सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उनहत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-68 का हिन्दी अनुवाद)
“प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्गके विषयमें स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद”
कपिलने कहा--यम-नियमोंका पालन करनेवाले संन्यासी ज्ञानमार्गका आश्रय लेकर परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं। वे इस दृश्य प्रपंचको नश्वर समझते हैं। सम्पूर्ण लोकोंमें उनकी गतिका कहीं कोई अवरोध नहीं होता ।। १ ।।
उन्हें सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्ध विचलित नहीं करते। वे न तो किसीको प्रणाम करते हैं और न आशीर्वाद ही देते हैं। इतना ही नहीं, वे विद्वान् पुरुष कामनाओंके बन्धनमें भी नहीं बँधते हैं। सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त, पवित्र और निर्मल होकर सर्वत्र विचरते रहते हैं || २ ।।
वे मोक्षकी प्राप्ति और सर्वस्वके त्यागके लिये अपनी बुद्धिमें दृढ़ निश्चय रखते हैं। ब्रह्मके ध्यानमें तत्पर एवं ब्रह्मस्वरूप होकर ब्रह्ममें ही निवास करते हैं ।।
उन्हें वे सनातन लोक प्राप्त होते हैं, जहाँ शोक और दुःखका सर्वथा अभाव है तथा जहाँ रजोगुण (काम-क्रोध आदि) का दर्शन नहीं होता। उस परम गतिको पाकर उन्हें गाहस्थ्य-आश्रममें रहने और यहाँके धर्मोके पालन करनेकी क्या आवश्यकता रह जाती है? ।।
स्यूमरश्मिने कहा--ज्ञान प्राप्त करके परब्रह्ममें स्थित हो जाना ही यदि पुरुषार्थकी चरम सीमा है, यदि वही उत्तम गति है, तब तो गृहस्थ-धर्मका महत्त्व और भी बढ़ जाता है; क्योंकि गृहस्थोंका सहारा लिये बिना कोई भी आश्रम न तो चल सकता है और न तो ज्ञानकी निष्ठा ही प्रदान कर सकता है ।। ५ ।।
जैसे समस्त प्राणी माताकी गोदका सहारा पाकर ही जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार गृहस्थ-आश्रमका आश्रय लेकर ही दूसरे आश्रम टिके हुए हैं ।। ६ ।।
गृहस्थ ही यज्ञ करता है, गृहस्थ ही तप करता है। मनुष्य जो कुछ भी चेष्टा करता है-जिस किसी भी शुभ कर्मका आचरण करता है, उस धर्मका मूल कारण गार्हस्थ्य-आश्रम ही है ।। ७ ।।
समस्त प्राणधारी जीव संतानके उत्पादन आदिसे सुखका अनुभव करते हैं, परंतु संतान गार्हस्थ्य-आश्रमके सिवा अन्यत्र किसी तरह सुलभ नहीं है ।। ८ ।।
कुश-काश आदि तृण, धान-जौ आदि ओषधि, नगरके बाहर उत्पन्न होनेवाली दूसरी ओषधियाँ तथा पर्वतपर होनेवाली जो ओषधियाँ हैं, उन सबका मूल भी गार्हस्थ्य-आश्रम ही है (क्योंकि वहींके यज्ञसे पर्जन्य (मेघ) की उत्पत्ति होती है, जिससे वर्षा आदिके द्वारा तृणलता, ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं)। प्राणस्वरूप जो ओषधियाँ हैं; उससे बाहर कोई दिखायी नहीं देता || ९ ।।
गृहस्थाश्रमके धर्मोंका पालन करनेसे मोक्ष नहीं होता है, ऐसी किसकी वाणी सत्य होगी। जो श्रद्धारहित, मूढ़ और सूक्ष्मदृष्टिसे वंचित हैं, अस्थिर, आलसी, श्रान्त और अपने पूर्वकृत कर्मोंसे संतप्त हैं, वे अज्ञानी पुरुष ही संन्यास-मार्गका आश्रय ले गृहस्थाश्रममें शान्तिका अभाव देखते हैं || १०-११ ।।
वैदिक धर्मकी सनातन मर्यादा तीनों लोकोंका हित करनेवाली एवं ध्रुव है। ब्राह्मण पूजनीय है और जन्म-कालसे ही उसका सबके द्वारा समादर होता है || १२ ।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--तीनों वर्णोमें गर्भाधानसे पहले वेदमन्त्रोंका उच्चारण किया जाता है। फिर लौकिक और पारलौकिक सभी कार्योंमें निस्संदेह उन वेदमन्त्रोंकी प्रवृत्ति होती है ।। १३ ।।
मृतकके दाह-संस्कारमें, पुनः: देह धारण करनेमें, देह धारण कर लेनेपर, मृत व्यक्तिकी तृप्तिके लिये प्रतिदिन तर्पण और श्राद्ध करनेमें, वैतरणीके निमित्त गौओं अथवा अन्य पशुओंका दान करनेमें तथा श्राद्धकर्ममें दिये हुए पिण्डोंका जलके भीतर विसर्जन करनेमें भी वैदिक मन्त्रोंका उपयोग होता है--इन सब कार्योंके मूल वेद-मन्त्र हैं || १४ ।।
अर्चिष्मतू, बहिषद् तथा कव्यवाह संज्ञक पितर भी मृत व्यक्तिके (सुख-शान्ति एवं प्रसन्नता) के लिये मन्त्र-पाठकी अनुमति देते हैं। मन्त्र ही सब धर्मोके कारण हैं ।। १५ ।।
वे ही वेद-मन्त्र जब पुकार-पुकारकर कहते हैं कि मनुष्य देवताओं, पितरों और ऋषियोंके जन्मसे ही ऋणी होते हैं, तब गृहस्थाश्रममें रहकर उन ऋणोंको चुकाये बिना किसीका भी मोक्ष कैसे हो सकता है? ।। १६ ।।
श्रीहीन और आलसी पण्डितोंने कर्मोके त्यागसे मोक्ष मिलता है--ऐसा मत चलाया है। यह सुननेमें सत्य-सा आभासित होता है, परंतु है मिथ्या। इस मार्गमें किसीको वेदके सिद्धान्तोंका तनिक भी ज्ञान नहीं है ।।
जो ब्राह्मण वेद-शास्त्रोंके अनुसार यज्ञका अनुष्ठान करता है, उसपर पापोंका आक्रमण नहीं हो सकता और न पाप उसे अपनी ओर खींच ही सकते हैं। वह अपने किये हुए यज्ञों और उनमें उपयोगी पशुओंके साथ ऊपरके पुण्यलोकोंमें जाता है और स्वयं सब प्रकारके भोगोंसे तृप्त होकर दूसरोंको भी तृप्त करता है ।। १८ ।।
वेदोंका अनादर करनेसे, शठतासे तथा छल-कपटसे कोई भी मनुष्य परब्रह्म परमात्माको नहीं पाता है। वेदों तथा उनमें बताये हुए कर्मोंका आश्रय लेनेपर ही उसे परब्रह्मकी प्राप्ति होती है ।। १९ ।।
कपिलजीने कहा--बुद्धिमान् पुरुषके लिये दर्श, पौर्णमास, अग्निहोत्र तथा चातुर्मास्य आदिके अनुष्ठानका विधान है; क्योंकि उनमें सनातनधर्मकी स्थिति है || २० ।।
परंतु जो संन्यास धर्म स्वीकार करके कर्मानुष्ठानसे निवृत्त हो गये हैं तथा धीर, पवित्र एवं ब्रह्मस्वरूपमें स्थित हैं, वे अविनाशी ब्रह्मको चाहनेवाले महात्मा पुरुष ब्रह्मज्ञानसे ही देवताओंको तृप्त करते हैं || २१ ।।
जो सम्पूर्ण भूतोंके आत्मारूपसे स्थित हैं और सम्पूर्ण प्राणियोंको आत्मभावसे ही देखते हैं, जिनका कोई विशेष पद नहीं है, उन ज्ञानी पुरुषका पदचिह्न ढूँढ़नेवाले--उनकी गतिका पता लगानेवाले देवता भी मार्ममें मोहित हो जाते हैं || २२ ।।
मनुष्योंके हाथ-पैर, वाणी, उदर और उपस्थ--ये चार द्वार हैं। इनका द्वारपाल होनेकी इच्छा करे अर्थात् इनपर संयम रखे। वह शास्त्रवाक्योंके अनुसार इन चारों द्वारोंके संयमसे प्राप्प ऋक्, यजु:, साम, अथर्वरूप चार मुखोंसे युक्त परमपुरुषको भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं अष्टाड़्योग--इन चार उपायोंसे प्राप्त करता है ।। २३ ।।
बुद्धिमान् पुरुष जूआ न खेले, दूसरोंका धन न ले, नीच पुरुषका बनाया हुआ अन्न न ग्रहण करे और क्रोधमें आकर किसीको मार न बैठे--ऐसा करनेसे उसके हाथ-पैर सुरक्षित रहते हैं || २४ ।।
किसीको गाली न दे, व्यर्थ न बोले, दूसरोंकी चुगली या निन््दा न करे, मितभाषी हो, सत्य वचन बोले तथा इसके लिये सदा सावधान रहे--ऐसा करनेसे वाक्-इन्द्रियरूप द्वारकी रक्षा होती है | २५ ।।
उपवास न करे, किंतु बहुत अधिक भी न खाय, सदा भोजनके लिये लालायित न रहे। सज्जनोंका संग करे और जीवननिर्वाहके लिये जितना आवश्यक हो, उतना ही अन्न पेटमें डाले--इससे उदरद्वारका संरक्षण होता है ।। २६ ।।
वीर युधिष्ठिर! अपनी धर्मपत्नीके साथ ही विहार करे, परायी स्त्रीके साथ नहीं, अपनी सत्रीको भी जबतक वह ऋतुस्नाता न हुई हो, समागमके लिये अपने पास न बुलाये और मनमें एकपत्नीव्रत धारण करे। ऐसा करनेसे उसके उपस्थ-द्वारकी रक्षा हो सकती है || २७ |।
जिस मनीषी पुरुषके उपस्थ, उदर, हाथ-पैर और वाणी--ये सभी द्वार पूर्णतः रक्षित हैं, वही वास्तवमें ब्राह्मण है || २८ ।।
जिसके ये द्वार सुरक्षित नहीं हैं, उसके सारे शुभ-कर्म निष्फल होते हैं, ऐसे मनुष्यको तपस्या, यज्ञ तथा आत्मचिन्तनसे क्या लाभ हो सकता है? ।। २९ |।
जिसके पास वस्त्रके नामपर एक लंगोटी मात्र है, ओढ़नेके लिये एक चादरतक नहीं है, जो बिना बिछौनेके ही सोता है, बाँहोंका ही तकिया लगाता है और सदा शान्तभावसे रहता है, उसीको देवता ब्राह्मण मानते हैं || ३० ।।
जो मुनि शीत-उष्ण आदि सम्पूर्ण द्वन्धरूपी उपवनोंमें अकेला ही आनन्दपूर्वक रहता है और दूसरोंका चिन्तन नहीं करता, उसे देवतालोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) समझते हैं || ३१
जिसको इस सम्पूर्ण जगत्की नश्वरताका ज्ञान है, जो प्रकृति और उसके विकारोंसे परिचित है तथा जिसे सम्पूर्ण भूतोंकी गतिका ज्ञान है, उसे देवतालोग ब्रह्मज्ञानी मानते हैं । ३२ ।।
जो सम्पूर्ण भूतोंसे निर्भय है, जिससे समस्त प्राणी भय नहीं मानते हैं तथा जो सब भूतोंका आत्मा है, उसीको देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं || ३३॥।
परंतु मूढ़ मानव दान और यज्ञ-कर्मके फलके सिवा योग आदिके फलका अनुमोदन नहीं करते। वे उन मोक्षप्रद समस्त साधनोंके महत्त्वको न जाननेके कारण स्वर्ग आदि अन्य फलोंमें ही रुचि रखते हैं ।।
किंतु उस पुराण, शाश्वत एवं ध्रुव यौगिक सदाचारका आश्रय लेकर अपने कर्तव्य कर्मोमें परायण रहनेवाले ज्ञानियोंका तप उत्तरोत्तर तीव्रताको प्राप्त होता है ।। ३५ ।।
प्रवृत्तिमार्गी मनुष्य योगशास्त्रके सूत्रोंमें कथित यम-नियमादिका अनुष्ठान नहीं कर सकते। वह यौगिक आचार आपत्तिशून्य, प्रमादरहित है। वह कामादिसे पराभवको नहीं प्राप्त होता है ।। ३६ ।।
योगशास्त्रमें कथित कर्म श्रेष्ठ फल देनेवाले, उन्नति करनेवाले एवं स्थायी हैं; तो भी प्रवृत्तिमार्गी मनुष्य उनको गुणरहित (निष्फल) और अस्थिर समझते हैं ।।
गुणोंके कार्यभूत जो यज्ञ-यागादि हैं, उनके स्वरूप और विधि-विधानको समझना बहुत कठिन है। समझ लेनेपर भी उनका अनुष्ठान करना तो और भी कठिन है। यदि अनुष्ठान भी किया जाय तो भी उनसे नाशवान् फलकी ही प्राप्ति होती है। इन सब बातोंको तुम भी देखते और समझते हो ।। ३८ ।।
स्यूमरश्मिने कहा--भगवन्! “कर्म करो” और “कर्म छोड़ो” ये जो परस्परविरुद्ध दो स्पष्ट मार्ग हैं, इनका उपदेश करनेवाले वेदकी प्रामाणिकताका निर्वाह कैसे हो? तथा त्याग कैसे सफल होता है? यह आप मुझको बताइये ।। ३९ ।।
कपिलने कहा--आपलोग सम्मार्गमें स्थित रहकर यहाँ योगमार्गके फलका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं; परंतु कर्ममार्गमें रहकर आपलोग जिस यज्ञकी उपासना करते हैं, उससे यहाँ कौन-सा प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है? || ४० ।।
स्यूमरश्मिने कहा--ब्रह्मन्! मेरा नाम स्यूमरश्मि है। मैं ज्ञान-प्राप्तिकी इच्छासे यहाँ आया हूँ। मैंने कल्याणकी इच्छा रखकर सरल भावसे ही अपनी बातें आपकी सेवामें उपस्थित की हैं, वाद-विवादकी इच्छासे नहीं || ४१ ।।
मेरे मनमें एक भयानक संशय उठ खड़ा हुआ है, इसे आप ही मिटा सकते हैं। आपने कहा था कि तुम सन्मार्ममें स्थित रहकर यहाँ योगमार्गके फलका प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हो। मैं पूछता हूँ कि आप जिसकी उपासना करते हैं, यहाँ उसका अत्यन्त प्रत्यक्ष फल क्या है? आप उसका तर्कका सहारा न लेकर प्रतिपादन कीजिये, जिससे मैं आगमके अर्थको जान सकूँ ।। ४२६ ।।
वेदमतका अनुसरण करनेवाले शास्त्र तो आगम हैं ही, तर्कशास्त्र (वेदोंके अर्थका निर्णय करनेवाले पूर्वोत्तर मीमांसा आदि) भी आगम हैं ।। ४३ ।।
जिस-जिस आश्रममें जो-जो धर्म विहित है, वहाँ-वहाँ उसी-उसी धर्मकी उपासना करनी चाहिये। उस-उस स्थानपर उसी-उसी धर्मका आचरण करनेसे वहाँ आगम सफल होता है। एवं शास्त्रके निश्चयसे ही सिद्धिका प्रत्यक्ष दर्शन होता है ।। ४४ ।।
जैसे एक जगह जानेवाली नावमें दूसरी जगह जानेवाली नाव बाँध दी जाय तो वह जलके स्रोतससे अपहृत हो किसीको गन्तव्य स्थानतक नहीं पहुँचा सकती, उसी प्रकार पूर्वजन्मके कर्मोकी वासनासे बँधी हुई हमारी कर्ममयी नौका हम कुबुद्धि पुरुषोंको कैसे भवसागरसे पार उतारेगी? भगवन्! यह आप मुझे बताइये, मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे उपदेश दीजिये ।। ४५ ।।
वास्तवमें इस जगत्के भीतर न कोई त्यागी है न संतुष्ट, न शोकहीन है न नीरोग। न तो कोई पुरुष कर्म करनेकी इच्छासे सर्वथा शून्य है, न आसक्तिसे रहित है और न सर्वथा कर्मका त्यागी ही है ।। ४६ ।।
आप भी हमलोगोंकी ही भाँति हर्ष और शोक प्रकट करते हैं। समस्त प्राणियोंके समान आपके समक्ष भी शब्द, स्पर्श आदि विषय उपस्थित और गृहीत होते हैं || ४७ ।।
इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमोंके लोग सभी प्रवृत्तियोंमें एकमात्र सुखका ही आश्रय लेते हैं--उसीको अपना लक्ष्य बनाकर चलते हैं, अतः सिद्धान्तत: अक्षय सुख क्या है, यह बताइये || ४८ ।।
कपिलने कहा--जो-जो शास्त्र जिस-जिस अर्थका आचरण--प्रतिपादन करता है, वह-वह सभी प्रवृत्तियोंमें सफल होता है। जिस साधनका जहाँ अनुष्ठान होता है, वहाँ-वहाँ अक्षय सुखकी प्राप्ति होती है ।। ४९ ।।
जो ज्ञानका अनुसरण करता है, ज्ञान उसके समस्त संसारबन्धनका नाश कर देता है। बिना ज्ञानकी जो प्रवृत्ति होती है, वह प्रजाको जन्म और मरणके चक््करमें डालकर उसका विनाश कर देती है ।। ५० ।।
आपलोग ज्ञानी हैं, यह बात सर्वविदित है। आप सब ओरसे नीरोग भी हैं; परंतु क्या आपलोगोंमेंसे कोई भी किसी भी कालमें एकात्मताको प्राप्त हुआ है? (जब एकमात्र अद्वितीय आत्मा अर्थात् ब्रह्मकी ही सत्ताका सर्वत्र बोध होने लगे, तब उसे एकात्मताका ज्ञान कहते हैं) || ५१ ।।
शास्त्रको यथार्थरूपसे न जानकर कुछ लोग वितण्डावादके ही बलसे रागदद्वेषसे अभिभूत होनेके कारण अहंकारके अधीन हो गये हैं || ५२ ।।
वे शास्त्रोंके यथार्थ तात्पर्यको न जाननेके कारण शास्त्रदस्यु (शास्त्रोंके अर्थपर डाका डालनेवाले लुटेरे) कहे जाते हैं। सर्वव्यापी ब्रह्यका भी अपलाप करनेके कारण ब्रह्मचोरकी पदवीसे विभूषित होते हैं। शम-दम आदि साधनोंका कभी अनुष्ठान नहीं करते हैं तथा दम्भ और मोहके वशमें पड़े रहते हैं || ५३ ।।
वे शम-दम आदि साधनोंको सदा निष्फल ही देखते और समझते हैं। ज्ञान, ऐश्वर्य आदि सदगुणोंकी जिज्ञासा नहीं करते हैं। उन तमोमय शरीरवाले पुरुषोंका तमोगुण ही सबसे बड़ा अवलम्ब है ।। ५४ ।।
जिस प्राणीकी जैसी प्रकृति होती है, उस प्रकृतिके वह अधीन होता है। उसके भीतर द्वेष, काम, क्रोध, दम्भ, असत्य और मद--ये प्रकृतिजनित गुण सदा ही विद्यमान रहते हैं ।। ५५ ||
परम गति प्राप्त करनेकी इच्छावाले संयमशील यति इस प्रकार सोच-विचारकर शुभ और अशुभ दोनोंका परित्याग कर देते हैं || ५६ ।।
स्यूमरश्मिने कहा--ब्रह्मन! मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, वह सब शास्त्रसे प्रतिपादित है; क्योंकि शास्त्रके अर्थको जाने बिना किसीकी किसी भी कार्यमें प्रवृत्ति नहीं होती || ५७ ।।
जो कोई भी न्यायोचित आचार है, वह सब शास्त्र है, ऐसा श्रुतिका कथन है। जो अन्यायपूर्ण बर्ताव है, वह अशास्त्रीय है, ऐसी श्रुति भी सुनी जाती है ।। ५८ ।।
शास्त्रके बिना अर्थात् शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करके कोई प्रवृत्ति सफल नहीं हो सकती, यह दविद्दानोंका निश्चय है। जो वैदिक वचनोंके विरुद्ध है, वह सब अशास्त्रीय है, ऐसा श्रुतिका कथन है ।। ५९ ।।
बहुत-से मनुष्य प्रत्यक्षको ही माननेवाले हैं। वे शास्त्रसे पृथक् इहलोकपर ही दृष्टि रखते हैं। शास्त्रोक्त दोषोंको नहीं देखते हैं और जैसे हमलोग शोक करते हैं, वैसे ही वे भी अवैदिकमतका आश्रय लेकर शोक किया करते हैं। आप-जैसे ज्ञानियोंको भी सब जन्तुओंके समान ही इन्द्रियोंक विषयोंका अनुभव होता है || ६० ।।
इस प्रकार चारों वर्णों और आश्रमोंकी जो प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें लगे हुए मनुष्य एकमात्र सुखका ही आश्रय लेते हैं--उसे ही प्राप्त करना चाहते हैं। उनमेंसे हम-जैसे लोग अज्ञानसे हतबुद्धि, तुच्छ विषयोंमें मन लगानेवाले तथा तमोगुणसे आवृत हैं। आप ऊहापोह करनेमें समर्थ-कुशल हैं, अतः सार्वदेशिक सिद्धान्तके रूपमें मोक्षसुखकी अनन्तता बताकर आपने मनसे हमें शान्ति पहुँचायी है ।। ६१-६२ ।।
जो आपके समान एकाकी, योगयुक्त, कृतकृत्य और मनपर विजय पानेवाला है तथा जो केवल शरीरका अथवा उसकी रक्षाके लिये स्वल्प भिक्षान्नमात्रका सहारा लेकर सम्पूर्ण दिशाओंमें विचरण कर सकता है, जिसने न्यायशास्त्रका परित्याग कर दिया है तथा जो सम्पूर्ण संसारको नाशवान् होनेके कारण गर्हित समझता है, ऐसा पुरुष ही वेद-वाक्योंका आश्रय लेकर "मोक्ष है” यह साधिकार कह सकता है ।। ६३-६४ ।।
गृहस्थाश्रमके अनुसार जो यह कुट॒म्बके भरण-पोषणसे सम्बन्ध रखनेवाला कार्य है तथा दान, स्वाध्याय, यज्ञ, संतानोत्पादन एवं सदा सरल और कोमल भावसे बर्ताव करना रूप जो कर्म है, यह सब मनुष्यके लिये अत्यन्त दुष्कर है ।। ६५ ।।
यदि यह सब दुष्कर कर्म करके भी किसीको मोक्ष नहीं प्राप्त हुआ तो कर्ताको धिक््कार है। उसके उस कार्यको धिक्कार है। और इसमें जो परिश्रम हुआ, वह व्यर्थ हो गया ।। ६६ ||
यदि कर्मकाण्डको व्यर्थ समझकर छोड़ दिया जाय तो यह नास्तिकता और वेदोंकी अवहेलना होगी; अतः भगवन्! मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कर्मकाण्ड किस प्रकार सुगमतापूर्वक मोक्षका साधक होगा? ।। ६७ ।।
ब्रह्म! आप मुझे तत्त्वकी बात बताइये। मैं शिष्यभावसे आपकी शरणमें आया हूँ। गुरुदेव! मुझे उपदेश कीजिये। आपको मोक्षके स्वरूपका जैसा ज्ञान है, वैसा ही मैं भी सीखना और जानना चाहता हूँ || ६८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें गोकापिलीयोपाख्यानविषयक दो सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सत्तरवें अध्याय के श्लोक 1-68 का हिन्दी अनुवाद)
“स्यूमरश्मि-कपिल-संवाद--चारों आश्रमोंमें उत्तम साधनोंके द्वारा ब्रह्मकी प्राप्तिका कथन”
कपिलने कहा--स्यूमरश्मे! सम्पूर्ण लोकोंके लिये वेद ही प्रमाण हैं। अतः वेदोंकी अवहेलना नहीं की गयी है। ब्रह्मके दो रूप समझने चाहिये--शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म (सच्चिदानन्दघन परमात्मा) ।। १ |।
जो पुरुष शब्दब्रह्ममें पारंगत (वेदोक्त कर्मोके अनुष्ठानसे शुद्धचित्त हो चुका) है, वह परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। पिता और माता वेदोक्त गर्भाधानकी विधिसे बालकके जिस शरीरको जन्म देते हैं, वे उस बालकके उस शरीरका ही संस्कार करते हैं। इस प्रकार जिसका शरीर वैदिक संस्कारसे शुद्ध हो जाता है, वही ब्रह्मज्ञानका पात्र होता है। अब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार तुम्हें यह बता रहा हूँ कि कर्म किस प्रकार अक्षय मोक्ष-सुखकी प्राप्ति करानेमें कारण होते हैं ।।
जो अपना धर्म (कर्तव्य) समझकर बिना किसी प्रकारकी भोगेच्छाके यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं, उनके उस यज्ञका फल वेद या इतिहासद्दारा नहीं जाना जाता है। वह प्रत्यक्ष है और उसे सब लोग अपनी आँखों देखते हैं |। ४ ।।
जो प्राप्त हुए पदार्थोका त्याग सब प्रकारके लालचको छोड़कर करते हैं, जो कृपणता और असूयासे रहित हैं और “धनके उपयोगका यही सर्वोत्तम मार्ग है” ऐसा समझकर सत्पात्रोंको दान करते हैं, कभी पापकर्मका आश्रय नहीं लेते तथा सदा कर्मयोगके साधनमें ही लगे रहते हैं, उनके मानसिक संकल्पकी सिद्धि होने लगती है और उन्हें विशुद्ध ज्ञानस्वरूप परब्रह्मके विषयमें दृढ़ निश्चय हो जाता है ।। ५-६ ।।
वे किसीपर क्रोध नहीं करते, कहीं दोषदृष्टि नहीं रखते, अहंकार तथा मात्सर्यसे दूर रहते हैं, ज्ञानके साधनोंमें उनकी निष्ठा होती है, उनके जन्म, कर्म और विद्या--तीनों ही शुद्ध होते हैं तथा वे समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हैं |। ७ ।।
पूर्वकालमें बहुत-से ब्राह्मण और राजा ऐसे हो गये हैं, जो गृहस्थ आश्रममें ही रहते हुए अपने-अपने कर्मोका त्याग न करके उनमें निष्काम भावसे विधिपूर्वक लगे रहे ।। ८ ।।
वे सब प्राणियोंपर समान दृष्टि रखते थे। सरल, संतुष्ट, ज्ञाननिष्ठ, प्रत्यक्ष फल देनेवाले धर्मके अनुष्ठाता और शुद्धचित्त होते थे तथा शब्दब्रह्म एवं परब्रह्म-दोनोंमें ही श्रद्धा रखते थे।।९।।
वे आवश्यक नियमोंका यथावत् पालन करके पहले अपने चित्तको शुद्ध करते थे और कठिनाई तथा दुर्गम स्थानोंमें पड़ जानेपर भी परस्पर मिलकर धर्मानुष्ठानमें तत्पर रहते थे। संघ-बद्ध होकर धर्मानुष्ठान करनेवाले उन पूर्ववर्ती पुरुषोंको इसमें सुखका ही अनुभव होता था। उन्हें किसी प्रकारका प्रायक्षित्त करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ती थी ।। १०-११।।
वे सत्यधर्मका आश्रय लेकर ही अत्यन्त दुर्धर्ष माने जाते थे। लेशमात्र भी पाप नहीं करते थे और प्राणान्तका अवसर उपस्थित होनेपर भी धर्मके विषयमें छलसे काम नहीं लेते थे।। १२ |।
जो प्रथम श्रेणीका धर्म माना जाता था, उसीका वे सब लोग साथ रहकर आचरण करते थे, अतः उनके सामने कभी प्रायश्चित्त करनेका अवसर नहीं आता था ।। १३ ।।
धर्मकी उस उत्तम श्रेणीमें स्थित हुए उन शुद्धचित्त पुरुषोंके लिये प्रायश्ित्त हैं ही नहीं। जिनका हृदय दुर्बल है, उन्हींसे पाप होता है और उन्हींके लिये प्रायश्चित्तका विधान किया गया है--ऐसा सुननेमें आता है ।। १४ ।।
इस प्रकार बहुत-से ब्राह्मण पूर्वकालमें यज्ञका निर्वाह करते थे। वे वेदविद्याके ज्ञानमें बढ़े-चढ़े, पवित्र, सदाचारी और यशस्वी थे ।। १५ ।।
वे विद्वान् पुरुष प्रतिदिन कामनाओंके बन्धनसे मुक्त हो यज्ञोंद्वारा भगवानूका यजन करते थे। उनके वे यज्ञ, वेदाध्ययन तथा अन्यान्य कर्म शास्त्रविधिके अनुसार सम्पन्न होते थे।। १६ |।
उन्होंने काम और क्रोधको त्याग दिया था। उनके आचार-कर्म दूसरोंके लिये आचरणमें लाने अत्यन्त कठिन थे। उनके हृदयमें यथासमय शास्त्र-ज्ञान और सत्यंकल्पका क्रमश: उदय होता था ।। १७ ।।
अपने उत्तम कर्मोंके कारण उनकी बड़ी प्रशंसा होती थी। वे स्वभावसे ही पवित्रचित्त, सरल, शान्तिपरायण और स्वधर्मनिष्ठ होते थे || १८ ।।
उनके हृदय बड़े उदार थे, उनके आचार और कर्म दूसरोंके लिये आचरणमें लानेमें अत्यन्त कठिन थे, अतः उनका सारा शुभ कर्म ही अक्षय मोक्षरूप फल देनेवाला था। यह बात सदा हमारे सुननेमें आयी है ।।
वे अपने-अपने कर्मोंसे ही परिपुष्ट थे। उनकी तपस्या घोर रूप धारण कर चुकी थी। वे आश्चर्यजनक सदाचारका पालन करते थे और उसका उन्हें पुरातन, शाश्वत एवं अविनाशी ब्रह्मरूप फल प्राप्त होता था ।।
धर्मोमें जो किंचित् सूक्ष्मता है, उसका आचरण करनेमें कितने ही लोग असमर्थ हो जाते हैं। वास्तवमें वेदोक्त आचार और धर्म आपत्तिसे रहित है। उसमें न तो प्रमाद है और न पराभव ही है | २१ ।।
पूर्वकालमें सब वर्णोंकी उत्पत्ति हो जानेपर आश्रमके विषयमें कोई वैषम्य नहीं था। तदनन्तर एक ही आश्रमको अवस्था-भेदसे चार भागोंमें विभक्त किया गया। इस बातको सभी ब्राह्मण जानते रहे ।। २२ ।।
श्रेष्ठ पुरुष विधिपूर्वक उन सब आश्रमोंमें प्रवेश करके उनके धर्मका पालन करते हुए परम-गतिको प्राप्त होते हैं। उनमेंसे कुछ लोग तो घरसे निकलकर (अर्थात् संन्यासी होकर), कुछ लोग वानप्रस्थका आश्रय लेकर, कुछ मानव गृहस्थ ही रहकर और कोई ब्रह्मचर्य आश्रमका सेवन करते हुए ही उस आश्रमधर्मका पालन करके परमपदको प्राप्त होते हैं। उस समय वे ही द्विजगण आकाशमें ज्योति-म॑यरूपसे दिखायी देते हैं, जो कि नक्षत्रोंके समान ही आकाशके विभिन्न स्थानोंमें अनेक तारागण हैं--इन सबने संतोषके द्वारा ही यह अनन्त पद प्राप्त किया है, ऐसा वैदिक सिद्धान्त है | २३--२५ ।।
ऐसे पुण्यात्मा पुरुष यदि कभी पुनः संसारकी कर्माधिकार युक्त योनियोंमें आते या जन्म ग्रहण करते हैं तो वे उस योनिके सम्बन्धसे पापकर्मोद्वारा लिप्त नहीं होते हैं ||
इसी प्रकार गुरुकी सेवामें तत्पर रहनेवाला, ब्रह्मचर्य-परायण, दृढ़ निश्चयवाला तथा योगयुक्त ब्रह्मचारी ही उत्तम ब्राह्मण हो सकता है। उससे भिन्न अन्य प्रकारका ब्राह्मण निम्न कोटिका अथवा नाममात्रका ब्राह्मण समझा जाता है || २७ ।।
इस प्रकार शुभ अथवा अशुभ कर्म ही पुरुषका तदनु-रूप नाम नियत करता है। जिनके राग-द्वेष आदि कषाय पक गये हैं, जिनके मनसे तृष्णा निकल गयी है, जो बाहरभीतरसे शुद्ध हैं तथा जिनकी बुद्धि कल्याणस्वरूप मोक्षमें लगी हुई है, उन तत्त्वज्ञानी पुरुषोंकी दृष्टिमें अनन्त ब्रह्मज्ञान तथा शास्त्रज्ञानके प्रभावसे सब कुछ ब्रह्मस्वरूप हो गया था; यह बात सदा ही हमारे सुननेमें आयी है || २८-२९ ।।
तुरीय ब्रह्मसे सम्बन्ध रखनेवाली जो उपनिषद्-विद्या है, उसकी प्राप्ति करानेवाले शम, दम, उपरति, तिततिक्षा, श्रद्धा तथा समाधानरूप जो धर्म हैं, वह सभी वर्ण और आश्रमके लोगोंके लिये साधारण हैं--ऐसा स्मृतिका कथन है। परंतु जो संयतचित्त और तपःसिद्ध ब्रह्मनिष्ठ पुरुष हैं, वे ही सदा उस धर्मका साधन कर पाते हैं || ३० ।।
संतोष ही जिसके सुखका मूल है, त्याग ही जिसका स्वरूप है, जो ज्ञानका आश्रय कहा जाता है, जिसमें मोक्षदायिनी बुद्धि--ब्रह्मसाक्षात्काररूप वृत्ति नित्य आवश्यक है, वह संन्यास-आश्रमरूप धर्म सनातन है ।।
यह यतिधर्म अन्य आश्रमके धर्मोंसे मिला हुआ हो या स्वतन्त्र हो, जो अपने वैराग्यबलके अनुसार इसका आश्रय लेते हैं, वे कल्याणके भागी होते हैं। इस मार्गसे जानेवाले सभी पथिकोंका परम कल्याण होता है; परंतु जो दुर्बल है--मन और इन्द्रियोंको वशमें न रखनेके कारण जो इसके साधनमें असमर्थ है, वही यहाँ शिथिल होकर बैठ रहता है। जो बाहर और भीतरसे पवित्र है, वह ब्रह्मपदका अनुसंधान करता हुआ संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है || ३२ ।।
स्यूमरश्मिने पूछा--ब्रह्मन! जो लोग प्राप्त हुए धनके द्वारा केवल भोग भोगते हैं, जो दान करते हैं, जो उस धनको यज्ञमें लगाते हैं, जो स्वाध्याय करते हैं अथवा जो त्यागका आश्रय लेते हैं, इनमेंसे कौन पुरुष मृत्युके पश्चात् प्रधानरूपसे स्वर्गलोकपर विजय पाता है? मैं जिज्ञासुभावसे पूछ रहा हूँ; आप मुझे यह सब यथार्थरूपसे बताइये ।। ३३-३४ ।।
कपिलजीने कहा--जिनका सात्त्विक गुणसे प्राकट्य हुआ है, ऐसे सभी परिग्रह शुभ हैं; परंतु त्यागमें जो सुख है, उसे इनमेंसे कोई भी नहीं पा सके हैं। इस बातको तुम भी देखते ही हो || ३५ ।।
स्यूमरश्मिने पूछा--भगवन्! आप तो ज्ञाननिष्ठ हैं और गृहस्थलोग कर्मनिष्ठ होते हैं; परंतु आप इस समय निष्ठामें सभी आश्रमोंकी एकताका प्रतिपादन कर रहे हैं। इस प्रकार ज्ञान और कर्मकी एकता और पृथक्ृता-दोनोंका भ्रम होनेसे इनका ठीक-ठीक अन्तर समझमें नहीं आता है। इसलिये आप मुझे उसे यथोचित एवं यथार्थरीतिसे बतानेकी कृपा करें || ३६-३७ ।।
कपिलजीने कहा--कर्म स्थूल और सूक्ष्म शरीरकी शुद्धि करनेवाले हैं, किंतु ज्ञान परम गतिरूप है। जब कर्मोंद्वारा चित्तके रागादि दोष जल जाते हैं, तब मनुष्य रस-स्वरूप ज्ञानमें स्थित हो जाता है ।। ३८ ।।
समस्त प्राणियोंपर दया, क्षमा, शान्ति, अहिंसा, सत्य, सरलता, अद्रोह, निरभिमानता, लज्जा, तितिक्षा और शम--ये परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिके मार्ग हैं। इनके द्वारा पुरुष परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार विद्वान् पुरुषको मनके द्वारा कर्मके वास्तविक परिणामका निश्चय समझना चाहिये ।। ३९-४० ।।
सब ओरसे शान्त, संतुष्ट, विशुद्धचित्त और ज्ञाननिष्ठ विप्र जिस गतिको प्राप्त होते हैं, उसीको परमगति कहते हैं || ४१ ।।
जो वेदों और उनके द्वारा जानने योग्य परब्रह्मको ठीक-ठीक जानता है, उसीको वेदवेत्ता कहते हैं। उससे भिन्न जो दूसरे लोग हैं, वे मुँहसे वेद नहीं पढ़ते, धौंकनीके समान केवल हवा छोड़ते हैं || ४२ ।।
वेदज्ञ पुरुष सभी विषयोंको जानते हैं; क्योंकि वेदमें सब कुछ प्रतिष्ठित है। जो-जो वस्तु है और जो नहीं है, उन सबकी स्थिति वेदमें बतायी गयी है || ४३ ।।
सम्पूर्ण शास्त्रोंकी एकमात्र निष्ठा यही है कि जो-जो दृश्य पदार्थ है वह प्रतीतिकालमें तो विद्यमान है, परंतु परमार्थ ज्ञानकी स्थितिमें बाधित हो जानेपर वह नहीं है। ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें सदसत् स्वरूप ब्रह्म ही इस जगत्का आदि, मध्य और अन्त है ।। ४४ ।।
सब कुछ त्याग देनेपर ही उस ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। यही बात सम्पूर्ण वेदोंमें निश्चित की गयी है। वह अपने आनन्दस्वरूपसे सबमें अनुगत तथा अपवर्ग (मोक्ष) में प्रतिष्ठित है || ४५ ||
अतः वह ब्रह्म ऋत, सत्य, ज्ञात, ज्ञातव्य, सबका आत्मा, स्थावर-जंगमरूप, सम्पूर्ण सुखरूप, कल्याणमय, सर्वोत्कृष्ट, अव्यक्त, सबकी उत्पत्तिका कारण और अविनाशी है ।। ४६ |।
उस आकाशके समान असंग, अविनाशी और सदा एकरस तत्त्वका ज्ञान-नेत्रोंवाले सभी पुरुष तेज, क्षमा और शान्तिरूप शुभ साथधनोंके द्वारा साक्षात्कार करते हैं। जो वास्तवमें ब्रह्मवेत्तासे अभिन्न है, उस परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है || ४७ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें गोकापिलीयोपाख्यानविषयक दो सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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