धर्वराज विश्वावसु अपने कान्तिमान्‌ दर्शनसे प्रकाशित होते हुए मेरी परिक्रमा और अभिनन्दन करके स्वर्गलोकको चले गये। उस समय मैंने भी बड़े संतोषसे उनकी ओर देखा था ॥। ८४ ।।

राजा जनक! आकाशमें विचरनेवाले जो ब्रह्मा आदि देवता हैं, पृथ्वीपर निवास करनेवाले जो मनुष्य हैं तथा जो पृथ्वीसे नीचेके लोकोंमें रहते हैं, उनमेंसे जो लोग कल्याणमय मोक्षमार्गका आश्रय लिये हुए थे, उन सबको उन्हीं स्थानोंमें जाकर विश्वावसुने मेरे बताये हुए इस सम्यक्‌-दर्शनका उपदेश दिया था ।। ८५ ।।

सांख्यधर्ममें तत्पर रहनेवाले सम्पूर्ण सांख्यवेत्ता, योग-धर्मपरायण योगी तथा दूसरे जो मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मनुष्य हैं, उन सबको यह उपदेश ज्ञानका प्रत्यक्ष फल देनेवाला है ।। ८६ ।।

राजाओंमें सिंहके समान पराक्रमी नरेन्द्र! ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, अज्ञानसे नहीं-ऐसा विद्वान्‌ पुरुष कहते हैं। इसलिये यथार्थ ज्ञानका अनुसंधान करना चाहिये, जिससे अपने-आपको जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुड़ाया जा सके ।। ८७ ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा नीच वर्णमें उत्पन्न हुए पुरुषसे भी यदि ज्ञान मिलता हो तो उसे प्राप्त करके श्रद्धालु मनुष्यको सदा उसपर श्रद्धा रखनी चाहिये। जिसके भीतर श्रद्धा है, उस मनुष्यमें जन्म-मृत्युका प्रवेश नहीं हो सकता ।। ८८ ।।

ब्रह्मसे उत्पन्न होनेके कारण सभी वर्ण ब्राह्मण हैं। सभी सदा ब्रह्मका उच्चारण करते हैं। मैं ब्रह्मबुद्धिसे यथार्थ शास्त्रका सिद्धान्त बता रहा हूँ। यह सम्पूर्ण जगत्‌, यह सारा दृश्यप्रपंच ब्रह्म ही है ।। ८९ ।।

ब्रह्मके मुखसे ब्राह्मण उत्पन्न हुए हैं, ब्रह्मकी ही भुजाओंसे क्षत्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, ब्रह्मकी ही नाभिसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र प्रकट हुए हैं, अतः सभी वर्णके लोग ब्रह्मरूप ही हैं। किसी भी वर्णको ब्रह्मसे भिन्न नहीं समझना चाहिये || ९० ।।

राजन! मनुष्य अज्ञानके कारण ही कर्मानुष्ठानसे भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म लेते और मरते हैं। ज्ञानहीन मनुष्य ही अपने भयंकर अज्ञानके कारण नाना प्रकारकी प्राकृत योनियोंमें गिरते हैं ।। ९१ ।।

नरेन्द्र! अत: सब ओरसे ज्ञान प्राप्त करनेका ही प्रयत्न करना चाहिये। यह तो मैं तुमसे बता ही चुका हूँ कि सभी वर्णोके लोग अपने-अपने आश्रममें रहते हुए ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं; अतः जो ब्राह्मण ज्ञानमें स्थित है अथवा जो दूसरे वर्णका मनुष्य भी ज्ञाननिष्ठ है, उसके लिये नित्य मोक्षकी प्राप्ति बतायी गयी है ।।

राजन! तुमने जो पूछा था उसके उत्तरमें मैंने तुम्हें यथार्थ ज्ञानका उपदेश किया है; अतः अब तुम शोकरहित हो जाओ और इस तत्त्वज्ञानमें पारंगत बनो। मैंने तुम्हें ज्ञानका भलीभाँति उपदेश कर दिया है। जाओ, तुम्हारा सदा कल्याण हो ।। ९३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! बुद्धिमान्‌ याज्ञ-वल्क्यजीके इस प्रकार उपदेश देनेपर मिथिलापति राजा जनक उस समय बहुत प्रसन्न हुए ।। ९४ ।।

उन्होंने सत्कारपूर्वक मुनिकी प्रदक्षिणा करके उन्हें विदा किया। जब वे मुनिवर याज्ञवल्क्य चले गये, तब मोक्षके ज्ञाता देवरातनन्दन राजा जनकने वहीं बैठे-बैठे एक करोड़ गौएँ छूकर ब्राह्मणोंको दान कर दीं तथा प्रत्येक ब्राह्यगको एक-एक अंजलि रत्न और सुवर्ण प्रदान किये |। ९५-९६ ।।

इसके बाद मिथिलानरेशने विदेहदेशका राज्य अपने पुत्रको सौंप दिया और स्वयं वे यति-धर्मका पालन करते हुए वहाँ रहने लगे || ९७ ।।

राजेन्द्र! नरेश्वर! उन्होंने सम्पूर्ण सांख्य, ज्ञान और योगशास्त्रका स्वाध्याय करके प्राकृत धर्म और अधर्मको त्याज्य मानते हुए यह निश्चय किया कि “मैं अनन्त हूँ।” ऐसा निश्चय करके वे धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, सत्य-असत्य तथा जन्म और मृत्युको व्यक्त (बुद्धि आदि) और अव्यक्त (प्रकृति) का कार्य मानकर सबको प्राकृत (प्रकृतिजन्य एवं मिथ्या) समझते हुए प्रकृतिसंसर्गसे रहित अपने शुद्ध एवं नित्य स्वरूपका ही चिन्तन करने लगे ।। ९८-१०० ||

युधिष्ठिर! सांख्य और योगके विद्वान्‌ अपने-अपने शास्त्रोंमें वर्णित लक्षणोंके अनुसार ऐसा देखते और समझते हैं कि वह ब्रह्म इष्ट और अनिष्टसे मुक्त, अचल-भावसे स्थित एवं परात्पर है ।। १०१ ।।

विद्वान्‌ पुरुष उस ब्रह्मको नित्य एवं पवित्र बताते हैं; अतः तुम भी उसे जानकर पवित्र हो जाओ। नरश्रेष्ठ! जो कुछ दिया जाता है, जो दी हुई वस्तु किसीको प्राप्त होती है, जो दानका अनुमोदन करता है, जो देता है तथा जो उस दानको ग्रहण करता है, वह सब अव्यक्त परमात्मा ही है। परमात्मा ही यह सब कुछ देता और लेता है || १०२-१०३ 

युधिष्ठिर! एकमात्र परमात्मा ही अपना है। उससे बढ़कर आत्मीय दूसरा कौन हो सकता है। तुम सदा ऐसा ही मानो और इसके विपरीत दूसरी किसी बातका चिन्तन न करो || १०४ ।।

जिसे अव्यक्त प्रकृतिका ज्ञान न हुआ हो, सगुण-निर्मुण परमात्माकी पहचान न हुई हो, उस विद्वानको तीर्थोंका सेवन और यज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये || १०५ ।।

कुरुनन्दन! स्वाध्याय, तप अथवा यज्ञोंद्वारा मोक्ष या परमात्मपदकी प्राप्ति नहीं होती (ये तो उनके तत्त्वको जाननेमें सहायक होते हैं)। इनके द्वारा परमात्माका स्पष्ट (अपरोक्ष) ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य महिमान्वित होता है || १०६ ।।

महत्तत्व्की उपासना करनेवाले महत्तत्वको और अहंकारके उपासक अहंकारको प्राप्त होते हैं; परंतु महत्तत्त और अहंकारसे भी श्रेष्ठ जो स्थान हैं, उन्हें प्राप्त करना चाहिये ।। १०७ ।।

जो शास्त्रोंके स्वाध्यायमें तत्पर होते हैं, वे ही प्रकृतिसे पर, नित्य, जन्म-मृत्युसे रहित, मुक्त एवं सदसत्स्वरूप परमात्माका ज्ञान प्राप्त करते हैं || १०८ ।।

युधिष्ठि!! यह ज्ञान मुझे पूर्वकालमें राजा जनकसे मिला था और जनकको याज्ञवल्क्यजीसे प्राप्त हुआ था। ज्ञान सबसे उत्तम साधन है। यज्ञ इसकी समानता नहीं कर सकते। ज्ञानसे ही मनुष्य इस दुर्गम संसार-सागरसे पार हो सकता है; यज्ञोंद्वारा नहीं ।। १०९ ||

राजन! ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि भौतिक जन्म और मृत्युको पार करना अत्यन्त कठिन है। यज्ञ आदिके द्वारा भी मनुष्य उस दुर्गम संकटसे पार नहीं हो सकता। यज्ञ, तप, नियम और व्रतोंद्वारा तो लोग स्वर्गलोकमें जाते और पुण्य क्षीण होनेपर फिर इस पृथ्वीपर गिर पड़ते हैं || ११० ।।

इसलिये तुम प्रकृतिसे पर, महत्‌, पवित्र, कल्याणमय, निर्मल, शुद्ध तथा मोक्षस्वरूप ब्रह्मयकी उपासना करो। पृथ्वीनाथ! क्षेत्रको जानकर और ज्ञानयज्ञका आश्रय लेकर तुम निश्चय ही तत्त्वज्ञानी ऋषि बन जाओगे ।। १११ ।।

पूर्वकालमें याज्ञवल्क्य मुनिने राजा जनकको जिस उपनिषद्‌ (ज्ञान) का उपदेश दिया था, उसका मनन करनेसे मनुष्य पूर्वकथित सनातन अविनाशी, शुभ, अमृतमय तथा शोकरहित परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।। ११२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज़्वल्क्य-जनक-संवादकी समाप्तिविषयक तीन सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ११३ श्लोक हैं)

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