सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ इकसठवें अध्याय से दो सौ तिरसठवें अध्याय तक (From the 261 chapter to the 263 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ इकसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इकसठवें अध्याय के श्लोक 1-51 का हिन्दी अनुवाद)

“जाजलिकी घोर तपस्या, सिरपर जटाओंमें पक्षियोंके घोंसला बनानेसे उनका अभिमान और आकाशवाणीकी प्रेरणासे उनका तुलाधार वैश्यके पास जाना”

भीष्मजीने कहा--राजन! धर्मके विषयमें जाजलिके साथ तुलाधार वैश्यकी जो बातें हुई थीं, उसी प्राचीन इतिहासका विद्वान्‌ पुरुष यहाँ उदाहरण दिया करते हैं ।।

प्राचीन कालमें जाजलि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण थे, जो वनमें ही रहते और विचरते थे। उन महातपस्वी जाजलिने समुद्रके तटपर जाकर बड़ी भारी तपस्या की ।।

वे नियमसे रहते, नियमित भोजन करते और वल्कल, मृगचर्म एवं जटा धारण किया करते थे। वे बुद्धिमान मुनि बहुत वर्षोतक शरीरपर मैल और कीचड़ धारण किये खड़े रहे || ३ ।।

राजन! फिर किसी समय समुद्रतटस्थ जलयुक्त प्रदेशमें निवास करनेवाले वे महातेजस्वी विप्रर्षि सम्पूर्ण लोकोंको देखनेके लिये मनके समान तीव्र गतिसे विचरण करने लगे ।। ४ ।।

वन और काननोंसहित समुद्रपर्यन्त पृथ्वीका निरीक्षण करके समुद्रतटवर्ती सजल प्रदेशमें निवास करते समय जाजलि मुनि कभी इस प्रकार विचार करने लगे ।। ५ ।।

इस चराचर जगतमें मेरे सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्य नहीं है, जो मेरे साथ जलमें विचरने और आकाशकमें घूमने-फिरनेकी शक्ति रखता हो ।। ६ ।।

राक्षसोंसे अदृश्य रहकर जलयुक्त प्रदेशमें निवास करनेवाले जाजलि मुनिने जब इस प्रकार कहा, तब अदृश्य पिशाचोंने उनसे कहा, '*मुने! तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ।। ७ ।।

द्विजश्रेष्ठ काशीमें महायशस्वी तुलाधार रहते हैं, जो वणिक्‌-धर्मका पालन करते हैं; किंतु वे भी ऐसी बात नहीं कह सकते, जैसी आज आप कह रहे हैं' ।।

उन अदृश्य भूतोंके ऐसा कहनेपर महातपस्वी जाजलिने उनसे कहा--“क्या मैं उन ज्ञानी एवं यशस्वी तुलाधारका दर्शन कर सकता हूँ ।। ९ |।

ऐसा कहते हुए उन महर्षिको समुद्रतटवर्ती जलप्रदेशसे बाहर निकालकर राक्षसोंने उनसे कहा--द्विजश्रेष्ठ! इस मार्गका आश्रय लेकर काशीपुरी चले जाइये' || १० ।।

उन अदृश्य भूतोंके ऐसा कहनेपर जाजलि मुनि उदास होकर काशीमें गये और तुलाधारके पास पहुँचकर उससे इस प्रकार बोले ।। ११ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--तात! पूर्वकालमें जाजलिने कौन-सा ऐसा दुष्कर कार्य किया था, जिससे वे परम सिद्धिको प्राप्त हो गये, यह मुझे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें ।। १२।।

भीष्मजीने कहा--बेटा! जाजलि मुनि महान्‌ तपस्वी थे और अत्यन्त घोर तपस्यामें लगे हुए थे। वे प्रतेदिन सायंकाल और प्रातःकाल स्नान एवं संध्योपासना करके विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते और वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहते थे। ब्रह्मर्षि जाजलि वानप्रस्थके धर्मकी विधिको जानने और पालनेवाले थे, वे अपने तेजसे प्रज्वलित हो रहे थे || १३-१४ ।।

वे वनमें रहकर तपस्यामें ही लगे रहते, किंतु अपने धर्मकी कभी अवहेलना नहीं करते थे। वे वर्षिकि दिनोंमें खुले आकाशके नीचे सोते और हेमन्त-ऋतुमें पानीके भीतर बैठा करते थे। इसी तरह गर्मीके महीनोंमें कड़ी धूप और लूका कष्ट सहते थे; परंतु उनको वास्तविक धर्मका ज्ञान नहीं हुआ। वे पृथ्वीपर ही लोटते और तरह-तरहसे इस प्रकार सोते, जिससे दुःख और कष्टका ही अधिक अनुभव होता था | १६ ।।

तदनन्तर किसी समय वर्षा-ऋतु आनेपर वे मुनि खुले आकाशके नीचे खड़े हो गये और आकाशसे जो जलकी मूसलाधार वृष्टि होती थी, उसके आघातको बारंबार अपने मस्तकपर ही सहने लगे ।। १७ ।।

प्रभो! उनके सिरके बाल बराबर भींगे रहनेके कारण उलझकर जटाके रूपमें परिणत हो गये। सदा वनमें ही विचरण करनेके कारण उनके शरीरपर मैल जम गयी थी; परंतु उनका अन्तः:करण निर्मल हो गया था ।। १८ ।॥।

एक समयकी बात है, वे महातपस्वी जाजलि निराहार रहकर वायु-भक्षण करते हुए काष्ठकी भाँति खड़े हो गये, उस समय उनके चित्तमें तनिक भी व्यग्रता नहीं थी और वे क्षणभरके लिये भी कभी विचलित नहीं होते थे || १९ ।।

भरतनन्दन! वे चेष्टाशून्य होनेके कारण किसी दूँठे पेड़के समान जान पड़ते थे। राजन! उस समय उनके सिरपर गौरैया पक्षीके एक जोड़ेने अपने रहनेके लिये एक घोंसला बना लिया ।। २० ||

वे विप्रर्षि बड़े दयालु थे, इसलिये उन्होंने उन दोनों पक्षियोंकों तिनकोंसे अपनी जटाओंमें घोंसला बनाते देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी--उन्हें हटाने या उड़ानेकी कोई चेष्टा नहीं की || २१ ।।

जब वे महातपस्वी ढूँठे काठके समान होकर जरा भी हिले-डुले नहीं, तब अच्छी तरह विश्वास जम जानेके कारण वे दोनों पक्षी वहाँ बड़े सुखसे रहने लगे || २२ ।।

राजन! धीरे-धीरे वर्षा-ऋतु बीत गयी और शरत्काल उपस्थित हुआ। उस समय कामसे मोहित होकर उन गौरैयोंने संतानोत्पादनकी विधिसे परस्पर समागम किया और विश्वासके कारण महर्षिके सिरपर ही अण्डे दिये। कठोर व्रतका पालन करनेवाले उन तेजस्वी ब्राह्मणगको यह मालूम हो गया कि पक्षियोंने मेरी जटाओंमें अण्डे दिये हैं | २३-२४ ।।

इस बातको जानकर भी महातेजस्वी जाजलि विचलित नहीं हुए। उनका मन सदा धर्ममें लगा रहता था; अतः उन्हें अधर्मका कार्य पसंद नहीं था || २५ ।।

प्रभो! चिड़ियोंके वे जोड़े प्रतिदिन चारा चुगनेके लिये जाते और फिर लौटकर उनके मस्तकपर ही बसेरा लेते थे, वहाँ उन्हें बड़ा आश्वासन मिलता था और वे बहुत प्रसन्न रहते थे।। २६ |।

अण्डोंके पुष्ट होनेपर उन्हें फोड़कर बच्चे बाहर निकले और वहीं पलकर बड़े होने लगे, तथापि जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं ।। २७।।

दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले वे एकाग्रचित्त धर्मात्मा मुनि उन पक्षियोंके अण्डोंकी रक्षा करते हुए पूर्ववत्‌ निश्वेष्टभावसे खड़े रहे || २८ ।।

तदनन्तर कुछ समय बीतनेपर उन सब बच्चोंके पर निकल आये, मुनिको यह बात मालूम हो गयी कि चिड़ियोंके इन बच्चोंके पंख निकल आये हैं |। २९ ।।

संयमपूर्वक व्रतके पालनमें तत्पर रहनेवाले, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जाजलि किसी दिन वहाँ उन पंखधारी बच्चोंको उड़ते देख बड़े प्रसन्न हुए तथा अपने बच्चोंको बड़ा हुआ देख वे दोनों पक्षी भी बड़े आनन्दका अनुभव करने लगे और अपनी संतानोंके साथ निर्भय होकर वहीं रहने लगे || ३०-३१ ।।

बच्चोंके पंख हो गये थे, इसलिये वे दिनमें चारा चुगनेके लिये उड़कर निकल जाते और प्रतिदिन सायंकाल फिर वहीं लौट आते थे। ब्राह्मणप्रवर जाजलि उन पक्षियोंको इस प्रकार आते-जाते देखते, परंतु हिलते-डुलते नहीं थे || ३२ ।।

किसी समय माता-पिता उनको छोड़कर उड़ गये। अब वे बच्चे कभी आकर फिर चले जाते और जाकर फिर चले आते थे, इस प्रकार वे सदा आने-जाने लगे। उस समयतक जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं ।।

नरेश्वर! अब वे पक्षी दिनभर चरनेके लिये चले जाते और शामको पुनः बसेरा लेनेके लिये वहीं आते थे ।। ३४ ।।

कभी-कभी वे विहंगम उड़कर पाँच-पाँच दिनतक बाहर ही रह जाते और छठे दिन वहाँ लौटते थे, तबतक भी जाजलि मुनि हिले-डुले नहीं ।। ३५ ।।

फिर क्रमश: वे सब पक्षी बहुत दिनोंके लिये जाने और आने लगे, अब वे हृष्ट-पुष्ट और बलवान हो गये थे। अत: बाहर निकल जानेपर जल्दी नहीं लौटते थे ।।

राजन्‌! एक समय वे आकाशचारी पक्षी उड़ जानेके बाद एक मासतक लौटकर नहीं आये, तब जाजलि मुनि वहाँसे अन्यत्र चल दिये ।। ३७ ।।

उन पक्षियोंके अदृश्य हो जानेपर जाजलिको बड़ा विस्मय हुआ, वे मन-ही मन यह मानने लगे कि मैं सिद्ध हो गया, फिर तो उनके भीतर अहंकार आ गया ।। ३८ ।।

नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाले वे सम्भावितात्मा महर्षि उन पक्षियोंकों इस प्रकार गया हुआ देख अपनी सिद्धिकी सम्भावना करके मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए ।। ३९ ।।

फिर नदीके तटपर जाकर उन महातपस्वी मुनिने स्नान किया और संध्या-तर्पणके पश्चात्‌ अग्निहोत्रके द्वारा अग्निदेवको तृप्त करके उगते हुए सूर्यका उपस्थान किया ।। ४० ||

जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ जाजलि अपने मस्तकपर चिड़ियोंके पैदा होने और बढ़ने आदिकी बातें याद करके अपनेको महान्‌ धर्मात्मा समझने लगे और आकाशमें मानो ताल ठोंकते हुए स्पष्ट वाणीमें बोले, मैंने धर्मको प्राप्त कर लिया ।। ४१ ।।

इतनेहीमें आकाशवाणी- हुई--“जाजले! तुम धर्ममें तुलाधारके समान नहीं हो, काशीपुरीमें महाज्ञानी तुलाधार वैश्य प्रतिष्ठित हैं। विप्रवर! वे तुलाधार भी ऐसी बात नहीं कह सकते, जैसी तुम कह रहे हो।/ जाजलिने उस आकाशवाणीको सुना ।। ४२-४३ ।।

राजन! इससे वे अमर्षके वशीभूत हो गये और वे तुलाधारको देखनेके लिये पृथ्वीपर विचरने लगे। जहाँ संध्या होती, वहीं वे मुनि टिक जाते थे || ४४ ।।

इस प्रकार दीर्घकालके पश्चात्‌ वे वाराणसी पुरीमें जा पहुँचे, वहाँ उन्होंने तुलाधारको सौदा बेचते देखा ।।

विविध पदार्थोके क्रय-विक्रयसे जीवन-निर्वाह करनेवाले तुलाधार भी ब्राह्मणको आते देख तुरंत ही उठकर खड़े हो गये और बड़े हर्षके साथ आगे बढ़कर उन्होंने ब्राह्मणका स्वागत-सत्कार किया ।। ४६ ।।

तुलाधारने कहा--ब्रह्मन! आप मेरे पास आ रहे हैं, यह बात मुझे पहले ही मालूम हो गयी थी, इसमें संशय नहीं है। द्विजश्रेष्ठ अब जो कुछ मैं कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनिये ।। ४७ ।।

आपने सागरके तटपर सजल प्रदेशमें रहकर बड़ी भारी तपस्या की है, परंतु पहले कभी किसी तरह आपको यह बोध नहीं हुआ था कि मैं बड़ा धर्मवान्‌ हूँ ।।

विप्रवर! जब आप तपस्यासे सिद्ध हो गये, तब पक्षियोंने शीघ्र ही आपके सिरपर अण्डे दिये और उनसे बच्चे पैदा हुए, आपने उन सबकी भलीभाँति रक्षा की ।।

ब्रह्म! जब उनके पर निकल आये और वे चारा चुगनेके लिये उड़कर इधर-उधर चले गये, तब उन पक्षियोंके पालनजनित धर्मको आप बहुत बड़ा मानने लगे ।। ५० ।।

द्विजश्रेष्ठ] उसी समय मेरे विषयमें आकाशवाणी हुई, जिसे आपने सुना और सुनते ही अमर्षके वशीभूत होकर आप यहाँ मेरे पास चले आये। विप्रवर! बताइये, मैं आपका कौनसा प्रिय कार्य करूँ? ।। ५१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार-जाजलिसंवादविषयक दो सौ इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • इसी अध्यायमें पहले अदृश्य भूत-पिशाचोंके द्वारा उपर्युक्त वचन कहा गया है। यहाँ उसीको आकाशवाणी बतला रहे हैं।


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ बासठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बासठवें अध्याय के श्लोक 1-55 का हिन्दी अनुवाद)

“जाजलि और तुलाधारका धर्मके विषयमें संवाद”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! उस समय बुद्धिमान तुलाधारके इस प्रकार कहनेपर जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ मतिमान्‌ जाजलिने यह बात कही ।। १ ।।

जाजलि बोले--वैश्यपुत्र! तुम तो सब प्रकारके रस, गन्ध, वनस्पति, ओषधि, मूल और फल आदि बेचा करते हो ।। २ ।।

महामते! तुम्हें यह धर्ममें निष्ठा रखनेवाली बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई? तुम्हें यह ज्ञान कैसे सुलभ हुआ? यह सब पूर्णरूपसे मुझे बताओ ।। ३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! यशस्वी ब्राह्मण जाजलिके इस प्रकार पूछनेपर धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले तुलाधार वैश्यने उन्हें धर्म-सम्बन्धी सूक्ष्म बातोंको इस तरह बताना आरम्भ किया ।। ४ ।।

तुलाधार बोले--जाजले! जो समस्त प्राणियोंके लिये हितकारी और सबके प्रति मैत्रीभावकी स्थापना करनेवाला है, जिसे सब लोग पुरातन धर्मके रूपमें जानते हैं, गूढ़ रहस्योंसहित उस सनातन धर्मका मुझे ज्ञान है || ५ ।।

जिसमें किसी भी प्राणीके साथ द्रोह न करना पड़े अथवा कम-से-कम द्रोह करनेसे काम चल जाय, ऐसी जो जीवन-वृत्ति है, वही उत्तम धर्म है। जाजले! मैं उसीसे जीवन निर्वाह करता हूँ ।। ६ ।।

मैंने दूसरोंके द्वारा काटे गये काठ और घास-फ़ूससे यह घर तैयार किया है। अलक्तक (वृक्षविशेषकी छाल), पद्मक (पद्माख), तुंगकाष्ठ तथा चन्दनादि गन्धद्रव्य एवं अन्य छोटीबड़ी वस्तुओंको मैं दूसरोंसे खरीदकर बेचता हूँ ।। ७ ।।

विप्रर्षे! मेरे यहाँ मदिरा नहीं बेची जाती, उसे छोड़कर बहुत-से पीनेयोग्य रसोंको दूसरोंसे खरीदकर बेचता हूँ। माल बेचनेमें छल-कपट एवं असत्यसे काम नहीं लेता ।। ८ 

जाजले! जो सब जीवोंका सुहृद्‌ होता और मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा सदा सबके हितमें लगा रहता है, वही वास्तवमें धर्मको जानता है || ९ ।।

मैं न किसीसे अनुरोध करता हूँ न विरोध ही करता हूँ और न कहीं मेरा द्वेष है, न किसीसे कुछ कामना करता हूँ। समस्त प्राणियोंके प्रति मेरा समभाव है। जाजले! यही मेरा व्रत और नियम है, इसपर दृष्टिपात करो। मुने! मेरी तराजू सब मनुष्योंके लिये सम है-सबके लिये बराबर तौलती है ।। १० ।।

विप्रवर! मैं आकाशकी भाँति असंग रहकर जगतके कार्योंकी विचित्रताको देखता हुआ दूसरोंके कार्योंकी न तो प्रशंसा करता हूँ और न निन्‍्दा ही || ११ ।।

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ जाजले! इस प्रकार तुम मुझे सब लोगोंके प्रति समता रखनेवाला और मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा सुवर्णको समान समझनेवाला जानो ।। १२ ।।

जैसे अन्धे, बहरे और उन्मत्त (पागल) मनुष्य, जिनके नेत्र, कान आदि द्वार देवताओंने सदाके लिये बंद कर दिये हैं, सदा केवल साँस लेते रहते हैं, मुझ द्रष्टा पुरुषकी भी वैसी ही उपमा है (अर्थात्‌ मैं देखकर भी नहीं देखता, सुनकर भी नहीं सुनता और विषयोंकी ओर मन नहीं ले जाता, केवल साक्षीरूपसे देखता हुआ श्वास-प्रश्चासमात्रकी क्रिया करता रहता हूँ) ।। १३ ।।

जैसे वृद्ध, रोगी और दुर्बल मनुष्य विषयभोगोंकी स्पृहा नहीं रखते, उसी प्रकार मेरे मनसे भी धन और विषय-भोगोंकी इच्छा दूर हो गयी है ।। १४ ।।

जब यह पुरुष दूसरेसे भयभीत नहीं होता, जब दूसरे प्राणी भी इससे भयभीत नहीं होते तथा जब यह न तो किसीकी इच्छा रखता है और न किसीसे द्वेष ही करता है, तब ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। १५ ।।

जब समस्त प्राणियोंके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा भी बुरे भाव नहीं होते हैं तब मनुष्य ब्रह्मभावको प्राप्त होता है ।। १६ ।।

जिसका भूत या भविष्यमें कोई कार्य नहीं है तथा जिसके लिये कोई धर्म करना शेष नहीं है, साथ ही सम्पूर्ण भूतोंको अभय प्रदान करता है, वही निर्भय पदको प्राप्त होता है ।। १७ ।।

जैसे सब लोग मौतके मुखमें जानेसे डरते हैं, उसी प्रकार जिसके स्मरणमात्रसे सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं तथा जो कटुवचन बोलनेवाला और दण्ड देनेमें कठोर है, ऐसे मनुष्यको महान्‌ भयका सामना करना पड़ता है ।।

जो वृद्ध हैं, पुत्र और पौत्रोंसे सम्पन्न हैं, शास्त्रके अनुसार यथोचित आचरण करते हैं और किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करते हैं, उन्हीं महात्माओंके बर्तावका मैं भी अनुसरण करता हूँ ।।

अनाचारसे सनातन धर्म मोहयुक्त होकर नष्ट हो जाता है। उसके द्वारा विद्वान, तपस्वी तथा काम-क्रोधको जीतनेवाला बलवान पुरुष भी मोहमें पड़ जाता है ।।

जाजले! जो जितेन्द्रिय पुरुष अपने चित्तमें दूसरोंके प्रति द्रोह न रखकर, इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा पालित आचारको अपने आचरणमें लाता है, वह विद्वान्‌ वेदबोधित सदाचारका पालन करनेसे शीघ्र ही धर्मके रहस्यको जान लेता है || २१ ।।

जैसे यहाँ नदीकी धारामें दैवेच्छासे बहता हुआ काठ अकस्मात्‌ किसी दूसरे काठसे संयुक्त हो जाता है; फिर वहाँ दूसरे-दूसरे काष्ठ, तिनके, छोटी-छोटी लकड़ियाँ और सूखे गोबर भी आकर एक-दूसरेसे जुड़ जाते हैं, परंतु इन सबका वह संयोग आकस्मिक ही होता है, समझ-बूझकर नहीं (इसी प्रकार संसारके प्राणियोंके भी परस्पर संयोग-वियोग होते रहते हैं) ।।

मुने! जिससे कोई भी प्राणी कभी किसी तरह भी उद्विग्न नहीं होता, वह सदा सम्पूर्ण भूतोंसे अभय प्राप्त कर लेता है || २४ ।।

महामते! विद्वन! जैसे नदीके तीरपर आकर कोलाहल करनेवाले मनुष्यके डरसे सभी जलचर जन्‍्तु भयके मारे छिप जाते हैं तथा जिस प्रकार भेड़ियेको देखकर सभी थर्रा उठते हैं, उसी प्रकार जिससे सब लोग डरते हैं, उसे भी सम्पूर्ण प्राणियोंसे भय प्राप्त होता है || २५३६ ||

इस प्रकार यह अभयदानरूप आचार प्रकट हुआ है, जो सभी उपायोंसे साध्य है-जैसे बने वैसे इसका पालन करना चाहिये। जो इसे आचरणमें लाता है वह सहायवान्‌, द्रव्यवान, सौभाग्यशाली तथा श्रेष्ठ समझा जाता है || २६ ।।

अत: जो अभयदान देनेमें समर्थ होते हैं, उन्हींको विद्वान्‌ पुरुष शास्त्रोंमें श्रेष्ठ बताते हैं। उनमेंसे जो बहिर्मुख होकर अपने हृदयमें क्षणभंगुर विषय-सुखोंकी इच्छा रखते हैं, वे तो कीर्ति और मान-बड़ाईके लिये ही अभयदानरूप व्रतका पालन करते हैं; परंतु जो पटु या प्रवीण पुरुष हैं, वे पूर्णस्वरूप परब्रह्मकी प्राप्तिके लिये ही इस व्रतका आश्रय लेते हैं || २७ ।।

तप, यज्ञ, दान और ज्ञान-सम्बन्धी उपदेशके द्वारा मनुष्य यहाँ जो-जो फल प्राप्त करता है, वह सब उसे केवल अभय दानसे मिल जाता है ।। २८ ।।

जो जगतमें सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देता है, वह मानो समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान कर लेता है तथा उसे भी सब ओरसे अभय दान प्राप्त हो जाता है ।। २९ ।।

प्राणियोंकी हिंसा न करनेसे जिस धर्मकी सिद्धि होती है, उससे बढ़कर महान्‌ धर्म कोई नहीं है। महामुने! जिससे कभी कोई भी प्राणी किसी तरह उद्विग्न नहीं होता, वह भी सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय प्राप्त कर लेता है || ३० ।।

घरके भीतर रहनेवाले सर्पके समान जिस पुरुषसे सब लोग भयभीत रहते हैं, वह इहलोक और परलोकमें भी कभी धर्मके फलको नहीं पाता ।। ३१ ।।

जो समस्त प्राणियोंका आत्मा हो गया है और सम्पूर्ण भूतोंको अपनेसे अभिन्न देखता है, उसे किसी विशेष स्थानकी प्राप्ति नहीं होती। वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। उसके पदचिह्नकी खोज करनेवाले देवता भी उस ज्ञानी पुरुषके मार्गके विषयमें मोहित हो जाते हैं --उसकी गतिका पता नहीं पाते हैं ।। ३२ ।।

प्राणियोंको अभयदान देना सब दानोंसे उत्तम बताया गया है। जाजले! मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ, तुम इसपर विश्वास करो || ३३ ।।

जो स्वर्गादिकी कामना करके धर्मकार्य करते हैं, वे ही स्वर्गादि फलोंको पाकर सौभाग्यवान्‌ कहलाते हैं, फिर वे ही पुण्यक्षीण होनेके पश्चात्‌ जब स्वर्गसे नीचे गिरते हैं, तब दुर्भाग्यसे दूषित माने जाते हैं, इस प्रकार कर्मोका विनाश देखकर विज्ञ पुरुष सदा ही सकाम कर्मोंकी निन्दा करते हैं || ३४ ।।

जाजले! कोई भी धर्म निष्प्रयोजन या निष्फल नहीं है, उसका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, स्वर्ग या ब्रह्मकी प्राप्तिके लिये ही यहाँ धर्मकी व्याख्या की गयी है ।।

धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण वह सबकी समझमें नहीं आ सकता; क्योंकि उसके स्वरूपको छिपानेवाली बहुत-सी बातें हैं। बीच-बीचमें विभिन्न सत्पुरुषोंके आचारोंको देखकर मनुष्य वास्तविक धर्मका ज्ञान प्राप्त करता है || ३६ ।।

जो लोग बैलोंको बधिया करके बाँधते-नाथते, उनसे भारी बोझ ढुलाते और उनका दमन करके उन्हें कामपर निकालते हैं, जो कितने ही जीवोंको मारकर खा जाते हैं, मनुष्य होकर मनुष्योंको दास बनाकर और उनके परिश्रमका फल आप भोगते हैं, उनकी तुम निन्दा क्‍यों नहीं करते हो? ।। ३७-३८ ।।

जो लोग वध और बन्धनकी दशामें अपनेको कितना कष्ट होता है, इस बातको जानते हैं तो भी दूसरोंको वध, बन्धन और कैदके कष्टमें डालकर उनसे दिन-रात काम कराते हैं, उनकी निन्दा तुम क्यों नहीं करते हो? ।। ३९ ।।

पाँच इन्द्रियोंवाले समस्त प्राणियोंमें सूर्य, चन्द्र, वायु, ब्रह्मा, प्राण, यज्ञ और यमराज-इन सब देवताओंका निवास है, जो उन्हें जीते-जी बेचकर जीविका चलाते हैं, उन्हें अधर्मकी प्राप्ति होती है। फिर मृत जीवोंका विक्रय करनेवालोंके विषयमें तो कहा ही क्या जाय? ।।

बकरा अग्निका, भेड़ वरुणका, घोड़ा सूर्यका और पृथ्वी विराट्‌का रूप है तथा गाय और बछड़े चन्द्रमाके स्वरूप हैं, इनको बेचनेसे कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती || ४१३ ।।

किंतु ब्रह्म! तेल, घी, शहद और दवाओंकी बिक्री करनेमें क्या हानि है, बहुत-से मनुष्य तो दंश और मच्छरोंसे रहित देशमें उत्पन्न और सुखसे पले हुए पशुओंको यह जानते हुए भी कि ये अपनी माताओंको बहुत प्रिय हैं और इनके बिछुड़नेसे उन्हें बहुत कष्ट होगा, जबरदस्ती आक्रमण करके ऐसे देशोंमें ले जाते हैं जहाँ दंश, मच्छः और कीचड़की अधिकता होती है। कितने ही बोझ ढोनेवाले पशु भारी भारसे पीड़ित हो लोगोंद्वारा अनुचित रूपसे सताये जाते हैं | ४२--४४ ।।

मैं समझता हूँ कि उस क्रूर कर्मसे बढ़कर भ्रूणहत्याका पाप भी नहीं है। कुछ लोग खेतीको अच्छा मानते हैं, परंतु वह वृत्ति भी अत्यन्त कठोर है || ४५ ।।

जाजले! जिसके मुखपर फाल जुड़ा हुआ है, वह हल पृथ्वीको पीड़ा देता है और उसके भीतर रहनेवाले जीवोंका भी वध कर डालता है और उसमें जो बैल जोते जाते हैं, उनकी दुर्दशापर भी दृष्टिपात करो ।। ४६ ।।

श्रुतिमें गौओंको अध्न्या (अवध्य) कहा गया है, फिर कौन उन्हें मारनेका विचार करेगा? जो पुरुष गाय और बैलोंको मारता है, वह महान्‌ पाप करता है || ४७ ।।

एक समयकी बात है, ऋषियों और यतियोंने राजा नहुषके पास जाकर निवेदन किया कि तुमने माता गौ और प्रजापति वृषभका वध किया है, नहुष! यह तुम्हारे द्वारा न करनेयोग्य पापकर्म किया गया है, तुम्हारे इस कुकृत्यके कारण हम सब लोगोंको बड़ी व्यथा हो रही है। जाजले! ऐसा कहकर नहुषके द्वारा प्रशंसित उन महाभाग ऋषियोंने पापको एक सौ एक रोगोंके रूपमें परिणत करके समस्त प्राणियोंपर डाल दिया, राजा नहुषको भ्रूणहत्यारा बताया और स्पष्ट कह दिया कि हमलोग तुम्हारे यज्ञमें हविष्यकी आहुति नहीं देंगे ।।

ऐसा कहकर उन समस्त तत्त्वार्थदर्शी महात्माओंने तपस्या (ध्यान) द्वारा सारी बातें जान लीं और नहुषके अज्ञानवश वह पाप होनेके कारण उन्हें निर्दोष पाकर वे सब ऋषि और यति शान्त हो गये ।। ५१ ।।

जाजले! इस तरहके अमंगलकारी और भयंकर आचार इस जगतमें बहुत-से प्रचलित हैं; केवल इसलिये कि अमुक कर्म पूर्वजोंद्वारा भी किया गया है, तुम चतुर होते हुए भी उसकी बुराईपर ध्यान नहीं देते || ५२ ।।

इस कर्मका हेतु या परिणाम क्‍या है? इसपर विचार करके ही तुम्हें किसी भी धर्मको स्वीकार करना चाहिये। लोगोंने किया है या कर रहे हैं, यह जानकर उनका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये। जाजले! अब मैं अपने विषयमें कुछ निवेदन करता हूँ, उसे सुनो, जो मुझे मारता है तथा जो मेरी प्रशंसा करता है, वे दोनों ही मेरे लिये बराबर हैं। उनमेंसे कोई भी मेरे लिये प्रिय या अप्रिय नहीं है, मनीषी पुरुष ऐसे ही धर्मकी प्रशंसा करते हैं || ५३-५४ ।।

यही युक्तिसंगत है, यति भी इसीका सेवन करते हैं तथा धर्मात्मा मनुष्य अच्छी तरह विचारकर सदा इसी धर्मका अनुष्ठान करते हैं ।। ५५ ।।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार और जाजलिका संवादविषयक दो सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ श्लोक मिलाकर कुल ५५ ½ श्लोक हैं)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ तिरेसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तिरेसठवें अध्याय के श्लोक 1-45 का हिन्दी अनुवाद)

“जाजलिको तुलाधारका आत्मयज्ञविषयक धर्मका उपदेश”

जाजलिने कहा--वणिक्‌ महोदय! तुम हाथमें तराजू लेकर सौदा तौलते हुए जिस धर्मका उपदेश करते हो, उससे तो स्वर्गका दरवाजा ही बंद किये देते हो और प्राणियोंकी जीविकावृत्तिमें भी रुकावट पैदा करते हो ।। १ ।।

वैश्यपुत्र! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि खेतीसे ही अन्न पैदा होता है, जिससे तुम भी जी रहे हो। अन्न और पशुओंसे ही मनुष्यका जीवन-निर्वाह होता है || २ ।।

उन्हींसे यज्ञकार्य सम्पन्न होता है। तुम तो नास्तिकताकी भी बातें करते हो। यदि पशुओंके कष्टका ख्याल करके खेती आदि वृत्तियोंका त्याग कर दिया जाय, तो इस संसारका जीवन ही समाप्त हो जायगा ।। ३ ।॥।

तुलाधारने कहा--जाजले! मैं तुम्हें हिंसातिरिक्त जीविका-वृत्ति बताऊँगा। ब्राह्मणदेव! मैं नास्तिक नहीं हूँ और न यज्ञकी ही निन्दा करता हूँ; परंतु यज्ञके यथार्थ स्वरूपको समझनेवाला पुरुष अत्यन्त दुर्लभ है || ४ ।।

विप्र! ब्राह्मणोंके लिये जिस यज्ञका विधान है, उसको तो मैं नमस्कार करता हूँ और जो लोग उस यज्ञको ठीक-ठीक जानते हैं, उनके चरणोंमें भी मस्तक झुकाता हूँ, किंतु खेद है, इस समय ब्राह्मणलोग अपने यज्ञका परित्याग करके क्षत्रियोचित यज्ञोंके अनुष्ठानमें प्रवृत्त हो रहे हैं ।। ५ ।।

ब्रह्म! धन कमानेके प्रयत्नमें लगे हुए बहुत-से लोभी और नास्तिक पुरुषोंने वैदिक वचनोंका तात्पर्य न समझकर सत्य-से प्रतीत होनेवाले मिथ्या यज्ञोंका प्रचार कर दिया है ।। ६ |।

जाजले! श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहा गया है कि अमुक कर्मके लिये यह दक्षिणा देनी चाहिये, वह दक्षिणा देनी चाहिये, उसके अनुसार वैसी दक्षिणा देनेसे भी यह यज्ञ श्रेष्ठ माना जाता है; अन्यथा शक्ति रहते हुए यदि यज्ञकर्तने लोभ दिखाया तो उसको चोरी करनेका पाप लगता है और उस कर्ममें भी विपरीतता आ जाती है ।। ७ ।।

शुभ कर्मके द्वारा जिस हविष्यका संग्रह किया जाता है, उसीके होमसे देवता संतुष्ट होते हैं। शास्त्रके कथनानुसार नमस्कार, स्वाध्याय, घी और अन्न--इन सबके द्वारा देवताओंकी पूजा हो सकती है ।। ८६ ।।

जो लोग कामनाके वशीभूत होकर यज्ञ करते, तालाब खुदवाते या बगीचे लगवाते हैं, उन (सकाम-भावयुक्त) असाधु पुरुषोंसे उन्हींके समान गुणहीन संतान उत्पन्न होती &॥॥/%॥॥

लोभी पुरुषोंसे लोभीका जन्म होता है और समदर्शी पुरुषोंसे समदर्शी पुत्र उत्पन्न होता है। यजमान और ऋत्विज्‌ स्वयं जैसे होते हैं, उनकी प्रजा भी वैसी ही होती है ।। 

जिस प्रकार आकाशसे निर्मल जलकी वर्षा होती है उसी प्रकार शुद्ध भावसे किये हुए यज्ञसे योग्य प्रजाकी उत्पत्ति होती है। विप्रवर! अग्निमें डाली हुई आहुति सूर्यमण्डलको प्राप्त होती है, सूर्यसे जलकी वृष्टि होती है, वृष्टिसे अन्न उपजता है और अन्नसे सम्पूर्ण प्रजा जन्म तथा जीवन धारण करती है || ११३ ||

पहलेके लोग कर्तव्य समझकर यज्ञमें श्रद्धापूर्वक प्रवृत्त होते थे और उस यज्ञसे उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ स्वतः पूर्ण हो जाती थीं। पृथ्वीसे बिना जोते-बोये ही काफी अन्न पैदा होता तथा जगत्‌की भलाईके लिये उनके शुभ संकल्पसे ही वृक्षों और लताओंमें फल-फ़ूल लगते थे।। १२६ ||

वे यज्ञोंमे अपने लिये किसी फलकी ओर दृष्टि नहीं रखते थे। जो मनुष्य यज्ञसे कोई फल मिलता है या नहीं, इस प्रकारका संदेह मनमें लेकर किसी तरह यज्ञोंमें प्रवृत्त होते हैं, वे धन चाहनेवाले लोभी, धूर्त और दुष्ट होते हैं || १३-१४ ।।

द्विजश्रेष्ठ) जो मनुष्य प्रमाणभूत वेदको अपने अप्रामाणिक कुतर्कद्वारा अमंगलकारी सिद्ध करता है, उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, उसका मन सदा यहाँ पापोंमें ही लगा रहता है और वह अपने अशुभ कर्मके कारण पापाचारियोंके लोकों (नरकों) में ही जाता है ।। १५½||

जो करने योग्य कर्मोको अपना कर्तव्य समझता है और उसका पालन न होनेपर भय मानता है, जिसकी दृष्टिमें (ऋत्विक्‌, हविष्य, मन्त्र और अग्नि आदि) सब कुछ ब्रह्म ही है तथा जो किसी भी कर्तव्यको अपना नहीं मानता--कर्तापनका अभिमान नहीं रखता-वही सच्चा ब्राह्मण है ।। १६३ ।।

हमने सुना है कि यदि कर्ममें किसी प्रकारकी त्रुटि हो जानेके कारण वह गुणहीन हो जाय तो भी यदि वह निष्कामभावसे किया जा रहा है तो श्रेष्ठ ही है अर्थात्‌ वह कल्याणकारी ही होता है। निष्कामभावसे किये जानेवाले कर्ममें यदि कुत्ते आदि अपवित्र पशुओंके द्वारा स्पर्श हो जानेसे कोई बाधा भी आ जाय तथापि वह कर्म नष्ट नहीं होता, वह श्रेष्ठठटम ही माना जाता है, अतः प्रत्येक कर्ममें फलकी भावना या कामनापर संयम- नियन्त्रण रखना आवश्यक है || १७½ ।।

प्राचीन कालके ब्राह्मण सत्यभाषण और इन्द्रिय-संयमरूप यज्ञका अनुष्ठान करते थे। वे परम पुरुषार्थ (मोक्ष)के प्रति लोभ रखते थे, उन्हें लौकिक धनकी प्यास नहीं रहती थी, वे उस ओरसे सदा तृप्त रहते थे। वे सब लोग प्राप्त वस्तुका त्याग करनेवाले और ईर्ष्या-द्वेषसे रहित थे ।| १८३ ।।

वे क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के तत्त्वको जाननेवाले और आत्मयज्ञ-परायण थे। उपनिषदोंके अध्ययनमें तत्पर रहते तथा स्वयं संतुष्ट होकर दूसरोंको भी संतोष देते थे ।। १९३ |।

ब्रह्म सर्वस्वरूप है, सम्पूर्ण देवता उसीके रूप हैं, वह ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणके भीतर विराजमान है। इसलिये जाजले! इसके तृप्त होनेपर सम्पूर्ण देवता तृप्त एवं संतुष्ट हो जाते हैं || २०३ ||

जैसे सब प्रकारके रसोंसे तृप्त हुआ मनुष्य किसी भी रसका अभिनन्दन नहीं करता, उसी प्रकार जो ज्ञानानन्दसे परितृप्त है, उसे अक्षय सुख देनेवाली नित्य तृप्ति बनी रहती है ।। २१३ ||

हममेंसे बहुत लोग ऐसे हैं, जिनका धर्म ही आधार है, जो धर्ममें ही सुख मानते हैं तथा जिन्होंने सम्पूर्ण कर्तव्य-अकर्तव्यका निश्चय कर लिया है; परंतु हमलोगोंका जो यथार्थरूप है, उसकी अपेक्षा बहुत महान्‌ और व्यापक परमात्मा सर्वत्र सर्वात्मा रूपसे विराजमान है --ऐसा ज्ञानी पुरुष देखता है || २२३ ।।

भवसागरसे पार उतरनेकी इच्छावाले कोई-कोई ज्ञान-विज्ञानसम्पन्न महात्मा पुरुष ही अत्यन्त पवित्र और पुण्यात्माओंसे सेवित पुण्यदायक ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं, जहाँ जाकर वे न तो शोक करते हैं, न वहाँसे नीचे गिरते हैं और न मनमें किसी प्रकारकी व्यथाका ही अनुभव करते हैं | २३-२४ ।।

वे सात््विक महापुरुष उस ब्रह्मधामको ही प्राप्त होते हैं, उन्हें स्वर्गकी इच्छा नहीं होती, वे यश और धनके लिये यज्ञ नहीं करते, सत्पुरुषोंके मार्गपपर चलते और हिंसारहित यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। वनस्पति, अन्न और फल-मूलको ही वे हविष्य मानते हैं, धनकी इच्छा रखनेवाले लोभी ऋत्विज्‌ इनका यज्ञ नहीं कराते हैं | २५-२६६ ।।

ज्ञानी ब्राह्मणोंने अपनेको ही यज्ञका उपकरण मानकर मानसिक यज्ञका अनुष्ठान किया है। उन्होंने प्रजाहितकी कामनासे ही मानसिक यज्ञका अनुष्ठान किया है || २७३ 

लोभी ऋत्विज तो ऐसे लोगोंका ही यज्ञ कराते हैं, जो अशुभ (मोक्षकी इच्छासे रहित) होते हैं, श्रेष्ठ पुरुष तो स्वधर्मका आचरण करते हुए ही प्रजाको स्वर्गमें पहुँचा देते हैं। जाजले! यही सोचकर मेरी बुद्धि भी सर्वत्र समान भाव ही रखती है || २८-२९ ।।

महामुने! श्रेष्ठ विद्वान्‌ ब्राह्मण सदा ही जिन द्रव्योंको लेकर उनका यज्ञोंमें उपयोग करते हैं, उन्हींके द्वारा वे दिव्य मार्गसे पुण्य लोकोंमें जाते हैं || ३० ।।

जाजले! जो कामनाओंमें आसक्त है, उसी मनुष्यकी इस संसारमें पुनरावृत्ति होती है। ज्ञानीका पुनः यहाँ जन्म नहीं होता। यद्यपि दोनों दिव्यमार्गसे ही पुण्यलोकोंमें जाते हैं, तथापि संकल्प-भेदसे ही उनकी आवृत्ति और अनावृत्ति होती है ।। ३१ ।।

ज्ञानी महात्माओंकी इच्छा होते ही उनके मानसिक संकल्पकी सिद्धियोंके अनुसार बैल स्वयं गाड़ीमें जुतकर उनकी सवारी ढोने लगते हैं, दूध देनेवाली गौएँ स्वयं ही सब प्रकारके मनोरथोंकी सिद्धिरूप दुग्ध प्रदान करती हैं ।। ३२ ।।

योगसिद्ध पुरुषोंके पास स्वयं यज्ञयूप उपस्थित हो जाते हैं और उन्हें लेकर वे पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञोंद्वारा यजन करते हैं। उनके ऋत्विजोंके पास दक्षिणा भी स्वतः उपस्थित हो जाती है। जिसका अन्तःकरण इस प्रकार शुद्ध एवं सिद्ध हो गया है, वही पृथ्वीको उपलब्ध कर सकता है ।। ३३ ।।

ब्रह्मन! इसलिये वे योगसिद्ध पुरुष ओषधियों--अन्न आदिके द्वारा यज्ञ कर सकते हैं। जो पहले बताये अनुसार मूढ़ लोग हैं, वे उस तरहका यज्ञ नहीं कर सकते। कर्मफलका त्याग करनेवाले महात्माओंका ऐसा अद्भुत माहात्म्य है, इसलिये मैं त्यागकको आगे रखकर तुमसे ऐसी बात कह रहा हूँ ।। ३४ ।।

जिसके मनमें कोई कामना नहीं है, जो किसी फलकी इच्छासे कर्मोका आरम्भ नहीं करता, नमस्कार और स्तुतिसे अलग रहता है, जिसका धर्म नहीं क्षीण हुआ है, कर्म-बन्धन क्षीण हो गया है, उसी पुरुषको देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं ।। ३५ ।।

जाजले! जो ब्राह्मण वेदाध्ययन, यजन और ब्राह्मणोंको दान देना आदि वर्णोचित कर्म नहीं करता और मनोहर भोग-पदार्थोंकी लिप्सा रखता है, वह कुत्सित गतिको प्राप्त होता है। किंतु निष्काम धर्मको देवताके समान आराध्य बनानेवाला मनुष्य यज्ञके यथार्थ फल-मोक्षको प्राप्त कर लेता है || ३६।।

जाजलिने पूछा--वैश्यप्रवर! मैंने आत्मयाजी मुनियोंके समीप तुम्हारेद्वारा प्रतिपादित तत्त्वको कभी नहीं सुना। सम्भवत: यह समझनेमें कठिन भी है, क्योंकि पूर्वकालीन महर्षियोंने उसके ऊपर विशेष विचार नहीं किया है। जिन्होंने विचार किया है, उन्होंने भी उत्तम होनेपर भी इस धर्मकी जगत्‌में स्थापना नहीं की है; अतः मैं तुमसे ही पूछता हूँ ।। ३७ ।।

वणिकापुत्र! यदि इस प्रकार आत्मतीर्थमें पशु अर्थात्‌ अज्ञानी मानव आत्मयज्ञका सौभाग्य नहीं पा सकते तो किस कर्मसे उन्हें सुखकी प्राप्ति हो सकती है? महामते! यह बात मुझे बताओ। मैं तुम्हारे कथनपर अधिक श्रद्धा रखता हूँ || ३८ $ ।।

तुलाधारने कहा--्रह्मन! जिन दम्भी पुरुषोंके यज्ञ अश्रद्धा आदि दोषोंके कारण यज्ञ कहलानेयोग्य नहीं रह जाते, वे न तो मानसिक यज्ञके अधिकारी हैं और न क्रियात्मक यज्ञके ही। श्रद्धालु पुरुष तो घी, दूध, दही और विशेषतः पूर्णाहुतिसे ही अपना यज्ञ पूर्ण करते हैं। श्रद्धालुओंमें जो असमर्थ हैं, उनका यज्ञ गाय अपनी पूँछके बालोंके स्पर्शसे, शृंगजलसे और पैरोंकी धूलसे ही पूर्ण कर देती है ।। ३९-४० ।।

इसी विधिसे देवताके लिये घी आदि द्रव्य समर्पित करनेके लिये श्रद्धाको ही पत्नी बनाये और यज्ञको ही देवताके समान आराध्य बनाकर यथावत्‌ रूपसे यज्ञपुरुष भगवान्‌ विष्णुको प्राप्त करे | ४१ ।।

यज्ञविहित समस्त पशुओंके दुग्ध आदिसे निर्मित पुरोडाशको ही पवित्र बताया जाता है। सारी नदियाँ ही सरस्वतीका रूप हैं और समस्त पर्वत ही पुण्यमय प्रदेश हैं || ४२ ।।

जाजले! यह आत्मा ही प्रधान तीर्थ है। आप तीर्थसेवनके लिये देश-देशमें मत भटकिये। जो यहाँ मेरे बताये हुए अहिंसाप्रधान धर्मोका आचरण करता है तथा विशेष कारणोंसे धर्मका अनुसंधान करता है, वह कल्याणकारी लोकोंको प्राप्त होता है ।। ४३ ||

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार हिंसारहित, युक्तिसंगत तथा श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा सेवित धर्मोकी ही तुलाधार वैश्यने सदा प्रशंसा की थी || ४४-४५ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें तुलाधार और जाजलिका संवादविषयक दो सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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