सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ तीनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ तीनवें अध्याय के श्लोक 1-54 का हिन्दी अनुवाद)
“प्रकृति-संसर्गके कारण जीवका अपनेको नाना प्रकारके कर्मोका कर्ता और भोक्ता मानना एवं नाना योनियोमें बारंबार जन्म ग्रहण करना”
वसिष्ठजी कहते हैं--राजन्! इस प्रकार जीव बोधहीन होनेके कारण अज्ञानका ही अनुसरण करता है; इसीलिये उसे एक शरीरसे सहस्रों शरीरोंमें भ्रमण करना पड़ता है ।। १ |।
वह गुणोंके साथ सम्बन्ध होनेसे उन्हीं गुणोंकी सामर्थ्यसे कभी सहस्रों बार तिर्यग्योनियोंमें और कभी देवताओंमें जन्म लेता है ।। २ ।।
कभी मानव-योनिसे स्वर्गलोकमें जाता है और कभी स्वर्गसे मनुष्यलोकमें लौट आता है। मनुष्यलोकसे कभी-कभी अनन्त नरकोंमें भी पड़ता है ।। ३ ।।
जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही उत्पन्न किये हुए तन्तुओंसे अपनेको सब ओरसे बाँध लेता है, उसी प्रकार यह निर्गुण आत्मा भी अपने ही प्रकट किये हुए प्राकृत गुणोंसे बाँध जाता है | ४ ।।
वह स्वयं सुख-दुःख आदि द्वन्द्धोंसे रहित होनेपर भी भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म धारण करके सुख-दुःखको भोगता है। उसे कभी सिरमें दर्द होता, कभी आँख दुखती, कभी दाँतमें व्यथा होती और कभी गलेमें घेधा निकल आता है ।। ५ ।।
इसी प्रकार वह जलोदर, तृषारोग, ज्वर, गलगण्ड (गलसूआ), विषूचिका (हैजा), सफेद कोढ़, अग्निदाह, सिथ्मा- (सफेद दाग या सेहँँवा), अपस्मार (मृगी) आदि रोगोंका शिकार होता रहता है ।। ६ ।।
इनके सिवा और भी जितने प्रकारके प्रकृतिजन्य विचित्र रोग या द्वन्द्द देहधारियोंमें उत्पन्न होते हैं, उन सबसे यह अपनेको आक्रान्त मानता है | ७ ।।
कभी अपनेको सहस्ौ्रों तिर्यग्योनियोंका जीव समझता है और कभी देवत्वका अभिमान धारण करता है तथा इसी अभिमानके कारण उन-उन शरीरोंद्वारा किये हुए कर्मोंका फल भी भोगता है ॥। ८ ।।
फलकी आशासे बँधा हुआ मनुष्य कभी नये-धुले सफेद वस्त्र पहनता है और कभी फटे-पुराने मैले वस्त्र धारण करता है, कभी पृथ्वीपर सोता है, कभी मेढकके समान हाथपैर सिकोड़कर शयन करता है, कभी वीरासनसे बैठता है और कभी खुले आकाशके नीचे। कभी चीर और वल्कल पहनता है, कभी ईंट और पत्थरपर सोता-बैठता है तो कभी काँटोंके बिछौनोंपर। कभी राख बिछाकर सोता है, कभी भूमिपर ही लेट जाता है, कभी किसी पेड़के नीचे पड़ा रहता है। कभी युद्धभूमिमें, कभी पानी और कीचड़में, कभी चौकियोंपर तथा कभी नाना प्रकारकी शय्याओंपर सोता है। कभी मूँजकी मेखला बाँधे कौपीन धारण करता है, कभी नंग-धड़ंग घूमता है। कभी रेशमी वस्त्र और कभी काला मृगचर्म पहनता है ।। ९--१२ ।।
कभी सन या ऊनके बने वस्त्र धारण करता है। कभी व्याप्र या सिंहके चमड़ोंसे अपने अंगोंको ढँक लेता है। कभी रेशमी पीताम्बर पहनता है ।। १३ ।।
कभी फलकवस्त्र (भोजपत्रकी छाल), कभी साधारण वस्त्र और कभी कण्टकव्स्त्र धारण करता है। कभी कीड़ोंसे निकले हुए रेशमके मुलायम वस्त्र पहनता है तो कभी चिथड़े पहनकर रहता है ।। १४ ।।
वह अज्ञानी जीव इनके अतिरिक्त भी नाना प्रकारके वस्त्र पहनता, विचित्र-विचित्र भोजनोंके स्वाद लेता और भाँति-भाँतिके रत्न धारण करता है || १५ ||
कभी एक रातका अन्तर देकर भोजन करता है, कभी दिन-रातमें एक बार अन्न ग्रहण करता है और कभी दिनके चौथे, छठे या आठवें पहरमें भोजन करता है ।। १६ ।।
कभी छ: रात बिताकर खाता है और कभी सात, आठ, दस अथवा बारह दिनोंके बाद अन्न ग्रहण करता है || १७ ।।
कभी लगातार एक मासतक उपवास करता है। कभी फल खाकर रहता है और कभी कन्द-मूलके भोजनसे निर्वाह करता है। कभी पानी-हवा पीकर रह जाता है। कभी तिलकी खली, कभी दही और कभी गोबर खाकर ही रहता है ।। १८ ।।
कभी वह गोमूत्रका भोजन करनेवाला बनता है। कभी वह साग, फूल या सेवार खाता है तथा कभी जलका आचमन मात्र करके जीवन-निर्वाह करता है ।।
कभी सूखे पत्ते और पेड़से गिरे हुए फलोंको ही खाकर रह जाता है। इस प्रकार सिद्धि पानेकी अभिलाषासे वह नाना प्रकारके कठोर नियमोंका सेवन करता है ।।
कभी विधिपूर्वक चान्द्रायण-व्रतका अनुष्ठान करता और अनेक प्रकारके धार्मिक चिह्न धारण करता है। कभी चारों आश्रमोंके मार्गपर चलता और कभी विपरीत पथका भी आश्रय लेता है || २१ ।।
कभी नाना प्रकारके उपाश्रमों तथा भाँति-भाँतिके पाखण्डोंको अपनाता है। कभी एकान्तमें शिलाखण्डोंकी छायामें बैठता और कभी झरनोंके समीप निवास करता है ।। २२ ।।
कभी नदियोंके एकान्त तटोंमें, कभी निर्जन वनोंमें, कभी पवित्र देवमन्दिरोंमें तथा कभी एकान्त सरोवरोंके आसपास रहता है || २३ ।।
कभी पर्वतोंकी एकान्त गुफाओंमें, जो गृहके समान ही होती हैं, निवास करता है। उन स्थानोंमें नाना प्रकारके गोपनीय जप, व्रत, नियम, तप, यज्ञ तथा अन्य भाँति-भाँतिके कर्मोका अनुष्ठान करता है || २४-२५ ।।
वह कभी व्यापार करता, कभी ब्राह्मण और क्षत्रियोंके कर्तव्यका पालन करता तथा कभी वैश्यों और शूद्रोंके कर्मोंका आश्रय लेता। दीन-दुखी और अन्धोंको नाना प्रकारके दान देता है ।। २६ ।।
अज्ञानवश वह अपनेमें सत्त्व, रज, तम-इन त्रिविध गुणों और धर्म, अर्थ एवं कामका अभिमान कर लेता है ।।
इस प्रकार आत्मा प्रकृतिके द्वारा अपने ही स्वरूपके अनेक विभाग करता है। वह कभी स्वाहा, कभी स्वधा, कभी वषट्कार और कभी नमस्कारमें प्रवृत्त होता है ।।
कभी यज्ञ करता और कराता, कभी वेद पढ़ता और पढ़ाता तथा कभी दान करता और प्रतिग्रह लेता है। इसी प्रकार वह दूसरे-दूसरे कार्य भी किया करता है ।।
कभी जन्म लेता, कभी मरता तथा कभी विवाद और संग्राममें प्रवृत्त रहता है। विद्वान् पुरुषोंका कहना है कि यह सब शुभाशुभ कर्ममार्ग है || ३० ।।
प्रकृतिदेवी ही जगत्की सृष्टि और प्रलय करती है। जैसे सूर्य प्रतिदिन प्रातःकाल अपनी किरणोंको सब ओर फैलाता और सायंकालमें अपने किरण-जालको समेट लेता है, वैसे ही आदिपुरुष ब्रह्मा अपने दिन--कल्पके आरम्भमें तीनों गुणोंका विस्तार करता और अन्तमें सबको समेटकर अकेला ही रह जाता है ।। ३१½।।
इस प्रकार प्रकृतिसे संयुक्त हुआ पुरुष तत्त्वज्ञान होनेसे पहले मनको प्रिय लगनेवाले नाना प्रकारके अपने व्यापारोंको क्रीड़ाके लिये बार-बार करता और उन्हें अपना कर्तव्य मानता है || ३२६ ।।
सृष्टि और प्रलय जिसके धर्म हैं, उस त्रिगुणमयी प्रकृतिको विकृत करके तीनों गुणोंका स्वामी आत्मा कर्ममार्गमें अनुरक्त और प्रवृत हो उस प्रकृतिके द्वारा होनेवाले प्रत्येक त्रिगुणात्मक कार्यको अपना मान लेता है ।। ३३-३४ ।।
प्रभो! प्रकृतिने इस सम्पूर्ण जगत्को अन्धा बना रखा है। उसीके संयोगसे समस्त पदार्थ अनेक प्रकारसे रजोगुण और तमोगुणसे व्याप्त हो रहे हैं || ३५ ।।
इस प्रकार प्रकृतिकी प्रेरणासे स्वभावत: सुख-दुःखादि द्वन्द्"ोंकी सदा पुनरावृत्ति होती रहती है; किंतु जीवात्मा अज्ञानवश यह मान बैठता है कि ये सारे द्वन्द्ध मुझपर ही धावा करते हैं और मुझे इनसे निस्तार पानेकी चेष्टा करनी चाहिये। (ऐसा मानकर वह दुखी होता है) नरेश्वर! प्रकृतिसे संयुक्त हुआ पुरुष अज्ञानवश यह मान लेता है कि मैं देवलोकमें जाकर अपने समस्त प्रण्योंके फलका उपभोग करूँगा और पूर्वजन्मके किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका जो फल प्रकट हो रहा है, उसे यहीं भोगूँगा || ३६--३८ ।।
अब मुझे सुखके साधनभूत पुण्यका ही अनुष्ठान करना चाहिये। उसका एक बार भी अनुष्ठान कर लेनेपर मुझे आजीवन सुख मिलेगा तथा भविष्यमें भी प्रत्येक जन्ममें सुखकी प्राप्ति होती रहेगी ।। ३९ ।।
यदि इस जन्ममें मैं बुरे कर्म करूँगा तो मुझे यहाँ भी अनन्त दुःख भोगना पड़ेगा। यह मानव-जन्म महान् दुःखसे भरा हुआ है। इसके सिवा पापके फलसे नरकमें भी डूबना पड़ेगा ।। ४० ।।
नरकसे दीर्घकालके बाद छुटकारा मिलनेपर मैं पुनः मनुष्यलोकमें जन्म लूँगा। मानवयोनिसे पुण्यके फलस्वरूप देवयोनिमें जाऊँगा और वहाँसे पुण्य-क्षीण होनेपर पुनः मानव-शरीरमें जन्म लूँगा || ४१ ।।
इसी तरह बारी-बारीसे वह जीव मानव-योनिसे नरकमें (और नरकसे मानवयोनिमें) आता-जाता रहता है। आत्मासे भिन्न तथा आत्माके गुण चैतन्य आदिसे युक्त जो इन्द्रियोंका समुदाय शरीरमें ऐसी भावना रखता है कि “यह मैं हूँ” वही देवलोक, मनुष्यलोक, नरक तथा तिर्यग्योनिमें जाता है || ४२ ३ ।।
स्त्री-पुत्र आदिके प्रति ममतासे बँधा हुआ पुरुष उन्हींके संसर्गमें रहकर सहसख्र-सहस्र कोटि सृष्टिपर्यन्त नश्वर शरीरोंमें ही सदा चक्कर लगाता रहता है ।। ४३६ ।।
जो इस प्रकार शुभाशुभ फल देनेवाला कर्म करता है, वही तीनों लोकोंमें शरीर धारण करके इन उपर्युक्त फलोंको पाता है || ४४ $ ।।
वास्तवमें तो प्रकृति ही शुभाशुभ फल देनेवाले कर्मोका अनुष्ठान करती है और तीनों लोकोंमें इच्छानुसार विचरण करनेवाली वह प्रकृति ही उन कर्मोंका फल भोगती है (किंतु पुरुष अज्ञानके कारण कर्ता-भोक्ता बन जाता है) ।। ४५ ।।
तिर्यग्योनि, मनुष्ययोनि तथा देवलोकमें देवयोनि ये कर्म-फल-भोगके तीन स्थान हैं। इन सबको प्राकृत समझो ।। ४६ ।।
मुनिगण प्रकृतिको लिंगरहित बताते हैं; किंतु हमलोग विशेष हेतुओंके द्वारा ही उसका अनुमान कर सकते हैं। इसी प्रकार अनुमानद्वारा ही हमें पुरुषके स्वरूपका अर्थात् उसके होनेका ज्ञान होता है || ४७ ।।
पुरुष स्वयं छिद्ररहित होते हुए भी प्रकृतिनिर्मित चिह्स्वरूप विभिन्न शरीरोंका अवलम्बन करके हिद्रोंमें स्थित रहनेवाली इन्द्रियोंका अधिष्ठाता बनकर उन सबके कर्मोंको अपनेमें मान लेता है ।। ४८ ।।
इस जगतमें श्रोत्र आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और वाक् आदि पाँच कर्मन्द्रियाँ अपने-अपने गुणोंके साथ गुणमय शरीरोंमें स्थित हैं । ४९ ।।
किंतु यह जीव वास्तवमें इन्द्रियोंसे रहित है तो भी यह मानता है कि मैं ही ये सब कर्म करता हूँ और मुझमें ही सब इन्द्रियाँ हैं। इस प्रकार यह छिद्रशून्य होकर भी अपनेको छिद्रयुक्त मानता है ।।
वह लिंग (सूक्ष्म) शरीरसे हीन होनेपर भी अपनेको उससे युक्त मानता है। कालधर्म (मृत्यु) से रहित होकर भी अपनेको कालधर्मी (मरणशील) समझता है। सत्त्वसे भिन्न होकर भी अपनेको सत्त्वरूप मानता है तथा महाभूतादि तत्त्वसे रहित होकर भी अपने आपको तत्त्वस्वरूप समझता है ।। ५१ ||
वह मृत्युसे सर्वथा रहित है तो भी अपनेको मृत्युग्रस्त मानता है। अचर होनेपर भी अपनेको चलने-फिरनेवाला मानता है। क्षेत्रसे भिन्न होनेपर भी अपनेको क्षेत्र मानता है। सृष्टिसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं होनेपर भी सृष्टिको अपनी ही समझता है ।। ५२ ।।
वह कभी तप नहीं करता तो भी अपनेको तपस्वी मानता है। कहीं गमन नहीं करता तो भी अपनेको आने-जानेवाला समझता है। संसाररहित होकर भी अपनेको संसारी और निर्भय होकर भी अपनेको भयभीत मानता है। यद्यपि वह अक्षर (अविनाशी) है तो भी अपनेको क्षर (नाशवान) समझता है तथा बुद्धिसे परे होनेपर भी बुद्धिमत्ताका अभिमान रखता है ।। ५३-५४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वायिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- किसी-किसी टीकाकारने 'सिध्मा' का अर्थ 'खाँसी' और “दमा” भी किया है। परंतु कोष-प्रसिद्ध अर्थ 'सफेद दाग या सेहुँँवा' ही है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ चारवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चारवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
“प्रकृतिके संसर्गदोषसे जीवका पतन”
वसिष्ठजी कहते हैं--राजन्! इस तरह अज्ञानके कारण अज्ञानी पुरुषोंका संग करनेसे जीवका निरन्तर पतन होता है तथा उसे हजारों-करोड़ बार जन्म लेने पड़ते हैं ।। १ ।।
वह पशु-पक्षी, मनुष्य तथा देवताओंकी योनियोंमें तथा एक स्थानसे सहसौरों स्थानोंमें बारंबार मरकर जाता और जन्म लेता है || २ ।।
जैसे चन्द्रमाका सहस्रों बार क्षय और सहस्(्रों बार वृद्धि होती रहती है, उसी प्रकार अज्ञानी जीव भी अज्ञानवश ही सहस्रों बार लयको प्राप्त होता है (और जन्म लेता है) || ३ ।।
राजन! चन्द्रमाकी पंद्रह कलाओंके समान जीवोंकी पंद्रह कलाएँ ही उत्पत्तिके स्थान हैं। अज्ञानी जीव उन्हींको अपना आश्रय समझता है; परंतु उसकी जो सोलहवीं कला है, उसको तुम नित्य समझो। वह चन्द्रमाकी अमा नामक सोलहवीं कलाके समान है ।। ४ ।।
अज्ञानी जीव सदा बारंबार उन्हीं कलाओंमें स्थित हुआ जन्म ग्रहण करता है। वे ही कलाएँ जीवके आश्रय लेनेयोग्य हैं, अतः जीवका उन्हींसे पुनः-पुनः जन्म होता रहता है ।। ५ |।
अमा नामक जो सोलहवीं सूक्ष्म कला है, वही सोम है अर्थात् जीवकी प्रकृति है, यह तुम निश्चितरूपसे जान लो। देवतालोग अर्थात् अन्तःकरण और इन्द्रियगण जिनको पंद्रह कलाओंके नामसे कहा गया, वे उस सोलहवीं कलाका उपयोग नहीं कर सकते; किंतु वे सोलहवीं कला अर्थात् उन सबकी कारणभूता प्रकृति ही उनका उपयोग करती है ।। ६।।
नृपश्रेष्ठ जीव अपने अज्ञानवश उस सोलहवीं कलारूप प्रकृतिके संयोगका क्षय नहीं कर पाता, इसलिये बारंबार जन्म ग्रहण करता है। वह ही कला जीवकी प्रकृति अर्थात् उत्पत्तिका कारण देखी गयी है। उसके संयोगका क्षय होनेपर ही मोक्षकी प्राप्ति बतायी जाती है |। ७ ।।
(मूल प्रकृति, दस इन्द्रियाँ--एक प्राण और चार प्रकारका अन्तःकरण-इन) सोलह कलाओंसे युक्त जो यह सूक्ष्मशरीर है, इसे “यह मेरा है” ऐसा माननेके कारण अज्ञानी जीव उसीमें भटकता रहता है ।। ८ ।।
पचीसवाँ तत्त्वरूप जो महान् आत्मा है, वह निर्मल एवं विशुद्ध है। उसको न जाननेके कारण तथा शुद्ध-अशुद्ध वस्तुओंके सेवनसे वह निर्मल, संगरहित आत्मा भी शुद्ध और अशुद्ध वस्तुओंके सदृश हो जाता है। पृथ्वीनाथ! अविवेकीके संगसे विवेकशील भी अविवेकी हो जाता है || ९-१० ।।
नृपश्रेष्ठ) इसी प्रकार मूर्ख भी विवेकशीलका संग करनेसे विवेकशील हो जाता है, ऐसा समझना चाहिये। त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके सम्बन्धसे निर्गुण आत्मा भी त्रिगुणमय-सा हो जाता है |। ११ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वसिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौ चारवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ चारवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)
“क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुषके विषयमें राजा जनककी शंका और उसका वसिष्ठजीद्धारा उत्तर”
राजा जनकने कहा--भगवन्! क्षर और अक्षर (प्रकृति और पुरुष) दोनोंका यह सम्बन्ध वैसा ही माना जाता है, जैसा कि नारी और पुरुषका दाम्पत्य-सम्बन्ध बताया जाता है ।। १ |।
इस जगतमें न तो पुरुषके बिना स्त्री गर्भ धारण कर सकती है और न स्त्रीके बिना कोई पुरुष ही किसी शरीरको उत्पन्न कर सकता है ।। २ ।।
दोनों पारस्परिक सम्बन्धसे एक दूसरेके गुणोंका आश्रय लेकर ही किसी शरीरका निर्माण होता है। प्रायः सभी योनियोंमें ऐसी ही स्थिति है ।। ३ ।।
जब स्त्री ऋतुमती होती है, उस समय रतिके लिये पुरुषके साथ उसका सम्बन्ध होनेसे दोनोंके गुणोंका मिश्रण होनेपर शरीरकी उत्पत्ति होती है। शरीरमें पुरुष अर्थात् पिताके जो गुण हैं तथा माताके जो गुण हैं, उन्हें मैं दृष्टान्तके तौरपर बता रहा हूँ। हड्डी, स्नायु और मज्जा--इन््हें मैं पितासे प्राप्त हुए गुण समझता हूँ तथा त्वचा, मांस और रक्त-ये मातासे पैदा हुए गुण हैं, ऐसा मैंने सुना है। द्विजश्रेष्ठ। यही बात वेद और शास्त्रमें भी पढ़ी जाती है || ४--६ |।
वेदोंमें जो प्रमाण बताया गया है तथा शास्त्रमें कहे हुए जिस प्रमाणको पढ़ा और सुना जाता है, वह सब ठीक है; क्योंकि वेद और शास्त्र दोनों ही सनातन प्रमाण हैं ।। ७ ।।
भगवन्! इस प्रकार प्रकृति और पुरुष दोनों ही एक दूसरेके गुणोंको आच्छादित करके एक दूसरेके गुणोंका आश्रयः लेते हुए सृष्टि करते हैं। इस तरह मैं इन दोनोंको सदा एक दूसरेसे सम्बद्ध देखता हूँ। अतः पुरुषके लिये मोक्षधर्मकी सिद्धि असम्भव जान पड़ती है।।८६ ।।
अथवा पुरुषके मोक्षका साक्षात्कार करानेवाला कोई दृष्टान्त हो तो आप उसे बताइये और मुझे ठीक-ठीक समझा दीजिये; क्योंकि आपको सदा सब कुछ प्रत्यक्ष है ।। ९६ ।।
मैं भी मोक्षकी अभिलाषा रखता हूँ और उस परम पदको पाना चाहता हूँ, जो निर्विकार, निराकार, अजर, अमर, नित्य और इन्द्रियातीत है तथा जिसे प्राप्त हुए पुरुषका कोई शासक नहीं रहता ।। १० ।।
वसिष्ठजीने कहा--राजन्! तुमने वेद और शास्त्रोंके दृष्टान्त देकर यह जो कुछ कहा है, वह ठीक है। तुम जैसा समझते हो, वैसी ही बात है ।। ११ ।।
नरेश्वर! इसमें संदेह नहीं कि वेद-शास्त्रोंमें जो कुछ लिखा है, वह सब तुम्हें याद है; परंतु ग्रन्थके यथार्थ तत्त्वका तुम्हें ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है || १२ ।।
जो वेद और शास्त्रके ग्रन्थोंको तो याद रखनेमें तत्पर है, किंतु उनके यथार्थ तत्त्वको नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है ।। १३ ।।
जो ग्रन्थके अर्थको नहीं समझता, वह केवल रटकर मानो उन ग्रन्थोंका बोझ ढोता है; परंतु जो ग्रन्थके अर्थका तत्त्व समझता है, उसके लिये उस ग्रन्थका अध्ययन व्यर्थ नहीं है ।। १४ ।।
ऐसा पुरुष पूछनेपर तत्वज्ञानपूर्वक ग्रन्थके अर्थको जैसा समझता है, वैसा दूसरोंको भी बता सकता है ।।
जो स्थूल एवं मन्दबुद्धिसे युक्त होनेके कारण विद्वानोंकी सभामें शास्त्रग्रन्थका अर्थ नहीं बता सकता, वह निर्णयपूर्वक उस ग्रन्थका तात्पर्य कैसे कह सकता है? ।। १६ ।।
जिसका चित्त शास्त्रज्ञानसे शून्य है, वह ग्रन्थके तात्पर्यका ठीक-ठीक निर्णय कर ही नहीं सकता। यदि वह कुछ कहता है तो मनस्वी होनेपर भी लोगोंके उपहासका पात्र बनता है ।। १७ ।।
इसलिये राजेन्द्र! सांख्य और योगके ज्ञाता महात्मा पुरुषोंके मतमें मोक्षका जैसा स्वरूप देखा जाता है, उसे मैं तुम्हें यथार्थरूपसे बताता हूँ, सुनो || १८ ।।
योगी जिस तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं; सांख्यवेत्ता विद्वान् भी उसीका ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो सांख्य और योगको फलकी दृष्टिसे एक समझता है, वही बुद्धिमान् है ।। १९ ||
तात! तुम मुझसे कह चुके हो कि शरीरमें जो त्वचा, मांस, रुधिर, मेदा, पित्त, मज्जा, स्नायु और इन्द्रियसमुदाय हैं (वे सब माता-पिताके सम्बन्धसे प्रकट हुए हैं) | २० ।।
जैसे बीजसे बीजकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार द्रव्यसे द्रव्य, इन्द्रियसे इन्द्रिय तथा देहसे देहकी प्राप्ति होती है ।। २१ ।।
परंतु परमात्मा तो इन्द्रिय, बीज, द्रव्य और देहसे रहित तथा निर्गुण है; अतः उसमें गुण कैसे हो सकते हैं | २२ ।।
जैसे आकाश आदि गुण सत्त्व आदि गुणोंसे उत्पन्न होते और उन्हींमें लीन हो जाते हैं; उसी प्रकार सत्त्व, रज, तम-ये तीनों गुण भी प्रकृतिसे उत्पन्न होते और उसीमें लीन होते हैं ।। २३ ।।
राजन्! तुम यह जान लो कि त्वचा, मांस, रुधिर, मेदा, पित्त, मज्जा, अस्थि और स््नायु-ये आठों वस्तुएँ वीर्यसे उत्पन्न हुई हैं; इसलिये प्राकृत ही हैं || २४ ।।
पुरुष और प्रकृति--ये दो तत्त्व हैं। इनके स्वरूपको व्यक्त करनेवाले जो तीन प्रकारके सात््विक, राजस और तामस चिह्न हैं, वे सब प्राकृत माने गये हैं; परंतु जो लिंगी अर्थात् इन सबका आधार आत्मा है, वह न पुरुष कहा जा सकता है और न प्रकृति ही। वह इन दोनोंसे विलक्षण है ।। २५ ।।
जैसे फूलों और फलोंद्वारा सदा निराकार ऋतुओंका अनुमान हो जाता है, उसी प्रकार निराकार पुरुषका संयोग पाकर अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए जो महत्तत्त्व आदि लिंग हैं, उन्हींके द्वारा प्रकृति अनुमानका विषय होती है || २६ ।।
इसी प्रकार लिंगसे भिन्न जो शुद्ध चेतनरूप आत्मा है, वह भी अनुमानसे बोधका विषय होता है अर्थात् जैसे दृश्यको प्रकाशित करनेके कारण सूर्य दृश्यसे भिन्न हैं, उसी प्रकार ज्ञान-स्वरूप आत्मा भी ज्ञेय वस्तुओंको प्रकाशित करनेके कारण उनसे भिन्न सत्ता रखता है। तात! वही पचीसवाँ तत्त्व है, जो सभी लिंगोंमें नियतरूपसे व्याप्त है ।। २७ ।।
आत्मा तो जन्म-मृत्युसे रहित, अनन्त, सबका द्रष्टा और निर्विकार है। वह सत्त्व आदि गुणोंमें केवल अभिमान करनेके कारण ही गुणस्वरूप कहलाता है ।।
गुण तो गुणवानमें ही रहते हैं। निर्गुण आत्मामें गुण कैसे रह सकते हैं। अतः गुणोंके स्वरूपको जाननेवाले विद्वान् पुरुषोंका यही सिद्धान्त है कि जब जीवात्मा इन गुणोंको प्रकृतिका कार्य मानकर उनमें अपनेपनका अभिमान त्याग देता है, उस समय वह देह आदिमें आत्मबुद्धिका परित्याग करके अपने विशुद्ध परमात्म-स्वरूपका साक्षात्कार करता है || २९-३० ।।
सांख्य और योगके सम्पूर्ण विद्वान् जिसको बुद्धिसे परे बताते हैं, जो परम ज्ञानसम्पन्न है, अहंकार आदि जड तत्त्वोंका परित्याग (बाध) कर देनेपर शेष रहे हुए चिन्मय तत्त्वके रूपमें जिसका बोध होता है, जो अज्ञात, अव्यक्त, सगुण ईश्वर, निर्गुण ईश्वर, नित्य और अधिष्ठाता कहा गया है, वह परमात्मा ही प्रकृति और उसके गुणों (चौबीस तत्त्वों) की अपेक्षा पचीसवा तत्त्व है, ऐसा सांख्य और योगमें कुशल तथा परमतत्त्वकी खोज करनेवाले विद्वान पुरुष समझते हैं | ३१--३३ ।।
जिस समय बाल्य, यौवन और वृद्धावस्था अथवा जन्म-मरणसे भयभीत हुए विवेकी पुरुष चेतन-स्वरूप अव्यक्त परमात्माके तत्त्वको ठीक-ठीक समझ लेते हैं, उस समय उन्हें परब्रह्म परमात्माके स्वरूपकी प्राप्ति हो जाती है ।। ३४ ।।
शत्रुओंका दमन करनेवाले नरेश! ज्ञानी पुरुषोंका यह ज्ञान युक्तियुक्त होनेके कारण उत्तम और (अज्ञानियोंकी धारणासे) पृथक् है। इसके विपरीत अज्ञानी पुरुषोंका जो अप्रामाणिक ज्ञान है, वह युक्तियुक्त न होनेके कारण ठीक नहीं है। यह पूर्वोक्त सम्यक् ज्ञानसे पृथक है | ३५ ।।
क्षर और अक्षरके तत्त्वका प्रतिपादन करनेवाला यह दर्शन मैंने तुम्हें बताया है। क्षर और अक्षरमें परस्पर क्या अन्तर है? इसे इस प्रकार समझो--सदा एकरूपमें रहनेवाले परमात्मतत्त्वको अक्षर बताया गया है और नाना रूपोंमें प्रतीत होनेवाला यह प्राकृत प्रपंच क्षर कहलाता है ।| ३६ ।।
जब यह पुरुष पचीसतवें तत्त्वस्वरूप परमात्मामें स्थित हो जाता है, तब उसकी स्थिति उत्तम बतायी जाती है--वह ठीक बर्ताव करता है, ऐसा माना जाता है। एकत्वका बोध ही ज्ञान है और नानात्वका बोध ही अज्ञान है ।।
तत्त्व (क्षर) और निस्तत्त्व (अक्षर) का यह पृथकृ-पृथक् लक्षण समझना चाहिये। कुछ मनीषी पुरुष पचीस तत्त्वोंको ही तत्त्व कहते हैं; परंतु दूसरे विद्वानोंने चौबीस जड तत्त्वोंको तो तत्त्व कहा है और पचीसवें चेतन परमात्माको निस्तत्त्व (तत्त्वसे भिन्न) बताया है। यह चैतन्य ही परमात्माका लक्षण है। महत्तत््व आदि जो विकार हैं, वे क्षरतत्त्व हैं और परम पुरुष परमात्मा उन “क्षर' तत्त्वोंसे भिन्न उनका सनातन आधार है ।। ३८-३९ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्म पर्वमें वसिष्ठकरालजनकसंवादविषयक तीन सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- पुरुष प्रकृतिकी जडताको आच्छादित करके उसके दुःखका आश्रय लेता है तथा प्रकृति पुरुषके आनन्दगुणको आच्छादित करके उसके चैतन्य गुणका आश्रय लेती है। तात्पर्य यह कि प्रकृतिके संयोगसे पुरुष आनन्दसे वंचित हो दुःखका भागी होता है और प्रकृति पुरुषके संगसे अपनी जडताको भुलाकर चेतनकी भाँति कार्य करने लगती है।
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