सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ ग्यारहवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार, मन और विषयोंकी कालसंख्याका एवं सृष्टिका वर्णन तथा इन्द्रियोंमें मनकी प्रधानताका प्रतिपादन”
याज्ञवल्क्थजी कहते हैं--नरश्रेष्ठट अब तुम मुझसे अव्यक्तकी काल-संख्या सुनो। दस हजार कल्पोंका (महायुगोंका) इस अव्यक्तका एक दिन बताया जाता है ।।
नरेश्वर! उसकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है। ज्ञानस्वरूप परब्रह्म परमात्मा पहले समस्त प्राणियोंके जीवन-निर्वाहके लिये ओषधि (नाना प्रकारके अन्न) की सृष्टि करते हैं ।। २ ।।
हमने सुना है कि परमात्माने ओषधियोंकी सृष्टिके बाद ब्रह्माजीकी सृष्टि की थी, जो सुवर्णमय अण्डके भीतरसे प्रकट हुए थे। वे ही सम्पूर्ण भूतोंके उद्गमस्थान हैं ।। ३
वे महामुनि प्रजापति ब्रह्मा उस सुवर्णमय अण्डके भीतर एक वर्षतक निवास करके उससे बाहर निकल आये। फिर उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी, आकाश और ऊर्ध्वलोक (स्वर्ग) की सृष्टिके लिये विचार आरम्भ किया ।। ४ ।।
राजन! शक्तिशाली ब्रह्माजीने उस अण्डके दोनों टुकड़ोंके एवं स्वर्ग तथा भूतलके मध्यभागमें आकाशकी सृष्टि की। यह बात वेदोंमें कही गयी है || ५ ।।
वेदों और वेदांगोंके पारंगत विद्वान् ब्रह्माजीकी भी कालसंख्याका विचार करते हुए कहते हैं कि दस हजार कल्पोंमेंसे एक चौथाई कम कर देनेपर जितना शेष रहता है, उतना ही ब्रह्माजीके एक दिनका मान है अर्थात् साढ़े सात हजार कल्पोंका उनका एक दिन होता है ।। ६ |।
अध्यात्मतत्त्वोंका चिन्तन करनेवाले विद्वानोंका कथन है कि ब्रह्माजीकी रात्रि भी इतनी ही बड़ी है। महान् ऋषि ब्रह्मा अहंकार नामक दिव्य भूतकी सृष्टि करते हैं ।। ७ ।।
नृपश्रेष्ठट महान् ऋषि ब्रह्माने पूर्वकालमें भौतिक देहकी उत्पत्तिसे पहले चार अन्य पुत्रोंको उत्पन्न किया (जिनके नाम ये हैं--बुद्धि, अहंकार, मन और चित्त)। वे चारों पुत्र 'पितरोंके भी पितर' अर्थात् पज्चमहाभूतोंके भी जनक सुने जाते हैं ।। ८ ।।
नरश्रेष्ठ) देवता (श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ) पितरों (पञ्चमहाभूतों) के पुत्र हैं अर्थात् सारी इन्द्रियाँ पजच-महाभूतोंसे ही उत्पन्न हुई हैं और वे समस्त चराचर जगत्का आश्रय लेकर स्थित हैं, ऐसा हमने सुना है ।।
स्रष्टाके उत्तम पदपर प्रतिष्ठित हुआ अहंकार आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-इन पाँच प्रकारके भूतोंकी सृष्टि करता है || १० ।।
इस तृतीय भौतिक सर्गकी सृष्टि करनेवाले अहंकारकी रात्रि पाँच हजार कल्पोंकी होती है। उसका दिन भी उतना ही बड़ा बताया जाता है | ११ ।।
राजेन्द्र! आकाश आदि पाँच महाभूतोंमें क्रमश: शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये विशेष गुण हैं ।।
पृथ्वीनाथ! प्रवाहरूपसे सदा विद्यमान रहनेवाले इन मनोहर शब्द आदि विषयोंसे आविष्ट होकर सभी प्राणी प्रतिदिन कभी एक-दूसरेको चाहते हैं, कभी पारस्परिक हितसाधनमें तत्पर रहते हैं, कभी एक-दूसरेको नीचा दिखानेकी चेष्टा करते हैं, कभी आपसमें ईर्ष्या रखते हैं और कभी परस्पर प्रहार भी कर बैठते हैं || १३-१४ ।।
ऐसे विषयासक्त प्राणी तिर्यग्योनियोंमें प्रवेश करके इसी संसारमें चक्कर काटते रहते हैं। इन शब्दादि विषयोंका एक दिन तीन हजार कल्पोंका बताया जाता है। नरेश्वर! इनकी रात भी इतनी ही बड़ी है। मनके भी दिन-रातका परिमाण इतना ही है | १५६ ।
राजेन्द्र! मन इन्द्रियोंद्वारा संचालित होकर सब विषयोंकी ओर जाता है। इन्द्रियाँ उन विषयोंको नहीं देखतीं, मन ही उन्हें निरन्तर देखता है। आँख मनके सहयोगसे ही रूपका दर्शन करती है, अपनी शक्तिसे नहीं ।। १६-१७ ।।
जिस समय मन व्यग्र रहता है, उस समय आँख देखती हुई भी नहीं देख पाती। लोग भ्रमवश ही ऐसा कहते हैं कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ विषयोंको प्रत्यक्ष करती हैं | १८ ।।
किंतु इन्द्रियाँ कुछ नहीं देखतीं, केवल मन ही देखता है। राजन! मन विषयोंसे उपरत हो जाय तो इन्द्रियाँ भी विषयोंसे निवृत्त हो जाती हैं || १९ ।।
परंतु इन्द्रियोंके उपरत होनेपर मनमें उपरति नहीं आती। इस प्रकार यह निश्चय करना चाहिये कि सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें मन ही प्रधान है || २० ।।
मनको सम्पूर्ण इन्द्रियोंका स्वामी कहा जाता है। महायशस्वी नरेश! जगत्के समस्त प्राणी इस मनका ही आश्रय लेते हैं || २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज़्वल्क्य-जनकका संवादविषयक तीन सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ बारहवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“संहारक्रमका वर्णन”
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--राजन्! अब मेरेद्वारा क्रमश: बतायी हुई तत्त्वोंकी सम्पूर्ण संख्या, कालसंख्या तथा तत्त्वोंके संहारकी वार्ता सुनो ।। १ ।।
आदि और अन्तसे रहित नित्य अक्षरस्वरूप ब्रह्माजी किस प्रकार बारंबार प्राणियोंकी सृष्टि और संहार करते हैं--यह बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो |। २ ।।
भगवान् ब्रह्माजी जब देखते हैं कि मेरे दिनका अन्त हो गया, तब उनके मनमें रातको शयन करनेकी इच्छा होती है, इसलिये वे अहंकारके अभिमानी देवता रुद्रको संहारके लिये प्रेरित करते हैं ।। ३ ।।
उस समय वे रुद्रदेव ब्रह्माजीसे प्रेरित होकर प्रचण्ड सूर्यका रूप धारण करते हैं और अपनेको बारह रूपोंमें अभिव्यक्त करके अग्निके समान प्रज्वलित हो उठते हैं ।। ४।।
भूपाल! नरेश्वर! फिर वे अपने तेजसे जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदिभज्ज--इन चार प्रकारके प्राणियोंसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत्को शीघ्र ही भस्म कर डालते हैं ।।
पलक मारते-मारते इस समस्त चराचर जगत्का नाश हो जाता है और यह भूमि सब ओरसे कछुएकी पीठकी तरह प्रतीत होने लगती है ।। ६ ।।
जगत्को गन्ध करनेके बाद अमित बलवान् रुद्र इस अकेली बची हुई समूची पृथ्वीको शीघ्र ही जलके महान् प्रवाहमें डुबो देते हैं || ७ ।।
तदनन्तर कालाग्निकी लपटमें पड़कर वह सारा जल सूख जाता है। राजेन्द्र! जलके नष्ट हो जानेपर आग अत्यन्त भयानक रूप धारण करती है और सब ओर बड़े जोरसे प्रज्वलित होने लगती है ।। ८ ।।
सम्पूर्ण भूतोंको गर्मी पहुँचानेवाली तथा अत्यन्त प्रबल वेगसे जलती हुई उस सात ज्वालाओंसे युक्त अताको बलवान् वायुदेव अपने आठ रूपोंमें प्रकट होकर निगल जाते हैं और ऊपर-नीचे तथा बीचमें सब ओर प्रवाहित होने लगते हैं ।। ९-१० ।।
तदनन्तर आकाश उस अत्यन्त प्रबल एवं भयंकर वायुको स्वयं ही ग्रस लेता है। फिर गर्जन-तर्जन करनेवाले उस आकाशको उससे भी अधिक शक्तिशाली मन अपना ग्रास बना लेता है ।। ११ ।।
क्रमश: भूतात्मा और प्रजापतिस्वरूप अहंकार मनको अपनेमें लीन कर लेता है। तत्पश्चात् भूत, भविष्य और वर्तमानका ज्ञाता बुद्धिस्वरूप महत्तत्व अहंकारको अपना ग्रास बना लेता है ।। १२ ।।
इसके बाद, जिनके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं, सब ओर कान हैं तथा जो जगत्में सबको व्याप्त करके स्थित हैं, जो सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें अंगुष्ठपर्वके बराबर आकार धारण करके विराजमान हैं, अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि ऐश्वर्य जिनके अधीन हैं, जो सबके नियन्ता, ज्योति:ःस्वरूप, अविनाशी, कल्याणमय, प्रजाके स्वामी, अनन्त, महान् आत्मा और सर्वेश्वर हैं, वे परब्रह्म परमात्मा उस अनुपम विश्वरूप बुद्धितत््वको अपनेमें लीन कर लेते हैं | १३--१५ ।।
तदनन्तर हास और वृद्धिसे रहित, अविनाशी और निर्विकार, सर्वस्वरूप परब्रह्म ही शेष रह जाता है। उसीने भूत, भविष्य और वर्तमानकी सृष्टि करनेवाले निष्पाप ब्रह्माकी भी सृष्टि की है ।। १६ ।।
राजेन्द्र! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष संहारक्रमका यथावत््रूपसे वर्णन किया है। अब तुम अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवका वर्णन सुनो || १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज़वल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ तेरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तेरहवें अध्याय के श्लोक 1-28 का हिन्दी अनुवाद)
“अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवतका वर्णन तथा सात््विक, राजस और तामस भावोंके लक्षण”
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--राजन! तत्त्वदर्शी ब्राह्मगोंका कथन है कि दोनों पैर अध्यात्म हैं, गन्तव्य स्थान अधिभूत हैं और विष्णु अधिदैवत हैं ।। १ ।।
तच्त्वार्थदर्शी विद्वान् गुदाको अध्यात्म कहते हैं। मलत्याग अधिभूत है और मित्र अधिदैवत हैं ।। २ ।।
योगमतका प्रदर्शन करनेवाले जैसा कहते हैं, उसके अनुसार उपस्थ अध्यात्म है, मैथुनजनित आनन्द अधिभूत है और प्रजापति अधिदैवत हैं ।। ३ ।।
सांख्यदर्शी विद्वानोंके कथनानुसार दोनों हाथ अध्यात्म हैं, कर्तव्य अधिभूत है और इन्द्र अधिदैवत हैं ।।
वेदार्थपर विचार करनेवाले विद्वान् जैसा कहते हैं, उसके अनुसार वाक् अध्यात्म है, वक्तव्य अधिभूत है और अग्नि अधिदैवत हैं ।। ५ ।।
वेददर्शी विद्वान् जैसा बताते हैं, उसके अनुसार नेत्र अध्यात्म है, रूप अधिभूत है और सूर्य अधिदैवत हैं ।।
वैदिक सिद्धान्तका ज्ञान रखनेवाले विद्वान् पुरुष कहते हैं कि श्रोत्र अध्यात्म है, शब्द अधिभूत है, और दिशाएँ अधिदैवत हैं || ७ ।।
वेदके अनुसार दृष्टि रखनेवाले विद्वानोंका कथन है कि जिह्ठा अध्यात्म है, रस अधिभूत है और जल अधिदैवत है ।। ८ ।।
वैदिक मतके अनुसार यथार्थ तत्त्वका ज्ञान रखनेवाले विद्वान् कहते हैं कि नासिका अध्यात्म है, गन्ध अधिभूत है और पृथ्वी अधिदैवत है ।। ९ ।।
तत्त्वज्ञानमें कुशल पुरुषोंका कथन है कि त्वचा अध्यात्म है, स्पर्श अधिभूत है और वायु अधिदैवत है ।।
शास्त्रज्ञाननिपुण विद्वान् कहते हैं कि मन अध्यात्म है, मन्तव्य अधिभूत है और चन्द्रमा अधिदेवता हैं ।।
तत्त्वदर्शी पुरुषोंका कथन है कि अहंकार अध्यात्म है, अभिमान अधिभूत है और रुद्र अधिदेवता हैं ।। १२ ।।
यथार्थ ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि बुद्धि अध्यात्म है, बोद्धव्य अधिभूत है और आत्मा अधिदेवता है || १३ ।।
तत्त्वज्ञ नरेश! यह मैंने तुम्हारे निकट आदि, मध्य और अन्तमें तत्त्वतः प्रकाशित होनेवाली जीवकी व्यक्तिगत विभूतिका वर्णन किया है ।। १४ ।।
महाराज! प्रकृति स्वतन्त्रतापूर्वक खेल करनेके लिये अपनी ही इच्छासे सैकड़ों और हजारों गुणोंको उत्पन्न करती है ।। १५ ।।
जैसे मनुष्य एक दीपकसे हजारों दीपक जला लेते हैं, उसी प्रकार प्रकृति पुरुषके सम्बन्धसे अनेक गुण उत्पन्न कर देती है ।। १६ ।।
धैर्य, आनन्द, प्रीति, उत्कर्ष, प्रकाश (ज्ञानशक्ति), सुख, शुद्धि, आरोग्य, संतोष, श्रद्धा, अकार्पण्य (दीनताका अभाव), असंरम्भ (क्रोधका अभाव), क्षमा, धृति, अहिंसा, समता, सत्य, ऋणसे रहित होना, मृदुता, लज्जा, अचंचलता, शौच, सरलता, सदाचार, अलोलुपता, हृदयमें सम्भ्रमका न होना, इष्ट और अनिष्टके वियोगका बखान न करना, दानके द्वारा धैर्य धारण करना, किसी वस्तुकी इच्छा न करना, परोपकार और सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया--ये सब सत्त्वसम्बन्धी गुण बताये गये हैं ।। १७--२० ।।
रूप, ऐश्वर्य, विग्रह, त्यागकका अभाव, करुणाका अभाव, दुःख-सुखका उपभोग, परनिन्दामें प्रीति, वाद-विवाद करना, अहंकार, माननीय पुरुषोंका सत्कार न करना, चिन्ता, वैरभाव रखना, संताप करना, दूसरोंका धन हड़प लेना, निर्लज्जता, कुटिलता, भेदबुद्धि, कठोरता, काम, क्रोध, मद, दर्द, द्वेष और बहुत बोलनेका स्वभाव--यह रजोगुणका समूह है। ये सारे भाव रजोगुणके कार्य बताये गये हैं। अब मैं तामस भावोंके समूहका परिचय देता हूँ, ध्यान देकर सुनो | २१--२४ ।।
मोह, अप्रकाश (अज्ञान), तामिस्र और अन्धतामिस्र--ये सब तमोगुणके लक्षण हैं। इनमें तामिस्र क्रोधका वाचक है और अन्धतामिस्र मरणका। भोजनमें रुचिका न होना, खानेकी वस्तुओंसे तृप्ति या संतोषका अभाव अथवा कितना ही भोजन क्यों न मिले, उसे पर्याप्त न मानना, पीनेकी वस्तुओंसे कभी तृप्त न होना, दुर्गन्धयुक्त वस्त्र, अनुचित विहार, मलिन शय्या और आसनोंका सेवन, दिनमें सोना, अत्यन्त वाद-विवादमें और प्रमादमें अत्यन्त आसक्त रहना, अज्ञानवश नाच-गीत और नाना प्रकारके बाजोंमें श्रद्धा, नाना प्रकारके धर्मोंसे द्वेष--ये तमोगुणके लक्षण हैं || २५--२८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज़वल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चौदहवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“सात्त्विक, राजस और तामस प्रकृतिके मनुष्योंकी गतिका वर्णन तथा राजा जनकके प्रश्न”
याज्ञवल्क्यजी कहते हैं--पुरुषप्रवर! सत्त्व, रज और तम--ये तीन प्रकृतिके गुण हैं, जो सम्पूर्ण जगतमें सदा विद्यमान रहते हैं। कभी उससे अलग नहीं होते हैं ।। १ ।।
यह ऐश्वर्यशालिनी प्रकृति अपने ही प्रभावसे जीवको सैकड़ों, हजारों, लाखों और करोड़ों रूपोंमें प्रकट कर देती है || २६ ।।
अध्यात्म-शास्त्रका चिन्तन करनेवाले विद्वान् कहते हैं कि सात््विक पुरुषको उत्तम, रजोगुणीको मध्यम और तमोगुणीको अधम स्थानकी प्राप्ति होती है ।। ३३
केवल पुण्य करनेसे मनुष्य ऊर्ध्वलोकमें गमन करता है, पुण्य और पाप दोनोंके अनुष्ठानसे मर्त्यलोकमें जन्म लेता है तथा केवल पापाचार करनेपर उसे अधोगतिमें गिरना पड़ता है |। ४६ ।।
अब मैं सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंके द्वन्द्र और संनिपात-का यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ, सुनो || ५३ |।
सत्त्गगुणके साथ रजोगुण, रजोगुणके साथ तमोगुण, तमोगुणके साथ सत्त्वगुण तथा सत्त्वगुणके साथ अव्यक्त (जीवात्मा)-का सम्मिश्रण देखा जाता है (यह दो तत्त्वोंका संयोग या मेल ही द्वन्द् है)। जीवात्मा जब सत्त्वगुणसे संयुक्त होता है, तब देवलोकको प्राप्त होता है ।। ६-७ ।।
रजोगुण और सत्त्वगुणसे संयुक्ति होनेपर वह मनुष्य-लोकमें जाता है तथा रजोगुण और तमोगुणसे संयुक्त होनेपर वह पशु-पक्षी आदिकी योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है ।। ८ ।।
राजस, तामस और सात्विक तीनों भावोंसे युक्त होनेपर जीवको मनुष्ययोनिकी प्राप्ति होती है। जो पुण्य और पाप दोनोंसे रहित हैं, उन महात्मा पुरुषोंके लिये सनातन, अविकारी, अक्षय और अमृतपदकी प्राप्ति बतायी गयी है ।। ९ ।।
जहाँ किसी प्रकारका कष्ट नहीं है, जहाँसे कभी पतन नहीं होता है, जो इन्द्रियातीत है, जहाँ बन्धनमें डालनेवाला कोई कारण नहीं है तथा जो जन्म, मृत्यु और अज्ञानका विनाश करनेवाला है, वह श्रेष्ठ स्थान (परमपद) ज्ञानियोंको ही प्राप्त हो सकता है || १० ।।
नरेश्वर! तुमने जो अव्यक्त प्रकृतिमें स्थित परमतत्त्वके विषयमें मुझसे प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें यह निवेदन है कि यह परमतत्त्व प्राकृत शरीरमें स्थित होनेसे ही प्रकृतिस्थ कहलाता है ।। ११ ।।
पृथ्वीनाथ! प्रकृति अचेतन मानी गयी है। इस परमतत्त्वद्वारा अधिष्ठित होकर ही वह सृष्टि एवं संहार करती है ।। १२ ।।
जनकने पूछा--महामते! प्रकृति और पुरुष दोनों आदि-अन्तसे रहित, मूर्तिहीन और अचल हैं। दोनों अपने-अपने गुणमें स्थिर रहनेवाले और दोनों ही निर्गुण हैं ।।
मुनिश्रेष्ठ! वे दोनों ही बुद्धि-अगोचर हैं। फिर इन दोनोंमेंसे एक प्रकृतिको आपने अचेतन क्यों बताया है? तथा दूसरेको चेतन एवं क्षेत्रज्ञ कैसे कहा है? ।। १४ ।।
विप्रवर! आप पूर्णरूपसे मोक्षधर्मका सेवन करते हैं, इसलिये आपहीके मुँहसे मैं सम्पूर्ण मोक्ष-धर्मका यथावत् रूपसे श्रवण करना चाहता हूँ ।। १५ ।।
आप पुरुषके अस्तित्व, केवलत्व और प्रकृतिसे पृथक सत्ताका स्पष्टीकरण कीजिये और देहका आश्रय ग्रहण करनेवाले जो देवता हैं, उनका तत्त्व भी मुझे समझाइये ।। १६ ।।
तथा मरनेवाले जीवके प्राणोंका जब उत्क्रमण होता है, उस समय उसे समयानुसार किस स्थानकी प्राप्ति होती है? इसपर भी प्रकाश डालिये || १७ ।।
साधुशिरोमणे! साथ ही पृथक्-पृथक् सांख्य और योगके ज्ञानका तथा मृत्युसूचक लक्षणोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये; क्योंकि ये सारी बातें आपको हाथपर रखे हुए आँवलेके समान ज्ञात हैं ।। १८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज़वल्क्य और जनकका संवादविषयक तीन सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- १-२-दो गुणोंके मेलको द्वद्ध और तीन गुणोंके मेलको संनिपात कहते हैं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ पन्द्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ पन्द्रहवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद):
“प्रकृति-पुरुषका विवेक और उसका फल”
याज्ञवल्क्थजी कहते हैं--तात! प्रजापालक नरेश! निर्गुणको सगुण और सगुणको निर्मुण नहीं किया जा सकता। इस विषयमें जो यथार्थ तत्त्व है, वह मुझसे सुनो ।।
तत्त्वदर्शी महात्मा मुनि कहते हैं, जिसका गुणोंके साथ सम्पर्क है, वह गुणवान् है तथा जो गुणोंके संसर्गसे रहित है, वह निर्गुण कहलाता है ।। २ ।।
अव्यक्त प्रकृति स्वभावसे ही गुणवती है। वह गुणोंका कभी उल्लंघन नहीं कर सकती है। उन्हींको उपयोगमें लाती है और स्वभावसे ही ज्ञानरहित है ।। ३ ।।
प्रकृतिको किसी वस्तुका ज्ञान नहीं होता। इसके विपरीत पुरुष स्वभावसे ही ज्ञानी है। वह सदा इस बातको जानता रहता है कि मुझसे कोई दूसरा उत्कृष्ट पदार्थ नहीं है ।। ४
इस कारणसे प्रकृतिको अचेतन माना गया है। क्षर अर्थात् विनाशी होनेके कारण वह जडके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकती। इधर नित्य तथा अक्षर (अविनाशी) होनेके कारण पुरुष चेतन है ।। ५ ।।
परंतु वह जबतक अज्ञानवश बारंबार गुणोंका संसर्ग करता और अपने असंगस्वरूपको नहीं जानता है, तबतक उसकी मुक्ति नहीं होती है ।। ६ ।।
वह अपनेको सृष्टिका कर्ता माननेके कारण सर्गधर्मा कहलाता है और योगका कर्ता माननेसे योगधर्मा कहा जाता है ।। ७ ।।
नाना प्रकृतियोंको अपनेमें स्वीकार कर लेनेसे वह प्रकृति-धर्मवाला हो जाता है ।। ८ ।।
तथा स्थावर पदार्थोंके बीजोंका कर्ता होनेसे उसे बीजधर्मा कहते हैं। साथ ही वह गुणोंकी उत्पत्ति और प्रलयका कर्ता है, इसलिये गुणधर्मा कहलाता है ।। ९ ।।
अध्यात्मशास्त्रको जाननेवाले चिन्तारहित सिद्ध यति लोग पुरुषको केवल (प्रकृतिके संगसे रहित) मानते हैं; क्योंकि वह साक्षी और अद्वितीय है, उसे सुख-दुःखका अनुभव तो अभिमानके कारण होता है। वह वास्तवमें तो नित्य और अव्यक्त है, किंतु प्रकृतिके सम्बन्धसे अनित्य और व्यक्त प्रतीत होता है ।। १० ।।
सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले और केवल ज्ञानका सहारा लेनेवाले कुछ सांख्यके विद्वान् प्रकृतिको एक तथा पुरुषको अनेक मानते हैं ।। ११ ।।
पुरुष प्रकृतिसे भिन्न और नित्य है तथा अव्यक्त (प्रकृति) पुरुषसे भिन्न एवं अनित्य है। जैसे सींकसे मूँज अलग होती है, उसी प्रकार प्रकृति भी पुरुषसे पृथक् है ।।
जैसे गूलर और उसके कीड़े एक साथ होनेपर भी अलग-अलग समझे जाते हैं, गूलरके संयोगसे कीड़े उससे लिप्त नहीं होते तथा जैसे मत्स्य दूसरी वस्तु है और जल दूसरी। पानीके स्पर्शसे कभी कोई मत्स्य लिप्त नहीं होता है ।। १३-१४ ।।
राजन! जैसे अग्नि दूसरी वस्तु है और मिट्टीकी हँड़िया दूसरी वस्तु। इन दोनोंके भेदको नित्य समझो। उस हँड़ियेके स्पर्शसे अग्नि दूषित नहीं होती है ।। १५ ।।
जैसे कमल दूसरी वस्तु है और पानी दूसरी, पानीके स्पर्शसे कमल लिप्त नहीं होता है। उसी प्रकार पुरुष भी प्रकृतिसे भिन्न और असंग है ।। १६ ।।
साधारण मनुष्य इनके सहवास और निवासको कभी ठीक-ठीक समझ नहीं पाते। जो इन दोनोंके स्वरूपको अन्यथा जानते हैं अर्थात् प्रकृति और पुरुषको एक दूसरेसे भिन्न नहीं जानते हैं उनकी दृष्टि ठीक नहीं है। वे अवश्य ही बार-बार घोर नरकमें पड़ते हैं ।।
इस प्रकार मैंने तुम्हें यह विचारप्रधान उत्तम सांख्य-दर्शन बताया है। सांख्यशास्त्रके विद्वान इस प्रकार जान करके कैवल्यको प्राप्त हो गये हैं ।। १९ ।।
दूसरे भी जो तत्त्वविचारकुशल दिद्वान् हैं, उनका भी ऐसा ही मत है। इसके बाद मैं योगियोंके शास्त्रका वर्णन करूँगा ।। २० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें याज़वल्क्य और जनकके संवादमें तीन सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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