सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पचासीवें अध्याय के श्लोक 1-46 का हिन्दी अनुवाद)
“अध्यात्मज्ञानका और उसके फलका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! शास्त्रमें पुरुषके लिये जो यह अध्यात्मतत्त्व बताया गया है, वह अध्यात्म क्या है और उसकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--तात! तुम मुझसे जिस अध्यात्मतत्त्वको पूछ रहे हो, वह बुद्धिके द्वारा सभी विषयोंका उत्तम ज्ञान प्रदान करनेवाला है। मैं तुमसे उसकी व्याख्या करूँगा, तुम उस व्याख्याको ध्यान देकर सुनो ।। २ ।।
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज--ये पाँच महाभूत समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान हैं ।। ३ ।।
भरतश्रेष्ठ! प्राणियोंका शरीर उन्हीं पाँचों महाभूतोंका कार्यसमूह है। वे कार्यरूपमें परिणत भूतगण सदा लीन होते और प्रकट होते रहते हैं ।। ४ ।।
जैसे महाभूत सूक्ष्म भूतोंसे प्रकट होते और उन्हींमें लयको प्राप्त होते हैं; तथा जैसे लहरें समुद्रसे प्रकट होकर फिर उसीमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार परमात्मासे समस्त प्राणी उत्पन्न होते और पुनः उसीमें लीन हो जाते हैं || ५ ।।
जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगोंको फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंक शरीर आकाश आदि पाँच महाभूतोंसे उत्पन्न होते और फिर उन्हींमें लीन हो जाते हैं ।। ६ ।।
शरीरमें जो शब्द होता है, वह आकाशका गुण है। यह स्थूल शरीर पृथ्वीका गुण या कार्य है। प्राण वायुका, रस जलका तथा रूप तेजका गुण बताया जाता है ।। ७ ।।
इस प्रकार यह समस्त स्थावर-जड़म शरीर पञ्चभूतमय ही है। प्रलयकालमें यह परमात्मामें ही लीन होता है और सृष्टिके आरम्भमें पुनः उन्हींसे प्रकट हो जाता है ।।
सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले ईश्वरने समस्त प्राणियोंमें पठचमहाभूतोंका ही विभागपूर्वक समावेश किया है। देहके भीतर जिस भूतके स्थित होनेसे मनुष्य जो कार्य देखता है, वह बताता हूँ; सुनो || ९ ।।
शब्द, श्रोत्रेन्द्रिय और सम्पूर्ण छिद्र--ये तीन आकाशके कार्य हैं। रस, स्नेह तथा जिह्ा --ये तीनों जलके गुण या कार्य माने गये हैं ।। १० ।।
रूप, नेत्र और परिपाक--इन तीन गुणोंके रूपमें तेजकी ही स्थिति बतायी जाती है। गन्ध, प्राण तथा शरीर--ये तीनों भूमिके गुण माने गये हैं ।। ११ ।।
प्राण, स्पर्श और चेष्टा--ये तीनों वायुके गुण बताये गये हैं। राजन्! इस प्रकार मैंने समस्त पाञ्चभौतिक गुणोंकी व्याख्या कर दी || १२ ।।
भरतनन्दन! ईश्वरने इन प्राणियोंके शरीरोंमें सत्त्व, रज, तम, काल, कर्म, बुद्धि तथा मनसहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंकी कल्पना की है ।। १३ ।।
पैरोंके तलुओंसे लेकर ऊपरकी ओर और मस्तकसे नीचेकी ओर जितना भी शरीर है, इसके भीतर यह बुद्धि पूर्णरूपसे व्याप्त हो रही है ।। १४ ।।
मानव-शरीरमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन बताया जाता है। बुद्धिको सातवीं और क्षेत्रञको आठवाँ कहते हैं || १५ ।।
पाँच इन्द्रियाँ और जीवात्मा--इन सबको कार्य-विभागके अनुसार अलग-अलग समझना चाहिये। सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण तथा उनके सात्विक, राजस और तामस भाव जीवात्माके ही आश्रित हैं ।। १६ ।।
नेत्र आदि इन्द्रियाँ दर्शन आदि कार्योंके लिये हैं। मन संशय करता है और बुद्धि उस विषयका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिये है। क्षेत्रज्ञ (आत्मा)-को साक्षी बताया जाता है। भरतनन्दन! सत्त्व, रज, तम, काल और कर्म--इन पाँच गुणोंद्वारा बुद्धि बार-बार विभिन्न विषयोंकी ओर ले जायी जाती है। बुद्धि मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंका संचालन करती है। यदि बुद्धि न हो तो ये गुण--इन्द्रिय आदि कैसे कोई कार्य कर सकते हैं ।।
बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उस इन्द्रियका नाम दृष्टि या नेत्र है। वही अपने वृत्तिविशेषके द्वारा जब सुनने लगती है, तब श्रोत्र कहलाती है। गन्धको ग्रहण करते समय वह प्राण बन जाती है। रसास्वादन करते समय रसना कहलाती है और स्पर्शोका अनुभव करते समय वही स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) नाम धारण करती है। इस प्रकार बुद्धि बार-बार विकृत होती है। जब वह कुछ प्रार्थना (याचना) करती है, तब मन बन जाती है ।।
बुद्धिके ये जो पृथक्ू-पृथक् पाँच अधिष्ठान हैं, इन्हींको इन्द्रिय कहते हैं। इन इन्द्रियोंके दूषित होनेपर बुद्धि भी दूषित हो जाती है || २१ ।।
साक्षी आत्माके आश्रित रहनेवाली बुद्धि सात्विक, राजस और तामस तीन भावोंमें (जो सुख-दुःख और मोहरूप हैं) स्थित होती है, इसीलिये कभी (सत्त्वगुणका उद्रेक होनेपर) उसे आनन्द प्राप्त होता है और कभी (रजोगुणकी अधिकता होनेपर) वह दुःखशोकका अनुभव करती है ।। २२ ।।
कभी (तमोगुणकी अधिकतासे मोहाच्छन्न होनेपर) उसका न सुखसे संयोग होता है न दुःखसे (वह निद्रा और आलस्य आदिमें मग्न रहती है)। इस प्रकार यह भावात्मिका बुद्धि इन तीन भावोंका अनुसरण करती है ।। २३ ।।
जैसे सरिताओंका स्वामी समुद्र उत्ताल तरंगोंसे युक्त होनेपर भी अपनी तटभूमिका उल्लंघन नहीं करता है, उसी प्रकार सात्विक आदि भावोंसे युक्त बुद्धि तीनों गुणोंका उल्लंघन नहीं करती। भावनामय मनमें ही चक्कर लगाती रहती है || २४ ।।
जब रजोगुणकी प्रवृत्ति होती है तब बुद्धि राजसिक भावका अनुसरण करती है। यदि पुरुषमें किसी प्रकार अधिक हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख और चित्तमें शान्ति उपलब्ध हो तो ये सातच्विक गुण हैं || २५३ ।।
जब शरीर या मनमें किसी कारणसे या अकारण ही दाह, शोक, संताप, अपूर्णता (लोभ-लिप्सा) और असहनशीलताके भाव दिखायी देते हों तो उन्हें रजोगुणके चिह्न समझना चाहिये ।। २६६ ।।
यदि किसी प्रकार अविद्या, राग, मोह, प्रमाद, स्तब्धता, भय, दरिद्रता, दीनता, प्रमोह (मूर्च्छा), स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष आ घेरते हों तो उन्हें तमोगुणके ही विविध रूप जाने || २७-२८ ||
ऐसी स्थितिमें शरीर अथवा मनके भीतर यदि कोई प्रसन्नताका भाव हो तो वह साच्चिक भाव है, ऐसा विचार करना चाहिये ।। २९ |।
जब अपने लिये अप्रसन्नताका हेतु और दुःखयुक्त भाव अनुभवमें आये तब रजोगुणकी प्रवृत्ति हुई है--ऐसा अपने मनमें विचार करे तथा वैसे किसी कार्यका आरम्भ न करके उसकी ओरसे अपना ध्यान हटा ले ।।
इसी प्रकार शरीर या मनमें जो मोहयुक्त भाव अतर्कित या अविज्ञातरूपसे उपस्थित हो गया हो, उसके विषयमें यही निश्चय करे कि यह तमोगुण है || ३१ ।।
इस प्रकार बुद्धिकी जितनी अवस्थाएँ हैं उनकी व्याख्या यहाँ कर दी गयी। यह सब जानकर मनुष्य ज्ञानी हो जाता है। इसके सिवा ज्ञानीका और क्या लक्षण हो सकता है? ।। ३२ ।।
बुद्धि और क्षेत्रज् (आत्मा)--ये दोनों सूक्ष्मतत्त्व हैं। इन दोनोंमें जो अन्तर है, उसे समझो। इनमेंसे एक अर्थात् बुद्धि तो गुणोंकी सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणोंकी सृष्टि नहीं करता--केवल साक्षीभावसे देखता रहता है ।। ३३ ।।
वे दोनों बुद्धि और क्षेत्रज्ञ स्वभावत: एक-दूसरेसे भिन्न हैं, परंतु सदा परस्पर मिले हुएसे प्रतीत होते हैं। जैसे मछली जलसे भिन्न है तो भी उससे सदा संयुक्त रहती है, उसी प्रकार बुद्धि और आत्मा परस्पर भिन्न होते हुए भी अभिन्न रहते हैं ।। ३४ ।।
सत्त्व आदि गुण जड होनेके कारण आत्माको नहीं जानते; परंतु आत्मा चेतन है, इसलिये गुणोंको पूर्णरूपसे जानता है। वह गुणोंका साक्षी है तथापि मूढ़ मनुष्य उसे गुणोंसे संश्लिष्ट या संयुक्त समझते हैं || ३५ ।।
बुद्धि जब सत्त्वादि गुणोंकी सृष्टि करती है, उस समय जीवात्मा उसका आश्रय नहीं होता। अन्य गुणोंकी रचना बुद्धि ही करती है और उन गुणोंको जीव कभी जानता है ।। ३६ ||
बुद्धि गुणोंको उत्पन्न करती है और आत्मा केवल देखता है। बुद्धि और आत्माका यह सम्बन्ध अनादि है || ३७ ।।
ज्ञानशक्तिरहित न जाननेवाली इन्द्रियाँ वस्तुओंको प्रकाशित करनेके लिये बुद्धिको बीचमें करती हैं। इन्द्रियाँ तो वस्तुको प्रकट करनेमें दीपककी भाँति केवल सहायक हैं ।। ३८ ।।
इस प्रकार “आत्मा असंग एवं निर्लेप है” इस बातको जानकर मनुष्य शोक, हर्ष और द्वेषका परित्याग करके विचरण करे ।। ३९ ।।
जैसे मकड़ी जाला बुनती है, उसी प्रकार बुद्धि गुणोंकी सृष्टि करती है--यह स्वभावसिद्ध है। अतएव गुणोंको जालेके समान और बुद्धिको मकड़ीके समान जानना चाहिये ।। ४० ।।
वे गुण नष्ट होनेपर पुनः: वापस नहीं आते; क्योंकि फिर उनकी प्रवृत्ति उपलब्ध नहीं होती। एक श्रेणीके विद्वानोंका ऐसा ही निश्चय है। दूसरी श्रेणीके लोग उन नष्ट हुए गुणोंकी पुनरावृत्ति भी मानते हैं ।। ४१ ।।
इस प्रकार बुद्धिकी चिन्तास्वरूप इस सुदृढ़ हृदयग्रन्थिको त्यागककर शोक और संशयसे रहित हो सुखपूर्वक रहना चाहिये ।। ४२ ।।
जलकी गहराईको न जाननेवाले मनुष्य जैसे नदीके तल-प्रदेशमें जाकर दुःखका अनुभव करते हैं, उसी प्रकार बुद्धियोग (ज्ञान)-से अनभिज्ञ सभी मनुष्य इस मोहपूर्ण विशाल संसारनदीमें पड़कर क्लेश भोगते हैं || ४३ ।।
जो तैरनेकी कला जानते हैं, वे तैरकर अगाध जलसे पार हो जाते हैं। उन्हें कष्ट नहीं भोगना पड़ता। उसी प्रकार अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता धीर पुरुष अनायास संसार-सागरको पार कर जाते हैं। उनके लिये परम ज्ञान ही जहाज बन जाता है ।। ४४ ।।
अज्ञानियोंको जिस संसारसे महान् भय बना रहता है, उससे ज्ञानियोंको वह गुरुतर भय तनिक भी नहीं प्राप्त होता है। ज्ञानी पुरुषोंमेंसे किसीको भी अधिक या न्यून गति नहीं प्राप्त होती--वे सब समान गतिके भागी होते हैं। 'सकृद्धिभातो होष ब्रह्मलोक:” इत्यादि श्रुति यहाँ ज्ञानियोंकी गतिकी समानता दिखाती है || ४५ ।।
अज्ञानावस्थामें मनुष्य जो अनेक दोषसे युक्त कर्म करता है और वह पहलेके जो कर्म कर चुका है, उनके लिये शोक करता है। इसके सिवा अज्ञानावस्थामें जो वह दूसरेके किये हुए अप्रिय कर्मको दोषरूपमें देखता है और राग आदि दोषके कारण स्वयं जो दूषित कर्म करता है, वह दोनों ही प्रकारका कार्य वह ज्ञान होनेके बाद नहीं करता है || ४६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पाज्चभौतिक तत्वों का वर्णनविषयक दो सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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