सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) का दो सौ चौरासी अध्याय (From the 284 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ चौरासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौरासीवें अध्याय के श्लोक 1-201 का हिन्दी अनुवाद)

“वरदान देना तथा इस स्तोत्रकी महिमा”

जनमेजयने पूछा--ब्रह्मन! वैवस्वत मन्वन्तरमें प्रचेताओंके पुत्र दक्षप्रजापतिका अश्वमेध यज्ञ कैसे नष्ट हो गया? ।। १ ।।

दक्षके यज्ञमें मेरा आवाहन न होना पार्वतीके दुःखका कारण बन गया है-यह जानकर भगवान्‌ शंकर, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा हैं, जब कुपित हो उठे, तब फिर उन्हींकी कृपापूर्ण प्रसन्नतासे दक्ष-प्रजापतिका यह यज्ञ कैसे सम्पन्न हुआ? मैं यह वृत्तान्त जानना चाहता हूँ, आप इसे यथार्थ रूपसे बतानेकी कृपा करें || २ ।।

वैशम्पायनजीने कहा--प्राचीन कालकी बात है--हिमालयके पार्श्ववर्ती गंगाद्वार (हरिद्वार) के शुभ देशमें, जहाँ ऋषियों तथा सिद्ध पुरुषोंका निवास है, प्रजापति दक्षने अपने यज्ञका आयोजन किया था || ३ ।।

वह स्थान गन्धर्वों और अप्सराओंसे भरा था। भाँति-भाँतिके वृक्षसमूह और लताएँ वहाँ सब ओर छा रही थीं। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ प्रजापति दक्ष ऋषिसमुदायसे घिरे हुए बैठे।

उस समय पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोकके निवासी भी वहाँ जुटे हुए थे और वे सब के सब हाथ जोड़कर प्रजापतिको प्रणाम करके उनकी सेवामें खड़े थे || ४-५ ।।

देवता, दानव, गन्धर्व, पिशाच, नाग, राक्षस, हाहा और हूहू नामक गन्धर्व, तुम्बुरु, नारद, विश्वावसु, विश्वसेन तथा दूसरे-दूसरे गन्धर्व और अप्सराएँ वहाँ उपस्थित थीं ।। ६३||

आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य और मरुदगण--ये सब-के-सब इन्द्रके साथ यज्ञमें भाग लेनेके लिये वहाँ पधारे थे | ७६ ।।

ऊष्मपा (सूर्यकी किरणोंका पान करनेवाले), सोमपा (सोमरस पीनेवाले), धूमपा (यज्ञमें धूम-पान करनेवाले) और आज्यपा (घृत-पान करनेवाले) पितर और ऋषि भी ब्रह्माजीके साथ उस यज्ञमें पधारे थे ।।

ये तथा और भी बहुत-से चतुर्विध प्राणिसमुदाय जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज वहाँ उपस्थित हुए थे | ९३ ।।

जिन्हें निमन्त्रित करके बुलाया गया था, वे सब देवता अपनी पत्नियोंके साथ विमानपर बैठकर आते समय प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे ।।

(महामुनि दधीचि भी उस यज्ञमण्डपमें उपस्थित थे। उन्होंने देखा कि देवता और दानव आदिका समाज तो खूब जुटा हुआ है; परंतु भगवान्‌ शंकर दिखायी नहीं देते हैं। जान पड़ता है उनका आवाहन नहीं किया गया है। इससे उनके मनमें बड़ा दुःख हुआ।) उन सब देवताओंको वहाँ उपस्थित देख दधीचि क्रोधमें भर गये और बोले--'सज्जनो! जिसमें भगवान्‌ शिवकी पूजा नहीं होती है, वह न यज्ञ है और न धर्म। यह यज्ञ भी भगवान्‌ शिवके बिना यज्ञ कहनेयोग्य नहीं रहा। इसका आयोजन करनेवाले लोग वध और बन्धनकी दुर्दशा मे पड़ने वाले है। ओहो काल का कैसा उलट फेर है। ।।११- १२।।

“इस महायज्ञमें अत्यन्त घोर विनाश उपस्थित होनेवाला है; किंतु मोहवश कोई देख नहीं रहे हैं-- समझ नहीं पाते हैं! || १३ ।।

ऐसा कहकर महायोगी दधीचिने जब ध्यान लगाकर देखा, तब उन्हें भगवान्‌ शंकर और मंगलमयी वरदायिनी देवी पार्वतीजीका दर्शन हुआ। उनके पास ही महात्मा नारदजी भी दिखायी दिये, इससे उनको बड़ा संतोष हुआ। योगवेत्ता दधीचिको यह निश्चय हो गया कि ये सब देवता एकमत हो गये हैं। इसीलिये इन्होंने महेश्वरको यहाँ निमन्त्रित नहीं किया है ।। 

यह बात ध्यानमें आते ही दधीचि यज्ञशालासे अलग हो गये और दूर जाकर कहने लगे --'सज्जनो! अपूजनीय पुरुषकी पूजा करनेसे और पूजनीय महापुरुषकी पूजा न करनेसे मनुष्य सदा ही नरहत्याके समान पापका भागी होता है ।। १६-१७ ।।

“मैंने पहले कभी झूठ नहीं कहा है और आगे भी कभी झूठ नहीं कहूँगा। इन देवताओं तथा ऋषियोंके बीचमें मैं सच्ची बात कह रहा हूँ ।। १८ ।।

“भगवान्‌ शंकर सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि करनेवाले, सम्पूर्ण जीवोंके रक्षक, स्वामी तथा सबके प्रभु हैं। तुम सब लोग देख लेना, वे इस यज्ञमें प्रधान भोक्ताके रूपमें उपस्थित होंगे! || १९ ।।

दक्षने कहा--हाथोंमें शूल और मस्तकपर जटाजूट धारण करनेवाले बहुत-से रुद्र हमारे यहाँ रहते हैं। वे ग्यारह हैं और ग्यारह स्थानोंमें निवास करते हैं। उनके सिवा दूसरे किसी महेश्वरको मैं नहीं जानता ।। २० ।।

दधीचि बोले--मैं जानता हूँ, आप सब लोगोंका ही यह मिल-जुलकर किया हुआ निश्चय है। इसीलिये उन महादेवजीको निमन्त्रित नहीं किया गया है; परंतु मैं भगवान्‌ शंकरसे बढ़कर दूसरे किसी देवताको नहीं देखता। यदि यह सत्य है तो प्रजापति दक्षका यह विशाल यज्ञ निश्चय ही नष्ट हो जायगा ।। २१ ।।

दक्षने कहा--महर्षे! देखो, विधिपूर्वक मन्त्रसे पवित्र की हुई यह सारी हवि सुवर्णके पात्रमें रखी हुई है। यह यज्ञेश्वर श्रीविष्णुकोी समर्पित है। भगवान्‌ विष्णुकी कहीं समता नहीं है। मैं उन्हींको हविष्यका यह भाग अर्पित करूँगा। ये भगवान्‌ विष्णु ही सर्वसमर्थ, व्यापक और यज्ञभाग अर्पित करनेके योग्य हैं | २२ ।।

(दूसरी ओर कैलास पर्वतपर) पार्वती देवी (बहुत दुखी होकर) कह रही थीं--आह,, मैं कौन-सा व्रत, दान या तप करूँ, जिसके प्रभावसे आज मेरे पतिदेव अचिन्त्य भगवान्‌ शंकरको यज्ञका आधा अथवा तिहाई भाग अवश्य प्राप्त हो?” ।। २३ ।।

क्षोभमें भरकर इस प्रकार बोलती हुई पत्नीकी बात सुनकर भगवान्‌ शंकर हर्षसे खिल उठे और इस प्रकार बोले--'देवि! कृशोदराज्लि! तू मुझे नहीं जानती, मैं सम्पूर्ण यज्ञोंका ईश्वर हूँ। मेरे विषयमें किस प्रकारके वचन कहना चाहिये, यह भी तुम नहीं जानती || २४ ।।

“पर मैं सब कुछ जानता हूँ। विशाललोचने! जिनका चित्त एकाग्र नहीं है, वे ध्यानशून्य असाधु पुरुष मेरे स्वरूपको नहीं जानते। आज तुम्हारे इस मोहसे इन्द्र आदि देवताओंसहित तीनों लोक सब ओरसे किंकर्तव्य-विमूढ हो गये हैं || २५ ।।

'यज्ञमें प्रस्तोतालोग मेरी स्तुति करते हैं। सामगान करनेवाले ब्राह्मण रथन्तर सामके रूपमें मेरी ही महिमाका गान करते हैं। वेदवेत्ता विप्र मेरा ही यजन करते और ऋत्विजलोग यज्ञमें मुझे ही भाग अर्पित करते हैं! || २६ ।।

देवीने कहा--नाथ! अत्यन्त गँवार पुरुष भी क्‍यों न हो, प्राय: सभी स्त्रियोंके बीचमें अपनी प्रशंसाके गीत गाते और अपनी श्रेष्ठतापर गर्व करते हैं--इसमें तनिक भी संशय नहीं है || २७ |।

श्रीभगवान्‌ शिव बोले--देवेश्वरि! तनुमध्यमे! वरारोहे! वरवर्णिनि! मैं अपनी प्रशंसा नहीं करता हूँ। मेरा प्रभाव देखो। जिसके कारण तुम्हें दुःख हुआ है, उस यज्ञको नष्ट करनेके लिये मैं जिस वीर पुरुषकी सृष्टि कर रहा हूँ” उसपर दृष्टिपात करो ।। २८ ।।

अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यारी पत्नी उमासे ऐसी बात कहकर भगवान्‌ महेश्वरने अपने मुखसे एक अद्भुत एवं भयंकर प्राणीको प्रकट किया, जो उनका हर्ष बढ़ानेवाला था ।। २९ |।

महेश्वरने उस पुरुषको आज्ञा दी--'वीर! तुम दक्षके यज्ञका नाश कर दो।' फिर तो भगवानके मुखसे निकले हुए उस सिंहके समान पराक्रमी एक ही वीरने पार्वतीदेवीके दुःख और क्रोधका निवारण करनेके लिये खेलही खेलमें प्रजापति दक्षके उस यज्ञका विध्वंस कर डाला || ३०३ ||

उस समय भवानीके क्रोधसे प्रकट हुई अत्यन्त भयंकर रूपवाली महाकाली महेश्वरीने भी अपना पराक्रम दिखानेके लिये सेवकोंसहित उस वीरके साथ प्रस्थान किया था ।। ३१ *॥]

(वीरभद्रने किस प्रकार उस यज्ञका विध्वंस किया, यह प्रसंग आगे बताया जाता है--) महादेवजीकी अनुमति जानकर उसने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। वह वीर अपने ही समान शौर्य, रूप और बलसे सम्पन्न था (उसकी कहीं उपमा नहीं थी)। भगवान्‌ शिवका वह सब कुछ करनेमें समर्थ क्रोध ही मूर्तिमान्‌ होकर उस वीरके रूपमें प्रकट हुआ था। उसके बल, वीर्य, शक्ति और पुरुषार्थका कहीं अन्त नहीं था। पार्वतीदेवीके क्रोध और खेदका निवारण करनेवाला वह पुरुष वीरभद्रके नामसे विख्यात हुआ || ३२--३४ ।।

उसने अपने रोमकूपोंसे सैन्य नामवाले गणेश्वरोंको प्रकट किया, जो रुद्रके समान ही होनेके कारण रौद्रगण कहलाये। उन सबके बल-पराक्रम भी रुद्रके ही समान थे || ३५।।

वे भयंकर रूपधारी विशालकाय रुद्रगण सैकड़ों और हजारोंकी टोलियाँ बनाकर अपनी किलकारियोंसे आकाशको गुँजाते हुए-से दक्षयज्ञका विध्वंस करनेके लिये बड़ी तेजीके साथ टूट पड़े ।। ३६६ ।।

उस महाभयंकर कोलाहलसे उस यज्ञमें पधारे हुए समस्त देवता व्याकुल हो उठे। पर्वत टूक-टूक होकर बिखर गये। धरती डोलने लगी, आँधी चलने लगी और समुद्रमें तूफान आ गया ।। ३७-३८ ।।

उस समय आग नहीं जलती थी, सूर्यका प्रकाश फीका पड़ गया; ग्रह, नक्षत्र और चन्द्रमा भी निस्तेज हो गये। इस प्रकार वहाँ चारों ओर अँधेरा छा गया। देवता, ऋषि और मनुष्य--सभी छिप गये--कोई दिखायी नहीं देते थे। दक्षसे अपमानित हुए रुद्रगण यज्ञशालामें सब ओर आग लगाने लगे ।। ३९-४० ।।

दूसरे भयंकर भूत उसी यज्ञके सदस्योंको पीटने लगे। कुछ यूप उखाड़ने लगे। बहुतेरे रुद्रगण यज्ञकी सामग्रीको कुचलने और रौंदने लगे ।। ४१ ।।

वायु और मनके समान वेगशाली कितने ही पार्षद इधर-उधर दौड़ लगाने लगे। कुछ लोग यज्ञके उपयोगमें आनेवाले पात्रों तथा दिव्य आभूषणोंको चूर-चूर कर रहे थे ।। ४२ ।

उनके बिखरकर गिरते हुए टुकड़े आकाशगमें छिटके हुए तारोंके समान दिखायी देते थे। उस यज्ञभूमिमें जहाँ-तहाँ दिव्य अन्न, पान और भक्ष्य पदार्थोंके पर्वतों-जैसे ढेर दिखायी देते थे || ४३ ।।

दूधकी दिव्य नदियाँ वहाँ बहती दीखती थीं, घी और खीरकी कीच जम गयी थी, दही और मट्ठा पानीकी तरह बह रहे थे तथा खाँड़ और शक्कर वहाँ बालूकी भाँति बिछ गये थे ।। ४४ ।।

ये सब नदियाँ षट्रस भोजन प्रवाहित कर रही थीं। गुड़के रसकी छोटी-छोटी मनोरम नहरें दृष्टिगोचर होती थीं। नाना प्रकारके फलोंके गूदे और भाँति-भाँतिके भक्ष्य-पदार्थ प्रस्तुत किये गये थे || ४५ ।।

दिव्य पेय पदार्थ, लेह्ठ और चोष्य आदि जो-जो भोजन वहाँ उपलब्ध हुए, उन सबको वे रुद्रणण अपने विविध मुखोंद्वारा खाने, नष्ट करने और चारों ओर छींटने तथा फेंकने लगे।

वे विशालकाय भूत रुद्रदेवके क्रोधसे कालाग्निके समान होकर देवताओंकी सेनाओंको चारों ओरसे डराने और क्षुब्ध करने लगे || ४७ ।।

अनेक प्रकारकी आकृतिवाले वे रुद्रगण खेलते-कूदते और देवांगनाओंको दूर फेंक देते थे। यद्यपि सम्पूर्ण देवताओंने मिलकर प्रयत्नपूर्वक उस यज्ञकी रक्षा की थी तथापि रुद्रकर्मा वीरभद्रने रुद्रदेवके क्रोधसे प्रेरित हो सब ओरसे शीघ्र ही उसे जलाकर भस्म कर दिया | ४८३ ||

तत्पश्चात्‌ उसने ऐसी भीषण गर्जना की, जो समस्त प्राणियोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाली थी। फिर उसने यज्ञका सिर काटकर बड़े जोरसे सिंहनाद किया और मन-ही-मन आनन्दका अनुभव किया ।। ४९६ ||

तब ब्रह्मा आदि देवता तथा प्रजापति दक्ष--ये सब के-सब हाथ जोड़कर बोले --देवदेव! कहिये, आप कौन हैं?” || ५०½ ।।

वीरभद्रने कहा--ब्रह्मन! मैं न तो रुद्र हूँ, न देवी हूँ और न यहाँ भोजन करनेके लिये ही आया हूँ। तुम्हारा यह यज्ञ देवी पार्वतीके रोषका कारण बन गया है--ऐसा जानकर सर्वात्मा भगवान्‌ शिव कुपित हो उठे हैं ।। ५१ ३ ।।

मैं यहाँ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणोंका दर्शन करने या कौतूहलवश इस यज्ञका तमाशा देखनेके लिये नहीं आया हूँ। तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैं तुम्हारे इस यज्ञका विनाश करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ ।।

मेरा नाम वीरभद्र है। रुद्रदेवके क्रोधसे मेरा प्राकटय हुआ है। यह नारी भद्रकालीके नामसे विख्यात है और देवी पार्वतीके कोपसे प्रकट हुई है। देवाधिदेव महादेवने हम दोनोंको यहाँ भेजा है। इसलिये हम दोनों इस यज्ञके निकट आये हैं || ५३-५४ 

विप्रवर! तुम देवाधिदेव उमावललभ भगवान्‌ शिवकी शरणमें जाओ। महादेवजीका क्रोध भी परम मंगलमय है और दूसरोंसे मिला हुआ वरदान भी मंगलकारक नहीं होता ।। ५५ ||

वीरभद्रकी यह बात सुनकर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ दक्षने भगवान्‌ शिवके उद्देश्यसे प्रणाम करके निम्नांकित स्तोत्रके द्वारा उनकी स्तुति की-- ।। ५६ ।।

“जो सम्पूर्ण जगत्‌के शासक, पालक, महान्‌ आत्मा, नित्य, सनातन, अविकारी और आराध्यदेव हैं, उन महादेवजीकी आज मैं शरण लेता हूँ” ।। ५७ ।।

तब अनेक नेत्रोंवाले, शत्रुविजयी, महादेव अपने मुखोंद्वारा यत्नपूर्वक प्राण और अपान वायुको अवरुद्ध करके सम्पूर्ण दिशाओंमें दृष्टिपात करते हुए सहसा अग्निकुण्डसे निकल पड़े। प्रलयकालीन अग्निके समान तेजस्वी स्वरूपसे सहस्रों सूर्योकी प्रभा धारण किये वे दक्षके सामने खड़े हो गये और मुसकराकर बोले--“प्रजापते! बोलो, मैं आज तुम्हारा कौनसा कार्य सिद्ध करूँ” || ५८-५९ ३ ।।

उस समय देवगुरु बृहस्पतिने महादेवजीको वेदका मखाध्याय पढ़कर सुनाया। तत्पश्चात्‌ प्रजापति दक्ष दोनों नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहाते हुए हाथ जोड़कर भय और शंकासे सहमे हुए-से बोले--“भगवन्‌! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, यदि मैं आपका प्रिय हूँ, आपके अनुग्रहका पात्र हूँ अथवा यदि आप मुझे वर देनेको उद्यत हैं तो मैं यही वर माँगता हूँ कि मैंने दीर्घकालसे महान्‌ प्रयत्न करके जो ऐसा यज्ञ-सम्भार जुटा रखा था, उसमेंसे जो चला दिया गया, खा-पी लिया गया, नष्ट किया गया अथवा चूर-चूर करके फेंक दिया गया, वह सब मेरे लिये व्यर्थ न हो” || ६०--६४ ।।

तब धर्मके अध्यक्ष, प्रजापालक, विखूपाक्ष, त्रिनेत्रधारी, भगनेत्रहारी देवेश्वर भगवान्‌ हरने “तथास्तु” कहकर दक्षको मनोवांछित वर दे दिया ।। ६५ ।।

महादेवजीसे वर पाकर दक्षने धरतीपर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया और एक हजार आठ नामोंद्वारा उन भगवान्‌ वृषभध्वजका स्तवन किया ।। ६६ ।।

युधिष्ठिरे पूछा--तात! निष्पाप पितामह! प्रजापति दक्षने जिन नामोंद्वारा महादेवजीकी स्तुति की थी, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। उन्हें सुननेके लिये मेरे हृदयमें बड़ी श्रद्धा है ।। ६७ ।।

भीष्मजी कहते हैं--भरतनन्दन! अद्भुत कर्म करनेवाले गूढ व्रतधारी देवाधिदेव महादेवजीके कुछ नाम गोपनीय हैं और कुछ प्रकाशित हैं। तुम उन सबको सुनो ।। ६८ ।।

(दक्ष बोले)--देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप देववैरी दानवोंकी सेनाके संहारक और देवराज इन्द्रकी शक्तिको भी स्तम्भित करनेवाले हैं। देवता और दानव--सबने आपकी पूजा की है ।। ६९ ।।

आप सहसों नेत्रोंसे युक्त होनेके कारण सहस्राक्ष हैं। आपकी इन्द्रियाँ सबसे विलक्षण अर्थात्‌ परोक्ष विषयको भी प्रत्यक्ष करनेवाली हैं, इसलिये आपको विरूपाक्ष कहते हैं। आप त्रिनेत्रधारी होनेके कारण त>ऋरयक्ष कहलाते हैं। यक्षराज कुबेरके भी आप प्रिय (इष्टदेव) हैं। आपके सब ओर हाथ और पैर हैं तथा सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं || ७० ।।

आपके कान भी सब ओरे हैं। संसारमें जो कुछ है, सबको व्याप्त करके आप स्थित हैं। शंकुकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्गवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण और पाणिकर्ण--ये सात पार्षद्‌ आपके ही स्वरूप हैं। इन सबके रूपमें आपको नमस्कार है || ७१ ३ 

आपके सैकड़ों उदर, सैकड़ों आवर्त और सैकड़ों जिह्वाएँ होनेके कारण आप क्रमशः शतोदर, शतावर्त और शतजिद्ठन नामसे प्रसिद्ध हैं। आपको प्रणाम है। गायत्री-मन्त्रका जप करनेवाले द्विज आपकी ही महिमाका गान करते हैं और सूर्योपासक सूर्यके रूपमें आपकी ही आराधना करते हैं। ऋषिगण आपको ही ब्रह्मा, शतक्रतु इन्द्र और आकाशके समान सर्वोच्च पद मानते हैं ।।

समुद्र और आकाशके समान अपार, अनन्त रूप धारण करनेवाले महामूर्तिधारी महेश्वर! जैसे गोशालामें गौएँ निवास करती हैं, उसी प्रकार आपकी भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं यजमानरूप आठ प्रकारकी मूर्तियोंमें सम्पूर्ण देवताओंका निवास है ।।

मैं आपके शरीरमें सोम, अग्नि, वरुण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पतिको भी देख रहा हूँ ।। ७५ |।

आप ही कारण, कार्य, क्रिया (प्रयत्न) और करण हैं। सत्‌ और असत्‌ पदार्थोकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान भी आप ही हैं ।। ७६ ।।

आप सबके उद्धवका स्थान होनेसे भव, संहार करनेके कारण शर्व, “रु अर्थात्‌ पाप एवं दु:खको दूर करनेसे रुद्र, वरदाता होनेसे वरद तथा पशुओं (जीवों) के पालक होनेके कारण सदा पशुपति कहलाते हैं। आपने ही अन्धकासुरका वध किया है, इसलिये आपका नाम अन्धकघाती है। आपको बारंबार नमस्कार है || ७७ ।।

आप तीन जटा और तीन मस्तक धारण करनेवाले हैं। आपके हाथमें श्रेष्ठ त्रिशूल शोभा पाता है। आप त्र्यम्बक, त्रिनेत्रधारी तथा त्रिपुरासुरका विनाश करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है ।। ७८ ।।

आप दुष्टोंपर अत्यन्त क्रोध करनेके कारण चण्ड हैं। कुण्डमें जलकी भाँति आपके उदरमें सम्पूर्ण जगत्‌ स्थित है, इसलिये आपको कुण्ड कहते हैं। आप अण्ड (ब्रह्माण्ड स्वरूप) और अण्डधर (तब्रह्माण्डको धारण करनेवाले) हैं। आप दण्डधारी (सबको दण्ड देनेवाले) और समकर्ण (सबकी समान रूपसे सुननेवाले) हैं। दण्डधारण करके मूँड़ मुँड़ानेवाले संन्यासी भी आपके ही स्वरूप हैं, इसलिये आपका नाम दण्डिमुण्ड है। आपको नमस्कार है ।। ७९ |।

आपकी दाढ़ें बड़ी-बड़ी और सिरके बाल ऊपरकी ओर उठे हुए हैं, इसलिये आप ऊर्ध्वदंष्ट तथा ऊर्ध्वकेश कहलाते हैं। आप ही शुक्ल (विशुद्ध ब्रह्म) और आप ही अवतत (जगत्‌के रूपमें विस्तृत) हैं। आप रजोगुणको अपनानेपर विलोहित और तमोगुणका आश्रय लेनेपर धूम्र कहलाते हैं। आपकी ग्रीवामें नीले रंगका चिह्न है, इसलिये आपको नीलग्रीव कहते हैं। आपको नमस्कार है || ८० ।।

आपके रूपकी कहीं भी समता नहीं है, इसलिये आप अप्रतिरूप हैं। विविध रूप धारण करनेके कारण आपका नाम विरूप है। आप ही परम कल्याणकारी शिव हैं। आप ही सूर्य हैं, आप ही सूर्यमण्डलके भीतर सुशोभित होते हैं। आप अपनी ध्वजा और पताकापर सूर्यका चिह्न धारण करते हैं। आपको नमस्कार है ।।

आप प्रमथगणोंके अधीश्वर हैं। वृषभके कंधोंके समान आपके कंधे भरे हुए हैं। आप पिनाक धनुष धारण करते हैं। शत्रुओंका दमन करनेवाले और दण्डस्वरूप हैं। किरात या तपस्वीके रूपमें विचरते समय आप भोजपत्र और वल्कलवस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है ।।

हिरण्य (सुवर्ण) को उत्पन्न करनेके कारण हिरण्यगर्भ कहलाते हैं। सुवर्णके ही कवच और मुकुट धारण करनेसे आपको हिरण्यकवच और हिरण्यचूड कहा गया है। आप सुवर्णके अधिपति हैं। आपको सादर नमस्कार है || ८३ ।।

जिनकी स्तुति हो चुकी है, वे आप हैं। जो स्तुतिके योग्य हैं, वे भी आप हैं और जिनकी स्तुति हो रही है, वे भी आप ही हैं। आप सर्वस्वरूप, सर्वभक्षी और सम्पूर्ण भूतोंके अन्तरात्मा हैं। आपको बारंबार नमस्कार है ।। ८४ ।।

आप ही होता और मन्त्र हैं। आपको नमस्कार है। आपकी ध्वजा और पताकाका रंग श्वेत है। आपको नमस्कार है। आप नाभ (नाभिमें सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करनेवाले), नाभ्य (संसार-चक्रके नाभि-स्थान) तथा कट-कट (आवरणके भी आवरण) हैं। आपको नमस्कार है ।। ८५ ||

आपकी नासिका कृश (पतली) है, इसलिये आप कृशनस कहलाते हैं। आपके अवयव कृश होनेसे आपको कृशांग तथा शरीर दुबला होनेसे कृश कहते हैं। आप अत्यन्त हर्षोल्लाससे परिपूर्ण, विशेष हर्षका अनुभव करनेवाले और हर्षकी किल-किल ध्वनि हैं। आपको नमस्कार है || ८६ |।

आप समस्त प्राणियोंके भीतर शयन करनेवाले अन्तर्यामी पुरुष हैं। प्रलयकालमें योगनिद्राका आश्रय लेकर सोते और सृष्टिके प्रारम्भकालमें कल्पान्त निद्रासे जागते हैं। आप ब्रह्मरूपसे सर्वत्र स्थित और कालरूपसे सदा दौड़नेवाले हैं। मूँड़ मुँड़ानेवाले संन्यासी और जटाधारी तपस्वी भी आपके ही स्वरूप हैं। आपको नमस्कार है ।। ८७ ।।

आपका ताण्डव-नृत्य बराबर चलता रहता है। आप मुखसे शृंगी आदि बाजे बजानेमें कुशल हैं। कमलपुष्पकी भेंट लेनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं। गाने और बजानेकी कलामें तत्पर रहकर आप बड़ी शोभा पाते हैं। आपको प्रणाम है ।। ८८ ।।

आप अवस्थामें सबसे ज्येष्ठ और गुणोंमें भी सबसे श्रेष्ठ हैं। आपने बल नामक दैत्यको इन्द्ररूपसे मथ डाला था। आप कालके भी नियन्ता और सर्वशक्तिमान्‌ हैं। महाप्रलय और अवान्तर-प्रलय भी आप ही हैं। आपको नमस्कार है ।। ८९ |।

प्रभो! आपका अट्टहास भयंकर शब्द करनेवाली दुन्दुभिके समान जान पड़ता है। आप भीषण व्रतको धारण करनेवाले हैं। दस भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले उग्ररूपधारी आपको मेरा नित्य बारंबार नमस्कार है ।।

आपके हाथमें कपाल है। चिताका भस्म आपको बहुत प्रिय है। आप सबको भयभीत करनेवाले और स्वयं निर्भय हैं तथा शम-दम आदि तीक्ष्ण व्रतोंको धारण करते हैं। आपको नमस्कार है ।। ९१ ।।

आपका मुख विकृत है। जिह्नला खड्गके समान है। आपका मुख दाढ़ोंसे सुशोभित होता है। आप कच्चे-पक्के फलोंके गुद्देके लिये लुभायमान रहते हैं। तुम्बी और वीणा आपको विशेष प्रिय हैं। आपको प्रणाम है ।।

आप वृष ([वृष्टिकर्ता), वृष्य (धर्मकी वृद्धि करनेवाले), गोवृष (नन्दी) और वृष (धर्म) आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। कटंकट (नित्य गतिशील), दण्ड (शासक) और पचपच (सम्पूर्ण भूतोंको पचानेवाला काल) भी आपके ही नाम हैं। आपको नमस्कार है ।।

आप सबसे श्रेष्ठ वरस्वरूप और वरदाता हैं। उत्तम वस्त्र, माल्य और गन्ध धारण करते हैं तथा भक्तको इच्छानुसार एवं उससे भी अधिक वर देनेवाले हैं। आपको प्रणाम है ।। ९४ ।।

रागी और विरागी--दोनों जिनके स्वरूप हैं, जो ध्यानपरायण, रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाले, कारण-रूपसे सबमें व्याप्त और कार्यरूपसे पृथक्‌ू-पृथक्‌ दिखायी देनेवाले हैं। तथा जो सम्पूर्ण जगत्‌को छाया और धूप प्रदान करते हैं, उन भगवान्‌ शंकरको नमस्कार है ।।

जो अघोर, घोर और घोरसे भी घोरतर रूप धारण करनेवाले हैं तथा जो शिव, शान्त एवं परमशान्तरूप हैं, उन भगवान्‌ शंकरको मेरा बारंबार नमस्कार है ।। ९६ ||

एक पाद, अनेक नेत्र और एक मस्तकवाले आपको प्रणाम है। भक्तोंकी दी हुई छोटीसे-छोटी वस्तुके लिये भी लालायित रहनेवाले और उसके बदलेमें उन्हें अपार धनराशि बाँट देनेकी रुचि रखनेवाले आप भगवान्‌ रुद्रको नमस्कार है || ९७ ।।

जो इस विश्वका निर्माण करनेवाले कारीगर, गौरवर्णके शरीरवाले तथा सदा शान्तरूपसे रहनेवाले हैं, जिनकी घण्टाध्वनि शत्रुओंको भयभीत कर देती है तथा जो स्वयं ही घण्टानाद और अनाहतध्वनिके रूपमें श्रवण्गोचर होते हैं उन महेश्वरको प्रणाम है ।। ९८ ।।

जिनके मन्दिरमें लगे हुए घण्टोंको सहस्रों आदमी बजाते हैं, घण्टोंकी माला जिन्हें प्रिय है, जिनके प्राण ही घण्टाके समान ध्वनि करते हैं, जो ग्रन्थ और कोलाहलरूप हैं, उन भगवान्‌ शिवको नमस्कार है ।।

आप हूं (क्रोध), हूं (हिंकार), हूं (आकाश, सूर्य और ईश्वर)--इन सबसे परे विद्यमान शान्तस्वरूप पखह् हैं, 'हूं' हूं' करना आपको प्रिय लगता है, आप “शान्त रहो” शान्त रहो! ऐसा कहकर सदा सबको आश्वासन देनेवाले हैं तथा पर्वतोंपर और वृक्षोंके नीचे निवास करते हैं। आपको प्रणाम है || १०० ।।

आप फलके भीतरके गुद्देरूप मांसके प्रलोभी शृगालरूप हैं। आप ही सबको तारनेवाले तथा तरण-तारणके साधन हैं। आप ही यज्ञ और आप ही यजमान हैं। आप ही हुत (हवन) और आप ही प्रहुत (अग्नि) हैं। आपको नमस्कार है || १०१ ।।

आप ही यज्ञके निर्वाहक अथवा उसे सब देवताओंतक पहुँचानेवाले अग्निदेव हैं। आप मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले हैं। आप ही भक्तोंका कष्ट देखकर संतप्त होनेवाले तथा शत्रुओंको संताप देनेवाले हैं। आप ही तट हैं। आप ही तटवर्ती नदी आदि हैं तथा आप ही तटोंके पालक हैं। आपको नमस्कार है ।।

आप ही अन्नदाता, अन्नपति और अन्नके भोक्ता हैं। आपके सहस्रों मस्तक और सहस्रों चरण हैं। आपको बारंबार प्रणाम है || १०३ ।।

आप अपने सहस्ौरों हाथोंमें सहस्रों शूल लिये रहते हैं। आपके सहसौरं नेत्र हैं। आपकी अंगकान्ति प्रात:कालीन सूर्यके समान देदीप्यमान है। आप बालकरूप धारण करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है || १०४ ।।

आप श्रीकृष्णरूपसे संगी-साथी बालकोंके रक्षक तथा बालकोंके साथ खेल करनेवाले हैं। आप सबकी अपेक्षा वृद्ध हैं। भक्ति और प्रेमके लोभी हैं। दुष्टोंके पापाचारसे क्षुब्ध हो उठते है और दुराचारियोंको क्षोभमें डालनेवाले हैं। आपको नमस्कार है || १०५ |।

आपके केश गंगाके तरंगोंसे अंकित तथा मुञ््जके समान हैं। आपको नमस्कार है। आप ब्राह्मणोंके छः कर्म--अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रहसे संतुष्ट रहते हैं; स्वयं यजन, अध्ययन और दानरूप तीन कर्मोंमें ही तत्पर रहते हैं। आपको मेरा प्रणाम है ।।

आप वर्ण और आश्रमोंके भिन्न-भिन्न कर्मोंका विधिवत्‌ विभाग करनेवाले, जपनीय मन्त्ररूप, घोषस्वरूप तथा कोलाहलमय हैं। आपको बारंबार नमस्कार है ।।

आपके नेत्र श्वेत पिड़लवर्णके हैं, काले और लाल रंगके हैं। आप प्राणवायु (श्वास)को जीतनेवाले, दण्ड (आयुध) रूप, ब्रह्माण्डरूपी घटको फोड़नेवाले तथा कृश-शरीरधारी हैं। आपको नमस्कार है | १०८ ।।

धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देनेके विषयमें आपकी कीर्तिकथा वर्णन करनेके योग्य है। आप सांख्यस्वरूप, सांख्ययोगियोंमें प्रधान तथा सांख्यशास्त्रको प्रवृत्त करनेवाले हैं। आपको प्रणाम है || १०९ ।।

आप रथपर बैठकर तथा बिना रथके भी घूमनेवाले हैं। जल, अग्नि, वायु तथा आकाश --इन चारों मार्गोपर आपकी गति है। आप काले मृगचर्मको दुपट्टेकी भाँति ओढ़नेवाले तथा सर्पमय यज्ञोपवीत धारण करनेवाले हैं। आपको प्रणाम है | ११० ।।

ईशान! आपका शरीर वज्रके समान कठोर है। हरिकेश! आपको नमस्कार है। व्यक्ताव्यक्तस्वरूप परमेश्वर! आप त्रिनेत्रधारी तथा अम्बिकाके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है ।। १११ |।

आप कामस्वरूप, कामनाओंको पूर्ण करनेवाले, कामदेवके नाशक, तृप्त और अतृप्तका विचार करनेवाले, सर्वस्वरूप, सब कुछ देनेवाले, सबके संहारक और संध्याकालके समान रंगवाले हैं। आपको प्रणाम है ।।

महाबल! महाबाहो! महासत्त्व! महाद्युते! आप महान्‌ मेघोंकी घटाके समान रंगवाले महाकालस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है || ११३ ||

आपका श्रीविग्रह स्थूल और जीर्ण है। आप जटाधारी हैं। वलकल और मृगचर्म धारण करते हैं। देदीप्यमान सूर्य और अग्निके समान ज्योतिर्मयी जटासे सुशोभित हैं। वल्कल और मृगचर्म ही आपके वस्त्र हैं। आप सहस्रों सूर्योके समान प्रकाशमान और सदा तपस्यामें संलग्न रहनेवाले हैं। आपको नमस्कार है || ११४ ।।

आप जगत्‌को उन्माद (मोह)-में डालनेवाले हैं। आपके मस्तकपर गंगाजीकी सैकड़ों लहरें और भँवरें उठती रहती हैं। आपके केश सदा गंगाजलसे भीगे रहते हैं। आप चन्द्रमाको क्षय-वृद्धिके चक्‍करमें डालनेवाले हैं। आप ही युगोंकी पुनरावृत्ति करनेवाले और मेघोंके प्रवर्तक हैं। आपको नमस्कार है || ११५ |।

आप ही अन्न, अन्नके भोक्ता, अन्नदाता, अन्नका पालन करनेवाले, अन्नस्रष्टा, पाचक, पक्‍्वान्रभोजी, प्राणवायु तथा जठरानलरूप हैं ।। ११६ ।।

देवदेवेश्वर! जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्धिज्ज--ये चार प्रकारके प्राणिसमूह आप ही हैं ।।

ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! आप ही चराचर जीवोंकी सृष्टि तथा संहार करनेवाले हैं। ब्रह्मज्ञानी पुरुष आपहीको ब्रह्म कहते हैं || ११८ ।।

वेदवादी विद्वान्‌ आपको ही मनका परम कारण, आकाश, वायु, तेजकी निधि, ऋक्‌, साम तथा ॐ “कार बताते हैं || ११९ ।।

सुरश्रेष्ठ! सामगान करनेवाले वेदवेत्ता पुरुष “हा ३ यि, हा ३ यि, हू ३ वा, हा ३ यि, हा ३ वु, हा ३ यि' आदिका बारंबार उच्चारण करके निरन्तर आपकी ही महिमाका गान करते हैं | १२० ।।

यजुर्वेद और ऋग्वेद आपके ही स्वरूप हैं। आप ही हविष्य हैं। वेदों और उपनिषदोंके समूह अपनी स्तुतियोंद्वारा आपकी ही महिमाका प्रतिपादन करते हैं || १२१ ।।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्त्यज--ये आपके ही स्वरूप हैं। मेघोंकी घटा, बिजली, गर्जना और गड़गड़ाहट भी आप ही हैं ।। १२२ ।।

संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, युग, निमेष, काष्ठा, नक्षत्र, ग्रह और कला भी आप ही हैं । १२३ ।।

वृक्षोंमें प्रधान वट-पीपल आदि, पर्वतोंमें उनके शिखर, वन-जन्तुओंमें व्याप्र, पक्षियोंमें गरुड़ तथा सर्पोर्में अनन्त आप ही हैं ।। १२४ ।।

समुद्रोंमें क्षीरसागर, यन्त्रों (अस्त्रों)-में धनुष, चलाये जानेवाले आयुधोंमें वज्ञर और व्रतोंमें सत्य भी आप ही हैं | १२५ ।।

आप ही द्वेष, इच्छा, राग, मोह, क्षमा, अक्षमा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय तथा पराजय हैं ।।

आप गदा, बाण, धनुष, खाटका अंग तथा झर्झर नामक अस्त्र धारण करनेवाले हैं। आप छेदन, भेदन और प्रहार करनेवाले हैं। सत्पथपर ले जानेवाले, शुभका मनन करनेवाले तथा पिता माने गये हैं || १२७ ।।

दस लक्षणोंवाला धर्म तथा अर्थ और काम भी आप ही हैं। गंगा, समुद्र, नदियाँ, गड़हे, तालाब, लता, वल्ली, तृण, ओषधि, पशु, मृग, पक्षी, द्रव्य और कर्मोके आरम्भ तथा फूल और फल देनेवाला काल भी आप ही हैं || १२८-१२९ ||

आप देवताओंके आदि और अन्त हैं। गायत्री-मन्त्र और ३>कार भी आप ही हैं। हरित, लोहित, नील, कृष्ण, रक्त, अरुण, कद्रु, कपिल, कबूतरके समान तथा मेचक (श्याम मेघके समान)--ये दस प्रकारके रंग भी आपके ही स्वरूप हैं || १३० ।।

आप वर्णरहित होनेके कारण अवर्ण और अच्छे वर्णवाले होनेसे सुवर्ण कहलाते हैं। आप वर्णोके निर्माता और मेघके समान हैं। आपके नाममें सुन्दर वर्णों (अक्षरों)-का उपयोग हुआ है, इसलिये आप सुवर्णनामा हैं तथा आपको श्रेष्ठ वर्ण प्रिय है ।। १३१ ।।

आप ही इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, अग्नि, सूर्य-चन्द्रका ग्रहण, चित्रभानु (सूर्य), राहु और भानु हैं ।। १३२ ।।

होत्र (खुवा), होता, हवनीय पदार्थ, हवन-क्रिया तथा (उसके फल देनेवाले) परमेश्वर भी आप ही हैं। वेदकी त्रिसौपर्ण नामक श्रुतियोंमें तथा यजुर्वेदके शतरुद्रिय-प्रकरणमें जो बहुत-से वैदिक नाम हैं, वे सब आपहीके नाम हैं ।। १३३ ।।

आप पवित्रोंके भी पवित्र और मंगलोंके भी मंगल हैं। आप ही गिरिक (अचेतनको भी चेतन करनेवाले), हिंडुक (गमनागमन करनेवाले), संसार-वृक्ष, जीव, शरीर, प्राण, सत्त्व, रज, तम, अप्रमद (स्त्रीरहित--ऊर्ध्वरेता), प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, उन्मेष, निमेष (आँखोंका खोलना-मींचना), छींकना और जँभाई लेना आदि चेष्टाएँ भी आप ही हैं। आपकी अग्निमयी लाल रंगकी दृष्टि भीतर छिपी हुई है। आपके मुख और उदर महान्‌ हैं ।। १३४--१३६ ।।

रोएँ सूईके समान हैं। दाढ़ी-मूछ काली है। सिरके बाल ऊपरकी ओर उठे हुए हैं। आप चराचर-स्वरूप हैं। गाने-बजानेके तत्त्वको जाननेवाले हैं। गाना-बजाना आपको अधिक प्रिय है ।। १३७ ।।

आप मत्स्य, जलचर और जालधारी घड़ियाल हैं। फिर भी अकल (बन्धनसे परे) हैं। आप केलिकलासे युक्त और कलहरूप हैं। आपही अकाल, अतिकाल, दुष्काल तथा काल हैं ।। १३८ ।।

मृत्यु, क्षुर .छेदन करनेका शस्त्र), कृत्य (छेदन करने योग्य), पक्ष (मित्र) तथा अपक्षक्षयंकर (शत्रुपक्षका नाश करनेवाले) भी आप ही हैं। आप मेघके समान काले, बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले और प्रलयकालीन मेघ हैं ।।

घण्ट (प्रकाशवान), अघण्ट (अव्यक्त प्रकाशवाले), घटी (कर्मफलसे युक्त करनेवाले), घण्टी (घण्टावाले), चरुचेली (जीवोंके साथ क्रीडा करनेवाले) तथा मिली-मिली (कारणरूपसे सबमें व्याप्त)--ये सब आप ही हैं। आप ही ब्रह्म, अग्नियोंके स्वरूप, दण्डी, मुण्ड तथा त्रिदण्डधारी हैं ।। १४० ।।

चार युग और चार वेद आपके ही स्वरूप हैं तथा चार प्रकारके होतृ-कर्मोंके प्रवर्तक आप ही हैं। आप चारों आश्रमोंके नेता तथा चारों वर्णोकी सृष्टि करनेवाले हैं || १४१ ।।

आप ही अक्षप्रिय, धूर्त, गणाध्यक्ष और गणाधिप आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। आप रक्त वस्त्र तथा लाल फूलोंकी माला पहनते हैं, पर्वतपर शयन करते और गेरुए वस्त्रसे प्रेम रखते हैं ।। १४२ ।।

आप ही शिसल्पियोंमें सर्वश्रेष्ठ शिल्पी (कारीगर) तथा सब प्रकारकी शिल्पकलाके प्रवर्तवक हैं। आप भगदेवताकी आँख फोड़नेके लिये अंकुश, चण्ड (अत्यन्त कोप करनेवाले) और पूषाके दाँत नष्ट करनेवाले हैं ।।

स्वाहा, स्वधा, वषट्‌ू-नमस्कार और नमो नम: आदि पद आपके ही नाम हैं। आप गूढ़ व्रतधारी, गुप्त तपस्या करनेवाले, तारकमन्त्र और ताराओंसे भरे हुए आकाश हैं ।। १४४ ।।

धाता (धारण करनेवाले), विधाता (सृष्टि करनेवाले), संधाता (जोड़नेवाले), विधाता, धारण और अधर (आधाररहित) भी आपहीके नाम हैं। आप ब्रह्मा, तप, सत्य, ब्रह्मचर्य आर्जव (सरलता), भूतात्मा (प्राणियोंके आत्मा), भूतोंकी सृष्टि करनेवाले, भूत (नित्यसिद्ध), भूत, भविष्य और वर्तमानकी उत्पत्तिके कारण, भूरलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, ध्रुव (स्थिर), दान्त (दमनशील) और महेश्वर हैं || १४५-१४६ ।।

दीक्षित (यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले), अदीक्षित, क्षमावान्‌, दुर्दान्त, उद्दण्ड प्राणियोंका नाश करनेवाले, चन्द्रमाकी आवृत्ति करनेवाले (मास), युगोंकी आवृत्ति करनेवाले (कल्प), संवर्त (प्रलय) तथा सम्प्रवर्तक (पुन: सृष्टि-संचालन करनेवाले) भी आप ही हैं ।। १४७ ।।

आप ही काम, बिन्दु, अणु (सूक्ष्म) और स्थूलरूप हैं। आप कनेरके फूलकी माला अधिक पसंद करते हैं। आप ही नन्दीमुख, भीममुख (भयंकर मुखवाले), सुमुख, दुर्मुख, अमुख (मुखरहित), चतुर्मुख, बहुमुख तथा युद्धके समय शत्रुका संहार करनेके कारण अग्निमुख (अग्निके समान मुखवाले) हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शकुनि (पक्षीके समान असंग), महान्‌ सर्पोंके स्वामी (शेषनाग) और विराट भी आप ही हैं ।। १४८-१४९ ।।

आप अधर्मके नाशक, महापार्श्च, चण्डधार, गणाधिप, गोनर्द, गौओंको आपत्तिसे बचानेवाले, नन्‍न्दीकी सवारी करनेवाले, त्रैलोक्यरक्षक, गोविन्द (श्रीकृष्णरूप), गोमार्ग (इन्द्रियोंके संचालक), अमार्ग (इन्द्रियोंके अगोचर), श्रेष्ठ, स्थिर, स्थाणु, निष्कम्प, कम्प, दुर्वरण (जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे), दुर्विषह (असहा वेगवाले), दुःसह, दुर्लडघ्य, दुर्द्धर्ष, दुष्प्रकम्प, दुर्विष, दुर्जय, जय, शश (शीघ्रगामी), शशांक (चन्द्रमा) तथा शमन (यमराज) हैं। सर्दी-गर्मी, क्षुधा, वृद्धावस्था तथा मानसिक चिन्ताको दूर करनेवाले भी आप ही हैं। आप ही आधि-व्याधि तथा उसे दूर करनेवाले हैं || १५०--१५३ ।।

मेरे यज्ञरूपी मृगके वधिक तथा व्याधियोंकों लाने और मिटानेवाले भी आप ही हैं। (कृष्णरूपमें) मस्तकपर शिखण्ड (मोरपंख) धारण करनेके कारण आप शिखण्डी हैं। आप कमलके समान नेत्रोंवाले, कमलके वनमें निवास करनेवाले, दण्ड धारण करनेवाले, त्र्म्बक, उग्रदण्ड और ब्रह्माण्डके संहारक हैं। विषाग्निको पी जानेवाले, देवश्रेष्ठ, सोमरसका पान करनेवाले और मरुद्‌गणोंके स्वामी हैं || १५४-१५५ ।।

देवाधिदेव! जगन्नाथ! आप अमृत पान करनेवाले और गणोंके स्वामी हैं। विषाग्नि तथा मृत्युसे रक्षा करनेवाले और दूध एवं सोमरसका पान करनेवाले हैं। आप सुखसे भ्रष्ट हुए जीवोंके प्रधान रक्षक तथा तुषितनामक देवताओंके आदिभूत ब्रह्माजीका भी पालन करनेवाले हैं || १५६ ।।

आप ही हिरण्यरेता (अग्नि), पुरुष (अन्तर्यामी) तथा आप ही स्त्री, पुरुष और नपुंसक हैं। बालक-युवा और वृद्ध भी आप ही हैं। नागेश्वर! आप जीर्ण दाढ़ोंवाले और इन्द्र हैं। आप विश्वकृत्‌ (जगत्‌के संहारक), विश्वकर्ता (प्रजापति), विश्वकृत्‌ (ब्रह्माजी), विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ, विश्वका भार वहन करनेवाले, विश्वरूप, तेजस्वी और सब ओर मुखवाले हैं। चन्द्रमा और सूर्य आपके नेत्र तथा पितामह ब्रह्मा आपके हृदय हैं ।। १५७-१५८ ।।

आप ही समुद्र हैं, सरस्वती आपकी वाणी हैं, अग्नि और वायु बल हैं तथा आपके नेत्रोंका खुलना और बंद होना ही दिन और रात्रि है ।। १५९ |।

शिव! आपके माहात्म्यको ठीक-ठीक जाननेमें ब्रह्मा, विष्णु तथा प्राचीन ऋषि भी समर्थ नहीं हैं || १६० ।।

आपके जो सूक्ष्म रूप हैं वे हमलोगोंकी दृष्टिमें नहीं आते। भगवन्‌! जैसे पिता अपने औरस पुत्रकी रक्षा करता है, उसी तरह आप सर्वदा मेरी रक्षा करें ।। १६१ ।।

अनघ! मैं आपके द्वारा रक्षित होने योग्य हूँ, आप अवश्य मेरी रक्षा करें, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप भक्तोंपर दया करनेवाले भगवान्‌ हैं और मैं सदाके लिये आपका भक्त हूँ || १६२ ।।

जो हजारों मनुष्योंपर मायाका परदा डालकर सबके लिये दुर्बोध हो रहे हैं, अद्वितीय हैं तथा समुद्रके समान कामनाओंका अन्त होनेपर प्रकाशमें आते हैं, वे परमेश्वर नित्य मेरी रक्षा करें || १६३ ।।

जो निद्राके वशीभूत न होकर प्राणोंपर विजय पा चुके हैं और इन्द्रियोंको जीतकर सत्त्वगुणमें स्थित हैं, ऐसे योगीलोग ध्यानमें जिस ज्योतिर्मय तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं, उस योगात्मा परमेश्वरको नमस्कार है ।। १६४ ।।

जो सदा जटा और दण्ड धारण किये रहते हैं, जिनका उदर और शरीर विशाल है तथा कमण्डलु ही जिनके लिये तरकसका काम देता है, ऐसे ब्रह्माजीके रूपमें विराजमान भगवान्‌ शिवको प्रणाम है || १६५ ।।

जिनके केशोंमें बादल, शरीरकी संधियोंमें नदियाँ और उदरमें चारों समुद्र हैं, उन जलस्वरूप परमात्माको नमस्कार है ।। १६६ ।।

जो प्रलयकाल उपस्थित होनेपर सब प्राणियोंका संहार करके एकार्णवके जलमें शयन करते हैं, उन जलशायी भगवान्‌की मैं शरण लेता हूँ ।। १६७ ।।

जो रातमें राहुके मुखमें प्रवेश करके स्वयं चन्द्रमाके अमृतका पान करते हैं; तथा स्वयं ही राहु बनकर सूर्यपर ग्रहण लगाते हैं, वे परमात्मा मेरी रक्षा करें ।।

ब्रह्माजीके बाद उत्पन्न होनेवाले जो देवता और पितर बालककी भाँति यज्ञमें अपनेअपने भाग ग्रहण करते हैं, उन्हें नमस्कार है। वे “स्वाहा और स्वथा' के द्वारा अपने भाग प्राप्त करके प्रसन्न हों | १६९ ।।

जो अंगुष्ठमात्र जीवके रूपमें सम्पूर्ण देहधारियोंके भीतर विराजमान हैं, वे सदा मेरी रक्षा और वृद्धि करें ।।

जो देहके भीतर रहते हुए स्वयं न रोकर देहधारियोंको ही रलाते हैं, स्वयं हर्षित न होकर उन्हें ही हर्षित करते हैं, उन सब रुद्रोंको मैं नित्य नमस्कार करता हूँ ।। १७१ 

नदी, समुद्र, पर्वत, गुहा, वृक्षोंकी जड़, गोशाला, दुर्गण पथ, वन, चौराहे, सड़क, चौतरे, किनारे, हस्तिशाला, अश्वशाला, रथशाला, पुराने बगीचे, जीर्ण गृह, पञ्चभूत, दिशा, विदिशा, चन्द्रमा, सूर्य तथा उन-उनकी किरणोंमें, रसातलमें और उससे भित्न स्थानोंमें भी जो अधिष्ठातृ देवताके रूपमें व्याप्त हैं, उन सबको सदा नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है ।। १७२--१७५ ||

जिनकी संख्या, प्रमाण और रूपकी सीमा नहीं है, जिनके गुणोंकी गिनती नहीं हो सकती, उन रुद्रोंको मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।। १७६ ।।

आप सम्पूर्ण भूतोंके जन्मदाता, सबके पालक और संहारक हैं; तथा आप ही समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। इसीलिये मैंने आपको पृथक्‌ निमन्त्रण नहीं दिया ।। १७७ ।।

नाना प्रकारकी दक्षिणाओं वाले यज्ञोंद्वारा आपहीका यजन किया जाता है और आप ही सबके कर्ता हैं, इसीलिये मैंने आपको अलग निमन्त्रण नहीं दिया ।।

अथवा देव! आपकी सूक्ष्म मायासे मैं मोहमें पड़ गया था, इस कारणसे भी मैंने आपको निमन्त्रण नहीं दिया || १७९ |।

भगवन्‌ भव! आपका भला हो, मैं भक्तिभावके साथ आपकी शरणमें आया हूँ, इसलिये अब मुझपर प्रसन्न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि और मेरा मन सब आपमें समर्पित हैं । १८० ।।

इस प्रकार महादेवजीकी स्तुति करके प्रजापति दक्ष चुप हो गये। तब भगवान्‌ शिवने भी बहुत प्रसन्न होकर दक्षसे कहा-- || १८१ ।।

“उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दक्ष! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुतिसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। यहाँ अधिक क्या कहूँ, तुम मेरे निकट निवास करोगे ।। १८२ ।।

प्रजापते! मेरे प्रसादसे तुम्हें एक हजार अश्वमेध तथा एक सौ वाजपेय यज्ञका फल मिलेगा” ।। १८३ ।।

तदनन्तर वाक्यविशारद, लोकनाथ भगवान्‌ शिवने प्रजापतिको सान्त्वना देनेवाला युक्तियुक्त एवं उत्तम वचन कहा-- ॥। १८४ ।।

दक्ष! दक्ष! इस यज्ञमें जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्पमें भी तुम्हारे यज्ञका विध्वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्पके अनुसार ही हुई है ।। १८५ ।।

'सुव्रत! मैं पुनः तुम्हें वरदान देता हूँ, तुम इसे स्वीकार करो और प्रसन्नवदन तथा एकाग्रचित्त होकर यहाँ मेरी यह बात सुनो || १८६ ।।

'पूर्वकालमें षडड़ वेद, सांख्ययोग और तर्कसे निश्चित करके देवताओं और दानवोंने जिस विशाल एवं दुष्कर तपका अनुष्ठान किया था (उससे भी उत्तम व्रत मैं तुम्हें बता रहा हूँ) ।। १८७ ||

“दक्ष! मैंने पूर्वकालमें एक शुभकारक पाशुपत नामक व्रतको प्रकट किया था, जो अपूर्व है। साधन और सिद्धि सभी अवस्थाओंमें सब प्रकारसे कल्याणकारी, सर्वतोमुखी (सभी वर्णों और आश्रमोंके अनुकूल) तथा मोक्षका साधक होनेके कारण अविनाशी है। वर्षोतक पुण्यकर्म करने और यम-नियम नामक दस साधनोंको अभ्यासमें लानेसे उसकी उपलब्धि होती है। वह गूढ़ है। मूर्ख मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं। वह समस्त वर्णधर्म और आश्रम-धर्मके अनुकूल, सम और किसी-किसी अंशमें विपरीत भी है। जिन्हें सिद्धान्तका ज्ञान है उन्होंने इसे अपनानेका पूर्ण निश्चय कर लिया है। यह व्रत सभी आश्रमोंसे बढ़कर है। इसके अनुष्ठानसे उत्तम एवं प्रचुर फलकी प्राप्ति होती है। महाभाग! उस पाशुपत व्रतके अनुष्ठानका फल तुम्हें प्राप्त हो। अब तुम अपनी मानसिक चिन्ताका परित्याग कर दो' || १८८--१९० ||

दक्षसे ऐसा कहकर पत्नी और पार्षदोंसहित अमित पराक्रमी महादेवजी वहीं अन्तर्धान हो गये ।।

जो मनुष्य दक्षके द्वारा कहे हुए इस स्तोत्रका कीर्तन अथवा श्रवण करेगा, उसे कोई अमंगल नहीं प्राप्त होगा। वह दीर्घ आयु प्राप्त करता है ।। १९२ ।।

जैसे भगवान्‌ शिव सब देवताओंमें श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार यह वेदतुल्य स्तोत्र सभी स्तुतियोंमें श्रेष्ठ है ।।

यश, राज्य, सुख, ऐश्वर्य, काम, अर्थ, धन और विद्याकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको भक्तिभावका आश्रय लेकर यत्नपूर्वक इस स्तोत्रका श्रवण करना चाहिये ।।

रोगी, दुखी, दीन, चोरके हाथमें पड़ा हुआ, भयभीत तथा राजकार्यका अपराधी मनुष्य भी इस स्तोत्रका पाठ करनेसे महान्‌ भयसे छुटकारा पा जाता है ।। १९५ |।

इतना ही नहीं, वह इसी शरीरसे भगवान्‌ शिवके गणोंकी समानता प्राप्त कर लेता है तथा तेज और यशसे सम्पन्न होकर निर्मल हो जाता है ।। १९६ ।।

जिसके यहाँ इस स्तोत्रका पाठ होता है, उसके घरमें राक्षस, पिशाच, भूत और विनायक कभी कोई विष्न नहीं करते हैं || १९७ ।।

जो नारी भगवान्‌ शंकरमें भक्तिभाव रखकर ब्रह्मचर्यका पालन करती हुई इस स्तोत्रको सुनती है, वह पितृकुल और पतिकुलमें देवताके समान आदरणीय होती है ।। १९८ ।।

जो एकाग्रचित्त होकर इस सम्पूर्ण स्तोत्रको सुनता अथवा पढ़ता है, उसके सारे कार्य सदा ही सिद्ध होते रहते हैं || १९९ ।।

वह मनसे जिस वस्तुके लिये चिन्तन करता है अथवा वाणीसे जिस मनोरथकी याचना करता है, उसका वह सारा अभीष्ट इस स्तोत्रके बार-बार पाठसे सिद्ध हो जाता है || २०० |।

मनुष्यको चाहिये कि वह इन्द्रियोंको संयममें रखकर शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन करते हुए महादेवजी, कार्तिकेय, पार्वतीदेवी और नन्दिकेश्वरको विधिपूर्वक पूजोपहार समर्पित करे, फिर एकाग्रचित्त होकर क्रमश: इन सहस्र नामोंका पाठ करे। ऐसा करनेसे मनुष्य शीघ्र ही मनोवाञ्छित पदार्थों, भोगों और कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा मृत्युके पश्चात्‌ स्वर्गमें जाता है। उसे पशु-पक्षी आदिकी योनिमें जन्म नहीं लेना पड़ता है। इस प्रकार सर्वसमर्थ पराशरनन्दन भगवान्‌ व्यासजीने इस स्तोत्रका माहात्म्य बतलाया है।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें दक्षद्रार काथित शिवसहस्रनामस्तोत्रविषयक दो सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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