सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इक्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--कर्मफलकी अनिवार्यता तथा पुण्यकर्मसे लाभ”
पराशरजी कहते हैं--राजन्! इन्द्रियरूप घोड़ोंसे युक्त मनोमय (सूक्ष्म शरीर) एक रथ है। ज्ञानाकार वृत्तियाँ ही इस रथके घोड़ोंकी बागडोर हैं। इन उपकरणोंसे युक्त रथपर आरूढ़ होकर जो पुरुष यात्रा करता है, वह बुद्धिमान है ।। १ ।।
जो मनुष्य इन्द्रियोंकी बाह्य वृत्तिसे रहित (अन्तर्मुख) होकर ईश्वरकी शरणमें गये हुए मनके द्वारा उनकी उपासना करता है, उसकी वह उपासना श्रेष्ठ समझी जाती है। ऐसी उपासना किसी विद्दान् एवं भक्त ब्राह्मणके वरद हस्तसे ही उपलब्ध होती है। समान योग्यतावाले आपसके लोगोंसे उसकी प्राप्ति नहीं होती ।। २ ।।
प्रजानाथ! मनुष्य-शरीरकी आयु सुलभ नहीं है--वह दुर्लभ वस्तु है, उसे पाकर आत्माको नीचे नहीं गिराना चाहिये। मनुष्यको चाहिये कि वह पुण्यकर्मके अनुष्ठानद्वारा आत्माके उत्थानके लिये सदा प्रयत्न करता रहे ।। ३ ।।
जो मनुष्य दुष्कर्म करके वर्णसे भ्रष्ट हो जाता है, वह कदापि सम्मान पानेके योग्य नहीं है। इसके सिवा जो मनुष्य सत्त्वगुणके द्वारा सत्कार पाकर फिर राजस कर्मका सेवन करने लगता है, वह भी सम्मानके योग्य नहीं है ।।
पुण्य कर्मसे ही मनुष्य उत्तम वर्णमें जन्म पाता है। पापीके लिये वह अत्यन्त दुर्लभ है। वह उसे न पाकर अपने पाप कर्मके द्वारा अपना ही नाश करता है || ५ ।।
अनजानमें जो पाप बन जाय उसे तपस्याके द्वारा नष्ट कर दे; क्योंकि अपना किया हुआ पापकर्म पापरूप दुःखके रूपमें ही फलता है। अतः दुःखमय फल देनेवाले पापकर्मका कदापि सेवन न करे ।। ६ ।।
पापसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कर्म है उसका कितना ही बड़ा लौकिक सुखरूप फल क्यों न हो; बुद्धिमान पुरुष उसका कदापि सेवन न करे। वह उससे उसी तरह दूर रहे जैसे पवित्र मनुष्य चाण्डालसे ।। ७ ।।
क्या पापकर्मका कोई दुःखदायक फल मैं देखता हूँ? अर्थात् नहीं देखता। ऐसा मानकर पापमें प्रवृत्त हुए मनुष्यको परमात्माका चिन्तन अच्छा नहीं लगता ।। ८ ।।
इस संसारमें जिस मूर्खको तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती उस मनुष्यको परलोकमें जानेपर महान् संताप भोगना पड़ता है ।। ९ |।
नरेन्द्र! बिना रँगा हुआ वस्त्र धोनेसे स्वच्छ हो जाता है; किंतु जो काले रंगमें रँगा हो वह प्रयत्न करनेसे भी सफेद नहीं होता, पापको भी ऐसा ही समझो। उसका रंग भी जल्दी नहीं उतरता है || १० ।।
जो स्वयं जान-बूझकर पाप करनेके पश्चात् उसके प्रायश्ित्तके उद्देश्यसे शुभ कर्मका अनुष्ठान करता है, वह शुभ और अशुभ दोनोंका पृथक्-पृथक् फल भोगता है ।। ११ ।।
अनजानमें जो हिंसा हो जाती है उसे अहिंसा-व्रतका पालन दूर कर देता है। ब्रह्मवादी ब्राह्मण शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार ऐसा ही कहते हैं; किंतु स्वेच्छासे किये हुए हिंसामय पापकर्मको अहिंसाका व्रत भी दूर नहीं कर सकता। ऐसा वेदशास्त्रोंके ज्ञाता, वेदका उपदेश देनेवाले ब्राह्मणगोंका कथन है ।। १२-१३ ।।
परंतु मैं तो ऐसा देखता हूँ कि जो कर्म किया गया है वह पुण्य हो या पापयुक्त, प्रकटरूपमें किया गया हो या छिपाकर (तथा जान-बूझकर किया गया हो या अनजानमें), वह अपना फल अवश्य देता ही है ।। १४ ।।
धर्मज्ञ राजा जनक! जैसे मनसे सोच-विचारकर बुद्धिद्वारा निश्चय करके जो स्थूल या सूक्ष्म कर्म यहाँ किये जाते हैं वे यथायोग्य फल अवश्य देते हैं। उसी प्रकार हिंसा आदि उग्र कर्मके द्वारा अनजानमें किया हुआ भयंकर पाप यदि सदा बनता रहे तो उसका फल भी मिलता ही है; अन्तर इतना ही है कि जान-बूझकर किये हुए कर्मकी अपेक्षा उसका फल बहुत कम हो जाता है ।। १५-१६ ।।
देवताओं और मुनियोंद्वारा जो अनुचित कर्म किये गये हों धर्मात्मा पुरुष उनका अनुकरण न करे; और उन कर्मोको सुनकर भी उन देवता आदिकी निन्दा भी न करे ।। १७ ।।
राजन! जो मनुष्य मनसे खूब सोच-विचारकर, “अमुक काम मुझसे हो सकेगा या नहीं'--इसका निश्चय करके शुभकर्मका अनुष्ठान करता है, वह अवश्य ही अपनी भलाई देखता है || १८ ।।
जैसे नये बने हुए कच्चे घड़ेमें रखा हुआ जल नष्ट हो जाता है, परंतु पके-पकाये घड़ेमें रखा हुआ ज्यों-का-त्यों बना रहता है, उसी प्रकार परिपक्व विशुद्ध अन्तःकरणमें सम्पादित सुखदायक शुभकर्म निश्चल रहते हैं ।। १९ ।।
राजन्! उसी जलयुक्त पक्के घड़ेमें यदि दूसरा जल डाला जाय तो पात्रमें रखा हुआ पहलेका जल और नया डाला हुआ जल-दोनों मिलकर बढ़ जाते हैं और इस प्रकार वह घड़ा अधिक जलसे सम्पन्न हो जाता है। उसी तरह यहाँ विवेकपूर्वक किये हुए जो पुण्य कर्म संचित हैं, उन्हींके समान जो नये पुण्य कर्म किये जाते हैं--वे दोनों मिलकर अधिक पुण्यतम कर्म हो जाते हैं (और उनके द्वारा वह पुरुष महान पुण्यात्मा हो जाता है) || २०-२१ ।।
नरेश्वर! राजाको चाहिये कि वह बढ़े हुए शत्रुओंको जीते। प्रजाका न्यायपूर्वक पालन करे। नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा अग्निदेवको तृप्त करे तथा वैराग्य होनेपर मध्यम अवस्थामें अथवा अन्तिम अवस्थामें वनमें जाकर रहे || २२ ।।
राजन! प्रत्येक पुरुषको इन्द्रियसंयमी और धर्मात्मा होकर समस्त प्राणियोंको अपने ही समान समझना चाहिये। जो विद्या, तप और अवस्थामें अपनेसे बड़े हों अथवा गुरु-कोटिके लोग हों, उन सबकी यथाशक्ति पूजा करनी चाहिये। सत्यभाषण और अच्छे आचारविचारसे ही सुख मिलता है || २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ बानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बानबेवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--धर्मो पार्जित धनकी श्रेष्ठता, अतिथिसत्कारका महत्त्व, पाँच प्रकारके ऋणोंसे छूटनेकी विधि, भगवत्स्तवनकी महिमा एवं सदाचार तथा गुरुजनोंकी सेवासे महान् लाभ”
पराशरजी कहते हैं--राजन्! कौन किसका उपकार करता है और कौन किसको देता है? यह प्राणी सारा कार्य स्वयं अपने ही लिये करता है ।। १ ।।
अपना सगा भाई भी यदि अपने श्रेष्ठ स्वभावका और स्नेहका त्याग कर दे तो लोग उसको त्याग देते हैं; फिर दूसरे किसी साधारण मनुष्यकी तो बात ही क्या है ।।
श्रेष्ठ पुछुषको दिया हुआ दान और श्रेष्ठ पुरुषसे प्राप्त हुआ प्रतिग्रह--इन दोनोंका महत्त्व बराबर है तो भी इन दोनोंमेंसे ब्राह्मणके लिये प्रतिग्रह स्वीकार करनेकी अपेक्षा दान देना अधिक पुण्यमय माना गया है ।।
जो धन न्यायसे प्राप्त किया गया हो और न्यायसे ही बढ़ाया गया हो, उसको यत्नपूर्वक धर्मके उद्देश्यसे बचाये रखना चाहिये। यही धर्मशास्त्रका निश्चय है || ४ ।।
धर्म चाहनेवाले पुरुषको क्रूरकर्मके द्वारा धनका उपार्जन नहीं करना चाहिये। अपनी शक्तिके अनुसार समस्त शुभ कर्म करे। धन बढ़ानेकी चिन्तामें न पड़े ।।
जो मौसमका विचार करके अपनी शक्तिके अनुसार प्यासे और भूखे अतिथिको ठंडा या गरम किया हुआ जल और अन्न पवित्रभावसे अर्पण करता है, वह उत्तम फल पाता है ।। ६ |।
महात्मा राजा रन्तिदेवने फल-मूल और पत्तोंसे ऋषि-मुनियोंका पूजन किया था। इसीसे उन्हें वह सिद्धि प्राप्त हुई, जिसकी सब लोग अभिलाषा रखते हैं ।। ७ ।।
पृथ्वीपालक महाराज शैब्यने भी उन फल और पत्रोंसे ही माठर मुनिको संतुष्ट किया था, जिससे उन्हें उत्तम लोककी प्राप्ति हुई ।। ८ ।।
प्रत्येक मनुष्य देवता, अतिथि, भरण-पोषणके योग्य कुटुम्बीजन, पितर तथा अपनेआपका भी ऋणी होकर जन्म लेता है; अतः उसे उस ऋणसे मुक्त होनेका यत्न करना चाहिये ।। ९ ।।
वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करके ऋषियोंके, यज्ञ-कर्मद्वारा देवताओंके, श्राद्ध और दानसे पितरोंके तथा स्वागत-सत्कार, सेवा आदिसे अतिथियोंके ऋणसे छुटकारा होता है ।। १० ।।
इसी प्रकार वेद-वाणीके पठन, श्रवण एवं मननसे, यज्ञशेष अन्नके भोजनसे तथा जीवोंकी रक्षा करनेसे मनुष्य अपने ऋणसे मुक्त होता है। भरणीय कुटुम्बीजनके पालनपोषणका आरम्भसे ही प्रबन्ध करना चाहिये। इससे उनके ऋणसे भी मुक्ति हो जाती है ।। ११ ||
ऋषि-मुनियोंके पास धन नहीं था तो भी वे अपने प्रयत्नसे ही सिद्ध हो गये। उन्होंने विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके सिद्धि प्राप्त की थी || १२ ।।
महाबाहो! ऋचीकके पुत्र यज्ञमें भाग लेनेवाले देवताओंकी वेदमन्त्रोंद्वारा स्तुति करके विश्वामित्रके पुत्र हो गये || १३ ।।
महर्षि उशना देवाधिदेव महादेवजीको प्रसन्न करके उनके शुक्रत्वको प्राप्त हो उसी नामसे प्रसिद्ध हुए। साथ ही पार्वतीदेवीकी स्तुति करके वे यशस्वी मुनि आकाशभमें ग्रहरूपसे स्थित हो आनन्द भोग रहे हैं ।।
असित, देवल, नारद, पर्वत, कक्षीवान्, जमदग्नि-नन्दन परशुराम, मनको वशमें रखनेवाले ताण्ड्य, वसिष्ठ, जमदग्नि, विश्वामित्र, अत्रि, भरद्वाज, हरिश्मश्रु, कुण्डधार तथा श्रुतश्रवा--इन महर्षियोंने एकाग्रचित्त हो वेदकी ऋचाओंद्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुति करके उन्हीं बुद्धिमान श्रीहरिकी कृपासे तपस्या करके सिद्धि प्राप्त कर ली ।। १५--१७
जो पूजाके योग्य नहीं थे, वे भी भगवान् विष्णुकी स्तुति करके पूजनीय संत होकर उन्हींको प्राप्त हो गये। इस लोकमें निन्दनगीय आचरण करके किसीको भी अपने अभ्युदयकी आशा नहीं रखनी चाहिये ।। १८ ।।
धर्मका पालन करते हुए ही जो धन प्राप्त होता है, वही सच्चा धन है। जो अधर्मसे प्राप्त होता है, वह धन तो धिक्कार देने योग्य है। संसारमें धनकी इच्छासे शाश्वत धर्मका त्याग कभी नहीं करना चाहिये ।। १९ ।।
राजेन्द्र! जो प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है, वही धर्मात्मा है और वही पुण्यकर्म करनेवालोंमें श्रेष्ठ है। प्रभो सम्पूर्ण वेद दक्षिण, आहवनीय तथा गार्हपत्य--इन तीन अग्नियोंमें ही स्थित हैं || २० ।।
जिसका सदाचार एवं सत्कर्म कभी लुप्त नहीं होता, वह ब्राह्मण (अग्निहोत्र न करनेपर भी) अग्निहोत्री ही है। सदाचारका ठीक-ठीक पालन होनेपर अग्निहोत्र न हो सके तो भी अच्छा है; किंतु सदाचारका त्याग करके केवल अग्निहोत्र करना कदापि कल्याणकारी नहीं है।।
पुरुषसिंह! अग्नि, आत्मा, माता, जन्म देनेवाले पिता तथा गुरु--इन सबकी यथायोग्य सेवा करनी चाहिये ।।
जो अभिमानका त्याग करके वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करता, विद्वान् एवं काम-भोगमें अनासक्त होकर सबको प्रेमभावसे देखता, मनमें चतुराई न रखकर धर्ममें संलग्न रहता और दूसरोंका दमन या हिंसा नहीं करता है, वह मनुष्य इस लोकमें श्रेष्ठ है तथा सत्पुरुष भी उसका आदर करते हैं ।। २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तिरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--शूद्रके लिये सेवावृत्तिकी प्रधानता, सत्संगकी महिमा और चारों वर्णोके धर्मपालनका महत्त्व”
पराशरजी कहते हैं--राजन्! शूद्रके लिये तीनों वर्णोकी सेवासे जीवन-निर्वाह करना ही सबसे उत्तम है। शूद्रके लिये निर्दिष्ट सेवावृत्तिका यदि वे प्रेमपूर्वक पालन करें तो वह सदा उन्हें धर्मिष्ठ बनाती है ।। १ ।।
यदि शूद्रके पास बाप-दादोंका दिया हुआ जीविकाका कोई निश्चित साधन नहीं है तो वह दूसरी किसी वृत्तिका अनुसंधान न करे। तीनों वर्णोकी सेवाको ही जीविकाके उपयोगमें लाये ॥| २ ।॥।
धर्मपर दृष्टि रखनेवाले सत्पुरुषोंके संसर्गमें रहना सदा ही श्रेष्ठ है; परंतु किसी भी दशामें कभी दुष्ट पुरुषोंका संग अच्छा नहीं है, यह मेरा दृढ़ निश्चय है ।।
जैसे सूर्यका सामीप्य प्राप्त होनेसे उदयाचल पर्वतकी प्रत्येक वस्तु चमक उठती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके निकट रहनेसे नीच वर्णका मनुष्य भी सदगुणोंसे सुशोभित होने लगता है | ४ ।।
श्वैत वस्त्रको जैसे रंगमें रँगा जाता है, वह वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जैसा संग किया जाता है, वैसा ही रंग अपने ऊपर चढ़ता है। यह बात मुझसे अच्छी तरह समझ लो ।। ५ ।।
इसलिये तुम गुणोंमें ही अनुराग रखो, दोषोंमें कभी नहीं; क्योंकि यहाँ मनुष्योंका जीवन अनित्य और चंचल है ।। ६ ।।
जो विद्वान् सुख अथवा दु:खमें रहकर भी सदा शुभकर्मका ही अनुष्ठान करता है, वही यहाँ शास्त्रोंकी देखता और समझता है || ७ ।।
धर्मके विपरीत कर्म यदि लौकिक दृष्टिसे बहुत लाभदायक हो तो भी बुद्धिमान् पुरुषको उसका सेवन नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसे इस जगतमें हितकर नहीं बताया जाता है |। ८ ।।
जो कार्य धर्मके अनुकूल हो, वह अल्प लाभदायक होनेपर भी नि:शंक होकर कर लेने योग्य है; क्योंकि वह अन्तमें अत्यन्त सुख देनेवाला होता है। जो राजा दूसरोंकी हजारों गौएँ छीनकर दान करता है और प्रजाकी रक्षा नहीं करता, वह नाममात्रका ही दानी और राजा है। वास्तवमें तो वह चोर और डाकू है || ९ ।।
ईश्वरने सबसे पहले लोकपूजित ब्रह्माको उत्पन्न किया। ब्रह्माने एक पुत्र (पर्जन्य)-को जन्म दिया, जो सम्पूर्ण लोकोंको धारण करनेमें तत्पर है || १० ।।
उसीकी पूजा करके वैश्यको चाहिये कि खेती और पशुपालन आदिके द्वारा उसे अत्यन्त समृद्धिशाली बनाये। राजाको उसकी रक्षा करनी चाहिये और ब्राह्मणोंको चाहिये कि वे कुटिलता, शठता एवं क्रोधको त्यागकर हव्य-कव्यका प्रयोग करते हुए उस अन्नधनका यज्ञ (लोकहितके कार्य) में सदुपयोग करें। शूद्रोंको यज्ञभूमि तथा त्रैवर्णिकोंके घरोंको झाड़-बुहारकर॒ साफ रखना चाहिये। ऐसा करनेसे धर्मका नाश नहीं होता ।। ११-१२ ।।
धर्मका नाश न होकर उसका पालन होता रहे तो सारी प्रजा सुखी होती है। राजेन्द्र! प्रजाओंके सुखी होनेपर स्वर्गमें देवता भी प्रसन्न रहते हैं || १३ ।।
जो राजा धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करता है, वह उस धर्माचरणके कारण ही लोकमें पूजित होता है। इसी प्रकार जो ब्राह्मण धर्मपूर्वक स्वाध्याय करता है, जो वैश्य धर्मके अनुसार धनोपार्जनमें तत्पर रहता है तथा जो शूद्र जितेन्द्रिय भावसे रहकर सर्वदा द्विजातियोंकी सेवा करता है, वे सभी अपने-अपने धर्माचरणके कारण लोकमें सम्मानित होते हैं। नरेन्द्र! इसके विपरीत आचरण करनेसे सब लोग अपने धर्मसे गिर जाते हैं ।।
प्राणोंकोी कष्ट देकर भी यदि न््यायसे कमायी हुई थोड़ी-सी कौड़ियोंका भी दान किया जाय तो वे महान् फल देनेवाली होती हैं; फिर जो दूसरी वस्तुएँ हजारोंकी संख्यामें दी जाती हैं, उनकी तो बात ही क्या है || १६ ।।
जो राजा ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें जैसा दान देता है, वैसा ही उत्तम फलका वह सदा ही उपभोग करता है ।। १७ ।।
स्वयं ही ब्राह्मणके पास जाकर उसे संतुष्ट करते हुए जो दान दिया जाता है, उसे प्रशंसनीय--उत्तम बताया गया है और याचना करनेपर जो कुछ दिया जाता है, उसे विद्वान् पुरुष मध्यम श्रेणीका दान कहते हैं ।।
अवहेलना अथवा अअभश्रद्धासे जो कुछ दिया जाता है, उसे सत्यवादी मुनियोंने अधम श्रेणीका दान कहा है। डूबता हुआ मनुष्य जिस तरह नाना प्रकारके उपायद्वारा समुद्रसे पार हो जाता है, वैसे ही तुमको भी सदा ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिस प्रकार संसार-समुद्रसे छुटकारा मिले ।। १९-२० ||
ब्राह्मण इन्द्रियसंयमसे, क्षत्रिय युद्धमें विजय पानेसे, वैश्य न्यायपूर्वक उपार्जित धनसे और शाूद्र सदा सेवाकार्यमें कुशलताका परिचय देनेसे शोभा पाता है ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ तियानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २२ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--ब्राह्मण और शूद्रकी जीविका, निन्दनीय कर्मोंके त्यागकी आज्ञा, मनुष्योंमें आसुरभावकी उत्पत्ति और भगवान् शिवके द्वारा उसका निवारण तथा स्वधर्मके अनुसार कर्तव्यपालनका आदेश”
पराशरजी कहते हैं--राजन! ब्राह्मणके यहाँ प्रतिग्रहसे मिला हुआ, क्षत्रियके घर युद्धसे जीतकर लाया हुआ, वैश्यके पास न्यायपूर्वक (खेती आदिसे) कमाया हुआ और शूद्रके यहाँ सेवासे प्राप्त हुआ थोड़ा-सा भी धन हो तो उसकी बड़ी प्रशंसा होती है तथा धर्मके कार्यमें उसका उपभोग हो तो वह महान् फल देनेवाला होता है || १६ ।।
शूद्रको तीनों वर्णोंका नित्य सेवक बताया जाता है। यदि ब्राह्मण जीविकाके अभावमें क्षत्रिय अथवा वैश्यके धर्मसे जीवन-निर्वाह करे तो वह पतित नहीं होता है; किंतु जब वह शूद्रके धर्मको अपनाता है, तब तत्काल पतित हो जाता है ।। २-३ ।।
जब शाूद्र सेवावृत्तिसे जीविका न चला सके, तब उसके लिये भी व्यापार, पशुपालन तथा शिल्पकला आदिसे जीवन-निर्वाह करनेकी आज्ञा है || ४ ।।
रंगमंचपर स्त्री आदिके वेषमें उतरकर नाचना या खेल दिखाना, बहुरूपियेका काम करना, मदिरा और मांस बेचकर जीविका चलाना तथा लोहे और चमड़ेकी बिक्री करना-ये सब काम (सबके लिये) लोकमें निन्दित माने गये हैं। जिसके घरमें पूर्वपरम्परासे ये काम न होते आये हों, उसे स्वयं इनका आरम्भ नहीं करना चाहिये। जिसके यहाँ पहलेसे इन्हें करनेकी प्रथा हो, वह भी छोड़ दे तो महान् धर्म होता है--ऐसा शास्त्रका निर्णय है |।
यदि कोई जगतमें प्रसिद्ध हुआ पुरुष घमण्डमें आकर या मनमें लोभ भरा रहनेके कारण पापाचरण करने लगे तो उसका वह कार्य अनुकरण करने योग्य नहीं बताया गया है ।। ७ ।।
पुराणोंमें सुना जाता है कि पहले अधिकांश मनुष्य संयमी, धार्मिक तथा न्यायोचित आचारका ही अनुसरण करनेवाले थे। उस समय अपराधियोंको धिक्कारमात्रका ही दण्ड दिया जाता था ।। ८ ||
राजन्! इस जगतमें सदा मनुष्योंके धर्मकी ही प्रशंसा होती आयी है। धर्ममें बढ़े-चढ़े लोग इस भूतलपर केवल सदगुणोंका ही सेवन करते हैं ।। ९ ।।
तात! जनेश्वर! परंतु उस धर्मको असुर नहीं सह सके। वे क्रमश: बढ़ते हुए प्रजाके शरीरमें समा गये ।। १० ।।
तब प्रजाओंमें धर्मको नष्ट करनेवाला दर्प प्रकट हुआ। फिर जब प्रजाओंके मनमें दर्प आ गया, तब क्रोधका भी प्रादुर्भाव हो गया || ११ ।।
राजन! तदनन्तर क्रोधसे आक्रान्त होनेपर मनुष्योंके लज्जायुक्त सदाचारका लोप हो गया। उनका संकोच भी जाता रहा। इसके बाद उनमें मोहकी उत्पत्ति हुई ।। १२ ।।
मोहसे घिर जानेपर उनमें पहले-जैसी विवेकपूर्ण दृष्टि नहीं रह गयी; अतः वे परस्पर एक-दूसरेका विनाश करके अपने-अपने सुखको बढ़ानेकी चेष्टा करने लगे ।। १३ ।।
उन बिगड़े हुए लोगोंको पाकर धिक्कारका दण्ड उन्हें राहपर लानेमें सफल न हो सका। सभी मनुष्य देवता और ब्राह्मणोंका अपमान करके मनमाने तौरपर विषय-भोगोंका सेवन करने लगे ।। १४ ।।
ऐसा अवसर उपस्थित होनेपर सम्पूर्ण देवता अनेक रूपधारी, अधिक गुणशाली, धीरजस्वभाव देवेश्वर भगवान् शिवकी शरणमें गये ।। १५ ।।
तब शिवजीने देवताओंके द्वारा बढ़ाये हुए तेजसे युक्त एक ही शक्तिशाली बाणके द्वारा तीन नगरोंसहित आकाशमें विचरनेवाले उन समस्त असुरोंको मारकर पृथ्वीपर गिरा दिया ।। १६ ।।
उन असुरोंका स्वामी भयंकर आकारवाला तथा भीषण पराक्रमी था। देवताओंको वह सदा भयभीत किये रहता था; किंतु भगवान् शूलपाणिने उसे भी मार डाला ।। १७
उस असुरके मारे जानेपर सब मनुष्य प्रकृतिस्थ हो गये तथा उन्हें पूर्ववत् वेद और शास्त्रोंका ज्ञान हो गया ।।
तत्पश्चात् सप्तर्षियोंने इन्द्रको स्वर्गमें देवताओंके राज्यपर अभिषिक्त किया और वे स्वयं मनुष्यके शासन-कार्यमें लग गये ।। १९ ।।
सप्तर्षियोंके बाद विपृथु नामक राजा भूमण्डलका स्वामी हुआ तथा और भी बहुत-से क्षत्रिय भिन्न-भिन्न मण्डलोंके राजा हुए || २० ।।
उस समय जो उच्च कुलोंमें उत्पन्न हुए थे, अवस्था और गुणोंमें बढ़े-चढ़े थे तथा जो उनसे भी पूर्ववर्ती पुरुष थे, उनके हृदयसे भी आसुरभाव पूर्णरूपसे नहीं निकला था।।
अतः उसी आनुषंगिक आसुरभावसे युक्त होकर कितने ही भयंकर पराक्रमी भूपाल असुरोचित कर्मोंका ही सेवन करने लगे ।। २२ ।।
जो मनुष्य अत्यन्त मूर्ख हैं, वे आज भी उन्हीं आसुरभावोंमें स्थित हैं, उन्हींकी स्थापना करते हैं और उन्हींको सब प्रकारसे अपनाते हैं || २३ ।।
अतः राजन! मैं शास्त्रके अनुसार खूब सोच-विचारकर कहता हूँ कि मनुष्यको उन्नत होनेका प्रयत्न तो करना चाहिये, किंतु हिंसात्मक कर्मका त्याग कर देना चाहिये ।। २४ ।।
बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह धर्म करनेके लिये न््यायको त्यागकर पापमिश्रित मार्गसे धनका संग्रह न करे; क्योंकि उसे कल्याणकारी नहीं बताया जाता है || २५
नरेश्वर! तुम भी इसी प्रकार जितेन्द्रिय क्षत्रिय होकर बन्धु-बान्धवोंसे प्रेम रखते हुए प्रजा, भृत्य और पुत्रोंका स्वधर्मके अनुसार पालन करो ।। २६ ।।
इष्ट और अनिष्टका संयोग, वैर और सौहार्द--इन सबका अनुभव करते-करते जीवके कई सहस्र जन्म बीत जाते हैं || २७ ।।
इसलिये तुम सदगुणोंमें ही अनुराग रखो, दोषोंमें किसी प्रकार नहीं; क्योंकि गुणहीन और दुर्बुद्धि मनुष्य भी अपने गुणोंके अभिमानसे अत्यन्त संतुष्ट रहता है ।।
महाराज! यहाँ मनुष्योंमें जैसे धर्म और अधर्म निवास करते हैं, उस प्रकार मनुष्येतर अन्य प्राणियोंमें नहीं || २९ ।।
धर्मशील विद्वान मनुष्य सचेष्ट हो चाहे चेष्टारहित, उसे चाहिये कि सदैव जगतमें सबके प्रति आत्मभाव रखकर किसी भी प्राणीकी हिंसा न करते हुए समभावसे व्यवहार करे ।। ३० ।।
जब मनुष्यका मन कामना और कर्म-संस्कारोंसे रहित हो जाता है तथा वह मिथ्याचारसे रहित हो जाता है, उस समय उसे कल्याणकी प्राप्ति होती है ।। ३१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पंचानबेवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीता--विषयासक्त मनुष्यका पतन, तपोबलकी श्रेष्ठता तथा दृढ़तापूर्वक स्वरधर्मपालनका आदेश”
पराशरजी कहते हैं--तात! यह मैंने गृहस्थके धर्मका विधान बताया है। अब मैं तपकी विधि बताऊँगा, उसे मेरे मुखसे सुनो ।। १ ।।
नरश्रेष्ठ) गृहस्थ पुरुषको प्रायः राजस और तामस भावोंके संसर्गवश पदार्थ और व्यक्तियोंमें ममता हो जाती है ।। २ ।।
घरका आश्रय लेते ही मनुष्यका गौ, खेती-बारी, धन-दौलत, स्त्री-पुत्र तथा भरणपोषणके योग्य अन्यान्य कुटुम्बीजनोंसे सम्बन्ध स्थापित हो जाता है ।। ३ ।।
इस प्रकार प्रवृत्तिमार्गमें रहकर वह नित्य ही उन वस्तुओंको देखता है, किंतु उनकी अनित्यताकी ओर उसकी दृष्टि नहीं जाती; इसलिये उसके मनमें इनके प्रति राग और द्वेष बढ़ने लगते हैं || ४ ।।
नरेश्वर! राग और द्वेषके वशीभूत होकर जब मनुष्य द्रव्यमें आसक्त हो जाता है, तब मोहकी कन्या रति उसके पास आ जाती है ।। ५ ।।
तब रतिकी उपासनामें लगे हुए सभी लोग भोगीको ही कृतार्थ मानकर रतिके द्वारा जो विषय-सुख प्राप्त होता है, उससे बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं समझते हैं ।।
तदनन्तर उनके मनपर लोभका अधिकार हो जाता है और वे आसक्तिवश अपने परिजनोंकी संख्या बढ़ाने लगते हैं। इसके बाद उन कुट॒म्बीजनोंके पालन-पोषणके लिये मनुष्यके मनमें धन-संग्रहकी इच्छा होती है || ७ ।।
यद्यपि मनुष्य जानता है कि अमुक काम करना पाप है, तो भी वह धनके लिये उसका सेवन करता है। बाल-बच्चोंके स्नेहमें उसका मन डूबा रहता है और उनमेंसे जब कोई मर जाता है तब उनके लिये वह बारंबार संतप्त होता है || ८ ।।
धनसे जब लोकमें सम्मान बढ़ता है, तब वह मानसम्पन्न पुरुष सदा अपने अपमानसे बचनेके लिये प्रयत्न करता रहता है एवं “मैं भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न होऊँ” यह उद्देश्य लेकर ही वह सारा कार्य करता है और इसी प्रयत्नमें एक दिन नष्ट हो जाता है ।। ९ ।।
वास्तवमें जो शुभ कर्मोंका अनुष्ठान तो करते हैं, परन्तु उनसे सुख पानेकी इच्छाको त्याग देते हैं, उन समत्व-बुद्धिसे युक्त ब्रह्मवादी पुरुषोंको ही सनातन पदकी प्राप्ति होती है ।। १० ।।
पृथ्वीनाथ! संसारी जीवोंको तो जब उनके स्नेहके आधारभूत स्त्री-पुत्र आदिका नाश हो जाता, धन चला जाता और रोग तथा चिन्तासे कष्ट उठाना पड़ता है, तभी वैराग्य होता है ।। ११ ||
राजन! वैराग्यसे मनुष्यको आत्मतत्त्वकी जिज्ञासा होती है। जिज्ञासासे शास््त्रोंके स्वाध्यायमें मन लगता है तथा शास्त्रोंके अर्थ और भावके ज्ञानसे वह तपको ही कल्याणका साधन समझता है ।। १२ ।।
नरेन्द्र! संसारमें ऐसा विवेकी मनुष्य दुर्लभ है, जो स्टत्री-पुत्र आदि प्रियजनोंसे मिलनेवाले सुखके न रहनेपर तपमें प्रवृत्त होनेका ही निश्चय करता है ।। १३ ।।
तात! तपस्यामें सभीका अधिकार है। जितेन्द्रिय और मनोनिग्रहसम्पन्न हीन वर्णके लिये भी तपका विधान है; क्योंकि तप पुरुषको स्वर्गकी राहपर लानेवाला है ।।
भूपाल! पूर्वकालमें शक्तिशाली प्रजापतिने तपमें स्थित होकर और कभी-कभी ब्रह्मपरायण व्रतमें स्थित होकर संसारकी रचना की थी ।। १५ ।।
तात! आदित्य, वसु, रुद्र, अग्नि, अश्विनीकुमार, वायु, विश्वेदेव, साध्य, पितर, मरुदगण, यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, सिद्ध तथा अन्य जो स्वर्गवासी देवता हैं, वे सब-के-सब तपस्यासे ही सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ।।
ब्रह्माजीने पूर्वकालमें जिन मरीचि आदि ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया था, वे तपके ही प्रभावसे पृथ्वी और आकाशको पवित्र करते हुए ही विचरते हैं ।। १८ ।।
मर्त्यलोकमें भी जो राजे-महाराजे तथा अन्यान्य गृहस्थ महान् कुलोंमें उत्पन्न देखे जाते हैं, वह सब उनकी तपस्याका ही फल है ।। १९ ।।
रेशमी वस्त्र, सुन्दर आभूषण, वाहन, आसन और उत्तम खान-पान आदि सब कुछ तपस्याका ही फल है ।।
मनके अनुकूल चलनेवाली सहस्रों रूपवती युवतियाँ और महलोंका निवास आदि सब कुछ तपस्याका ही फल है ।। २१ ।।
श्रेष्ठ शय्या, भाँति-भाँतिके उत्तम भोजन तथा सभी मनोवांछित पदार्थ पुण्यकर्म करनेवाले लोगोंको ही प्राप्त होते हैं || २२ ।।
परंतप! त्रिलोकीमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो तपस्यासे प्राप्त न हो सके; किंतु जिन्होंने काम्य अथवा निषिद्ध कर्म नहीं किये हैं, उनकी तपस्याका फल सुखभोगोंका परित्याग ही है || २३ ।।
नृपश्रेष्ठ! मनुष्य सुखमें हो या दुःखमें, मन और बुद्धिसे शास्त्रका तत्व समझकर लोभका परित्याग कर दे || २४ ।।
असंतोष दुःखका ही कारण है। लोभसे मन और इन्द्रियाँ चंचल होती हैं, उससे मनुष्यकी बुद्धि उसी प्रकार नष्ट हो जाती है, जैसे बिना अभ्यासके विद्या ।।
जब मनुष्यकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, तब वह न्यायको नहीं देख पाता अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाता है। इसलिये सुखका क्षय हो जानेपर प्रत्येक पुरुषको घोर तपस्या करनी चाहिये ।।
जो अपनेको प्रिय जान पड़ता है, उसे सुख कहते हैं तथा जो मनके प्रतिकूल होता है, वह दुःख कहलाता है। तपस्या करनेसे सुख और न करनेसे दुःख होता है। इस प्रकार तप करने और न करनेका जैसा फल होता है, उसे तुम भलीभाँति समझ लो ।। २७ ।।
मनुष्य पापरहित तपस्या करके सदा अपना कल्याण ही देखते हैं। मनोवांछित विषयोंका उपभोग करते हैं और संसारमें उनकी ख्याति होती है || २८ ।।
मनके अनुकूल फलकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य सकाम कर्मका अनुष्ठान करके अप्रिय, अपमान और नाना प्रकारके दुःख पाता है, किंतु उस फलका परित्याग करके वह सम्पूर्ण विषयोंके आत्मस्वरूप परब्रह्म परमेश्वरको प्राप्त कर लेता है || २९ ।।
जिसे धर्म, तपस्या और दानमें संशय उत्पन्न हो जाता है, वह पापकर्म करके नरकमें पड़ता है || ३० ।।
नरश्रेष्ठ! मनुष्य सुखमें हो या दुःखमें, जो सदाचारसे कभी विचलित नहीं होता, वही शास्त्रका ज्ञाता है ।।
प्रजानाथ! बाणको धनुषसे छूटकर पृथ्वीपर गिरनेमें जितनी देर लगती है, उतना ही समय स्पर्शेन्द्रिय, रसना, नेत्र, नासिका और कानके विषयोंका सुख अनुभव करनेमें लगता है अर्थात् विषयोंका सुख क्षणिक है ।।
फिर वह सुख जब नष्ट हो जाता है, तब उसके लिये मनमें बड़ी वेदना होती है। इतनेपर भी अज्ञानी पुरुष (विषयोंमें ही लिप्त रहते हैं, वे) सर्वोत्तम मोक्ष-सुखकी प्रशंसा नहीं करते हैं अर्थात् उसे नहीं चाहते || ३३ ।।
अतः प्रत्येक विवेकी पुरुषके मनमें श्रेष्ठ मोक्षफलकी प्राप्ति करानेके लिये शम-दम आदि गुणोंकी उत्पत्ति होती है। निरन्तर धर्मका पालन करनेसे मनुष्य कभी धन और भोगोंसे वंचित नहीं रहता ।। ३४ ।।
इसलिये गृहस्थ पुरुषको सदा बिना प्रयत्न अपने-आप प्राप्त हुए विषयोंका ही सेवन करना चाहिये और प्रयत्न करके तो अपने धर्मका ही पालन करना चाहिये। यही मेरा मत है ।। ३५ ||
जब उत्तम कुलमें उत्पन्न, सम्मानित तथा शास्त्रके अर्थको जाननेवाले पुरुषोंका और असमर्थताके कारण कर्म-धर्मसे रहित एवं आत्मतत्त्वसे अनभिज्ञ मनुष्योंका भी किया हुआ लौकिक कर्म नष्ट हो ही जाता है, तब यही निष्कर्ष निकलता है कि जगत्में उनके लिये तपके सिवा दूसरा कोई सत्कर्म नहीं है ।। ३६-३७ ।।
नरेश्वर! गृहस्थको सर्वथा अपने कर्तव्यका निश्चय करके स्वधर्मका पालन करते हुए कुशलतापूर्वक यज्ञ तथा श्राद्ध आदि कर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये ।। ३८ ।।
जैसे सम्पूर्ण नदियाँ और नद समुद्रमें जाकर मिलते हैं, उसी प्रकार समस्त आश्रम गृहस्थका ही सहारा लेते हैं | ३९ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें