सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ चौसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौसठवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“जाजलिको पक्षियोंका उपदेश”
तुलाधारने कहा--ब्रह्मन! मैंने धर्मके जिस मार्गका दर्शन कराया है, उसपर सज्जन पुरुष चलते हैं या दुर्जन? इस बातको अच्छी तरह जाँचकर प्रत्यक्ष कर लो। तब तुम्हें इसकी यथार्थताका ज्ञान होगा ।। १ ।।
देखो! आकाशमें ये जो बहुत-से श्येन एवं दूसरी जातियोंके पक्षी चारों ओर विचरण कर रहे हैं, इनमें तुम्हारे सिरपर उत्पन्न हुए पक्षी भी हैं || २ ।।
ब्रह्मन! ये यत्र-तत्र घोंसलोंमें घुस रहे हैं। देखो, इन सबके हाथ-पैर सिकुड़कर शरीरोंसे सट गये हैं। इन सबको बुलाकर पूछो ।। ३ ।।
ये पक्षी तुम्हारे द्वारा पालित और समादूत हुए हैं। अतः तुम्हारा पिताके समान सम्मान करते हैं। जाजले! इसमें संदेह नहीं कि तुम इनके पिता ही हो; अतः इन पुत्रोंको बुलाकर प्रश्न करो || ४ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर जाजलिने उन पक्षियोंकों बुलाया। उनका धर्मयुक्त वचन सुनकर वे पक्षी वहाँ आये और उनसे मनुष्यके समान स्पष्ट वाणीमें बोलने लगे-- || ५ |।
“अहिंसा और दया आदि भावोंसे प्रेरित होकर किया हुआ कर्म इहलोक और परलोकमें भी उत्तम फल देनेवाला है। ब्रह्म! यदि मनमें हिंसाकी भावना हो तो वह श्रद्धाका नाश कर देती है। फिर नष्ट हुई श्रद्धा कर्म करनेवाले इस हिंसक मनुष्यका ही सर्वनाश कर डालती है ।। ६ |।
“जो हानि और लाभमें समान भाव रखनेवाले, श्रद्धालु, संयमी और शुद्ध चित्तवाले पुरुष हैं तथा यज्ञको कर्तव्य समझकर करते हैं, उनका यज्ञ कभी असफल नहीं होता ।। ७ |।
“ब्रह्मन! श्रद्धा सूर्यकी पुत्री है, इसलिये उसे वैवस्वती, सावित्री और प्रसवित्री (विशुद्ध जन्मदायिनी) भी कहते हैं। वाणी और मन भी श्रद्धाकी अपेक्षा बहिरंग हैं || ८ ।।
“भरतनन्दन! यदि वाणीके दोषसे मन्त्रके उच्चारणमें त्रुटि रह जाय और मनकी चंचलताके कारण इष्टदेवताका ध्यान आदि कर्म सम्पन्न न हो सके तो भी यदि श्रद्धा हो तो वह वाणी और मनके दोषको दूर करके उस कर्मकी रक्षा कर सकती है। परंतु यदि श्रद्धा न होनेके कारण कर्ममें त्रुटि रह जाय तो वाणी और मन (मन्त्रोच्चारण और ध्यान) उस कर्मकी रक्षा नहीं कर सकते ।। ९ |।
इस विषयमें प्राचीन वृत्तान्तोंको जाननेवाले लोग ब्रह्माजीकी गायी हुई गाथाका वर्णन किया करते हैं, जो इस प्रकार है--पहले देवतालोग श्रद्धाहीन पवित्र और पवित्रतारहित श्रद्धालुके द्रव्यकोी यज्ञकर्मके लिये एक-सा ही समझते थे। इसी प्रकार वे कृपण वेदवेत्ता और महादानी सूदखोरके अन्नमें भी कोई अन्तर नहीं मानते थे। देवताओंने खूब सोचविचारकर दोनों प्रकारके अन्नोंको समान निश्चित किया था || १०-११ ६ ।।
“किंतु एक बार यज्ञमें प्रजापतिने उनके इस बर्तावको देखकर कहा--'देवताओ! तुमने यह अनुचित किया है। वास्तवमें उदारका अन्न उसकी श्रद्धाके कारण पवित्र होता है और कंजूसका अश्रद्धाके कारण अपवित्र एवं नष्टप्राय समझा जाता है- || १२३ ।।
“सारांश यह कि उदारका ही अन्न भोजन करना चाहिये; कृपण, श्रोत्रिय एवं केवल सूदखोरका नहीं। जिसमें श्रद्धा नहीं है, एकमात्र वही देवताओंको हविष्य अर्पण करनेका अधिकार नहीं रखता है। उसीका अन्न नहीं खाना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष ऐसा ही मानते हैं ।।
'अश्रद्धा सबसे बड़ा पाप है और श्रद्धा पापसे छुटकारा दिलानेवाली है। जैसे साँप अपने पुरानी केंचुलको छोड़ देता है, उसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष पापका परित्याग कर देता है ।। १५ |।
“श्रद्धा होनेके साथ-ही-साथ पापोंसे निवृत्त हो जाना समस्त पवित्रताओंसे बढ़कर है। जिसके शील-सम्बन्धी दोष दूर हो गये हैं, वह श्रद्धालु पुरुष सदा पवित्र ही है ।। १६ ।।
“उसे तपस्याद्वारा क्या लेना है? आचार-व्यवहार अथवा आत्मचिन्तनद्वारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना है? यह पुरुष श्रद्धामय है, जिसकी जैसी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है, वह वैसा साच्चिक, राजस या तामस होता है ।। १७ ।।
“धर्म और अर्थका साक्षात्कार करनेवाले सत्पुरुषोंने इसी प्रकार धर्मकी व्याख्या की है। हमलोगोंने धर्मदर्शन नामक मुनिसे जिज्ञासा प्रकट करनेपर उस धर्मका ज्ञान प्राप्त किया है ।। १८ ।।
महाज्ञानी जाजलि! तुम इसपर श्रद्धा करो। तदनन्तर इसके अनुसार आचरण करनेसे तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी। श्रद्धा करनेवाला श्रद्धालु पुरुष साक्षात् धर्मका स्वरूप है। जाजले! जो श्रद्धापूर्वक अपने धर्मपर स्थित है, वही सबसे श्रेष्ठ माना गया है' | १९
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर थोड़े ही समयमें तुलाधार और जाजलि दोनों महाज्ञानी पुरुष परमधाममें जाकर अपने शुभ कर्मोके फलस्वरूप अपने-अपने स्थानको पाकर वहाँ सुखपूर्वक विहार करने लगे ।। २० ३ ||
इस प्रकार तुलाधारने नाना प्रकारके वक्तव्य विषयोंसे युक्त उत्तम भाषण किया। उन्होंने सनातन धर्मका भी वर्णन किया। ब्राह्मण जाजलिने विख्यात प्रभावशाली तुलाधारके वे वचन सुनकर उनके इस तात्पर्यको भलीभाँति हृदयंगम किया || २१-२२ ।।
कुन्तीनन्दन! तुलाधारने जो उपदेश दिया था, वह बहुजनसम्मत अर्थसे युक्त था। उसे सुनकर जाजलिको परम शान्ति प्राप्त हुई। उसे यथावत् दृष्टान्तपूर्वक समझाया गया है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो? ।। २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार-जाजलिसंवादविषयक दो सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- अतः श्रद्धाहीन पवित्रकी अपेक्षा पवित्रताहीन श्रद्धालुका ही अन्न ग्रहण करनेयोग्य है। इसी प्रकार कृपण वेदवेत्ता और दानी सूदखोरमेंसे दानी सूदखोरका ही अन्न श्रद्धापूत एवं ग्राह्म है। केवल सूदखोर और केवल कृपणका अन्न तो त्याज्य है ही।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पैसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पैसठवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“राजा विचख्नुके द्वारा अहिंसा-धर्मकी प्रशंसा”
भीष्मजीने कहा--राजन्! प्राचीन कालमें राजा विचख्नुने समस्त प्राणियोंपर दया करनेके लिये जो उदगार प्रकट किया था, उस प्राचीन इतिहासका इस प्रसंगमें जानकार मनुष्य उदाहरण दिया करते हैं ।। १ ।।
एक समय किसी यज्ञशालामें राजाने देखा कि एक बैलकी गरदन कटी हुई है और वहाँ बहुत-सी गौएँ आर्तनाद कर रही हैं। यज्ञशालाके प्रांगणमें कितनी ही गौएँ खड़ी हैं। यह सब देखकर राजा बोले-- ।। २ ।।
संसारमें समस्त गौओंका कल्याण हो।” जब हिंसा आरम्भ होने जा रही थी, उस समय उन्होंने गौओंके लिये यह शुभ कामना प्रकट की और उस हिंसाका निषेध करते हुए कहा -- || ३ ||
“जो धर्मकी मर्यादासे भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्माके विषयमें संदेह है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगोंने ही हिंसाका समर्थन किया है ।। ४ ।।
धर्मात्मा मनुने सम्पूर्ण कर्मोमें अहिंसाका ही प्रतिपादन किया है। मनुष्य अपनी ही इच्छासे यज्ञकी बाह्म॒वेदीपर पशुओंका बलिदान करते हैं ।। ५ ।।
अतः विज्ञ पुरुषको उचित है कि वह वैदिक प्रमाणसे धर्मके सूक्ष्म स्वरूपका निर्णय करे। सम्पूर्ण भूतोंके लिये जिन धर्मोंका विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गयी है || ६ ।।
उपवासपूर्वक कठोर नियमोंका पालन करे। वेदकी फलश्रुतियोंका परित्याग कर दे अर्थात् काम्य कर्मोंको छोड़ दे, सकाम कर्मोके आचरणको अनाचार समझकर उनमें प्रवृत्त न हो। कृपण (क्षुद्र) मनुष्य ही फलकी इच्छासे कर्म करते हैं |। ७ ।।
यदि कहें कि मनुष्य यूपनिर्माणके उद्देश्यसे जो वृक्ष काटते और यज्ञके उद्देश्यसे पशुबलि देकर जो मांस खाते हैं, वह व्यर्थ नहीं है। अपितु धर्म ही है तो यह ठीक नहीं; क्योंकि ऐसे धर्मकी कोई प्रशंसा नहीं करते ।। ८ ।।
सुरा, आसव, मधु, मांस और मछली तथा तिल और चावलकी खिचड़ी--इन सब वस्तुओंको धूर्तोंने यज्ञमें प्रचलित कर दिया है। वेदोंमें इनके उपयोगका विधान नहीं है।। ९।।
उन धूतोंने अभिमान, मोह और लोभके वशीभूत होकर उन वस्तुओंके प्रति अपनी यह लोलुपता ही प्रकट की है || ९½ ।।
ब्राह्मण तो सम्पूर्ण यज्ञोंमें भगवान् विष्णुका ही आदरभाव मानते हैं और खीर तथा फूल आदिसे ही उनकी पूजाका विधान है ।। १०६ ।।
वेदोंमें जो यज्ञ-सम्बन्धी वृक्ष बताये गये हैं, उन्हींका यज्ञोंमें उपयोग होना चाहिये। शुद्ध आचार-विचारवाले महान सत्त्गगुणी पुरुष अपनी विशुद्ध भावनासे प्रोक्षण आदिके द्वारा उत्तम संस्कार करके जो कोई भी हविष्य या नैवेद्य तैयार करते हैं, वह सब देवताओंको अर्पण करनेके योग्य ही होता है ।। ११-१२ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! जो हिंसासे अत्यन्त दूर रहनेवाला है, उस पुरुषका शरीर और आपत्तियाँ परस्पर विवाद करने लगती हैं--आपत्तियाँ शरीरका शोषण करती हैं और शरीर आपत्तियोंका नाश चाहता है; अतः सूक्ष्म हिंसाके भयसे कृषि आदि किसी कार्यका आरम्भ न करनेवाले पुरुषकी शरीरयात्राका निर्वाह कैसे होगा? ।। १३ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्छिर! कर्मोमें इस प्रकार प्रवृत्त होना चाहिये, जिससे शरीरकी शक्ति सर्वथा क्षीण न हो जाय, जिससे वह मृत्युके अधीन न हो जाय; क्योंकि मनुष्य शरीरके समर्थ होनेपर ही धर्मका पालन कर सकता है ।। १४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें विचख्नुगीताविषयक दी सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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