सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के तीन सौ एकवें अध्याय व तीन सौ दौवें अध्याय (From the 301 chapter and the 302 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ एकवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ एकवें अध्याय के श्लोक 1-116 का हिन्दी अनुवाद)

“सांख्ययोगके अनुसार साधन और उसके फलका वर्णन”

युधिष्ठिरने कहा--महाराज! आप मेरे हितैषी हैं, आपने मुझ शिष्यके प्रति शिष्ट पुरुषोंक मतके अनुसार इस योगमार्गका यथोचितरूपसे वर्णन किया ।। १ |।

अब मैं सांख्यविषयक सम्पूर्ण विधि पूछ रहा हूँ। आप मुझे उसे बतानेकी कृपा करें; क्योंकि तीनों लोकोंमें जो ज्ञान है, वह सब आपको विदित है ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठटिर! आत्मतत्त्वके जाननेवाले सांख्यशास्त्रके विद्वानोंका यह सूक्ष्म ज्ञान तुम मुझसे सुनो। इसे ईश्वरकोटिके कपिल आदि सम्पूर्ण यतियोंने प्रकाशित किया है ।। ३ ।।

नरश्रेष्ठ! इस मतमें किसी प्रकारकी भूल नहीं दिखायी देती। इसमें गुण तो बहुत-से हैं; किंतु दोषोंका सर्वथा अभाव है ।। ४ ।।

वक्ताओंमें श्रेष्ठ नरेश्वर! जो ज्ञानके द्वारा मनुष्य, पिशाच, राक्षस, यक्ष, सर्प, गन्धर्व, पितर, तिर्यग्योनि, गरुड़, मरुदण, रार्जर्षि, ब्रह्मर्षि, असुर, विश्वेदेव, देवर्षि, योगी, प्रजापति तथा ब्रह्माजीके भी सम्पूर्ण दुर्जय विषयोंको सदोष जानकर, संसारके मनुष्योंका परमायुकाल तथा सुखके परमतत्त्वका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और विषयोंकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको समय-समयपर जो दु:ख प्राप्त होता है, उसको, तिर्यग्योनि और नरकमें पड़नेवाले जीवोंके दुःखको, स्वर्ग तथा वेदकी फल-श्रुतियोंके सम्पूर्ण गुण-दोषोंको जानकर ज्ञानयोग, सांख्यज्ञान और योगमार्गके गुण-दोषोंको भी समझ लेते हैं । तथा भरतनन्दन! सत्त्वगुणके दस, रजोगुणके नौउ, तमोगुणके आठ, बुद्धिके सातर*ं, मनके छ:5 और आकाशके पाँचः गुणोंका ज्ञान प्राप्त करके बुद्धिके दूसरे चार, तमोगुणके दूसरे तीन, रजोगुणके दूसरे दो” और सत्त्वगुणके पुनः एक* गुणको जानकर आत्माकी प्राप्ति करानेवाले मार्ग--प्राकृत प्रलय तथा आत्मविचारको ठीक-ठीक जान लेते हैं, वे ज्ञानविज्ञानसे सम्पन्न तथा मोक्षोपयोगी साधनोंके अनुष्ठानसे शुद्धचित्त हुए कल्याणमय सांख्ययोगी परम आकाशको प्राप्त होनेवाले सूक्ष्म भूतोंक समान मंगलमय मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं ।। ५-१७ ।।

नेत्र रूप-गुणसे संयुक्त हैं। प्राणेन्द्रिय ग्रन्थ नामक गुणसे सम्बन्ध रखती है। श्रोत्रेन्द्रिय शब्दमें आसक्त है और रसना रसगुणमें ।। १८ ।।

त्वचा स्पर्शनामक गुणमें आसक्त है। इसी प्रकार वायुका आश्रय आकाश, मोहका आश्रय तमोगुण और लोभका आश्रय इन्द्रियोंके विषय हैं || १९ ।।

गतिका आधार विष्णु, बलका इन्द्र, उदरका अग्नि तथा पृथ्वीदेवीका आधार जल है। झलका तेज, तेजका वायु, वायुका आकाश, आकाशका आश्रय महत्तत्त्व अर्थात्‌ महत्तत्त्वका कार्य अहंकार है और अहंकारका अधिष्ठान समष्टि बुद्धि है । २०-२१ ।।

बुद्धिका आश्रय तमोगुण, तमोगुणका आश्रय रजोगुण और रजोगुणका आश्रय सत्त्गगुण है। सत्त्वगुण जीवात्माके आश्रित है। जीवात्माको भगवान्‌ नारायण-देवके आश्रित समझो। भगवान्‌ नारायणका आश्रय है मोक्ष (परब्रह्म), परंतु मोक्षका कोई भी आश्रय नहीं है (वह अपनी ही महिमामें प्रतिष्ठित है) || २२-२३ ।।

इन बातोंको भलीभाँति जानकर तथा सत्त्वगुणको, मनसहित ग्यारह इन्द्रिय, पाँच प्राण-इन सोलह गुणोंसे घिरे हुए सूक्ष्म शरीरको, शरीरके आश्रित रहनेवाले स्वभाव और चेतनाको जाने। नरेश्वर! जिसमें पापका लेश भी नहीं है, वह एकमात्र जीवात्मा शरीरके भीतर हृदयरूपी गुफामें उदासीन-भावसे विद्यमान है, इस बातको जाने। विषयकी अभिलाषा रखनेवाले मनुष्योंका जो कर्म है, वह शरीरके भीतर आत्माके अतिरिक्त दूसरा तत्त्व है। यह भी अच्छी तरह जान ले || २५ ।।

इन्द्रिय और इन्द्रियोंक विषय--ये सब-के-सब शरीरके भीतर स्थित हैं। मोक्ष परम दुर्लभ वस्तु है। इन सब बातोंको वेदोंके स्वाध्यायपूर्वक भलीभाँति समझ ले ।।

प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान--से पाँच प्राणवायु हैं। अधोगामी वायु छठा और ऊर्ध्वगामी प्रवह नामक वायु सातवाँ है। ये वायुके जो सात भेद हैं, इनमेंसे प्रत्येकके सात-सात भेद और हो जाते हैं। इस प्रकार कुल उनचास वायु होते हैं। अनेक प्रजापति, अनेक ऋषि तथा मुक्तिके अनेकानेक उत्तम मार्ग हैं। इन सबकी जानकारी प्राप्त करनी चाहिये ।। २७-२८ ।।

परंतप! सप्तर्षियों, बहुसंख्यक राजर्षियों, देवर्षियों, अन्यान्य महापुरुषों तथा सूर्यके समान तेजस्वी ब्रह्मर्षियोंका भी ज्ञान प्राप्त करे || २९ ।।

पृथ्वीनाथ! महान्‌ कालकी प्रेरणासे मनुष्य ऐश्वर्यसे भ्रष्ट कर दिये जाते हैं। बड़े-बड़े जो भूत-समुदाय हैं, उनका भी कालके द्वारा नाश हो जाता है। यह सब देख-सुनकर पापकर्मी मनुष्योंको जो अशुभ गति प्राप्त होती है तथा यमलोकमें जाकर वैतरणी नदीमें गिरे हुए प्राणियोंको जो दुःख होता है, उसको भी जाने ।। ३१ ।।

प्राणियोंको विचित्र-विचित्र योनियोंमें अशुभ जन्म धारण करने पड़ते हैं। रक्त और मूत्रके पात्ररूप अपवित्र गर्भाशयमें निवास करना पड़ता है, जहाँ कफ, मूत्र और मल भरा होता है तथा तीव्र दुर्गन्ध व्याप्त रहती है, जो रज और वीर्यका समुदायमात्र है, मज्जा एवं स्नायुका संग्रह है, सैकड़ों नस-नाड़ियोंमें व्याप्त है तथा जिसमें नौ द्वार हैं; उस अपवित्र पुर अर्थात्‌ शरीरमें जीवको रहना पड़ता है। नरेश्वर! इन सब बातोंको जानकर अपने परम हितस्वरूप आत्माको और उसकी प्राप्तिके लिये शास्त्रोंद्वारा बताये हुए नाना प्रकारके योगों (साधनों) की जानकारी प्राप्त करनी चाहिये |।३२--३४ ।।

भरतश्रेष्ठ] तामस, राजस और सात्त्विक--इन तीन प्रकारके प्राणियोंके जो तत्त्वज्ञानी महात्मा पुरुषोंद्वारा निन्दित मोक्षविरोधी व्यवहार हैं, उनको भी जानना चाहिये ।।

नरेश्वर! घोर उत्पात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, ताराओंका टूटकर गिरना, नक्षत्रोंकी गतिमें उलट-फेर होना तथा पति-पत्नियोंका दुःखदायक वियोग होना आदि बातें, जो इस जगतमें घटित होती हैं, उनको भी जानकर अपने कल्याणका उपाय करना चाहिये ।। ३६-३७ ।।

संसारके प्राणी एक-दूसरेको खा जाते हैं, यह कैसी अशुभ घटना है। इसपर दृष्टिपात करो। बाल्यावस्थामें मनपर मोह छाया रहता है और वृद्धावस्थामें शरीरका अमंगलकारी विनाश उपस्थित होता है। राग और मोह प्राप्त होनेपर अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, इन सबको जानकर कहीं किसी-किसीको ही सत्त्वगुणसे युक्त देखा जाता है। सहसरों मनुष्योंमेंसे कोई बिरला ही मोक्षविषयक बुद्धिका आश्रय लेता है ।। ३८-३९ ।।

वेद-वाक्योंके श्रवणद्वारा मुक्तिकी दुर्लभताको जानकर अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति न होनेपर भी उस परिस्थितिके प्रति अधिक आदर-बुद्धि रखे और मनोवांछित वस्तु प्राप्त हो जाय, तो भी उसकी ओरसे उदासीन ही रहे || ४० ।।

नरेश्वर! शब्द-स्पर्श आदि विषय दुःखरूप ही हैं, इस बातको जाने। कुन्तीनन्दन! जिनके प्राण चले जाते हैं, उन मनुष्योंके शरीरोंकी जो अशुभ एवं बीभत्स दशा होती है, उसपर भी दृष्टिपात करे ।।

भरतनन्दन प्राणियोंका घरोंमें निवास करना भी दुःखरूप ही है, इस बातको अच्छी तरह समझे तथा ब्रह्मघाती और पतित मनुष्योंकी जो अत्यन्त भयंकर दुर्गति होती है, उसको भी जाने || ४२ ।।

मदिरापानमें आसक्त दुरात्मा ब्राह्मणोंकी तथा गुरुपत्नीगामी मनुष्योंकी जो अशुभ गति होती है, उसका भी विचार करे || ४३ ।।

युधिष्ठिर! जो मनुष्य माताओं, देवताओं तथा सम्पूर्ण लोकोंके प्रति उत्तम बर्ताव नहीं करते हैं, उनकी दुर्गतिका ज्ञान जिससे होता है, उसी ज्ञानसे पापाचारी पुरुषोंकी अधोगतिका ज्ञान प्राप्त करे तथा तिर्यग्योनिमें पड़े हुए प्राणियोंकी जो विभिन्न गतियाँ होती हैं, उनको भी जान ले |।४४-४५ ।।

वेदोंके भाँति-भाँतिके विचित्र वचन, ऋतुओंके परिवर्तन तथा दिन, पक्ष, मास और संवत्सर आदि काल जो प्रतिक्षण बीत रहा है, उसकी ओर भी ध्यान दे। चन्द्रमाकी हासवृद्धि तो प्रत्यक्ष दिखायी देती है। समुद्रोंका ज्वारभाटा भी प्रत्यक्ष ही है। धनवानोंके धनका नाश और नाशके बाद पुनः वृद्धिका क्रम भी दृष्टिगोचर होता ही रहता है। इन सबको देखकर अपने कर्तव्यका निश्चय करे | ४६--४८ ।।

संयोगोंका, युगोंका, पर्वतोंका और सरिताओंका जो क्षय होता है, उसपर दृष्टि डाले। वर्णोंका क्षय और क्षयका अन्त भी बारंबार देखे। जन्म, मृत्यु और जरावस्थाके दु:खोंपर दृष्टिपात करे || ४९-५ ० ||

देहके दोषोंको जानकर उनसे मिलनेवाले दुःखका भी यथार्थ ज्ञान प्राप्त करे। शरीरकी व्याकुलताको भी ठीक-ठीक जाननेका प्रयत्न करे ।। ५१ ।।

अपने शरीरमें स्थित जो अपने ही दोष हैं, उन सबको जानकर शरीरसे जो निरन्तर दुर्गन्ध उठती रहती है, उसकी ओर भी ध्यान दे (तथा विरक्त होकर परमात्माका चिन्तन करते हुए भवबन्धनसे मुक्त होनेका प्रयत्न करे) ।। ५२ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--अमितपराक्रमी पितामह! आपके देखनेमें कौन-कौन-से दोष ऐसे हैं, जो अपने ही शरीरसे उत्पन्न होते हैं? आप मेरे इस सम्पूर्ण संदेहका यथार्थरूपसे समाधान करनेकी कृपा करें ।। ५३ ।।

भीष्मजीने कहा--प्रभो! शत्रुसूदन! कपिल सांख्यमतके अनुसार चलनेवाले उत्तम मार्गोके ज्ञाता मनीषी पुरुष इस देहके भीतर पाँच दोष बतलाते हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो || ५४ ।।

काम, क्रोध, भय, निद्रा और श्वास--ये पाँच दोष समस्त देहधारियोंके शरीरोंमें देखे जाते हैं || ५५ ।।

सत्पुरुष क्षमासे क्रोधका, संकल्पके त्यागसे कामका, सत्त्वगुणके सेवनसे निद्राका, प्रमादके त्यागसे भयका तथा अल्पाहारके सेवनद्वारा पाँचवें श्वास-दोषका नाश करते हैं || ५६-५७ ।।

राजन्‌! भरतनन्दन! महाबुद्धिमान्‌ सांख्यके विद्वान्‌ सैकड़ों गुणोंके द्वारा गुणोंको, सैकड़ों दोषोंके द्वारा दोषोंको तथा सैकड़ों विचित्र हेतुओंसे विचित्र हेतुओंको तत्त्वतः जानकर व्यापक ज्ञानके प्रभावसे संसारको पानीके फेनके समान नश्वर, विष्णुकी सैकड़ों मायाओंसे ढँका हुआ, दीवारपर बने हुए चित्रके समान, नरकुलके समान सारहीन, अन्धकारसे भरे हुए गड़्ढेकी भाँति भयंकर, वर्षाकालके पानीके बुलबुलोंके समान क्षणभंगुर, सुखहीन, पराधीन, नष्टप्राय तथा कीचड़में फँसे हुए हाथीकी तरह रजोगुण और तमोगुणमें मग्न समझते हैं। इसलिये वे संतान आदिकी आसक्तिको दूर करके तपरूप दण्डसे युक्त विवेकरूपी शस्त्रसे राजस-तामस अशुभ गन्धोंको और सुन्दर शोभनीय सात््विक गन्धोंको तथा स्पर्शेन्द्रियके देहाश्रित भोगोंकी आसक्तिको शीघ्र ही काट डालते हैं | ५८--६३ ।।

शत्रुसूदन! तदनन्तर वे सिद्ध यति प्रज्ञारूपी नौकाके द्वारा उस संसाररूपी घोर सागरको तर जाते हैं, जिसमें दुःखरूपी जल भरा है। चिन्ता और शोकके बड़े-बड़े कुण्ड हैं। नाना प्रकारके रोग और मृत्यु विशाल ग्राहोंके समान हैं। महान्‌ भय ही महानागोंके समान हैं। तमोगुण कछुए और रजोगुण मछलियाँ हैं। स्नेह ही कीचड़ है। बुढ़ापा ही उससे पार होनेमें कठिनाई है। ज्ञान ही उसका द्वीप है। नाना प्रकारके कर्मोद्वारा वह अगाध बना हुआ है। सत्य ही उसका तीर है। नियम-व्रत आदि स्थिरता है। हिंसा ही उसका शीघ्रगामी महान्‌ वेग है। वह नाना प्रकारके रसोंका भण्डार है। अनेक प्रकारकी प्रीतियाँ ही उस भवसागरके महारत्न हैं। दुःख और संताप ही वहाँकी वायु है। शोक और तृष्णाकी बड़ी-बड़ी भँवरें उठती रहती हैं। तीव्र व्याधियाँ उसके भीतर रहनेवाले महान्‌ जलहस्ती हैं। हड्डियाँ ही उसके घाट हैं। कफ फेन हैं। दान मोतियोंकी राशि हैं। रक्त उसके कुण्डमें रहनेवाले मूँगा हैं। हँसना और चिल्लाना ही उस सागरकी गम्भीर गर्जना है। अनेक प्रकारके अज्ञान ही इसे अत्यन्त दुस्तर बनाये हुए हैं। रोदनजनित आँसू ही उसमें मलिन खारे जलके समान हैं। आसक्तियोंका त्याग ही उसमें परम आश्रय या दूसरा तट है। स्त्री-पुत्र जोंकके समान हैं। मित्र और बन्धु-बान्धव तटवर्ती नगर हैं। अहिंसा और सत्य उसकी सीमा हैं। प्राणोंका परित्याग ही उसकी उत्ताल तरंगें हैं। वेदान्तज्ञान द्वीप है। समस्त प्राणियोंके प्रति दयाभाव इसकी जलराशि हैं। मोक्ष उसमें दुर्लभ विषय है और नाना प्रकारके संताप उस संसारसागरके बड़वानल हैं। भरतनन्दन! उससे पार होकर वे आकाशस्वरूप निर्मल परब्रह्ममें प्रवेश कर जाते हैं | ६४--७२ ।।

राजन! उन पुण्यात्मा सांख्ययोगी सिद्ध पुरुषोंको अपनी रश्मियोंद्वारा उनमें प्रविष्ट हुआ सूर्य अर्चिर्मार्गसे उस ब्रह्मलोकमें ले जानेके लिये ऊपरके लोकोंमें उसी प्रकार वहन करता है, जैसे कमलकी नाल सरोवरके जलको खींच लेती है ।। ७३ ।।

वहाँ प्रवहनामक वायु-अभिमानी देवता उन वीतराग शक्तिसम्पन्न सिद्ध तपोधन महापुरुषोंको सूर्य-अभिमानी देवतासे अपने अधिकारमें ले लेता है || ७४ ।।

भरतनन्दन! कुन्तीकुमार! सूक्ष्म, शीतल, सुगन्धित, सुखस्पर्श एवं सातों वायुओंमें श्रेष्ठ जो वायुदेव शुभ लोकोंमें जाते हैं, वे फिर उन कल्याणमय सांख्ययोगियोंको आकाशकी ऊँची स्थितिमें पहुँचा देते हैं | ७५ ।।

लोकेश्वर! आकाशाभिमानी देवता उन योगियोंको रजोगुणकी परमागतितक वहन करता है। अर्थात्‌ तेजोमय विद्युत-अभिमानी देवताओंके पास पहुँचा देता है। राजेन्द्र! वह रजोगुण अर्थात्‌ विद्युदभिमानी देवता उनको सत्यकी परमगतितक अर्थात्‌ जहाँ श्रीनारायणके पार्षदगण उनको लेनेके लिये प्रस्तुत रहते हैं, वहाँतक वहन करता है। शुद्धात्मन्‌! वहाँसे सत्त्वगुणयुक्त वे भगवानके पार्षद उनको परम प्रभु श्रीनारायणके पास पहुँचा देते हैं। समर्थ राजन! भगवान्‌ नारायण स्वयं उनको विशुद्ध आत्मा परब्रह्म परमात्मामें प्रविष्ट कर देते हैं। परमात्माको पाकर तद्गूप हुए वे निर्मल योगीजन अमृतभावसम्पन्न हो जाते हैं, फिर नहीं लौटते || ७६--७८ ।।

कुन्तीकुमार! जो सब प्रकारके द्वन्धोंसे रहित, सत्यवादी, सरल तथा सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले हैं, उन महात्माओंको वही परमगति मिलती है || ७९ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--निष्पाप पितामह! स्थिरतापूर्वक श्रेष्ठ वत्ररका पालन करनेवाले वे सांख्ययोगी महात्मा भगवान्‌ नारायणको एवं उत्तम परमात्मपद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेनेपर अपने जन्मसे लेकर मृत्युतकके बीते हुए वृत्तान्तको फिर कभी याद करते हैं या नहीं? (मोक्षावस्थामें विशेष-विशेष बातोंका ज्ञान रहता है या नहीं? यही मेरा प्रश्न है।) इस विषयमें जो तथ्य बात है, उसे आप यथार्थरूपसे बतानेकी कृपा करें। कुरुनन्दन! आपके सिवा दूसरे किसी पुरुषसे मैं ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता || ८०-८१ ।।

सिद्धावस्थाको प्राप्त ऋषियोंके लिये मोक्षमें यह एक बड़ा दोष प्रतीत होता है। वह यह कि यदि मोक्ष प्राप्त होनेपर भी वे यतिलोग विशेष ज्ञानमें ही विचरण करते हैं अर्थात्‌ उनको पहलेकी स्मृति रहती है, तब तो मैं प्रवृत्तिरूप धर्मको ही सर्वश्रेष्ठ समझता हूँ। यदि कहें, मुक्तावस्थामें विशेष विज्ञानका अनुभव नहीं होता तब तो उस परम ज्ञानमें डूब जानेपर विशेष जानकारीका अभाव हो जाता है, इससे बढ़कर दुःख और क्‍या हो सकता सकता है? ।। ८२-८३ ।।

भीष्मजीने कहा--तात! भरतश्रेष्ठ! तुमने यथोचित रीतिसे यह बहुत ही जटिल प्रश्न उपस्थित किया। इस प्रश्नपर विचार करते समय बड़े-बड़े विद्वान्‌ भी मोहित हो जाते हैं ।। ८४ ।।

इस विषयमें भी जो परम तत्त्व है, उसे मैं भलीभाँति बता रहा हूँ, सुनो। यहाँ कपिलजीके द्वारा प्रतिपादित सांख्यमतका अनुसरण करनेवाले महात्मा पुरुषोंका जो उत्तम विचार है, वही प्रस्तुत किया जाता है || ८५ ।।

नरेश्वर! देहधारियोंके अपने-अपने शरीरमें जो इन्द्रियाँ हैं, वे ही विशेष-विशेष विषयोंको देखती या अनुभव करती हैं; वे ही आत्माको विभिन्न ज्ञान करानेमें कारण हैं; क्योंकि वह सूक्ष्म आत्मा उन इन्द्रियोंद्वारा ही बाह्य विषयोंका दर्शन या प्रकाशन करता है (मुक्तावस्थामें मन और इन्द्रियोंसे सम्बन्ध न रहनेके कारण ही उसमें इन्द्रियजनित विशेष ज्ञानका अभाव देखा जाता है) ।। ८६ ।।

जैसे महासागरमें उठे हुए फेन नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार जीवात्मासे परित्यक्त होनेपर मनुष्यकी काठ और दीवारकी भाँति जड इन्द्रियाँ प्रकृतिमें विलीन हो जाती हैं, इसमें संदेह नहीं है | ८७ ।।

शत्रुओंको ताप देनेवाले नरेश! जब शरीरधारी प्राणी इन्द्रियोंसहित निद्रित हो जाता है, तब उसका सूक्ष्मशरीर आकाशमें वायुके समान सर्वत्र विचरण करने लगता है अर्थात्‌ स्वप्न देखने लगता है ।। ८८ ।।

प्रभो! भरतनन्दन! वह जाग्रत-अवस्थाकी भाँति स्वप्रमें भी यथोचित रीतिसे दृश्य वस्तुओंको देखता है तथा स्पृश्य पदार्थोका स्पर्श करता है। सारांश यह कि सम्पूर्ण विषयोंका वह जाग्रत्‌के समान ही अनुभव करता है ।। ८९ ।।

फिर सुषुप्ति-अवस्था होनेपर विषय-ज्ञानमें असमर्थ हुई सम्पूर्ण इन्द्रियाँ अपने-अपने स्थानमें उसी प्रकार विधिवत्‌ लीन हो जाती हैं, जैसे विषहीन सर्प (भयसे) छिपे रहते हैं ।। ९० ।।

स्वप्नावस्थामें अपने-अपने स्थानोंमें स्थित हुई सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी समस्त गतियोंको आक्रान्त करके जीवात्मा सूक्ष्म विषयोंमें विचरण करता है, इसमें संदेह नहीं है ।। ९१ ।।

भरतनन्दन! धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर! परब्रह्म परमात्मा सात््विक, राजस और तामस गुणोंको एवं बुद्धि, मन, आकाश, वायु, तेज, जल, और पृथ्वी-इन सबके सम्पूर्ण गुणोंको तथा अन्य सब वस्तुओंको भी अपने गुणोंद्वारा व्याप्त करके सभी क्षेत्रज्ञों (जीवात्माओं) में स्थित हैं, प्रभो! जैसे शिष्य अपने गुरुके पीछे चलते हैं, उसी प्रकार मन, इन्द्रियाँ और शुभाशुभ कर्म भी उस जीवात्माके पीछे-पीछे चलते हैं। जब जीवात्मा इन्द्रियों और प्रकृतिको भी लाँघकर जाता है, तब उस नारायणस्वरूप अविनाशी परमात्माको प्राप्त हो जाता है, जो द्वन्द्ररहित और मायासे अतीत है ।। ९२--९६ ।।

भारत! पुण्य-पापसे रहित हुआ सांख्ययोगी मुक्त होकर जब उन्हीं निर्मुण-निर्विकार नारायणस्वरूप परमात्मामें प्रविष्ट हो जाता है, फिर वह इस संसारमें नहीं लौटता है ।। ९७ |।

भरतनन्दन! इस प्रकार जीवन्मुक्त पुरुषका आत्मा तो परमात्मामें मिल जाता है, परंतु प्रारब्धवश जबतक शरीर रहता है, तबतक उसके मन और इन्द्रियाँ शेष रहते हैं और गुरुके आदेश पालन करनेवाले शिष्योंके समान यथासमय यहाँ गमनागमन करते हैं ।। ९८ ।।

कुन्तीनन्दन! इस प्रकार बताये हुए ज्ञानसे सम्पन्न मोक्षाधिकारी तथा आध्यात्मिक उन्नतिकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष थोड़े ही समयमें परम शान्ति प्राप्त कर सकता है ।। ९९ ||

राजन! कुन्तीकुमार! महाज्ञानी सांख्ययोगी ऊपर बताए हुए इसी परमगतिको प्राप्त होते हैं। इस ज्ञानके समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं है || १०० ।।

सांख्यज्ञान सबसे उत्कृष्ट माना गया है। इस विषयमें तुम्हें तनिक भी संशय नहीं होना चाहिये। इसमें अक्षर, ध्रुव एवं पूर्ण सनातन ब्रह्मका ही प्रतिपादन हुआ है || १०१ ।।

वह ब्रह्म आदि, मध्य और अन्तसे रहित, निर्द्धन्द्ध, जगतकी उत्पत्तिका हेतुभूत, शाश्वत, कूटस्थ और नित्य है, ऐसा मनीषी पुरुष कहते हैं || १०२ ।।

संसारकी सृष्टि और प्रलयरूप सारे विकार उसीसे सम्भव होते हैं। महर्षि अपने शास्त्रोंमें उसीकी प्रशंसा करते हैं |। १०३ ।।

समस्त ब्राह्मण, देवता और शान्तिका अनुभव करनेवाले लोग उसी अनन्त, अच्युत, ब्राह्मगहितैषी तथा परमदेव परमात्माकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं। उनके गुणोंका चिन्तन करते हुए उनकी महिमाका गान करते हैं। योगमें उत्तम सिद्धिको प्राप्त हुए योगी तथा अपार ज्ञानवाले सांख्यवेत्ता पुरुष भी उसीके गुण गाते हैं ।।

कुन्तीनन्दन! ऐसी प्रसिद्धि है कि यह सांख्यशास्त्र ही उस निराकार परमात्माका आकार है। भरतश्रेष्ठ! जितने ज्ञान हैं, वे सब सांख्यकी ही मान्यताका प्रतिपादन करते हैं ।। १०६ ||

पृथ्वीनाथ! इस भूतलपर स्थावर और जंगम--दो प्रकारके प्राणी उपलब्ध होते हैं। उनमें भी जंगम ही श्रेष्ठ है ।। १०७ ।।

राजन! नरेश्वर! महात्मा पुरुषोंमें, वेदोंमें, सांख्यों (दर्शनों) में, योगशास्त्रमें तथा पुराणोंमें जो नाना प्रकारका उत्तम ज्ञान देखा जाता है, वह सब सांख्यसे ही आया हुआ है।।

नरेश! महात्मन! बड़े-बड़े इतिहासोंमें, सत्पुरुषों-द्वारा सेवित अर्थशास्त्रमें तथा इस संसारमें जो कुछ भी महान्‌ ज्ञान देखा गया है, वह सब सांख्यसे ही प्राप्त हुआ है || १०९ ||

राजन! प्रत्यक्ष प्राप्त मन और इन्द्रियोंका संयम, उत्तम बल, सूक्ष्मज्ञान तथा परिणाममें सुख देनेवाले जो सूक्ष्म तप बतलाये गये हैं, उन सबका सांख्यशास्त्रमें यथावत्‌ वर्णन किया गया है ।।११० ।।

कुन्तीकुमार! यदि साधनमें कुछ त्रुटि रह जानेके कारण सांख्यका सम्यक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ हो तो भी सांख्ययोगके साधक देवलोकमें अवश्य जाते हैं और वहाँ निरन्तर सुखसे रहते हुए देवताओंका आधिपत्य पाकर कृतार्थ हो जाते हैं। तदनन्तर पुण्यक्षयके पश्चात्‌ वे इस लोकमें आकर पुनः साधनके लिये यत्नशील ब्राह्मणोंके यहाँ जन्म ग्रहण करते हैं | १११ ।।

पार्थ! सांख्यज्ञानी शरीर-त्यागके पश्चात्‌ परमदेव परमात्मामें उसी प्रकार प्रवेश कर जाते हैं, जैसे देवता स्वर्गमें। पृथ्वीनाथ! अतः शिष्ट पुरुषोंद्वारा सेवित परम पूजनीय सांख्यशास्त्रमें वे सभी द्विज अधिक अनुरक्त रहते हैं | ११२ ।।

राजन! जो इस सांख्य-ज्ञानमें अनुरक्त हैं, वे ही ब्राह्मण प्रधान हैं, अतः उन्हें मृत्युके पश्चात्‌ कभी पशु पक्षी आदिकी योनिमें जाना पड़ा हो, ऐसा नहीं देखा गया है। वे कभी नरकादि अधोगतिको भी नहीं प्राप्त होते हैं तथा उन्हें पापाचारियोंके बीचमें भी नहीं रहना पड़ता है ।। ११३ ।।

सांख्यका ज्ञान अत्यन्त विशाल और परम प्राचीन है। यह महासागरके समान अगाध, निर्मल, उदार भावोंसे परिपूर्ण और अतिसुन्दर है। नरनाथ! परमात्मा भगवान्‌ नारायण इस सम्पूर्ण अप्रमेय सांख्य-ज्ञानको पूर्णरूपसे धारण करते हैं || ११४ ।।

नरदेव! यह मैंने तुमसे सांख्यका तत्त्व बतलाया है। इस पुरातन विश्वके रूपमें साक्षात्‌ भगवान्‌ नारायण ही सर्वत्र विराजमान हैं। वे ही सृष्टिके समय जगत्‌की सृष्टि और संहारकालमें उसको अपनेमें विलीन कर लेते हैं। इस प्रकार जगत्‌को अपने शरीरके भीतर ही स्थापित करके वे जगतके अन्तरात्मा भगवान्‌ नारायण एकार्णवके जलमें शयन करते हैं ।। ११५-११६ |।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें यांख्यतत््वका वर्णणविषयक तीन सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. ज्ञानशक्ति, वैराग्य, स्वामिभाव, तप, सत्य, क्षमा, थैर्य, स्वच्छता, आत्माका बोध और अधिष्ठातृत्व--ये दस सात्त्विक गुण बताये गये हैं।  
  2. असंतोष, पश्चात्ताप, शोक, लोभ, अक्षमा, दमन करनेकी प्रवृत्ति, काम, क्रोध और ईर्ष्या-ये नौ राजस गुण बताये गये हैं। 
  3. अविवेक, मोह, प्रमाद, स्वप्न, निद्रा, अभिमान, विषाद और प्रीतिका अभाव-ये आठ तामस गुण हैं। 
  4. महत्‌, अहंकार, शब्दतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा और गन्धतन्मात्रा-ये सात गुण बुद्धिके हैं।

  • श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और प्राण-इन पाँच इन्द्रियोंसहित छठा मन-ये मनके छ: गुण हैं। 
  • आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी--ये आकाशके पाँच गुण हैं। 
  • संशय, निश्चय, गर्व और स्मरण-ये बुद्धिके चार गुण हैं। 
  • अप्रतिपत्ति, विप्रतिपत्ति और विपरीत प्रतिपत्ति-ये तीन गुण तमके हैं।  
  • प्रवृत्ति तथा दुःख--ये दो गुण रजके हैं। 
  • प्रकाश सत्त्वका एक प्रधान गुण है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

तीन सौ दोवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौ दोवें अध्याय के श्लोक 1-49 का हिन्दी अनुवाद)

“वसिष्ठ और करालजनकका संवाद--क्षर और अक्षरतत्त्वका निरूपण और इनके ज्ञानसे मुक्ति”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! वह अक्षर तत्त्व कया है, जिसे प्राप्त कर लेनेपर जीव फिर इस संसारमें नहीं लौटता तथा वह क्षर पदार्थ क्या है, जिसको जानने या पा लेनेपर भी पुनः इस संसारमें लौटना पड़ता है? ।। १ ।।

शत्रुसूदन! महाबाहु! कुरुनन्दन! क्षर और अक्षरके स्वरूपको स्पष्टरूपसे समझनेके लिये ही मैंने आपसे यह प्रश्न किया है || २ ।।

वेदोंके पारंगत विद्धान्‌ ब्राह्मण, महाभाग महर्षि तथा महात्मा यति भी आपको ज्ञाननिधि कहते हैं ।। ३ ।।

अब सूर्यके दक्षिणायनमें रहनेके थोड़े ही दिन शेष हैं। भगवान्‌ सूर्यके उत्तरायणमें पदार्पण करते ही आप परमधामको पधारेंगे ।। ४ ।।

आपके चले जानेपर हमलोग अपने कल्याणकी बातें किससे सुनेंगे? आप कुरुवंशको प्रकाशित करनेवाले प्रदीप हैं और ज्ञानदीपसे उद्भासित हो रहे हैं ।। ५ ।।

अतः कुरुकुलधुरन्धर! राजेन्द्र! मैं आपहीके मुँहसे यह सब सुनना चाहता हूँ। आपके इन अमृतमय वचनोंको सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती है (अतएव आप मुझे यह क्षरअक्षरका विषय बताइये।) ।। ६ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें कराल नामक जनक और वसिष्ठका जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बतलाऊँगा ।। ७ ।।

एक समयकी बात है, ऋषियोंमें सूर्यके समान तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ अपने आश्रमपर विराजमान थे। वहाँ राजा जनकने पहुँचकर उनसे परम कल्याणकारी ज्ञानके विषयमें पूछा ।। ८ ।।

मित्रावरुणके पुत्र वसिष्ठजी अध्यात्मविषयक प्रवचनमें अत्यन्त कुशल थे और उन्हें अध्यात्मज्ञानका निश्चय हो गया था। वे एक आसनपर विराजमान थे। पूर्वकालमें कराल नामक राजा जनकने उन मुनिवरके पास जा हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सुन्दर अक्षरोंसे युक्त विनयपूर्ण तथा कुतर्करहित मधुर वाणीमें इस प्रकार पूछा-- ।। ९-१० ।।

“भगवन्‌! जहाँसे मनीषी पुरुष पुनः इस संसारमें लौटकर नहीं आते हैं, उस सनातन परब्रह्मके स्वरूपका मैं वर्णन सुनना चाहता हूँ ।। ११ ।।

“तथा जिसे क्षर कहा गया है, उसे भी जानना चाहता हूँ। जिसमें इस जगत्‌का क्षरण (लय) होता है और जिसे अक्षर कहा गया है, उस निर्विकार कल्याणमय शिवस्वरूप अधिष्ठानका भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ ॥। १२ ।।

वसिष्ठजीने कहा--भूपाल! जिस प्रकार इस जगतका क्षय (परिवर्तन) होता है, उसको तथा जो किसी भी कालनमें क्षरित (नष्ट) नहीं होता, उस अक्षरको भी बता रहा हूँ, सुनो।।

देवताओंके बारह हजार वर्षोका एक चतुर्युग होता है। इसीको कल्प अर्थात्‌ महायुग समझो। ऐसे एक हजार महायुगोंका ब्रह्माजीका एक दिन बताया जाता है ।। १४ ।।

राजन! उनकी रात्रि भी इतनी ही बड़ी होती है; जिसके अनन्‍्तमें वे जागते हैं। अनन्तकर्मा ब्रह्माजी सबके अग्रज और महान्‌ भूत हैं। यह सम्पूर्ण विश्व उन्हींका स्वरूप है। जो अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि सिद्धियोंपर शासन करनेवाले हैं, वे कल्याणस्वरूप निराकार परमेश्वर ही उन मूर्तिमान्‌ ब्रह्माकी सृष्टि करते हैं। परमात्मा ज्योतिःस्वरूप स्वयं प्रकट और अविनाशी हैं। उनके हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब ओर हैं। कान भी सब ओर हैं। वे संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं || १५--१७ ।।

परमेश्वरसे उत्पन्न जो सबके अग्रज भगवान्‌ हिरण्यगर्भ हैं, ये ही बुद्धि कहे गये हैं। योगशास्त्रमें ये ही महान्‌ कहे गये हैं। इन्हींको विरिज्चि तथा अज भी कहते हैं ।। १८ 

अनेक नाम और रुपोंसे युक्त इन हिरण्यगर्भ ब्रह्माका सांख्यशास्त्रमें भी वर्णन आता है। ये विचित्र रूपधारी, विश्वात्मा और एकाक्षर कहे गये हैं। इस अनेक रूपोंवाली त्रिलोकीकी रचना उन्होंने ही की है और स्वयं ही इसे व्याप्त कर रक्खा है। इस प्रकार बहुत-से रूप धारण करनेके कारण वे विश्वरूप माने गये हैं | १९-२० ।।

ये महातेजस्वी भगवान्‌ हिरण्यगर्भ विकारको प्राप्त हो स्वयं ही अहंकारकी और उसके अभिमानी प्रजापति विराट्की सृष्टि करते हैं || २१ ।।

इनमें निराकारसे साकार रूपमें प्रकट होनेवाली मूल प्रकृतिको तो विद्यासर्ग कहते हैं और महत्तत्त्व एवं अहंकारको अविद्यासर्ग कहते हैं || २२ ।।

अविधि (ज्ञान) और विधि (कर्म) की उत्पत्ति भी उस परमात्मासे ही हुई है। श्रुति तथा शास्त्रके अर्थका विचार करनेवाले विद्दानोंने उन्हें विद्या और अविद्या बतलाया है ।। २३ ।।

पृथ्वीनाथ! अहंकारसे जो सूक्ष्म भूतोंकी सृष्टि होती है उसे तीसरा सर्ग समझो। सात्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारके अहंकारोंसे जो चौथी सृष्टि उत्पन्न होती है, उसे वैकृत-सर्ग समझो ।। २४ ।।

आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी--ये पाँच महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये पाँच विषय वैकृत-सर्गके अन्तर्गत हैं || २५ ।।

इन दसोंकी उत्पत्ति एक ही साथ होती है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्द्र! पाँचवाँ भौतिक सर्ग समझो। जो प्राणियोंके लिये विशेष प्रयोजनीय होनेके कारण सार्थक है || २६ |।

इस भौतिक सर्गके अन्तर्गत आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्ला--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और लिंग--ये पाँच कर्मन्द्रियाँ हैं। पृथ्वीनाथ! मनसहित इन सबकी उत्पत्ति भी एक ही साथ होती है || २७-२८ ।।

ये चौबीस तत्त्व सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें मौजूद रहते हैं। तत्त्वदर्शी ब्राह्मण इनके यथार्थ स्वरूपको जानकर कभी शोक नहीं करते हैं | २९ ।।

नरश्रेष्ठ! तीनों लोकोंमें जितने देहधारी हैं, उन सबमें इन्हीं तत्त्वोंके समुदायको देह समझना चाहिये। देवता, मनुष्य, दानव, यक्ष, भूत, गन्धर्व किन्नर, महासर्प, चारण, पिशाच, देवर्षि, निशाचर, दंश (डंक मारनेवाली मक्खी), कीट, मच्छर, दुर्गन्धित कीड़े, चूहे, कुत्ते, चाण्डाल, हिरन, श्वपाक (कुत्ताका मांस खानेवाला), पुल्कस (म्लेच्छ), हाथी, घोड़े, गधे, सिंह, वृक्ष और गौ आदिके रूपमें जो कुछ मूर्तिमान्‌ पदार्थ है, सर्वत्र इन्हीं तत्त्वोंका दर्शन होता है ।। ३०-३३ ।।

पृथ्वी, जल और आकाशमें ही देहधारियोंका निवास है, और कहीं नहीं; यह विद्वानोंका निश्चय है। ऐसा मैंने सुन रक्खा है || ३४ ।।

है तात! यह सम्पूर्ण पांचभौतिक जगत्‌ व्यक्त कहलाता है और प्रतिदिन इसका क्षरण होता है, इसलिये इसको क्षर कहते हैं || ३५ ।।

इससे भिन्न जो तत्त्व है, उसे अक्षर कहा गया है। इस प्रकार उस अव्यक्त अक्षरसे उत्पन्न हुआ यह व्यक्तसंज्ञक मोहात्मक जगत क्षरित होनेके कारण क्षर नाम धारण करता है ।। ३६ ||

क्षर-तत्त्वोंमें सबसे पहले महत्तत्त्वकी ही सृष्टि हुई है। यह बात सदा ध्यानमें रखनेयज्ञेय है। यही क्षरका परिचय है। महाराज! तुमने जो मुझसे पूछा था, उसके अनुसार यह मैंने तुम्हारे समक्ष क्षर-अक्षरके विषयका वर्णन किया है ।। ३७ ।।

इन चौबीस तत्त्वोंसे परे जो भगवान्‌ विष्णु (सर्वव्यापी परमात्मा) हैं, उन्हें पचीसवाँ तत्त्व कहा गया है। तत्त्वोंको आश्रय देनेके कारण ही मनीषी पुरुष उन्हें तत्त्व कहते हैं ।। ३८ ।।

महत्तत्त्व आदि व्यक्त पदार्थ जिन मरणशील (नश्वर) पदार्थोकी सृष्टि करते हैं, वे किसीन-किसी आकार या मूर्तिका आश्रय लेकर स्थित होते हैं। गणना करनेपर चौबीसवाँ तत्त्व है अव्यक्त प्रकृति और पचीसवाँ है निराकार परमात्मा ।। ३९ |।

जो अद्वितीय, चेतन, नित्य, सर्वस्वरूप, निराकार एवं सबके आत्मा हैं, वे परम पुरुष परमात्मा ही समस्त शरीरोंके हृदयदेशमें निवास करते हैं ।। ४० ।।

यद्यपि सृष्टि और प्रलय प्रकृतिके ही धर्म हैं। पुरुष तो उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित है तथापि उस प्रकृतिके संसर्गवश पुरुष भी उस सृष्टि और प्रलयरूप धर्मसे सम्बद्ध-सा जान पड़ता है। इन्द्रियोंका विषय न होनेपर भी इन्द्रियगोचर-सा हो जाता है तथा निर्गुण होनेपर भी गुणवान्‌-सा जान पड़ता है || ४१ ।।

इस प्रकार सृष्टि और प्रलयके तत्त्वको जाननेवाला यह महान्‌ आत्मा अविकारी होकर भी प्रकृतिके संसर्गसे युक्त हो विकारवान्‌-सा हो जाता है एवं प्राकृत-बुद्धिसे रहित होनेपर भी शरीरमें आत्माभिमान कर लेता है || ४२ ।।

प्रकृतिके संसर्गवश ही वह सत्त्वमुण, रजोगुण और तमोगुणसे युक्त हो जाता है तथा अज्ञानी मनुष्योंका संग करनेसे उन्हींकी भाँति अपनेको शरीरस्थ समझनेके कारण वह उनउन सात््विक, राजस, तामस योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है ।। ४३ ।।

प्रकृतिके सहवाससे अपने स्वरूपका बोध लुप्त हो जानेके कारण पुरुष यह समझने लगता है कि मैं शरीरसे भिन्न नहीं हूँ। “मैं यह हूँ, वह हूँ, अमुकका पुत्र हूँ, अमुक जातिका हूँ", इस प्रकार कहता हुआ वह सात्त्विक आदि गुणोंका ही अनुसरण करता है ।। ४४ ।।

वह तमोगुणसे मोह आदि नाना प्रकारके तामस भावोंको, रजोगुणसे प्रकृत्ति आदि राजस भावोंको तथा सत्त्वगुणका आश्रय लेकर प्रकाश आदि सात््विक भावोंको प्राप्त होता है || ४५ ||

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणसे क्रमश: शुक्ल, रक्त और कृष्ण--ये तीन वर्ण प्रकट होते हैं। प्रकृतिसे जो-जो रूप प्रकट हुए हैं, वे सब इन्हीं तीनों वर्णोके अन्तर्गत हैं || ४६ ।।

तमोगुणी प्राणी नरकमें पड़ते हैं, राजस स्वभावके जीव मनुष्यलोकमें जाते हैं तथा सुखके भागी सात्त्विक पुरुष देवलोकको प्रस्थान करते हैं |। ४७ ।।

अत्यन्त केवल पापकर्मोंके फलस्वरूप जीव पशु-पक्षी आदि तिर्यग्योनिको प्राप्त होता है। पुण्य और पाप दोनोंके सम्मिश्रणसे मनुष्यलोक मिलता है तथा केवल पुण्यसे प्राणी देवयोनिको प्राप्त होता है ।। ४८ ।।

इस प्रकार ज्ञानी पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न हुए पदार्थोंको क्षर कहते हैं। उपर्युका चौबीस तत्त्वोंसे भिन्न जो पचीसवाँ तत्त्व--परमपुरुष परमात्मा बताया गया है, वही अक्षर है। उसकी प्राप्ति ज्ञानसे ही होती है ।। ४९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वायिष्ठ और करालजनकका संवादविषयक तीन सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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