सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“तृष्णाके परित्यागके विषयमें माण्डव्य मुनि और जनकका संवाद”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! हमलोग बड़े पापी और क्रूर हैं। हमने धनके लिये ही भाई, पिता, पौत्र, कुटुम्बीजन, सुहृद् और पुत्र--इन सबका संहार कर डाला। यह जो धनजनित तृष्णा है, इसीने हमसे बड़े-बड़े पाप करवाये हैं। हम इस तृष्णाको किस तरह दूर करें? ।। १-२ ।।
भीष्मजी बोले--राजन्! एक बार माण्डव्य मुनिने विदेहगाज जनकसे ऐसा ही प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें विदेहराजने जो उदगार प्रकट किया था, उसी प्राचीन इतिहासको विज्ञ पुरुष ऐसे अवसरोंपर उदाहरणके तौरपर दुहराया करते हैं ।। ३ ।।
राजा जनकने कहा था कि मैं बड़े सुखसे जीवन व्यतीत करता हूँ; क्योंकि इस जगत्की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है। किसीपर भी मेरा ममत्व नहीं है। यदि सारी मिथिलामें आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलता है ।। ४ ।।
जो विवेकी हैं, उन्हें बड़े समृद्धिसम्पन्न विषय भी दुःखरूप ही जान पड़ते हैं। परंतु अज्ञानियोंको तुच्छ विषय भी सदा मोहमें डाले रहते हैं। लोकमें जो कामजनित सुख है तथा जो स्वर्गका दिव्य एवं महान् सुख है, वे दोनों तृष्णाक्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं कलाकी भी तुलना पानेके योग्य नहीं हैं ।। ५-६ ।।
जिस प्रकार समयानुसार बड़े होते हुए बछड़ेका सींग भी उसके शरीरके साथ ही बढ़ता है, उसी प्रकार बढ़ते हुए धनके साथ उसकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है || ७ ।।
कोई भी वस्तु क्यों न हो, जब उसके प्रति ममता कर ली जाती है--वह वस्तु अपनी मान ली जाती है, तब नष्ट होनेपर वही संतापका कारण बन जाती है ।।
इसलिये कामनाओं या भोगोंकी वृद्धिके लिये आग्रह नहीं रखना चाहिये। भोगोंमें जो आसक्ति होती है, वह दुःखरूप ही है। धन पाकर भी उसे धर्ममें ही लगा देना चाहिये। काम भोगोंको तो सर्वथा त्याग ही देना चाहिये || ९ |।
विद्वान् पुरुष सभी प्राणियोंके प्रति अपने समान ही भाव रखे। इससे वह कृतकृत्य और शुद्धचित्त होकर समस्त दोषोंको त्याग देता है || १० ।।
वह सत्य-असत्य, हर्ष-शोक, प्रिय-अप्रिय तथा भय-अभय आदि सभी द्वद्धोंको त्यागकर अत्यन्त शान्त और निर्विकार हो जाता है || ११ ।।
खोटी बुद्धिवाले मूढ़ पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो शरीरके जराजीर्ण हो जानेपर भी स्वयं जीर्ण न होकर नयी-नवेली ही बनी रहती है तथा जिसे प्राणान््तकालतक रहनेवाला रोग माना गया है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको परम सुख मिलता है ।। १२ ।।
जो अपने सदाचारको चन्द्रमाके समान विशुद्ध, उज्ज्वल एवं निर्विकार देखता है, वह धर्मात्मा पुरुष इहलोक और परलोकमें कीर्ति एवं उत्तम सुख पाता है ।। १३ ।।
राजाके ये वचन सुनकर ब्रह्मर्षि माण्डव्य बड़े प्रसन्न हुए। उनके कथनकी प्रशंसा करके मुनिने मोक्षमार्गका आश्रय लिया ।। १४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें माण्डव्य और जनकका संवादविषयक दो सौ छिद्वत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सतहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सतहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)
“शरीर और संसारकी अनित्यता तथा आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके कर्तव्यका निर्देश--पिता-पुत्रका संवाद”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! सम्पूर्ण प्राणियोंको भय देनेवाला यह काल धीरे-धीरे बीता जा रहा है। (कौन कबतक जीवित रहेगा, इसका कुछ निश्चय नहीं है।) ऐसी दशामें मनुष्य किस कार्यको अपने लिये कल्याणकारी समझे, यह मुझे बताइये? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठि! इस विषयमें विज्ञ पुरुष पिता-पुत्र-संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो |। २ ।।
कुन्तीनन्दन! प्राचीनकालमें किसी स्वाध्यायपरायण ब्राह्मणके एक बड़ा मेधावी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम “मेधावी” ही था ।। ३ ।।
उसके पिता सदा स्वाध्यायमें ही तत्पर रहते थे, किंतु मोक्षधर्ममें इतने निपुण नहीं थे। पुत्र मोक्षधर्मके ज्ञानमें कुशल था; अत: उसने अपने पितासे पूछा ।। ४ ।।
पुत्र बोला--तात! मनुष्योंकी आयु तीव्रगतिसे बीती जा रही है। इस बातको अच्छी तरह जाननेवाला धीर पुरुष किस धर्मका अनुष्ठान करे? पिताजी! यह सब क्रमश: और यथार्थरूपसे आप मुझे बताइये, जिससे मैं भी उस धर्मका आचरण कर सकूँ ।। ५ ।।
पिताने कहा--बेटा! द्विजको चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य-आश्रममें रहकर वेदोंका अध्ययन कर ले, फिर पितरोंका उद्धार करनेके लिये गृहस्थ-आश्रममें प्रवेश करके पुत्रोत्पादनकी इच्छा करे। वहाँ विधिपूर्वक अग्नियोंकी स्थापना करके उनमें विधिवत् अग्निहोत्र करे। इस प्रकार यज्ञकर्मका सम्पादन करके वानप्रस्थ-आश्रममें प्रविष्ट हो मुनिवृत्तिसे रहनेकी इच्छा करे ।। ६ ।।
पुत्रने पूछा--पिताजी! यह लोक तो किसीके द्वारा अत्यन्त ताड़ित और सब ओरसे घिरा हुआ जान पड़ता है। यहाँ ये अमोघ वस्तुएँ निरन्तर हमलोगोंपर टूटी पड़ती हैं। ऐसी दशामें आप धीर पुरुषके समान कैसे बातचीत कर रहे हैं? || ७ ।।
पिता बोले--पुत्र! तुम मुझे डरानेकी चेष्टा क्यों करते हो? भला, यह लोक कैसे ताड़ित होता है अथवा किसने इसे घेर रखा है? और यहाँ कौन-सी अमोघ वस्तुएँ हमपर टूटी पड़ती हैं? ।। ८ ।।
पुत्र बोला--पिताजी! देखिये, मृत्यु सारे जगत्को पीट रही है। बुढ़ापेने इसे घेर लिया है। ये दिन और रात्रियाँ हमपर टूटी पड़ती हैं। इस बातको आप समझ क्यों नहीं रहे हैं? ।। ९ ।।
जब मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि मौत मेरे कहनेसे क्षणभर भी रुक नहीं सकती और मैं ज्ञानरूपी कवचसे अपनेको बिना ढके हुए ही विचर रहा हूँ, तब यह समझकर भी मैं अपने कल्याणसाधनमें एक क्षणकी भी प्रतीक्षा कैसे करूँगा? ।। १० ।।
जब प्रत्येक रात बीतनेके बाद आयु क्षीण होकर कुछ-न-कुछ थोड़ी होती चली जा रही है, तब छिछले पानीमें रहनेवाली मछलीके समान कौन सुख पा सकता है? ।। ११ ।।
जैसे मनुष्य वनमें फूल चुन रहा हो, उसी बीचमें कोई हिंसक जीव उसपर आक्रमण कर दे; उसी प्रकार जब मनुष्यका मन दूसरी ओर (विषयभोगोंमें) लगा होता है, उसी समय उसकी इच्छा पूर्ण होनेके पहले ही सहसा मौत आकर उसे दबोच लेती है ।। १२ ।।
इसलिये जिस कामको कल करना हो, उसे आज ही कर ले। जिसे अपराह्वमें करना हो, उसे पूर्वाह्नमें ही कर डाले; क्योंकि मृत्यु इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका काम पूरा हो गया या नहीं ।। १३ ।।
जो कल्याणकारी कार्य है, उसे आप आज ही कर डालिये। यह महान् काल आपको लाँधच न जाय; क्योंकि कौन जानता है कि आज किसकी मृत्युकी घड़ी आ पहुँचेगी || १४ ।।
सारे काम अधूरे ही रह जाते हैं और मौत अपनी ओर खींच लेती है, इसलिये युवावस्थामें ही मनुष्यको धर्मका आचरण करना चाहिये, क्योंकि जीवनका कुछ ठिकाना नहीं है ।। १५ ।।
धर्माचरण करनेसे इस लोकमें प्रसन्नता प्राप्त होती है और मृत्युके पश्चात् परलोकमें अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है। जिसपर मोहका आवेश होता है, वही स्त्री-पुत्रोंके लिये तरह-तरहके काम-धंधोंकी खटपटमें लगा रहता है। वह करने और न करने योग्य काम करके भी इन सबको संतोष देता है। पुत्रों और पशुओंसे सम्पन्न हो जब मनुष्यका मन उन्हींमें आसक्त रहता है, उसी समय जैसे नदीका महान् जलप्रवाह अपने तटपर सोये हुए व्याप्रको बहा ले जाता है, उसी प्रकार मृत्यु उस मनुष्यको लेकर चल देती है || १६-१७ ६
वह भोग-सामग्रियोंका संयम करता और कामनाओंसे अतृप्त ही रहता है। तभी मृत्यु आकर उसे उसी तरह उठा ले जाती है, जैसे बाघिन भेड़के पास पहुँचकर उसे दबोच लेती है ।। १८३ ||
मनुष्य सोचता है कि यह काम तो मैंने कर लिया, इस कामको अभी करना है और यह दूसरा कार्य कुछ हदतक हो गया है और शेष बाकी पड़ा है। इस प्रकार मनसूबे बाँधनेमें लगे हुए उस मनुष्यको मौत लेकर चल देती है ।। १९३६ ।।
वह अपने खेत, दूकान और घरके ही चक््करमें पड़ा रहता है। उनके लिये तरह-तरहके कर्मोमें फँसता है; परंतु उनका फल मिलने भी नहीं पाता कि मौत उसको इस संसारसे उठा ले जाती है |। २०३ ।|।
मनुष्य दुर्बल हो या बलवान, बुद्धिमान् हो या शूरवीर अथवा मूर्ख हो या विद्वान--मृत्यु उसकी समस्त कामनाओं के पूर्ण होनेसे पहले ही उसे उठा ले जाती है ।। २१६
पिताजी! जब इस शरीरमें मृत्यु, जरा, व्याधि और अनेक कारणोंसे होनेवाले दुःखोंका ताँता बँधा ही रहता है और मनुष्य किसी प्रकार भी उनसे अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकते, तब ऐसी दशामें आप निश्चिन्त-से क्यों बैठे हैं? || २२३ ।।
मनुष्यके जन्म लेते ही उसका अन्त कर डालनेके लिये अन्तक (यमराज) उसके पीछे लग जाता है और बुढ़ापा भी देहधारीके पास आता ही है। समस्त चराचर पदार्थ इन दोनोंसे बँधे हुए हैं । २३३ ।।
एकमात्र सत्यके बिना कोई भी मनुष्य कभी सामने आती हुई मृत्युकी सेनाको बलपूर्वक नहीं दबा सकता (अत: असत्यको त्यागकर सत्यका ही आश्रय लेना चाहिये)। क्योंकि सत्यमें ही अमृत (ब्रह्म) प्रतिष्ठित है ।।
गाँव या नगरमें रहकर स्त्री-पुत्रोंमें आसक्ति रखना--यह मृत्युका घर ही है। “यदरण्यम्” इस श्रुतिके अनुसार जो वानप्रस्थ-आश्रम है, यह देवताओंकी गोशालाके समान है ।। २५६।
गाँवोंमें रहकर विषय-भोगोंमें आसक्त होना--यह जीवको बाँधनेवाली रस्सीके समान है। केवल पुण्यात्मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे नहीं काट सकते ।। २६३ ||
जो मन, वाणी, क्रिया तथा अन्य कारणोंद्वारा किसी भी प्राणीकी जीविकाका अपहरण करके उसकी हिंसा नहीं करता, उसको दूसरे प्राणी भी वध या बन्धनके कष्टमें नहीं डालते || २७३ ||
अतः मनुष्यको सत्यव्रतका आचरण करना चाहिये। सत्यरूपी व्रतके पालनमें तत्पर रहना चाहिये। वह सत्यकी कामना करे। सबके प्रति समान भाव रखे। जितेन्द्रिय बने और सत्यके द्वारा ही मृत्युपर विजय प्राप्त करे || २८३६ ।।
अमृत और मृत्यु--ये दोनों इस शरीरमें ही विद्यमान हैं। मोहसे मृत्यु प्राप्त होती है और सत्यसे अमृतपदकी उपलब्धि होती है ।। २९६ ।।
अतः अब मैं काम और क्रोधको त्यागकर अहिंसाधर्मके पालनकी इच्छा करूँगा। सत्यका आश्रय लेकर कल्याणका भागी बनूँगा और अमरकी भाँति मृत्युको दूर हटा दूँगा || ३०६ ।।
सूर्यके उत्तरायण होनेपर शान्तिमय यज्ञमें तत्पर, जितेन्द्रिय, ब्रह्मयज्ञपरायण एवं मननशील होकर मैं जप-स्वाध्यायरूप वाग्यज्ञ, ध्यानरूप मनोयज्ञ और शास्त्रविहित कर्मोंका निष्कामभावसे आचरणरूप कर्मयज्ञका अनुष्ठान करूँगा ।। ३१३ ।।
मेरे-जैसा ज्ञानवान् पुरुष हिंसाप्रधान पशुयज्ञोंद्वारा कैसे यजन कर सकता है? अथवा पिशाचके समान विनाशशील क्षत्रिय--यज्ञोंके अनुष्ठानमें कैसे प्रवृत्त हो सकता है ।। ३२६
पिताजी! मैं आत्मासे अपने आपमें ही उत्पन्न हुआ हूँ। अपने आपमें ही स्थित हूँ। मेरे कोई संतान नहीं है। मैं आत्मयज्ञका ही यजमान होऊँगा। मुझे संतान नहीं तार सकती है | ३३३ ||
जिसकी वाणी और मन सदा एकाग्र रहते हैं तथा जिसमें तप, त्याग और योग-तीनोंका समावेश है, वह उनके द्वारा सब कुछ पा लेता है ।। ३४३ ।।
संसारमें ब्रह्मविद्याके समान कोई नेत्र नहीं है, ब्रह्मविद्याके समान कोई फल नहीं है, रागके समान कोई दुःख नहीं है और त्यागके समान कोई सुख नहीं है ।।
ब्रह्ममें एकीभाव, समता, सत्यपरायणता, सदाचार-निष्ठा, दण्डका त्याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकारके सकाम कर्मोसे निवृत्ति--इनके समान ब्राह्मणका दूसरा कोई धर्म नहीं है ।। ३७ ।।
ब्राह्मणदेव (पिताजी)) जब एक दिन आपको मरना ही है, तब इन धन-वैभव, बन्धुबान्धव तथा स्त्री-पुत्रोंसे क्या प्रयोजन है? अपनी हृदयगुहामें विराजमान आत्माकी खोज कीजिये। सोचिये तो सही, आज आपके पिताजी कहाँ हैं, दादा-बाबा कहाँ चले गये ।। ३८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--नरेश्वर! पुत्रका यह वचन सुनकर उसके पिताने सब कुछ उसके कथनानुसार किया। उसी प्रकार तुम भी सत्य और धर्ममें तत्पर होकर उसी प्रकार आचरण करो ।। ३९ ||
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पिता और पुत्रका संवादविषयक दो सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अठहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अठहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“हारीत मुनिके द्वारा प्रतिपादित संन्यासीके स्वभाव, आचरण और धर्मोंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! प्रकृतिसे परे जो परब्रह्मका अविनाशी परमधाम है, उसे कैसे स्वभाव, किस तरहके आचरण, कैसी विद्या और किन कर्मोमें तत्पर रहनेवाला पुरुष प्राप्त कर सकता है? ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! जो पुरुष मोक्षधर्मोमें तत्पर, मिताहारी और जितेन्द्रिय होता है, वह उस प्रकृतिसे परे परब्रह्म परमात्माका जो अविनाशी परमधाम है, उसे प्राप्त कर लेता है |। २ ।।
युधिष्ठिर! पूर्वकालमें हारीत मुनिने जो ज्ञानका उपदेश किया है, इस विषयमें विज्ञ पुरुष उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो ।।
मुमुक्षु पुरुषको चाहिये कि लाभ और हानिमें समान भाव रखकर मुनिवृत्तिसे रहे और भोगोंके उपस्थित होनेपर भी उनकी आकांक्षासे रहित हो अपने घरसे निकलकर संन्यास ग्रहण कर ले ।। ३ ।।
न नेत्रसे, न मनसे और न वाणीसे ही वह दूसरेके दोष देखे, सोचे या कहे। किसीके सामने या परोक्षमें पराये दोषकी चर्चा कहीं न करे || ४ ।।
समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी भी हिंसा न करे--किसीको भी पीड़ा न दे। सबके प्रति मित्रभाव रखकर विचरता रहे। इस नश्वर जीवनको लेकर किसीके साथ शत्रुता न करे ।। ५ ।।
यदि कोई अपने प्रति अमर्यादित बात कहे--निन्दा या कटुवचन सुनाये तो उसके उन वचनोंको चुपचाप सह ले। किसीके प्रति अहंकार या घमंड न प्रकट करे। कोई क्रोध करे तो भी उससे प्रिय वचन ही बोले। यदि कोई गाली दे तो भी उसके प्रति हितकर वचन ही मुँहसे निकाले ।।
गाँव या जनसमुदायमें दायें-बायें न करे--किसीकी पक्ष-विपक्ष न करे तथा भिक्षावृत्तिको छोड़कर किसीके यहाँ पहलेसे निमन्त्रित होकर भोजनके लिये न जाय ।।
कोई अपने ऊपर धूल या कीचड़ फेंके तो मुमुक्षु पुरुष उससे आत्मरक्षामात्र करे। बदलेमें स्वयं भी वैसा ही न करे और न मुहसे कोई अप्रिय वचन ही निकाले। सर्वदा मृदुताका बर्ताव करे। किसीके प्रति कठोरता न करे। निश्चिन्त रहे और बहुत बढ़-बढ़कर बातें न बनाये ।।
जब रसोईघरसे धूआँ निकलना बंद हो जाय, अनाज-मसाला कूटनेके लिये उठाया हुआ मूसल अलग रख दिया जाय, चूल्हेकी आग ठंडी पड़ जाय, घरके लोग भोजन कर चुके हों और बर्तनोंका संचार--रसोई परोसी हुई थालीका इधर-उधर ले जाया जाना बंद हो जाय, उस समय संन्यासी मुनिको भिक्षा प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिये ।। ९ ।।
उसे केवल अपनी प्राणयात्राके निर्वाहमात्रका यत्न करना चाहिये। भर पेट भोजन मिल जाय, इसकी इच्छा नहीं रखनी चाहिये। यदि भिक्षा न मिले तो उससे मनमें पीड़ाका अनुभव न करे और मिल जाय तो उसके कारण वह हर्षित न हो ।। १० ।।
साधारण (लौकिक) लाभकी इच्छा न करे। जहाँ विशेष आदर एवं पूजा होती हो, वहाँ भोजन न करे। मुमुक्षु पुछषको आदर-सत्कारके लाभकी तो निन्दा करनी चाहिये || ११ ।।
भिक्षामें मिले हुए अन्नके दोष बताकर उनकी निन्दा न करे और न उसके गुण बताकर उन गुणोंकी प्रशंसा ही करे। सोने और बैठनेके लिये सदा एकान्तका ही आदर करे ।। १२ ।।
सूने घर, वृक्षकी जड़, जंगल अथवा पर्वतकी गुफामें अथवा अन्य किसी गुप्त स्थानमें अज्ञातभावसे रहकर आत्मचिन्तनमें ही लगा रहे || १३ ।।
लोगोंके अनुरोध या विरोध करनेपर भी सदा समभावसे रहे, निश्चल एवं स्थिरचित्त हो जाय तथा अपने कर्मोंद्वारा पुण्य एवं पापका अनुसरण न करे || १४ ।।
सर्वदा तृप्त और संतुष्ट रहे। मुख और इन्द्रियोंको प्रसन्न रखे। भयको पास न आने दे। प्रणव आदिका जप करता रहे तथा वैराग्यका आश्रय ले मौन रहे ।। १५ ।।
भौतिक देह, इन्द्रिय आदि सभी वस्तुएँ नष्ट होनेवाली हैं और प्राणियोंक आवागमन-जन्म और मरण--बारंबार होते रहते हैं। यह सब देख और सोचकर जो सर्वत्र निःस्पृह तथा समदर्शी हो गया है, पके (रोटी, भात आदि) और कच्चे (फल, मूल आदि) से जीवन-निर्वाह करता है, आत्मलाभके लिये जो शान्तचित्त हो गया है तथा जो मिताहारी और जितेन्द्रिय है, वही वास्तवमें संन्न्यासी कहलाने योग्य है ।।
संन्यासी तपस्वी होकर वाणी, मन, क्रोध, हिंसा, उदर और उपस्थ--इनके वेगोंको सहता हुआ इन्हें वशमें रखे। दूसरोंद्वारा की हुई निन््दा उसके हृदयमें कोई विकार न उत्पन्न करें ।।
प्रशंसा और निन्दा-दोनोंमें समान भाव रखकर उदासीन ही रहना चाहिये। संन्यासाश्रममें इस प्रकारका आचरण परम पवित्र माना गया है ।। १८ ।।
संन्यासीको महामनस्वी, सब प्रकारसे जितेन्द्रिय, सब ओरसे असंग, सौम्य, मठ और कुटियासे रहित तथा एकाग्रचित होना चाहिये। उसे अपने पूर्व आश्रमके परिचित स्थानोंमें नहीं विचरना चाहिये ।। १९ |।
वानप्रस्थों और गृहस्थोंके साथ उसे कभी संसर्ग नहीं रखना चाहिये। अपनी रुचि प्रकट किये बिना ही जो वस्तु प्राप्त हो जाय, उसीको लेनेकी इच्छा रखनी चाहिये तथा अभीष्ट वस्तुके मिलनेपर उसके मनमें हर्षका आवेश नहीं होना चाहिये || २० ।।
यह संन्यासाश्रम ज्ञानियोंके लिये तो मोक्षरूप है, परंतु अज्ञानियोंके लिये श्रमरूप ही है। हारीत मुनिने विद्वानोंके लिये इस सम्पूर्ण धर्मको मोक्षका विमान बताया है ।। २१ ।।
जो पुरुष सबको अभय-दान देकर घरसे निकल जाता है, उसे तेजोमय लोकोंकी प्राप्ति होती है तथा वह अनन्त परमात्मपदको प्राप्त करनेमें समर्थ होता है || २२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें ह्ररीतगीताविषयक दो सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुछ २३ श्लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ उन्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उन्यासीवें अध्याय के श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रहद्मकी प्राप्तिका उपाय तथा उस विषयमें वृत्र-शुक्रसंवादक आरम्भ”
युधिष्ठिने कहा--पितामह! सभी लोग हमलोगोंको धन्य-धन्य कहते हैं, परंतु हमलोगोंसे बढ़कर अत्यन्त दुखी दूसरा कोई मनुष्य नहीं है || १ ।।
कुरुश्रेष्ठ पितामह! देवताओंद्वारा मानवलोकमें जन्म पाकर तथा सब लोगोंद्वारा सम्मानित होकर भी हमें यहाँ महान् दुःख प्राप्त हुआ है |। २ ।।
कुरुश्रेष्ठ! संसारी मनुष्य जिसे दुःख कहते हैं, उस संन्यासका अवलम्बन हमलोग कब करेंगे? हमें तो इन शरीरोंका धारण करना ही दुःख जान पड़ता है ।। ३ ।।
पितामह! पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच प्राण, मन और बुद्धि--ये सत्रह तत्त्व; काम, क्रोध, लोभ, भय और स्वप्न--ये संसारके पाँच हेतु; शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध >-ये पाँच विषय; सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण तथा पाँच भूतोंसहित अविद्या, अहंकार और कर्म--ये आठ तत्त्वोंके समुदाय सब मिलाकर अड़तीस तत्त्व होते हैं। इन सबसे मुक्त हुए तीक्ष्ण व्रतधारी मुनि पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होते हैं। परंतप पितामह! हमलोग भी कब अपना राज्य छोड़कर इसी स्थितिको प्राप्त होंगे || ४-५ ।।
भीष्मजीने कहा--महाराज! दुःख अनन्त नहीं हैं। जगत्की सभी वस्तुएँ संख्याकी सीमामें ही हैं--असंख्य नहीं हैं। पुनर्जन्म भी नश्वरताके लिये विख्यात ही है। तात्पर्य यह कि इस जगतमें कोई भी वस्तु अचल या स्थायी नहीं है || ६ ।।
तुम जो ऐसा मानते हो कि ऐश्वर्य दोषकारक होता है, क्योंकि वह आसक्तिका हेतु होनेके कारण मोक्षका प्रतिबन्धक है तो तुम्हारी यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि तुम सब लोग धर्मके ज्ञाता हो। स्वयं ही उद्योग करके शम, दम आदि साधनोंद्वारा कुछ ही कालमें मोक्ष प्राप्त कर सकते हो ।। ७ ।।
नरेश्वर! यह जीवात्मा पुण्य और पापके फल सुख और दु:ख भोगनेमें स्वतन्त्र नहीं है, उन पुण्य और पापोंसे उत्पन्न संस्काररूप अन्धकारसे यह आच्छन्न हो जाता है ।। ८ ।।
जैसे अन्धकारमयी वायु मैनसिलके लाल-पीले चूर्णमें प्रवेश करके उसीके रंगसे युक्त हो सम्पूर्ण दिशाओंको रँगती दिखायी देती है, उसी प्रकार स्वभावतः वर्णविहीन यह जीवात्मा तमोमय अज्ञानसे आवृत और कर्मफलसे रंजित हो वही वर्ण ग्रहण कर अर्थात् विभिन्न शरीरोंके धर्मोको स्वीकार करके समस्त प्राणियोंके शरीरोंमें घूमता रहता है ।। ९-१० ।।
जब जीव तत्त्वज्ञानद्वारा अज्ञानजनित अन्धकारको दूर कर देता है, तब उसके हृदयमें सनातन ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है ।। ११ ।।
ऋषि-मुनि कहते हैं कि ब्रह्मकी प्राप्ति किसी क्रियात्मक यत्नसे साध्य नहीं है। इसके लिये तो देवताओंसहित सम्पूर्ण जगत्को और तुमको उन पुरुषोंकी उपासना करनी चाहिये, जो जीवन्मुक्त हैं; अतएव मैं महर्षियोंके समुदायको नमस्कार करता हूँ ।। १२ ।।
नरेश्वर! इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है। उसे एकचित्त होकर सुनो। भरतनन्दन! पूर्वकालमें वृत्रासुर पराजित और एऐश्वर्य-भ्रष्ट हो गया था। उसका कोई सहायक नहीं रह गया था। देवताओंने उसका राज्य छीन लिया था। उस दशामें पड़कर भी उस असुरने जैसी चेष्टा की थी, उसीका इस कथामें वर्णन है। वह शत्रुओंके बीचमें रहकर भी आसक्तिशून्य बुद्धिका आश्रय ले शोक नहीं करता था ।। १३-१४ ।।
पूर्वकालकी बात है कि वृत्रासुरको ऐश्वर्यभ्रष्ट हुआ देख शुक्राचार्यने उससे पूछा --'दानवराज! तुम्हें देवताओंने पराजित कर दिया है तो भी आजकल तुम्हारे चित्तमें किसी प्रकारकी व्यथा नहीं है; इसका क्या कारण है?” ।। १५ |।
वृत्रासुरने कहा--ब्रह्मन! मैंने सत्य और तपके प्रभावसे जीवोंके आवागमनका रहस्य निश्चितरूपसे जान लिया है; इसलिये मैं उसके विषयमें हर्ष और शोक नहीं करता हूँ | १६ ||
कालसे प्रेरित हुए जीव अपने पापकर्मोके फलस्वरूप विवश होकर नरकमें डूबते हैं और पुण्यके फलसे वे सब-के-सब स्वर्गलोकमें जाकर वहाँ आनन्द भोगते हैं। ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है || १७ ।।
इस प्रकार स्वर्ग अथवा नरकमें कर्मफलभोगद्दारा निश्चित समय व्यतीत करके भोगनेसे बचे हुए कर्म-सहित कालकी प्रेरणासे वे बारंबार इस संसारमें जन्म लेते रहते हैं || १८ ।
कामनाओंके बन्धनमें बँधकर विवश हुए कितने ही जीव सहस्रों बार तिर्यक्योनि तथा नरकमें पड़कर पुनः वहाँसे निकलते हैं || १९ ।।
इस प्रकार मैंने सभी जीवोंको जन्म-मरणके चक््करमें पड़ा हुआ देखा है। शास्त्रका भी ऐसा सिद्धान्त है कि जैसा कर्म होता है, वैसा ही फल मिलता है ।।
प्राणी पहले ही सुख-दुःख तथा प्रिय और अप्रिय विषयोंमें विचरण करके कर्मके अनुसार नरक, तिर्यग्योनि, मनुष्ययोनि अथवा देवयोनिमें जाते हैं || २१ ।।
समस्त जीव जगत्-विधाताके विधानसे ही परिचालित हो सुख-दुःख पाता है और समस्त प्राणी सदा चले हुए मार्गपर ही चलते हैं | २२ ।।
जो काल नामसे प्रसिद्ध एवं सृष्टि और पालनके परम आश्रय हैं, उन परमात्माका प्रतिपादन करते हुए वृत्रासुरकी बात सुनकर भगवान् शुक्राचार्यने उससे कहा--“तात! तुम तो बड़े बुद्धिमान् हो, फिर ये असुरभावके विपरीत दोषयुक्त निरर्थक वचन कैसे कह रहे हो? ।। २३ ।।
वृत्रासुरने कहा--ब्रह्म! आपने तथा दूसरे मनीषी महानुभावोंने यह तो प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने पहले विजयके लोभसे बड़ी भारी तपस्या की थी ।। २४ ।।
मैं बलमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था; अतः मैंने अपने ही तेजसे तीनों लोकोंपर आक्रमण करके दूसरे प्राणियोंको धूलमें मिलाकर उनके उपभोगकी गन्ध और रस आदि विविध वस्तुएँ छीन ली थीं ।। २५ ।।
मेरे शरीरसे आगकी लपटें निकलती थीं और मैं ज्वालामालाओंसे घिरकर सदा आकाशमें निर्भय विचरता हुआ समस्त प्राणियोंके लिये अजेय हो गया था ।। २६ ।।
भगवन्! इस प्रकार मैंने तपस्याके प्रभावसे जो ऐश्वर्य प्राप्त किया था, वह मेरे अपने ही कर्मोसे नष्ट हो गया। तथापि मैं धैर्य धारण करके उसके लिये शोक नहीं करता हूँ ।। २७ ।।
महामनस्वी पुरुषप्रवर देवराज इन्द्र जब युद्धकी इच्छासे मेरे सामने आये, उस समय उनके साथ उन्हींकी सहायताके लिये आये हुए सबके प्रभु भगवान् श्रीनारायण हरिका मैंने दर्शन किया था || २८ ।।
वे भगवान् वैकुण्ठ, पुरुष, अनन्त, शुक्ल, विष्णु, सनातन, मुंजकेश, हरिश्मश्रु तथा सम्पूर्ण भूतोंके पितामह हैं || २९ ।।
भगवन! अवश्य ही मेरी उस तपस्याका कोई अंश अब भी शेष रह गया है, अतः मैं उस कर्मफलके विषयमें प्रश्न करना चाहता हूँ || ३० ।।
अणिमा आदि ऐश्वर्य और महद् ब्रह्म किस वर्णमें प्रतिष्ठित हैं? तथा वह उत्तम ऐश्वर्य कैसे नष्ट हो जाता है? ।। ३१ ।।
प्राणी किस हेतुसे जीवन धारण करते हैं? तथा किस कारणसे कर्मामें प्रवृत्त होते हैं? जीव किस परम फलको पाकर अविनाशी एवं सनातनरूपसे प्रतिष्ठित होता है? || ३२
विप्रवर! किस कर्म अथवा ज्ञानसे उस फलको प्राप्त किया जा सकता है? यह मुझे बतानेकी कृपा करें ।। ३३ ।।
राजसिंह! पुरुषप्रवर युधिष्ठिर! उसके ऐसा प्रश्न करनेपर मुनिवर शुक्राचार्यने उस समय उसे जो उत्तर दिया, उसे मैं बता रहा हूँ, तुम अपने भाइयोंके साथ एकाग्रचित्त होकर सुनो || ३४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें वृत्र-गीताविषयक दो सौ उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अस्सीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अस्सीवें अध्याय के श्लोक 1-70½ का हिन्दी अनुवाद)
“वृत्रासुरको सनत्कुमारका अध्यात्मविषयक उपदेश देना और उसकी परमगति तथा भीष्मद्वारा युधिष्ठिरकी शंकाका निवारण”
शुक्राचार्यने कहा--तात! आकाशसहित यह सारी पृथ्वी जिनकी भुजाओंके बलपर स्थित है, महान् प्रभावशाली उन भगवान् विष्णुदेवको नमस्कार है || १ ।।
दानवश्रेष्ठ जिनका मस्तक और स्थान भी अनन्त है, उन भगवान् विष्णुका उत्तम माहात्म्य मैं तुम्हें बताऊँगा ।।
शुक्राचार्य और वृत्रासुरमें ये बातें हो ही रही थीं कि वहाँ महामुनि धर्मात्मा सनत्कुमार उनके संशयका निवारण करनेके लिये आ पहुँचे ।। ३ ।।
राजन! असुरराज वृत्र और मुनि शुक्राचार्यके द्वारा पूजित हो मुनिवर सनत्कुमार एक बहुमूल्य सिंहासनपर विराजमान हुए ।। ४ ।।
जब महाज्ञानी सनत्कुमार आरामसे बैठ गये, तब शुक्राचार्यने उनसे कहा--“भगवन्! आप इस दानवराजको भगवान् विष्णुका उत्तम माहात्म्य बताइये” ।। ५ ।।
यह सुनकर सनत्कुमारजीने बुद्धिमान् दानवराज वृत्रासुरके प्रति भगवान् विष्णुकी महिमासे युक्त यह सार्थक वचन कहा-- ।। ६ ।।
'शत्रुओंको संताप देनेवाले दैत्य! भगवान् विष्णुका यह सम्पूर्ण उत्तम माहात्म्य सुनो-तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि यह समस्त संसार भगवान् विष्णुमें ही स्थित है || ७
“पर महाबाहो! ये श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण चराचर प्राणिसमुदायकी सृष्टि करते हैं और ये ही समय आनेपर उसका विनाश करते हैं एवं समय आनेपर पुन: सृष्टि भी करते हैं || ८ ।।
“समस्त प्राणी इन्हींमें लयको प्राप्त होते हैं और इन्हींसे प्रकट भी होते हैं। इन्हें कोई शास्त्रज्ञान, तपस्या और यज्ञके द्वारा भी नहीं पा सकता। केवल इन्द्रियोंके संयमसे ही उनकी उपलब्धि हो सकती है ।। ९ ।।
“जो बाह्य (यज्ञ आदि) और आशभ्यन्तर (शम, दम आदि) कर्मामें प्रवृत्त होकर मनके विषयमें स्थिरता प्राप्त करके अर्थात् मनको स्थिर करके बुद्धिके द्वारा उसे निर्मल बनाता है, वह परलोकमें अक्षय सुख (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है ।। १० ।।
जैसे सोनार बारंबार किये हुए अपने महान् प्रयत्नके द्वारा चाँदीको आगमें डालकर उसे शुद्ध करता है, उसी प्रकार जीव सैकड़ों जन्मोंमें अपने मनको शुद्ध कर पाता है; परंतु इस यज्ञ आदि और शम-दम आदि कर्मांद्वारा यदि वह महान् प्रयत्न करे तो एक ही जन्ममें शुद्ध हो जाता है ।। ११-१२ ।।
जैसे अपने शरीरमें लगी हुई थोड़ी-सी धूलको मनुष्य साधारण चेष्टासे खेल-खेलमें ही झाड़-पोछ देता है, उसी प्रकार बारंबार किये हुए महान् प्रयत्नसे वह अपने राग-द्वेष आदि दोषोंको भी दूर कर सकता है ।। १३ ।।
'जैसे थोड़े-से पुष्प एवं मालाद्वारा वासित किया हुआ तिल और सरसोंका तेल अपनी गन्ध नहीं छोड़ता है, उसी प्रकार थोड़े-से प्रयत्नसे न तो दोष दूर होते हैं और न सूक्ष्म ब्रह्मका साक्षात्कार ही हो पाता है ।। १४ ।।
“वही तिल या सरसोंका तेल बहुत-से सुगन्धित पुष्पोंद्वारा बारंबार वासित होनेपर अपनी गन्धको छोड़ देता है और उस फूलकी गन्धमें ही स्थित हो जाता है। उसी प्रकार सैकड़ों जन्मोंमें स्त्री-पुत्र आदिके संसर्गसे युक्त तथा सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंद्वारा प्रवर्तित दोषसमूह बुद्धि तथा अभ्यासजनित यत्नसे निवृत्त हो पाता है || १५-१६ ||
“दनुनन्दन! कर्मसे अनुरक्त और कर्मसे विरक्त होनेवाले प्राणिसमूह जिस प्रकार राग और विरागके हेतुभूत विभिन्न कर्मोको प्राप्त होते हैं, वह सुनो || १७ ।।
'प्रभो! जिस प्रकार वे कर्ममें प्रवृत्त होते तथा जिस निमित्तसे उसमें स्थित होते हैं और जिस अवस्थामें उससे निवृत्त हो जाते हैं, वह सब मैं तुमसे क्रमश: बताऊँगा। तुम उसे यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। १८ ।।
श्रीमान् भगवान् नारायण हरि आदि और अन्तसे रहित हैं। वे ही चराचर प्राणियोंकी रचना करते हैं ।।
'वे ही सम्पूर्ण प्राणियोंमें क्र और अक्षररूपसे विद्यमान हैं। ग्यारह इन्द्रियोंका जो वैकारिक- सर्ग है, वह भी उन्हींका स्वरूप है। वे अपनी चैतन्यमयी किरणोंद्वारा सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त हो रहे हैं | २० ।।
'दैत्यराज! पृथ्वीको भगवान् विष्णुके दोनों चरण समझो, स्वर्गलोकको मस्तक जानो, ये चारों दिशाएँ उनकी चार भुजाएँ हैं, आकाश कान है, तेजस्वी सूर्य उनका नेत्र है, मन चन्द्रमा है, बुद्धि (महत्तत्त्व) उनकी नित्य ज्ञानवृत्ति है और जल रसनेन्द्रिय है ।। २१-२२ ।।
“दानवप्रवर! सम्पूर्ण ग्रह उनकी दोनों भौंहोंके बीचमें स्थित हैं। नक्षत्रमण्डल नेत्रोंसे प्रकट हुआ है। दनुनन्दन! यह पृथ्वी उनके दोनों चरणोंमें स्थित है ।।
“उन्हें तुम सम्पूर्ण भूतस्वरूप, इस जगत्का आदिकारण और परमेश्वर समझो। रजोगुण, तमोगुण और सत्त्वगगुण--इन तीनोंको नारायणमय ही मानो। तात! समस्त आश्रमोंका फल वे ही हैं। विद्वान् पुरुष समस्त कर्माद्वारा प्राप्तव्य फल उन्हींको मानते हैं ।। २४ ।।
“कर्मोंका त्यागरूप जो संन्यास है, उसका फल भी वे ही अविनाशी परमात्मा हैं। वेदमन्त्र उनके रोम हैं तथा प्रणव उनकी वाणी है ।। २५ ।।
“बहुत-से वर्ण और आश्रम उनके आश्रय हैं, उनके अनेक मुख हैं। हृदयमें आश्रित धर्म भी उन्हींका स्वरूप है। वे ही ब्रह्म हैं। वे ही आत्मदर्शनरूप परम धर्म हैं। वे ही तप और सदसत्स्वरूप हैं | २६ |।
श्रुति (वेद), शास्त्र और सोमपात्रसहित सोलह” ऋत्विजोंवाला यज्ञ भी वे ही हैं। वे ही ब्रह्मा, विष्णु, अश्विनीकुमार, इन्द्र, मित्र, वरुण, यम और कुबेर हैं ।।
“उनका दर्शन पृथक्-पृथक् होनेपर भी वे अपनी एकताको जानते हैं। तुम भी इस सम्पूर्ण जगत्को एक परमात्मदेवके ही अधीन समझो ।। २८ ।।
'दैत्यागाज! अनेक रूपोंमें प्रकट हुए उन परमात्माकी एकताका यह वेद प्रतिपादन करता है। जीव विज्ञानबलसे ही ब्रह्मका साक्षात्कार करता है। उस समय उसकी बुद्धिमें वह ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है ।। २९ |।
“कितने ही जीव करोड़ों कल्पोंतक स्थावररूपसे एक स्थानमें स्थित रहते हैं और कितने ही उतने समयतक इधर-उधर विचरते रहते हैं। दैत्यप्रवर! प्रजाके सृष्टिका परिमाण कई हजार बावड़ियोंकी संख्याके समान है ।।
“वे सारी बावड़ियाँ पाँच सौ योजन चौड़ी, पाँच सौ योजन लंबी और एक-एक कोस गहरी हों। गहराई इतनी हो कि कोई उनमें प्रवेश न कर सके। तात्पर्य यह कि प्रत्येक बावड़ी बहुत लंबी-चौड़ी और गहरी हो--उनमेंसे एक बावड़ीके जलको कोई दिनभरमें एक ही बार एक बालकी नोकसे उलीचे, दूसरी बार न उलीचे। इस प्रकार उलीचनेसे उन सारी बावड़ियोंका जल जितने समयमें समाप्त हो सकता है, उतने ही समयमें प्राणियोंकी सृष्टि और संहारके क्रमकी समाप्ति हो सकती है (अर्थात् जैसे उक्त प्रकारसे उलीचनेपर उन बावड़ियोंका जल सूखना असम्भव है, वैसे ही बिना ज्ञानके संसारका उच्छेद होना असम्भव है।) ।।
प्राणियोंके वर्ण छ: प्रकारके हैं--कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हरिद्रा (पीला) और शुक्ल-। इनमेंसे कृष्ण, धूत्र और नील वर्णका सुख मध्यम होता है। रक्तवर्ण विशेष रूपसे सहन करने योग्य होता है। हरिद्राकी-सी कान्ति सुख देनेवाली होती है और शुक्लवर्ण अत्यन्त सुखदायक होता है ।। ३३ ।।
“दानवराज! शुक्लवर्ण निर्मल, शोकहीन, परिश्रम-शून्य होनेके कारण सिद्धिकारक होता है। दितिकुलनन्दन! जीव सहस्रों योनियोंमें जन्म ग्रहण करनेके बाद मनुष्ययोनिमें आकर कभी सिद्धि लाभ करता है ।। ३४ ।।
“असुरेन्द्र! देवराज इन्द्रने मंगलमय तत्त्वज्ञान प्राप्त करके हमारे निकट जिस गति और दर्शन-शास्त्रका वर्णन किया है, वह प्राणियोंकी वर्णजनित गति है अर्थात् शुक्लवर्णवालोंको वही सिद्धि प्राप्त होती है। वह वर्ण कालकृत माना गया है ।। ३५ ।।
दैत्यप्रवर! इस जगत्में समस्त जीव-समुदायकी परागति चौदह लाख बतायी गयी है। (पाँच कर्मन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार--ये चौदह करण हैं। इन्हींके भेदसे चौदह प्रकारकी गति होती है। फिर विषयभेदसे वृत्तिभेद होनेके कारण चौदह लाख प्रकारकी गति होती है।) जीवका जो ऊर्ध्वलोकोंमें गमन होता है, वह भी उन्हीं चौदह करणोंद्वारा सम्पादित होता है। विभिन्न स्थानोंमें जो स्थिरतापूर्वक निवास है, वह और उन स्थानोंसे जो उन जीवोंका अधःपतन होता है, वह भी उन्हींके सम्बन्धसे होता है। इस बातको तुम अच्छी तरह जान लो (अतः इन चौदह करणोंको सात्त्विक मार्गाभिमुखी बनाना चाहिये) ।। ३६ ।।
“कृष्णवर्णकी गति नीच बतायी गयी है। वह नरक प्रदान करनेवाले निषिद्ध कर्मोमें आसक्त होता है, इसीलिये नरककी आगमें पकाया जाता है। वह कुमार्ममें प्रवृत्त हुए पूर्वोक्त चौदह करणोंद्वारा पापाचार करनेके कारण अनेक कल्पोंतक नरकमें ही निवास करता है-ऐसा ऋषि-मुनि कहते हैं || ३७ ।।
“तदनन्तर वह जीव लाखों बार (या लाखों वर्षोतक) नरकमें विचरण करके फिर धूम्रवर्ण पाता है (पशु-पक्षी आदिकी योनिमें जन्म लेता है)। उस योनिमें भी वह विवश होकर बड़े दुःखसे निवास करता है। फिर युगक्षय होनेपर वह तप (पुरातन पुण्यकर्म या विवेक) के प्रभावसे सुरक्षित होकर उस संकटसे उद्धार पा जाता है ।। ३८ ।।
“वही जीव जब सत्त्वगुणसे युक्त होता है, तब अपनी बुद्धिके द्वारा तमोगुणकी प्रवृत्तिको दूर हटाता हुआ अपने कल्याणके लिये प्रयत्न करता है। उस समय सत्त्वगुणके बढ़ जानेपर वह रक्तवर्णको प्राप्त होता है (इसीको अनुग्रह सर्ग कहा गया है, चित्तकी विभिन्न वृत्तियोंपर अनुग्रह करनेवाले देवविशेषका ही नाम “अनुग्रह” है)। जब सत्त्वगुणमें कुछ कमी रह जाती है, तब वह जीव नीलवर्णको प्राप्त होकर मनुष्यलोकमें आवागमन करने लगता है ।। ३९ |।
'तत्पश्चात् वह मनुष्यलोकमें एक कल्पतक स्वधर्मजनित बन्धनोंसे बँधकर क्लेश उठाता हुआ जब धीरे-धीरे अपनी तपस्याको बढ़ाता है, तब हल्दीकी-सी कान्तिवाले पीतवर्ण--देवताभावको प्राप्त होता है। वहाँ भी सैकड़ों कल्प व्यतीत कर लेनेपर वह पुनः पुण्यक्षयके पश्चात् मनुष्य होता है (इस प्रकार वह देवतासे मनुष्य और मनुष्यसे देवता होता रहता है) ।।
'दैत्य! सहस्रों कल्पोंतक देवरूपसे विचरते रहनेपर भी जीव विषयभोगसे मुक्त नहीं होता तथा प्रत्येक कल्पमें किये हुए अशुभ कर्मोके फलोंको नरकमें रहकर भोगता हुआ जीव उन्नीस- हजार विभिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् उसे नरकसे छुटकारा मिलता है। मनुष्यके सिवा अन्य सभी योनियोंमें केवल सुख-दुःखके भोग प्राप्त होते हैं। मोक्षका सुयोग हाथ नहीं लगता है। इस बातको तुम्हें भलीभाँति समझ लेना चाहिये || ४१-४२ ।।
“वह जीव निरन्तर देवलोकमें विहार करता है और वहाँसे भ्रष्ट होनेपर मनुष्ययोनिको प्राप्त होता है। मर्त्पलोकमें वह आठ सौ कल्पोंतक बारंबार जन्म लेता रहता है। तत्पश्चात् शुभकर्म करके वह पुनः देवभावको प्राप्त करता है (यह आवागमनका चक्र तभीतक चलता है, जबतक जीवको परमज्ञान या अनन्य भक्तिकी प्राप्ति नहीं हो जाती, उसकी प्राप्ति होनेपर तो वह मुक्त या परमात्माको प्राप्त हो जाता है।) || ४३ ।।
“असुरोंके प्रमुख वीर! वह जीव कालक्रमसे अशुभ कर्म करके कभी-कभी मर्त्यलोकसे भी नीचे गिर जाता है और सबसे निकृष्ट, तलप्रदेशकी भाँति निम्नतम, कृष्णवर्ण (स्थावर योनि) में जन्म ग्रहण करके स्थित होता है। इस प्रकार उत्थान-पतनके चक्रमें पड़े हुए इस जीवसमूहको जिस प्रकार सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है, वह मैं तुम्हें बता रहा हूँ |। ४४ ।।
“क्रमशः रक्तवर्ण (अनुग्राहक देवता), हरिद्रावर्ण (देवता) तथा शुकक्लवर्ण (सनकादिकुमारों-जैसा सिद्ध शरीरधारी) होकर वह जीव बारी-बारीसे सात सौ दिव्य शरीरोंका आश्रय ले भू आदि सात उत्तमोत्तम लोकोंमें विचरण करके पूर्व पुण्यके प्रभावसे वेगपूर्वक विशुद्ध ब्रह्मलोकमें चला जाता है || ४५ ।।
“महानुभाव वृत्रासुर! प्रकृति, महत्तत््व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ--ये आठ, तथा दूसरे साठ- तत्त्व और इनकी जो सैकड़ों वृत्तियाँ हैं--ये सब महातेजस्वी योगियोंके मनके द्वारा अवरुद्ध की हुई होती हैं तथा सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंको भी वे अवरुद्ध कर देते हैं। अतः शुक्लवर्णवाले (सनकादिकोंके समान सिद्ध) पुरुषको जो उत्तम गति प्राप्त होती है, वही उन योगियोंको मिलती है ।। ४६ ।।
“जो परमगति छठे (शुक्ल) वर्णके साधकको मिलती है, उसे पानेका अधिकार भ्रष्ट करके भी जो असिद्ध हो रहा है एवं जिसके समस्त पाप नष्ट हो चुके हैं ऐसा योगी भी यदि योगजनित ऐश्वर्यके सुखभोगकी वासनाका त्याग करनेमें असमर्थ है तो वह न चाहनेपर भी एक कल्पतक अपनी साधनाके फलरूप महर्, जन, तप और सत्य--इन चारों लोकोंमें क्रमश: निवास करता है (और कल्पके अन्तमें मुक्त हो जाता है) || ४७ ।।
“किंतु जो भलीभाँति योगसाधनमें असमर्थ है, वह योगगश्रष्ट पुरुष सौ कल्पोंतक ऊपरके सात लोकोंमें निवास करता है। फिर बचे हुए कर्मसंस्कारोंके सहित वहाँसे लौटकर मनुष्यलोकमें पहलेसे बढ़कर महत्त्व-सम्पन्न हो मनुष्यशरीरको पाता है || ४८ ।।
“तदनन्तर मनुष्ययोनिसे निकलकर वह उत्तरोत्तर श्रेष्ठ देवादि योनियोंकी ओर अग्रसर होता है एवं सातों लोकोंमें प्रभावशाली होकर एक कल्पतक निवास करता है ।। ४९ ।।
'फिर वह योगी भू आदि सात लोकोंको विनाशशील क्षणभंगुर समझकर पुनः मनुष्यलोकमें भलीभाँति (शोक-मोहसे रहित होकर) निवास करता है। तदनन्तर शरीरका अन्त होनेपर वह अव्यय (अविनाशी या निर्विकार) एवं अनन्त (देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेदसे शून्य) स्थान (परब्रह्मपद) को प्राप्त होता है। वह अव्यय एवं अनन्त स्थान किसीके मतमें महादेवजीका कैलासधाम है। किसीके मतमें भगवान् विष्णुका वैकुण्ठधाम है। किसीके मतमें ब्रह्माजीका सत्यलोक है। कोई-कोई उसे भगवान् शेष या अनन्तका धाम बताते हैं। कोई वह जीवका ही परमधाम है--ऐसा कहते हैं और कोई-कोई उसे सर्वव्यापी चिन्मय प्रकाशसे युक्त परब्रह्मका स्वरूप बताते हैं || ५० ।।
'ज्ञानाग्निके द्वारा जिनके सूक्ष्म, स्थूल और कारण-शरीर दग्ध हो गये हैं, वे प्रजाजन अर्थात् योगीलोग प्रलयकालमें सदा परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं एवं जो ब्रह्मलोकसे नीचेके लोकोंमें रहनेवाले साधनशील दैवी प्रकृतिसे सम्पन्न साधक हैं, वे सब परब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं ।। ५१ ।।
“प्रलयकालमें जो जीव देवभावको प्राप्त थे, वे यदि अपने सम्पूर्ण कर्मफलोंका उपभोग समाप्त करनेसे पहले ही लयको प्राप्त हो जाते हैं तो कल्पान्तरमें पुनः प्रजाकी सृष्टि होनेपर वे शेष फलका उपभोग करनेके लिये उन्हीं स्थानोंको प्राप्त होते हैं, जो उन्हें पूर्वकल्पमें प्राप्त थे; किंतु जो कल्पान्तमें उस योनिसम्बन्धी कर्मफल-भोगको पूर्ण कर चुके हैं, वे स्वर्गलोकका नाश हो जानेपर दूसरे कल्पमें उनके जैसे कर्म हैं, उसीके सदृश अन्य प्राणियोंकी भाँति मनुष्य-योनिको ही प्राप्त होते हैं ।। ५२ ।।
“जो योगी सिद्धलोकसे गिरकर मृत्युलोकमें आये हैं, उनके समान साधनबलसे सम्पन्न जो अन्य योगी हैं, वे भी एक लोकसे दूसरे लोकमें ऊपर उठते हुए क्रमश: उन सिद्ध पुरुषोंकी ही गतिको प्राप्त होते हैं। परंतु जो वैसे नहीं हैं, वे विपरीतभावके कारण अपनीअपनी गतिको प्राप्त होते हैं || ५३ ।।
“विशुद्धभावसे सम्पन्न सिद्ध पुरुष जबतक पंचेन्द्रियरूप इस करणसमुदायका संयम करके शेष प्रारब्ध कर्मका उपभोग करता है, तबतक उसके शरीरमें समस्त प्रजागणोंका अर्थात् इन्द्रियोंक देवताओंका तथा अपरा और परा विद्याका निवास रहता है ।। ५४ ।।
“जो साधक सदा शुद्ध मनसे उस विशुद्ध परमगतिका अनुसंधान करता है, वह उसे अवश्य प्राप्त कर लेता है। तदनन्तर अविकारी, दुर्लभ एवं सनातन ब्रह्मपदको प्राप्त करके वह उसीमें प्रतिष्ठित हो जाता है ।। ५५ ।।
उत्कृष्ट बलशाली दैत्यराज! इस प्रकार यहाँ मैंने तुमसे यह भगवान् नारायणका बल एवं प्रभाव बताया है” ।। ५६ ।।
वृत्रासुर बोला--उदारचित्त महात्मा सनत्कुमारजी! यदि ऐसी बात है तो मुझे कोई विषाद नहीं है। मैं आपके वचनको अच्छी तरह समझता और इसे यथार्थ मानता हूँ। आज मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि आपकी इस वाणीको सुनकर मेरे सारे पाप और कलुष दूर हो गये ।। ५७ ।।
भगवन्! महर्षे! महातेजस्वी, अनन्त एवं सर्वव्यापी भगवान् विष्णुका यह अमित शक्तिशाली संसारचक्र चल रहा है। यह भगवान् विष्णुका वह सनातन स्थान है, जहाँसे सारी सृष्टियोंका आरम्भ होता है। महात्मा विष्णु पुरुषोत्तम हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है ।। ५८ ।।
भीष्मजी कहते हैं--कुन्तीनन्दन! ऐसा कहकर वृत्रासुरने अपने आत्माको परमात्मामें लगाकर उन्हींका ध्यान करते हुए प्राण त्याग दिये और परमेश्वरके परमधामको प्राप्त कर लिया ।। ५९ ||
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! पूर्वकालमें महात्मा सनत्कुमारने वृत्रासुरसे जिनके स्वरूपका वर्णन किया था, वे भगवान् विष्णु-ये हमारे जनार्दन श्रीकृष्ण ही तो हैं? || ६० ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठि!! मूल-कारणरूपसे स्थित, महान् देव, महामनस्वी भगवान् नारायण हैं। वे अपने उस चिन्मय स्वरूपमें स्थित होकर अपने प्रभावसे नाना प्रकारके सम्पूर्ण पदार्थोंकी सृष्टि करते हैं || ६१ ।।
अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले इन भगवान् श्रीकृष्णको तुम उस श्रीनारायणके एक चतुर्थ अंशसे सम्पन्न समझो। बुद्धिमान् श्रीकृष्ण अपने उस चतुर्थ अंशसे ही तीनों लोकोंकी रचना करते हैं ।। ६२ ।।
जो परवर्ती सनातन नारायण प्रलयकालमें भी विद्यमान हैं, वे ही अत्यन्त बलशाली और सबके अधीश्वर भगवान् श्रीहरि कल्पान्तमें जलके भीतर शयन करते हैं तथा वे प्रसन्नात्मा सृष्टिकर्ता ईश्वर उन समस्त शाश्वत लोकोंमें विचरण करते हैं ।। ६३ ।।
अनन्त एवं सनातन भगवान् श्रीहरि समस्त कारणोंको सत्ता और स्फूर्ति देकर परिपूर्ण करते और लीलावपु धारण करके लोकोंमें विचरण करते हैं। उन महापुरुषकी गतिको कोई रोक नहीं सकता। वे ही इस जगत्की सृष्टि करते हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण विचित्र विश्व प्रतिष्ठित है ।। ६४ ।।
युधिष्ठिरने कहा--परमार्थतत्त्वके ज्ञाता पितामह! मैं समझता हूँ कि वृत्रासुरने आत्माके शुभ एवं यथार्थ स्वरूपका साक्षात्कार कर लिया था; इसीलिये वह सुखी था, शोक नहीं करता था ।। ६५ ।।
निष्पाप पितामह! वह शुद्ध कुलमें उत्पन्न हुआ था और स्वभावसे भी शुद्ध था। जान पड़ता है वह साध्य नामक देवता ही था; इसीलिये पुनः संसारमें नहीं लौटा। वह पशुपक्षियोंकी योनि तथा नरकसे छुटकारा पा गया ।। ६६ ।।
पृथ्वीनाथ! पीतवर्णवाले देवसर्गमें तथा रक्तवर्णवाले अनुग्रहसर्गमें विद्यमान प्राणी कभी तामस कर्मोंसे आवृत होकर तिर्यग्योनिका भी दर्शन कर सकता है ।। ६७ ।।
हमलोग तो और भी अधिक आपपत्तिसे घिरे हुए हैं। दुःख-सुखसे मिश्रित भावमें अथवा केवल दुःखमय भावमें आसक्त हैं। ऐसी दशामें पता नहीं हमें किस गतिकी प्राप्ति होगी। हम नीलवर्णवाली मानव-योनिमें पड़ेंगे या कृष्णवर्णवाली स्थावर योनिसे भी हीन दशाको जा पहुँचेंगे ।। ६८ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! तुम सभी पाण्डव विशुद्ध कुलसे सम्पन्न और तीक्षण व्रतोंका भलीभाँति पालन करनेवाले हो; अतः देवताओंके लोकोंमें विहार करके पुनः मनुष्य-शरीरको ही प्राप्त करोगे || ६९ ।।
तुम सब लोग यथासमय सुखसे संतानोत्पादन करके देवलोकोंमें जाकर सुख भोगोगे। तत्पश्चात् सुखपूर्वक सिद्धि प्राप्त करके सिद्धोंमें गिेने जाओगे। तुम्हारे मनमें दुगतिका भय नहीं होना चाहिये; क्योंकि तुम सब लोग निर्मल एवं निष्पाप हो || ७० ।।
(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें वृत्रगीताविषयक दो सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ शलोक मिलाकर कुल ७०½ *लोक हैं)
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- श्रीविष्णुपुराणमें तीन प्रकारकी प्राकृत सृष्टि बतायी गयी है--पहली महत्तत्त्वकी सृष्टि है, जिसे यहाँ 'क्षर' शब्दसे कहा गया है। दूसरी भूत-सृष्टि मानी गयी है, जो तन्मात्राओंकी सृष्टि है। यहाँ “भूतेषु” पदके द्वारा उसीकी ओर संकेत किया गया है। “एकादशविकारात्मा” इस पदके द्वारा तीसरी सृष्टिका निर्देश किया गया है, जिसे वैकारिक अथवा ऐन्द्रियक सर्ग भी कहते हैं। इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन--इन ग्यारह तत्त्वोंकी रचना हुई है।
- सोलह ऋत्विजोंके नाम इस प्रकार हैं--१-ब्रह्मा, २-ब्राह्मणाच्छंसी, ३-आग्नीध्र और ४-पोता--ये चार ऋत्विज सम्पूर्ण वेदोंके ज्ञाता होते हैं। ५-होता, ६-मैत्रावरुण, ७-अछावाक और ८-ग्रावस्तोता--ये चार ऋत्विज ऋग्वेदी होते हैं। ९अध्वर्यु, १०-प्रतिपस्थाता, ११-नेष्टा और १२-उन्नेता--ये चार यजुर्वेदी होते हैं। १३-उद्गाता, १४-प्रस्तोता, १५-प्रतिहर्ता तथा १६-सुब्रह्मण्य--ये सामवेदके गायक होते हैं।
- जब तमोगुणकी अधिकता, सत्त्वगुणकी न्यूनता और रजोगुणकी सम अवस्था हो, तब कृष्णवर्ण होता है। यह स्थावर सृष्टिका रंग माना गया है। तमोगुणकी अधिकता, रजोगुणकी न्यूनता और सत्त्वगुणकी सम अवस्था होनेपर धूम्रवर्ण होता है। यह पशु-पक्षीकी योनिमें जन्म लेनेवाले प्राणियोंका वर्ण माना गया है। रजोगुणकी अधिकता, सत्त्वगुणकी न््यूनता और तमोगुणकी सम अवस्था होनेपर नीलवर्ण होता है। यह मानवसर्गका वर्ण बताया गया है। इसीमें जब सत्त्वमुणकी सम अवस्था और तमोगुणकी न्यूनावस्था हो तो मध्यमवर्ण होता है। उसका रंग लाल होता है। इसे अनुग्रह सर्ग कहते हैं। जब सत्त्गगुणकी अधिकता, रजोगुणकी न्यूनता और तमोगुणकी सम अवस्था हो तो हरिद्राके समान पीतवर्ण होता है। यही देवताओंका वर्ण है, अतः इसे देवसर्ग कहते हैं। उसीमें जब रजोगुणकी सम अवस्था और तमोगुणकी न्यूनता हो तो शुक्लवर्ण होता है। इसीको कौमारसर्ग कहा गया है।
- दस इन्द्रिय, पाँच प्राण और चार अन्तःकरण--ये उन्नीस भोगके साधन हैं, विषय और वृत्तियोंके भेदसे इन्हींके उतने ही सौ और उतने ही हजार प्रकार हो जाते हैं।
- पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय--ये दस इन्द्रियाँ सात्विक, राजसिक और तामसिक तथा जाग्रतू, स्वप्न और सुषुप्तिके भेदसे प्रत्येक छ:-छ: प्रकारकी होती हैं। इस प्रकार इनके साठ भेद हो जाते हैं।
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