सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ छप्पनवें अध्याय से दो सौ साठवें अध्याय तक (From the 256 chapter to the 260 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ छप्पनवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छप्पनवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठिरका मृत्युविषयक प्रश्न, नारदजीका राजा अकम्पनसे मृत्युकी उत्पत्तिका प्रसंग सुनाते हुए ब्रह्माजीकी रोषाग्निसे प्रजाके दग्ध होनेका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! ये जो असंख्य भूपाल (प्राणशून्य होकर) इस भूतलपर सेनाके बीचमें सो रहे हैं इनकी ओर दृष्टिपात कीजिये। ये महान्‌ बलवान्‌ थे तो भी संज्ञाहीन होकर पड़े हैं ।। १ ।।

इनमेंसे एक-एक नरेश भयानक बलसे सम्पन्न था। दस-दस हजार हाथियोंकी शक्ति रखता था। वे सब-के-सब इस युद्धसस्‍्थलमें अपने समान ही तेजस्वी और बलवान्‌ मनुष्योंद्वारा मारे गये हैं || २ ।।

इन प्राणशक्ति-सम्पन्न नरेशोंको कोई दूसरा वीर संग्रामभूमिमें मार सके--ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता था; क्‍योंकि वे सब-के-सब बल-पराक्रमसे सम्पन्न और तेजस्वी थे।।३।।

किंतु इस समय ये महाबुद्धिमान्‌ भूपाल निष्प्राण होकर पड़े हैं। इनके प्राण निकल जानेपर इनके लिये मृत शब्दका व्यवहार होता है; अर्थात्‌ “ये मर गये” ऐसा कहा जाता है ।। ४ ।।

ये जो नरेश मृत्युको प्राप्त हो गये हैं, इनमें बहुत-से भयानक पराक्रमसे सम्पन्न हैं। यहाँ मेरे मनमें यह संदेह होता है कि इन्हें मृत नाम कैसे दिया गया? किसकी मृत्यु होती है? किससे मृत्यु होती है? और किस कारणसे मृत्यु यहाँ समस्त प्राणियोंका अपहरण करती है? देवतुल्य पितामह! मुझे यह सब बतानेकी कृपा करें ।। ५-६ ।।

भीष्मजीने कहा--तात! प्राचीन सत्ययुगकी बात है, अकम्पन नामके एक राजा थे। एक समय संग्राममें उनका रथ नष्ट हो गया और वे शत्रुके वशमें पड़ गये ।। ७ ।।

उनके एक पुत्र था, जिसका नाम था हरि। वह बलमें भगवान्‌ नारायणके ही समान जान पड़ता था, परंतु उस समराज्णमें शत्रुओंने सेना और सेवकोंसहित उस राजकुमारको मार गिराया ।। ८ ।।

राजा अकम्पन स्वतन्त्र भूपाल न रहकर शत्रुके अधीन हो गये तथा पुत्रके शोकमें डूबे रहने लगे। वे शान्तिका उपाय ढूँढ़ रहे थे। इतनेहीमें दैवेच्छासे भूतलपर विचरते हुए देवर्षि नारदका उन्हें दर्शन हुआ ।। ९ ।।

राजाने युद्धस्थलमें शत्रुओंद्वारा अपने पकड़े जाने एवं पुत्रकी मृत्यु होनेका सारा समाचार यथावत्‌ रूपसे नारदजीके सामने कह सुनाया ।। १० ।।

राजाका वह कथन सुनकर तपस्याके धनी नारदजीने उस समय उनसे यह प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया, जो उनके पुत्रशोकको मिटानेवाला था ।। ११ ।।

नारदजी बोले--राजन्‌! आज यह अत्यन्त विस्तृत आख्यान सुनो। पृथ्वीनाथ! मैंने इसे जैसा सुना है, वह यथावत्‌ वृत्तान्त तुम्हें सुना रहा हूँ ।। १२ ।।

प्रजाकी सृष्टि करते समय महातेजस्वी पितामह ब्रह्माने जब बहुत-से प्राणियोंकी सृष्टि कर डाली, तब उनकी संख्या बहुत अधिक हो गयी। इतनी अधिक प्रजाओंका होना ब्रह्माजीसे सहन न हो सका ।। १३ ।।

अपने धर्मसे कभी च्युत न होनेवाले नरेश! उस समय कहीं कोई थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जो जीव-जन्तुओंसे भरा न हो। सारी त्रिलोकी अवरुद्ध हो गयी। लोगोंका कहीं साँस लेना भी असम्भव-सा हो गया--सबका दम घुटने लगा ।। १४ ।।

भूपाल! अब ब्रह्माजीके मनमें प्रजाके संहारकी--उनकी संख्या घटानेकी चिन्ता उत्पन्न हुई। वे बहुत देरतक सोचते-विचारते रहे, परंतु प्रजाके संहारका कोई युक्तियुक्त कारण ध्यानमें नहीं आया ।। १५ ।।

महाराज! उस समय रोषवश ब्रह्माजीके नेत्र आदि इन्द्रियगोलकोंसे अग्नि प्रकट हो गयी। राजन! उस अग्निसे पितामहने सम्पूर्ण दिशाओंको दग्ध करना आरम्भ किया ।। १६ ।।

राजन्‌! तब भगवान्‌ ब्रह्माके क्रोधसे प्रकट हुई वह आग स्वर्ग, पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा चराचर प्राणियोंसहित सम्पूर्ण जगत्‌को जलाने लगी ।। १७ ।।

प्रपितामह ब्रह्माके कुपित होनेपर उनके क्रोधके महान्‌ वेगसे सभी स्थावर-जड़म प्राणी दन्ध होने लगे ।

तब यज्ञ ही जिनकी जटाएँ हैं तथा जो वेदों और यज्ञोंके प्रतिपालक हैं, वे शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले कल्याणकारी भगवान्‌ शिव ब्रह्माजीकी शरणमें गये ।। १९ ।।

प्रजावर्गके हितकी इच्छासे महादेवजीके अपने सामने आनेपर तेजसे जलते हुए-से परमदेव ब्रह्माजी उनसे इस प्रकार बोले-- || २० ।।

शम्भो! मैं तुम्हें वर पानेके योग्य समझता हूँ, बोलो, आज तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारे हृदयमें जो भी प्रिय मनोरथ हो, उसे मैं पूर्ण करूँगा” ।। २१ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मृत्यु और प्रजापतिके संवादका उपक्रमविषयक दो सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सत्तावनवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“महादेवजीकी प्रार्थनासे ब्रह्माजीके द्वारा अपनी रोषाग्निका उपसंहार तथा मृत्युकी उत्पत्ति”

महादेवजीने कहा--प्रभो! पितामह! मेरा मनोरथ या प्रयोजन आपसे प्रजासर्गकी रक्षाके लिये प्रार्थना करना है। आप इस बातको जान लें। आपहीने इन प्रजाओंकी सृष्टि की है; अतः आप इनपर क्रोध न कीजिये ।। १ ।।

देव! जगदीश्वर! आज आपकी क्रोधाग्निसे सारी प्रजाएँ दग्ध हो रही हैं। उन्हें उस अवस्थामें देखकर मुझे दया आती है, आप उनपर क्रोध न करें ।। २ ।।

प्रजापति ब्रह्माजी बोले--शिव! मैं प्रजापर कुपित नहीं हूँ और न मेरी यही इच्छा है कि प्रजाओंका विनाश हो जाय। पृथ्वीका भार हल्का करनेके लिये ही प्रजाके संहारकी आवश्यकता प्रतीत हुई है ।। ३ ।।

महादेव! यह पृथ्वीदेवी भारी भारसे पीड़ित हो सदा मुझे प्रजाके संहारके लिये प्रेरित करती रही है; क्योंकि यह जगत्‌के भारसे समुद्रमें डुबी जा रही है ।।

जब बहुत विचार करनेपर भी मुझे इन बढ़ी हुई प्रजाओंके संहारका कोई उपाय न सूझा, तब मुझे क्रोध आ गया ।। ५ ।।

महादेवजीने कहा--देवेश्वर! संहारके लिये आप क्रोध न करें। प्रजापर प्रसन्न हों। कहीं ऐसा न हो कि समस्त चराचर प्राणियोंका विनाश हो जाय ।। ६ ||

ये सारे जलाशय, सब-के-सब घास और लता-बेलें तथा चार प्रकारके प्राणिसमुदाय (स्वेदज, अण्डज, उद्धिज्ज, जरायुज) भस्मीभूत हो रहे हैं। सारे जगत्‌का प्रलय उपस्थित हो गया है। भगवन्‌! प्रसन्न होइये। साधो! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ ।। ७-८ ।।

यदि इन प्रजाओंका नाश हो गया तो ये किसी तरह फिर यहाँ उपस्थित न हो सकेंगी। इसलिये आप अपने ही प्रभावसे इस क्रोधाग्निको निवृत्त कीजिये ।। ९ ।।

पितामह! आप सम्पूर्ण प्राणियोंके हितके लिये संहारका कोई दूसरा ही उपाय सोचिये, जिससे ये सारे जीव-जन्तु एक साथ ही दन्ध न हो जायाँ ।। १० ।।

लोकेश्चरेश्वरर आपने मुझे देवताओंके आधिपत्य-पदपर नियुक्त किया है, अतः मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, यदि प्रजाकी संततिका उच्छेद होगा तो समस्त प्रजाओंका सर्वथा अभाव ही हो जायगा; अत: आप इस विनाशको बंद कीजिये ।। ११ ।।

जगन्नाथ! महादेव! यह समस्त चराचर जगत्‌ आपसे ही उत्पन्न हुआ है; अतः मैं आपको प्रसन्न करके यह याचना करता हूँ कि ये सारी प्रजा पुनरावर्तनशील हो--मरकर पुनः जन्म धारण करे ।। १२ ।।

नारदजी कहते हैं--राजन्‌! महादेवजीकी वह बात सुनकर भगवान्‌ ब्रह्माने मन और वाणीका संयम किया तथा उस अग्निको पुनः अपनी अन्तरात्मामें ही लीन कर लिया।।

तब लोकपूजित भगवान्‌ ब्रह्माने उस अग्निका उपसंहार करके प्रजाके लिये जन्म और मृत्युकी व्यवस्था की ।। १४ ।।

उस क्रोधाग्निका उपसंहार करते समय महात्मा ब्रह्माजीकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे एक मूर्तिमती नारी प्रकट हुई ।। १५ ।।

उसके वस्त्र काले और लाल थे। आँखोंके निम्न और आशभ्यन्तर प्रदेश भी काले रंगके ही थे। वह दिव्य कुण्डलोंसे कान्तिमती तथा अलौकिक आभूषणोंसे विभूषित थी ।। १६ 

वह ब्रह्माजीके इन्द्रियछिद्रोंस निकलकर दक्षिण दिशाकी ओर चल दी। उस समय उन दोनों जगदीश्वरों (ब्रह्मा और शिव) ने उस कन्याको देखा ।। १७ |।

भूपाल! तब लोकोंके आदिकारण भगवान्‌ ब्रह्माने उसे 'मृत्यु/ कहकर पुकारा और निकट बुलाकर कहा--'तुम इन प्रजाओंका समय-समयपर विनाश करती रहो ।। १८ ।।

“मैंने प्रजाके संहारकी भावनासे रोषमें भरकर तुम्हारा चिन्तन किया था; इसलिये तुम मूढ़ और विद्वानोंसहित सम्पूर्ण प्रजाओंका संहार करो ।। १९ ।।

कामिनि! तुम मेरे आदेशसे सामान्यतः सारी प्रजाका संहार करो। इससे तुम्हें परम कल्याणकी प्राप्ति होगी" || २० ।।

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर कमलोंकी मालासे अलंकृत नवयौवना मृत्यु देवी नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई दुखी हो बड़ी चिन्तामें पड़ गयी ।। २१ ।।

तब जनेश्वर ब्रह्माजीने मानवोंके हितके लिये अपने दोनों हाथोंमें मृत्युके आँसू ले लिये। फिर मृत्युने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की || २२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वरें गृत्यु और प्रजापतिका संवादविषयक दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ अट्ठावनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अट्ठावनवें अध्याय के श्लोक 1-42 का हिन्दी अनुवाद)

“मृत्युकी घोर तपस्या और प्रजापतिकी आज्ञासे उसका प्राणियोंके संहारका कार्य स्वीकार करना”

नारदजी कहते हैं--राजन! तदनन्तर वह विशाल नेत्रोंवाली अबला स्वयं ही उस दुःखको दूर हटाकर झुकायी हुई लताके समान विनम्र हो हाथ जोड़कर ब्रह्माजीसे बोली -- || १ ||

“वक्ताओंमें श्रेष्ठ प्रजापते! (यदि मुझसे क्रूर कर्म ही कराना था तो) आपने मुझ-जैसी कोमलहृदया नारीको क्‍यों उत्पन्न किया? कया मुझ-जैसी स्त्री समस्त प्राणियोंके लिये भयंकर तथा क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाली हो सकती है? ।। २ ।।

'भगवन्‌! मैं अधर्मसे बहुत डरती हूँ। आप मुझे धर्मानुकूल कार्य करनेकी आज्ञा दें। मुझ भयभीत अबलापर दृष्टिपात करें और कल्याणमयी दृष्टिसे मेरी ओर देखें ।। ३ ।।

“समस्त प्राणियोंके अधीश्वर! मैं निरपराध बाल, वृद्ध और तरुण प्राणियोंके प्राण नहीं लूँगी। आपको नमस्कार है, आप मुझपर प्रसन्न हों ।। ४ ।।

“जब मैं लोगोंके प्यारे पुत्रों, मित्रों, भाइयों, माताओं तथा पिताओंको मारने लगूँगी, तब उनके सम्बन्धी उनके इस प्रकार मारे जानेके कारण मेरा अनिष्ट-चिन्तन करेंगे; अतः मैं उन लोगोंसे बहुत डरती हूँ ।। ५ ।।

“उन दीन-दुखियोंके नेत्रोंसे जो आँसू बहकर उनके कपोलों और वक्ष:स्थलको भिगो देगा, वह मुझे सदा अनन्त वर्षोतक जलाता रहेगा। मैं उनसे बहुत डरी हुई हूँ, इसलिये आपकी शरणमें आयी हूँ ।। ६ ।।

“वरदायक प्रभो! देव! सुना है कि पापाचारी प्राणी यमराजके लोकमें गिराये जाते हैं, अतः आपसे प्रसन्न होनेके लिये प्रार्थना करती हूँ, आप मुझपर कृपा कीजिये ।।

“लोकपितामह! महेश्वर! मैं आपसे अपनी एक अभिलाषाकी पूर्ति चाहती हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं आपकी प्रसन्नताके लिये कहीं जाकर तप करूँ” || ८ ।।

ब्रह्माजीने कहा--मृत्यो! प्रजाके संहारके लिये ही मैंने संकल्पपूर्वक तुम्हारी सृष्टि की है। जाओ, सारी प्रजाका संहार करो। इसके लिये मनमें कोई विचार न करो ।। ९ ।।

यह बात अवश्य ही इसी प्रकार होनेवाली है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। निर्दोष अंगोंवाली देवि! मैंने जो बात कही है, उसका पालन करो। इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा ।। १० ।।

महाबाहो! शत्रुनगरीपर विजय पानेवाले नरेश! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मृत्यु उन्हींकी ओर मुँह करके हाथ जोड़े खड़ी रह गयी--कुछ बोल न सकी ।। ११ ।।

उनके बारंबार कहनेपर वह मानिनी नारी निष्प्राण-सी होकर मौन रह गयी। “हाँ या 'ना' कुछ भी न बोल सकी। तदनन्तर देवताओंके भी देवता और ईश्वरोंके भी ईश्वर लोकनाथ ब्रह्माजी स्वयं ही अपने मनमें बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराते हुए समस्त लोकोंकी ओर देखने लगे ।।

उन अपराजित भगवान्‌ ब्रह्माका रोष निवृत्त हो जानेपर वह कन्या भी उनके निकटसे चली गयी, ऐसा हमने सुना है ।। १४ ।।

राजेन्द्र! उस समय प्रजाका संहार करनेके विषयमें कोई प्रतिज्ञा न करके मृत्यु वहाँसे हट गयी और बड़ी उतावलीके साथ धेनुकाश्रममें जा पहुँची ।। १५ ।।

वहाँ मृत्युदेवीने अत्यन्त दुष्कर और उत्तम तपस्या की। वह पंद्रह पद्म वर्षोतक एक पैरपर खड़ी रही ।।

इस प्रकार वहाँ अत्यन्त दुष्कर तपस्या करती हुई मृत्युसे महातेजस्वी ब्रह्माजीने पुनः जाकर इस प्रकार कहा-- ।।

“मृत्यो! तुम मेरी आज्ञाका पालन करो।” दूसरोंको मान देनेवाले तात! उनके इस कथनका आदर न करके मृत्युने तुरंत ही दूसरे बीस पद्म वर्षोतक पुनः एक पैरपर खड़ी हो तपस्या आरम्भ कर दी || १८६ ।।

तात! महामते! नरश्रेष्ठ] फिर वह दस हजार पद्म वर्षोतक मृगोंके साथ विचरती रही। इसके बाद बीस हजार वर्षोतक उसने केवल वायुका आहार किया ।। १९३ |।

राजन! तदनन्तर उसने उत्तम मौन-व्रत धारण कर लिया। पृथ्वीपते! फिर उसने जलमें आठ हजार वर्षोंतक रहकर तपस्या की | २०३ ।।

नृपश्रेष्ठ तदनन्तर वह कन्या कौशिकी नदीके तटपर गयी। वहाँ वायु और जलका आहार करके उसने पुनः कठोर नियमोंका पालन किया || २१६ ||

तत्पश्चात्‌ वह महाभागा ब्रह्मकन्या गंगाजीके किनारे और केवल मेरुपर्वतपर गयी। वहाँ प्रजावर्गके हितकी इच्छासे वह काठकी भाँति निश्चेष्ट खड़ी रही || २२६ ।।

राजेन्द्र! तदनन्तर हिमालय पर्वतके शिखरपर जहाँ पहले देवताओंने यज्ञ किया था, उस स्थानपर वह परम शुभलक्षणा कन्या एक निखर्व वर्षोतक अँगूठेके बलपर खड़ी रही। इस प्रकार यत्न करके उसने पितामह ब्रह्माजीको संतुष्ट कर लिया || २३-२४ ।।

तब सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलयके कारणभूत ब्रह्माजी वहाँ उस कन्यासे बोले --<बेटी! तुम यह क्या करती हो? मेरी आज्ञाका पालन करो” ।। २५ 

तब मृत्युने पुन: भगवान्‌ पितामहसे कहा--*'देव! मैं प्रजाका नाश नहीं कर सकती। इसके लिये पुन: आपका कृपाप्रसाद चाहती हूँ! || २६ ।।

अधर्मके भयसे डरकर पुनः कृपाकी भीख माँगती हुई मृत्युको रोककर देवाधिदेव ब्रह्माने उससे यह बात कही-- || २७ ।।

“मृत्यो! तुम इन प्रजाओंका संहार करो। शुभे! इससे तुम्हें पाप नहीं लगेगा। भद्रे! मेरी कही हुई कोई भी बात यहाँ झूठी नहीं हो सकती ।। २८ ।।

“सनातन धर्म यहीं तुम्हारे भीतर प्रवेश करेगा। मैं तथा ये सम्पूर्ण देवता सदा तुम्हारे हितमें लगे रहेंगे || २९ ।।

“मैं तुम्हें यह दूसरा भी मनोवाजञ्छित वर दे रहा हूँ कि रोगोंसे पीड़ित हुई प्रजा तुम्हारे प्रति दोष-दृष्टि नहीं करेगी। तुम पुरुषोंमें पुरुषरूपसे रहोगी, स्त्रियोंमें स्त्रीरूप धारण कर लोगी और नपुंसकोमें नपुंसक हो जाओगी” ।। ३०-३१ ।।

महाराज! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मृत्यु हाथ जोड़कर उन अविनाशी महात्मा देवेश्वर ब्रह्मासे पुन: इस प्रकार बोली--'प्रभो! मैं प्राणियोंका संहार नहीं करूँगी” ।। ३२ ।।

तब ब्रह्माजीने उससे कहा--'मृत्यो! तुम मनुष्योंका संहार करो, तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे! मैं तुम्हारे लिये शुभ चिन्तन करता रहूँगा ।। ३३ ।।

“मृत्यो! मैंने पहले तुम्हारे जिन अश्रुबिन्दुओंको गिरते देखा और जिन्हें अपने हाथोंमें धारण कर लिया था, वे ही समय आनेपर भयंकर रोग बनकर मनुष्योंको कालके गालनमें डाल देंगे ।। ३४ ।।

“सभी प्राणियोंके अन्तकालमें तुम काम और क्रोधको एक साथ नियुक्त कर देना। इस प्रकार तुम्हें अप्रमेय धर्मकी प्राप्ति होगी और तुम्हें पाप नहीं लगेगा; क्योंकि तुम्हारी चित्तवृत्ति सम (राग-द्वेषसे शून्य) है || ३५ ।।

“इस प्रकार तुम धर्मका पालन करोगी और अपने-आपको पापमें नहीं डुबाओगी; अतः अपनेको प्राप्त होनेवाले इस अधिकारको प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण करो और कामको इस कार्यमें लगाकर इस जगतके प्राणियोंका संहार करो” || ३६ ।।

तब वह मृत्यु नामवाली नारी शापसे डरकर ब्रह्माजीसे बोली--“बहुत अच्छा, आपकी आज्ञा स्वीकार है।” वही मृत्यु प्राणियोंका अन्तकाल आनेपर काम और क्रोधको प्रेरित करके उनके द्वारा उन्हें मोहमें डालकर मार डालती है ।। ३७ ।।

पहले मृत्युके जो अश्रुबिन्दु गिरे थे, वे ही ज्वर आदि रोग हो गये; जिनके द्वारा मनुष्योंका शरीर रुग्ण हो जाता है। वह मृत्यु सभी प्राणियोंकी आयु समाप्त होनेपर उनके पास आती है। अतः राजन! तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो। इस विषयको बुद्धिके द्वारा समझो ।। ३८ ।।

राजसिंह! जैसे इन्द्रियाँ जाग्रतू-अवस्थाके अन्तमें सुषुप्तिके समय निष्क्रिय होकर विलीन हो जाती हैं और जाग्रत्‌-अवस्था आनेपर पुन: लौट आती हैं, उसी प्रकार सारे प्राणी ही जीवनके अन्तमें परलोकमें जाकर कर्मोके अनुसार देवताओंके तुल्य अथवा नरकगामी होते हैं और कर्मोके क्षीण होनेपर इस जगत्‌में लौटकर पुनः मनुष्य आदि योनियोंमें जन्म ग्रहण करते हैं || ३९ ।।

भयंकर शब्द करनेवाला महान्‌ बलशाली भयानक प्राणवायु ही समस्त प्राणियोंका प्राणस्वरूप है। वही देहधारियोंके देहका नाश होनेपर नाना प्रकारके रूपों या शरीरोंको प्राप्त होता है। अत: इस शरीरके भीतर देवाधिदेव वायु (प्राण) ही सबसे श्रेष्ठ है ।। ४० 

सभी देवता पुण्य क्षय होनेपर इस लोकमें आकर मरणथधर्मा नामसे विभूषित होते हैं और सभी मरणथधर्मा मनुष्य पुण्यके प्रभावसे मृत्युके पश्चात्‌ देवसंज्ञासे संयुक्त होते हैं। अतः राजसिंह! तुम अपने पुत्रके लिये शोक न करो। तुम्हारा पुत्र स्वर्गलोकमें जाकर आनन्द भोग रहा है ।।

इस प्रकार ब्रह्माजीने ही प्राणियोंकी मृत्यु रची है। वह मृत्यु ठीक समय आनेपर यथावत्‌ रूपसे जीवोंका संहार करती है। उसके जो अभ्रुपात हैं, वे ही मृत्युकाल प्राप्त होनेपर रोग बनकर इस जगतके प्राणियोंका संहार करते हैं || ४२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें गृत्यु और प्रजापतिका संवादविषयक दो सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ उनसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उनसठवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“धर्माधर्मके स्वरूपका निर्णय”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! ये सभी मनुष्य प्राय: धर्मके विषयमें संशयशील हैं; अतः मैं जानना चाहता हूँ कि धर्म क्या है? और उसकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।

पितामह! इस लोकमें सुख पानेके लिये जो कर्म किया जाता है, वही धर्म है या परलोकमें कल्याणके लिये जो कुछ किया जाता है, उसे धर्म कहते हैं? अथवा लोकपरलोक दोनोंके सुधारके लिये कुछ किया जानेवाला कर्म ही धर्म कहलाता है? यह मुझे बताइये ।। २ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! वेद, स्मृति और सदाचार--ये तीन धर्मके स्वरूपको लक्षित करानेवाले हैं। कुछ विद्वान्‌ अर्थको भी धर्मका चौथा लक्षण बताते हैं ।। ३ ।।

शास्त्रोंमें जो धर्मानुकूल कार्य बताये गये हैं, उन्हें ही प्रधान एवं अप्रधान सभी लोग निश्चित रूपसे धर्म मानते हैं। लोकयात्राका निर्वाह करनेके लिये ही महर्षियोंने यहाँ धर्मकी मर्यादा स्थापित की है ।। ४ ।।

धर्मका पालन करनेसे आगे चलकर इस लोक और परलोकमें भी सुख मिलता है। पापी मनुष्य विचारपूर्वक धर्मका आश्रय न लेनेसे पापमें प्रवृत्त हो उसके दुःखरूप फलका भागी होता है || ५ ।।

पापाचारी मनुष्य आपत्तिकालमें कष्ट भोगकर भी उस पापसे मुक्त नहीं होते और धर्मका आचरण करनेवाले लोग आपत्तिकालमें भी पापका समर्थन नहीं करते हैं। आचार (शौचाचार-सदाचार) ही धर्मका आधार है; अतः युधिष्ठिर! तुम उस आचारका आश्रय लेकर ही धर्मके यथार्थ स्वरूपको जान सकोगे ।। ६ ।।

जैसे चोर धर्मकार्यमें प्रवृत्त होकर भी दूसरोंके धनका अपहरण कर ही लेता है और अराजक-अवस्थामें पराये धनका अपहरण करनेवाला लुटेरा सुखका अनुभव करता है ।। ७ ।।

परंतु जब दूसरे लोग उस चोरका भी धन हर लेते हैं, तब वह चोर भी प्रजाकी रक्षा करने और चोरोंको दण्ड देनेवाले राजाको चाहता है--उसकी आवश्यकताका अनुभव करता है। उस अवस्थामें वह उन पुरुषोंके समान बननेकी इच्छा करता है, जो अपने ही धनसे संतुष्ट रहते हैं--दूसरोंके धनपर हाथ लगाना पाप समझते हैं ।। ८ ।।

जो पवित्र है--जिसमें चोरी आदिके दोष नहीं हैं, वह मनुष्य निर्भय और नि:शंक होकर राजाके द्वारपर चला जाता है; क्योंकि वह अपनी अन्तरात्मामें कोई दुराचार नहीं देखता है।। ९।।

सत्य बोलना शुभ कर्म है। सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई कार्य नहीं है। सत्यने ही सबको धारण कर रखा है और सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है ।। १० ।।

क्रूर स्‍्वभाववाले पापी भी पृथक्‌-पृथक्‌ सत्यकी शपथ खाकर ही आपसमें द्रोह या विवादसे बचे रहते हैं। इतना ही नहीं, वे सत्यका आश्रय लेकर सत्यकी ही दुहाई देकर अपने-अपने कर्मोमें प्रवृत्त होते हैं || ११ ।।

वे यदि आपसकी शपथको भंग कर दें तो निस्संदेह परस्पर लड़-भिड़कर नष्ट हो जायाँ। दूसरोंके धनका अपहरण नहीं करना चाहिये--यही सनातन धर्म है ।।

कुछ बलवान्‌ लोग (बलके घमंडमें नास्तिकभावका आश्रय लेकर) धर्मको दुर्बलोंका चलाया हुआ मानते हैं; किंतु जब भाग्यवश वे भी दुर्बल हो जाते हैं, तब अपनी रक्षाके लिये उन्हें भी धर्मका ही सहारा लेना अच्छा जान पड़ता है ॥। १३ ।।

संसारमें कोई भी न तो अत्यन्त बलवान होते हैं और न बहुत सुखी ही। इसलिये तुम्हें अपनी बुद्धिमें कभी कुटिलताका विचार नहीं लाना चाहिये ।। १४ ।।

जो किसीका कुछ बिगाड़ता नहीं है, उसे दुष्टों, चोरों अथवा राजासे भय नहीं होता। शुद्ध आचार-विचारवाला पुरुष सदा निर्भय रहता है ।। १५ ।।

गाँवोंमें आये हुए हिरणकी भाँति चोर सबसे डरता रहता है। वह अनेकों बार दूसरोंके साथ जैसा पापाचार कर चुका है, दूसरोंको भी वैसा ही पापाचारी समझता है || १६ ।।

जिसका आचार-विचार शुद्ध है, उसे कहींसे कोई खटका नहीं होता। वह सदा प्रसन्न एवं सब ओरसे निर्भय बना रहता है तथा वह अपना कोई दुष्कर्म दूसरोंमें नहीं देखता है ।। १७ ।।

समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले महात्माओंने “दान करना चाहिये" ऐसा कहकर इसे धर्म बताया है; परंतु बहुत-से धनवान्‌ उसे दरिद्रोंका चलाया हुआ धर्म समझते हैं ।। १८ ।।

परंतु यदि भाग्यवश वे भी निर्धन या दर-दरके भिखारी हो जाते हैं, उस समय उनको भी यह धर्म उत्तम जान पड़ता है; क्योंकि कोई भी न तो अत्यन्त धनवान्‌ होते हैं और न अतिशय सुखी ही हुआ करते हैं (अत: धनका अभिमान नहीं करना चाहिये) ।। १९।।

मनुष्य दूसरोंद्वारा किये हुए जिस व्यवहारको अपने लिये वांछनीय नहीं मानता, दूसरोंके प्रति भी वह वैसा बर्ताव न करे। उसे यह जानना चाहिये कि जो बर्ताव अपने लिये अप्रिय है, वह दूसरोंके लिये भी प्रिय नहीं हो सकता ।। २० ।।

जो स्वयं दूसरेके घरमें उपपति (जार) बनकर जाता है--परायी स्त्रीके साथ व्यभिचार करता है, वह दूसरेको वैसा ही कर्म करते देख किससे क्या कह सकता है? यदि दूसरेकी उसी प्रवृत्तिके कारण वह निन्दा करे तो वह पुरुष उसकी निन्दाको नहीं सह सकता--ऐसा मेरा विश्वास है ।। २१ ।।

जो स्वयं जीवित रहना चाहता हो, वह दूसरोंके प्राण कैसे ले सकता है? मनुष्य अपने लिये जो-जो सुख-सुविधा चाहे, वही दूसरेके लिये भी सुलभ करानेकी बात सोचे ।। २२ ।।

जो अपनी आवश्यकतासे अधिक हो, उन भोगपदार्थोंको दूसरे दीन-दुखियोंके लिये बाँट दे। इसीलिये विधाताने सूदपर धन देनेकी वृत्ति चलायी है ।।

जिस सन्मार्ग या मर्यादापर देवता स्थित होते हैं, उसीपर मनुष्यको भी स्थिर रहना चाहिये अथवा धन-लाभके समय धर्ममें स्थित रहना भी अच्छा है || २४ ।।

युधिष्ठिर! सबके साथ प्रेमपूर्ण बर्ताव करनेसे जो कुछ प्राप्त होता है, वह सब धर्म है, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है तथा जो इसके विपरीत है, वह अधर्म है। तुम धर्म और अधर्मका संक्षेपसे यही लक्षण समझो || २५ ।।

विधाताने पूर्वकालमें सत्पुरुषोंके जिस उत्तम आचरणका विधान किया है, वह विश्वके कल्याणकी भावनासे युक्त है और उससे धर्म एवं अर्थके सूक्ष्म स्वरूपका ज्ञान होता हैं।।

कुरुश्रेष्ठ! यह मैंने तुमसे धर्मका लक्षण बताया है; अतः तुम्हें किसी तरह कुटिल मार्ममें अपनी बुद्धिको नहीं ले जाना चाहिये || २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें धर्मका लक्षणविषयक दो सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ साठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ साठवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“युधिष्ठटिरका धर्मकी प्रामाणिकतापर संदेह उपस्थित करना”

युधिष्ठटिरने कहा--पितामह! आपने धर्मका सूक्ष्म एवं सुन्दर लक्षण बताया है; परंतु मुझे कुछ और ही स्फुरित हो रहा है। अतः मैं उसके सम्बन्धमें अनुमानसे ही कुछ कहूँगा ।। १ |।

मेरे हृदयमें जो बहुत-से प्रश्न उठे थे, उन सबका निराकरण आपने कर दिया। महाराज! अब मैं यह दूसरा प्रश्न उपस्थित कर रहा हूँ। इसमें जिज्ञासा ही कारण है, दुराग्रह नहीं ।। २ ।।

भरतनन्दन! धर्म ही इन प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं। धर्म ही उनके जीवनधारण और उद्धारमें कारण होते हैं; परंतु धर्मको केवल वेदोंके पाठमात्रसे नहीं जाना जा सकता ।। ३ ।।

जो मनुष्य अच्छी स्थितिमें है, उसका धर्म दूसरा है और जो संकटमें पड़ा हुआ है, उसका धर्म दूसरा ही है। केवल वेदोंके पाठसे आपद्धर्मका ज्ञान कैसे हो सकता है? ।। ४

आपके कथनानुसार सत्पुरुषोंका आचरण धर्म माना गया है और जिनमें धर्माचरण लक्षित होता है, वे ही सत्पुरुष हैं। ऐसी दशामें अन्योन्याश्रय दोष पड़नेके कारण साध्य और असाध्यका विवेक कैसे हो सकता है? ऐसी दशामें सदाचार धर्मका लक्षण नहीं हो सकता |।

इस लोकमें देखा जाता है कि कितने ही प्राकृत मनुष्य धर्म-से दिखायी देनेवाले अधर्मका आचरण करते हैं और कितने ही अप्राकृत (शिष्ट) पुरुष अधर्म प्रतीत होनेवाले धर्मका अनुष्ठान करते हैं (अतः केवल आचारसे धर्माधर्मका निर्णय नहीं हो सकता) ।। ६।।

शास्त्रज्ञ पुरुषोंने धर्ममें वेदको ही प्रमाण बताया है; किंतु हमने सुना है कि युग-युगमें वेदोंका हास होता है अर्थात्‌ धर्मके सम्बन्धमें जो वेदोंका निश्चय है, वह प्रत्येक युगमें बदलता रहता है ।। ७ ।।

सत्ययुगके धर्म कुछ और हैं, त्रेता और द्वापरके धर्म कुछ और ही हैं और कलियुगके धर्म कुछ और ही बताये गये हैं। मानो मुनियोंने लोगोंकी शक्तिके अनुसार ही धर्मकी व्यवस्था की है ।। ८ ।।

वेदोंका वचन सत्य है, यह कथन लोकरंजनमात्र है। वेदोंसे ही सर्वतोमुखी स्मृतियोंका प्रचार और प्रसार हुआ है ।। ९ ।।

यदि सम्पूर्ण वेद प्रामाणिक हैं तो स्मृतियाँ भी प्रामाणिक हो सकती हैं; परंतु जब (युगयुगमें धर्मके विषयमें विभिन्न प्रकारकी बात कहनेसे) प्रमाणभूत वेद भी अप्रामाणिक हो तो वेदमूलक स्मृतियाँ भी प्रामाणिक नहीं रहेंगी। यदि स्मृतिका श्रुतिके साथ विरोध हो तो उसमें शास्त्रत्व कैसे रह सकता है? ।। १० ।।

जब धर्मका अनुष्ठान हो रहा हो, उस समय बलवान दुरात्माओंद्वारा उसमें जो-जो विकृति उत्पन्न की जाती है, उसके कारण उस धर्ममर्यादाका ही लोप हो जाता है || ११।।

हम धर्मको जानते हों या न जानते हों, धर्मस्वरूप जाना जा सकता हो या नहीं; इतना तो हम समझते ही हैं कि धर्म छूरेकी धारसे भी सूक्ष्म और पर्वतसे भी अधिक विशाल एवं भारी है || १२ ।।

धर्मके विषयमें जब आलोचना की जाती है, तब पहले तो वह गन्धर्वनगरके समान दिखायी देता है; फिर विद्दानोंद्वारा विशेष रूपसे विचार करनेपर यह प्रतीत होता है कि वह अदृश्य हो गया ।। १३ ।।

भरतनन्दन! जैसे बहुत-सी गौओंको पानी पिलानेसे निपान (क्षुद्र जलाशय) सूख जाते हैं तथा जैसे अधिक खेतोंकी सिंचाई करनेसे नहरोंका पानी निपट जाता है, उसी प्रकार सनातन वैदिक धर्म अथवा स्मृति-शास्त्र धीरे-धीरे क्षीण होकर कलियुगके अन्तिम भागमें दिखायी ही नहीं देता है ।। १४ ।।

क्योंकि उस समय कुछ लोग स्वार्थवश, दूसरे लोग दूसरोंकी इच्छासे तथा अन्य मनुष्य अन्यान्य कारणोंसे धर्माचरण करते हैं और बहुत-से असाधु पुरुष भी व्यर्थ धर्मांचरणका ढोंग फैला लेते हैं ।। १५ ।।

उन दिनों लोगोंद्वारा प्रायः सकामभावसे ही धर्मका आचरण होता देखा जाता है। श्रेष्ठ पुरुषोंमें जो यथार्थ धर्म होता है, वह शीघ्र ही मूढ़ मनुष्योंकी दृष्टिमें प्रलापमात्र सिद्ध होता है। वे मूढ उन धर्मात्मा पुरुषोंको पागल कहते और उनकी हँसी उड़ाते हैं || १६ ।।

आचार्य द्रोण-जैसे महापुरुष भी स्वधर्मसे हटकर क्षत्रियधर्मका आश्रय लेते हैं; अतः कोई भी आचार ऐसा नहीं है, जो सबके लिये समानरूपसे हितकर या सबके द्वारा समानरूपसे पालित हो ।। १७ ।।

यह भी देखा जाता है कि उसी धर्मके आचरणसे विश्वामित्र आदि अन्य महापुरुषोंने उन्नति प्राप्त की है तथा रावणादि निशाचर उसी धर्मके बलसे दूसरोंको पीड़ा देते हैं एवं कश्यप आदि अनेक महर्षि ईश्वरकी इच्छासे उसी धर्मके द्वारा सदा एक-सी स्थितिमें दिखायी देते हैं ।। १८ ।।

जिस धर्मको अपनाकर एक व्यक्ति उन्नति करता है, उसीसे दूसरा दूसरोंको पीड़ा देता है; अत: सबके लिये आचारोंकी एकरूपता कोई नहीं दिखा सकता ।। १९ ||

आपने पहले उसी धर्मका वर्णन किया है, जिसे विद्वानलोग चिरकालसे धारण करते चले आ रहे हैं। मैं भी यही समझता हूँ कि उस पूर्वप्रचलित धर्मके आचरणद्वारा ही समाजकी मर्यादा दीर्घकालतक टिकी रहती है ।। २० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें धर्मकी प्रामाणिकतापर आक्षेपविषयक दो सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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