सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छाछठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छाछठवें अध्याय के श्लोक 1-78 का हिन्दी अनुवाद)
“महर्षि गौतम और चिरकारीका उपाख्यान--दीर्घकालतक सोच-विचारकर कार्य करनेकी प्रशंसा”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आप मेरे परम गुरु हैं। कृपया यह बतलाइये कि यदि कभी सर्वथा ऐसा कार्य उपस्थित हो जाय, जो गुरुजनोंकी आज्ञाके कारण अवश्य कर्तव्य हो, परंतु हिंसायुक्त होनेके कारण दुष्कर एवं अनुचित प्रतीत होता हो तो ऐसे अवसरपर उस कार्यकी परख कैसे करनी चाहिये? उसे शीघ्र कर डाले या देरतक उसपर विचार करता रहे || १ ।।
भीष्मजीने कहा--बेटा! इस विषयमें जानकार लोग इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो पहले आंगिरस-कुलमें उत्पन्न चिरकारीपर बीत चुका है ।। २ ।।
“चिरकारी! तुम्हारा कल्याण हो। चिरकारी! तुम्हारा मंगल हो। चिरकारी बड़ा बुद्धिमान् है। चिरकारी कर्तव्योंके पालनमें कभी अपराध नहीं करता है।” (यह बात चिरकारीकी प्रशंसा करते हुए उसके पिताने कही थी) ।। ३ ।।
कहते हैं, महर्षि गौतमके एक महाज्ञानी पुत्र था, जिसका नाम था चिरकारी। वह कर्तव्य-विषयोंका भलीभाँति विचार करके सारे कार्य विलम्बसे किया करता था ।। ४ ।।
वह सभी विषयोंपर बहुत देरतक विचार करता था, चिरकालतक जागता था और चिरकालतक सोता था तथा चिर-विलम्बके बाद ही कार्य पूर्ण करता था; इसलिये सब लोग उसे चिरकारी कहने लगे ।। ५ ।।
जो दूरतककी बात नहीं सोच सकते, ऐसे मन्दबुद्धि मानवोंने उसे आलसीकी उपाधि दे दी। उसे दुर्बुद्धि कहा जाने लगा ।। ६ ।।
एक दिनकी बात है, गौतमने अपनी स्त्रीके द्वारा किये गये किसी व्यभिचारपर कुपित हो अपने दूसरे पुत्रोंकी न कहकर चिरकारीसे कहा--बेटा! तू अपनी इस पापिनी माताको मार डाल' ।। ७ |।
उस समय बिना बिचारे ही ऐसी आज्ञा देकर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि महाभाग गौतम वनमें चले गये ।। ८ ।।
चिरकारीने अपने स्वभावके अनुसार देर करके कहा, “बहुत अच्छा'। चिरकारी तो वह था ही, चिरकालतक उस बातपर विचार करता रहा ।। ९ |।
उसने सोचा कि “मैं किस उपायसे काम लूँ जिससे पिताकी आज्ञाका पालन भी हो जाय और माताका वध भी न करना पड़े। धर्मके बहाने यह मेरे ऊपर महान् संकट आ गया है। भला, अन्य असाधु पुरुषोंकी भाँति मैं भी इसमें ड्ूबनेका कैसे साहस करूँ? ।। १०।।
'पिताकी आज्ञाका पालन परम धर्म है और माताकी रक्षा करना पुत्रका प्रधान धर्म है। पुत्र कभी स्वतन्त्र नहीं होता, वह सदा माता-पिताके अधीन ही रहता है, अतः क्या करूँ जिससे मुझे धर्मकी हानिरूप पीड़ा न हो ।। ११ ।।
“एक तो स्त्री-जाति, दूसरे माताका वध करके कौन पुत्र कभी भी सुखी हो सकता है? पिताकी अवहेलना करके भी कौन प्रतिष्ठा पा सकता है? ।। १२ ।।
“पिताका अनादर उचित नहीं है, साथ ही माताकी रक्षा करना भी पुत्रका धर्म है। ये दोनों ही धर्म उचित और योग्य हैं। मैं किस प्रकार इनका उल्लंघन न करूँ? ।।
'पिता स्वयं अपने शील, सदाचार, कुल और गोत्रकी रक्षाके लिये स्त्रीके गर्भमें अपना ही आधान करता और पुत्ररूपमें उत्पन्न होता है || १४ ।।
“अतः मुझे माता और पिता-दोनोंने ही पुत्रके रूपमें जन्म दिया है। मैं इन दोनोंको ही अपनी उत्पत्तिका कारण समझता हूँ। मेरा ऐसा ही ज्ञान क्यों न सदा बना रहे? ।। १५ ।।
“जातकर्म-संस्कार और उपनयन-संस्कारके समय पिताने जो आशीर्वाद दिया है, वह पिताके गौरवका निश्चय करानेमें पर्याप्त एवं सुदृढ़ प्रमाण है ।। १६ ।।
“पिता भरण-पोषण करने तथा शिक्षा देनेके कारण पुत्रका प्रधान गुरु है। वह परम धर्मका साक्षात् स्वरूप है। पिता जो कुछ आज्ञा दे, उसे ही धर्म समझकर स्वीकार करना चाहिये। वेदोंमें भी उसीको धर्म निश्चित किया गया है ।। १७ ।।
पुत्र पिताकी सम्पूर्ण प्रीतिरूप है और पिता पुत्रका सर्वस्व है। केवल पिता ही पुत्रको देह आदि सम्पूर्ण देने योग्य वस्तुओंको देता है ।। १८ ।।
“इसलिये पिताके आदेशका पालन करना चाहिये। उसपर कभी कोई विचार नहीं करना चाहिये। जो पिताकी आज्ञाका पालन करनेवाला है, उसके पातक भी नष्ट हो जाते हैं ।। १९ ।।
'पुत्रके भोग्य (वस्त्र आदि), भोज्य (अन्न आदि), प्रवचन (वेदाध्ययन), सम्पूर्ण लोकव्यवहारकी शिक्षा तथा गर्भाधान, पुंसतवन और सीमन्तोन्रयन आदि समस्त संस्कारोंके सम्पादनमें पिता ही प्रभु है ।। २० ।।
“इसलिये पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सबसे बड़ी तपस्या है। पिताके प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं || २१ ।।
'पिता पुत्रसे यदि कुछ कठोर बातें कह देता है तो वे आशीर्वाद बनकर उसे अपना लेती हैं और पिता यदि पुत्रका अभिनन्दन करता है--मीठे वचन बोलकर उसके प्रति प्यार और आदर दिखाता है तो इससे पुत्रके सम्पूर्ण पापोंका प्रायश्चित्त हो जाता है ।। २२ ।।
“फूल डंठलसे अलग हो जाता है, फल वृक्षसे अलग हो जाता है; परंतु पिता कितने ही कष्टमें क्यों न हो, लाड़-प्यारसे पाले हुए अपने पुत्रको कभी नहीं छोड़ता है अर्थात् पुत्र कभी पितासे अलग नहीं हो सकता ।। २३ ।।
'पुत्रके निकट पिताका कितना गौरव होना चाहिये, इस बातपर पहले विचार किया है। विचार करनेसे यह बात स्पष्ट हो गयी कि पिता पुत्रके लिये कोई छोटा-मोटा आश्रय नहीं है। अब मैं माताके विषयमें सोचता हूँ ।। २४ ।।
“मेरे लिये जो यह पाउ्चभौतिक मनुष्यशरीर मिला है, इसके उत्पन्न होनेमें मेरी माता ही मुख्य हेतु है। जैसे अग्निके प्रकट होनेका मुख्य आधार अरणी-काष्ठ है || २५ ।।
“माता मनुष्योंके शरीररूपी अग्निको प्रकट करनेवाली अरणी है। संसारके समस्त आर्त प्राणियोंको सुख और सान्त्वना प्रदान करनेवाली माता ही है। जबतक माता जीवित रहती है, मनुष्य अपनेको सनाथ समझता है और उसके न रहनेपर वह अनाथ हो जाता है ।। २६ ||
“माताके रहते मनुष्यको कभी चिन्ता नहीं होती है, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता है। जो अपनी माँको पुकारता हुआ घरमें जाता है, वह निर्धन होनेपर भी मानो माता अन्नपूर्णके पास चला जाता है || २७ ।।
“पुत्र और पौत्रोंसे सम्पन्न होनेपर भी जो अपनी माताके आश्रयमें रहता है, वह सौ वर्षकी अवस्थाके बाद भी उसके पास दो वर्षके बच्चेके समान आचरण करता है ।। २८
"पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हृष्ट-पुष्ट, माता उसका पालन करती ही है। माताके सिवा दूसरा कोई विधिपूर्वक पुत्रका पालन-पोषण नहीं कर सकता ।। २९ |।
“जब मातासे विछोह हो जाता है, उसी समय मनुष्य अपनेको बूढ़ा समझने लगता है, दुखी हो जाता है और उसके लिये सारा संसार सूना प्रतीत होने लगता है ।।
“माताके समान दूसरी कोई छाया नहीं है अर्थात् माताकी छत्रछायामें जो सुख है, वह कहीं नहीं है। माताके तुल्य दूसरा सहारा नहीं है, माताके सदृश अन्य कोई रक्षक नहीं है तथा बच्चेके लिये माँके समान दूसरी कोई प्रिय वस्तु नहीं है ।। ३१ ।।
“वह गर्भशियमें धारण करनेके कारण धात्री, जन्म देनेके कारण जननी, शिशुका अड्डभवर्धन (पालन-पोषण) करनेसे अम्बा तथा वीर-संतानका प्रसव करनेके कारण वीरसू कही गयी है ।। ३२ ।।
“वह शिशुकी शुश्रूषा करके शुश्रू नाम धारण करती है। माता अपना निकटतम शरीर है। जिसका मस्तिष्क विचार शून्य नहीं हो गया है, ऐसा कोई सचेतन मनुष्य कभी अपनी माताकी हत्या नहीं कर सकता ।। ३३ ।।
“पति और पत्नी मैथुनकालमें सुयोग्य पुत्र होनेके लिये जो अभिलाषा करते हैं, उसे यद्यपि पिता और माता-दोनों धारण करते हैं तथापि वास्तवमें वह अभिलाषा मातामें ही प्रतिष्ठित होती है ।। ३४ ।।
'पुत्रका गोत्र क्या है? यह माता जानती है। वह किस पिताका पुत्र है? यह भी माता ही जानती है। माता बालकको अपने गर्भमें धारण करती है, इसलिये उसीका उसपर अधिक स्नेह और प्रेम होता है। पिताका तो अपनी संतानपर प्रभुत्वमात्र है ।। ३५ ।।
“जब स्वयं ही पत्नीका पाणिग्रहण करके साथ-साथ धर्माचरण करनेकी प्रतिज्ञा लेकर भी पुरुष परायी स्त्रियोंक पास जायँगे (और उनपर बलात्कार करेंगे), तब इसके लिये स्त्रियोंको दोषी नहीं ठहराया जा सकता ।। ३६ ।।
“पुरुष अपनी स्त्रीका भरण-पोषण करनेसे भर्ता और पालन करनेके कारण पति कहलाता है। इन गुणोंके न रहनेपर वह न तो भर्ता है और न पति ही कहलाने योग्य है ।। ३७ ||
*वास्तवमें स्त्रीका कोई अपराध नहीं होता है, पुरुष ही अपराध करता है। व्यभिचारका महान् पाप पुरुष ही करता है, इसलिये वही अपराधी है ।। ३८ ।।
'सत्रीके लिये पति ही परम आदरणीय है, वही उसका सबसे बड़ा देवता माना गया है। मेरी माताने ऐसे पुरुषको आत्मसमर्पण किया है, जो शरीरसे, वेशभूषासे पिताजीके समान ही था ।| ३९ ||
'ऐसे अवसरोंपर स्त्रियोंका अपराध नहीं होता, पुरुष ही अपराधी होता है। सभी कार्योमें अबला होनेके कारण स्त्रियोंको अपराधके लिये विवश कर दिया जाता है, अतः पराधीन होनेके कारण वे अपराधिनी नहीं हैं || ४० ।।
'स्त्रीके द्वारा मैथुनजनित सुखसे तृप्त होनेके लिये कोई संकेत न करनेपर भी उसके कामको उद्दीप्त करनेवाले पुरुषको स्पष्ट ही अधर्मकी प्राप्ति होती है। इसमें संशय नहीं है।।
“इस प्रकार विचार करनेसे एक तो वह नारी होनेके कारण ही अवध्य है, दूसरे मेरी पूजनीया माता है। माताका गौरव पितासे भी बढ़कर है, जिसमें मेरी माँ प्रतिष्ठित है। नासमझ पशु भी स्त्री और माताको अवध्य मानते हैं (फिर मैं समझदार मनुष्य होकर भी उसका वध कैसे करूँ?) ।।
“मनीषी पुरुष यह जानते हैं कि पिता एक स्थानपर स्थित सम्पूर्ण देवताओंका समूह है; परंतु माताके भीतर उसके स्नेहवश समस्त मनुष्यों और देवताओंका समुदाय स्थित रहता है (अत: माताका गौरव पितासे भी अधिक है) ।। ४३ ।।
विलम्ब करनेका स्वभाव होनेके कारण चिरकारी इस प्रकार सोचता-विचारता रहा। इसी सोच-विचारमें बहुत अधिक समय व्यतीत हो गया। इतनेमें ही उसके पिता वनसे लौट आये ।। ४४ ।।
महाज्ञानी तपोनिष्ठ मेधातिथि गौतम उस समय पत्नीके वधके अनौचित्यपर विचार करके अधिक संतप्त हो गये। वे दुःखसे आँसू बहाते हुए वेदाध्ययन और धैर्यके प्रभावसे किसी तरह अपनेको सँभाले रहे और पश्चात्ताप करते हुए मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे -- || ४५-४६ ||
“अहो! त्रिभुवनका स्वामी इन्द्र ब्राह्मणका रूप धारण करके मेरे आश्रमपर आया था। मैंने अतिथि-सत्कारके गृहस्थोचित व्रतका आश्रय लेकर उसे मीठे वचनोंद्वारा सान्त्वना दी, उसका स्वागत-सत्कार किया और यथोचित रूपसे अर्घ्य-पाद्य आदि निवेदन करके मैंने स्वयं ही उसकी विधिवत् पूजा की || ४७-४८ ।।
“मैंने विनयपूर्वक कहा--“भगवन्! मैं आपके अधीन हूँ। आपके पदार्पणसे मैं सनाथ हो गया।” मुझे आशा थी कि मेरे इस सद्व्यवहारसे संतुष्ट होकर अतिथिदेवता मुझसे प्रेम करेंगे; परंतु यहाँ इन्द्रकी विषयलोलुपताके कारण दुःखद घटना घटित हो गयी। इसमें मेरी सत्रीका कोई अपराध नहीं ।। ४९ ।।
“इस प्रकार न तो स्त्री अपराधिनी है, न मैं अपराधी हूँ और न एक पथिक ब्राह्मणके वेशमें आया हुआ देवताओंका राजा इन्द्र ही अपराधी है। मेरे द्वारा धर्मके विषयमें जो स्त्रीवधरूप प्रमाद हुआ है, वही इस अपराधकी जड़ है ।। ५० ।।
“ऊध्ध्वरैता मुनि उस प्रमादके ही कारण ईर्ष्याजनित संकटकी प्राप्ति बताते हैं; ईष्यनि मुझे पापके समुद्रमें ठकेल दिया है और मैं उसमें डूब गया हूँ ।। ५१ ।।
“जिसे मैंने पत्नीके रूपमें अपने घरमें आश्रय दिया था। जो एक सती-साध्वी नारी थी और भार्या होनेके कारण मुझसे भरण-पोषण पानेकी अधिकारिणी थी, उसीका मैंने प्रमादरूपी व्यसनके वशीभूत होनेके कारण वध करा डाला। अब इस पापसे मेरा कौन उद्धार करेगा? ।।
'परंतु मैंने उदारबुद्धि चिरकारीको उसकी माताके वधके लिये आज्ञा दी थी। यदि उसने इस कार्यमें विलम्ब करके अपने नामको सार्थक किया हो तो वही मुझे स्त्रीह॒त्याके पापसे बचा सकता है ।। ५३ ।।
“बेटा चिरकारी! तेरा कल्याण हो। चिरकारी! तेरा मंगल हो। यदि आज भी तूने विलम्बसे कार्य करनेके अपने स्वभावका अनुसरण किया हो तभी तेरा चिरकारी नाम सफल हो सकता है || ५४ ।।
“बेटा! आज विलम्ब करके तू वास्तवमें चिरकारी बन और मेरी, अपनी माताकी तथा मैंने जो तपका उपार्जन किया है, उसकी भी रक्षा कर। साथ ही अपने-आपको भी पातकोंसे बचा ले || ५५ ।।
“अत्यन्त बुद्धिमान् होनेके कारण तुझमें जो चिरकारिताका सहज गुण है, वह इस समय सफल हो। आज तू वास्तवमें चिरकारी बन ।। ५६ ।।
“तेरी माता चिरकालसे तेरे जन्मकी आशा लगाये बैठी थी। उसने चिरकालतक तुझे गर्भमें धारण किया है, अतः बेटा चिरकारी! आज तू अपनी माताकी रक्षा करके चिरकारिताको सफल कर ले ।। ५७ ।।
“मेरा बेटा चिरकारी कोई दुःख या संताप प्राप्त होनेपर भी कार्य करनेमें विलम्ब करनेका स्वभाव नहीं छोड़ता है। मना करनेपर भी चिरकालतक सोता रहता है। आज हम दोनों माता-पिताका चिरसंताप देखकर वह अवश्य चिरकारी बने' || ५८ ।।
राजन! इस प्रकार दुखी हुए महर्षि गौतमने घर आनेपर अपने पुत्र चिरकारीको पास ही खड़ा देखा ।।
पिताको उपस्थित देख चिरकारी बहुत दुखी हुआ। वह हथियार फेंककर उनके चरणोंमें मस्तक झुका उन्हें प्रसन्न करनेकी चेष्टा करने लगा || ६० ।।
गौतमने देखा, चिरकारी पृथ्वीपर माथा टेककर पड़ा है और पत्नी लज्जाके मारे निश्चेष्ट खड़ी है। यह देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई ।। ६१ ।।
एकान्त वनमें उस आश्रमके भीतर रहनेवाले महामना गौतमने अपनी पत्नी तथा एकाग्रचित्त पुत्र चिरकारीको कभी अपनेसे अलग नहीं किया ।। ६२ ।।
अपने आवश्यक कर्म जप-ध्यान आदिके लिये महर्षि गौतमके बाहर चले जानेपर उनका पुत्र चिरकारी यद्यपि हाथमें हथियार लेकर खड़ा था तथापि माताकी रक्षाके लिये वह विनीतभावसे कुछ सोचता-विचारता रहा। इसीलिये माताको मार डालनेका जो आदेश प्राप्त हुआ था, वह पालित न हो सका ।। ६३ ||
पुत्रको अपने चरणोंमें नतमस्तक हुआ देख गौतमके मनमें यह विचार हुआ कि सम्भवतः चिरकारी भयके मारे हथियार उठानेकी चपलताको छिपा रहा है || ६४ ।।
तब पिताने चिरकालतक उसकी प्रशंसा करके देरतक उसका मस्तक सूँघा और चिरकालतक दोनों भुजाओंसे खींचकर उसे हृदयसे लगाये रखा और आशीर्वाद देते हुए कहा--“बेटा! चिरंजीवी हो” || ६५ ।।
महामते! इस प्रकार प्रेम और हर्षसे भरे हुए गौतमने पुत्रका अभिनन्दन करके यह बात कही-- ।।६६ ।।
“बेटा चिरकारी! तेरा कल्याण हो। तू चिरकालतक चिरकारी एवं चिरंजीवी बना रह। सौम्य! यदि तू चिरकालतक ऐसे ही स्वभावका बना रहा तो मैं दीर्घकालतक कभी दुखी नहीं होऊँगा' ।। ६७ ।।
तदनन्तर दिद्वान् मुनिश्रेष्ठ गौतमने कुछ गाथाएँ गायीं। चिरकालतक सोच-विचारकर काम करनेवाले धीर पुरुषोंमें जो गुण होते हैं, उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वे गाथाएँ इस प्रकार हैं-- || ६८ ।।
चिरकालतक सोच-विचार करके किसीके साथ मित्रता जोड़नी चाहिये और जिसे मित्र बना लिया, उसे सहसा नहीं छोड़ना चाहिये। यदि छोड़नेकी आवश्यकता पड़ ही जाय तो उसके परिणामपर चिरकालतक विचार कर लेना चाहिये। दीर्घकालतक सोच-विचार करके बनाया हुआ जो मित्र है, उसीकी मैत्री चिरकालतक टिक पाती है ।।
“राग, दर्द, अभिमान, द्रोह, पापाचरण और किसीका अप्रिय करनेमें जो विलम्ब करता है, उसकी प्रशंसा की जाती है ।। ७० ।।
“बन्धुओं, सुहृदों, सेवकों और स्त्रियोंके छिपे हुए अपराधोंके विषयमें कुछ निर्णय करनेमें भी जो जल्दबाजी न करके दीर्घकालतक सोच-विचार करता है, उसीकी प्रशंसा की जाती है” || ७१ ।।
भारत! कुरुनन्दन! इस प्रकार गौतम वहाँ अपने पुत्रके विलम्बपूर्वक कार्य करनेके कारण बहुत प्रसन्न हुए थे ।।
इस प्रकार सभी कार्योंमें विचार करके चिर-कालके पश्चात् किसी निश्चयपर पहुँचनेवाले पुरुषको दीर्घकालतक पश्चात्ताप नहीं करना पड़ता ।। ७३ ।।
जो चिरकालतक रोषको अपने भीतर ही दबाये रखता है और रोषपूर्वक किये जानेवाले कर्मको देरतक रोके रहता है, उसके द्वारा कोई कर्म ऐसा नहीं बनता, जो पश्चात्ताप करानेवाला हो || ७४ ।।
दीर्घकालतक बड़े-बूढ़ोंकी सेवा करे। दीर्घकालतक उनका संग करके उनकी पूजा (आदर-सत्कार) करे। चिरकालतक धर्मका सेवन और दीर्घकालतक उसका अनुसंधान करे ।। ७५ |।
अधिक समयतक विद्दवानोंका संग करके चिरकालतक शिष्ट पुरुषोंकी सेवामें रहे तथा चिरकालतक अपने मनको वशमें रखे। इससे मनुष्य चिरकालतक अवज्ञाका नहीं किंतु सम्मानका भागी होता है ।। ७६ ।।
धर्मोपदेश करनेवाले पुरुषसे यदि कोई प्रश्न करे तो उसे देरतक सोच-विचार कर ही उत्तर देना चाहिये। ऐसा करनेसे उसको देरतक पक्चात्ताप नहीं करना पड़ता है ।।
वे महातपस्वी ब्रह्मर्षि गौतम उस आश्रममें बहुत वर्षोत्क रहकर अन्तमें पुत्र चिरकारीके साथ ही स्वर्गलोकको सिधारे ।। ७८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें चिरकारीका उपाख्यानविषयक दो सौ छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सरसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सरसठवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)
“द्युमत्सेन और सत्यवान्का संवाद--अहिंसापूर्वक राज्यशासनकी श्रेष्ठताका कथन”
युधिष्ठिरने पूछा--सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! मैं आपसे यह पूछ रहा हूँ कि राजा किस प्रकार प्रजाकी रक्षा करे, जिससे उसको किसीकी हिंसा न करनी पड़े, वह आप मुझे बतानेकी कृपा करें ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें राजा सत्यवानके साथ उनके पिता द्युमत्सेनका जो संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || २ ।।
हमने सुना है कि एक दिन सत्यवानने देखा कि पिताकी आज्ञासे बहुत-से अपराधी शूलीपर चढ़ा देनेके लिये ले जाये जा रहे हैं। उस समय उन्होंने पिताके पास जाकर ऐसी बात कही, जो पहले किसीने नहीं कही थी ।। ३ ।।
“पिताजी! यह सत्य है कि कभी ऊपरसे धर्म-सा दिखायी देनेवाला कार्य अधर्मरूप हो जाता है और अधर्म भी धर्मके रूपमें परिणत हो जाता है, तथापि किसी प्राणीका वध करना भी धर्म हो--ऐसा कदापि नहीं हो सकता” ।। ४ ।।
द्युमत्सेनने कहा--बेटा सत्यवान्! यदि अपराधीका वध न करना भी कभी धर्म हो तो अधर्म क्या हो सकता है? यदि चोर-डाकू मारे न जाय॑ँ तो प्रजामें वर्णसंकरता और धर्मसंकरता फैल जाय ।। ५ ||
कलियुग आनेपर तो लोग “यह वस्तु मेरी है, इसकी नहीं है” ऐसा कहकर सीधे ही दूसरोंका धन हड़प लेंगे। इस तरह लोकयात्राका निर्वाह असम्भव हो जायगा। यदि तुम इसका कोई समाधान जानते हो, तो मुझसे बताओ ।। ६ ।।
सत्यवान् बोले--पिताजी! क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र--इन तीनों वर्णोको ब्राह्मणोंके अधीन कर देना चाहिये। जब चारों वर्णोंके लोग धर्मके बन्धनमें बँधकर उसका पालन करने लगेंगे तो उनकी देखा-देखी दूसरे मनुष्य सूत-मागध आदि भी धर्मका आचरण करेंगे || ७ ।।
इनमेंसे जो भी ब्राह्मणकी आज्ञाके विपरीत आचरण करे, उसके विषयमें ब्राह्मणको राजाके पास जाकर कहना चाहिये कि “अमुक मनुष्य मेरी बात नहीं सुनता है।” तब राजा उसी व्यक्तिको दण्ड दे ।। ८ ।।
जो दण्ड-विधान शरीरके पाँचों तत्त्वोंकी अलग-अलग न कर सके अर्थात् किसीके प्राण न ले, उसीका प्रयोग करना चाहिये। नीतिशास्त्रकी आलोचना और अपराधीके कार्यपर भलीभाँति विचार किये बिना ही इसके विपरीत कोई दण्ड नहीं देना चाहिये ।। ९ ।।
राजा डाकुओं अथवा दूसरे बहुत-से निरपराध मनुष्योंको मार डालता है और इस प्रकार उसके द्वारा मारे गये पुरुषके पिता-माता, स्त्री और पुत्र आदि भी जीविकाका कोई उपाय न रह जानेके कारण मानो मार दिये जाते हैं, अतः किसी दूसरेके अपकार करनेपर राजाको भलीभाँति विचार करना चाहिये (जल्दबाजी करके किसीको प्राणदण्ड नहीं देना चाहिये) ।। १० ।।
दुष्ट पुरुष भी कभी साधुसंगसे सुधरकर सुशील बन जाता है तथा बहुत-से दुष्ट पुरुषोंकी संतानें भी अच्छी निकल जाती हैं ।। ११ ।।
इसलिये दुष्टोंको प्राणदण्ड देकर उनका मूलोच्छेद नहीं करना चाहिये। किसीकी जड़ उखाड़ना सनातन धर्म नहीं है। अपराधके अनुरूप साधारण दण्ड देना चाहिये, उसीसे अपराधीके पापोंका प्रायश्चित हो जाता है ।। १२ ।।
अपराधीको उसका सर्वस्व छीन लेनेका भय दिखाया जाय अथवा उसे कैद कर लिया जाय या उसके किसी अंगको भंग करके उसे कुरूप बना दिया जाय; परंतु प्राणदण्ड देकर उनके कुटुम्बियोंको क्लेश पहुँचाना उचित नहीं है। इसी तरह यदि वे पुरोहित ब्राह्मणकी शरणमें जा चुके हों तो भी राजा उन्हें दण्ड न दे ।। १३ ।।
यदि शरण चाहनेवाले डाकू या दुष्ट पुरुष पुरोहितकी शरणमें चले जायेँ और यह प्रतिज्ञा करें कि 'ब्रह्मम! अब हम फिर ऐसा पाप नहीं करेंगे" तो उन्हें छोड़ देना चाहिये। यह ब्रह्माजीका उपदेश है। सिर मुड़ाकर दण्ड और मृगचर्म धारण करनेवाला संन्यासी ब्राह्मण भी यदि पाप करे तो दण्ड पानेका अधिकारी है || १४-१५ |।
यदि मनुष्य बार-बार अपराध करे, तो प्रमुख विचारकगण उसके अपराधके लिये गुरुतर दण्ड प्रदान करें। उस अवस्थामें पहले बारके अपराधकी भाँति वे बिना दण्ड दिये छोड़ देनेके योग्य नहीं रह जाते हैं || १६ ।।
द्युमत्सेनने कहा--बेटा! जहाँ-जहाँ भी प्रजाको धर्मकी मर्यादाके भीतर नियमन्त्रित करके रखा जा सके वहाँ-वहाँ वैसा करना धर्म ही बताया जाता है। जबतक कि धर्मका उल्लंघन नहीं किया जाता (तबतक ही वहाँ ऐसी व्यवस्था कर लेनी चाहिये) ।। १७
यदि धर्मका उल्लंघन करनेपर भी लुटेरोंका वध न किया जाय तो उनसे सारी प्रजाको कष्ट पहुँच सकता है। पहले और बहुत पहलेके लोगोंपर शासन करना सुगम था, क्योंकि उनका स्वभाव कोमल था, सत्यमें उनकी विशेष रुचि थी और द्रोह तथा क्रोधकी मात्रा उनमें बहुत कम थी। पहले अपराधीको धिककार देना ही बड़ा भारी दण्ड समझा जाता था। तदनन्तर अपराधकी मात्रा बढ़नेपर वाग्दण्डका प्रचार हुआ--अपराधीको कटुवचन सुनाकर छोड़ दिया जाने लगा ।।
इसके बाद आवश्यकता समझकर अर्थदण्ड भी चालू किया गया और आजकल तो वधका दण्ड भी प्रचलित हो गया है। बहुत-से दुष्टात्मा मनुष्योंको तो प्राणदण्डके द्वारा भी काबूमें लाना या मर्यादाके भीतर रखना असम्भव-सा हो रहा है || २० ।।
सुननेमें आया है कि डाकू मनुष्यों, देवताओं, गन्धर्वों अथवा पितरोंमेंसे किसीका आत्मीय नहीं होता। इतना ही नहीं, इस संसारमें कौन लुटेरा किसका है, यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता। कोई डाकू किसीका नहीं होता है, यही कहना यथार्थ है ।। २१ ।।
वह तो मरघटमें जाकर मृत शरीरसे चिह्नभूत वस्त्र आदि उतार लाता है और देवताओंकी सम्पत्तिको भी लूट लेता है। जिनकी बुद्धि मारी गयी है, उन डाकुओंपर जो कोई विश्वास करता है, वह मूर्ख है ।।
सत्यवानने कहा--पिताजी! यदि आप लुटेरोंका वध न करके साधुओंकी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं, अथवा उन दस्युओंको ही साधु बनाकर अहिंसाद्वारा उनकी प्राणरक्षा नहीं कर सकते तो भूत, वर्तमान और भविष्यमें उनके पारमार्थिक लाभका उद्देश्य सामने रखकर किसी उत्तम उपायसे उनका या उनकी दस्युवृत्तिका अन्त कर दीजिये ।। २३
बहुत-से नरेश, लोगोंकी जीवनयात्राका यथावत् रूपसे निर्वाह हो, इस उददेश्यसे बड़ी भारी तपस्या करते हैं। वे राजा अपने राज्यमें चोर-डाकुओंके होनेसे लज्जाका अनुभव करते हैं। इसीलिये प्रजाको शुद्ध, सदाचारी एवं सुखी बनानेकी इच्छासे वैसी तपस्यामें प्रवृत्त होते हैं ।। २४ ।।
जब प्रजामें दण्डका भय उत्पन्न किया जाता है, तब वह सत्कर्मपरायण होती है; अतः भय दिखाकर प्रजाको धर्ममें लगाना ही दण्डका उद्देश्य है, किसीका प्राण लेना नहीं। राजालोग अपनी इच्छासे दुष्टोंका वध नहीं करते हैं। श्रेष्ठ नरेश प्रायः सत्कर्मों और सद्व्यवहारों-द्वारा ही दीर्घकालतक प्रजापर शासन करते हैं || २५ ।।
इस प्रकार परम श्रेष्ठ राजाके सद॒व्यवहारका सब लोग अनुसरण करते हैं। मनुष्य स्वभावसे ही सदा बड़ोंके आचरणोंका अनुकरण करते हैं ।। २६ ।।
जो राजा स्वयं विषय भोगनेके लिये इन्द्रियोंका दास हो रहा है, अपने मनको काबूमें नहीं रख पाता, वह यदि दूसरोंको सदाचारका उपदेश देने लगे तो लोग उसकी हँसी उड़ाते हैं ।। २७ ।।
यदि कोई मनुष्य दम्भ या मोहके कारण राजाके साथ किंचिन्मात्र भी कोई अनुचित बर्ताव करने लगे तो सभी उपायोंसे उसका दमन करना चाहिये। ऐसा करनेपर वह पापकर्मसे दूर हट जाता है ।। २८ ।।
जो राजा पापकी प्रवृत्तिको रोकना चाहता हो, उसे पहले अपने मनको ही वशमें करना चाहिये। फिर अपने सगे बन्धु-बान्धव भी अपराध करें तो उनको भी भारी-से-भारी दण्ड देना चाहिये ।। २९ ।।
जहाँ पाप करनेवाले नीचको महान् दुःख नहीं भोगना पड़ता है, वहाँ निश्चय ही पाप बढ़ता है और धर्मका हास होता है || ३० ।।
पिताजी! एक दयालु एवं विद्वान् ब्राह्मणने मुझे यह सब उपदेश दिया था। उस समय उसने कहा था कि “तात सत्यवान! मेरे पूर्वज पितामहोंने मुझे आश्वासन देते हुए अत्यन्त कृपापूर्वक ऐसी शिक्षा दी थी। इसलिये राजाको सत्ययुगमें जब कि धर्म अपने चारों चरणोंसे मौजूद रहता है, पूर्वोक्त प्रथम श्रेणीके (अहिंसामय) दण्डद्वारा ही प्रजाको वशमें करना चाहिये ।। ३१-३२ ।।
“त्रेतायुग आनेपर धर्मका प्रचार एक चौथाई कम हो जाता है, द्वापरमें धर्मके दो ही पैर रह जाते हैं; परंतु कलियुगमें तो धर्मका चतुर्थ भाग ही शेष रह जाता है ।।
“इस प्रकार कलियुग उपस्थित होनेपर राजाके दुर्व्यवहारसे तथा उस कालविशेषका प्रभाव पड़नेसे सम्पूर्ण धर्मकी सोलहवीं कलामात्र शेष रह जायगी ।। ३४ ।।
'सत्यवान्! यदि प्रथम श्रेणीके अहिंसात्मक दण्डसे धर्म और अधर्मका सम्मिश्रण होने लगे, तब दण्डनीय व्यक्तिकी आयु, शक्ति और कालको ध्यानमें रखते हुए राजा यथोचित दण्डके लिये आज्ञा प्रदान करे || ३५ ।।
'स्वायम्भुव मनुने प्राणियोंपर अनुग्रह करनेके लिये धर्मका उपदेश किया है, जिससे इस जगतमें वह सत्यस्वरूप परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले धर्मके महान् फलसे वंचित न रह जाय” ।। ३६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें दुमत्सेन और सत्यवान्का संवादविषयक दो सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अड़सठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अड़सठवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“स्यूमरश्मि और कपिलका संवाद--स्यूमरश्मिके द्वारा यज्ञकी अवश्यकर्तव्यताका निरूपण”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! प्राणियोंका विरोध (अहित) न करते हुए मनुष्योंको शमदमादि छहों गुणोंकी प्राप्ति करानेवाला जो योग है तथा जो भोग और मोक्ष दोनों फलोंको प्राप्त करानेवाला धर्म है, वह मुझे बतलाइये ।। १ ।।
दादाजी! गार्हस्थ्यधर्म और योगधर्म दोनों एक दूसरेसे दूर नहीं हैं, तथापि उन दोनोंमेंसे कौन श्रेष्ठ है? यह बतानेकी कृपा करें ।। २ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! गार्हस्थ्य और योगधर्म दोनों महान् सौभाग्य प्रदान करनेवाले हैं, दोनों अत्यन्त दुष्कर हैं। दोनोंके ही फल महान् हैं और दोनोंका ही श्रेष्ठ पुरुषोंने आचरण किया है ।। ३ ।।
कुन्तीनन्दन! मैं तुम्हें इन दोनों धर्मोकी प्रामाणिकताका प्रतिपादन करूँगा और तुम्हारे धर्म तथा अर्थविषयक संदेहको मिटा दूँगा। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। ४ ।।
युधिष्ठि!! इस विषयमें जानकार लोग महर्षि कपिल और गौके भीतर आविष्ट हुए स्यूमरश्मिके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो ।।
हमने सुना है कि पूर्वकालमें राजा नहुषने वेदके अनुशासनको प्राचीन, सनातन एवं नित्य समझकर अपने घरपर आये हुए अतिथि त्वष्टाके लिये एक गायका आलम्भ करनेका विचार किया ।। ६ |।
उस समय सत्त्वगुणमें स्थित, संयमपरायण, मिताहारी, उदारचित्त और ज्ञानवान् कपिलमुनिने त्वष्टाके लिये नियुक्त हुई उस गायको देखा ।। ७ ।।
तब उत्तम, निर्भय, सुस्थिर, सत्य, सद्धावयुक्त एवं उत्साहयुक्त बुद्धिको प्राप्त हुए महर्षि कपिलने केवल एक बार इतना ही कहा--हा वेद! (जो तुम्हारे नामपर लोग ऐसा अनाचार करते हैं) ।। ८ ॥।
उस समय स्यूमरश्मि नामक एक ऋषिने उस गायके भीतर प्रवेश करके कपिलमुनिसे कहा--'अहो! यदि वेदोंकी प्रामाणिकतापर आपको संदेह है तो अन्य धर्मशास्त्रोंकी किस आधारपर प्रमाणभूत माना जा सकता है? ।। ९ |।
“तपस्वी, धैर्यवान्, वेद एवं विज्ञानरूप दृष्टिवाले ऋषिमुनि वेदको नित्यज्ञानसम्पन्न परमेश्वरकी नि:श्वासभूत वाणी मानते हैं || १० ।।
जो तृष्णारहित, उद्वेगशून्य, निष्काम तथा सब प्रकारके आरम्भोंसे रहित है, उस परमेश्वरके निःश्वाससे निःसृत वेदोंके विषयमें आप विपरीत वचन क्यों कह रहे हैं? ।। ११ ।।
कपिलने कहा--मैं न तो वेदोंकी निन््दा करता हूँ और न कभी उन्हें विपरीत बात बतानेवाला बताता हूँ। पृथक्ू-पृथक् आश्रमवालोंके जो कर्म हैं, उन सबके उद्देश्य एक ही हैं--ऐसा हमने सुन रखा है
संन्यासी परमपदको प्राप्त कर सकता है, वानप्रस्थ भी वहीं जा सकता है। गृहस्थ और ब्रह्मचारी--ये दोनों भी उसी पदको प्राप्त हो सकते हैं || १३ ।।
चारों आश्रम ही देवयाननामक चार सनातन मार्ग माने गये हैं। इनमें कौन बड़ा है कौन छोटा; अतः कौन प्रबल है, कौन दुर्बल--यह उनके फलोंको निमित्त बनाकर बताया गया है ।। १४ ||
ऐसा जानकर समस्त कार्योंका आरम्भ करे, यह वैदिक मत है। अन्यत्र यह सिद्धान्तभूत श्रुति भी सुनी जाती है कि कर्मोका आरम्भ ही न करे || १५ ||
क्योंकि यज्ञ आदि कार्योमें आलम्भन न करनेपर दोषकी प्राप्ति नहीं होती है और आलम्भन करनेपर महान् दोष प्राप्त होता है। ऐसी स्थितिमें वेदवचनोंके बलाबलको जानना अत्यन्त कठिन है ।। १६ |।
वेदों और तदनुकूल आगमोंको छोड़कर अन्यत्र अहिंसासे भिन्न हिंसाबोधक शास्त्रका कोई फल यदि युक्तिसे भी प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला प्रतीत होता हो अथवा तुम अनुभवमें उसका साक्षात्कार कर रहे हो तो उसे स्पष्ट बताओ ।। १७ ।।
स्यूमरश्मिने कहा--'स्वर्गकी इच्छा रखनेवाला पुरुष यज्ञ करे” यह श्रुति सदा ही सुनी जाती है। अतः मनुष्य पहले स्वर्गरूप फलकी कल्पना (संकल्प) करके फिर यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ करता है || १८ ।।
बकरा, घोड़ा, भेड़, गाय, पक्षी, ग्राम्य अन्न तथा जंगली अन्न आदि सारी वस्तुएँ प्राणके लिये अन्न हैं--ऐसा श्रुतिका कथन है ।। १९ ।।
प्रतिदिन सबेरे-शाम अन्नको प्राणका भोज्य बताया गया है। पशु और धान्य--ये यज्ञके अंग हैं, ऐसा श्रुति कहती है || २० ।।
भगवान् प्रजापतिने यज्ञके साथ-साथ इन सबकी सृष्टि की। फिर उन प्रजापतिने ही इन यज्ञसामग्रियोंद्वारा देवताओंसे यज्ञका अनुष्ठान कराया || २१ ।।
सात-सात प्रकारके जो ग्राम्य और आरण्य (जंगली) प्राणी हैं, वे सब एक-दूसरेकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं। इन सबमें “उत्तम” नामसे प्रसिद्ध जो सब-के-सब पुरुष या मनुष्यसंज्ञक प्राणी हैं, उन्हें भी यज्ञके लिये नियुक्त बताया गया है ।। २२ ।।
पूर्ववर्ती तथा अधिक पूर्ववर्ती पुरुषोंने इन समस्त द्रव्योंको यज्ञका अंग माना है, अतः कौन दिद्वान् मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार कभी किसी यज्ञको अपने लिये नहीं चुनेगा || २३ ।।
पशु, मनुष्य, वृक्ष और ओषधियाँ--ये सब-के-सब स्वर्ग चाहते हैं, परंतु यज्ञको छोड़कर और किसी साधनसे वह विशाल स्वर्गलोक सुलभ नहीं हो सकता है ।। २४।।
ओषधि (अन्न आदि), पशु, वृक्ष, लता, घी, दूध, दही, अन्यान्य हविष्य, भूमि, दिशा, श्रद्धा और काल--ये बारह यज्ञके अंग हैं ।। २५ ।।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और यजमान--ये चार मिलकर सोलह यज्ञांग होते हैं तथा गार्हपत्य अग्निको सत्रहवाँ यज्ञांग समझना चाहिये। इस प्रकार ये सत्रह अंग बताये जाते हैं ।। २६ ।।
ये सब यज्ञके अंग हैं और यज्ञ इस जगतकी स्थितिका मूल कारण है; ऐसा श्रुतिका कथन है। घी, दूध, दही, छाछ, गोबर, चमड़ा, बाल, सींग और पैर--इन सबके द्वारा गौ यज्ञकर्मका सम्पादन करती है। इस प्रकार इनमेंसे प्रत्येक वस्तुका, जो-जो विहित है, संग्रह करना चाहिये || २७-२८ ।।
ऋत्विक् और दक्षिणाओंके साथ ये सब मिलकर यज्ञका निर्वाह करते हैं। यजमान इन सारी वस्तुओंका संग्रह करके यज्ञका अनुष्ठान करते हैं || २९ ।।
ये सारी वस्तुएँ यज्ञके लिये रची गयी हैं; यह श्रुतिका कथन यथार्थ ही है। पहलेके सभी मनुष्य इसी प्रकार यज्ञानुष्ठानमें प्रवृत्त होते आये हैं || ३० ।।
यज्ञका अनुष्ठान अपना कर्तव्य है--ऐसा समझकर जो फलकी इच्छा न रखते हुए यज्ञ करता है, वह न तो हिंसा करता है, न किसीसे द्रोह करता है और न अहंकारपूर्वक किसी कर्मका आरम्भ ही करता है | ३१ ।।
यज्ञशास्त्रमें क्रमश: वर्णित ये सम्पूर्ण यज्ञांग विधि-पूर्वक यज्ञमें प्रयुक्त हो एक दूसरेको धारण करते हैं ।।
मैं ऋषियोंद्वारा कथित आम्नाय (धर्मशास्त्र) को देखता हूँ, जिसमें सारे वेद प्रतिष्ठित हैं। कर्ममें प्रवृत्ति करानेवाले ब्राह्मणग्रन्थके वाक्योंका उसमें दर्शन होनेसे विद्वान् पुरुष उस आर्षग्रन्थको प्रमाणभूत मानते हैं || ३३ ।।
वेदोंके ब्राह्मणभागसे यज्ञका प्राकट्य हुआ है। वह यज्ञ ब्राह्मणोंको ही अर्पित किया जाता है। यज्ञके पीछे सारा जगत् और जगतके पीछे सदा यज्ञ रहता है ।। ३४ ।।
“ॐ” यह वेदका मूल कारण है। वह ३5 तथा नमः, स्वाहा, स्वधा और वषट्-ये पद यथाशक्ति जिसके यजञ्ञमें प्रयुक्त होते हैं, उसीका यज्ञ सांगोपांग सम्पन्न होता है || ३५ ।।
ऐसे मनुष्यको तीनों लोकोंमें किसी भी प्राणीसे भय नहीं होता है। यह बात यहाँ सम्पूर्ण वेद तथा सिद्ध महर्षि भी कहते हैं || ३६ ।।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और विधिविहित स्तोभः--ये सब जिसमें विद्यमान होते हैं, वही इस जगतमें द्विज कहलानेका अधिकारी है ।। ३७ ।।
ब्रह्म! अग्न्याधान, (अग्निहोत्र) तथा सोमयाग करनेसे जो फल मिलता है और अन्यान्य महायज्ञोंके अनुष्ठानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसे आप जानते हैं || ३८ ।।
अतः विप्रवर! प्रत्येक द्विजको चाहिये कि वह बिना किसी विचारके यज्ञ करे और करावे। जो स्वर्गदायक विधिसे यज्ञ करता है, उसे देहत्यागके पश्चात् महान् स्वर्गफलकी प्राप्ति होती है ।। ३९ ।।
यह निश्चय है कि जो यज्ञ नहीं करते हैं, ऐसे पुरुषोंके लिये न तो यह लोक सुखदायक होता है और न स्वर्ग ही। जो वेदोक्त विषयोंके जानकार हैं, वे प्रवृत्ति और निवृत्ति--दोनोंको ही प्रमाणभूत मानते हैं | ४० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें गोकापिलीयोपाख्यानविषयक दो सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- सामगानके जो 'हा55यि, हा5&वु” इत्यादि पूरक अक्षर हैं, उन्हें 'स्तोभ' कहते हैं।
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