सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इक्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-44 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और वृत्रासुरके युद्धका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--दादाजी! अमित तेजस्वी वृत्रासुरकी धर्मनिष्ठा अद्भुत थी। उसका विज्ञान भी अनुपम था और भगवान् विष्णुके प्रति उसकी भक्ति भी वैसी ही उच्चकोटिकी थी।।१॥।।
तात! अनन्त तेजस्वी श्रीविष्णुके स्वरूपका ज्ञान तो अत्यन्त कठिन है। नृपश्रेष्ठ) उस वृत्रासुरने उस परमपदका ज्ञान कैसे प्राप्त कर लिया? यह बड़े आश्वर्यकी बात है || २ ।।
आपने इस घटनाका वर्णन किया है; इसलिये मैं इसे सत्य मानता और इसपर विश्वास करता हूँ; क्योंकि आप कभी सत्यसे विचलित नहीं होते हैं तथापि यह बात स्पष्टरूपसे मेरी समझमें नहीं आयी है; अतः पुनः मेरी बुद्धिमें प्रश्न उत्पन्न हो गया ।। ३ ।।
पुरुषप्रवर! वृत्रासुर धर्मात्मा, भगवान् विष्णुका भक्त और वेदान्तके पदोंका अन्वय करके उनके तात्पर्यको ठीक-ठीक समझनेमें कुशल था तो भी इन्द्रने उसे कैसे मार डाला? || ४ ।।
भरतभूषण! नृपश्रेष्ठ! मैं यह बात आपसे पूछता हूँ, आप मेरे इस संशयका समाधान कीजिये। इन्द्रने वृत्रासुरको कैसे परास्त किया? ।। ५ ।।
महाबाहु पितामह! इन्द्र और वृत्रासुरमें किस प्रकार युद्ध हुआ था, यह विस्सारपूर्वक बताइये; इसे सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्सुकता हो रही है ।। ६ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! प्राचीन कालकी बात है, इन्द्र रथपर आखरूढ़ हो देवताओंको साथ ले वृत्रासुरसे युद्ध करनेके लिये चले। उन्होंने अपने सामने खड़े हुए पर्वतके समान विशालकाय वृत्रको देखा ।। ७ ।।
शत्रुदमन नरेश! वह पाँच सौ योजन ऊँचा था और कुछ अधिक तीन सौ योजन उसकी मोटाई थी ।। ८ ।।
वृत्रासुरका वह वैसा रूप, जो तीनों लोकोंके लिये भी दुर्जय था, देखकर देवतालोग डर गये। उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी ।। ९ ।।
राजन्! उस समय वृत्रासुरका वह उत्तम एवं विशाल रूप देखकर सहसा भयके मारे इन्द्रकी दोनों जाँघें अकड़ गयीं ।। १० ।।
तदनन्तर वह युद्ध उपस्थित होनेपर समस्त देवताओं और असुरोंके दलोंमें रणवाद्योंका भीषण नाद होने लगा ।।
कुरुनन्दन! इन्द्रको खड़ा देखकर भी वृत्रासुरके मनमें न तो घबराहट हुई, न कोई भय हुआ और न इन्द्रके प्रति उसकी कोई युद्धविषयक चेष्टा ही हुई ।।
फिर तो देवराज इन्द्र और महामनस्वी वृत्रासुरमें भारी युद्ध छिड़ गया, जो तीनों लोकोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाला था ।। १३ ।।
उस समय तलवार, पट्टिश, त्रिशूल, शक्ति, तोमर, मुद्गर, नाना प्रकारकी शिला, भयानक टंकार करनेवाले धनुष, अनेक प्रकारके दिव्य अस्त्र-शस्त्र तथा आगकी ज्वालाओंसे एवं देवताओं और असुरोंकी सेनाओंसे यह सारा आकाश व्याप्त हो गया ।। १४-१५ ||
भरतभूषण महाराज! ब्रह्मा आदि समस्त देवता, महाभाग ऋषि, सिद्धगण तथा अप्सराओंसहित गन्धर्व--ये सबके सब श्रेष्ठ विमानोंपर आरूढ़ हो उस अद्भुत युद्धका दृश्य देखनेके लिये वहाँ आ गये थे ।। १६-१७ ।।
तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ वृत्रासुरने आकाशको घेरकर बड़ी उतावलीके साथ देवराज इन्द्रपर पत्थरोंकी वर्षा आरम्भ कर दी ।। १८ ।।
यह देख देवगण कुपित हो उठे। उन्होंने युद्धमें सब ओरसे बाणोंकी वर्षा करके वृत्रासुरके चलाये हुए पत्थरोंकी वर्षाको नष्ट कर दिया ।। १९ |।
कुरुश्रेष्ठ! महामायावी महाबली वृत्रासुरने सब ओरसे मायामय युद्ध छेड़कर देवराज इन्द्रको मोहमें डाल दिया। वृत्रासुरसे पीड़ित हुए इन्द्रपर मोह छा गया। तब वसिष्ठजीने रथन्तर सामद्वारा वहाँ इन्द्रको सचेत किया || २०-२१ ।।
वसिष्ठजीने कहा--देवेन्द्र! तुम सब देवताओंमें श्रेष्ठ हो। दैत्यों तथा असुरोंका संहार करनेवाले शक्र! तुम तो त्रिलोकीके बलसे सम्पन्न हो; फिर इस प्रकार विषादमें क्यों पड़े हो? ।।२२।।
ये जगदीश्वर ब्रह्मा, विष्णु और शिव तथा भगवान् सोमदेव और समस्त महर्षि तुम्हें उद्विग्न देखकर तुम्हारी विजयके लिये स्वस्तिवाचन कर रहे हैं | २३ ।।
इन्द्र! किसी साधारण मनुष्यके समान तुम कायरता न प्रकट करो। सुरेश्वर! युद्धके लिये श्रेष्ठ बुद्धिका सहारा लेकर अपने शत्रुओंका संहार करो ।। २४ ।।
देवराज! ये सर्वलोकवन्दित लोकगुरु भगवान् त्रिलोचन शिव तुम्हारी ओर कृपापूर्ण दृष्टिसे देख रहे हैं। तुम मोहको त्याग दो || २५ ||
शक्र! ये बृहस्पति आदि ब्रह्मर्षि तुम्हारी विजयके लिये दिव्य स्तोत्रद्वारा स्तुति कर रहे हैं ।। २६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन! महात्मा वसिष्ठके द्वारा इस प्रकार सचेत किये जानेपर महातेजस्वी इन्द्रका बल बहुत बढ़ गया || २७ ।।
तब भगवान् पाकशासनने उत्तम बुद्धिका आश्रय ले महान् योगसे युक्त हो उस मायाको नष्ट कर दिया || २८ ।।
तदनन्तर अंगिराके पुत्र श्रीमान् बृहस्पति तथा बड़े-बड़े महर्षियोंने जब वृत्रासुरका पराक्रम देखा, तब महादेवजीके पास आकर लोकहितकी कामनासे वृत्रासुरके विनाशके लिये उनसे निवेदन किया ।। २९३ ।।
तब जगदीश्वर भगवान् शिवका तेज रौद्र ज्वर होकर लोकेश्वर वृत्रके शरीरमें समा गया ।। ३०३ ।।
फिर लोकरक्षापरायण सर्वलोकपूजित देवेश्वर भगवान् विष्णुने भी इन्द्रके वज्॒में प्रवेश किया ।। ३१६ ||
तत्पश्चात् बुद्धिमान् बृहस्पति, महातेस्वी वसिष्ठ तथा सम्पूर्ण महर्षि वरदायक, लोकपूजित शतक्रतु इन्द्रके पास जाकर एकाग्रचित्त हो इस प्रकार बोले--'प्रभो! वृत्रासुरका वध करो” ।। ३२-३३ ।।
महेश्वर बोले--इन्द्र! यह महान् वृत्रासुर बड़ी भारी सेनासे घिरा हुआ तुम्हारे सामने खड़ा है। ज्ञाननिष्ठ होनेके कारण यह सम्पूर्ण विश्वका आत्मा है। इसमें सर्वत्र गमन करनेकी शक्ति है। यह अनेक प्रकारकी मायाओंका सुविख्यात ज्ञाता भी है ।। ३४ ।।
सुरेश्वर! यह श्रेष्ठ असुर तीनों लोकोंके लिये भी दुर्जय है। तुम योगका आश्रय लेकर इसका वध करो। इसकी अवहेलना न करो || ३५ |।
अमरेश्वर! इस वृत्रासुरने बलकी प्राप्तिके लिये ही साठ हजार वर्षोतक तप किया था और तब ब्रह्माजीने इसे मनोवाजञ्छित वर दिया था ।। ३६ ।।
सुरेन्द्र! उन्होंने इसे योगियोंकी महिमा, महा-मायावीपन, महान् बल-पराक्रम तथा सर्वश्रेष्ठ तेज प्रदान किया है || ३७ ।।
वासव! लो, यह मेरा तेज तुम्हारे शरीरमें प्रवेश करता है। इस समय दानव वृत्र ज्वरके कारण बहुत व्यग्र हो रहा है; इसी अवस्थामें तुम वज़से इसे मार डालो ।। ३८ ।।
इन्द्रने कहा--भगवन्! सुरश्रेष्ठी आपकी कृपासे इस दुर्धर्ष दैत्यको मैं आपके देखते - देखते वज्र से मार डालूंगा।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! जब महादैत्य वृत्रासुरके शरीरमें ज्वरने प्रवेश किया, तब देवता और ऋषियोंका महान् हर्षनाद वहाँ गूँज उठा || ४० ।।
फिर तो दुन्दुभियाँ, जोर-जोरसे बजनेवाले शंख, ढोल और नगाड़े आदि सहस्रों बाजे बजाये जाने लगे ।।
समस्त असुरोंकी स्मरण-शक्तिका बड़ा भारी लोप हो गया। क्षणभरमें उनकी सारी मायाओंका पूर्णरूपसे विनाश हो गया ।। ४२ ।।
इस प्रकार वृत्रासुरमें महादेवजीके ज्वरका आवेश हुआ जान देवता और ऋषि देवेश्वर इन्द्रकी स्तुति करते हुए उन्हें वृत्रवधके लिये प्रेरणा देने लगे || ४३ ।।
युद्धके समय रथपर बैठकर ऋषियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए महामना इन्द्रका रूप ऐसा तेजस्वी प्रतीत होता था कि उसकी ओर देखना भी अत्यन्त कठिन जान पड़ता था || ४४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपरवके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वृत्रायुरका वधविषयक दो सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ श्लोक मिलाकर कुछ ४४½ “लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बयासीवें अध्याय के श्लोक 1-66 का हिन्दी अनुवाद)
“वृत्रासुरका वध और उससे कह ई ब्रह्महत्याका ब्रह्माजीके द्वारा चार स्थानोंमें विभाजन”
भीष्मजी कहते हैं--महाराज! ज्वरसे आविष्ट हुए वृत्रासुरके शरीरमें जो लक्षण प्रकट हुए थे, उन्हें मुझसे सुनो || १ ।।
उसके मुखमें विशेष जलन होने लगी। उसकी आकृति बड़ी भयानक हो गयी। अंगकान्ति बहुत फीकी पड़ गयी। शरीर जोर-जोरसे काँपने लगा तथा बड़े वेगसे साँस चलने लगी ।। २ ।।
नरेश्वर! उसके सारे शरीरमें तीव्र रोमांच हो आया। वह लंबी साँस खींचने लगा। भरतनन्दन! वृत्रासुरके मुखसे अत्यन्त भयंकर अकल्याणस्वरूपा महाघोर गीदड़ीके रूपमें उसकी स्मरणशक्ति ही बाहर निकल पड़ी ।। ३ ३ ||
उसके पार्श्चभागमें प्रज्वलित एवं प्रकाशित उल्काएँ गिरने लगीं। गीध, कंक, बगले आदि भयंकर पक्षी अपनी बोली सुनाने लगे और एक-दूसरेसे सटकर वृत्रासुरके ऊपर चक्रकी भाँति घूमने लगे || ४-५ ।।
तदनन्तर महादेवजीके तेजसे परिपुष्ट हो वज्र हाथमें लिये हुए इन्द्रने रथपर बैठकर युद्धमें उस दैत्यकी ओर देखा ।। ६ ।।
राजेन्द्र! इसी समय तीव्र ज्वरसे पीड़ित हो उस महान् असुरने अमानुषी गर्जना की और बारंबार जँभाई ली || ७ ।।
जँभाई लेते समय ही इन्द्रने उसके ऊपर वज्रका प्रहार किया। वह महातेजस्वी वज्र कालाग्निके समान जान पड़ता था ।॥। ८ ।।
उसने उस महाकाय दैत्य वृत्रासुरको तुरंत ही धराशायी कर दिया-। भरतश्रेष्ठ) फिर तो वृत्रासुरको मारा गया देख चारों ओरसे देवताओंका सिंहनाद वहाँ “बारबार गूँजने लगा ।। ९½ !
दानवशत्रु महायशस्वी इन्द्रने विष्णुके तेजसे व्याप्त हुए वज्जके द्वारा वृत्रासुरका वध करके पुनः स्वर्गलोकमें ही प्रवेश किया ।। १० ६ ।।
कुरुनन्दन! तदनन्तर वृत्रासुरके मृत शरीरसे सम्पूर्ण जगत्को भय देनेवाली महाघोर एवं क्रूर स्वभाववाली ब्रह्महत्या प्रकट हुई। उसके दाँत बड़े विकराल थे। उसकी आकृति कृष्ण और पिंगल वर्णकी थी। वह देखनेमें बड़ी भयानक और विकृत रूपवाली थी ।।
भरतनन्दन! उसके बाल बिखरे हुए थे, नेत्र बड़े भयावने थे। उसके गलेमें नरमुण्डोंकी माला थी। भरतश्रेष्ठ! वह कृत्या-सी जान पड़ती थी ।। १३ ।।
धर्मज्ञ राजेन्द्र! भरतसत्तम! उसके सारे अंग रक्तसे भींगे हुए थे। उसने चीर और वल्कल पहन रखे थे। ऐसे विकराल रूपवाली वह भयानक ब्रह्महत्या वृत्रके शरीरसे निकलकर तत्काल ही वज्रधारी इन्द्रको खोजने लगी ।।
कुरुनन्दन! उस समय वृत्रविनाशक इन्द्र लोक-हितकी कामनासे स्वर्गकी ओर जा रहे थे। महातेजस्वी इन्द्रको युद्धभूमिसे निकलकर जाते देख ब्रह्महत्या कुछ ही कालमें उनके पास जा पहुँची ।। १५-१६ ।।
उस ब्रह्महत्याने देवेन्द्रको पकड़ लिया और वह तुरंत ही उनके शरीरसे सट गयी। वह ब्रह्म हत्याजनित भय उपस्थित होनेपर इन्द्र उससे पिण्ड छुड़ानेके लिये भागे और कमलकी नालके भीतर घुसकर उसीमें बहुत वर्षोतक छिपे रहे || १७३ ।।
परंतु उस ब्रह्मचहत्याने यत्नपूर्वक उनका पीछा करके वहाँ भी उन्हें जा पकड़ा। कुरुनन्दन! ब्रह्महत्याद्वारा पकड़ लिये जानेपर इन्द्र निस्तेज हो गये || १८ ½।।
देवेन्द्रने उसके निवारणके लिये महान् प्रयत्न किया; परंतु किसी तरह भी वे उसे दूर न कर सके ।।
भरतभूषण! ब्रह्महत्याने देवराज इन्द्रको अपना बंदी बना ही लिया। वे उसी अवस्थामें ब्रह्माजीके पास गये और मस्तक झुकाकर उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया ।।
भरतसत्तम! एक श्रेष्ठ ब्राह्मणके वधसे पैदा हुई ब्रह्महत्याने इन्द्रको पकड़ लिया है-यह जानकर ब्रह्माजी विचार करने लगे ।। २१३ ।।
महाबाहु भारत! तब ब्रह्माजीने उस ब्रह्महत्याको अपनी मीठी वाणीद्वारा सान्त्वना देते हुए-से उससे कहा-- || २२६ ।।
“भाविनि! ये देवताओंके राजा इन्द्र हैं, इन्हें छोड़ दो। मेरा यह प्रिय कार्य करो। बोलो, मैं तुम्हारी कौन-सी अभिलाषा पूर्ण करूँ। तुम जिस किसी मनोरथको पाना चाहो उसे बताओ” ।। २३-२४ ।।
ब्रह्महत्या बोली--तीनों लोकोंकी सृष्टि करने-वाले त्रिभुवनपूजित आप परमदेवके प्रसन्न हो जानेपर मैं अपने सारे मनोरथोंको पूर्ण हुआ ही मानती हूँ। अब आप मेरे लिये केवल निवासस्थानका प्रबन्ध कर दीजिये ।। २५ ।।
आपने सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये यह धर्मकी मर्यादा बाँधी है। देव! आपहीने इस महत्त्वपूर्ण मर्यादाकी स्थापना करके इसे चलाया है ।। २६ ।।
धर्मके ज्ञाता सर्वलोकेश्वर प्रभो! जब आप प्रसन्न हैं तो मैं इन्द्रको छोड़कर हट जाऊँगी; परंतु आप मेरे लिये निवास-स्थानकी व्यवस्था कर दीजिये ।। २७ ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! तब ब्रह्माजीने ब्रह्महत्यासे कहा--“बहुत अच्छा, मैं तुम्हारे रहनेकी व्यवस्था करता हूँ” ऐसा कहकर उन्होंने उपायद्वारा इन्द्रकी ब्रह्महत्याको दूर किया ।। २८ ।।
तदनन्तर महात्मा स्वयम्भूने वहाँ अग्निदेवका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे ब्रह्माजीके पास आ गये और इस प्रकार बोले-- ।। २९ |।
'भगवन्! अनिन्द्य देव! मैं आपके निकट आया हूँ। प्रभो! मुझे जो कार्य करना हो, उसके लिये आप मुझे आज्ञा दें! |। ३० ।।
ब्रह्माजीने कहा--अग्निदेव! मैं इन्द्रको पापमुक्त करनेके लिये इस ब्रह्महत्याके कई भाग करूँगा। इसका एक चतुर्थाश तुम भी ग्रहण कर लो ।। ३१ ।।
अग्निने कहा--ब्रह्मन! प्रभो! मेरे लिये आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परंतु मैं भी इस ब्रह्महत्यासे मुक्त हो सकूँ, इसके लिये इसकी अन्तिम अवधि क्या होगी, इसपर आप विचार करें। विश्ववन्द्य पितामह! मैं इस बातको ठीक-ठीक जानना चाहता हूँ ।। ३२।।
ब्रह्माजीने कहा--अग्निदेव! यदि किसी स्थानपर तुम प्रज्वलित हो रहे हो, वहाँ पहुँचकर कोई अधिकारी मानव तमोगुणसे आवृत होनेके कारण बीज, ओषधि या रसोंसे स्वयं ही तुम्हारा पूजन नहीं करेगा तो उसीपर तुरंत यह ब्रह्महत्या चली जायगी और उसीके भीतर निवास करने लगेगी; अतः हव्यवाहन! तुम्हारी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये || ३३-३४ ।।
प्रभो! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर हव्य और कव्यके भोक्ता भगवान् अग्निदेवने उन पितामहकी वह आज्ञा स्वीकार कर ली। इस प्रकार ब्रह्महत्याका एक चौथाई भाग अम्निमें चला गया ।। ३५ ||
महाराज! इसके बाद पितामह वृक्ष, तृण और ओषधियोंको बुलाकर उनसे भी वही बात कहने लगे ।।
ब्रह्माजी बोले--वृत्रासुरके वधसे यह महाभयंकर ब्रह्महत्या प्रकट होकर इन्द्रके पीछे लगी है। तुमलोग उसका एक चौथाई भाग स्वयं ग्रहण कर लो ।।
राजन! ब्रह्माजीने जब उसी प्रकार सब बातें ठीक-ठीक सामने रख दीं, तब अग्निके ही समान वृक्ष, तृण और ओषधियोंका समुदाय भी व्यथित हो उठा और उन सबने ब्रह्माजीसे इस प्रकार कहा-- || ३७ |।
“लोकपितामह! हमारी इस ब्रह्महत्याका अन्त क्या होगा? हम तो यों ही दैवके मारे हुए स्थावर योनिमें पड़े हैं; अत: अब आप पुन: हमें न मारें || ३८ ।।
“देव! त्रिलोकीनाथ! हमलोग सदा अग्नि और धूपका ताप, सर्दी, वर्षा, आँधी और अस्त्र-शस्त्रोंद्रारा भेदन-छेदनका कष्ट सहते रहते हैं। आज आपकी आज्ञासे इस ब्रह्महत्याको भी ग्रहण कर लेंगे; किंतु आप इनसे हमारे छुटकारेका उपाय भी तो सोचिये' ।।
ब्रह्माजीने कहा--संक्रान्ति, ग्रहण, पूर्णिमा, अमावास्या आदि पर्वकाल प्राप्त होनेपर जो मनुष्य मोहवश तुम्हारा भेदन-छेदन करेगा, उसीके पीछे तुम्हारी यह ब्रह्महत्या लग जायगी ।। ४१ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन! महात्मा ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वृक्ष, ओषधि और तृणका समुदाय उनकी पूजा करके जैसे आया था, वैसे ही शीघ्र लौट गया ।।
भारत! तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजीने अप्सराओंको बुलाकर उन्हें मीठे वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए-से कहा-- ।। ४३ ।।
सुन्दरियो! यह ब्रह्महत्या इन्द्रके पाससे आयी है। तुमलोग मेरे कहनेसे इसका एक चतुर्थाश ग्रहण कर लो” ।।
अप्सराएँ बोलीं--देवेश पितामह! आपकी आज्ञासे हमने इस ब्रह्महत्याको ग्रहण कर लेनेका विचार किया है, किंतु इससे हमारे छुटकारेके समयका भी विचार करनेकी कृपा करें || ४५ ।।
ब्रह्माजीनी कहा--जो पुरुष रजस्वला स्त्रियोंके साथ मैथुन करेगा, उसपर यह ब्रह्महत्या शीघ्र चली जायगी; अतः तुम्हारी यह मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये ।। ४६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठीी यह सुनकर अप्सराओंका मन प्रसन्न हो गया। वे “बहुत अच्छा' कहकर अपने-अपने स्थानोंमें जाकर विहार करने लगीं ।।
तब त्रिभुवनकी सृष्टि करनेवाले महातपस्वी भगवान् ब्रह्माने पुन. जलका चिन्तन किया। उनके स्मरण करते ही तुरंत जलदेवता वहाँ उपस्थित हो गये || ४८ ।।
राजन! वे सब अमित तेजस्वी पितामह ब्रह्माजीके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोले-- ।।
'शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रभो! देव! लोकनाथ! हम आपकी आज्ञासे सेवामें उपस्थित हुए हैं। हमें आज्ञा दीजिये, हम कौन-सी सेवा करें?” || ५० ।।
ब्रह्माजीने कहा--वृत्रासुरके वधसे इन्द्रको यह महाभयंकर ब्रह्महत्या प्राप्त हुई है। तुमलोग इसका एक चौथाई भाग ग्रहण कर लो ।। ५१ ।।
जलदेवताने कहा--लोकेश्वर! प्रभो! आप जैसा कहते हैं, ऐसा ही होगा; परंतु हम इस ब्रह्महत्यासे किस समय छुटकारा पायेंगे, इसका भी विचार कर लें ।। ५२ ।।
देवेश्वरर आप ही इस सम्पूर्ण जगत॒के परम आश्रय हैं। आप हमारा इस संकटसे उद्धार कर दें, इससे बढ़कर हम लोगोंपर दूसरा कौन अनुग्रह होगा || ५३ ।।
ब्रह्माजीने कहा--जो मनुष्य अपनी बुद्धिकी मन्दतासे मोहित होकर जलमें तुच्छ बुद्धि करके तुम्हारे भीतर थूक, खँखार या मल-मूत्र डालेगा, तुम्हें छोड़कर यह ब्रह्महत्या तुरंत उसीपर चली जायगी और उसीके भीतर निवास करेगी। इस प्रकार तुमलोगोंका ब्रह्महत्यासे उद्धार हो जायगा, यह मैं सत्य कहता हूँ || ५४-५५ ।।
युधिष्ठटिर! तदनन्तर देवराज इन्द्रको छोड़कर वह ब्रह्महत्या ब्रह्माजीकी आज्ञासे उनके दिये हुए पूर्वोक्त निवास-स्थानोंको चली गयी ।। ५६ ।।
नरेश्वर! इस प्रकार इन्द्रको ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी, फिर उन्होंने ब्रह्माजीकी आज्ञा लेकर अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया || ५७ ।।
महाराज! सुननेमें आता है कि इन्द्रको जो ब्रह्महत्या लगी थी, उससे उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करके ही शुद्धि लाभ की थी ।। ५८ ।।
पृथ्वीनाथ! देवराज इन्द्रने सहस्रों शत्रुओंका वध करके अपनी खोयी हुई राजलक्ष्मीको पाकर अनुपम आनन्द प्राप्त किया ।। ५९ ।।
कुन्तीनन्दन! वृत्रासुरके रक्तसे बहुतेरे छत्रक उत्पन्न हुए थे, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यके लिये तथा यज्ञकी दीक्षा लेनेवालोंके लिये और तपस्वियोंके लिये अभक्षणीय हैं ।। ६० ।।
कुरुनन्दन! तुम भी इन ब्राह्मणोंका सभी अवस्थाओंमें प्रिय करो। ये इस पृथ्वीपर देवताके रूपमें विख्यात हैं |।
कुरुकुलभूषण! इस तरह अमित तेजस्वी देवराज इन्द्रने अपनी सूक्ष्म बुद्धिसे काम लेकर उपायपूर्वक महान् असुर वृत्रका वध किया था ।। ६२ ।।
कुन्तीकुमार! जैसे स्वर्गलोकमें शत्रुसूदन इन्द्रदेव विजयी हुए थे, उसी प्रकार तुम भी इस पृथ्वीपर किसीसे पराजित होनेवाले नहीं हो ।। ६३ ।।
जो प्रत्येक पर्वके दिन ब्राह्मणोंकी सभामें इस दिव्य कथाका प्रवचन करेंगे, उन्हें किसी प्रकारका पाप नहीं प्राप्त होगा || ६४ ।।
तात! इस प्रकार वृत्रासुरके प्रसंगसे मैंने तुम्हें यह इन्द्रका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सुना दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो? ।। ६५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपरवके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें ब्रह्महत्याका विभाजनविषयक दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ६६ श्लोक हैं)
टिका टिप्पणी -
- अध्याय २८० के ५९ वें श्लोकमें आया है कि 'वृत्रासुरने अपने आत्माको परमात्मामें लगाकर उन्हींका चिन्तन करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्वरके परम धामको प्राप्त कर लिया'--यहाँ भी इतनी बात और समझ लेनी चाहिये।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तिरासीवें अध्याय के श्लोक 1-63½ का हिन्दी अनुवाद)
“शिवजीद्दारा दक्षयज्ञका भंग और उनके क्रोधसे ज्वरकी उत्पत्ति तथा उसके विविध रूप”
युधिष्ठिरने पूछा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण महाप्राज्ञ पितामह! देव! इस वृत्रवधके प्रसंगमें मुझे कुछ पूछनेकी इच्छा हो रही है ।। १ ।।
निष्पाप जनेश्वर! आपने कहा है कि वृत्रासुर ज्वरसे मोहित हो गया था, उसी अवस्थामें इन्द्रने अपने वज़से उसे मार डाला ॥। २ ।।
महामते! प्रभो! यह ज्वर कैसे और कहाँसे उत्पन्न हुआ? मैं ज्वरकी उत्पत्तिका प्रसंग भलीभाँति सुनना चाहता हूँ ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! ज्वरकी उत्पत्तिका यह वृत्तान्त सम्पूर्ण लोकोंमें प्रसिद्ध है, सुनो। भारत! यह प्रसंग जैसा है, उसे मैं विस्तारपूर्वक बता रहा हूँ ।। ४ ।।
भरतनन्दन! महाराज! पूर्वकालमें सुमेरु पर्वतका ज्योतिष्क नामसे प्रसिद्ध एक शिखर था, जो सविता (सूर्य) देवतासे सम्बन्ध रखनेके कारण सावित्र कहलाता था। वह सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित, अप्रमेय, समस्त लोकोंके लिये अगम्य और तीनों लोकोंद्वारा पूजित था ।।
सुवर्णमय धातुसे विभूषित उस पर्वतशिखरके तटपर बैठे हुए महादेवजी उसी प्रकार अपूर्व शोभा पाते थे मानो किसी सुन्दर पर्यड्कपर बैठे हों। वहीं प्रतिदिन उनके वामपार्श्रमें रहकर गिरिराजनन्दिनी भगवती पार्वती भी अनुपम शोभा पाती थीं ।। ६-७ ।।
इसी प्रकार वहाँ बहुत-से महामनस्वी देवता, अमित तेजस्वी वसुगण, चिकित्सकोंमें श्रेष्ठ महामना अश्विनीकुमार, शंखनिधि, पद्मनिधि तथा उत्तम ऋद्धिके साथ गुह्ुकोंसे घिरे हुए कैलासवासी यक्षपति प्रभुतासम्पन्न श्रीमान् राजा कुबेर तथा महामुनि शुक्राचार्य--ये सभी परमात्मा महादेवजीकी उपासना किया करते थे ।। ८-९ ।।
सनत्कुमार आदि महर्षि, अंगिरा आदि तथा अन्य देवर्षि, विश्वावसु गन्धर्व, नारद, पर्वत और अप्सराओंके अनेक समुदाय उस पर्वतपर महादेवजीकी आराधनाके लिये आया करते थे।। १०-११ ||
वहाँ नाना प्रकारकी सुगन्धको फैलानेवाली, पवित्र, सुखद एवं मंगलमयी वायु चलती रहती थी। सभी ऋतुओंके फूलोंसे सुशोभित होनेवाले खिले हुए वृक्ष उस शिखरकी शोभा बढ़ाते थे || १२ ।।
भारत! तपस्याके धनी सिद्ध और विद्याधर भी वहाँ पशुपति महादेवजीकी उपासनामें तत्पर रहते थे ।।
महाराज! अनेक रूप धारण करनेवाले भूत, महाभयंकर राक्षस, महाबली और बहुतसे रूप धारण करनेवाले पिशाच, जो महादेवजीके अनुचर थे, वहाँ हर्षमें भरकर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये खड़े रहते थे। वे सब-के-सब अग्निके समान तेजस्वी थे ।।
महादेवजीकी आज्ञासे भगवान् नन्दी अपने तेजसे देदीप्यमान हो हाथमें प्रज्वलित शूल लेकर वहाँ खड़े रहते थे ।। १६ ।।
कुरुनन्दन! समस्त तीर्थोंके जलोंको लेकर प्रकट हुई सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजी वहाँ दिव्यरूप धारण करके देवाधिदेव महादेवजीकी आराधना करती थीं ।। १७ ।।
इस प्रकार देवताओं और देवर्षियोंसे पूजित होते हुए महातेजस्वी भगवान् महादेव वहाँ नित्य विराजमान थे ।।
कुछ कालके अनन्तर दक्ष नामसे प्रसिद्ध प्रजापतिने पूर्वोक्त शास्त्रीय विधानके अनुसार यज्ञ करनेका संकल्प लेकर उसके लिये तैयारी आरम्भ कर दी ।। १९ |।
उस समय इन्द्र आदि सब देवताओंने दक्ष प्रजापतिके यज्ञमें जानेके लिये परस्पर मिलकर निश्चय किया ।।
वे महामनस्वी देवता सूर्य और अग्निके समान तेजस्वी विमानोंपर बैठकर महादेवजीकी आज्ञा ले गंगाद्वार (हरिद्वार) को गये--यह बात हमारे सुननेमें आयी है ।। २१ ।।
देवताओंको प्रस्थित हुआ देख सती साध्वी गिरिराजनन्दिनी उमाने अपने स्वामी पशुपति महादेवजीसे पूछा--- ।। २२ ।।
भगवन्! ये इन्द्र आदि देवता कहाँ जा रहे हैं? तत्त्वज्ञ परमेश्वर! ठीक-ठीक बताइये। मेरे मनमें यह महान् संशय उत्पन्न हुआ है” || २३ ।।
महेश्वरने कहा--महाभागे! श्रेष्ठ प्रजापति दक्ष अश्वमेध यज्ञ करते हैं; उसीमें ये सब देवता जा रहे हैं ।।
उमा बोलीं--महादेव! इस यज्ञमें आप क्यों नहीं पधार रहे हैं? किस प्रतिबन्धके कारण आपका वहाँ जाना नहीं हो रहा है? ।। २५ ।।
महेश्वरने कहा--महाभागे! देवताओंने ही पहले ऐसा निश्चय किया था। उन्होंने सभी यज्ञोंमेंसे किसीमें भी मेरे लिये भाग नियत नहीं किया ।। २६ ।।
सुन्दरि! पूर्वनिश्चित नियमके अनुसार धर्मकी दृष्टिसे ही देवतालोग यज्ञमें मुझे भाग नहीं अर्पित करते हैं ।। २७ ।।
उमाने कहा--भगवन्! आप समस्त प्राणियोंमें सबसे अधिक प्रभावशाली, गुणवान्, अजेय, अधृष्य, तेजस्वी, यशस्वी तथा श्रीसम्पन्न हैं। महाभाग! यज्ञमें जो इस प्रकार आपको भाग देनेका निषेध किया गया है, इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ है। अनघ! इस अपमानसे मेरा सारा शरीर काँप रहा है || २८-२९ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! अपने पति भगवान् पशुपतिसे ऐसा कहकर पार्वतीदेवी चुप हो गयीं, परंतु उनका हृदय शोकसे दग्ध हो रहा था ।। ३० ।॥।
पार्वतीदेवीके मनमें क्या है और वे क्या करना चाहती हैं, इस बातको जानकर महादेवजीने नन्दी को आज्ञा दी कि तुम यहीं खड़े रहो || ३१ ।।
तदनन्तर सम्पूर्ण योगेश्वरोंके भी ईश्वर महातेजस्वी देवाधिदेव पिनाकधारी शिवने योगबलका आश्रय ले अपने भयानक सेवकोंद्वारा उस यज्ञको सहसा नष्ट करा दिया ॥। ३२ ½ |
राजन! भगवान् शिवके अनुचरोंमेंसे कोई तो जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे, किन्हींने अट्टहास करना आस्मभ कर दिया तथा दूसरे यज्ञाग्निको बुझानेके लिये उसपर रक्तकी वर्षा करने लगे || ३३ ६ ।।
कोई विकराल मुखवाले पार्षद यज्ञके यूरोको उखाड़कर वहाँ चारों ओर चक्कर लगाने लगे | दूसरोंने यज्ञके परिचारकोंको अपने मुखका ग्रास बना लिया ।। ३४½ ।।
नरेश्वर! इस प्रकार जब सब ओरसे आघात होने लगा, तब वह यज्ञ मृगका रूप धारण करके आकाशकी ओर ही भाग चला || ३५३ ||
यज्ञको मृगका रूप धारण करके भागते देख भगवान् शिवने धनुष हाथमें लेकर अपने बाणके द्वारा उसका पीछा किया ।। ३६३६ ।।
तत्पश्चात् अमिततेजस्वी देवेश्वर महादेवजीके क्रोधके कारण उनके ललाटसे भयंकर पसीनेकी बूँद प्रकट हुई। उस पसीनेके बिन्दुके पृथ्वीपर पड़ते ही कालाग्निके समान विशाल अग्निपुंजका प्रादुर्भाव हुआ ।।
पुरुषप्रवर! उस समय उस आगसे एक नाटा-सा पुरुष उत्पन्न हुआ, जिसकी आँखें बहुत ही लाल थीं। दाढ़ी और मूँछके बाल भूरे रंगके थे। वह देखनेमें बड़ा डरावना जान पड़ता था || ३९३ |।
उसके केश ऊपरकी ओर उठे हुए थे। उसके सारे अंग बाज और उल्लूके समान अतिशय रोमावलियोंसे भरे थे। शरीरका रंग काला और विकराल था। उसके वस्त्र लाल रंगके थे। उस महान् शक्तिशाली पुरुषने उस यज्ञको उसी प्रकार दग्ध कर दिया, जैसे आग सूखे काठ या घास फूसके ढेरको जलाकर भस्म कर डालती है || ४०-४१ ।।
तत्पश्चात् वह पुरुष सब ओर विचरने लगा और देवताओं तथा ऋषियोंकी ओर दौड़ा। उसे देखकर सब देवता भयभीत हो दसों दिशाओंमें भाग गये ।। ४२ ।।
राजन! भरतभूषण! प्रजानाथ! उस यज्ञमें विचरते हुए उस पुरुषके पैरोंकी धमकसे यह पृथ्वी बड़े जोर-जोरसे काँपने लगी ।। ४३ ।।
उस समय सारे जगत्में हाहाकार मच गया। यह सब देखकर भगवान् ब्रह्माने महादेवजीको जगत्की यह दुर्दशा दिखाते हुए उनसे इस प्रकार कहा ।। ४४ ।।
ब्रद्माजी बोले--सर्वदेवेश्वर! प्रभो! अब आप अपने बढ़े हुए उस क्रोधको शान्त कीजिये। आजसे सब देवता आपको भी यज्ञका भाग दिया करेंगे ।। ४५ ।।
शत्रुओंको संताप देनेवाले महादेव! ये सब देवता और ऋषि आपके क्रोधसे संतप्त होकर कहीं शान्ति नहीं पा रहे हैं || ४६ ।।
धर्मज्ञ देवेश्वरर आपके पसीनेसे जो यह पुरुष प्रकट हुआ है, इसका नाम होगा ज्वर। यह समस्त लोकोंमें विचरण करेगा ।। ४७ ।।
प्रभो! आपका तेजरूप यह ज्वर जबतक एक रूपमें रहेगा, तबतक यह सारी पृथ्वी इसे धारण करनेमें समर्थ न हो सकेगी। अतः इसे अनेक रूपोंमें विभक्त कर दीजिये ।। ४८ ।।
जब ब्रह्माजीने इस प्रकार कहा और यज्ञमें भाग मिलनेकी भी व्यवस्था हो गयी, तब महादेवजी अमिततेजस्वी भगवान् ब्रह्मासे इस प्रकार बोले--“तथास्तु' ऐसा ही हो ।।
पिनाकधारी शिवको उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई और वे मुस्कराने लगे। जैसा कि ब्रह्माजीने कहा था, उसके अनुसार उन्होंने यज्ञमें भाग प्राप्त कर लिया ।।
वत्स युधिष्ठि!![ उस समय समस्त धर्मोके ज्ञाता भगवान् शिवने सम्पूर्ण प्राणियोंकी शान्तिके लिये ज्वरको अनेक रूपोंमें बाँट दिया, उसे भी सुन लो || ५१ ।।
हाथियोंके मस्तकमें जो ताप या पीड़ा होती है, वही उनका ज्वर है। पर्वतोंका ज्वर शिलाजीतके रूपमें प्रकट होता है। सेवारको पानीका ज्वर समझना चाहिये। सर्पोंका ज्वर केंचुल है। गाय-बैलोंके खुरोंमें जो खोरक नामवाला रोग होता है, वही उनका ज्वर है। पृथ्वीका ज्वर ऊसरके रूपमें प्रकट होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर! पशुओंकी दृष्टि-शक्तिका जो अवरोध होता है, वह भी उनका ज्वर ही है || ५२-५३ ।।
घोड़ोंके गलेके छेदमें जो मांसखण्ड बढ़ जाता है, वही उनका ज्वर है। मोरोंकी शिखाका निकलना ही उनके लिये ज्वर है। कोकिलका जो नेत्ररोग है, उसे भी महात्मा शिवने ज्वर बताया है || ५४ ।।
समस्त भेड़ोंका पित्तभेद भी ज्वर ही है--यह हमारे सुननेमें आया है। समस्त तोतोंके लिये हिचकीको ही ज्वर बताया गया है || ५५ ।।
धर्मज्ञ भरतनन्दन! सिंहोंमें थकावटका होना ही ज्वर कहलाता है; परंतु मनुष्योंमें यह ज्वरके नामसे ही प्रसिद्ध है ।।
भगवान् महेश्वरका तेजरूप यह ज्वर अत्यन्त दारुण है। यह मृत्युकालमें, जन्मके समय तथा बीचमें भी मनुष्योंके शरीरमें प्रवेश कर जाता है। यह सर्वसमर्थ माहेश्वर ज्वर समस्त प्राणियोंके लिये वन्दनीय और माननीय है। इसीने धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ वृत्रासुरके शरीरमें प्रवेश किया था || ५७-५८ ।।
भारत! उस ज्वरसे पीड़ित होकर जब वह जँभाई लेने लगा, उसी समय इन्द्रने उसपर वज्रका प्रहार किया। वज्नने उसके शरीरमें घुसकर उसे चीर डाला ।। ५९ ||
वज्ञसे विदीर्ण हुआ महायोगी एवं महान् असुर वृत्र अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुके परम धामको चला गया || ६० ।।
भगवान् विष्णुकी भक्तिके प्रभावसे ही उसने अपनी विशाल कायाद्वारा इस सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर लिया था। अतः युद्धमें मारे जानेपर उसने विष्णुधाम प्राप्त कर लिया ।। ६१ ।।
बेटा! इस प्रकार वृत्रासुरके वधके प्रसंगसे मैंने महान् माहेश्वर ज्वरकी उत्पत्तिका वृत्तान्त विस्सारपूर्वक कह सुनाया। अब तुमसे और क्या कहूँ? ।। ६२ ।।
जो उदारचित्त एवं एकाग्र होकर ज्वरकी उत्पत्तिसे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथाको सदा पढ़ता है, वह मनुष्य रोगमुक्त, सुखी एवं प्रसन्न होकर मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है ।। ६३ ।।
(इस प्रकार श्रीमह्या भारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें ज्वरकी उत्पत्तिविषयक दी सौ तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ½ श्लोक मिलाकर कुल ६३½ “लोक हैं)
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