सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छियासीवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“समड्के द्वारा नारदजीसे अपनी शोकहीन स्थितिका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! संसारके सभी प्राणी सदा शोक, दुःख और मृत्युसे डरते रहते हैं; अतः आप हमें ऐसा उपदेश दें, जिससे हमलोगोंको उन दोनोंका भय न रहे ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--भरतनन्दन! इस विषयमें विद्वान् पुरुष देवर्षि नारद और समड्ढके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।
नारदजीने पूछा--समड्जी! दूसरे लोग तो सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं; परंतु आप हृदयसे प्रणाम करते जान पड़ते हैं। मालूम होता है, आप इस संसारसागरको अपनी इन दोनों भुजाओंसे ही तैरकर पार हो जायँगे। आपका मन नित्य प्रसन्न रहता है तथा आप सदा शोकशून्य-से दिखायी देते हैं |। ३ ।।
मैं आपके चित्तमें कभी कोई थोड़ा-सा भी उद्वेग नहीं देख पाता हूँ। आप नित्य तृप्तकी भाँति अपने-आपमें ही स्थित रहकर बालकोंके समान चेष्टा करते हैं (इसका क्या कारण है?) ४ ।।
समड़्जीने कहा--दूसरोंको मान देनेवाले देवर्षे! मैं भूत, वर्तमान और भविष्य इन सबका स्वरूप तथा तत्त्व जानता हूँ; इसलिये मेरे मनमें कभी विषाद नहीं होता ।। ५ ।।
मुझे कर्मोके आरम्भका तथा उनके फलोदयकालका भी ज्ञान है और लोकमें जो भाँति-भाँतिके कर्मफल प्राप्त होते हैं, उनको भी मैं जानता हूँ; इसीलिये मेरे मनमें कभी खेद नहीं होता ।। ६ ।।
नारदजी! देखिये, जैसे जगतमें गम्भीर, अप्रतिष्ठित, प्रगतिशील, अन्धे और जड मनुष्य भी जीवित रहते हैं, उसी प्रकार हम भी जी रहे हैं || ७ ।।
नीरोग शरीरवाले देवता, बलवान् और निर्बल सभी अपने प्रारब्ध-विधानके अनुसार जीवन धारण करते हैं; अत: हम भी प्रारब्धपर ही अवलम्बित रहकर किसी कर्मका आरम्भ नहीं करते हैं, इसलिये हमारे प्रति भी आप आदर बुद्धि रखें (अकर्मण्य समझकर हमारा निरादर न करें) ।। ८ ।।
जिनके पास हजारों रुपये हैं, वे भी जीते हैं। जिनके पास सैकड़ों रुपयोंका संग्रह है, वे भी जीवन धारण करते हैं। दूसरे लोग सागसे ही जीवन-निर्वाह करते हैं। उसी तरह हमें भी जीवित समझिये ।। ९ ।।
नारदजी! जब अज्ञान दूर हो जानेके कारण हम शोक ही नहीं करते हैं तो धर्म अथवा लौकिक कर्मसे हमारा क्या प्रयोजन है। सारे सुख और दुःख कालके अधीन होनेके कारण क्षणभंगुर हैं, अत: वे ज्ञानी पुरुषको पराभूत नहीं कर सकते हैं || १० ।।
ज्ञानी पुरुष जिसके लिये कहा करते हैं, उस प्रज्ञाकी जड़ है इन्द्रियोंकी निर्मलता। जिसकी इन्द्रियाँ मोह और शोकमें मग्न हैं, उस मोहाच्छन्न इन्द्रियवाले पुरुषको कभी प्रज्ञाका लाभ नहीं मिल सकता ।। ११ ।।
मूढ़ मनुष्यको गर्व होता है। उसका वह गर्व मोहरूप ही है। मूढ़के लिये न तो यह लोक सुखद होता है ओर न परलोक ही। किसीको भी न तो सदा दुःख ही उठाने पड़ते हैं और न नित्य, निरन्तर सुखका ही लाभ होता है | १२ ।।
संसारके स्वरूपको परिवर्तित होता देख मेरे-जैसा मनुष्य कभी संताप नहीं करता है। अभीष्ट भोग अथवा सुखका भी अनुसरण नहीं करता तथा दुःख आ जाय तो उसके लिये चिन्तित नहीं होता || १३ ।।
सब प्रकारसे उपरत महापुरुष दूसरोंसे कुछ भी नहीं चाहता। भविष्यमें होनेवाले अर्थलाभका भी अभिनन्दन नहीं करता। बहुत-सी सम्पत्ति पाकर हर्षित नहीं होता तथा धनका नाश हो जानेपर भी खेद नहीं करता ।। १४ ।।
बन्धु-बान्धव, धन, उत्तम कुल, शास्त्राध्ययन, मन्त्र तथा पराक्रम--ये सब-के-सब मिलकर भी किसीको दुःखसे छुटकारा नहीं दिला सकते हैं। परलोकमें मनुष्य उत्तम स्वभावके कारण ही शान्ति पाते हैं ।। १५ ।।
जिसका चित्त योगयुक्त नहीं है, उसे समत्व बुद्धि नहीं प्राप्त होती। योगके बिना कोई सुख नहीं पाता है। नरेश्वर! दुःखोंके सम्बन्धका त्याग और धैर्य--ये ही दोनों सुखके कारण है।।
प्रिय वस्तु हर्षजनक होती है। हर्ष अभिमानको बढ़ाता है और अभिमान नरकमें ही डुबानेवाला है। इसलिये मैं इन तीनोंका त्याग करता हूँ || १७ ।।
शोक, भय और अभिमान--ये प्राणियोंको सुख-दुःखमें डालकर मोहित करनेवाले हैं; इसलिये जबतक यह शरीर चेष्टा कर रहा है, तबतक मैं इन सबको साक्षीकी भाँति देखता हूँ | १८ ।।
अर्थ और कामको त्यागकर एवं तृष्णा और मोहका सर्वथा परित्याग करके मैं शोक और संतापसे रहित हुआ इस पृथ्वीपर विचरता हूँ || १९ ।।
जैसे अमृत पीनेवालेको मृत्युसे भय नहीं होता, उसी प्रकार मुझे भी इहलोक या परलोकमें मृत्यु, अधर्म, लोभ तथा दूसरे किसीसे भी भय नहीं है ।। २० ।।
ब्रह्मन! मैंने महान् और अक्षय तप करके यही ज्ञान पाया है; अतः: नारदजी! शोककी परिस्थिति उपस्थित होकर भी मुझे व्याकुल नहीं कर सकती ।। २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपरवके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें सम और नारदजीका संवादविषयक दो सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सत्तासीवें अध्याय के श्लोक 1-59 का हिन्दी अनुवाद)
“नारदजीका गालव मुनिको श्रेयका उपदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो शास्त्रोंके तत््वको नहीं जानता, जिसका मन सदा संशयमें ही पड़ा रहता है तथा जिसने परमार्थके लिये कोई निश्चित ध्येय नहीं बनाया है, उस पुरुषका कल्याण कैसे हो सकता है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठि!! सदा गुरुजनोंकी पूजा, वृद्ध पुरुषोंकी सेवा और शास्त्रोंका श्रवण--ये तीन कल्याणके अमोघ साधन बताये जाते हैं || २ ।।
इस विषयमें भी जानकार मनुष्य देवर्षि नारद और महर्षि गालवके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ३ ।।
एक समयकी बात है, कल्याणकी इच्छा रखनेवाले जितेन्द्रिय गालव मुनिने अपने आश्रमपर पधारे हुए देवोपम तेजस्वी ब्राह्मण, मोह और क्लान्तिसे रहित, ज्ञानानन्दसे परिपूर्ण एवं मनको वशमें रखनेवाले देवर्षि नारदजीसे इस प्रकार पूछा-- ।। ४ ।।
“मुने! संसारमें कोई भी पुरुष जिन गुणोंद्वारा सम्मानित होता है, उन समस्त गुणोंका मैं आपमें कभी अभाव नहीं देखता हूँ ।। ५ ।।
“लोक-तत्त्वके ज्ञानसे शून्य और चिरकालसे अज्ञानमें पड़े हुए हम-जैसे लोगोंके संशयका निवारण सर्वगुणसम्पन्न आप-जैसा ज्ञानी महात्मा ही कर सकता है || ६ ।।
“'मुने! शास्त्रोंमें बहुत-से कर्तव्यकर्म बताये गये हैं, उनमेंसे अमुक कर्मके इस प्रकार करनेसे ज्ञानमार्गमें प्रवृत्ति हो सकती है, इसका विशेषरूपसे हमें निश्चय नहीं हो पाता है; अतः: हमारे लिये जो कर्तव्य हो और जिसका निर्धारण हम न कर पाते हों, उसे आप ही हमें बतानेकी कृपा करें ।। ७ ।।
“भगवन्! सभी आश्रमोंवाले पृथक्ू-पृथक् आचारका दर्शन कराते हैं तथा “यह श्रेष्ठ है' यह श्रेष्ठ है” ऐसा उपदेश देते हुए वे (अपने ही सिद्धान्तोंकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन करते हैं और) सभी मनुष्योंकी बुद्धिमें यही बात जमा देते हैं ।। ८ ।।
“जिनके मनमें वह बात बैठ गयी है, उन सबको उन शास्त्रोंके उपदेशके अनुसार नाना प्रकारके आचार-मार्गसे चलते और अपने-अपने शास्त्रोंका अभिनन्दन करते देखकर जैसे हम अपनी मान्यतामें संतुष्ट हैं, वैसे ही उन्हें भी संतुष्ट पाकर हमारे मनमें संशय उत्पन्न हो गया है। हम यह ठीक-ठीक निश्चय नहीं कर पा रहे हैं कि परम कल्याणकी प्राप्तिका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है? ।। ९ ।।
“यदि शास्त्र एक होता तो श्रेयकी प्राप्तिका उपाय भी एक ही होनेके कारण वह स्पष्टरूपसे समझमें आ जाता, परंतु बहुत-से शास्त्रोंने नाना प्रकारसे वर्णन करके श्रेयको गुहा अवस्थामें पहुँचा दिया है--उसे अत्यन्त गूढ़ बना डाला है || १० ।।
“इस कारणसे मुझे श्रेयका स्वरूप संशयाच्छन्न जान पड़ता है। भगवान्! अब आप ही मुझे उसका उपदेश दें। मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझ शिष्यको श्रेयोमार्गका बोध करायें! ।। ११ ।।
नारदजीने कहा--तात! आश्रम चार हैं और शास्त्रोंमें उनकी पृथक्-पृथक् व्यवस्था की गयी है। गालव! तुम ज्ञानका आश्रय लेकर उन सबको यथार्थरूपसे जानो ।। १२ ।।
विप्रवर! उन-उन आश्रमोंके जो नाना प्रकारसे गुण-सम्पन्न धर्म बताये गये हैं, उनकी पृथक्-पृथक् स्थिति है। इस बातको तुम देखो और समझो ।। १३ ।।
जो साधारण मनुष्य हैं, वे उन आश्रमोंके वास्तविक अभिप्रायको भलीभाँति संशयरहित नहीं जान पाते, किंतु उनसे भिन्न जो तत्त्वज्ञ हैं, वे इन आश्रमोंके परमतत्त्वको ठीक-ठीक समझते हैं ।। १४ ।।
जो अच्छी तरह कल्याण करनेवाला साधन होता है, वह सर्वथा संशयरहित होता है। सुहृदोंपर अनुग्रह करना, शत्रुभाव रखनेवाले दुष्टोंको दण्ड देना तथा धर्म, अर्थ और कामका संग्रह करना--इसे मनीषी पुरुष श्रेय कहते हैं | १५-१६ ।।
पापकर्मसे दूर रहना, निरन्तर पुण्यकर्मोमें लगे रहना और सत्पुरुषोंके साथ रहकर सदाचारका ठीक-ठीक पालन करना--यह संशयरहित कल्याणका मार्ग है ।।
सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति कोमलताका बर्ताव करना, व्यवहारमें सरल होना तथा मीठे वचन बोलना--यह भी कल्याणका संदेहरहित मार्ग है ।। १८ ।।
देवताओं, पितरों और अतिथियोंको उनका भाग देना तथा भरण-पोषण करनेयोग्य व्यक्तियोंका त्याग न करना--यह कल्याणका निश्चित साधन है ।। १९ ।।
सत्य बोलना भी श्रेयस्कर है; परंतु सत्यको यथार्थरूपसे जानना कठिन है। मैं तो उसीको सत्य कहता हूँ, जिससे प्राणियोंका अत्यन्त हित होता हो ।।
अहंकारका त्याग, प्रमादको रोकना, संतोष और एकान्तवास--यह सुनिश्चित श्रेय कहलाता है ।। २१ ।।
धर्मांचरणपूर्वक वेद और वेदाड़ोंका स्वाध्याय करना तथा उनके सिद्धान्तको जाननेकी इच्छाको जगाये रखना निस्संदेह कल्याणका साधन है ।। २२ ।।
कल्याण चाहनेवाला पुरुष रातमें घूमना, दिनमें सोना, आलस्य, चुगली, मादक वस्तुका सेवन, आहार-विहारका अधिक मात्रामें सेवन और उसका सर्वथा त्याग--ये सब बातें त्याग दे | २४ ।।
दूसरोंकी निन्दा करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनेका प्रयत्न न करे। साधारण मनुष्योंकी अपेक्षा जो अपनी उत्कृष्टता है, उसे अपने गुणोंद्वारा ही सिद्ध करे (बातोंसे नहीं)। गुणहीन मनुष्य ही अधिकतर अपनी प्रशंसा किया करते हैं। वे अपनेमें गुणोंकी कमी देखकर दूसरे गुणवान् पुरुषोंके गुणोंमें दोष बताकर उनपर आक्षेप किया करते हैं | २५-२६ ।।
यदि उनको उत्तर दिया जाय तो फिर वे घमंडमें भरकर अपने-आपको महापुरुषोंसे भी अधिक गुणवान् मानने लगें ।। २७ ।।
परंतु जो दूसरे किसीकी निन्दा तथा अपनी प्रशंसा नहीं करता, ऐसा उत्तम गुणसम्पन्न विद्वान् पुरुष ही महान् यशका भागी होता है ।। २८ ।।
फूलोंकी पवित्र एवं मनोरम सुगन्ध बिना कुछ बोले ही महक उठती है। निर्मल सूर्य अपनी प्रशंसा किये बिना ही आकाशगमें प्रकाशित होने लगते हैं || २९ ।।
इस प्रकार संसारमें और भी बहुत-सी ऐसी बुद्धिसे रहित वस्तुएँ हैं, जो अपनी प्रशंसा नहीं करती हैं, किंतु अपने यशसे जगमगाती रहती हैं ।। ३० ।।
मूर्ख मनुष्य केवल अपनी प्रशंसा करनेसे ही जगत्में ख्याति नहीं पा सकता। विद्वान् पुरुष गुफामें छिपा रहे तो भी उसकी सर्वत्र प्रसिद्धि हो जाती है ।।
बुरी बात जोर-जोरसे कही गयी हो तो भी वह शून्यमें विलीन हो जाती है, लोकमें उसका आदर नहीं होता है; किंतु अच्छी बात धीरेसे कही जाय तो भी वह संसारमें प्रकाशित होती है--उसका आदर होता और प्रभाव बढ़ता है || ३२ ।।
घमंडी मूर्खोकी कही हुई असार बातें उनके दूषित अन्त:करणका ही प्रदर्शन कराती हैं, ठीक उसी तरह जैसे सूर्य सूर्यकान्तमणिके योगसे अपने दाहक अग्निरूपको ही प्रकट करता है ।। ३३ ।।
इस कारण कल्याणकी इच्छा रखनेवाले साधु पुरुष अनेक शास्त्रोंके अध्ययनसे नाना प्रकारकी प्रज्ञा (उत्तम बुद्धि) का ही अनुसंधान करते हैं। मुझे तो सभी प्राणियोंके लिये प्रज्ञाका लाभ ही उत्तम जान पड़ता है ।।
बुद्धिमान् पुरुष ज्ञानवान् होनेपर भी बिना पूछे किसीको कोई उपदेश न करे। अन्यायपूर्वक पूछनेपर भी किसीके प्रश्नका उत्तर न दे। जडकी भाँति चुपचाप बैठा रहे।।
मनुष्यको सदा धर्ममें लगे रहनेवाले साधु-महात्माओं तथा स्वधर्मपरायण उदार पुरुषोंके समीप निवास करनेकी इच्छा रखनी चाहिये || ३६ ।।
जहाँ चारों वर्णोके धर्मोका उल्लड्घन होता हो, वहाँ कल्याणकी इच्छावाले पुरुषको किसी तरह भी नहीं रहना चाहिये || ३७ ।।
किसी कर्मका आरम्भ न करनेवाला और जो कुछ मिल जाय, उसीसे जीवन-निर्वाह करनेवाला पुरुष भी यदि पुण्यात्माओंके समाजमें रहे तो उसे निर्मल पुण्यकी प्राप्ति होती है और पापियोंके संसर्गमें रहे तो वह पापका ही भागी होता है || ३८ ।।
जैसे जल, अग्नि और चन्द्रमाकी किरणोंके संसर्गमें आनेपर मनुष्य क्रमश: शीत, उष्ण और सुखदायी स्पर्शका अनुभव करता है, उसी प्रकार हम पुण्यात्मा और पापियोंके संगसे पुण्य और पाप दोनोंके स्पर्शका प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।। ३९ ।।
जो विघसाशी (भृत्यवर्ग ओर अतिथि आदिको भोजन करानेके बाद बचा हुआ भोजन करनेवाले) हैं, वे तिक्त-मधुर रस या स्वादकी आलोचना न करते हुए अन्न ग्रहण करते हैं; किंतु जो अपनी रसनाका विषय समझकर स्वादु और अस्वादुका विचार रखते हुए भोजन करते हैं, उन्हें कर्मपाशमें बँधा हुआ ही समझना चाहिये ।। ४० ।।
जहाँ ब्राह्मण अनादर एवं अन्यायपूर्वक धर्म-शास्त्रविषयक प्रश्न करनेवाले पुरुषोंको धर्मका उपदेश करता हो, आत्मपरायण साधकको उस देशका परित्याग कर देना चाहिये ।। ४१ ।।
जहाँ गुरु और शिष्यका व्यवहार सुव्यवस्थित, शास्त्र-सम्मत एवं यथावत् रूपसे चलता है, कौन उस देशका परित्याग करेगा? ।। ४२ ।।
जहाँके लोग बिना किसी आधारके ही विद्वान् पुरुषोंपर निश्चितरूपसे दोषारोपण करते हों, उस देशमें आत्मसम्मानकी इच्छा रखनेवाला कौन मनुष्य निवास करेगा? ।। ४३ ।।
जहाँ लालची मनुष्योंने प्राय: धर्मकी मर्यादाएँ तोड़ डाली हों, जलते हुए कपड़ेकी भाँति उस देशको कौन नहीं त्याग देगा? ।। ४४ ।।
परंतु जहाँके लोग मात्सर्य और शंकासे रहित होकर धर्मका आचरण करते हों, वहाँ पुण्यशील साधु पुरुषोंके पास अवश्य निवास करे || ४५ ।।
जहाँके मनुष्य धनके लिये धर्मका अनुष्ठान करते हों, वहाँ उनके पास कदापि न रहे; क्योंकि वे सब-के सब पापाचारी होते हैं || ४६ ।।
जहाँ जीवनकी रक्षाके लिये लोग पापकर्मसे जीविका चलाते हों, सर्पयुक्त घरके समान उस स्थानसे तुरंत दूर हट जाना चाहिये || ४७ ।।
अपनी उन्नति चाहनेवाले साधकको चाहिये कि जिस पापकर्मके संस्कारोंसे युक्त हुआ मनुष्य खाटपर पड़कर दुःख भोगता है, उस कर्मको पहलेसे ही न करे ।।
जहाँ राजा और राजाके निकटवर्ती अन्य पुरुष कुट॒म्बी-जनोंसे पहले ही भोजन कर लेते हैं, उस राष्ट्रको मनस्वी पुरुष अवश्य त्याग दे ।। ४९ ।।
जिस देशमें सदा धर्मपरायण, यज्ञ कराने और पढ़ानेके कार्यमें संलग्न सनातनधर्मी श्रोत्रिय ब्राह्मण ही सबसे पहले भोजन पाते हों, उस राष्ट्रमें अवश्य निवास करे ।।
जहाँ स्वाहा (अन्निहोत्र), स्वथधा (श्राद्धकर्म) तथा वषट्कारका भलीभाँति अनुष्ठान होता हो और निरन्तर ये सभी कर्म किये जाते हों, वहाँ बिना विचारे ही निवास करना चाहिये ।। ५१ ।।
जहाँ ब्राह्मणोंको जीविकाके लिये कष्ट पाते तथा अपवित्र अवस्थामें रहते देखे, उस राष्ट्रको निकटवर्ती होनेपर भी विषमिश्रित भोग्यवस्तुकी भाँति त्याग दे || ५२ ।।
जहाँके लोग प्रसन्नतापूर्वक बिना माँगे ही भिक्षा देते हों, वहाँ मनको वशमें करनेवाला पुरुष कृतकृत्यकी भाँति स्वस्थचित्त होकर निवास करे ।। ५३ ।।
जहाँ उद्ण्ड पुरुषोंको दण्ड दिया जाता हो और जितात्मा पुरुषोंका सत्कार किया जाता हो, वहाँ पुण्यशील श्रेष्ठ पुरुषोंक बीच विचरना और निवास करना चाहिये ।। ५४
जो जितेन्द्रिय पुरुषोंपर क्रोध और श्रेष्ठ पुरुषोंपर अत्याचार करते हों, उद्धण्ड और लोभी हों, ऐसे लोगोंको जहाँ अत्यन्त कठोर और महान् दण्ड दिया जाता हो, उस देशमें बिना विचारे निवास करना चाहिये ।। ५५ ।।
जहाँका राजा सदा धर्मपरायण रहकर धर्मानुसार ही राज्यका पालन करता हो और सम्पूर्ण कामनाओंका स्वामी होकर भी विषयभोगसे विमुख रहता हो, वहाँ बिना कुछ सोचेविचारे निवास करना चाहिये ।। ५६ ।।
क्योंकि राजाके शील-स्वभाव जैसे होते हैं वैसे ही प्रजाके भी हो जाते हैं। वह अपने कल्याणका अवसर उपस्थित होनेपर समस्त प्रजाको भी शीघ्र ही कल्याणका भागी बना देता है।।
तात! मैंने तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह श्रेयोमार्गका वर्णन किया है। पूर्णतया तो आत्मकल्याणकी परिगणना हो ही नहीं सकती ।। ५८ ।।
जो इस प्रकारकी वृत्तिसे रहकर जीविका चलाता है और प्राणियोंके हितमें मन लगाये रहता है, उस पुरुषको स्वधर्मरूप तपके अनुष्ठानसे इस लोकमें ही परम कल्याणकी प्रत्यक्ष उपलब्धि हो जायगी ।। ५९ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रेयोमार्गका प्रतिपादन नामक दो सौ सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अट्ठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अट्ठासीवें अध्याय के श्लोक 1-47 का हिन्दी अनुवाद)
“अरिषप्टनेमिका राजा सगरको वैराग्योत्पादक मोक्षविषयक उपदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--दादाजी! मेरे-जैसा राजा कैसे साधन और व्यवहारसे युक्त होकर पृथ्वीपर विचरे और सदा किन गुणोंसे सम्पन्न होकर वह आसक्तिके बन्धनसे मुक्त हो? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इस विषयमें राजा सगरके प्रश्न करनेपर अरिष्टनेमिने जो उत्तर दिया था, वह प्राचीन इतिहास मैं तुम्हें बताऊँगा ।। २ ।।
सगरने पूछा--ब्रह्मन! इस जगत्में मनुष्य किस परम कल्याणकारी कर्मका अनुष्ठान करके सुखका भागी होता है? तथा किस उपायसे उसे शोक या क्षोभ प्राप्त नहीं होता? यह मैं जानना चाहता हूँ ।। ३ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! राजा सगरके इस प्रकार पूछनेपर सम्पूर्ण शास्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ ताक्ष्य (अरिष्टनेमि)-ने उनमें सर्वोत्तम दैवी सम्पत्तिके गुण जानकर उनको इस प्रकार उत्तम उपदेश दिया-- ।। ४ ।।
सगर! संसारमें मोक्षका सुख ही वास्तविक सुख है, परंतु जो धनधान्यके उपार्जनमें व्यग्र तथा पुत्र और पशुओंमें आसक्त है, उस मूढ़ मनुष्यको उसका यथार्थ ज्ञान नहीं होता” ॥। ५ ।।
“जिसकी बुद्धि विषयोंमें आसक्त है, जिसका मन अशान्त रहता है, ऐसे मनुष्यकी चिकित्सा करनी कठिन है; क्योंकि जो स्नेहके बन्धनमें बँधा हुआ है, वह मूढ़ मोक्ष पानेके लिये योग्य नहीं होता” ।। ६ ।।
'मैं तुम्हें स्नेहजनित बन्धनोंका परिचय देता हूँ, उन्हें तुम मुझसे सुनो। श्रवणेन्द्रियसम्पन्न समझदार मनुष्य ही ऐसी बातोंको बुद्धिपूर्वक सुन सकता है” ।। ७।।
“समयानुसार पुत्रोंको उत्पन्न करके जब वे जवान हो जाये, तब उनका विवाह कर दो और जब यह मालूम हो जाय कि अब ये दूसरेके सहयोगके बिना ही जीवन-निर्वाह करनेमें समर्थ हैं, तब उनके स्नेह-पाशसे मुक्त हो सुखपूर्वक विचरो' ।। ८ ।।
'पत्नी पुत्रवती होकर वृद्ध हो गयी। अब पुत्रगण उसका पालन करते हैं और वह भी पुत्रोंपर पूर्ण वात्सल्य रखती है, यह जानकर परम पुरुषार्थ मोक्षको अपना लक्ष्य बनाकर यथासमय उसका परित्याग कर दे” || ९ ।।
'शास्त्र-विधिके अनुसार इन्द्रियोंद्वारा इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव करके जब तुम उनके खेलको पूरा कर चुको, तब संतान हुई हो चाहे न हुई हो, उनसे मुक्त होकर सुखपूर्वक विचरो” || १० ३ ||
'दैवेच्छासे जो भी लौकिक पदार्थ उपलब्ध हों, उनमें समान भाव रखो--राग-द्वेष न करो' ।। ११ |।
यह संक्षेपमें मैंने तुम्हें मोक्षका विषय बताया है। अब पुनः इसीको विस्तारके साथ बता रहा हूँ, सुनो ।।
“मुक्त पुरुष सुखी होते हैं और संसारमें निर्भय होकर विचरते हैं; किंतु जिनका चित्त विषयोंमें आसक्त होता है, वे कीड़े-मकोड़ोंकी भाँति आहारका संग्रह करते-करते ही नष्ट हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है; अतः जो आसक्तिसे रहित हैं, वे ही इस संसारमें सुखी हैं। आसक्त मनुष्योंका तो नाश ही होता है' || १३-१४ ।।
“यदि तुम्हारी बुद्धि मोक्षमें लगी हुई है तो तुम्हें स््वजनोंके विषयमें ऐसी चिन्ता नहीं करनी चाहिये कि ये मेरे बिना कैसे रहेंगे” || १५ ।।
“प्राणी स्वयं जन्म लेता है, स्वयं बढ़ता है और स्वयं ही सुख-दुःख तथा मृत्युको प्राप्त होता है” || १६ ।।
“मनुष्य पूर्वजन्मके कर्मोंके अनुसार ही भोजन, वस्त्र तथा अपने माता-पिताके द्वारा संग्रह किया हुआ धन प्राप्त करता है। संसारमें जो कुछ मिलता है, वह पूर्वकृत कर्मोंके फलके अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं है' ।।
'संसारमें सभी प्राणी अपने कर्मोसे सुरक्षित हो सारी पृथ्वीकी दौड़ लगाते हैं और विधाताने उनके प्रारब्धके अनुसार जो आहार नियत कर दिया है, उसे प्राप्त करते हैं! ।। १८ ।।
“जो स्वयं ही शरीरकी दृष्टिसे मिट्टीका लोंदामात्र है, सर्वदा परतन्त्र है, वह अदृढ़ मनवाला मनुष्य स्वजनोंका पोषण और रक्षण करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है?” ।। १९ ।।
“जब स्वजनोंको तुम्हारे देखते-देखते ही मौत मार ही डालती है और तुम उन्हें बचानेके लिये महान् प्रयत्न करनेपर भी सफल नहीं हो पाते, तब इस विषयमें तुम्हें स्वयं ही यह विचार करना चाहिये कि मेरी कया शक्ति है?” || २० ।।
“यदि वे स्वजन जीवित रह जायाँ तो भी इनके भरण-पोषण और संरक्षणका कार्य समाप्त होनेसे पहले ही तुम इन्हें छोड़कर पीछे स्वयं भी तो मर जाओगे” ।। २१ ।।
“अथवा जब कोई स्वजन मरकर इस लोकसे चला जायगा, तब उसके विषयमें यह कभी नहीं जान सकोगे कि वह सुखी है या दुखी, अतः इस विषयमें तुम्हें स्वयं ही विचार करना चाहिये” ।। २२ ।।
“तुम जीवित रहो या मर जाओ। तुम्हारा प्रत्येक स््वजन जब अपनी-अपनी करनीका ही फल भोगेगा, तब इस बातको जानकर तुम्हें भी अपने कल्याणके लिये साधनमें लग जाना चाहिये” ।। २३ ।।
'ऐसा जानकर इस संसारमें कौन किसका है, इस बातका भलीभाँति विचार करके अपने मनको मोक्षमें लगा दो और साथ ही पुनः इस बातपर ध्यान दो” ।।
“जिसने क्षुधा, पिपासा, क्रोध, लोभ और मोह आदि भावोंपर विजय पा ली है, वह सत्त्वसम्पन्न पुरुष सदा मुक्त ही है” ।| २५ ।।
“जो मोहवश जूआ, मद्यपान, परस्त्रीसंसर्ग तथा मृगया आदि व्यसनोंमें आसक्त होनेका प्रमाद नहीं करता है, वह भी सदा मुक्त ही है” || २६ ।।
“जो पुरुष सदा प्रत्येक दिन और प्रत्येक रात्रिमें भोग भोगने या भोजन करनेकी ही चिन्तामें पड़कर दुःखी रहता है, वह दोषबुद्धिसे युक्त कहलाता है” || २७ ।।
“जो सदा योगयुक्त रहकर स्त्रियोंके प्रति अपने भाव (अनुराग या आसक्ति)-को निवृत्त हुआ ही देखता है अर्थात् जिसकी स्त्रियोंके प्रति भोग्यबुद्धि नहीं होती, वही वास्तवमें मुक्त है! || २८ ।।
'जो प्राणियोंके जन्म, मृत्यु और चेष्टाओंको ठीक-ठीक जानता है, वह भी इस संसारमें मुक्त ही है' ।।
“जो हजारों और करोड़ों गाड़ी अन्नमेंसे केवल एक प्रस्थ (पेट भरने लायक)-को ही अपने जीवन-निर्वाहके लिये पर्याप्त समझता है (उससे अधिकका संग्रह करना नहीं चाहता) तथा बड़े-से-बड़े महलमें मज्च बिछाने भरकी जगहको ही अपने लिये पर्याप्त समझता है, वह मुक्त हो जाता है” || ३० ।।
“जो इस जगत्को रोगोंसे पीड़ित, जीविकाके अभावसे दुर्बल और मृत्युके आघातसे नष्ट हुआ देखता है, वह मुक्त हो जाता है” || ३१ ।।
“जो ऐसा देखता है, वह संतुष्ट एवं मुक्त होता है; किंतु जो ऐसा नहीं देखता, वह मारा जाता है--जन्म, मृत्युके चक्रमें पड़ा रहता है। जो थोड़ेसे लाभमें ही संतुष्ट रहता है, वह इस जगत्में मुक्त ही है” || ३२ ।।
“जो इस सम्पूर्ण जगत्को अग्नि और सोम (भोक्ता और भोज्य) रूप ही देखता है और स्वयंको उनसे भिन्न समझता है, उसे मायाके अद्भुत भाव--सुख-दुःख आदि छू नहीं सकते। वह सर्वथा मुक्त ही है" || ३३ ।।
“जिस देहधारीके लिये पलंगकी सेज और भूमि--दोनों समान है; जो अगहनीके चावल और कोदो आदिको एक-सा समझता है, वह मुक्त ही है” || ३४ ।।
“जिसके लिये सनके वस्त्र, कुशके चीर, रेशमी वस्त्र, वल्कल, ऊनी वस्त्र और मृगचर्म --सब समान हैं, वह भी मुक्त ही है” || ३५ ।।
“जो संसारको पाज्चभौतिक देखता और उस दृष्टिके अनुसार ही बर्ताव करता है, वह भी इस जगत्में मुक्त ही है! ।। ३६ ।।
“जिसकी दृष्टिमें सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय सम है तथा जिसके इच्छा-द्वेष, भय और उद्वेग सर्वथा नष्ट हो गये हैं, वही मुक्त है” || ३७ ।।
“यह शरीर क्या है, बहुत-से दोषोंका भण्डार। इसमें रक्त, मल-मूत्र तथा और भी अनेक दोषोंका संचय हुआ है। जो इस बातको देखता और समझता है, वह मुक्त हो जाता है! ॥| ३८ ।।
“बुढ़ापा आनेपर इस शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। सिरके बाल सफेद हो जाते हैं। देह दुबली-पतली एवं कान्तिहीन हो जाती है तथा कमर झुक जानेके कारण मुनष्य कुबड़ा-सा हो जाता है। इन सब बातोंकी ओर जिसकी सदा ही दृष्टि रहती है, वह मुक्त हो जाता है! || ३९ |।
“समय आनेपर पुरुषत्व नष्ट हो जाता है, आँखोंसे दिखायी नहीं देता है, कान बहरे हो जाते हैं और प्राणशक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाती है। इन सब बातोंको जो सदा देखता और इनपर विचार करता रहता है, वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है” || ४० ।।
“कितने ही ऋषि देवता तथा असुर इस लोकसे परलोकको चले गये। जो सदा यह देखता और स्मरण रखता है वह मुक्त हो जाता है” || ४१ ।।
“सहस्रों प्रभावशाली नरेश इस पृथ्वीको छोड़कर कालके गालमें चले गये। इस बातको जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है” || ४२ ।।
'संसारमें धन दुर्लभ है और क्लेश सुलभ। कुट॒म्बके पालन-पोषणके लिये भी जहाँ बहुत दुःख उठाना पड़ता है, यह सब जिसकी दृष्टिमें है, वह मुक्त हो जाता है" || ४३ ।।
“इतना ही नहीं, इस जगत्में अपनी संतानोंकी गुणहीनताका दुःख भी देखना पड़ता है। विपरीत गुणवाले मनुष्योंसे भी सम्बन्ध हो जाता है। इस प्रकार जो यहाँ अधिकांश कष्ट ही देखता है, ऐसा कौन मनुष्य मोक्षका आदर नहीं करेगा?” || ४४ ।।
“जो मनुष्य शास्त्रोंक अध्ययन तथा लौकिक अनुभवसे भी ज्ञानसम्पन्न होकर समस्त मानव-जगत्को सारहीन-सा देखता है, वह सब प्रकारसे मुक्त ही है' ।।
“मेरे इस वचनको सुनकर तुम अपनी बुद्धिको व्याकुलतासे रहित बनाकर गृहस्थाश्रममें या संन्यास-आश्रममें चाहे जहाँ रहकर मुक्तकी भाँति आचरण करो” ।।
राजा सगर अरिष्टनेमिके उपर्युक्त उपदेशको भलीभाँति सुनकर मोक्षोपयोगी गुणोंसे सम्पन्न हो प्रजाका पालन करने लगे || ४७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें सपर और अरिष्टनेमिका संवादविषयक दो सौ अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ नवासीवें अध्याय के श्लोक 1-38 का हिन्दी अनुवाद)
“भृगुपुत्र 3उशनाका चरित्र और उन्हें शुक्र नामकी प्राप्ति”
युधिष्ठिरने पूछा--तात! कुरुकुलके पितामह! मेरे हृदयमें चिरकालसे यह एक कौतूहलपूर्ण प्रश्न खड़ा है, जिसका समाधान मैं आपके मुखसे सुनना चाहता हूँ ।। १ ।।
परम बुद्धिमान् कवित्वसम्पन्न देवर्षि उशना क्यों सदा ही असुरोंका प्रिय तथा देवताओंका अप्रिय करनेमें लगे रहते हैं? || २ ।।
उन्होंने अमित तेजस्वी दानवोंका तेज किसलिये बढ़ाया? दानव तो सदा श्रेष्ठ देवताओंके साथ वैर ही बाँधे रहते हैं ।। ३ ।।
देवोपम तेजस्वी मुनिवर उशनाका नाम शुक्र क्यों हो गया? उन्हें ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई? यह सब मुझे बताइये ।। ४ ।।
पितामह! देवर्षि उशना हैं तो बड़े तेजस्वी; परंतु वे आकाशके बीचसे होकर क्यों नहीं जाते? इन सब बातोंको मैं पूर्णरूपसे जानना चाहता हूँ ।। ५ ।।
भीष्मजीने कहा--निष्पाप नरेश! मैंने इन सब बातोंको पहले जिस तरह सुन रखा है, वह सारा वृत्तान्त अपनी बुद्धिके अनुसार यथार्थरूपसे बता रहा हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो || ६ ||
ये भृगुपुत्र मुनिवर उशना सबके लिये माननीय तथा दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हैं। एक विशेष कारण बन जानेसे रुष्ट होकर ये देवताओंके विरोधी हो गये+- |। ७ ।।
उस समय इन्द्र तीनों लोकोंके अधीश्वर थे और सदा यक्षों तथा राक्षसोंके अधिपति प्रभावशाली जगत्पति राजा कुबेर उनके कोषाध्यक्ष बनाये गये थे ।। ८ ।।
योगसिद्ध महामुनि उशनाने योगबलसे धनाध्यक्ष कुबेरके भीतर प्रवेश करके उन्हें अपने काबूमें कर लिया और उनके सारे धनका अपहरण कर लिया ।। ९ |।
धनका अपहरण हो जानेपर कुबेरको चैन नहीं पड़ा। वे कुपित और उद्दिग्न होकर देवेश्वर महादेवजीके पास गये || १० ।।
उस समय उन्होंने अमित तेजस्वी अनेक रूपधारी सौम्य एवं शिवस्वरूप देवेश्वर रुद्रसे इस प्रकार निवेदन किया ।। ११ ।।
'प्रभो! महर्षि उशना योगबलसे सम्पन्न हैं। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे बंदी बनाकर मेरा सारा धन हर लिया। वे महान् तपस्वी तो हैं ही, योगबलसे मुझे अपने अधीन करके अपना काम बनाकर निकल गये” ।। १२ ।।
राजन्! यह सुनकर महायोगी महेश्वर कुपित हो गये और लाल आँखें किये हाथमें त्रिशूल लेकर खड़े हो गये ।। १३ ।।
उस उत्तम अस्त्रको लेकर वे सहसा बोल उठे--'कहाँ है, कहाँ है वह उशना?' महादेवजी क्या करना चाहते हैं, यह जानकर उशना उनसे दूर हो गये ।। १४ ।।
महायोगी महात्मा भगवान् शिवके उस रोषको समझकर वे उनसे दूर हट गये थे, योगसिद्ध उशना, गमन, आगमन और स्थानको जानते थे। अर्थात् कब हटना चाहिये, कब आना चाहिये, तथा किस अवस्थामें कहीं अन्यत्र न जाकर अपने स्थानपर ही ठहरे रहना चाहिये, इन सब बातोंको वे अच्छी तरह समझते थे ।।
योगसिद्धात्मा उशना अपनी उग्र तपस्याद्वारा महात्मा महेश्वरका चिन्तन करके उनके त्रिशूलके अग्रभागमें दिखायी दिये || १६ ।।
तपःसिद्ध शुक्राचार्यको उस रूपमें पहचानकर देवेश्वर शिवने उन्हें शूलपर स्थित जानकर अपने अनुषयुक्त हाथसे उस शूलको झुका दिया ।। १७ ।।
जब अमित तेजस्वी शूल उनके हाथसे मुड़कर धनुषके रूपमें परिणत हो गया, तब उग्र धनुर्धर भगवान् शिवने पाणिसे आनत होनेके कारण उस शूलको 'पिनाक' कहा ।। १८ ।।
उसके मुड़नेके साथ ही भृगुपुत्र उशना उनके हाथमें आ गये, उशनाको हाथमें आया देख देवेश्वर उमावललभ भगवान् शिवने मुँह फैला लिया और धीरेसे हाथका धक्का देकर उशनाको मुखके भीतर डाल दिया ।। १९ |।
महादेवजीके पेटमें घुसकर प्रभावशाली महामना भृगुनन्दन उशना उसके भीतर सब ओर विचरने लगे ।।
युधिछ्टिरने पूछा--राजन्! महातेजस्वी उशनाने बुद्धिमान् देवाधिदेव महादेवजीके उदरमें किसलिये विचरण किया और वहाँ क्या किया? ।। २१ ।।
भीष्मजीने कहा--नरेश्वर! प्राचीनकालमें महान् व्रतधारी महादेवजी जलके भीतर हूँठे काठकी भाँति स्थिर भावसे खड़े हो लाखों-अरबों वर्षोतक तपस्या करते रहे || २२ ।।
वह दुष्कर तपस्या पूरी करके जब वे जलके उस महान् सरोवरसे बाहर निकले, तब देवदेव ब्रह्माजी उनके पास गये || २३ ।।
अविनाशी ब्रह्माजीनी उनकी तपोवृद्धिका कुशल-समाचार पूछा। तब भगवान् वृषभध्वजने यह बताया कि “मेरी तपस्या भलीभाँति सम्पन्न हो गयी” ।। २४ ।।
तत्पश्चात् परम् बुद्धिमान, अचिन्त्यस्वरूप और सदा सत्यधर्मपरायण महादेवजीने अपनी तपस्याके सम्पर्कसे उशनाकी तपस्यामें भी वृद्धि हुई देखी ।। २५ ।।
महाराज! महायोगी उशना उस तपस्यारूप धनसे सम्पन्न एवं शक्तिशाली हो तीनों लोकोंमें प्रकाशित होने लगे || २६ ।।
तदनन्तर पिनाकधारी योगी महादेवने ध्यान लगाया। उस समय उशना अत्यन्त उद्धिग्न हो उनके उदरमें ही विलीन होने लगे || २७ ।।
महायोगी उशनाने वहीं रहकर महादेवजीकी स्तुति की। वे निकलनेका मार्ग चाहते थे; परंतु महादेवजी उनकी गतिको प्रतिहत कर देते थे || २८ ।।
शत्रुदमन नरेश! तब उदरमें ही रहकर महामुनि उशनाने महादेवजीसे बारंबार प्रार्थना की--'प्रभो! मुझपर कृपा कीजिये” ।। २९ ।।
तब महादेवजीने उनसे कहा--'शिश्नके मार्गसे ही तुम्हारा उद्धार होगा, अतः उसीसे निकलो।' ऐसा कहकर देवेश्वर शिवने अन्य सारे द्वार रोक दिये ।। ३० ।।
सब ओरसे घिरे हुए मुनिवर उशना उस शिक्नषद्वारको देख नहीं पाते थे। अतः भगवान् शंकरके तेजसे दग्ध होते हुए वे उदरमें ही इधर-उधर चक्कर काटने लगे ।।
तत्पश्चात् वे शिक्षके द्वारसे निकलकर सहसा बाहर आ गये। उस द्वारसे निकलनेके कारण ही उनका नाम शुक्र (वीर्य) हो गया। यही कारण है जिससे वे आकाशके बीचसे होकर नहीं निकलते ।। ३२ ।।
बाहर निकलनेपर शुक्र अपने तेजसे प्रज्वलित-से हो रहे थे। उन्हें उस अवस्थामें देखकर हाथमें त्रिशूल लेकर खड़े हुए भगवान् शिव पुनः रोषसे भर गये ।। ३३ ।।
उस समय देवी पार्वतीने कुपित हुए अपने पतिदेव भगवान् पशुपतिको रोका। देवीके द्वारा भगवान् शंकरके रोक दिये जानेपर शुक्राचार्य उनके पुत्रभावको प्राप्त हुए || ३४
देवी पार्वतीने कहा--प्रभो! अब यह शुक्र मेरा पुत्र हो गया; अतः आपको इसका विनाश नहीं करना चाहिये। देव! जो आपके उदरसे निकला हो, ऐसा कोई भी पुरुष विनाशको नहीं प्राप्त हो सकता ।। ३५ |।
राजन! यह सुनकर महादेवजी पार्वतीपर बहुत प्रसन्न हुए और हँसते हुए बारंबार कहने लगे--“अब यह जहाँ चाहे जा सकता है' || ३६ ।।
तदनन्तर बुद्धिमान महामुनि शुक्राचार्यने वरदायक देवता महादेवजी तथा उमादेवीको प्रणाम करके अभीष्ट गति प्राप्त कर ली ।। ३७ ।।
भरतश्रेष्ठ! तात युधिष्ठिर! तुमने जैसा मुझसे पूछा था, उसके अनुसार मैंने यह महात्मा भुगुपुत्र शुक्राचार्यका चरित्र तुमसे कह सुनाया ।। ३८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मगहादेवजी और शुक्राचार्यका समागमविषयक दी सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- कहते हैं, किसी समय असुरगण देवताओंको कष्ट पहुँचाकर भृगुपत्नीके आश्रममें जाकर छिप जाते थे। असुरोंने “माता” कहकर उनकी शरण ली थी और उन्होंने पुत्र मानकर उन सबको निर्भय कर दिया था। देवता जब असुरोंको दण्ड देनेके लिये उनका पीछा करते हुए आते, तब भृगुपत्नीके प्रभावसे उनके आश्रममें प्रवेश नहीं कर पाते थे। यह देख समस्त देवताओं ने भगवान् विष्णुकी शरण ली। भुवनपालक भगवान् विष्णुने देवताओं और दैवी-सम्पत्तिकी रक्षाके लिये चक्र उठाया, तथा असुरों एवं आसुर भावके उत्थानमें योग देनेवाली भूगुपत्नीका सिर काट लिया। उस समय मरनेसे बचे हुए असुर भृगुपुत्र उशनाकी शरणमें गये। उशना माताके वधसे खिन्न थे; इसलिये उन्होंने असुरोंको अभयदान दे दिया। तभीसे वे देवताओंकी उन्नतिके मार्गमें असुरोंद्वारा बाधाएँ खड़ी करते रहते हैं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ नब्बेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ नब्बेवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)
“पराशरगीताका आरम्भ--पराशर मुनिका राजा जनकको कल्याणकी प्राप्तिके साधनका उपदेश”
युधिष्ठिरने कहा--महाबाहु पितामह! अब इसके बाद जो भी कल्याण-प्राप्तिका उपाय हो, वह मुझे बताइये। जैसे अमृत पीनेसे मन नहीं भरता, उसी तरह आपके वचन सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं होती है ।। १ ।।
पुरुषप्रवर! इसीलिये मैं पूछता हूँ कि पुरुष कौन-सा शुभ कर्म करे तो इसे इस लोक और परलोकमें भी परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है, यह मुझे बतानेकी कृपा करें ।। २ ।॥।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें भी मैं तुम्हें पूर्ववत् एक प्राचीन प्रसंग सुनाऊँगा। एक समय महा-यशस्वी राजा जनकने महात्मा पराशर मुनिसे पूछा-- ।।
“मुने! कौन-सी ऐसी वस्तु है जो समस्त प्राणियोंके लिये इहलोक और परलोकमें भी कल्याणकारी एवं जानने योग्य है? उसे आप मुझे बताइये” || ४ ।।
तब सम्पूर्ण धर्मोके विधानको जाननेवाले वे तपस्वी मुनि राजा जनकपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे इस प्रकार बोले ।। ५ ।।
पराशरजीने कहा--राजन्! जैसा कि मनीषी पुरुषोंका कथन है, धर्मका ही विधिपूर्वक अनुष्ठान किया जाय तो वह इहलोक और परलोकमें भी कल्याणकारी होता है। उससे बढ़कर दूसरा कोई श्रेयका उत्तम साधन नहीं है ।।
नृपश्रेष्ठ! धर्मको जानकर उसका आश्रय लेनेवाला मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। वेदोंमें जो 'सत्यं वद, धर्म चर, यजेत, जुहुयात्” इत्यादि वाक्योंद्वारा मनुष्योंका कर्तव्य विधान किया गया है, वही धर्मका लक्षण है ।। ७ ।।
सभी आश्रमोंके लोग उस धर्ममें ही स्थित रहकर इस जगत्में अपने-अपने कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं ।।
तात! इस लोकमें चार प्रकारकी जीविकाका विधान है (ब्राह्मणके लिये यज्ञादि कराकर दक्षिणा लेना, क्षत्रियके लिये कर लेना, वैश्यके लिये खेती आदि करना और शाूद्रके लिये तीनों वर्णोकी सेवा करना)। मनुष्य इन्हीं चार प्रकारकी जीविकाओंका आश्रय लेकर रहते हैं। वह जीविका दैवेच्छासे चलती है ।। ९ ।।
जो प्राणी नाना प्रकारके क्रमसे पुण्य और पापकर्मका सेवन करके पज्चत्वको प्राप्त हो गये हैं अर्थात् स्थूल शरीरका त्याग कर देते हैं, उनको मिलनेवाली गति नाना प्रकारकी बतायी गयी है || १० ।।
जैसे ताँबे आदिके बर्तनोंपर जब सोने और चाँदीकी कलई चढ़ा दी जाती है तब वे वैसे ही दिखायी देने लगते हैं। उसी प्रकार पूर्व कर्मोके वशीभूत प्राणी पूर्वकृत कर्मसे लिप्त रहता है (पुण्यकर्मसे लिप्त होनेके कारण वह सुखी होता है और पापसे लिप्त होनेके कारण उसे दुःख उठाना पड़ता है) || ११ ।।
जैसे बिना बीजके कोई अंकुर पैदा नहीं होता, उसी प्रकार पुण्यकर्म किये बिना कोई सुखी या समृद्धिशाली नहीं हो सकता; अतः मनुष्य देहत्यागके पश्चात् पुण्यकर्मोंके फलसे ही सुख पाता है || १२ ।।
तात! इस विषयमें नास्तिक कहते हैं “मैं प्रारब्धको प्रत्यक्ष नहीं देख पाता तथा प्रारब्धके अस्तित्वका सूचक अनुमानप्रमाण भी नहीं है। किंतु देवता, गन्धर्व और दानव आदि योनियाँ तो स्वभावसे ही प्राप्त होती हैं” ।।
इसके उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि मरकर गये हुए प्राणी पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोको सदैव याद नहीं रख सकते। किंतु जब किसी पूर्वकृत कर्मका फल प्राप्त होता है तब वे ही लोग सदा (मन, वाणी, नेत्र और क्रियाद्वारा किये हुए) चार प्रकारके कर्मोंका स्मरण करते हैं--अर्थात् यह कहते हैं कि मैंने पूर्व जन्ममें कोई ऐसा कर्म किया होगा जिसका फल इस रूपमें प्राप्त हुआ है ।।
तात! नास्तिक लोग जो यह कहते हैं कि लोकयात्राके निर्वाह और मनकी शान्तिके लिये वेदोक्त शब्दोंको प्रमाण माना गया है; अर्थात् वेदोंमें जो कर्म करनेका विधान है, वह तो असमर्थ पुरुषोंके जीविकानिर्वाहके लिये है और जो पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी चर्चा आयी है वह दुखी मनुष्योंके मनको धीरज बँधानेके लिये है, परंतु यह मत ठीक नहीं है; क्योंकि पतजञ्जलि आदि ज्ञानवृद्ध पुरुषोंने ऐसा उपदेश नहीं किया है (पतञ्जलिने “तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:” इस सूत्रके द्वारा जाति (जन्म), आयु और सुख-दुःखरूप भोगको पूर्वकृत कर्मका फल बताया है) ।। १५ ।।
मनुष्य नेत्र, मन, वाणी और क्रियाके द्वारा चार प्रकारके कर्म करता है और जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल पाता है ।। १६ ।।
राजन! मनुष्य कर्मके फलरूपसे कभी केवल सुख, कभी सुख-दुःख दोनोंको एक साथ प्राप्त करता है। पुण्य या पाप कोई भी कर्म क्यों न हो, फल भोगे बिना उसका नाश नहीं होता ।। १७ ।।
तात! संसार-सागरमें डूबते हुए मनुष्यका पुण्यकर्म कभी-कभी तबतक स्थिर-जैसा रहता है जबतक कि दुःखसे उसका छुटकारा नहीं हो जाता। तदनन्तर दुःखका भोग समाप्त कर लेनेपर जीव अपने पुण्य कर्मके फलका उपभोग आरम्भ करता है। जब पुण्यका भी क्षय हो जाता है तब फिर वह पापका फल भोगता है। नरेश्वर! इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो ।।
इन्द्रियसंयम, क्षमा, धैर्य, तेज, संतोष, सत्यभाषण, लज्जा, अहिंसा, दुर्व्यसनका अभाव तथा दक्षता--ये सब सुख देनेवाले हैं || २० ।।
विद्वान् पुरुषको जीवनपर्यन्त पाप या पुण्यमें भी आसक्त न होकर अपने मनको परमात्माके ध्यानमें लगानेका प्रयत्न करना चाहिये || २१ ।।
जीव दूसरेके किये हुए शुभ अथवा अशुभ कर्मको नहीं भोगता, वह स्वयं जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है ।। २२ ।।
विवेकी पुरुष सुख और दुःखको अपने भीतर विलीन करके अन्य मार्गसे अर्थात् मोक्षप्राप्तिके मार्गद्वारा चलता है। जो स्त्री, पुत्र और धन आदिमें आसक्त हैं, वे सब संसारी जीव उससे भिन्न दूसरे ही मार्गपर चलते हैं; अत: जन्मते और मरते रहते हैं || २३ ।।
मनुष्य दूसरेके जिस कर्मकी निन्दा करे, उसको स्वयं भी न करे। जो दूसरेकी निन्दा करता है; किंतु स्वयं उसी निन्द्य कर्ममें लगा रहता है, वह उपहासका पात्र होता है ।।
राजन! डरपोक क्षत्रिय, (भक्ष्याभक्ष्यका विचार न करके) सब कुछ खानेवाला ब्राह्मण, धनोपार्जनकी चेष्टासे रहित या अकर्मण्य वैश्य, आलसी शाूद्र, उत्तम गुणोंसे रहित विद्वान, सदाचारका पालन न करनेवाला कुलीन पुरुष, सत्यसे भ्रष्ट हुआ धार्मिक पुरुष, दुराचारिणी स्त्री, विषयासक्त योगी, केवल अपने लिये भोजन बनानेवाला मनुष्य, मूर्ख वक्ता, राजासे रहित राष्ट्र तथा अजितेन्द्रिय होकर प्रजाके प्रति स्नेह न रखनेवाला राजा--ये सब-के-सब शोकके योग्य हैं, अर्थात् निन्दनीय हैं || २५-२६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पराशरगीताविषयक दो सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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