सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छानबेवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--वर्णविशेषकी उत्पत्तिका रहस्य, तपोबलसे उत्कृष्ट वर्णकी प्राप्ति, विभिन्न वर्णोंके विशेष और सामान्य धर्म, सत्कर्मकी श्रेष्ठता तथा हिंसारहित धर्मका वर्णन”
जनकने पूछा--वक्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! ब्राह्मण आदि विशेष-विशेष वर्णोका जो वर्ण है, वह कैसे उत्पन्न होता है? यह मैं जानना चाहता हूँ। आप इस विषयको बतायें ।। १ ।।
श्रुति कहती है कि जिससे यह संतान उत्पन्न होती है, तद्रप ही समझी जाती है अर्थात् संततिके रूपमें जन्मदाता पिता ही नूतन जन्म धारण करता है। ऐसी दशामें प्रारम्भमें ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए ब्राह्मणोंसे ही सबका जन्म हुआ है, तब उनकी क्षत्रिय आदि विशेष संज्ञा कैसे हो गयी? ।। २ ।।
पराशरजीने कहा--महाराज! यह ठीक है कि जिससे जो जन्म लेता है, उसीका वह स्वरूप होता है तथापि तपस्याकी न्यूनताके कारण लोग निकृष्ट जातिको प्राप्त हो गये हैं ।। ३ ।।
उत्तम क्षेत्र और उत्तम बीजसे जो जन्म होता है, वह पवित्र ही होता है। यदि क्षेत्र और बीजमेंसे एक भी निम्नकोटिका हो तो उससे निम्न संतानकी ही उत्पत्ति होती है || ४ ।।
धर्मज्ञ पुरुष यह जानते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी जब मानव-जगत्की सृष्टि करने लगे, उस समय उनके मुख, भुजा, ऊरु और पैर--इन अंगोंसे मनुष्योंका प्रादुर्भाव हुआ था।। ५।।
तात! जो मुखसे उत्पन्न हुए, वे ब्राह्मण कहलाये। दोनों भुजाओंसे उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंको क्षत्रिय माना गया। राजन! जो ऊरुओं (जाँघों) से उत्पन्न हुए, वे धनवान् (वैश्य) कहे गये; जिनकी उत्पत्ति चरणोंसे हुई, वे सेवक या शूद्र कहलाये ।। ६ ।।
पुरुषप्रवर! इस प्रकार ब्रह्माजीके चार अंगोंसे चार वर्णोकी ही उत्पत्ति हुई। इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे मनुष्य हैं, वे इन्हीं चार वर्णोके सम्मिश्रणसे उत्पन्न होनेके कारण वर्णसंकर कहलाते हैं || ७ ।।
नरेश्वर! क्षत्रिय, अतिरथ, अम्बष्ठ, उग्र, वैदेह, श्वपाक, पुल्कस, स्तेन, निषाद, सूत, मागध, अयोग, करण, व्रात्य और चाण्डाल--ये ब्राह्मण आदि चार वर्णोसे अनुलोम और विलोम वर्णकी स्त्रियोंके साथ परस्पर संयोग होनेसे उत्पन्न होते हैं || ८-९ ।।
जनकने पूछा--मुनिश्रेष्!ी जब सबको एकमात्र ब्रह्माजीने ही जन्म दिया है, तब मनुष्योंके भिन्न-भिन्न गोत्र कैसे हुए? इस जगतमें मनुष्योंके बहुत-से गोत्र सुने जाते हैं ।। १० ।।
ऋषि-मुनि जहाँ-तहाँ जन्म ग्रहण करके अर्थात् जो शुद्ध योनिमें और दूसरे जो विपरीत योनिमें उत्पन्न हुए हैं, वे सब ब्राह्मणत्वको कैसे प्राप्त हुए? ।। ११ ।।
पराशरजीने कहा--राजन्! तपस्यासे जिनके अन्तःकरण शुद्ध हो गये हैं, उन महात्मा पुरुषोंके द्वारा जिस संतानकी उत्पत्ति होती है, अथवा वे स्वेच्छासे जहाँ-कहीं भी जन्म ग्रहण करते हैं, वह क्षेत्रकी दृष्टिसे निकृष्ट होनेपर भी उसे उत्कृष्ट ही मानना चाहिये ।। १२ ।।
नरेश्वर! मुनियोंने जहाँ-तहाँ कितने ही पुत्र उत्पन्न करके उन सबको अपने ही तपोबलसे ऋषि बना दिया ।। १३ ।।
विदेहराज! मेरे पितामह वसिष्ठजी, काश्यप-गोत्रीय ऋष्यशुड्र, वेद, ताण्ड्य, कृप, कक्षीवानू, कमठ आदि, यवक्रीत, वक्ताओंमें श्रेष्ठ द्रोण, आयु, मतंग, दत्त, ट्रपद तथा मत्स्य >-ये सब तपस्याका आश्रय लेनेसे ही अपनी-अपनी प्रकृतिको प्राप्त हुए थे। इन्द्रियसंयम और तपसे ही वे वेदोंके विद्वान् तथा समाजमें प्रतिष्ठित हुए थे ।।
पृथ्वीनाथ! पहले अंगिरा, कश्यप, वसिष्ठ और भृगु--ये ही चार मूल गोत्र प्रकट हुए थे। अन्य गोत्र कर्मके अनुसार पीछे उत्पन्न हुए हैं। वे गोत्र और उनके नाम उन गोत्र-प्रवर्तक महर्षियोंकी तपस्यासे ही साधु-समाजमें सुविख्यात एवं सम्मानित हुए हैं || १७-१८ ।।
जनकने पूछा--भगवन्! आप मुझे सब वर्णोके विशेष धर्म बताइये, फिर सामान्य धर्मोका भी वर्णन कीजिये; क्योंकि आप सब विषयोंका प्रतिपादन करनेमें कुशल हैं ।। १९ ।।
पराशरजीने कहा--राजन! दान लेना, यज्ञ कराना तथा विद्या पढ़ाना--ये ब्राह्मणोंके विशेष धर्म हैं (जो उनकी जीविकाके साधन हैं)। प्रजाकी रक्षा करना क्षत्रियके लिये श्रेष्ठ धर्म है ।। २० ।।
नरेश्वर! कृषि, पशुपालन और व्यापार--ये वैश्योंके कर्म हैं तथा द्विजातियोंकी सेवा शूद्रका धर्म है ।। २१ ।।
महाराज! ये वर्णोंके विशेष धर्म बताये गये हैं। तात! अब उनके साधारण धर्मोंका विस्तारपूर्वक वर्णन मुझसे सुनो ।। २२ ।।
क्रूरताका अभाव (दया), अहिंसा, अप्रमाद (सावधानी), देवता-पितर आदिको उनके भाग समर्पित करना अथवा दान देना, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्य, अक्रोध, अपनी ही पत्नीमें संतुष्ट रहना, पवित्रता रखना, कभी किसीके दोष न देखना, आत्मज्ञान तथा सहनशीलता--ये सभी वर्णोंके सामान्य धर्म हैं ।।
नरश्रेष्ठ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--ये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। उपर्युक्त धर्मोमें इन्हींका अधिकार है ।।
नरेश्वर! ये तीन वर्ण विपरीत कर्मोमें प्रवृत्त होनेपर पतित हो जाते हैं। सत्पुरुषोंका आश्रय ले अपने-अपने कर्मोमें लगे रहनेसे जैसे इनकी उन्नति होती है, वैसे ही विपरीत कर्मोके आचरणसे पतन भी हो जाता है ।। २६ ।।
यह निश्चय है कि शूद्र पतित नहीं होता तथा वह उपनयन आदि संस्कारका भी अधिकारी नहीं है। उसे वैदिक अग्निहोत्र आदि कर्मोके अनुष्ठानका भी अधिकार नहीं प्राप्त है; परंतु उपर्युक्त सामान्य धर्मोका उसके लिये निषेध भी नहीं किया गया है || २७ ।।
महाराज विदेहनरेश! वेद-शास्त्रोंके ज्ञानसे सम्पन्न द्विज शूद्रको प्रजापतिके तुल्य बताते हैं (क्योंकि वह परिचर्यद्वारा समस्त प्रजाका पालन करता है); परंतु नरेन्द्र! मैं तो उसे सम्पूर्ण जगतके प्रधान रक्षक भगवान् विष्णुके रूपमें देखता हूँ (क्योंकि पालन कर्म विष्णुका ही है और वह अपने उस कर्मद्वारा पालनकर्ता श्रीहरिकी आराधना करके उन्हींको प्राप्त होता है) || २८ ।।
हीनवर्णके मनुष्य (शूद्र) यदि अपना उद्धार करना चाहें तो सदाचारका पालन करते हुए आत्माको उन्नत बनानेवाली समस्त क्रियाओंका अनुष्ठान करें; परंतु वैदिक मन्त्रका उच्चारण न करें। ऐसा करनेसे वे दोषके भागी नहीं होते हैं || २९ ।।
इतर जातीय मनुष्य भी जैसे-जैसे सदाचारका आश्रय लेते हैं, वैसे-ही-वैसे सुख पाकर इहलोक और परलोकमें भी आनन्द भोगते हैं || ३० ।।
जनकने पूछा--महामुने! मनुष्यको उसके कर्म दूषित करते हैं या जाति? मेरे मनमें यह संदेह उत्पन्न हुआ है, आप इसका विवेचन कीजिये ।। ३१ ।।
पराशरजीने कहा--महाराज! इसमें संदेह नहीं कि कर्म और जाति दोनों ही दोषकारक होते हैं; परंतु इसमें जो विशेष बात है, उसे बताता हूँ, सुनो || ३२ ।।
जो जाति और कर्म--इन दोनोंसे श्रेष्ठ तथा पापकर्मका सेवन नहीं करता एवं जातिसे दूषित होकर भी जो पापकर्म नहीं करता है, वही पुरुष कहलाने योग्य है ।। ३३ ।।
जातिसे श्रेष्ठ पुरुष भी यदि निन्दित कर्म करता है तो वह कर्म उसे कलंकित कर देता है; इसलिये किसी भी दृष्टिसे बुरा कर्म करना अच्छा नहीं है ।।
जनकने पूछा-<द्विजश्रेष्ठ] इस लोकमें कौन-कौन-से ऐसे धर्मानुकूल कर्म हैं, जिनका अनुष्ठान करते समय कभी किसी भी प्राणीकी हिंसा नहीं होती? ।।
पराशरजीने कहा--महाराज! तुम जिन कर्मोंके विषयमें पूछ रहे हो, उन्हें बताता हूँ, मुझसे सुनो। जो कर्म हिंसासे रहित हैं, वे सदा मनुष्यकी रक्षा करते हैं ।।
जो लोग (संन्यासकी दीक्षा ले) अग्निहोत्रका त्याग करके उदासीनभावसे सब कुछ देखते रहते हैं और सब प्रकारकी चिन्ताओंसे रहित हो क्रमश: कल्याणकारी कर्मके पथपर आरूढ़ होकर नम्रता, विनय और इन्द्रियसंयम आदि गुणोंको अपनाते तथा तीक्ष्ण व्रतका पालन करते हैं, वे सब कर्मोंसे रहित हो अविनाशी पदको प्राप्त कर लेते हैं | ३७-३८ ।।
राजन! सभी वर्णोके लोग इस जीव-जगतमें अपने-अपने धर्मानुसार कर्मका भलीभाँति अनुष्ठान करके, सदा सत्य बोलकर तथा भयानक पापकर्मका सर्वथा परित्याग करके स्वर्गलोकमें जाते हैं। इस विषयमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये ।। ३९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सत्तानबेवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--नाना प्रकारके धर्म और कर्तव्योंका उपदेश”
राजन! संसारमें पिता, सखा, गुरुजन और स्त्रियाँ--ये कोई भी उसके नहीं होते, जो सर्वथा गुणहीन हैं; किंतु जो प्रभुके अनन्य भक्त, प्रियवादी, हितैषी और इन्द्रियविजयी हैं, वे ही उसके होते हैं अर्थात् उसका त्याग नहीं करते ।। १ ।।
पिता मनुष्योंके लिये सर्वश्रेष्ठ देवता है। कोई-कोई पिताको मातासे भी बढ़कर बताते हैं। श्रेष्ठ पुरुष ज्ञानके लाभको ही परम लाभ कहते हैं। जिन्होंने श्रोत्र आदि इन्द्रियों और शब्द आदि विषयोंपर विजय पा ली है, वे परमपदको प्राप्त होते हैं ।। २ ।।
क्षत्रियका पुत्र यदि समरांगणमें घायल होकर बाणोंकी चितापर दग्ध होता है तो वह देवदुर्लभ लोकोंमें जाता और वहाँ आनन्दपूर्वक स्वर्गीय-सुख भोगता है ।।
राजन! जो युद्धमें थका हुआ हो, भयभीत हो, जिसने हथियार नीचे डाल दिया हो, जो रोता हो, पीठ दिखाकर भाग रहा हो, जिसके पास युद्धका कोई भी सामान न रह गया हो, जो युद्धविषयक उद्यम छोड़ चुका हो, रोगी हो और प्राणोंकी भीख माँगता हो तथा जो अवस्थामें बालक या वृद्ध हो, ऐसे शत्रुका वध नहीं करना चाहिये ।। ४ ।।
किंतु जिसके पास युद्धका सामान हो, जो युद्धके लिये तैयार हो और अपने बराबरका हो, संग्रामभूमिमें उस क्षत्रियकुमारको राजा अवश्य जीतनेका प्रयत्न करे ।।
अपने समान या अपनी अपेक्षा बड़े वीरके हाथसे वध होना श्रेष्ठ है, ऐसा युद्ध-शास्त्रके ज्ञाताओंका निश्चय है। अपनेसे हीन, कातर तथा दीन पुरुषके हाथसे होनेवाली मृत्यु निन्दित है ।। ६ |।
नरेश्वर! पापी, पापाचारी और हीन मनुष्यके हाथसे जो वध होता है, वह पापरूप ही बताया गया है तथा वह नरकमें गिरानेवाला है, यही शास्त्रका निश्चय है || ७ ।।
राजन! मृत्युके वशमें पड़े हुए प्राणीको कोई बचा नहीं सकता और जिसकी आयु शेष है, उसे कोई मार भी नहीं सकता ।। ८ ।।
मनुष्यको चाहिये कि उसके प्रियजन यदि कोई हिंसात्मक कर्म उसके लिये करते हों तो वह उन सब कर्मोंको रोक दे। दूसरेकी आयुसे अपनी आयु बढ़ानेकी अर्थात् दूसरोंके प्राण लेकर अपने प्राण बचानेकी इच्छा न करे ।। ९ |।
तात! मरनेकी इच्छावाले समस्त गृहस्थोंके लिये तो वही मृत्यु सबसे उत्तम मानी गयी है, जो गंगादि पवित्र नदियोंके तटोंपर शुभकर्मोंका अनुष्ठान करते हुए प्राप्त हो ।। १० ।।
जब आयु समाप्त हो जाती है तभी देहधारी जीव पंचत्वको प्राप्त होता है। यह बिना कारणके भी हो जाता है और कभी विभिन्न कारणोंसे उपपादित होता है ।।
जो लोग देहको पाकर हठपूर्वक उसका परित्याग कर देते हैं, उनको पूर्ववत् ही यातनामय शरीरकी प्राप्ति होती है। ऐसे लोग (मोक्षके साधनरूप मनुष्यशरीरको पाकर भी आत्महत्याके कारण उस लाभसे वंचित हो) एक घरसे दूसरे घरमें जानेवाले मनुष्यके समान एक शरीरसे दूसरे शरीरको प्राप्त होते हैं || १२ ।।
इनकी उस अवस्थाके प्राप्त होनेमें आत्महत्यारूप पापके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं है। उन प्राणियोंको उस शरीरका मिलना उचित ही है, जो कि पंचभूतमय है ।। १३ ।।
यह शरीर नस, नाड़ी और हडिडियोंका समूह है। घृणित और अपवित्र मल-मूत्र आदिसे भरा हुआ है। पंचमहाभूतों, श्रोत्र आदि इन्द्रियों तथा गुणों (वासनामय विषयों) का समुदाय है ।। १४ ।।
अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि इस शरीरके अन्तमें अर्थात् बाह्मभागमें त्वचा (चमड़ा) मात्र है। यह सौन्दर्य आदि गुणोंसे भी रहित है। इसकी मृत्यु अनिवार्य है ।। १५ ।।
जब जीवात्मा इस देहका परित्याग कर देता है, तब यह देह निश्चेष्ट और चेतनाशून्य हो जाती है एवं इसके पाँच भूत अपनी-अपनी प्रकृतिके साथ मिल जाते हैं। फिर तो यह पृथ्वीमें निमग्न हो जाती है || १६ ।।
विदेहराज! यह शरीर जिस किसी स्थानमें मृत्युको प्राप्त हो जाता है; फिर प्रारब्धकर्मके योगसे भावित होकर जहाँ-कहीं भी जन्म ले लेता है। कर्मोका फलस्वरूप यह स्वभावसिद्ध पुनर्जन्म देखा गया है ।। १७ ।।
नरेश्वर! जैसे विशाल मेघ आकाशमें सब ओर भ्रमण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा प्रारब्ध-कर्मके फलसे कुछ कालतक घूमता रहता है, जन्म नहीं लेता है ।।
राजन! वही यहाँ फिर कोई आधार पाकर पुनः जन्म लेता है। मनसे आत्मा श्रेष्ठ है और इन्द्रियोंसे मन श्रेष्ठ है ।। १९ ।।
महाराज! संसारके विविध प्राणियोंमें चलने-फिरनेवाले जीव श्रेष्ठ माने गये हैं। इन जंगम प्राणियोंमें भी दो पैरवाले जीव (मनुष्य) श्रेष्ठ कहे गये हैं || २० ।।
मनुष्योंमें भी द्विज श्रेष्ठ कहे गये हैं। राजेन्द्र! द्विजोंमें बुद्धिमान् और बुद्धिमानोंमें भी आत्मज्ञानी श्रेष्ठ समझे जाते हैं। उनमें भी जो अहंकाररहित हैं, उन्हें सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।। २१ ।।
जन्मके साथ ही मृत्यु मनुष्योंके पीछे लगी रहती है। यह विद्वानोंका निश्चय है। समस्त प्रजा सत्त्व आदि गुणोंसे प्रेरित होकर विनाशशील कर्मोंका आचरण करती है ।। २२ ।।
राजन! जो सूर्यके उत्तरायण होनेपर उत्तम नक्षत्र और पवित्र मुहूर्तमें मृत्युको प्राप्त होता है, वह पुण्यात्मा है || २३ ।।
वह किसीको भी कष्ट न देकर प्रायश्षित्तके द्वारा अपने पापको नष्ट कर डालता है और अपनी शक्तिके अनुसार शुभकर्म करके स्वेच्छासे मृत्युको अंगीकार करता है || २४ ।।
किंतु विष खा लेनेसे, गलेमें फाँसी लगानेसे, आगमें जलनेसे, लुटेरोंके हाथसे तथा दाढ़वाले पशुओंके आघातसे जो वध होता है, वह अधम श्रेणीका माना जाता है || २५ ।।
पुण्यकर्म करनेवाले मनुष्य इस तरहके उपायोंसे प्राण नहीं देते तथा ऐसे-ऐसे दूसरे अधम उपायोंसे भी उनकी मृत्यु नहीं होती || २६ ।।
राजन! पुण्यात्मा पुरुषोंके प्राण ब्रह्मरन्ध्रको भेदकर निकलते हैं। जिनके पुण्यकर्म मध्यम श्रेणीके हैं, उनके प्राण मध्यद्वार (मुख, नेत्र आदि)-से बाहर होते हैं तथा जिन्होंने केवल पाप ही किया है, उनके प्राण नीचेके छिद्र (गुदा या शिक्नद्वार) से निकलते हैं || २७ ।।
राजन! पुरुषका एक ही शत्रु है, उसके समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है। वह है अज्ञान, जिससे आवृत और प्रेरित होकर मनुष्य अत्यन्त घोर और क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगता है || २८ ।।
राजकुमार! उस शत्रुको पराजित करनेमें वही समर्थ हो सकता है, जो वेदोक्त धर्मसम्पन्न वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करके प्रज्ञा (स्थिरबुद्धि)-को प्राप्त कर लेता है, क्योंकि अज्ञानमय शत्रुको जीतना महान् प्रयत्नसाध्य कर्म है। वह प्रज्ञारूपी बाणकी चोट खाकर ही नष्ट होता है | २९ ।।
द्विजको पहले ब्रह्मचर्य-आश्रममें रहकर तपस्या-पूर्वक वेदोंका अध्ययन करना चाहिये; फिर गृहस्थाश्रममें प्रवेश करके अपनी शक्तिके अनुसार इन्द्रियसंयमपूर्वक पंच महायज्ञोंका अनुष्ठान करना चाहिये। तत्पश्चात् अपने पुत्रको घर-बारकी रक्षामें नियुक्त करके कल्याणमार्ममें स्थित हो केवल धर्मपालनकी इच्छा रखकर उसे वनको प्रस्थान करना चाहिये ।। ३० ।॥।
तात! उपभोगके साधनोंसे वंचित होनेपर भी मनुष्य अपने-आपको हीन न समझे। चाण्डालकी योनिमें भी यदि मनुष्य-जन्म प्राप्त हो तो वह मानवेतर प्राणियोंकी अपेक्षा सर्वथा उत्तम है || ३१ ।।
क्योंकि पृथ्वीनाथ! मनुष्यकी योनि ही वह अद्वितीय योनि है, जिसे पाकर शुभकर्मोंके अनुष्ठानसे आत्माका उद्धार किया जा सकता है || ३२ ।।
जो मानव अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर भी दूसरोंसे द्वेष करता है और धर्मका अनादर करता है तथा मनसे कामनाओंमें आसक्त हो जाता है, वह महान् लाभसे वंचित होता है ।। ३४ ।।
तात! जो समस्त प्राणियोंको दीपकके समान स्नेहसे संवर्धन करनेयोग्य मानता है और उन्हें स्नेहभरी दृष्टिसे देखता है एवं जो समस्त विषयोंकी ओर कभी दृष्टिपात नहीं करता, वह परलोकमें सम्मानित होता है ।।
जो सब लोगोंको सान्त्वना प्रदान करता, भूखोंको भोजन देता और प्रिय वचन बोलकर सबका सत्कार करता है, वह सुख-दुःखमें सम रहकर (इहलोक और) परलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। ३६ ।।
राजन्! सरस्वती नदी, नैमिषारणप्यक्षेत्र, पुष्करक्षेत्र तथा और भी जो पृथ्वीके पावन तीर्थ हैं, उनमें जाकर दान देना, भोगोंका त्याग करना, शान्तभावसे रहना तथा तपस्या और तीर्थंके जलसे तन-मनको पवित्र करना चाहिये ।। ३७ ।।
घरोंमें जिनके प्राण निकल रहे हों, उन्हें शीघ्र ही घरसे बाहर ले जाना उत्तम है। मृत्युके पश्चात् उन्हें विमानपर सुलाकर श्मशानमें पहुँचाना तथा पवित्रतापूर्वक शास्त्रोक्तविधिसे उनका दाह-संस्कार करना आवश्यक कर्तव्य है ।। ३८ ।।
मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार इष्टि-पुष्टि (शान्तिकर्म),, यजन, याजन, दान, पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान तथा श्राद्ध आदि जो भी कुछ उत्तम कार्य करता है, वह सब अपने ही लिये करता है ।। ३९ ।।
नरेश्वर! धर्मशास्त्र और छहों अंगोंसहित वेद पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषके कल्याणके लिये ही कर्तव्यका विधान करते हैं ।। ४० ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! प्राचीनकालमें महात्मा पराशर मुनिने विदेहराज जनकके कल्याणके लिये यह सब उपदेश दिया था ।। ४१ ॥।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अट्ठानबेवें अध्याय के श्लोक 1-47 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीताका उपसंहार--राजा जनकके विविध प्रश्नोंका उत्तर”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तदनन्तर मिथिलानरेश जनकने उन धर्मके विषयमें उत्तम निश्चय रखनेवाले महात्मा पराशर मुनिसे इस प्रकार पूछा ।। १ ।।
जनक बोले--ब्रह्मन! श्रेयका साधन क्या है? उत्तम गति कौन-सी है? कौन-सा कर्म नष्ट नहीं होता तथा कहाँ गया हुआ जीव फिर इस संसारमें नहीं लौटता है? महामते! मेरे इन प्रश्नोंका समाधान कीजिये ।। २ ।।
पराशरजीने कहा--राजन्! आसक्तिका अभाव ही श्रेयका मूल कारण है। ज्ञान ही सबसे उत्तम गति है। स्वयं किया हुआ तप तथा सुपात्रको दिया हुआ दान--ये कभी नष्ट नहीं होते || ३ ।।
जो मनुष्य जब अधर्ममय बन्धनका उच्छेद करके धर्ममें अनुरक्त हो जाता और सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदान कर देता है, उसे उसी समय उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है ।। ४ ।।
जो एक हजार गौ तथा एक सौ घोड़े दान करता है तथा दूसरा जो सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देता है, वह सदा गौ और अभ्वदान करनेवालेसे बढ़ा-चढ़ा रहता है ।।
बुद्धिमान् पुरुष विषयोंके बीचमें रहता हुआ भी (असंग होनेके कारण) उनमें नहीं रहनेके बराबर ही है; किंतु जिसकी बुद्धि दूषित होती है, वह विषयोंके निकट न होनेपर भी सदा उन्हींमें रहता है ।। ६ ।।
जैसे पानी कमलके पत्तेको लिपायमान नहीं कर सकता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुषोंको अधर्म लिप्त नहीं कर सकता; परंतु जैसे लाह काठमें चिपक जाती है, उसी प्रकार पाप अज्ञानी मनुष्यमें अधिक लिप्त हो जाता है ।। ७ ।।
अधर्म फल प्रदानके अवसरकी प्रतीक्षा करनेवाला है, अत: वह कर्ताका पीछा नहीं छोड़ता। समय आनेपर उस कर्ताको उस पापका फल अवश्य भोगना पड़ता है ।। ८ ।।
पवित्र अन्तःकरणवाले आत्मज्ञानी पुरुष कर्मोके शुभाशुभ फलोंसे कभी विचलित नहीं होते हैं। जो प्रमादवश ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियोंद्रारा होनेवाले पापोंपर विचार नहीं करता तथा शुभ एवं अशुभमें आसक्त रहता है, उसे महान् भयकी प्राप्ति होती है ।। ९ ।।
परंतु जो वीतराग होकर क्रोधको जीत लेता और नित्य सदाचारका पालन करता है, वह विषयोंमें वर्तमान रहकर भी पापकर्मसे सम्बन्ध नहीं जोड़ता है ।। १० ।।
जैसे नदीमें बँधा हुआ मजबूत बाँध टूटता नहीं है और उसके कारण वहाँ जलका स्रोत बढ़ता रहता है, उसी प्रकार प्राचीन मर्यादापर बँधा हुआ धर्मरूपी बाँध नष्ट नहीं होता है तथा उससे आसक्तिरहित संचित तपकी वृद्धि होने लगती है ।। ११ ।।
नृपश्रेष्ठ) जिस प्रकार शुद्ध सूर्यकान्तमणि सूर्यके तेजको ग्रहण कर लेती है, उसी प्रकार योगका साधक समाधिके द्वारा ब्रह्मके स्वरूपको ग्रहण करता है ।। १२ ।।
जैसे तिलका तेल भिन्न-भिन्न प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंसे वासित होकर अत्यन्त मनोरम गन्ध ग्रहण करता है, वैसे ही पृथ्वीपर शुद्धचित्त पुरुषोंका स्वभाव सत्पुरुषोंके संगके अनुसार सत्त्वगुणसम्पन्न हो जाता है ।। १३ ।।
जिस समय मनुष्य सर्वोत्तम पद पानेके लिये उत्सुक हो जाता है, उस समय उसकी बुद्धि विषयोंसे विलग हो जाती है तथा वह स्त्री, सम्पत्ति, पद, वाहन और नाना प्रकारकी जो क्रियाएँ हैं, उनका भी परित्याग कर देता है ।। १४ ।।
परंतु जिसकी बुद्धि विषयोंमें आसक्त हो जाती है, वह मनुष्य किसी तरह अपने हितकी बात नहीं समझता। राजन! जैसे मछली काँटेमें गुँथे हुए मांसपर आकृष्ट होती है और दुःख पाती है, उसी तरह वह सब प्रकारकी वासनाओंसे वासित चित्तके द्वारा विषयोंकी ओर आकृष्ट होता है और दुःख भोगता है ।। १५ ।।
जैसे शरीरके अंग-प्रत्यंग एक-दूसरेके आश्रित हैं, उसी प्रकार यह मर्त्यलोक--स्त्री-पुत्र और पशु आदिका समुदाय आपसमें एक-दूसरेपर अवलम्बित है। यह संसार केलेके भीतरी भागके समान निस्सार है। जैसे नौका पानीमें डूब जाती है, उसी प्रकार यह सब कुछ कालके प्रवाहमें निमग्न हो जाता है || १६ ।।
पुरुषके लिये धर्म करनेका कोई विशेष समय निश्चित नहीं है; क्योंकि मृत्यु किसीकी बाट नहीं जोहती। जब मनुष्य सदा मौतके मुखमें ही है, तब नित्य-निरन्तर धर्मका आचरण करते रहना ही उसके लिये शोभाकी बात है ।। १७ ।।
जैसे अन्धा प्रतिदिनके अभ्याससे ही सावधानीके साथ बाहरसे अपने घरमें आ जाता है, उसी प्रकार विवेकी मनुष्य योगयुक्त चित्तके द्वारा उस परम गतिको प्राप्त कर लेता है ।। १८ ।।
जन्ममें मृत्युकी स्थिति बतायी गयी है और मृत्युमें जन्म निहित है। जो मोक्ष-धर्मको नहीं जानता, वह अज्ञानी मनुष्य संसारमें आबद्ध होकर जन्म-मृत्युके चक्रमें घूमता रहता है; किंतु ज्ञानमार्गसे चलनेवालेको इहलोक और परलोकमें भी सुख मिलता है ।। १९ ।।
कर्मोका विस्तार क्लेशयुक्त होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्म-विस्तार परार्थ हैं अर्थात् मन और इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये हैं; परंतु त्याग अपने लिये हितकर माना गया है || २० ।।
जैसे (पानीसे निकालते समय) कमलकी नालमें लगी हुई कीचड़ पानीसे तुरंत धुल जाती है, उसी प्रकार त्यागी पुरुषका आत्मा मनके द्वारा संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। २१ ।।
मन आत्माको योगकी ओर ले जाता है। योगी इस मनको योगयुक्त (आत्मामें लीन) करता है। इस प्रकार जब वह योगमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है, तब वह उस परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है || २२ ।।
जो परके लिये अर्थात् इन बाहा इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये विषयभोगोंमें प्रवृत्त होकर इसे अपना मुख्य कार्य समझता है, वह अपने वास्तविक कर्तव्यसे च्युत हो जाता है।।
इहलोकमें बुद्धिमान् हो या मूढ़, उसका आत्मा अपने किये हुए कर्मोंके अनुसार ही नरकको, पशु-पक्षी आदि योनियोंको, स्वर्गको और परम गतिको प्राप्त होता है ।। २४ ।।
जैसे पके हुए मिट्टीके बर्तनमें रक्खा हुआ जल आदि तरल पदार्थ न तो चूता है और न नष्ट ही होता है, उसी प्रकार तपस्यासे तपा हुआ सूक्ष्म शरीर ब्रह्मलोकतकके विषयोंका अनुभव करता है || २५ ।।
जो मनुष्य शब्द, स्पर्श आदि विषयोंका उपभोग करता है, वह निश्चय ही ब्रह्मानन्दके अनुभवसे वंचित रह जायगा, परंतु जो विषयोंका परित्याग करता है, वह अवश्य ही ब्रह्मानन्दके अनुभवमें समर्थ हो सकता है || २६ ।।
जैसे जन्मका अंधा रास्तेको नहीं देख पाता, वैसे ही शिक्षोदरपरायण एवं अज्ञानसे आवृत जीव मायारूप कुहासासे आच्छन्न होनेके कारण मोक्षमार्गको नहीं समझ पाता है || २७ |।
जैसे वैश्य समुद्रमार्गसे व्यापार करने जाकर अपने मूलधनके अनुसार द्रव्य कमाकर लाता है, उसी प्रकार संसारसागरमें व्यापार करनेवाला जीव अपने कर्म एवं विज्ञानके अनुरूप गति पाता है ।। २८ ।।
दिन और रात्रिमय संसारमें बुढ़ापाका रूप धारण करके घूमती हुई मृत्यु समस्त प्राणियोंको उसी प्रकार खाती रहती है, जैसे सर्प हवा पीया करता है || २९ ।।
जीव जगत्में जन्म लेकर अपने पूर्वकृत कर्मोका ही फल भोगता है; पूर्वजन्ममें कुछ किये बिना यहाँ कोई भी किसी इष्ट या अनिष्ट फलको नहीं पाता है || ३० ।।
मनुष्य सोता हो, बैठा हो, चलता हो या विषय-भोगमें लगा हो, उसके शुभाशुभ कर्म सदा उसे प्राप्त होते रहते हैं || ३१ ।।
जैसे समुद्रके परलेपार पहुँचकर पुनः कोई उसमें तैरनेका विचार नहीं करता, उसी प्रकार संसार-सागरसे पार हुए मनुष्यका फिर उसमें पड़ना अर्थात् वापस आना दुर्लभ दिखायी देता है ।। ३२ ।।
जैसे गम्भीर जलमें पड़ी हुई नौका नाविकद्वारा रस्सीसे खींची जानेपर उसके मनोभावके अधीन होकर चलती है, उसी प्रकार यह जीव इस शरीररूपी नौकाको अपने मनके अभिप्रायानुसार चलाना चाहता है ।। ३३ ।।
जैसे बहुत-सी नदियाँ सब ओरसे आकर समुद्रमें मिल जाती हैं, उसी प्रकार योगसे वशमें किया हुआ मन सदाके लिये मूल प्रकृतिमें लीन हो जाता है || ३४ ।।
जिनका मन नाना प्रकारके स्नेह-बन्धनोंमें जकड़ा हुआ है, वे प्रकृतिमें स्थित हुए जीव जलमें ढह जानेवाले बालूके मकानकी भाँति महान् दुःखसे नष्टप्राय हो जाते हैं || ३५ ।।
शरीर ही जिसका घर है, जो बाहर-भीतरकी पवित्रताको ही तीर्थ मानता है तथा बुद्धिपूर्वक कल्याणके मार्गपर चलता है, उस देहधारी जीवको इहलोक और परलोकमें भी सुख मिलता है ।। ३६ |।
क्रियाओंका विस्तार क्लेशदायक होता है और संक्षेप सुखदायक है। सभी कर्मविस्तार परार्थरूप अर्थात् मन और इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये होते हैं, परंतु त्याग अपने लिये हितकर माना गया है || ३७ ।।
कोई-न-कोई संकल्प (मनोरथ) लेकर ही लोग मित्र बनते हैं, कुटम्बी जन भी किसी हेतुसे ही नाता रखते हैं, पत्नी, पुत्र और सेवक सभी अपने-अपने स्वार्थका ही अनुसरण करते हैं ।। ३८ ।।
माता और पिता भी परलोक-साधनमें किसीकी कुछ सहायता नहीं कर सकते। परलोकके पथमें तो अपना किया हुआ दान अर्थात् त्याग ही राहखर्चका काम देता है। प्रत्येक जीव अपने कर्मका ही फल भोगता है ।। ३९ ।।
माता, पिता, पुत्र, भ्राता, भार्या और मित्रगण--ये सब सुवर्णके सिक्कोंके स्थानपर रखी हुई लाखकी मुद्राके समान देखे जाते हैं || ४० ।।
पूर्वजन्मके किये हुए सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्म जीवका अनुसरण करते हैं। इस प्रकार प्राप्त हुई परिस्थितिको अपने कर्मोंका फल जानकर जिसका मन अन्तर्मुख हो गया है, वह अपनी बुद्धिको वैसी शुभ प्रेरणा देता है जिससे भविष्यमें दुःख न भोगना पड़े ।।
जो दृढ़ निश्चय एवं पूर्ण उद्योगका सहारा ले तदनुकूल सहायकोंका संग्रह करता है, उसका कोई भी कार्य कभी भी व्यर्थ नहीं होता ।। ४२ ।।
जिसके मनमें दुविधा नहीं होती, जो उद्योगी, शूरवीर, धीर और विद्वान् होता है, उसे सम्पत्ति उसी तरह कभी नहीं छोड़ती, जैसे किरणें सूर्यको ।। ४३ ।।
जिसका हृदय उदार एवं प्रशस्त है, जो आस्तिक भाव, निश्चय एवं आवश्यक उपायसे गर्वहीनताके साथ उत्तम बुद्धिपूर्वक कार्य आरम्भ करता है, उसका वह कार्य कभी असफल नहीं होता है ।। ४४ ।
सभी जीव, पूर्वजन्ममें उन्होंने जो कुछ किया है, उन अपने शुभाशुभ कर्मोके नियत फलोंको गर्भमें प्रवेश करनेके समयसे ही क्रमश: पाने और भोगने लगते हैं। जैसे वायु आरेसे चीरकर बनाये गये लकड़ीके चूरेको उड़ा देती है, उसी प्रकार कभी टाली न जा सकनेवाली मृत्यु विनाशकारी कालकी सहायतासे मनुष्यका अन्त कर देती है || ४५
सब मनुष्य अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मके अनुसार ही सुन्दर या असुन्दर रूप, अपनेसे होनेवाले योग्य-अयोग्य पुत्र-पौत्र आदिका विस्तार, उत्तम या अधम कुलमें जन्म तथा द्रव्य-समृद्धिका संचय आदि पाते हैं || ४६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! ज्ञानी महात्मा पराशर मुनिके मुखसे इस यथार्थ उपदेशको सुनकर धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ राजा जनक बहुत प्रसन्न हुए || ४७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पपाशरगीताविषयक दो सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ निन्यानबे अध्याय के श्लोक 1-47 का हिन्दी अनुवाद)
“हंसगीता-हंसरूपधारी ब्रह्माका साध्यगणोंको उपदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! संसारमें बहुत-से विद्वान् सत्य, इन्द्रिय-संयम, क्षमा और प्रज्ञा (उत्तम बुद्धि)-की प्रशंसा करते हैं। इस विषयमें आपका कैसा मत है? ।। १
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठटिर! इस विषयमें साध्यगणोंका हंसके साथ जो संवाद हुआ था, वही प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें सुना रहा हूँ || २ ।।
एक समय नित्य अजन्मा प्रजापति सुवर्णमय हंसका रूप धारण करके तीनों लोकोंमें विचर रहे थे। घूमते-घामते वे साध्यगणोंके पास जा पहुँचे ।। ३ ।।
उस समय साध्योंने कहा--हंस! हमलोग साध्य देवता हैं और आपसे मोक्षधर्मके विषयमें प्रश्न करना चाहते हैं; क्योंकि आप मोक्ष-तत्त्वके ज्ञाता हैं, यह बात सर्वत्र प्रसिद्ध है ।। ४ ।।
महात्मन्! हमने सुना है कि आप पण्डित और धीर वक्ता हैं। पतत्रिन! आपकी उत्तम वाणीका सर्वत्र प्रचार है। पक्षिप्रवर! आपके मतमें सर्वश्रेष्ठ वस्तु क्या है? आपका मन किसमें रमता है? ।। ५ ।।
पक्षिराज! खगश्रेष्ठ) समस्त कार्योमेंसे जिस एक कार्यको आप सबसे उत्तम समझते हों तथा जिसके करनेसे जीवको सब प्रकारके बन्धनोंसे शीघ्र छुटकारा मिल सके, उसीका हमें उपदेश कीजिये || ६ ।।
हंसने कहा--अमृतभोजी देवताओ! मैं तो सुनता हूँ कि तप, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण और मनोनिग्रह आदि कार्य ही सबसे उत्तम हैं। हदयकी सारी गाँठें खोलकर प्रिय और अप्रियको अपने वशमें करे अर्थात् उनके लिये हर्ष एवं विषाद न करे || ७ ।।
किसीके मर्ममें आघात न पहुँचाये। दूसरोंसे निछ्ठर वचन न बोले। किसी नीच मनुष्यसे अध्यात्मशास्त्रका उपदेश न ग्रहण करे तथा जिसे सुनकर दूसरोंको उद्वेग हो, ऐसी नरकमें डालनेवाली अमंगलमयी बात भी मुँहसे न निकाले ।। ८ ।।
वचनरूपी बाण जब मुहसे निकल पड़ते हैं, तब उनके द्वारा बींधा गया मनुष्य रात-दिन शोकमें डूबा रहता है; क्योंकि वे दूसरोंके मर्मपर आघात पहुँचाते हैं, इसलिये विद्दान् पुरुषको किसी दूसरे मनुष्यपर वाग्बाणका प्रयोग नहीं करना चाहिये ।। ९ ।।
दूसरा कोई भी यदि इस विद्वान् पुरुषको कटठु-वचनरूपी बाणोंसे बहुत अधिक चोट पहुँचाये तो भी उसे शान्त ही रहना चाहिये। जो दूसरोंके क्रोध करनेपर भी स्वयं बदलेमें प्रसन्न ही रहता है, वह उसके पुण्यको ग्रहण कर लेता है || १० ।।
जो जगत्में निन्दा करानेवाले और आवेशमें डालनेके कारण अप्रिय प्रतीत होनेवाले प्रज्वलित क्रोधको रोक लेता है, चित्तमें कोई विकार या दोष नहीं आने देता, प्रसन्न रहता और दूसरोंके दोष नहीं देखता है, वह पुरुष अपने प्रति शत्रुभाव रखनेवाले लोगोंके पुण्य ले लेता है ।।
मुझे कोई गाली दे तो भी बदलेमें कुछ नहीं कहता हूँ। कोई मार दे तो उसे सदा क्षमा ही करता हूँ; क्योंकि श्रेष्ठ जन क्षमा, सत्य, सरलता और दयाको ही उत्तम बताते हैं ।। १२ ।।
वेदाध्ययनका सार है सत्यभाषण, सत्यभाषणका सार है इन्द्रियसंयम और इन्द्रियसंयमका फल है मोक्ष। यही सम्पूर्ण शास्त्रोंका उपदेश है ।। १३ ।।
जो वाणीका वेग, मन और क्रोधका वेग, तृष्णाका वेग तथा पेट और जननेन्द्रियका वेग --इन सब प्रचण्ड वेगोंको सह लेता है, उसीको मैं ब्रह्मवेत्ता और मुनि मानता हूँ ।।
क्रोधी मनुष्योंसे क्रोध न करनेवाला मनुष्य श्रेष्ठ है। असहनशीलसे सहनशील पुरुष बड़ा है। मनुष्येतर प्राणियोंसे मनुष्य ही बढ़कर है तथा अज्ञानीसे ज्ञानवान् ही श्रेष्ठ है ।। १५ ||
जो दूसरेके द्वारा गाली दी जानेपर भी बदलेमें उसे गाली नहीं देता, उस क्षमाशील मनुष्यका दबा हुआ क्रोध ही उस गाली देनेवालेको भस्म कर देता है और उसके पुण्यको भी ले लेता है | १६ ।।
जो दूसरोंके द्वारा अपने लिये कड़वी बात कही जानेपर भी उसके प्रति कठोर या प्रिय कुछ भी नहीं कहता तथा किसीके द्वारा चोट खाकर भी धैर्यके कारण बदलेमें न तो मारनेवालेको मारता है और न उसकी बुराई ही चाहता है, उस महात्मासे मिलनेके लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं ।। १७ ।।
पाप करनेवाला अपराधी अवस्थामें अपनेसे बड़ा हो या बराबर, उसके द्वारा अपमानित होकर, मार खाकर और गाली सुनकर भी उसे क्षमा ही कर देना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष परम सिद्धिको प्राप्त होगा || १८ ।।
यद्यपि मैं सब प्रकारसे परिपूर्ण हूँ (मुझे कुछ जानना या पाना शेष नहीं है) तो भी मैं श्रेष्ठ पुरुषोंकी उपासना (सत्संग) करता रहता हूँ। मुझपर न तृष्णाका वश चलता है न रोषका। मैं कुछ पानेके लोभसे धर्मका उल्लंघन नहीं करता और न विषयोंकी प्राप्तिके लिये ही कहीं आता-जाता हूँ ।। १९ ।।
कोई मुझे शाप दे दे तो भी मैं बदलेमें उसे शाप नहीं देता। इन्द्रियसंयमको ही मोक्षका द्वार मानता हूँ। इस समय तुमलोगोंको एक बहुत गुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो। मनुष्ययोनिसे बढ़कर कोई उत्तम योनि नहीं है || २० ।।
जिस प्रकार चन्द्रमा बादलोंके ओटसे निकलनेपर अपनी प्रभासे प्रकाशित हो उठता है, उसी प्रकार पापोंसे मुक्त हुआ निर्मल अन्त:ःकरणवाला धीर पुरुष धैर्यपूर्वक कालकी प्रतीक्षा करता हुआ सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।। २१ ।।
जो अपने मनको वशमें रखनेवाला विद्वान् पुरुष ऊँचे उठानेवाले खम्भेकी भाँति उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ सबके लिये आदरके योग्य हो जाता है तथा जिसके प्रति सब लोग प्रसन्नतापूर्वक मधुर वचन बोलते हैं, वह मनुष्य देवभावको प्राप्त हो जाता है | २२ ।।
किसीसे ईर्ष्या रखनेवाले मनुष्य जिस तरह उसके दोषोंका वर्णन करना चाहते हैं, उस प्रकार उसके कल्याणमय गुणोंका बखान करना नहीं चाहते हैं || २३ ।।
जिसकी वाणी और मन सुरक्षित होकर सदा सब प्रकारसे परमात्मामें लगे रहते हैं, वह वेदाध्ययन, तप और त्याग--इन सबके फलको पा लेता है ।। २४ ।।
अतः समझदार मनुष्यको चाहिये कि वह कट॒ुवचन कहने या अपमान करनेवाले अज्ञानियोंको उनके उक्त दोष बताकर समझानेका प्रयत्न न करे। उसके सामने दूसरेको बढ़ावा न दे तथा उसपर आशक्षेप करके उसके द्वारा अपनी हिंसा न कराये ।। २५ ।।
विद्वान्को चाहिये कि वह अपमान पाकर अमृत पीनेकी भाँति संतुष्ट हो; क्योंकि अपमानित पुरुष तो सुखसे सोता है, किंतु अपमान करनेवालेका नाश हो जाता है ।। २६ ||
क्रोधी मनुष्य जो यज्ञ करता है, दान देता है, तप करता है अथवा जो हवन करता है, उसके उन सब कर्मोके फलको यमराज हर लेते हैं। क्रोध करनेवालेका वह किया हुआ सारा परिश्रम व्यर्थ जाता है ।। २७ ।।
देवेश्वरो! जिस पुरुषके उपस्थ, उदर, दोनों हाथ और वाणी--ये चारों द्वार सुरक्षित होते हैं, वही धर्मज्ञ है ।। २८ ।।
जो सत्य, इन्द्रिय-संयम, सरलता, दया, धैर्य और क्षमाका अधिक सेवन करता है, सदा स्वाध्यायमें लगा रहता है, दूसरेकी वस्तु नहीं लेना चाहता तथा एकान्तमें निवास करता है, वह ऊर्ध्वगतिको प्राप्त होता है ।। २९ ।।
जैसे बछड़ा अपनी माताके चारों स्तनोंका पान करता है, उसी प्रकार मनुष्यको उपर्युक्त सभी सदगुणोंका सेवन करना चाहिये। मैंने अबतक सत्यसे बढ़कर परम पावन वस्तु कहीं किसीको नहीं समझा है ।। ३० ।।
मैं चारों ओर घूमकर मनुष्यों और देवताओंसे कहा करता हूँ कि जैसे जहाज समुद्रसे पार होनेका साधन है, उसी प्रकार सत्य ही स्वर्गलोकमें पहुँचनेकी सीढ़ी है ।। ३१ ।।
पुरुष जैसे लोगोंके साथ रहता है, जैसे मनुष्योंका सेवन करता है और जैसा होना चाहता है, वैसा ही होता है || ३२ ।।
जैसे वस्त्र जिस रंगमें रँगा जाय, वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार यदि कोई सज्जन, असज्जन, तपस्वी अथवा चोरका सेवन करता है तो वह उन्हीं-जैसा हो जाता है अर्थात् उसपर उन्हींका रंग चढ़ जाता है ।। ३३ ।।
देवतालोग सदा सत्पुरुषोंका संग--उन्हींके साथ वार्तालाप करते हैं; इसीलिये वे मनुष्योंके क्षणभंगुर भोगोंकी ओर देखने भी नहीं जाते। जो विभिन्न विषयोंके नश्वर स्वभावको ठीक-ठीक जानता है, उसकी समानता न चन्द्रमा कर सकते हैं न वायु || ३४ ।
हृदयगुफामें रहनेवाला अन्तर्यामी आत्मा जब दोषभावसे रहित हो जाता है, उस अवस्थामें उसका साक्षात्कार करनेवाला पुरुष सन्मार्गगामी समझा जाता है। उसकी इस स्थितिसे ही देवता प्रसन्न होते हैं || ३५ ।।
किंतु जो सदा पेट पालने और उपस्थ-इन्द्रियोंके भोग भोगनेमें ही लगे रहते हैं तथा जो चोरी करने एवं सदा कठोर वचन बोलनेवाले हैं, वे यदि प्रायश्चित्त आदिके द्वारा उक्त कर्मोके दोषसे छूट जायाँ तो भी देवतालोग उन्हें पहचानकर दूरसे ही त्याग देते हैं || ३६ ।।
सत्त्वमुणसे रहित और सब कुछ भक्षण करनेवाले पापाचारी मनुष्य देवताओं को संतुष्ट नहीं कर सकते। जो मनुष्य नियमपूर्वक सत्य बोलनेवाले, कृतज्ञ और धर्मपरायण हैं, उन्हींके साथ देवता स्नेह-सम्बन्ध स्थापित करते हैं ।। ३७ ।।
व्यर्थ बोलनेकी अपेक्षा मौन रहना अच्छा बताया गया है, (यह वाणीकी प्रथम विशेषता है) सत्य बोलना वाणीकी दूसरी विशेषता है, प्रिय बोलना वाणीकी तीसरी विशेषता है। धर्मसम्मत बोलना यह वाणीकी चौथी विशेषता है (इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है)
साध्योंने पूछा--हंस! इस जगत्को किसने आवृत कर रक््खा है? किस कारणसे उसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता है? मनुष्य किस हेतुसे मित्रोंका त्याग करता है? और किस दोषसे वह स्वर्गमें नहीं जाने पाता? ।। ३९ ।।
हंसने कहा--देवताओ! अज्ञानने इस लोकको आवृत कर रक््खा है। आपसमें डाह होनेके कारण इसका स्वरूप प्रकाशित नहीं होता। मनुष्य लोभसे मित्रोंका त्याग करता है और आसक्तिदोषके कारण वह स्वर्गमें नहीं जाने पाता || ४० ।।
साध्योंने पूछा--हंस! ब्राह्मणोंमें कौन एकमात्र सुखका अनुभव करता है? वह कौन ऐसा एक मनुष्य है, जो बहुतोंके साथ रहकर भी चुप रहता है? वह कौन एक मनुष्य है, जो दुर्बल होनेपर भी बलवान् है तथा इनमें कौन ऐसा है, जो किसीके साथ कलह नहीं करता? ।। ४१ ।।
हंसने कहा--देवताओ! ब्राह्मणोंमें जो ज्ञानी है, एकमात्र वही परम सुखका अनुभव करता है। ज्ञानी ही बहुतोंके साथ रहकर भी मौन रहता है। एकमात्र ज्ञानी दुर्बल होनेपर भी बलवान् है और इनमें ज्ञानी ही किसीके साथ कलह नहीं करता है || ४२ ।।
साध्योंने पूछा--हंस! ब्राह्मणोंका देवत्व क्या है? उनमें साधुता क्या बतायी जाती है? उनके भीतर असाधुता और मनुष्यता क्या मानी गयी है? ।। ४३ ।।
हंसने कहा--साध्यगण! वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय ही ब्राह्मणोंका देवत्व है। उत्तम व्रतोंका पालन करना ही उनमें साधुता बतायी जाती है। दूसरोंकी निन्दा करना ही उनकी असाधुता है और मृत्युको प्राप्त होना ही उनकी मनुष्यता बतायी गयी है ।। ४४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठि!! ऐसा कहकर नित्य अविनाशी परमदेव भगवान् ब्रह्मा साध्य देवताओंके साथ ही ऊपर स्वर्गलोककी ओर चल दिये।
सर्वश्रेष्ठ अविनाशी देवाधिदेव ब्रह्माजीके द्वारा प्रकाशमें लाया हुआ यह पुण्यमय तत्त्वहज्ञान यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला है तथा यह स्वर्गलोककी प्राप्तिका निश्चित साधन है।
युधिष्ठिर! इस प्रकार साध्योंके साथ जो हंसका संवाद हुआ था, उसका मैंने तुमसे वर्णन किया। यह शरीर ही कर्मोकी योनि है और सद्भावको ही सत्य कहते हैं ।। ४५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें हंसगीताकी समाप्ति विषयक दो सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४७ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
तीन सौवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) तीन सौवाँ अध्याय के श्लोक 1-62 का हिन्दी अनुवाद)
“सांख्य और योगका अन्तर बतलाते हुए योगमार्गके स्वरूप साधन, फल और प्रभावका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--तात! धर्मज्ञ कुरुश्रेष्ठ! सांख्य और योगमें कया अन्तर है? यह बतानेकी कृपा करें; क्योंकि आपको सब बातोंका ज्ञान है ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युथधिष्छिर! सांख्यके विद्वान् सांख्यकी और योगके ज्ञाता द्विज योगकी प्रशंसा करते हैं। दोनों ही अपने-अपने पक्षकी उत्कृष्टता सूचित करनेके लिये उत्तमोत्तम युक्तियोंका प्रतिपादन करते हैं |। २ ।।
शत्रुसूदन! योगके मनीषी विद्वान् अपने मतकी श्रेष्ठता बताते हुए यह युक्ति उपस्थित करते हैं कि ईश्वरका अस्तित्व स्वीकार किये बिना किसीकी भी मुक्ति कैसे हो सकती है? (अतः मोक्षदाता ईश्वरकी सत्ता अवश्य स्वीकार करनी चाहिये) ।। ३ ।।
सांख्यमतके माननेवाले महाज्ञानी द्विज मोक्षका युक्तियुक्त कारण इस प्रकार बताते हैं --सब प्रकारकी गतियोंको जानकर जो विषयोंसे विरक्त हो जाता है, वही देहत्यागके अनन्तर मुक्त होता है। यह बात स्पष्टरूपसे सबकी समझमें आ सकती है। दूसरे किसी उपायसे मोक्ष मिलना असम्भव है। इस प्रकार वे सांख्यको ही मोक्षदर्शन कहते हैं || ४-५ ।।
अपने-अपने पक्षमें युक्तियुक्त कारण ग्राह्म होता है तथा सिद्धान्तके अनुकूल हितकारक वचन मानने योग्य समझा जाता है। शिष्ट पुरुषोंद्वारा सम्मानित तुम-जैसे लोगोंको श्रेष्ठ पुरुषोंका ही मत ग्रहण करना चाहिये ।।
योगके दविद्दान् प्रधानतया प्रत्यक्ष प्रमाणको ही माननेवाले होते हैं और सांख्यमतानुयायी शास्त्र-प्रमाणपर ही विश्वास करते हैं। तात युधिष्ठिर! ये दोनों ही मत मुझे तात्विक जान पड़ते हैं ।। ७ ।।
नरेश्वर! इन दोनों मतोंका श्रेष्ठ पुरुषोंने आदर किया है। इन दोनों ही मतोंको जानकर शास्त्रके अनुसार उनका आचरण किया जाय तो वे परमगतिकी प्राप्ति करा सकते हैं ।। ८।।
बाहर-भीतरकी पवित्रता, तप, प्राणियोंपर दया और व्रतोंका पालन आदि नियम दोनों मतोंमें समान रूपसे स्वीकार किये गये हैं। केवल उनके दर्शनोंमें अर्थात् पद्धतियोंमें समानता नहीं है ।। ९ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यदि इन दोनों मतोंमें उत्तम व्रत, बाहर-भीतरकी पवित्रता और दया समान है एवं दोनोंका परिणाम भी एक ही है तो इनके दर्शनमें समानता क्यों नहीं है, यह मुझे बताइये ।। १० ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! योगी पुरुष केवल योगबलसे राग, मोह, स्नेह, काम और क्रोध--इन पाँच दोषोंका मूलोच्छेद करके परमपदको प्राप्त कर लेते हैं || ११ ।।
जैसे बड़े-बड़े और मोटे मत्स्य जालको काटकर फिर जलमें समा जाते हैं, उसी प्रकार योगी अपने पापोंका नाश करके परमात्मपदको प्राप्त करते हैं ।। १२ ।।
राजन! इसी प्रकार जैसे बलवान् मृग जाल तोड़कर सारे बन्धनोंसे मुक्त हो निर्विघ्न मार्गपर चले जाते हैं, वैसे ही योगबलसे सम्पन्न योगी पुरुष लोभजनित सब बन्धनोंको तोड़कर परम निर्मल कल्याणमय मार्गको प्राप्त कर लेते हैं ।। १३-१४ ।।
नरेश्वर! जैसे निर्बल मृग तथा दूसरे पशु जालमें पड़कर निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार योगबलसे रहित मनुष्यकी भी दशा होती है ।। १५ ।।
कुन्तीनन्दन राजेन्द्र! जैसे निर्बल मत्स्य जालमें फँसकर वधको प्राप्त होते हैं, वही दशा योगबलसे सर्वथा रहित मनुष्योंकी भी होती है ।। १६ ।।
शत्रुदमन! जैसे निर्बल पक्षी सूक्ष्म जालमें फँसकर बन्धनको प्राप्त हो अपने प्राण खो देते हैं और बलवान् पक्षी जाल तोड़कर उसके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार कर्मजनित बन्धनोंसे बँधे हुए निर्बल योगी सर्वथा नष्ट हो जाते हैं, किंतु परंतप! योगबलसे सम्पन्न योगी सब प्रकारके बन्धनोंसे छुटकारा पा जाते हैं ।।
राजन! जैसे अल्प होनेके कारण दुर्बल अग्निपर बड़े-बड़े मोटे ईंधन रख देनेसे वह जलनेके बजाय बुझ जाती है, प्रभो! उसी प्रकार निर्बल योगी महान् योगके भारसे दबकर नष्ट हो जाता है ।। १९ |।
राजन्! वही आग जब हवाका सहारा पाकर प्रबल हो जाती है, तब सम्पूर्ण पृथ्वीको भी तत्काल भस्म कर सकती है || २० ।।
इसी तरह योगीका भी योगबल बढ़ जानेसे जब वह उद्दीप्त तेजसे सम्पन्न और महान् शक्तिशाली हो जाता है, तब वह जैसे प्रलयकालीन सूर्य समस्त जगत्को सुखा डालता है, वैसे ही समस्त रागादि दोषोंका नाश कर देता है ।। २१ ।।
राजन! जैसे दुर्बल मनुष्य पानीके वेगसे बह जाता है, उसी तरह दुर्बल योगी विवश होकर विषयोंकी ओर खिंच जाता है || २२ ।।
परंतु जलके उसी महान् स्रोतको जैसे गजराज रोक देता है अर्थात् उसमें नहीं बहता, उसी प्रकार योगका महान् बल पाकर योगी भी उन सभी बहुसंख्यक विषयोंको अवरुद्ध कर देता है अर्थात् उनके प्रवाहमें नहीं बहता ।। २३ ।।
कुन्तीनन्दन! योगशक्तिसम्पन्न पुरुष स्वतन्त्रता-पूर्वक प्रजापति, ऋषि, देवता और पञ्चमहाभूतोंमें प्रवेश कर जाते हैं। उनमें ऐसा करनेकी सामर्थ्य आ जाती है ।। २४ ।।
नरेश्वर! अमित तेजस्वी योगीपर क्रोधमें भरे हुए यमराज, अन्तक और भयंकर पराक्रम दिखानेवाली मृत्युका भी शासन नहीं चलता है || २५ ।।
भरतश्रेष्ठ) योगी योगबल पाकर अपने हजारों रूप बना सकता है और उन सबके द्वारा इस पृथ्वीपर विचर सकता है ।। २६ |।
तात! वह उन शरीरोंद्वारा विषयोंका सेवन और उग्र तपस्या भी करता है। तदनन्तर अपनी तेजोमयी किरणोंको समेट लेनेवाले सूर्यकी भाँति सभी रूपोंको अपनेमें लीन कर लेता है | २७ ।।
पृथ्वीनाथ! बलवान् योगी बन्धनोंको तोड़नेमें समर्थ होता है, उसमें अपनेको मुक्त करनेकी पूर्ण शक्ति आ जाती है, इसमें तनिक भी संशय नहीं है ।।
प्रजापालक नरेश! मैं दृष्टान्तके लिये योगसे प्राप्त होनेवाली कुछ सूक्ष्म शक्तियोंका पुनः तुमसे वर्णन करूँगा ।। २९ ।।
प्रभो! भरतश्रेष्ठू आत्मसमाधिके लिये जो धारणा की जाती है, उसके विषयमें भी कुछ सूक्ष्म दृष्टान्त बतलाता हूँ, सुनो || ३० ।।
जैसे सदा सावधान रहनेवाला धनुर्धर वीर चित्तको एकाग्र करके बाण चलानेपर लक्ष्यको अवश्य बींध डालता है, उसी प्रकार जो योगी मनको परमात्माके ध्यानमें लगा देता है, वह निस्संदेह मोक्षको प्राप्त कर लेता है || ३१ ।।
पृथ्वीनाथ! जैसे सिरपर रखे हुए तेलसे भरे पात्रकी ओर मनको स्थिरभावसे लगाये रखनेवाला पुरुष एकाग्रचित्त हो सीढ़ियोंपर चढ़ जाता है और जरा भी तेल नहीं छलकता, उसी तरह योगी भी योगयुक्त होकर जब आत्माको परमात्मामें स्थिर करता है, उस समय उसका आत्मा अत्यन्त निर्मल तथा अचल सूर्यके समान तेजस्वी हो जाता है ।। ३२-३३ ।।
कुन्तीकुमार! नृपश्रेष्ठ! जैसे सावधान नाविक समुद्रमें पड़ी हुई नौकाको शीघ्र ही किनारेपर लगा देता है, उसी प्रकार योगके अनुसार तत्त्वको जाननेवाला पुरुष समाधिके द्वारा मनको परमात्मामें लगाकर इस देहका त्याग करनेके अनन्तर दुर्गम स्थान (परमधाम) को प्राप्त होता है ।। ३४-३५ ।।
पुरुषप्रवर! राजन! जिस तरह अत्यन्त सावधान रहनेवाला सारथि अच्छे घोड़ोंको रथमें जोतकर धनुर्धर योद्धाको तुरंत ही अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देता है, वैसे ही धारणाओंमें एकाग्रचित हुआ योगी लक्ष्यकी ओर छोड़े हुए बाणकी भाँति शीघ्र परम पदको प्राप्त हो जाता है ॥। ३६-३७।।
जो योगी समाधिके द्वारा आत्माको परमात्मामें स्थिर करके अचल हो जाता है, वह अपने पापको नष्ट कर देता है और पवित्र पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले अविनाशी पदको पा लेता है || ३८ ।।
अमित पराक्रमी नरेश! योगके महान् व्रतमें एकाग्रचित्त रहनेवाला जो योगी नाभि, कण्ठ, मस्तक, हृदय, वक्षःस्थल, पार्श्रभाग, नेत्र, कान और नासिका आदि स्थानोंमें धारणाके द्वारा सूक्ष्म आत्माको परमात्माके साथ भलीभाँति संयुक्त करता है, वह यदि इच्छा करे तो अपने पर्वताकार विशाल शुभाशुभ कर्मोंको शीघ्र ही भस्म करके उत्तम योगका आश्रय लेकर मुक्त हो जाता है ।। ३९--४१ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन! योगी कैसे आहार करके और किन-किनको जीतकर योगशक्ति प्राप्त कर लेता है, यह आप मुझे बतानेकी कृपा करें ।। ४२ ।।
भीष्मजीने कहा--भारत! जो धानकी खुददी और तिलकी खली खाता तथा घीतेलका परित्याग कर देता है, उसी योगीको योगबलकी प्राप्ति होती है ।। ४३ ।।
शत्रुदमन नरेश! जो दीर्घकालतक एक समय जौका रूखा दलिया खाता है, वह योगी शुद्धचित होकर योगबलकी प्राप्ति कर सकता है ।। ४४ ।।
जो योगी दुग्धमिश्रित जलको दिनमें एक बार पीता है; फिर पंद्रह दिनोंमें एक बार पीता है। तत्पश्चात् एक महीनेमें, एक ऋतुमें और एक वर्षमें एक बार उसे ग्रहण करता है, उसको योगशक्ति प्राप्त होती है || ४५ ।।
नरेश्वरर जो लगातार जीवनभरके लिये मांस नहीं खाता है और विधिपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करके अपने अन्त:ःकरणको शुद्ध बना लेता है, वह योगी भी योगशक्ति प्राप्त कर लेता है || ४६ ।।
पृथ्वीनाथ! नृपश्रेष्ठ) काम, क्रोध, सर्दी, गर्मी, वर्षा, भय, शोक, श्वास, मनुष्योंको प्रिय लगनेवाले विषय, दुर्जय असंतोष, घोर तृष्णा, स्पर्श, निद्रा तथा दुर्जय आलस्यको जीतकर वीतराग, महान् एवं उत्तम बुद्धिसे युक्त महात्मा योगी स्वाध्याय तथा ध्यानका सम्पादन करके बुद्धिके द्वारा सूक्ष्म आत्माका साक्षात्कार कर लेते हैं ।।
भरतमश्रेष्ठ! विद्वान् ब्राह्मणोंने योगके इस मार्गको दुर्गम माना है। कोई बिरला ही इस मार्गको कुशलपूर्वक तै कर सकता है ।। ५० ।।
जैसे कोई-कोई बिरला नवयुवक ही अनेकानेक सर्पों तथा विच्छू आदिसे भरे हुए गड़्ढ़ों और बहुत-से काँटोंवाले, जलशून्य, दुर्गम एवं घोर वनमें सकुशल यात्रा कर सकता है तथा जहाँ भोजन मिलना असम्भव है, जिसमें प्रायः जंगल-ही-जंगल पड़ता है, जहाँके वृक्ष दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं तथा जो चोर-डाकुओंसे भरा हुआ है, ऐसे मार्गको सकुशल तै कर सकता है; उसी प्रकार योगमार्गका आश्रय लेकर कोई बिरला ही द्विज उसपर कुशलपूर्वक चल पाता है, क्योंकि वह बहुत-से दोषों (कठिनाइयों)-से भरा हुआ बताया गया है || ५१--५३ ।।
पृथ्वीपते! छुरेकी तीखी धारपर कोई सुखपूर्वक खड़ा रह सकता है; किंतु जिनका चित्त शुद्ध नहीं है, ऐसे मनुष्योंका योगकी धारणाओंमें स्थिर रहना नितान्त कठिन है ।। ५४ ।।
तात! नरेश्वर! जैसे समुद्रमें बिना नाविककी नाव मनुष्योंको पार नहीं लगा सकती, उसी प्रकार यदि योगकी धारणाएँ सिद्ध न हुईं तो वे शुभगतिकी प्राप्ति नहीं करा सकतीं ।। ५५ |।
कुन्तीनन्दन! जो विधिपूर्वक योगकी धारणाओंमें स्थिर रहता है, वह जन्म, मृत्यु, दुःख और सुखके बन्धनोंसे छुटकारा पा जाता है ।। ५६ ।।
यह मैंने तुम्हें योगविषयक नाना शास्त्रोंका सिद्धान्त बतलाया है। योग-साधनाका जोजो कृत्य है, वह द्विजातियोंके लिये ही निश्चित किया गया है अर्थात् उन्हींका उसमें अधिकार है ।। ५७ ।।
महात्मन्! योगसिद्ध महात्मा पुरुष यदि चाहे तो तुरंत ही मुक्त होकर महान् परब्रह्मके स्वरूपको प्राप्त कर लेता है अथवा वह अपने योगबलसे भगवान् ब्रह्मा, वरदायक विष्णु, महादेवजी, धर्म, छः मुखोंवाले कार्त्तिकेय, ब्रह्माजीके महानुभाव पुत्र सनकादि, कष्ट-दायक तमोगुण, महान् रजोगुण, विशुद्ध सत्त्वगुण, मूल प्रकृति, वरुणपत्नी सिद्धिदेवी, सम्पूर्ण तेज, महान् धैर्य, ताराओंसहित आकाशमें प्रकाशित होनेवाले निर्मल तारापति चन्द्रमा, विश्वेदेव, नाग, पितर, सम्पूर्ण पर्वत, भयंकर समुद्र, सम्पूर्ण नदी-समुदाय, वन, मेघ, नाग, वृक्ष, यक्ष, दिशा, गन्धर्वगण, समस्त पुरुष और स्त्री--इनमेंसे प्रत्येकके पास पहुँचकर उसके भीतर प्रवेश कर सकता है || ५८--६१
नरेश्वरर महान् बल और बुद्धिसे सम्पन्न परमात्मासे सम्बन्ध रखनेवाली यह कल्याणमयी वार्ता मैंने प्रसंगवश तुम्हें सुनायी है। योगसिद्ध महात्मा पुरुष सब मनुष्योंसे ऊपर उठकर नारायणस्वरूप हो जाता है और संकल्पमात्रसे सृष्टि करने लगता है ।। ६२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें योगविधिविषयक तीन सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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