सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ इकहत्तरवें अध्याय से दो सौ पचहत्तरवें अध्याय तक (From the 271 chapter to the 275 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ इकहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इकहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-56 का हिन्दी अनुवाद)

“धन और काम-भोगोंकी अपेक्षा धर्म और तपस्याका उत्कर्ष सूचित करनेवाली ब्राह्मण और कुण्डधार मेघकी कथा”

राजा युधिष्ठिरने पूछा--भरतनन्दन पितामह! वेद तो धर्म, अर्थ और काम--तीनोंकी ही प्रशंसा करते हैं; अतः आप मुझे यह बताइये कि इन तीनोंमेंसे किसकी प्राप्ति मेरे लिये सबसे बढ़कर है ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाऊँगा, जिसके अनुसार कुण्डधार नामक मेघने पूर्वकालमें प्रसन्न होकर अपने एक भक्तका उपकार किया था ।। २ |।

किसी समय एक निर्धन ब्राह्मणने सकामभावसे धर्म करनेका विचार किया। वह यज्ञ करनेके लिये सदा ही धनकी इच्छा रखता था, अत: बड़ी कठोर तपस्या करने लगा ।। ३ ।।

यही निश्चय करके उसने भक्तिपूर्वक देवताओंकी पूजा-अर्चा आरम्भ की। परंतु देवताओंकी पूजा करके भी वह धन न पा सका ।। ४ ।।

तब वह इस चिन्तामें पड़ा कि वह कौन-सा देवता है, जो मुझपर शीघ्र प्रसन्न हो जाय और मनुष्योंने आराधना करके जिसे जड न बना दिया हो ।। ५ ।।

तदनन्तर उस ब्राह्मणने शान्त मनसे देवताओंके अनुचर कुण्डधार नामक मेघको पास ही खड़ा देखा ।।

उस महाबाहु मेघको देखते ही ब्राह्मणके मनमें उसके प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी और वह सोचने लगा कि यह अवश्य मेरा कल्याण करेगा; क्योंकि इसका यह शरीर वैसे ही लक्षणोंसे सम्पन्न है || ७ ।।

यह देवताका संनिकटवर्ती है और दूसरे मनुष्योंने इसे घेर नहीं रखा है। इसलिये यह मुझे शीघ्र ही प्रचुर धन देगा ।। ८ ।।

तब ब्राह्मणने धूप, गन्ध, छोटे-बड़े माल्य तथा भाँति-भाँतिके पूजोपहार अर्पित करके कुण्डधार मेघका पूजन किया ।। ९ |।

इससे वह मेघ थोड़े ही समयमें संतुष्ट हो गया और उसने ब्राह्मणके उपकारमें नियमपूर्वक प्रवृत्ति सूचित करनेवाली यह बात कही-- ।। १० ।।

ब्रह्मन! ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर और व्रतभंग करनेवाले मनुष्यके लिये साधुपुरुषोंने प्रायश्चित्तका विधान किया है, किंतु कृतघ्नके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।। ११ ।।

आशाका पुत्र अधर्म है। असूयाका पुत्र क्रोध माना गया है। निकृति (शठता) का पुत्र लोभ है; परंतु कृतघ्न मनुष्य संतान पानेके योग्य नहीं है” || १२ ।।

तदनन्तर वह ब्राह्मण कुण्डधारके तेजसे प्रेरित हो कुशोंकी शय्यापर सो गया और स्वप्में उसने समस्त प्राणियोंको देखा ।। १३ ।।

वह शम-दम, तप और भक्तिभावसे सम्पन्न, भोगरहित तथा शुद्धचित्तवाला था। उस ब्राह्मणको रातमें कुछ ऐसा दृष्टान्त दिखायी दिया, जिससे उसे कुण्डधारके प्रति अपनी भक्तिका परिचय मिल गया ।। १४ ।।

युधिष्ठिर! उसने देखा कि महातेजस्वी महात्मा यक्षराज मणिभद्र वहाँ विराजमान हैं और देवताओंके समक्ष विभिन्न याचकोंको उपस्थित कर रहे हैं || १५ ।।

वहाँ देवतालोग उन याचकोंके शुभकर्मके बदले राज्य और धन आदि दे रहे थे और अशुभ कर्मका भोग उपस्थित होनेपर पहलेके दिये हुए राज्य आदिको भी छीन लेते थे।। १६ |।

भरतश्रेष्ठ! वहाँ यक्षोंके देखते-देखते महातेजस्वी कुण्डधारने देवताओंके आगे धरतीपर माथा टेक दिया ।।

तब महामनस्वी मणिभद्रने देवताओंके कहनेसे पृथ्वीपर पड़े हुए उस मेघसे पूछा, “कुण्डधार! तुम क्या चाहते हो?” ।। १८ ।॥।

कुण्डधार बोला--यह ब्राह्मण मेरा भक्त है। यदि देवतालोग मुझपर प्रसन्न हों तो मैं इसके ऊपर उनका ऐसा अनुग्रह चाहता हूँ, जिससे इसे भविष्यमें कुछ सुख मिल सके ।। १९ |।

तब मणिभद्रने देवताओंकी ही आज्ञासे महातेजस्वी कुण्डधारके प्रति पुन: यह बात कही ।। २० ।।

मणिभद्र बोले--कुण्डधार! उठो, उठो; तुम्हारा कल्याण हो, तुम कृतकृत्य और सुखी हो जाओ। यदि यह ब्राह्मण धन चाहता तो इसे धन दे दिया जाय ।। २१ ।।

तुम्हारा सखा यह ब्राह्मण जितना धन चाहता हो, देवताओंकी आज्ञासे मैं उतना ही अथवा असंख्य धन इसे दे रहा हूँ || २२ ।।

युधिष्ठिर! परंतु कुण्डधारने यह सोचकर कि मानव-जीवन चंचल एवं अस्थिर है, उस ब्राह्मणके तपोबलको भी बढ़ानेका विचार किया || २३ |।

कुण्डधार बोला--धनदाता देव! मैं ब्राह्मणके लिये धनकी याचना नहीं करता हूँ। मेरी इच्छा है कि मेरे इस भक्तपर किसी और प्रकारका ही अनुग्रह किया जाय। मैं अपने इस भक्तको रत्नोंसे भरी हुई पृथ्वी अथवा रत्नोंका विशाल भण्डार नहीं देना चाहता। मेरी तो यह इच्छा है कि यह धर्मात्मा हो। इसकी बुद्धि धर्ममें लगी रहे तथा यह धर्मसे ही जीवननिर्वाह करे। इसके जीवनमें धर्मकी ही प्रधानता रहे। इसीको मैं इसके लिये महान्‌ अनुग्रह मानता हूँ || २४--२६ ।।

मणिभद्र बोला--धर्मके फल तो सदा राज्य और नाना प्रकारके सुख ही हैं; अतः यह ब्राह्मण शारीरिक कष्टसे रहित हो केवल उन फलोंका ही उपभोग करे || २७ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! मणिभद्रके ऐसा कहनेपर भी महायशस्वी कुण्डधारने बार-बार अपनी वही बात दुहरायी। ब्राह्मणका धर्म बढ़े, इसीके लिये आग्रह किया। इससे सब देवता संतुष्ट हो गये ।। २८ ।।

तब मणिभद्रने कहा--कुण्डधार! सब देवता तुमपर और इस ब्राह्मणपर भी बहुत प्रसन्न हैं। यह धर्मात्मा होगा और इसकी बुद्धि धर्ममें ही लगी रहेगी ।।

युधिष्ठिर! इस प्रकार दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ मनोवाजञ्छित वर पाकर कृतकृत्य एवं सफल-मनोरथ हो वह मेघ बड़ा प्रसन्न हुआ ।। ३० ।।

तत्पश्चात्‌ उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने अपने निकट अगल-बगलमें रखे हुए बहुत-से सूक्ष्म चीर (वल्कल आदि) देखे। इससे उसके मनमें बड़ा खेद एवं वैराग्य हुआ ।।

ब्राह्मण मन-ही-मन बोला--जब मेरे इस पुण्यमय तपका उद्देश्य यह कुण्डधार ही नहीं समझ पा रहा है, तब दूसरा कौन जानेगा! अच्छा, अब मैं वनको ही चलता हूँ। धर्ममय जीवन बिताना ही अच्छा है || ३२ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! वैराग्य और देवताओंके कृपाप्रसादसे वनमें जाकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने उस समय बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की || ३३ |।

देवताओं और अतिथियोंको अर्पण करके शेष बचे हुए फल-मूल आदिका वह आहार करता था। महाराज! धर्मके विषयमें उसकी बुद्धि अटल हो गयी थी ।। ३४ ।।

कुछ कालके बाद वह ब्राह्मण सारे फल-मूलका भोजन छोड़कर केवल पत्ते चबाकर रहने लगा। फिर पत्तेका भी त्याग करके केवल जल पीकर निर्वाह करने लगा। तत्पश्चात्‌ बहुत वर्षोतक वह केवल वायु पीकर रहा। फिर भी उसकी प्राणशक्ति क्षीण नहीं होती थी, यह एक अदभुत-सी बात थी ।। ३५-३६ |।

धर्ममें श्रद्धा रखते हुए दीर्घकालतक उग्र तपस्यामें लगे हुए उस ब्राह्मणको दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गयी ।।

उस समय उसे यह अनुभव हुआ कि यदि मैं संतुष्ट होकर इस जगत्‌में किसीको प्रचुर धन दे दूँ तो मेरा दिया हुआ वचन मिथ्या नहीं होगा ।। ३८ ।।

यह विचार आते ही उसका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा और उसने बड़े उत्साहके साथ पुनः तपस्या आरम्भ की। पुनः सिद्धि प्राप्त होनेपर उसने देखा कि वह मनमें जो-जो संकल्प करता है, वह अत्यन्त महान्‌ होनेपर भी सामने प्रस्तुत हो जाता है। यह देखकर ब्राह्मणने पुनः यों विचार किया-- ।। ३९ ।।

'यदि मैं संतुष्ट होकर जिस किसीको भी राज्य दे दूँ तो वह शीघ्र ही राजा हो जायगा। मेरी यह बात कभी मिथ्या नहीं हो सकती” ।। ३९६ ।।

भरतनन्दन! इतनेहीमें ब्राह्मगकी तपस्याके प्रभावसे तथा उसके प्रति सौहार्दसे प्रेरित होकर कुण्डधारने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उससे मिलकर ब्राह्मणने कुण्डधारकी विधिपूर्वक पूजा की। नरेश्वर! उसे देखकर ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ || ४०--४२ 

तब कुण्डधारने ब्राह्मणसे कहा--'विप्रवर! तुम्हें परम उत्तम दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है; अतः तुम अपनी आँखोंसे देख लो कि राजाओंको किस गतिकी प्राप्ति होती है तथा वे किन-किन लोकोंमें जाते हैं! || ४३॥।।

तब उस ब्राह्मणने दूरसे ही अपने दिव्य नेत्रोंसे देखा कि सहस्रों राजा नरकमें डूबे हुए हैं ।। ४४ ।।

कुण्डधार बोला--ब्रह्मन! तुमने बड़े भक्तिभावसे मेरी पूजा की थी। इसपर भी यदि तुम धन पाकर दुःख ही भोगते रहते तो मेरे द्वारा तुम्हारा क्या उपकार हुआ होता और तुम्हारे ऊपर मेरा कौन-सा अनुग्रह सिद्ध हो सकता था ।।

देखो-देखो, एक बार फिर लोगोंकी दशापर दृष्टिपात करो। यह सब देख-सुनकर मनुष्य भोगोंकी इच्छा कैसे कर सकता है। जो धन और भोगोंमें आसक्त हैं, ऐसे लोगों, विशेषतः मनुष्योंके लिये स्वर्गका दरवाजा प्राय: बंद ही रहता है ।। ४६ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर ब्राह्मणने देखा कि उन भोगी पुरुषोंको काम, क्रोध, लोभ, भय, मद, निद्रा, तन्दा और आलस्य आदि शत्रु घेरकर खड़े हैं ।।

कुण्डधार बोला--विप्रवर! देखो, सब लोग इन्हीं दोषोंसे घिरे हुए हैं। देवताओंको मनुष्योंसे भय बना रहता है, इसलिये ये काम आदि दोष देवताओंके आदेशसे मनुष्यके धर्म और तपस्यामें सब प्रकारसे विघ्न डाला करते हैं ।। ४८ ।।

देवताओंकी अनुमति प्राप्त किये बिना कोई निर्विष्नरूपसे धर्मका अनुष्ठान नहीं कर सकता; किंतु तुम्हें तो देवताओंका अनुग्रह प्राप्त हो गया है। इसलिये अब तुम अपने तपके प्रभावसे दूसरोंको राज्य और धन देनेमें समर्थ हो गये हो || ४९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तब उस धर्मात्मा ब्राह्मणने धरतीपर मस्तक टेककर कुण्डधार मेघको साष्टांग प्रणाम किया और उससे कहा--'प्रभो! आपने मुझपर महान्‌ अनुग्रह किया है। आपके स्नेहको न समझकर काम और लोभके बन्धनमें बँधे रहनेसे मैंने पहले आपके प्रति जो दोषदृष्टि कर ली थी, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें' ।।

(कुण्डधारने कहा--) 'विप्रवर! मैं तो पहलेसे ही क्षमा कर चुका हूँ” ऐसा कहकर उस मेघने उस श्रेष्ठ ब्राह्यणको अपनी दोनों भुजाओंद्वारा हृदयसे लगा लिया और वह फिर वहीं अन्तर्धान हो गया ।। ५२ ।।

तदनन्तर कुण्डधारके कृपाप्रसादसे तपस्याद्वारा सिद्धि पाकर वह ब्राह्मण सम्पूर्ण लोकोंमें विचरने लगा ।।

आकाशभमार्गसे चलना, संकल्पमात्रसे ही अभीष्ट वस्तुका प्राप्त हो जाना तथा धर्म, शक्ति और योगके द्वारा जो परमगति प्राप्त होती है, वह सब कुछ उस ब्राह्मणको प्राप्त हो गयी ।। ५४ ।।

देवता, ब्राह्मण, साधु-संत, यक्ष, मनुष्य और चारण-ये सब-के-सब इस जगतमें धर्मात्माओंका ही पूजन करते हैं, धनियों और भोगियोंका नहीं ।। ५५ ।।

राजन! तुम्हारे ऊपर भी देवता बहुत प्रसन्न हैं, जिससे तुम्हारी बुद्धि धर्ममें लगी हुई है। धनमें तो सुखका कोई लेशमात्र ही रहता है। परमसुख तो धर्ममें ही है ।। ५६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें कुण्डधारका उपाख्यानविषयक दो सौ इकठ्ठत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ बहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“यज्ञमें हिंसाकी निन्दा और अहिंसाकी प्रशंसा”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! यज्ञ और तप तो बहुत हैं और वे सब एकमात्र भगवत्प्रीतिके लिये किये जा सकते हैं; परंतु उनमेंसे जिस यज्ञका प्रयोजन केवल धर्म हो, स्वर्ग-सुख अथवा धनकी प्राप्ति न हो, उसका सम्पादन कैसे होता है? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्छिर! पूर्वकालमें उज्छवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करनेवाले एक ब्राह्मणका यज्ञके सम्बन्धमें जैसा वृत्तान्त है और जिसे नारदजीने मुझसे कहा था, वही प्राचीन इतिहास मैं यहाँ तुम्हें बता रहा हूँ ।। २ ।।

नारदजीने कहा--जहाँ धर्मकी ही प्रधानता है, उस उत्तम राष्ट्र विदर्भमें कोई ब्राह्मण ऋषि निवास करता था। वह कटे हुए खेत या खलिहानसे अन्नके बिखरे हुए दानोंको बीन लाता और उसीसे जीवन-निर्वाह करता था। एक बार उसने यज्ञ करनेका निश्चय किया ।। ३ ।।

जहाँ वह रहता था, वहाँ अन्नके नामपर साँवाँ मिलता था। दाल बनानेके लिये सूर्यपर्णी (जंगली उड़द) मिलती थी और शाक-भाजीके लिये सुवर्चला (तब्राह्मी लता) तथा अन्य प्रकारके तिक्त एवं रसहीन शाक उपलब्ध होते थे; परंतु ब्राह्मणकी तपस्यासे उपर्युक्त सभी वस्तुएँ सुस्वादु हो गयी थीं ।। ४ ।।

परंतप युधिष्ठिर! उस ब्राह्मणने वनमें तपस्याद्वारा सिद्धि लाभ करके समस्त प्राणियोंमेंसे किसीकी भी हिंसा न करते हुए मूल और फलोंद्वारा भी स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले यज्ञका अनुष्ठान किया ।। ५ ।।

उस ब्राह्मणके एक पत्नी थी, जिसका नाम था पुष्करधारिणी। उसके आचार-विचार परम पवित्र थे। वह व्रत-उपवास करते-करते दुर्बल हो गयी थी। ब्राह्मणका नाम सत्य था। यद्यपि वह ब्राह्मणी अपने पति सत्यके हिंसाप्रधान यज्ञकी इच्छा प्रकट करनेपर उसके अनुकूल नहीं होती थी, तो भी ब्राह्मण उसे यज्ञपत्नीके स्थानपर आग्रहपूर्वक बुला ही लाता था।।६।।

ब्राह्मणी शापसे डरकर पतिके स्वभावका सर्वथा अनुसरण करती थी। ऐसा कहा जाता है कि वह मोरोंकी टूटकर गिरी पुरानी पाँखोंको जोड़कर उनसे ही अपना शरीर ढँकती थी ।। ७।।

होताके आदेशसे इच्छा न होनेपर भी ब्राह्मण-पत्नीने उस यज्ञका कार्य सम्पन्न किया। होताका कार्य पर्णाद नामसे प्रसिद्ध एक धर्मज्ञ ऋषि करते थे, जो शुक्राचार्यके वंशज थे।। ८ ।।

उस वनमें सत्यका सहवासी एक मृग था, जो वहाँ पास ही रहता था। एक दिन उसने मनुष्यकी बोलीमें सत्यसे कहा--'ब्राह्मण! तुमने यज्ञके नामपर यह दुष्कर्म किया है।। ९।।

“यदि किया हुआ यज्ञ मन्त्र और अंगसे हीन हो तो वह यजमानके लिये दुष्कर्म ही है। ब्राह्मणदेव! तुम मुझे होताको सौंप दो और स्वयं निन्दारहित होकर स्वर्गलोकमें जाओ” || १० ।।

तदनन्तर उस यज्ञमें साक्षात्‌ सावित्रीने पधारकर उस ब्राह्मणको मृगकी आहुति देनेकी सलाह दी। ब्राह्मणने यह कहकर कि मैं अपने सहवासी मृगका वध नहीं कर सकता, सावित्रीकी आज्ञा माननेसे इनकार कर दी ।। ११ ।।

ब्राह्मणसे इस प्रकार कोरा जवाब मिल जानेपर सावित्रीदेवी लौट पड़ीं और यज्ञाम्निमें प्रविष्ट हो गयीं। यज्ञमें कौन-सा दुष्कर्म या त्रुटि है--यही देखनेकी इच्छासे वे आयी थीं और फिर रसातलमें चली गयीं ।। १२ ।।

सत्य सावित्रीदेवीकी ओर हाथ जोड़कर खड़ा था। इतनेहीमें उस हरिणने पुनः अपनी आहुति देनेके लिये याचना की। सत्यने मृगको हृदयसे लगा लिया और बड़े प्यारसे कहा --तुम यहाँसे चले जाओ' ।। १३ ।।

तब वह हरिण आठ पग आगे जाकर लौट पड़ा और बोला--'सत्य! तुम विधिपूर्वक मेरी हिंसा करो। मैं यज्ञमें वधको प्राप्त होकर उत्तम गति पा लूँगा || १४ ।।

“मैंने तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान की है; उससे देखो, आकाशमें वे दिव्य अप्सराएँ खड़ी हैं। महात्मा गन्धर्वोके विचित्र विमान भी शोभा पा रहे हैं! || १५ ।।

सत्यकी आँखें बड़ी चाहसे उधर ही जा लगीं। उसने बड़ी देरतक वह रमणीय दृश्य देखा, फिर मृगकी ओर दृष्टिपात करके 'हिंसा करनेपर ही मुझे स्वर्गवासका सुख मिल सकता है' यह मन-ही-मन निश्चय किया ।। १६ ।।

वास्तवमें उस मृगके रूपमें साक्षात्‌ धर्म थे, जो मृगका शरीर धारण करके बहुत वर्षोसे वनमें निवास करते थे। पशुहिंसा यज्ञकी विधिके प्रतिकूल कर्म है। भगवान्‌ धर्मने उस ब्राह्मणका उद्धार करनेका विचार किया ।। १७ |।

मैं उस पशुका वध करके स्वर्गलोक प्राप्त करूँगा; यह सोचकर मृगकी हिंसा करनेके लिये उद्यत उस ब्राह्मणका महान्‌ तप तत्काल नष्ट हो गया। इसलिये हिंसा यज्ञके लिये हितकर नहीं है || १८ ।।

तदनन्तर भगवान्‌ धर्मने स्वयं सत्यका यज्ञ कराया। फिर सत्यने तपस्या करके अपनी पत्नी पुष्करधारिणीके मनकी जैसी स्थिति थी, वैसा ही उत्तम समाधान प्राप्त किया (उसे यह दृढ़ निश्चय हो गया कि हिंसासे बड़ी हानि होती है, अहिंसा ही परम कल्याणका साधन है) || १९ ||

अहिंसा ही सम्पूर्ण धर्म है। हिंसा अधर्म है और अधर्म अहितकारक होता है। अब मैं तुम्हें सत्यका महत्त्व बताऊँगा, जो सत्यवादी पुरुषोंका परम धर्म है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें हिंयात्मक यज्ञकी निन्‍दा नामक दी सौ बद्तत्तवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तिहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)

“धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्षके विषयमें युधिष्ठिरके चार प्रश्न और उनका उत्तर”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! मनुष्य पापात्मा कैसे हो जाता है? वह धर्मका आचरण किस प्रकार करता है? किस हेतुसे उसे वैराग्य प्राप्त होता है और किस साधनसे वह मोक्ष पाता है? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन! तुम्हें सब धर्मोका ज्ञान है। तुम तो लोकमर्यादाकी रक्षा तथा मेरी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिये मुझसे प्रश्न कर रहे हो। अच्छा अब तुम मोक्ष, वैराग्य, पाप और धर्मका मूल क्या है, इसको श्रवण करो ।। २ |।

भरतश्रेष्ठ! मनुष्यको (शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध--इन) पाँचों विषयोंका अनुभव करनेके लिये पहले इच्छा होती है। फिर उन पाँचों विषयोंमेंसे किसी एकको पाकर उसके प्रति राग या द्वेष हो जाता है ।। ३ ।।

तत्पश्चात्‌ जिसके प्रति राग होता है, उसे पानेके लिये वह प्रयत्न करता है। बड़े-बड़े कार्योका आरम्भ करता है। वह अपने इच्छित रूप और गन्ध आदिका बारंबार सेवन करना चाहता है ।। ४ ।।

इससे उन विषयोंके प्रति उसके मनमें राग उत्पन्न हो जाता है। तदनन्तर प्रतिकूल विषयसे द्वेष होता है। फिर अनुकूल विषयके लिये लोभ होता है और लोभके बाद उसके मनपर मोह अधिकार जमा लेता है ।। ५ ।।

लोभ और मोहसे घिरे हुए तथा राग-द्वेषके वशीभूत हुए मनुष्यकी बुद्धि धर्ममें नहीं लगती है। वह किसी-न-किसी बहानेसे दिखाऊ धर्मका आचरण करता है ।। ६ ।।

कुरुनन्दन! वह कोई बहाना लेकर ही धर्म करता है, कपटसे ही धन कमानेकी रुचि रखता है और यदि कपटसे धन प्राप्त करनेमें सफलता मिल गयी तो वह उसीमें अपनी सारी बुद्धि लगा देता है। भरतनन्दन! फिर तो विद्वानों और सुहृदोंके मना करनेपर भी वह केवल पाप ही करना चाहता है तथा मना करनेवालोंको थधर्मशास्त्रके वाक्योंके द्वारा प्रतिपादित न्याययुक्त उत्तर दे देता है ।। ७-८३ ।।

उसका राग और मोहजनित तीन प्रकारका अधर्म बढ़ता है। वह मनसे पापकी ही बात सोचता है, वाणीसे पाप ही बोलता है और क्रियाद्वारा पाप ही करता है ।।

श्रेष्ठ पुरुष तो अधर्ममें प्रवृत्त हुए मनुष्यके दोष जानते हैं; परंतु उस पापीके समान स्वभाववाले पापाचारी मनुष्य उसके साथ मित्रता स्थापित करते हैं। ऐसा पुरुष इस लोकमें ही सुख नहीं पाता है, फिर परलोकमें तो पा ही कैसे सकता है || १०-११ ।।

इस प्रकार मनुष्य पापात्मा हो जाता है। अब धर्मात्माके विषयमें मुझसे सुनो। वह जिस प्रकार परहित-साधक कल्याणकारी धर्मका आचरण करता है, उसी प्रकार कल्याणका भागी होता है। वह क्षेमकारक धर्मके प्रभावसे ही अभीष्ट गतिको प्राप्त होता है।। १२६ ||

जो पुरुष अपनी बुद्धिसे राग आदि दोषोंको पहले ही देख लेता है, वह सुख-दुःखको समझनेमें कुशल होता है। फिर वह श्रेष्ठ पुरुषोंका सेवन करता है। सत्पुरुषोंकी सेवा या सत्संगसे और सत्कर्मोंके अभ्याससे उस पुरुषकी बुद्धि बढ़ती है ।। १३-१४ ।।

वह बढ़ी हुई बुद्धि धर्ममें ही सुख मानती और उसीका सहारा लेती है। वह पुरुष धर्मसे प्राप्त होनेवाले धनमें मन लगाता है ।। १५ ।।

वह जहाँ गुण देखता है, उसीके मूलको सींचता है। ऐसा करनेसे वह पुरुष धर्मात्मा होता है और शुभकारक मित्र प्राप्त करता है | १६ ।।

भारत! उत्तम मित्र और धनके लाभसे वह इहलोक और परलोकमें भी आनन्दित होता है। ऐसा पुरुष शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध--इन पाँचों विषयोंपर प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है। इसे धर्मका फल माना जाता है। युधिष्ठिर! वह धर्मका फल पाकर भी हर्षसे फूल नहीं उठता है ।।

वह इससे तृप्त न होनेके कारण विवेकदृष्टिसे वैराग्यको ही ग्रहण करता है, बुद्धिरूप नेत्रके खुल जानेके कारण जब वह कामोपभोग, रस और गन्धमें अनुरक्त नहीं होता तथा शब्द, स्पर्श और रूपमें भी उसका चित्त नहीं फँसता, तब वह सब कामनाओंसे मुक्त हो जाता है और धर्मका त्याग नहीं करता ।।

सम्पूर्ण लोकोंको नाशवान्‌ समझकर वह सर्वस्वका मनसे त्याग कर देनेका यत्न करता है। तदनन्तर वह अयोग्य उपायसे नहीं किंतु योग्य उपायसे मोक्षके लिये यत्नशील हो जाता है। इस प्रकार धीरे-धीरे मनुष्यको वैराग्यकी प्राप्ति होनेपर वह पापकर्म तो छोड़ देता है और धर्मात्मा बन जाता है। तत्पश्चात्‌ परम मोक्षको प्राप्त कर लेता है ।। २१-२२ ।।

तात! भरतनन्दन! तुमने मुझसे पाप, धर्म, वैराग्य और मोक्षके विषयमें जो प्रश्न किया था, वह सब मैंने कह सुनाया || २३ ।।

अतः कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! तुम सभी अवस्थाओंमें धर्मका ही आचरण करो; क्योंकि जो लोग धर्ममें स्थित रहते हैं, उन्हें सदा रहनेवाली मोक्षरूप परम सिद्धि प्राप्त होती है || २४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें चार प्रश्न और उनका उत्तर नामक दो सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ) 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ चौहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“मोक्षके साधनका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने योग्य उपायसे मोक्षकी प्राप्ति बतायी, अयोग्य उपायसे नहीं। भरतनन्दन! वह यथायोग्य उपाय क्या है? इसे मैं सुनना चाहता हूँ ।। १

भीष्मजीने कहा--महाप्राज्ञ निष्पाप नरेश! तुम उचित उपायसे ही सदा सम्पूर्ण धर्म आदि पुरुषार्थोकी खोज किया करते हो। इसलिये तुममें सुने हुए विषयोंकी परीक्षा करनेकी निपुण दृष्टिका होना उचित ही है || २ ।।

घटके निर्माणकालमें जिस बुद्धिका उपयोग है, वह घटकी उत्पत्ति हो जानेपर आवश्यक नहीं रहती, इसी प्रकार चित्त-शुद्धिके उपायभूत यज्ञादि धर्मोंका लक्ष्य पूरा हो जानेपर मोक्षसआाधनरूप शम-दमादि अन्य धर्मोंके लिये वे आवश्यक नहीं रहते ।। ३ ।।

देखो, जो मार्ग पूर्व समुद्रकी ओर जाता है, वह पश्चिम समुद्रकी ओर नहीं जा सकता। इसी प्रकार मोक्षका भी एक ही मार्ग है, उसे मैं विस्तारपूर्वक बता रहा हूँ, सुनो |। ४ ।।

मुमुक्षु पुरुषको चाहिये कि क्षमासे क्रोधका और संकल्पोंके त्यागसे कामनाओंका उच्छेद कर डाले। धीर पुरुष ज्ञानध्यानादि सात्त्विक गुणोंके सेवनसे निद्राका क्षय करे ।। ५ ।।

अप्रमादसे भयको दूर करे, आत्माके चिन्तनसे श्वासकी रक्षा करे अर्थात्‌ प्राणायाम करे और थीैर्यके द्वारा इच्छा, द्वेष एवं कामका निवारण करे ।। ६ |।

तत्त्ववेत्ता पुरुष शास्त्रके अभ्याससे भ्रम, मोह और संशयका तथा आलस्य और प्रतिभा (नानाविषयिणी बुद्धि)--इन दोनों दोषोंका ज्ञानके अभ्याससे निराकरण करे || ७ ।।

शारीरिक उपद्रवों तथा रोगोंका हितकर, सुपाच्य और परिमित आहारसे, लोभ और मोहका संतोषसे तथा विषयोंका तात्त्विक दृष्टिसे निवारण करे || ८ ।।

अधर्मको दयासे और धर्मको विचारपूर्वक पालन करनेसे जीते। भविष्यका विचार करके आशापर और आसत्तिके त्यागसे अर्थपर विजय प्राप्त करे ।। ९ ।।

विद्वान्‌ पुरुष वस्तुओंकी अनित्यताका चिन्तन करके स्नेहको, योगाभ्यासके द्वारा क्षुधाको, करुणाके द्वारा अपने अभिमानको और संतोषसे तृष्णाको जीते || १० ।।

आलस्यको उद्योगसे और विपरीत तर्कको शास्त्रके प्रति दृढ़ विश्वाससे जीते, मौनावलम्बनद्वारा बहुत बोलनेकी आदतको और शूरवीरताके द्वारा भयको त्याग दे ।। ११ ||

मन और वाणीको अर्थात्‌ मनसहित समस्त इन्द्रियोंको बुद्धिद्वारा वशमें करे, बुद्धिका विवेकरूप नेत्रद्वारा शमन करे, फिर आत्मज्ञानद्वारा विवेकज्ञानका शमन करे और आत्माको परमात्मामें विलीन कर दे। इस प्रकार पवित्र आचार-विचारसे युक्त साधकको सब ओरसे उपरत होकर शान्तभावसे परमात्माका साक्षात्कार करना चाहिये ।। १२६ ।।

काम, क्रोध, लोभ, भय और निद्रा--ये ही योगसम्बन्धी वे पाँच दोष हैं, जिनको विद्वान पुरुष जानते हैं। इनका मूलोच्छेद कर देना चाहिये तथा इनका परित्याग करके वाणीको संयममें रखते हुए योगसाधनोंका सेवन करना चाहिये ।। १३-१४ ।।

ध्यान, अध्ययन, दान, सत्य, लज्जा, सरलता, क्षमा, बाहर-भीतरकी पवित्रता, आहारशुद्धि और इन्द्रियोंका संयम--ये ही योगके साधन हैं। इन सबके द्वारा साधकका तेज बढ़ता है। वह अपने पापोंका नाश कर डालता है। उसके संकल्प सिद्ध होने लगते हैं और हृदयमें विज्ञानका आविर्भाव हो जाता है ।। १५-१६ |।

इस प्रकार जब पाप धुल जायँ और साधक तेजस्वी, मिताहारी और जितेन्द्रिय हो जाय, तब वह काम और क्रोधको अपने अधीन करके अपने-आपको ब्रह्मपदमें प्रतिष्ठित करनेकी इच्छा करे ।। १७ ।।

मूढता और आसक्तिका अभाव, काम और क्रोधका त्याग एवं दीनता, उद्ण्डता तथा उद्वेगसे रहित होना और चित्तकी स्थिरता एवं निष्कामभावसे मन, वाणी और इन्द्रियोंका संयम--यह मोक्षका स्वच्छ, निर्मल एवं पवित्र मार्ग है ।। १८-१९ |।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें योगसम्बन्धी आचारका वर्णन नामक दी सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ पचहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पचहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-39 का हिन्दी अनुवाद)

“जीवात्माके देहाभिमानसे मुक्त होनेके विषयमें नारद और असितदेवलका संवाद”

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस विषयमें देवर्षि नारद तथा ब्रह्मर्षि असितदेवलके संवादरूप प्राचीन इतिहासका विद्वान्‌ पुरुष उदाहरण दिया करते हैं ।। १ ।।

एक समयकी बात है, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ बूढ़े असितदेवलको आसनपर बैठा हुआ जान नारदजीने उनसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके विषयमें प्रश्न किया ।। २ ।।

नारदजीने पूछा--ब्रह्मन! इस समस्त चराचर जगत्‌की सृष्टि किससे हुई है तथा यह प्रलयके समय किसमें लीन हो जाता है, यह आप मुझे बताइये? ।। ३ ।

असितदेवलने कहा--देवर्षे! सृष्टिके समय परमात्मा प्राणियोंकी वासनाओंसे प्रेरित हो समयपर जिन तत्त्वोंसे सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करते हैं, उन्हें भूतचिन्तक (भौतिक विज्ञानवादी) विद्वान पंचमहाभूत कहते हैं || ४ ।।

परमात्माकी प्रेरणासे काल इन पाँच तत्त्वोंद्वारा समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करता है। जो इनसे भिन्न किसी अन्य तत्त्वको प्राणियोंके शरीरोंका उपादान कारण बताता है, वह निस्संदेह झूठी बात कहता है ।।

नारद! पाँच भूत और छठा काल--इन छ: तत्त्वोंको तुम प्रवाहरूपसे शाश्वत, अविचल और ध्रुव समझो। ये तेजोमय महत्तत्त्वकी स्वाभाविक कलाएँ हैं ।।

जल, आकाश, पृथ्वी, वायु और अग्नि--इन भूतोंसे भिन्न कोई तत्त्व कभी नहीं था; इसमें संशय नहीं है ।।

किसी भी युक्ति या प्रमाणसे इन छः:के अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं बताया जा सकता। इसलिये जो कोई दूसरी बात कहता है, वह निस्संदेह झूठ बोलता है। तुम सभी कार्योमें अनुगत हुए इन छः तत्त्वोंकी और जिसके ये कार्य हैं, उस कारणको भी जानते हो ॥। ८ ।।

पाँच महाभूत, काल तथा विशुद्ध भाव और अभाव अर्थात्‌ नित्य आत्मतत्त्व और परिवर्तनशील महत्तत््व--ये आठ तत्त्व नित्य हैं। ये ही चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान हैं ।। ९ ।।

सब प्राणी उन्हींमें लीन होते हैं और उन्हींसे उनका प्राकट्य भी होता है। जीवोंका शरीर नष्ट हो जानेपर पाँच भागोंमें विभक्त होकर अपने-अपने कारणमें विलीन हो जाता है ।। १०।।

प्राणियोंका शरीर पृथ्वीका विकार है, श्रोत्रेन्द्रिय आकाशसे उत्पन्न हुई है, नेत्रेन्द्रिय सूर्यसे, प्राण वायुसे और रक्त जलसे उत्पन्न हुए हैं || ११ ।।

विद्वान्‌ पुरुष ऐसा मानते हैं कि नेत्र, नासिका, कर्ण, त्वचा और पाँचवीं जिह्ला--से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं |। १२ ।।

बाह्य पदार्थोंको देखना, सुनना, सूँघना, छूना तथा रस लेना--ये क्रमशः नेत्र आदि पाँच इन्द्रियोंके कार्य हैं। उन्हें युक्तिसे तुम इन इन्द्रियोंक गुण ही समझो। पाँचों इन्द्रियाँ पाँचों विषयों में पाँच प्रकारसे (दर्शन आदि क्रियाओंके रूपमें) विद्यमान हैं || १३ ।।

नेत्र आदि पाँच इन्द्रियोंद्वारा रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द--ये पाँच गुण दर्शन आदि पाँच प्रकारोंसे उपलब्ध किये जाते हैं ।। १४ ।।

रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द--इन्द्रियोंके इन पाँचों गुणोंको स्वयं इन्द्रियाँ नहीं जानती हैं। उन इन्द्रियोंद्वारा क्षेत्रज् (जीवात्मा) ही उनका अनुभव करता है ।। १५ ।।

शरीर और इन्द्रियोंके संघातसे चित्त श्रेष्ठ है, चित्तसे मन श्रेष्ठ है, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धिसे भी क्षेत्रज्ञ श्रेष्ठ है ।। १६ ।।

जीव पहले तो इन्द्रियोंद्वारा उनके अलग-अलग विषयोंको प्रकाशित करता है, फिर मनसे विचार करके बुद्धिद्वारा उसका निश्चय करता है। बुद्धियुक्त जीव ही इन्द्रियोंद्वारा उपलब्ध विषयोंका निश्चितरूपसे अनुभव करता है || १७ ।।

अध्यात्मतत्त्वोंका चिन्तन करनेवाले पुरुष पाँच इन्द्रिय तथा चित्त, मन और आठवीं बुद्धि--इन आठोंको ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं ।। १८ ।।

हाथ, पैर, पायु और उपस्थ तथा पाँचवाँ मुख--ये सब-के-सब कर्मन्द्रिय कहे जाते हैं। तुम इनका भी विवरण सुनो ।। १९ ।।

मुख-इन्द्रियका उपयोग बोलने और भोजन करनेके लिये बताया जाता है। पैर चलनेकी और हाथ काम करनेकी इन्द्रियाँ हैं । २० ।।

पायु और उपस्थ--ये दो इन्द्रियाँ क्रमश: मल और मूत्रका त्याग करनेके लिये हैं। इन दोनोंके त्यागरूप कर्म समान ही हैं। इनमेंसे पायु-इन्द्रिय मलका त्याग करती है और उपस्थ मैथुनके समय वीर्यका भी त्याग करता है || २१ ।।

इसके सिवा छठी कर्मेन्द्रिय बल अर्थात्‌ प्राणसमूह है। इस प्रकार मैंने अपनी वाणीद्वारा तुम्हें समस्त इन्द्रियाँ और उनके ज्ञान, कर्म एवं गुण सुना दिये ।। २२ ।।

जब अपने-अपने कर्मोंसे थककर इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं, तब इन्द्रियोंका त्याग करके जीवात्मा सो जाता है ।। २३ ।।

इन्द्रियोंके उपरत हो जानेपर भी यदि मन निवृत्त न होकर विषयोंका ही सेवन करता है तो उसे स्वप्नदर्शनकी अवस्था समझना चाहिये ।। २४ ।।

जो सात्विक, राजस और तामसभाव प्रसिद्ध हैं, वे ही जब भोग प्रदान करनेवाले कर्मोसे संयुक्त होते हैं, तब उन सात््विक आदि भावोंकी मनुष्य प्रशंसा करते हैं || २५

आनन्द, सुख, कर्मोंकी सिद्धि जाननेकी सामर्थ्य और उत्तम गति--ये चार सात्त्विक भाव हैं। सात््विक पुरुषकी स्मृति इन्हीं चार निमित्तोंका आश्रय लेती है अर्थात्‌ सात्त्विक पुरुष जाग्रत्‌ कालकी भाँति स्वप्रमें भी आनन्द आदि भावोंका ही स्मरण करता है ॥| २६

इनसे भिन्न राजस और तामस--प्राणियोंमेंसे जिस किसी एक श्रेणीके जीवोंमें जो-जो भाव (वासनाएँ), विधि (कर्मगति) का आश्रय लेकर स्थित हैं, उन्हीं भावोंको उनकी स्मृति ग्रहण करती है। अर्थात्‌ जाग्रत्‌ और स्वप्न--दोनों ही अवस्थाओंमें उन मनुष्योंको अपनीअपनी रुचिके अनुसार राजस और तामस पदार्थोंका सदा प्रत्यक्ष दर्शन होता है ।। २७ ।।

पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, चित्त, मन, बुद्धि, प्राण तथा सात्त्विक आदि तीन भाव--ये सत्रह गुण माने गये हैं। इनका अधिष्ठाता देहाभिमानी जीवात्मा अठारहवाँ है, जो इस शरीरके भीतर निवास करता है। उसे सनातन माना गया है। अथवा शरीरसहित वे सभी गुण देहधारियोंके आश्रित रहते हैं। जब जीवका वियोग हो जाता है, तब शरीर और उसमें रहनेवाले वे तत्त्व भी नहीं रह जाते | २८-२९ ।।

अथवा इन सबका समुदाय ही पाञज्चभौतिक शरीर है। एक महत्तत््व और जीवसहित पूर्वोक्त अठारह गुण--ये सभी इस समुदायके अन्तर्गत हैं ।। ३० ।।

जठरानलके साथ-साथ उक्त तत्त्वोंकी गणना करनेपर यह पाउ्चभौतिक संघात बीस तत्त्वोंका समूह है। महत्तत्त्व प्राणवायुके साथ इस शरीरको धारण करता है। यह वायु शरीरका भेदन करनेमें प्रभावशाली महत्तत््वका उपकरणमात्र है || ३१ ।।

जैसे इस जगत्‌में घट आदि कोई वस्तु उत्पन्न होती और फिर नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार प्रारब्ध, पुण्य और पापका क्षय होनेपर शरीर पज्चत्वको प्राप्त हो जाता है तथा संचित पुण्य और पापसे प्रेरित हो जीव समयानुसार कर्मजनित दूसरे शरीरमें प्रवेश करता है ।।

जिस प्रकार घरमें रहनेवाला पुरुष एक घरके गिरनेपर दूसरेमें और दूसरेके गिरनेपर तीसरेमें चला जाता है, उसी प्रकार कालसे प्रेरित हुआ जीव क्रमश: एक-एक शरीरको छोड़कर पूर्वसंकल्पके द्वारा निर्मित दूसरे-दूसरे शरीरमें जाता है ।। ३४ ।।

विद्वान्‌ पुरुष यह निश्चितरूपसे जानते हैं कि आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न, असंग और अविनाशी है, अत: शरीरका वियोग होनेपर उन्हें तनिक भी संताप नहीं होता; परंतु अज्ञानीजन देहसे अपना सम्बन्ध मानते हैं; इसलिये देह छूटनेसे उन्हें बड़ा दुःख होता है ।। ३५ ||

यह जीव वास्तवमें किसीका कोई नहीं है और न कोई दूसरा ही उसका कुछ है। वास्तवमें यह तो सदा अकेला ही है। परंतु शरीरमें रहकर उसे अपना माननेके कारण ही यह सुख-दुःखका भागी होता है ।। ३६ ।।

जीव न कभी उत्पन्न होता है, न मरता है। जब कभी इसे तत्त्वज्ञान होता है, तब यह शरीर--अभिमान छोड़कर परमगतिको प्राप्त कर लेता है || ३७ ।।

यह शरीर पुण्य-पापमय है। देहधारी जीव प्रारब्ध कर्मोके क्षयके साथ-साथ इस शरीरको क्षीण करता रहता है। इस प्रकार शरीरका नाश हो जानेपर वह मुक्त पुरुष ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। ३८ ।॥।

पुण्य और पापोंके क्षयके लिये ही ज्ञानयोगको साधन बताया गया है। उनका क्षय हो जानेपर जब जीवात्माको ब्रह्मभावकी प्राप्ति हो जाती है, तब विद्वानुलोग उसकी परमगति मानते हैं ।। ३९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें नारद और असितदेवलका संवादविषयक दो सौ पचहतत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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