सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ छःवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ छःवें अध्याय के श्लोक 1-50 का हिन्दी अनुवाद)
“योग और सांख्यके स्वरूपका वर्णन तथा आत्मज्ञानसे मुक्ति”
जनकने पूछा--मुनिश्रेष्ठ] आपने क्षरको अनेक रूप और अक्षरको एकरूप बताया; किंतु इन दोनोंके तत्त्वका जो निर्णय किया गया है, उसे मैं अब भी संदेहकी दृष्टिसे ही देखता हूँ || १ ।।
निष्पाप महर्षे! जिसे अज्ञानी पुरुष (अनेक रूपमें) और ज्ञानी पुरुष एक रूपमें जानते हैं, उस परमात्माका तत्त्व मैं अपनी स्थूल बुद्धिके कारण समझ नहीं पाता हूँ। मेरे इस कथनमें तनिक भी संशय नहीं है ।। २ ।।
अनघ! यद्यपि आपने क्षर और अक्षरको समझानेके लिये अनेक प्रकारकी युक्तियाँ बतायी हैं तथापि मेरी बुद्धि अस्थिर होनेके कारण मैं उन सारी युक्तियोंको मानो भूल गया हूँ ।। ३ ।।
इसलिये इस नानात्व और एकत्व-रूप दर्शनको मैं पुनः सुनना चाहता हूँ। बुद्ध (ज्ञानवान्) क्या है? अप्रतिबुद्ध (ज्ञानहीन) क्या है? तथा बुद्धयमान (ज्ञेय) क्या है? यह ठीक-ठीक बताइये ।। ४ ।।
भगवन! मैं विद्या, अविद्या, अक्षर और क्षर तथा सांख्य और योगको पृथक्-पृथक् पूर्णरूपसे समझना चाहता हूँ ।। ५ ।।
वसिष्ठजीने कहा--महाराज! तुम जो-जो बातें पूछ रहे हो, मैं उन सबका भलीभाँति उत्तर दूँगा। इस समय योगसम्बन्धी कृत्यका पृथक् ही वर्णन कर रहा हूँ, सुनो ।।
योगियोंके लिये प्रधान कर्तव्य है ध्यान। वही उनका परम बल है। योगके विद्वान् उस ध्यानको दो प्रकारका बतलाते हैं--एक तो मनकी एकाग्रता और दूसरा प्राणायाम। प्राणायामके भी दो भेद हैं--सगुण और निर्मुण। इनमेंसे जिस प्राणायाममें मनका सम्बन्ध सगुणके साथ रहता है, वह सगुण प्राणायाम है और जिसमें मनका सम्बन्ध निर्गुणके साथ रहता है, वह निर्गुण प्राणायाम है ।। ७-८ ।।
नरेश्वर! मलत्याग, मूत्रत्याग और भोजन--इन तीन कार्योंमें जो समय लगता है, उसमें योगका अभ्यास न करे। शेष समयमें तत्परतापूर्वक योगका अभ्यास करना चाहिये ।। ९
बुद्धिमान योगीको चाहिये कि पवित्र हो मनके द्वारा श्रोत्र आदि इन्द्रियोंको शब्द आदि विषयोंसे हटावे एवं बाईस- प्रकारकी प्रेरणाओंद्वारा उस जरारहित जीवात्माको, जिसे मनीषी पुरुषोंने आत्मस्वरूप बताया है, चौबीस तत्त्वोंके समुदायरूप प्रकृतिसे परे परम पुरुष परमात्माकी ओर प्रेरित करे || १०-११ ।।
हमने गुरुजनोंके मुखसे सुना है कि जो लोग इस प्रकार प्राणायाम करते हैं, वे सदा ही परब्रह्म परमात्माके जाननेके अधिकारी होते हैं। जिसका मन सदा ध्यानमें संलग्न रहता है, ऐसे योगीके ही योग्य यह व्रत है अन्यथा बहिर्मुख चित्तवाले पुरुषके लिये यह नहीं है। यह निश्चितरूपसे जानना चाहिये ।। १२ ।।
योगी सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त हो मिताहारी और जितेन्द्रिय बने तथा रात्रिके पहले और पिछले भागमें मनको आत्मामें एकाग्र करे ।। १३ ।।
मिथिलेश्वर! जब योगी मनके द्वारा सम्पूर्ण इन्द्रियोंको और बुद्धिके द्वारा मनको स्थिर करके पत्थरकी भाँति अविचल हो जाय, सूखे काठकी भाँति निष्कम्य और पर्वतकी तरह स्थिर रहने लगे तभी शास्त्रके विधानको जाननेवाले विद्वान् पुरुष अपने अनुभवसे ही उसको योगयुक्त कहते हैं || १४-१५ ।।
जिस समय वह न तो सुनता है, न सूँघता है, न स्वाद लेता है, न देखता है और न स्पर्शका ही अनुभव करता है, जब उसके मनमें किसी प्रकारका संकल्प नहीं उठता तथा काठकी भाँति स्थित होकर वह किसी भी वस्तुका अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उसी समय मनीषी पुरुष उसे अपने शुद्धस्वरूपको प्राप्त एवं योगयुक्त कहते हैं | १६-१७ ।।
उस अवस्थामें वह वायुरहित स्थानमें रखे हुए निश्चलभावसे प्रज्वलित दीपककी भाँति प्रकाशित होता है। लिंग शरीरसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। वह ऐसा निश्चल हो जाता है कि उसकी ऊपर-नीचे अथवा मध्यमें कहीं भी गति नहीं होती || १८ ।।
जिनका साक्षात्कार कर लेनेपर मनुष्य कुछ बोल नहीं पाता, योगकालमें योगी उसी परमात्माको देखे। वत्स! मुझ-जैसे लोगोंको अपने-अपने हृदयमें स्थित सबके ज्ञाता अन्तरात्माका ही ज्ञान प्राप्त करना उचित है ।। १९ ।।
ध्याननिष्ठ योगीको अपने हृदयमें उसी प्रकार परमात्माका साक्षात् दर्शन होता है जैसे धूमरहित अग्निका, किरणमालाओंसे मण्डित सूर्यका तथा आकाशमें विद्युतके प्रकाशका दर्शन होता है ।। २० ।।
धैर्यवान्, मनीषी, ब्रह्मबोधक शास्त्रोंमें निष्ठा रखनेवाले और महात्मा ब्राह्मण ही उस अजन्मा एवं अमृतस्वरूप ब्रह्मका दर्शन कर पाते हैं || २१ ।।
वह ब्रह्म अणुसे भी अणु और महानसे भी महान् कहा गया है। सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर वह अन्तर्यामीरूपसे अवश्य स्थिर रहता है तथापि किसीको दिखायी नहीं देता है || २२ |।
सूक्ष्म बुद्धिरूप धन-सम्पन्न पुरुष ही मनोमय दीपकके द्वारा उस लोकस्रष्टा परमात्माका साक्षात्कार कर सकते हैं। वह परमात्मा महान् अन्धकारसे परे और तमोगुणसे रहित है; इसलिये वेदके पारगामी सर्वज्ञ पुरुषोंने उसे तमोनुद (अज्ञान नाशक) कहा है। वह निर्मल, अज्ञानरहित, लिंगहीन और अलिंग नामसे प्रसिद्ध (उपाधिशून्य) है। यही योगियोंका योग है। इसके सिवा योगका और क्या लक्षण हो सकता है। इस तरह साधना करनेवाले योगी सबके द्रष्टा अजर-अमर परमात्माका दर्शन करते हैं ।। २३--२५ ।।
यहाँतक मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे योग-दर्शनकी बात बतायी है, अब सांख्यका वर्णन करता हूँ; यह विचारप्रधान दर्शन है ।। २६ ।।
नृपश्रेष्ठ! प्रकृतिवादी विद्वान् मूल प्रकृतिको अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्त्व प्रकट हुआ, जिसे महत्तत्त्व कहते हैं || २७ ।।
महत्तत्त्व्से अहंकार प्रकट हुआ, जो तीसरा तत्त्व है। ऐसा हमारे सुननेमें आया है। अहंकारसे पाँच सूक्ष्म भूतोंकी अर्थात् पञ्चतन्मात्राओंकी उत्पत्ति हुई; यह सांख्यात्मदर्शी विद्वानोंका कथन है ।। २८
ये आठ प्रकृतियाँ हैं। इनसे सोलह तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें विकार कहते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मन्द्रियाँ एक मन और पाँच स्थूलभूत--ये सोलह विकार हैं। इनमेंसे आकाश आदि पाँच तत्त्व और पाँच ज्ञानेन्द्रियों--से विशेष कहलाते हैं || २९ ।।
सांख्यशास्त्रीय विधि-विधानके ज्ञाता और सदा सांख्यमार्गमें ही अनुरक्त रहनेवाले मनीषी पुरुष इतनी ही सांख्यसम्मत तत्त्वोंकी संख्या बतलाते हैं। अर्थात् अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार तथा पञ्चतन्मात्रा--इन आठ प्रकृतियोंसहित उपर्युक्त सोलह विकार मिलकर कुल चौबीस तत्त्व सांख्यशास्त्रके विद्वानोंने स्वीकार किये हैं || ३० ।।
जो तत्त्व जिससे उत्पन्न होता है, वह उसीमें लीन भी होता है। अनुलोमक्रमसे उन तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है (जैसे प्रकृतिसे महत्तत्त्व, महत्तत््व्से अहंकार, अहंकारसे सूक्ष्म भूत आदिके कमसे सृष्टि होती है); परंतु उनका संहार विलोमक्रमसे होता है (अर्थात् पृथ्वीका जलमें, जलका तेजमें और तेजका वायुमें लय होता है। इस तरह सभी तत्त्व अपने-अपने कारणमें लीन होते हैं)। ये सभी तत्त्व अन्तरात्मद्वारा ही रचे जाते हैं || ३१
जैसे समुद्रसे उठी हुई लहरें फिर उसीमें शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण गुण (तत्त्व) सदा अनुलोमक्रमसे उत्पन्न होते और विलोमक्रमसे अपने कारणभूत गुणों (तत्त्व) में ही लीन हो जाते हैं || ३२ ।।
नृपश्रेष्ठ) इतना ही प्रकृतिके सर्ग और प्रलयका विषय है। प्रलयकालमें इसका एकत्व है और जब रचना होती है, तब इसके बहुत भेद हो जाते हैं। राजेन्द्र! ज्ञाननिपुण पुरुषोंको इसी प्रकार प्रकृतिका एकत्व और नानात्व जानना चाहिये। अव्यक्त प्रकृति ही अधिष्ठाता पुरुषको सृष्टिकालमें नानात्वकी ओर ले जाती है। यही पुरुषके एकत्वका निदर्शन है ।। ३३-३४ ।।
अर्थतत्त्वके ज्ञाता पुरुषको यह जानना चाहिये कि प्रलयकालमें प्रकृतिमें भी एकता और सृष्टिकालमें अनेकता रहती है। इसी प्रकार पुरुष भी प्रलयकालमें एक ही रहता है; किंतु सृष्टिकालमें प्रकृतिका प्रेरक होनेके कारण उसमें नानात्वका आरोप हो जाता है ।।
परमात्मा ही प्रसवात्मिका प्रकृतिको नाना रूपोंमें परिणत करता है। प्रकृति और उसके विकारको क्षेत्र कहते हैं। चौबीस तत्त्वोंसे भिन्न जो पचीसवाँ तत्त्व महान् आत्मा है, वह क्षेत्रमें अधिष्ठातारूपसे निवास करता है || ३६ ।।
राजेन्द्र! इसीलिये यतिशिरोमणि उसे अधिष्ठाता कहते हैं। क्षेत्रोंका अधिष्ठान होनेके कारण वह अधिष्ठाता है, ऐसा हमने सुन रखा है || ३७ ।।
वह अव्यक्तसंज्ञक क्षेत्र (प्रकृति) को जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ष कहलाता है और प्राकृत शरीररूपी पुरोंमें अन्तर्यामीरूपसे शयन करनेके कारण उसे “पुरुष' कहते हैं || ३८ ।।
वास्तवमें क्षेत्र अन्य वस्तु है और क्षेत्रज्ञ अन्य। क्षेत्र अव्यक्त कहा गया है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पचीसवाँ तत्त्व आत्मा है ।। ३९ |।
ज्ञान अन्य वस्तु है और ज्ञेय उससे भिन्न कहा जाता है। ज्ञान- अव्यक्त कहा गया है और ज्ञेय पचीसवाँ तत्त्व आत्मा है || ४० ।।
अव्यक्तको क्षेत्र कहा गया है। उसीको सत्त्व (बुद्धि) और शासककी भी संज्ञा दी गयी है; परंतु पचीसवाँ तत्त्व परमपुरुष परमात्मा जड तत्त्व और ईश्वरसे रहित भिन्न है ।।
इतना ही सांख्यदर्शन है। सांख्यके विद्वान् तत्त्वोंकी संख्या (गणना) करते और प्रकृतिको ही जगत्का कारण बताते हैं। इसीलिये इस दर्शनका नाम सांख्यदर्शन है ।।
सांख्यवेत्ता पुरुष प्रकृतिसहित चौबीस तत्त्वोंकी परिगणना करके परमपुरुषको जड तत्त्वोंसे भिन्न पचीसवाँ निश्चित करते हैं || ४३ ।।
वह पचीसवाँ प्रकृतिरूप नहीं है। उससे सर्वथा भिन्न ज्ञानस्वरूप माना गया है। जब वह अपने-आपको प्रकृतिसे भिन्न नित्यचिन्मय जान लेता है, उस समय केवल हो जाता है अर्थात् अपने विशुद्ध परब्रह्मरूपमें स्थित हो जाता है ।। ४४ ।।
इस प्रकार मैंने तुमसे यह सम्यग्दर्शन (सांख्य) का यथावत््रूपसे वर्णन किया है। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, वे शान्तस्वरूप ब्रह्मको प्राप्त होते हैं || ४५ ।।
प्रकृति-पुरुषका प्रत्यक्ष-दर्शन (अपरोक्ष-अनुभव) ही सम्यग्दर्शन है। ये जो गुणमय तत्त्व हैं, इनसे भिन्न परमपुरुष परमात्मा निर्गुण हैं || ४६ ।।
इस दर्शनके अनुसार ज्ञान प्राप्त करनेवालोंकी इस संसारमें पुनरावृत्ति नहीं होती; क्योंकि वे अविनाशी ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाते हैं, अतः परापरस्वरूप निर्विकार परब्रह्मरूपसे ही उनकी स्थिति होती है || ४७ ।।
शत्रुदमन नरेश! जिनकी बुद्धि नानात्वका दर्शन करती है, उन्हें सम्यक्-ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। ऐसे लोगोंको बारंबार शरीर धारण करना पड़ता है ।। ४८ ।।
जो इस सारे प्रपंचको ही जानते हैं, वे इससे भिन्न परमात्माका तत्त्व न जाननेके कारण निश्चय ही शरीरधारी होंगे और शरीर तथा काम-क्रोध आदि दोषोंके वशवर्ती बने रहेंगे || ४९ ।।
'सर्व” नाम है अव्यक्त प्रकृतिका और उससे भिन्न पचीसवें तत्त्व परमात्माको असर्व कहा गया है। जो उन्हें इस प्रकार जानते हैं, उन्हें आवागमनका भय नहीं होता है ।।५०।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें वायिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ छःवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- जैसे घड़ेमें जल भरा जाता है, उसी प्रकार पादांगुष्ठसे लेकर मूर्धातक सम्पूर्ण शरीरमें नासिकाके छिद्रोंद्वारा वायुको खींचकर भर ले। फिर ब्रह्मरन्ध्र (मूर्धथा) से वायुको हटाकर ललाटमें स्थापित करे। यह प्राणवायुके प्रत्याहारका पहला स्थान है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर हटाते और रोकते हुए क्रमश: भ्रूमध्य, नेत्र, नासिकामूल, जिह्वामूल, कण्ठकूप, हृदयमध्य, नाभिमध्य, मेढ्र (उपस्थका मूलभाग), उदर, गुदा, ऊरुमूल, ऊरुमध्य, जानु, चितिमूल, जंघामध्य, गुल्फ और पादांगुष्ठ-इन स्थानोंमें वायुको ले जाकर स्थापित करे। इन अट्ठारह स्थानोंमें किये हुए प्रत्याहारोंको अठारह प्रकारकी प्रेरणा समझना चाहिये। इनके सिवा ध्यान, धारणा, समाधि तथा “सत्त्वपुरुषान्यता ख्याति” (बुद्धि और पुरुष इन दोनोंकी भिन्नताका बोध)--ये चार प्रेरणाएँ और हैं। ये ही सब मिलकर बाईस प्रकारकी प्रेरणाएँ कही गयी हैं।
- यहाँ 'ज्ञान' शब्दसे बुद्धिवृत्तिको समझना चाहिये।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ सातवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ सातवें अध्याय के श्लोक 1-48 का हिन्दी अनुवाद)
“विद्या-अविद्या, अक्षर और क्षर तथा प्रकृति और पुरुषके स्वरूपका एवं विवेकीके उद्गारका वर्णन”
वसिष्ठजी कहते हैं--नृपश्रेष्ठ! यहाँतक मैंने तुम्हें सांख्यदर्शनकी बात बतायी है। अब इस समय तुम मुझसे विद्या और अविद्याका वर्णन क्रमसे सुनो || १ ।।
मुनियोंने सृष्टि और प्रलयरूप धर्मवाले कार्यसहित अव्यक्तको ही अविद्या कहा है तथा चौबीस तत्त्वोंसे परे जो पचीसवाँ तत्त्व परम पुरुष परमात्मा है, जो सृष्टि और प्रलयसे रहित है, उसीको विद्या कहते हैं ।। २ ।।
तात! ऋषियोंने जिस प्रकार सांख्यदर्शनकी बात बतायी है, उसी प्रकार तुम अव्यक्तका जो पारस्परिक भेद है, उनमें जो जिसकी विद्या है अर्थात् श्रेष्ठ है, उसका वर्णन क्रमसे सुनो ।। ३ ।।
हमने सुन रखा है कि समस्त कर्मन्द्रियोंकी विद्या ज्ञानेन्द्रियाँ मानी गयी हैं। अर्थात् कर्मन्द्रियोंसे ज्ञानेन्द्रियाँ श्रेष्ठ हैं और ज्ञानेन्द्रियोंकी विद्या पज्चमहाभूत हैं ।। ४ ।।
मनीषी पुरुष कहते हैं कि स्थूल पञ्चभूतोंकी विद्या मन है और मनकी विद्या सूक्ष्म पज्चभूत हैं ।। ५ ।।
नरेश्वर! उन सूक्ष्म पञ्चभूतोंकी विद्या अहंकार है, इसमें कोई संशय नहीं है तथा अहंकारकी विद्या बुद्धि मानी गयी है |। ६ ।।
नरश्रेष्ठस अव्यक्त नामवाली जो परमेश्वरी प्रकृति है, वह सम्पूर्ण तत्त्वोंकी विद्या है। यह विद्या जानने योग्य है। इसीको ज्ञानकी परम विधि कहते हैं ।। ७ ।।
पचीसवें तत्त्वके रूपमें जिस परम पुरुष परमात्माकी चर्चा की गयी है, उसीको अव्यक्त प्रकृतिकी परम विद्या बताया गया है। राजन! वही सम्पूर्ण ज्ञानका सर्वरूप ज्ञेय है ।। ८।।
ज्ञान अव्यक्त कहा गया है और परम पुरुष ज्ञेय बताया गया है, उसी प्रकार ज्ञान अव्यक्त है और उसका ज्ञाता परम पुरुष है ।। ९ |।
राजन! मैंने तुम्हारे समक्ष यथार्थरूपसे विद्यासहित अविद्याका विशेषरूपसे वर्णन किया है। अब जो क्षर और अक्षर तत्त्व कहे गये हैं; उनके विषयमें मुझसे सुनो ।।
सांख्यमतमें प्रकृति और पुरुष दोनोंको ही अक्षर कहा गया है तथा ये ही दोनों क्षर भी हैं। मैं अपने ज्ञानके अनुसार इसका यथार्थ कारण बतलाता हूँ || ११ ।।
ये दोनों ही अनादि और अनन्त हैं; अतः परस्पर संयुक्त होकर दोनों ही ईश्वर (सर्वसमर्थ) माने गये हैं। सांख्यज्ञानका विचार करनेवाले विद्वान् इन दोनोंको ही “तत्त्व” कहते हैं ।। १२ ।।
सृष्टि और प्रलय प्रकृतिका धर्म है। इसलिये प्रकृतिको अक्षर कहा गया है। वही प्रकृति महत्तत्त्व आदि गुणोंकी सृष्टिके लिये बारंबार विकारको प्राप्त होती है; इसलिये उसे क्षर भी कहा जाता है ।। १३ ।।
महत्तत््व आदि गुणोंकी उत्पत्ति प्रकृति और पुरुषके परस्पर संयोगसे होती है; अतः एक-दूसरेका अधिष्ठान होनेके कारण पुरुषको भी क्षेत्र कहते हैं ।। १४ ।।
योगी जब अपने योगके प्रभावसे प्रकृतिके गुण-समूहको अव्यक्त मूल प्रकृतिमें विलीन कर देता है, तब उन गुणोंका विलय होनेके साथ-साथ पचीसवाँ तत्त्व पुरुष भी परमात्मामें मिल जाता है। इस दृष्टिसे उसे भी क्षर कह सकते हैं || १५ ।।
तात! जब कार्यभूत गुण कारणभूत गुणोंमें लीन हो जाते हैं, उस समय सब कुछ एकमात्र प्रकृतिस्वरूप हो जाता है तथा जब क्षेत्रज्ञ भी परमात्मामें लीन हो जाता है, तब उसका भी पृथक् अस्तित्व नहीं रहता ।। १६ ।।
विदेहराज! उस समय त्रिगुणमयी प्रकृति क्षरत्व (नाश) को प्राप्त होती है और पुरुष भी गुणोंमें प्रवृत्त न होनेके कारण निर्गुण (गुणातीत) हो जाता है ।। १७ ।।
इस प्रकार जब क्षेत्रका ज्ञान नहीं रहता अर्थात् पुरुषको प्रकृतिका ज्ञान नहीं रहता, तब वह स्वभावसे ही निर्गुण है--यह हमने सुन रखा है ।। १८ ।।
जब यह पुरुष क्षर होता है, अर्थात् परमात्मामें लीन हो जाता है, उस समय वह प्रकृतिके सगुणत्वको और अपने निर्गुणत्वको यथार्थ समझ लेता है ।। १९ ।।
इस तरह ज्ञानवान् पुरुष जब यह जान लेता है कि मैं अन्य हूँ और यह प्रकृति मुझसे भिन्न है, तब वह प्रकृतिसे रहित हो जानेसे अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित होता है ।। २० ।।
राजेन्द्र! प्रकृतिसे संयोगके समय उससे अभिन्न-सा प्रतीत होनेके कारण यह पुरुष तद्गूपताको प्राप्त हुआ-सा जान पड़ता है, परंतु उस अवस्थामें भी उसका प्रकृतिके साथ मिश्रण नहीं होता, उसकी पृथक्ता बनी रहती है। इस प्रकार पुरुष प्रकृतिके साथ संयुक्त और पृथक् भी दिखायी देता है || २१ ।।
जब वह प्राकृत गुणसमुदायको कुत्सित समझकर उससे विरत हो जाता है, उस समय वह परम दर्शनीय परमात्माका दर्शन पा जाता है और उसको देखकर फिर भी उसका त्याग नहीं करता अर्थात् उससे अलग नहीं होता || २२ ।।
(जिस समय जीवात्माको विवेक होता है, उस समय वह यों विचार करने लगता है--) “ओह! मैंने यह क्या किया? जैसे मछली अज्ञानवश स्वयं ही जाकर जालमें फँस जाती है, उसी प्रकार मैं भी आजतक यहाँ इस प्राकृत शरीरका ही अनुसरण करता रहा ।। २३।।
'जैसे मत्स्य पानीको ही अपने जीवनका मूल समझकर एक जलाशयसे दूसरे जलाशयको जाता है, उसी तरह मैं भी मोहवश एक शरीरसे दूसरे शरीरमें भटकता रहा ।। २४ ।।
'जैसे मत्स्य अज्ञानवश अपनेको जलसे भिन्न नहीं समझता, उसी प्रकार मैं भी अपनी अज्ञताके कारण इस प्राकृत शरीरसे अपनेको भिन्न नहीं समझता था ।।
“मुझ मूढ़को धिक्कार है; जो कि संसारसागरमें डूबे हुए इस शरीरका आश्रय ले मोहवश एक शरीरसे दूसरे शरीरका अनुसरण करता रहा ।। २६ ।।
“वास्तवमें इस जगत्के भीतर यह परमात्मा ही मेरा बन्धु है। इसीके साथ मेरी मैत्री हो सकती है। पहले मैं कैसा भी क्यों न रहा होऊँ, इस समय तो मैं इसकी समानता और एकताको प्राप्त हो चुका हूँ, जैसा वह है वैसा ही मैं हूँ || २७ ।।
“इसीमें मुझे अपनी समानता दिखायी देती है। मैं अवश्य इसके ही सदृश हूँ। यह परमात्मा प्रत्यक्ष ही अत्यन्त निर्मल है और मैं भी ऐसा ही हूँ || २८ ।।
“मैं जो कि आसक्तिसे सर्वथा रहित हूँ तो भी अज्ञान एवं मोहके वशीभूत होकर इतने समयतक इस आसक्तिमयी जड प्रकृतिके साथ रमता रहा ।। २९ ।।
“इसने मुझे इस तरह वशमें कर लिया था कि मुझे आजतकके समयका पता ही न चला। यह तो उच्च, मध्यम तथा नीच सब श्रेणीके लोगोंके साथ रहती है। भला, इसके साथ मैं कैसे रह सकता हूँ? ।। ३० ।।
“जो मेरे साथ संयुक्त होकर मेरी समानता करने लगी है, ऐसी इस प्रकृतिके साथ मैं मूर्खतावश सहवास कैसे कर सकता हूँ? यह लो, अब मैं स्थिर हो रहा हूँ ।।
“मैं निर्विकार होकर भी इस विकारमयी प्रकृतिके द्वारा ठगा गया। इतने समयतक इसने मेरे साथ ठगी की है। इसलिये अब इसके साथ नहीं रहूँगा || ३२ ।।
“किंतु यह इसका अपराध नहीं है, सारा अपराध मेरा ही है; जो कि मैं परमात्मासे विमुख होकर इसमें आसक्त हुआ स्थित रहा ।। ३३ ।।
“यद्यपि मैं सर्वथा अमूर्त हूँ अर्थात् किसी आकार-वाला नहीं हूँ तो भी मैं प्रकृतिकी अनेक रूपवाली मूर्तियोंमें स्थित हुआ देहरहित होकर भी ममतासे परास्त होनेके कारण देहधारी बना रहा ।। ३४ ।।
“पहले जो मैंने इसके प्रति ममता की थी, उसके कारण मुझे भिन्न-भिन्न योनियोंमें भटकना पड़ा। यद्यपि मैं ममतारहित हूँ तो भी इस प्रकृतिजनित ममताने भिन्न-भिन्न योनियोंमें मुझे डालकर मेरी बड़ी दुर्दशशा कर डाली ।।
“इसके साथ नाना प्रकारकी योनियोंमें भटकनेके कारण मेरी चेतना खो गयी थी। अब इस अहंकारमयी प्रकृतिसे मेरा कोई काम नहीं है || ३६ ।।
“अब भी यह बहुत-से रूप धारण करके मेरे साथ संयोगकी चेष्टा कर रही है; किंतु अब मैं सावधान हो गया हूँ, इसलिये ममता और अहंकारसे रहित हो गया हूँ ।। ३७ ।।
“अब तो इसको और इसकी अहंकारस्वरूपिणी ममताको त्यागकर इससे सर्वथा अतीत होकर मैं निरामय परमात्माकी शरण लूँगा ।। ३८ ।।
“उन परमात्माकी ही समानता प्राप्त करूँगा। इस जड प्रकृतिकी समानता नहीं धारण करूँगा। परमात्माके साथ संयोग करनेमें ही मेरा कल्याण है। इस प्रकृतिके साथ नहीं ।। ३९ ।।
“इस प्रकार उत्तम विवेकके द्वारा अपने शुद्ध स्वरूपका ज्ञान प्राप्तकर चौबीस तत्त्वोंसे परे पचीसवाँ आत्मा क्षरभाव (विनाशशीलता) का त्याग करके निरामय अक्षरभावको प्राप्त होता है || ४० ।।
“मिथिलानरेश! अव्यक्त प्रकृति, व्यक्त महत्तत्त्वादि, सगुण (जडवर्ग), निर्गुण (आत्मा) तथा सबके आदिभूत निर्गुण परमात्माका साक्षात्कार करके मनुष्य स्वयं भी वैसा ही हो जाता है || ४१ ।।
राजन! वेदमें जैसा वर्णन किया गया है, उसके अनुरूप यह क्षर-अक्षरका विवेक करानेवाला ज्ञान मैंने तुम्हें सुनाया है || ४२ ।।
अब पुनः श्रुतिके अनुसार संदेहरहित, सूक्ष्म तथा अत्यन्त निर्मल विशिष्ट ज्ञानकी बात तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो || ४३ ।।
मैंने सांख्य और योगका जो वर्णन किया है, उसमें इन दोनोंको पृथक्-पृथक् दो शास्त्र बताया है; परंतु वास्तवमें जो सांख्यशास्त्र है, वही योगशास्त्र भी है (क्योंकि दोनोंका फल एक ही है) ।। ४४ ।।
पृथ्वीनाथ! मैंने शिष्योंक हितकी कामनासे उनके लिये ज्ञानजनक जो सांख्यदर्शन है, उसका तुम्हारे निकट स्पष्टरूपसे वर्णन किया है ।। ४५ ।।
विद्वान् पुरुषोंका कहना है कि यह सांख्यशास्त्र महान् है। इस शास्त्रमें, योगशास्त्रमें तथा वेदमें अधिक प्रामाणिकता समझकर मनुष्यको इनके अध्ययनके लिये आगे बढ़ना चाहिये ।। ४६ ।।
नरेश्वर! सांख्यशास्त्रके आचार्य पचीसवें तत्त्वसे परे और किसी तत्त्वका वर्णन नहीं करते हैं। यह मैंने सांख्योंके परम तत्त्वका यथावत्रूपसे वर्णन किया है || ४७ ।।
जो नित्य ज्ञानसम्पन्न परब्रह्म परमात्मा है, वही बुद्ध है तथा जो परमात्मतत्त्वको न जाननेके कारण जिकज्ञासु जीवात्मा है, उसकी “बुध्यमान' संज्ञा होती है। इस प्रकार योगके सिद्धान्तके अनुसार बुद्ध (नित्य ज्ञानसम्पन्न परमात्मा) और बुध्यमान (जिज्ञासु जीव)--ये दो चेतन माने गये हैं ।। ४८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठकरालजनकसंवादविषयक तीन सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ आठवें अध्याय के श्लोक 1-51½ का हिन्दी अनुवाद)
“क्षर-अक्षर और परमात्म-तत्त्वका वर्णन, जीवके नानात्व और एकत्वका दृष्टान्त, उपदेशके अधिकारी और अनधिकारी तथा इस ज्ञानकी परम्पराको बताते हुए वसिष्ठ-करालजनक-संवादका उपसंहार”
वसिष्ठजी कहते हैं--राजन्! अब बुद्ध (परमात्मा), अबुद्ध (जीवात्मा) और इस गुणमयी सृष्टि (प्राकृत प्रपंच) का वर्णन सुनो। जीवात्मा अपने-आपको अनेक रूपोंमें प्रकट करके उन रूपोंको सत्य मानकर देखता रहता है ।। १ ।।
वास्तवमें ज्ञानसम्पन्न होनेपर भी इस प्रकार प्रकृतिके संसर्गसे विकारको प्राप्त हुआ जीवात्मा ब्रह्मको नहीं जान पाता। वह गुणोंको धारण करता है; अतः कर्तृत्वका अभिमान लेकर रचना और संहार किया करता है ।। २ ।।
जनेश्वर! जीवात्मा इस जगतमें सदा क्रीड़ा करनेके लिये ही विकारको प्राप्त होता है। वह अव्यक्त प्रकृतिको जानता है, इसलिये ऋषि-मुनि उसे “बुध्यमान' कहते हैं ।। ३ ।।
तात! परब्रह्म परमात्मा सगुण हो या निर्मुण, उसे प्रकृति कभी नहीं जानती (क्योंकि वह जड है), अतः सांख्यवादी विद्वान् इस प्रकृतिको अप्रतिबुद्ध (ज्ञानशून्य) कहते हैं ।। ४ ।।
यदि यह मान लिया जाय कि प्रकृति भी जानती है तो यह केवल पचीसवें तत्त्व-पुरुषको ही उससे संयुक्त होकर जान पाती है, प्रकृतिके साथ संयुक्त होनेके कारण ही जीव संगात्मक (संगी) होता है; ऐसा श्रुतिका कथन है। इस संगदोषके कारण ही अव्यक्त एवं अविकारी जीवात्माको लोग "मूढ़” कह दिया करते हैं ।। ५ ।।
पचीसवाँ तत्त्वरूप महान् आत्मा अव्यक्त प्रकृतिको जानता है, इसलिये उसे 'बुध्यमान' कहते हैं; परंतु वह भी छब्बीसवें तत्त्वरूप निर्मल नित्य शुद्ध बुद्ध अप्रमेय सनातन परमात्माको नहीं जानता है; किंतु वह सनातन परमात्मा उस पचीसतवें तत्त्वरूप जीवात्माको तथा चौबीसवीं प्रकृतिको भी भलीभाँति जानता है ।। ६-७ ।।
तात! महातेजस्वी नरेश! वह अव्यक्त एवं अद्वितीय ब्रह्म यहाँ दृश्य और अदृश्य सभी वस्तुओंमें स्वभावसे ही व्याप्त है; अतः वह सबको जानता है ।। ८ ।।
चौबीसवीं अव्यक्त प्रकृति न तो अद्वितीय ब्रह्मको देख पाती है और न पचीसतवें तत्त्वरूप जीवात्माको। जब जीवात्मा अव्यक्त ब्रह्मकी ओर दृष्टि रखकर अपनेको प्रकृतिसे भिन्न मानता है, तब यह प्रकृतिका अधिपति हो जाता है ।। ९६ ।।
नृपश्रेष्ठट जब जीवात्मा शुद्ध ब्रह्मविषयिणी, निर्मल एवं सर्वोत्कृष्ट बुद्धिको प्राप्त कर लेता है, तब वह छब्बीसवें तत्त्वरूप परब्रह्मका साक्षात्कार करके तद्भूप हो जाता है। उस स्थितिमें वह नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्मभावमें ही प्रतिष्ठित होता है। फिर तो वह सृष्टि और प्रलयरूप धर्मवाली अव्यक्त प्रकृतिसे सर्वधा अतीत हो जाता है ।। १०-११ ।।
वह गुणोंसे अतीत होकर त्रिगुणमयी प्रकृतिको जडरूपमें जान लेता है, इस प्रकार प्रकृतिको अपनेसे सर्वथा अभिन्न देखनेके कारण वह कैवल्यको प्राप्त हो जाता है ।। १२ ।।
केवल (अद्वितीय) ब्रह्मयमे मिलकर सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हुआ अपने परमार्थस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है। इसीको परमार्थतत्त्व कहते हैं। यह सब तत्त्वोंसे अतीत तथा जरा-मरणसे रहित है ।। १३ ।।
सबको मान देनेवाले नरेश! जीवात्मा तत्त्वोंका आश्रय लेनेसे ही तत्त्व-सदृश प्रतीत होता है। वास्तवमें वह तत्त्वोंका द्रष्टामात्र होनेके कारण तत्त्व नहीं है--तत्त्वोंसे सर्वथा भिन्न ही है। इस प्रकार मनीषी पुरुष (प्रकृतिके चौबीस तत्त्वोंके साथ) जीवात्माको भी एक तत्त्व मानकर कुल पचीस तत्त्वोंका प्रतिपादन करते हैं ।।
तात! यह जीवात्मा वास्तवमें तत्त्वोंसे अतीत है, अतः तद्गूप नहीं होता है; अपितु ज्ञानवान् होनेके कारण ब्रह्मज्ञानका उदय होनेपर यह शीघ्र ही प्राकृत तत्त्वोंका त्याग कर देता है और उसमें नित्य शुद्ध-बुद्ध ब्रह्मके लक्षण प्रकट हो जाते हैं ।। १५ ।।
“मैं पचीस तत्त्वोंसे भिन्न छब्बीसवाँ परमात्मा हूँ। नित्य ज्ञानसम्पन्न और जाननेके योग्य अजर-अमरस्वरूप हूँ,” इस प्रकार विचार करते-करते जीवात्मा केवल विवेक-बलसे ही ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है || १६ ।।
जीव छब्बीसवें तत्त्व ज्ञानस्वरूप परमात्माके प्रकाशसे ही जडवर्गको जानता है; परंतु उसे जानकर भी परमात्माको न जाननेके कारण वह अज्ञानी ही रह जाता है। यह अज्ञान ही जीवके नानात्वरूप बन्धनका कारण बताया जाता है। जैसा कि सांख्यशास्त्र और श्रुतियोंद्वारा दिग्दर्शन कराया गया है ।। १७ ।।
जब जीवात्मा बुद्धिके द्वारा जडवर्गको अपना नहीं समझता अर्थात् उससे सम्बन्ध नहीं जोड़ता, तब नित्य चेतन परमात्मासे संयुक्त हुए उस जीवात्माकी परमात्माके साथ एकता हो जाती है ।। १८ ।।
मिथिलानरेश! जबतक जीवात्मा जडवर्गको अपना समझता है, तबतक उस जडवर्गकी ही समताको वह प्राप्त होता है। यद्यपि वह स्वरूपसे असंग है तो भी प्रकृतिके सम्पर्कसे आसक्तिरूप धर्मवाला हो जाता है || १९ |।
छब्बीसवाँ तत्त्व परमात्मा अजन्मा, सर्वव्यापी और संगदोषसे रहित है। उसकी शरण लेकर जब जीवात्मा उसके स्वरूपका साक्षात्कार कर लेता है, तब परमात्म-ज्ञानके प्रभावसे स्वयं भी सर्वव्यापी हो जाता है तथा चौबीस तत्त्वोंसे युक्त प्रकृतिको असार समझकर त्याग देता है || २०३ ।।
निष्पाप नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे अप्रतिबुद्ध (क्षर), बुध्यमान (अक्षर जीवात्मा) और बुद्ध (ज्ञानस्वरूप परमात्मा)--इन तीनोंका श्रुतिके निर्देशके अनुसार यथार्थरूपसे प्रतिपादन किया है। शास्त्रीय दृष्टिके अनुसार जीवात्माके नानात्व और एकत्वको इसी तरह समझना चाहिये ।। २१-२२ ।।
जैसे गूलर और उसके कीड़े एक साथ रहते हुए भी परस्पर भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुषमें भी भिन्नता है। जैसे मछली और जल एक-दूसरेसे भिन्न हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुषमें भी भेद उपलब्ध होता है || २३ ।।
इसी प्रकार प्रकृति और पुरुषकी एकता और अनेकताको समझना चाहिये। अव्यक्त प्रकृतिका पुरुषसे जो नित्य भेद है, उसके यथार्थज्ञानसे पुरुष उसके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। इसीको मोक्ष कहा गया है ।।
इस शरीरमें जो पचीसवाँ तत्त्व अन्तर्यामी पुरुष विद्यमान है, उसे अव्यक्तके कार्यभूत महत्तत्त्वादिके बन्धनसे मुक्त करना आवश्यक है, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं || २५ ।।
वह यह जीवात्मा पूर्वोक्त प्रकारसे ही मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं। यही विद्वानोंका निश्चय है। यह दूसरेसे मिलकर उसीका समानधर्मी हो जाता है ।।
पुरुषप्रवर! जीवात्मा शुद्ध पुरुषका संग करके विशुद्ध धर्मवाला होता है। किसी ज्ञानी या बुद्धिमानका संग करनेसे बुद्धिमान् होता है। किसी मुक्तसे मिलनेपर उसमें मुक्तके-से ही धर्म या लक्षण प्रकट होते हैं ।।
जिसका प्रकृतिसे सम्बन्ध हट गया है, ऐसे पुरुषसे मिलनेपर वह विमुक्तात्मा होता है। जो मोक्षधर्मसे युक्त है, उसका साथ करनेसे जीवको मोक्ष प्राप्त होता है ।।
जिसके आचार-विचार शुद्ध हैं, उससे मिलनेपर वह पवित्रकर्मा एवं पवित्र होता है। जिसका अन्तःकरण निर्मल है, उसके सम्पर्कमें जानेपर वह भी निर्मलात्मा और अमिततेजस्वी होता है || २९ ।।
अद्वितीय परमात्मासे सम्बन्ध स्थापित करके वह तद्रूपताको प्राप्त हो जाता है अर्थात् अद्वितीय परमात्माको प्राप्त हो जाता है। स्वतन्त्र परमेश्वरसे सम्बन्ध रखनेके कारण वह वास्तवमें स्वतन्त्र होकर वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है || ३० ।।
महाराज! मैंने ईर्ष्या-द्रेषसे रहित भावको स्वीकार करके और तुम्हारे प्रयोजनको समझकर तुमसे प्रेमपूर्वक इस शुद्ध सनातन एवं सबके आदिभूत सत्यस्वरूप ब्रह्मके यथार्थ तत्त्वका इस रूपमें वर्णन किया है || ३१ ।।
राजन! जो मनुष्य वेदमें श्रद्धा रखनेवाला न हो, उसे इस उत्तम ज्ञानका उपदेश तुम्हें नहीं करना चाहिये। जिसे बोधके लिये अधिक प्यास हो तथा जो जिज्ञासुभावसे शरणमें आया हो, वही इस उपदेशको सुननेका अधिकारी है ।। ३२ ।।
असत्यवादी, शठ, नीच, कपटी, अपनेको पण्डित माननेवाले और दूसरेको कष्ट पहुँचानेवाले मनुष्यको भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। कैसे पुरुषको इस ज्ञानका उपदेश देना और अवश्य देना चाहिये--यह भी सुन लो ।। ३३ ।।
श्रद्धालु, गुणवान्, परनिन्दासे सदा दूर रहनेवाले, विशुद्ध योगी, विद्वान, सदा शास्त्रोक्त कर्म करनेवाले, क्षमाशील, सबके हितैषी, एकान्तवासी, शास्त्रविधिका आदर करनेवाले, विवादहीन, बहुज्ञ, विज्ञ किसीका अहित न करनेवाले तथा इन्द्रियसंयम एवं मनोनिग्रहमें समर्थ पुरुषको ही इस ज्ञानका उपदेश देना चाहिये ।।
जो इन सदगुणोंसे अत्यन्त हीन हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। यह ज्ञान विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप बताया गया है। वैसे गुणहीन पुरुषको दिया हुआ यह ज्ञान उसके लिये कल्याणकारी नहीं होगा तथा कुपात्रको उपदेश देनेसे वह वक्ताका भी कल्याण नहीं करेगा ।। ३६ ।।
नरेन्द्र! जिसने व्रत और नियमोंका पालन न किया हो, वह यदि रत्नोंसे भरी हुई इस सारी पृथ्वीका राज्य दे तो भी उसे इस ज्ञानका उपदेश नहीं देना चाहिये। परंतु जितेन्द्रिय पुरुषको निस्संदेह इस परम उत्तम ज्ञानका उपदेश देना तुझे उचित है ।। ३७ ।।
कराल! तुमने मुझसे आज परब्रह्मका ज्ञान सुना है; अतः तुम्हारे मनमें तनिक भी भय नहीं होना चाहिये। वह परब्रह्म परम पवित्र, शोकरहित, आदि, मध्य और अनन््तसे शून्य, जन्म-मृत्युसे बचानेवाला, निरामय, निर्भय तथा कल्याणमय है। राजन्! उसका मैंने यथावत्रूपसे प्रतिपादन किया है। वही सम्पूर्ण ज्ञानोंका तात््विक अर्थ है। ऐसा जानकर उसका ज्ञान प्राप्त करके आज मोहका परित्याग कर दो ।। ३८-३९ ।।
नरेश्वरर जिस प्रकार आज तुमने मुझसे सनातन ब्रह्मका ज्ञान प्राप्त किया है; इसी प्रकार मैंने भी हिरण्यगर्भ नामसे प्रसिद्ध सनातन उग्रचेता ब्रह्माजीके मुखसे, उन्हें बड़े यत्नसे प्रसन्न करके इसे प्राप्त किया था || ४० ।॥।
नरेन्द्र! जैसे तुमने मुझसे पूछा है और जैसे मैंने तुम्हारे प्रति आज इस ज्ञानका उपदेश किया है, उसी प्रकार मैंने भी ब्रह्माजीसे प्रश्न करके उनके मुखसे इस महान् ज्ञानको प्राप्त किया है। यह मोक्ष ज्ञानियोंका परम आश्रय है ।। ४१ ।।
भीष्मजी कहते हैं--महाराज! महर्षि वसिष्ठके बताये अनुसार यह परब्रह्मका स्वरूप मैंने तुम्हें बताया है, जिसे पाकर जीवात्मा फिर इस संसारमें नहीं लौटता ।।
जो इस उत्तम ज्ञानको गुरुके मुखसे पाकर भी भलीभाँति समझता नहीं है, वह पुनरावृत्ति (बारंबार आवागमन) को प्राप्त होता है और जो इसे तत्त्वतः समझ लेता है, वह जरा-मृत्युसे रहित परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है ।। ४३ ।।
तात! नरेश्वर! यह परम कल्याणकारी उत्तम ज्ञान मैंने देवर्षि नारदजीके मुँहसे सुना था। जिसे यथार्थरूपसे तुम्हें भी बताया है ।। ४४ ।।
ब्रह्माजीसे महात्मा वसिष्ठ मुनिने यह ज्ञान प्राप्त किया था। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठसे यह नारदजीको उपलब्ध हुआ और नारदजीसे मुझे यह सनातन ब्रह्मका उपदेश प्राप्त हुआ है। कौरवनरेश! यह ज्ञान परमपद है। इसे सुनकर अब तुम शोकका त्याग कर दो || ४५-४६ ।।
पृथ्वीनाथ! जिसने क्षर और अक्षरके तत्त्वको जान लिया है, उसमें किसी प्रकारका भी भय नहीं होता। जो इसे नहीं जानता, उसीमें भय रहता है || ४७ ।।
मूर्ख मनुष्य इस तत्त्वको न जाननेके कारण बारंबार संसारमें आता है और हजारों योनियोंमें जन्म-मरणके कष्टका अनुभव करता है ।। ४८ ।।
वह देव, मनुष्य और पशु-पक्षी आदिकी योनिमें भटकता रहता है। यदि कभी समयके अनुसार शुद्ध हो गया तो उस अगाध अज्ञानसमुद्रसे पार होकर परम कल्याणका भागी होता है || ४९ ।।
भरतनन्दन! अज्ञानरूपी समुद्र अव्यक्त, अगाध और भयंकर बताया जाता है। इसमें असंख्य प्राणी प्रतिदिन गोते खाते रहते हैं || ५० ।।
राजन! तुम मेरा उपदेश पाकर इस अव्यक्त, अगाध एवं प्रवाहरूपमें सदा रहनेवाले भवसागरसे पार हो गये हो, इसलिये अब तुम रजोगुण और तमोगुणसे भी रहित हो गये हो ।। ५१ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वायिष्ठ-करालजनक-संवादकी समाप्तिविषयक तीन सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ “लोक मिलाकर कुल ५१½ “लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ नवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“जनकवंशी वसुमान्को एक मुनिका धर्मविषयक उपदेश”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! एक समयकी बात है, जनकवंशका कोई राजकुमार शिकार खेलनेके लिये एक निर्जन वनमें घूम रहा था। उसने वनमें बैठे हुए एक मुनिको देखा; जो ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ एवं महर्षि भूगुके वंशधर थे ।। १ ।।
पास ही बैठे हुए मुनिको मस्तक झुकाकर प्रणाम करके वह राजकुमार उनके समीपमें ही बैठ गया। उसका नाम वसुमान् था। उसने महर्षिकी आज्ञा लेकर उनसे इस प्रकार पूछा --[।२॥।।
“भगवन्! इस क्षणभंगुर शरीरमें कामके अधीन होकर रहनेवाले पुरुषका इस लोक और परलोकमें किस उपायसे कल्याण हो सकता है? ।। ३ ।।
सत्कारपूर्वक प्रश्न करनेपर उन महातपस्वी महात्मा मुनिने राजकुमार वसुमानसे यह कल्याणकारी वचन कहा ।। ४ ।।
ऋषि बोले--राजकुमार! यदि तुम इस लोक और परलोकमें अपने मनके अनुकूल वस्तुएँ पाना चाहते हो तो अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर समस्त प्राणियोंके प्रतिकूल आचरणोंसे दूर हट जाओ ।। ५ ।।
धर्म ही सत्पुरुषोंका कल्याण करनेवाला और धर्म ही उनका आश्रय है। तात! चराचर प्राणियोंसहित तीनों लोक धर्मसे ही उत्पन्न हुए हैं ।। ६ ।।
भोगोंका रस लेनेकी इच्छा रखनेवाले दुर्बुद्धि मानव! तुम्हारी कामपिपासा शान्त क्यों नहीं होती? अभी तुम्हें वृक्षकी ऊँची डालीमें लगा हुआ केवल मधु ही दिखायी देता है। वहाँसे गिरनेपर प्राणान्त हो सकता है, इसकी ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं है (अर्थात् अभी तुम भोगोंकी मिठासपर ही लुभाये हुए हो। उससे होनेवाले पतनकी ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जा रहा है) । ७ ।।
जैसे ज्ञानका फल चाहनेवालेके लिये ज्ञानसे परिचित होना आवश्यक है, उसी प्रकार धर्मका फल चाहनेवाले मनुष्यको भी धर्मका परिचय प्राप्त करना चाहिये ।। ८ ।।
दुष्ट पुरुष यदि धर्मकी इच्छा करे तो भी उसके द्वारा विशुद्ध कर्मका सम्पादन होना कठिन है और साधु पुरुष यदि धर्मके अनुष्ठानकी इच्छा करे तो उसके लिये कठिन-सेकठिन कर्म भी करना सहज है ।। ९ |।
वनमें रहकर भी जो ग्रामीण सुखोंका उपभोग करनेमें लगा है, उसको ग्रामीण ही समझना चाहिये तथा गाँवोंमें रहकर भी जो वनवासी मुनियोंके-से बर्तावमें ही सुख मानता है, उसकी गिनती वनवासियोंमें ही करनी चाहिये || १० ।।
पहले निवृत्ति और प्रवृत्ति-मार्गमें जो गुण-अवगुण हैं, उनका तुम अच्छी तरह निश्चय कर लो; फिर एकाग्रचित्त हो मन, वाणी और शरीरद्वारा होनेवाले धर्ममें श्रद्धा करो (अर्थात् श्रद्धापूर्वक धर्मके पालनमें लग जाओ) ।। ११ ।।
प्रतिदिन व्रत और शौचाचारका पालन करते हुए उत्तम देश और कालनमें साधु पुरुषोंको प्रार्थना और सत्कारपूर्वक अधिक-से-अधिक दान करना चाहिये और उनमें दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये ।। १२ ।।
शुभकर्माद्वारा प्राप्त हुआ धन सत्पात्रको अर्पण करना चाहिये। क्रोधको त्यागकर दान देना चाहिये और देनेके बाद न तो उसके लिये पश्चात्ताप करना चाहिये और न उसे दूसरोंको बताना ही चाहिये ।। १३ ।।
दयालु, पवित्र, जितेन्द्रिय, सत्यवादी, सरलतापूर्ण बर्ताव करनेवाला तथा योनिसे अर्थात् जन्मसे और कर्मसे शुद्ध वेदवेत्ता ब्राह्मण ही दान पानेका उत्तम पात्र है || १४
अपनी ही जातिके उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई तथा पतिद्वारा सम्मानित पतित्रता स्त्री यहाँ उत्तम योनि मानी गयी है। अतः जिसका ऐसी मातासे जन्म हुआ हो वह जन्मसे शुद्ध है। ऋषक्, यजुष् और सामवेदका विद्वान् होकर सदा (यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह इन) छ: कर्मोका अनुष्ठान करनेवाला ब्राह्मण कर्मसे शुद्ध एवं उत्तम पात्र बताया गया है ।। १५ ||
देश, काल, पात्र और कर्मविशेषपर विचार करनेसे एक ही कर्म भिन्न-भिन्न मनुष्यके लिये धर्म और अधर्मरूप हो जाता है || १६ ।।
जैसे शरीरमें थोड़ी-सी धूल लगी हुई हो तो मनुष्य उसे अनायास ही झाड़-पोंछकर दूर कर देता है; परंतु बहुत अधिक मैल बैठ जाय तो उसे बड़े प्रयत्नसे दूर कर सकता है, उसी प्रकार थोड़ा पाप थोड़े-से प्रयत्नसे और महान् पाप महान प्रायश्चित्त करनेसे दूर होता है ।। १७ ||
जैसे जिसने विरेचनके द्वारा अपने पेटको अच्छी तरह साफ कर लिया हो, वह मनुष्य यदि घी खाय तो वह उसके लिये दवाके समान लाभदायक होता है। उसी तरह जिसके सारे पाप-दोष दूर हो गये हैं, उसीके लिये धर्म परलोकमें सुख देनेवाला होता है ।। १८ ।।
सभी प्राणियोंके मनमें शुभ और अशुभ विचार उठते रहते हैं। मनुष्यको चाहिये कि वह चित्तको सदा अशुभ विचारोंकी ओरसे हटाकर शुभ विचारोंमें ही लगाये || १९ ।।
अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार सबके द्वारा सब जगह किये जानेवाले सब प्रकारके कर्मोका आदर करो। तुम भी अपने धर्मके अनुसार जिस कर्ममें तुम्हारा अनुराग हो, उसका इच्छानुसार पालन करते रहो ।। २० ।।
अधीरचित्त नरेश! धीरताका आश्रय लो। दुर्बुद्धे! बुद्धिमानू बनो। तुम सदा अशान्त रहते हो। अबसे शान्त हो जाओ और अबतक मूर्खोके-से बर्ताव करते रहे, अब विद्दानोंके समान आचरण करो ।। २१ ।।
जो सत्पुरुषोंका संग करता है, उसे उन्हींके तेज या प्रतापसे कोई ऐसा उपाय प्राप्त हो सकता है, जो इस लोक और परलोकमें भी कल्याण करनेवाला हो। उत्तम धृति (मनकी स्थिरता) ही कल्याणका मूल है ।। २२ ।।
राजर्षि महाभिष धृतिमान् न होनेके कारण ही स्वर्गसे नीचे गिरे और राजा ययाति अपना पुण्य क्षीण हो जानेके बाद भी धृतिके ही बलसे उत्तम लोकोंको प्राप्त हुए ।। २३।।
राजन! तपस्वी, धर्मात्मा एवं विद्वानोंकी सेवा करनेसे तुम्हें विशाल बुद्धि प्राप्त होगी, जिससे तुम कल्याणके भागी हो सकोगे ।। २४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! राजकुमार वसुमान् अच्छे स्वभावसे सम्पन्न था। उसने मुनिके उस उपदेशको सुनकर अपने मनको कामनाओंसे हटा लिया और बुद्धिको धर्ममें ही लगा दिया ।। २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जनकवंशी वयुमान्को उपदेशविषयक तीन सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ दसवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“याज्ञवल्क्थका राजा जनकको उपदेश---सांख्यमतके अनुसार चौबीस तत्त्वों और नौ प्रकारके सर्गोंका निरूपण”
युधिष्ठिरने कहा--पितामह! जो धर्म और अधर्मके बन्धनसे मुक्त, सम्पूर्ण संशयोंसे रहित, जन्म और मृत्युसे रहित, पुण्य और पापसे मुक्त, नित्य, निर्भय, कल्याणमय, अक्षर, अव्यय (अविकारी), पवित्र एवं क्लेशरहित तत्त्व है, उसका आप हमें उपदेश कीजिये ।। १-२ ।।
भीष्मजी बोले--भरतनन्दन! इस विषयमें मैं तुम्हें जनक और याज्ञवल्क्यका संवादरूप एक प्राचीन इतिहास सुनाऊँगा ।। ३ ।।
एक बार देवरातके महायशस्वी पुत्र राजा जनकने प्रश्नबका रहस्य समझनेवालोंमें श्रेष्ठ मुनिवर याज्ञवल्क्यजीसे पूछा ।। ४ ।।
जनक बोले--ब्रह्मर्षे! इन्द्रियाँ कितनी हैं? प्रकृतिके कितने भेद माने गये हैं? अव्यक्त क्या है? और उससे परे परब्रह्म परमात्माका क्या स्वरूप है? सृष्टि और प्रलय क्या है? और कालकी गणना कैसे की जाती है? विप्रेन्द्र! ये सब बतानेकी कृपा करें; क्योंकि हमलोग आपकी कृपाके अभिलाषी हैं ।। ५-६ ।।
मैं इन बातोंको नहीं जानता, इसलिये पूछ रहा हूँ। आप ज्ञानके भण्डार हैं, इसलिये आपहीसे इन सब विषयोंको सुननेकी इच्छा हो रही है; जिससे सारा संदेह दूर हो जाय || ७ |।
याज्ञवल्क्थजीने कहा--भूपाल! सुनो, तुम जो कुछ पूछते हो, वह योग और विशेषत: सांख्यका परम रहस्यमय ज्ञान तुम्हें बताता हूँ |। ८ ।।
यद्यपि तुमसे कोई भी विषय अज्ञात नहीं है, फिर भी मुझसे पूछते हो तो कहना ही पड़ता है; क्योंकि किसीके पूछनेपर जानकार मनुष्यको उसके प्रश्नका उत्तर देना ही चाहिये। यही सनातन धर्म है ।। ९ ।।
प्रकृतियाँ आठ बतायी गयी हैं और उनके विकार सोलह। अध्यात्मशास्त्रका चिन्तन करनेवाले विद्वान् आठ प्रकृतियोंके नाम इस प्रकार बतलाते हैं--अव्यक्त (मूल प्रकृति), महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ।। १०-११ ।।
ये आठ प्रकृतियाँ कही गयीं। अब मुझसे विकारोंका भी वर्णन सुनो--श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्ठा, पाँचवीं नासिका, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, वाणी, हाथ, पैर, लिंग और गुदा || १२-१३ ।।
राजेन्द्र! उनमें पाँच कर्मेन्द्रियों और शब्द आदि पाँच विषयोंकी “विशेष” संज्ञा है और ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ 'सविशेष” कहलाती हैं। मिथिलानरेश! ये “विशेष” और “सविशेष” तत्त्व पञ्चमहाभूतोंमें ही स्थित हैं || १४ ।।
(ये सब मिलकर पंद्रह हैं) इनके साथ सोलहवाँ मन है। अध्यात्मगतिका चिन्तन करनेवाले तत्त्वज्ञान-विशारद तुम और दूसरे विद्वान् भी इन्हींको सोलह विकार कहते हैं ।। १५ ।।
पृथ्वीनाथ! अव्यक्त प्रकृतिसे महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) की उत्पत्ति होती है। इसे विद्वान् पुरुष प्रथम एवं प्राकृत सृष्टि कहते हैं || १६ ।।
नरेश्वर! महत्तत्त्व्से अहंकार प्रकट होता है, जो दूसरा सर्ग बताया जाता है। इसे बुद्धात्मक सृष्टि माना गया है || १७ ।।
अहंकारसे मन उत्पन्न हुआ है, जो पञ्चभूत और शब्दादि गुणस्वरूप है। इसे तीसरा और आहंकारिक सर्ग कहा जाता है ।। १८ ।।
राजन! मनसे पाँच सूक्ष्म महाभूत उत्पन्न हुए हैं। यह चौथा सर्ग है। मेरे मतके अनुसार इसे मानसी सृष्टि समझो ।। १९ |।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये पाँच विषय पञ्चमहाभूतोंसे उत्पन्न हुए हैं। यह पाँचवीं सृष्टि है। भूतचिन्तक विद्वान् इसे भौतिक सर्ग कहते हैं || २० ।।
श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्ला और पाँचवीं नासिका--इसे छठा सर्ग बताया गया है। यह बहुचिन्तात्मक सर्ग माना गया है || २१ ।।
नरेन्द्र! श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके बाद कर्मेन्द्रियोंकी उत्पत्ति होती है। इसे सातवाँ सर्ग कहते हैं। इसीको ऐन्द्रियक सृष्टि भी कहा जाता है || २२ ।।
तदनन्तर जिसका प्रवाह ऊपरकी ओर है, वह प्राण एवं तिरछा चलनेवाले समान, व्यान और उदान--ये सब प्रकट हुए। यह आठवाँ सर्ग है। इसीको आर्जवक सर्ग कहा गया है ।। २३ ।।
राजन! तत्पश्चात् जिसका प्रवाह तिरछा चलता है, वे व्यान और उदान अपान वायुके साथ निम्नभागमें प्रकट हुए। इसे नवम सर्ग कहते हैं। इसे भी विद्वान् पुरुष आर्जवक सृष्टिके नामसे ही पुकारते हैं || २४ ।।
नरेश्वर! ये नौ सर्ग और चौबीस तत्त्व श्रुतिके निर्देशके अनुसार यहाँ बताये गये हैं ।। २५ ।।
महाराज! अब इसके बाद महात्मा पुरुषोंद्वारा बतायी गयी इस गुणमयी सृष्टिकी कालसंख्या भी मुझसे यथावत््रूपसे सुनो || २६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें याज्ञवल्क्य-जनकसंवादविषयक तीन सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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