सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ इक्यावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इक्यावनवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणके लक्षण और परब्रह्माकी प्राप्तिका उपाय”
व्यासजी कहते हैं--बेटा! साधकको चाहिये कि गन्ध और रस आदि विषयोंका उपभोग न करे, विषयसेवनजनित सुखकी ओर न जाय, स्वर्ण आदिके बने हुए सुन्दरसुन्दर आभूषणोंको भी न धारण करे तथा मान, बड़ाई और यशकी इच्छा न करे, यही ज्ञानवान् ब्राह्मणका आचार है ।। १ ||
जो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर ले, गुरुकी सेवामें रहे, ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करे तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेदका पूरा-पूरा ज्ञान प्राप्त कर ले, वही मुख्य ब्राह्मण है ।। २ ।।
जो समस्त प्राणियोंको अपने कुटुम्बकी भाँति समझकर उनपर दया करता है। जाननेयोग्य तत्त्वका ज्ञाता तथा सब वेदोंका तत्त्वज्ञ है और कामनासे रहित है। वह कभी मृत्युको प्राप्त नहीं होता अर्थात् जन्म-मृत्युके बन्धनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। इन लक्षणोंसे सम्पन्न पुरुष ब्राह्मण नहीं है ऐसी बात नहीं, किंतु वही सच्चा ब्राह्मण है ।। ३ ।।
नाना प्रकारकी इष्टियों और बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंका अनुष्ठान करनेमात्रसे बिना विधानके अर्थात् बिना आत्मज्ञानके किसीको किसी तरह भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त हो सकता ।। ४ ।।
जिस समय वह दूसरे प्राणियोंसे नहीं डरता और दूसरे प्राणी भी उससे भयभीत नहीं होते तथा जब वह इच्छा और द्वेषका सर्वथा परित्याग कर देता है, उसी समय उसे ब्रह्मभावकी प्राप्ति होती है ।। ५ ।।
जब वह मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणीकी बुराई करनेका विचार अपने मनमें नहीं करता, तब वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है || ६ ||
जगत्में कामना ही एकमात्र बन्धन है, यहाँ दूसरा कोई बन्धन नहीं है। जो कामनाके बन्धनसे छूट जाता है, वह ब्रह्मभाव प्राप्त करनेमें समर्थ हो जाता है || ७ ।।
कामनासे मुक्त हुआ रजोगुणरहित धीर पुरुष धूमिल रंगके बादलसे निकले हुए चन्द्रमाकी भाँति निर्मल होकर धैर्यपूर्वक कालकी प्रतीक्षा करता रहता है ।। ८ ।।
जैसे नदियोंके जल सब ओरसे परिपूर्ण और अविचल प्रतिष्ठावाले समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, उसी प्रकार सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही प्रविष्ट हो जाते हैं, वही पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहनेवाला नहीं ।। ९ |।
भोग ही उस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी कामना करते हैं, परंतु वह भोगोंकी कामना नहीं रखता। जो कामभोग चाहनेवाला देहाभिमानी है, वह कामनाओंके फल-स्वरूप स्वर्गलोकमें चला जाता है || १० ।।
वेदका सार है सत्य वचन, सत्यका सार है इन्द्रियोंका संयम, संयमका सार है दान और दानका सार है तपस्या ।। ११ ।।
तपस्याका सार है त्याग, त्यागका सार है सुख, सुखका सार है स्वर्ग और स्वर्गका सार है शान्ति || १२ ।।
मनुष्यको संतोषपूर्वक रहकर शान्तिके उत्तम उपाय सत्त्गगुणको अपनानेकी इच्छा करनी चाहिये। सत्त्वमुण मनकी तृष्णा, शोक और संकल्पको उसी प्रकार जलाकर नष्ट करनेवाला है, जैसे गरम जल चावलको गला देता है ।। १३ ।।
शोकशून्य, ममतारहित, शान्त, प्रसन्नचित्त, मात्सर्यहीन और संतोषी--इन छः लक्षणोंसे युक्त मनुष्य पूर्णतः ज्ञानसे तृप्त हो मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। १४ ।।
जो देहाभिमानसे मुक्त होकर सत्त्वप्रधान सत्य, दम, दान, तप, त्याग और शम--इन छः गुणों तथा श्रवण, मनन, निदिध्यासनरूप त्रिविध साथनोंसे प्राप्त होनेवाले आत्माको इस शरीरके रहते हुए ही जान लेते हैं, वे परम शान्तिरूप गुणको प्राप्त होते हैं || १५
जो उत्पत्ति और विनाशसे रहित, स्वभावसिद्ध, संस्कारशून्य तथा शरीरके भीतर स्थित सुकृत नामसे प्रसिद्ध ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है ।। १६ ।।
अपने मनको इधर-उधर जानेसे रोककर आत्मामें सम्पूर्णरूपसे स्थापित कर लेनेपर पुरुषको जिस संतोष और सुखकी प्राप्ति होती है, उसका दूसरे किसी उपायसे प्राप्त होना असम्भव है ।। १७ |।
जिससे बिना भोजनके भी मनुष्य तृप्त हो जाता है, जिसके होनेसे निर्धनको भी पूर्ण संतोष रहता है तथा जिसका आश्रय मिलनेसे घृत आदि स्निग्ध पदार्थका सेवन किये बिना भी मनुष्य अपनेमें अनन्त बलका अनुभव करता है, उस ब्रह्मको जो जानता है, वही वेदोंका तत्त्वज्ञ है ।। १८ ।।
जो अपनी इन्द्रियोंके सुरक्षित द्वारोंको सब ओरसे बंद करके नित्य ब्रह्मका चिन्तन करता रहता है, वही श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माराम कहलाता है ।। १९ ||
जो अपनी कामनाओंको नष्ट करके परम तत्त्वरूप परमात्मामें एकाग्रचित्त होकर स्थित है, उसका सुख शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति सब ओरसे बढ़ता रहता है || २० ।।
जो सामान्यतः सम्पूर्ण भूतों और भौतिक गुणोंका त्याग कर देता है, उस मुनिका दुःख उसी प्रकार सुखपूर्वक अनायास नष्ट हो जाता है, जैसे सूर्योदयसे अन्धकार ।।
गुणोंके ऐश्वर्य तथा कर्मोंका परित्याग करके विषयवासनासे रहित हुए उस ब्रह्मवेत्ता पुरुषको जरा और मृत्यु नहीं प्राप्त होती हैं || २२ ।।
जब मनुष्य समस्त बन्धनोंसे पूर्णतया मुक्त होकर समतामें स्थित हो जाता है, उस समय इस शरीरके भीतर रहकर भी वह इन्द्रियों और उनके विषयोंकी पहुँचके बाहर हो जाता है || २३ ।।
इस प्रकार जो परम कारणस्वरूप ब्रह्मको पाकर कार्यमयी प्रकृतिकी सीमाको लाँघ जाता है, वह ज्ञानी परमपदको प्राप्त हो जाता है। उसे पुनः: इस संसारमें नहीं लौटना पड़ता है ।। २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ बावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बावनवें अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
“शरीरमें पञ्चभूतोंके कार्य और गुणोंकी पहचान”
व्यासजी कहते हैं--बेटा! जो अर्थ और धर्मका अनुष्ठान करके सुख-दुःख आदि द्न्द्दोंकी धैर्यपूर्वक सहता हो और मोक्षकी जिज्ञासा रखता हो, उस श्रद्धालु शिष्यको गुणवान् वक्ता पहले इस महत्त्वपूर्ण अध्यात्म-शास्त्रका श्रवण कराये ।। १ ।।
आकाश, वायु जल, तेज और पाँचवाँ पृथ्वी तथा भाव पदार्थ अर्थात् गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय एवं अभाव और काल (दिक्, आत्मा और मन)--ये सब-केसब समस्त पांचभौतिक शरीरधारी प्राणियोंमें स्थित हैं |। २ ।।
आकाश अवकाशस्वरूप है और श्रवणेन्द्रिय आकाशमय है। शरीर-शास्त्रके विधानको जाननेवाला मनुष्य शब्दको आकाशका गुण जाने ।। ३ ।।
चलना-फिरना वायुका धर्म है। प्राण और अपान भी वायुस्वरूप ही हैं (समान, उदान और व्यानको भी वायुरूप ही मानना चाहिये)। स्पर्शन्द्रिय (त्वचा) तथा स्पर्श नामक गुणको भी वायुमय ही समझना चाहिये ।। ४ ।।
ताप, पाक, प्रकाश और नेत्रेन्द्रिय--ये सब तेज या अग्नितत्त्वके कार्य हैं। श्याम, गौर और ताम्र आदि वर्णवाले रूपको उसका गुण समझना चाहिये ।। ५ ।।
क्लेदन (किसी वस्तुको सड़ा-गला देना), क्षुद्रता (सूक्ष्मता) तथा स्निग्धता--ये जलके धर्म बताये जाते हैं। रक्त, मज्जा तथा अन्य जो कुछ स्निग्ध पदार्थ हैं, उन सबको जलमय समझे ।। ६ ||
रसनेन्द्रिय, जिह्ला और रस--ये सब जलके गुण माने गये हैं। शरीरमें जो संघात या कड़ापन है, वह पृथ्वीका कार्य है, अतः हड्डी, दाँत और नख आदिको पृथ्वीका अंश समझना चाहिये ।। ७ ।।
इसी प्रकार दाढ़ी-मूँछ, शरीरके रोएँ, केश, नाड़ी, स्नायु और चर्म--इन सबकी उत्पत्ति भी पृथ्वीसे ही हुई है। नासिका नामसे प्रसिद्ध जो प्राणेन्द्रिय है, वह भी पृथ्वीका ही अंश है। इस गन्धनामक विषयको भी पार्थिव गुण ही जानना चाहिये ।। ८ ६ ।।
उत्तरोत्तर सभी भूतोंमें पूर्ववर्ती भूतोंके गुण विद्यमान हैं, (जैसे आकाशमें शब्दमात्र गुण है; वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण; तेजमें शब्द, स्पर्श और रूप--तीन गुण; जलमें शब्द, स्पर्श, रूप और रस--चार गुण तथा पृथ्वीमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--पाँच गुण हैं) ।। ९ ।।
मुनिलोग भावना, अज्ञान और कर्म--इन तीनोंको पाँच महाभूतोंके समुदायकी संतति मानते हैं। इन्हीं तीनोंको अविद्या, काम और कर्म भी कहते हैं। ये सब मिलकर आठ हुए। इनके साथ मनको नवाँ और बुद्धिको दसवाँ तत्त्व माना गया है ।। १० ।।
अविनाशी आत्मा ग्यारहवाँ तत्त्व है। उसीको सर्वस्वरूप और श्रेष्ठ बताया जाता है। बुद्धि निश्चयात्मिका होती है और मनका स्वरूप संशय बताया गया है। कर्मोका ज्ञाता और कर्ता कोई भी जड़तत्त्व नहीं हो सकता, इस अनुमान-ज्ञानसे उस क्षेत्रज्ञ नामक जीवात्माको समझना चाहिये ।। ११ ।।
जो मनुष्य सारे जगत्को इन समस्त कालात्मक भावोंसे सम्पन्न देखता और निष्पाप कर्म करता है, वह कभी मोहमें नहीं पड़ता है ।। १२ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ तिरपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तिरपनवें अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे भिन्न जीवात्माका और परमात्माका योगके द्वारा साक्षात्कार करनेका प्रकार”
व्यासजी कहते हैं--पुत्र! योगशास्त्रके ज्ञाता शास्त्रोक्त कर्मोके द्वारा स्थूल शरीरसे निकले हुए सूक्ष्म स्वरूप जीवात्माको देखते हैं ।। १ ।।
जैसे सूर्यकी किरणें परस्पर मिली हुई ही सर्वत्र विचरती हैं एवं स्थित हुई दृष्टिगोचर होती हैं, उसी प्रकार अलौकिक जीवात्मा स्थूल शरीरसे निकलकर सम्पूर्ण लोकोंमें जाते हैं। (यह ज्ञानदृष्टिसे ही जाननेमें आ सकता है) ।। २ ।।
जैसे विभिन्न जलाशयोंके जलमें सूर्यकी किरणोंका पृथक्-पृथक् दर्शन होता है, उसी प्रकार योगी पुरुष सभी सजीव शरीरोंके भीतर सूक्ष्मरूपसे स्थित पृथक्-पृथक् जीवोंको देखता है || ३ ।।
शरीरके तत्त्वको जाननेवाले जितेन्द्रिय योगीजन उन स्थूलशरीरोंसे निकले हुए सूक्ष्म लिंगशरीरोंसे युक्त जीवोंको अपने आत्माके द्वारा देखते हैं || ४ ।।
जो अपने मनमें चिन्तित कर्मजनित रजोगुणका अर्थात् रजोगुणजनित काम आदिका योगबलसे परित्याग कर देते हैं तथा जो प्रकृतिके तादात्म्यभावसे भी मुक्त हैं, उन सभी योगपरायण योगी पुरुषोंका जीवात्मा जैसे दिनमें वैसे रातमें, जैसे रातमें वैसे दिनमें सोतेजागते समय निरन्तर उनके वशमें रहता है || ५-६ ।।
उन योगियोंका नित्य-स्वरूप जीव सदा सात सूक्ष्म गुणों (महत्तत््व, अहंकार और पाँच तन्मात्राओं)-से युक्त हो अजर-अमर देवताओंकी भाँति नित्यप्रति विचरता रहता है || ७
जिन मूढ़ मनुष्योंका जीवात्मा मन और बुद्धिके वशीभूत रहता है, वह अपने और पराये शरीरको जाननेवाला मनुष्य स्वप्न-अवस्थामें भी सूक्ष्म शरीरसे सुख-दुःखका अनुभव करता है ।। ८ ।।
वहाँ (स्वप्नमें भी) उसे दुःख और सुख प्राप्त होते हैं। एवं उस स्वप्रमें भी (जाग्रत्की भाँति ही) क्रोध और लोभ करके वह संकटमें पड़ जाता है ।। ९ ।।
वहाँ भी महान् धन पाकर वह प्रसन्न होता है तथा पुण्यकर्मोका अनुष्ठान करता है; इतना ही नहीं, जाग्रत् अवस्थाकी भाँति वह स्वप्नमें भी सब वस्तुओंको देखता है || १०
(यह कितने बड़े आश्वर्यकी बात है कि) गर्भभावकी प्राप्त हुआ जीवात्मा दस मासतक माताके उदरमें निवास करता है और जठरानलकी अधिक आँचसे संतप्त होता रहता है तो भी अन्नकी भाँति पच नहीं जाता || ११ ।।
यह जीवात्मा परमात्माका ही अंश है और देहधारियोंके हृदयमें विराजमान है तथापि जो लोग रजोगुण और तमोगुणसे अभिभूत हैं वे देहके भीतर उस जीवात्माकी स्थितिको देख या समझ नहीं पाते हैं || १२ ।।
जड स्थूल शरीर, अमूर्त सूक्ष्म शरीर तथा वज्तुल्य सुदृढ़ कारण शरीर--ये जो तीन प्रकारके शरीर हैं, इन्हें आत्माको प्राप्त करनेकी इच्छावाले योगीजन योगशास्त्रपरायण होकर लाँघ जाते हैं || १३ ।।
संन्यास आश्रमके कर्म भिन्न-भिन्न प्रकारके बताये गये हैं। उनमें समाधिके विषयमें मैंने जो कुछ बताया है, इसीको शाण्डिल्य मुनिने शमके नामसे (छान्दोग्यअपनिषद् शाण्डिल्य ब्राह्मणमें) कहा है ।। १४ ।।
जो पज्चतन्मात्रा तथा मन और बुद्धि--इन सात सूक्ष्म तत्त्वोंको शाश्वत जानकर एवं छः: अंगोंसे यानी ऐश्वर्योंसे युक्त महेश्वरका ज्ञान प्राप्त करके इस बातको जान लेता है कि त्रिगुणात्मिका प्रकृतिका परिणाम ही यह सम्पूर्ण जगत् है, वह परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है || १५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ चौवनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौवनवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“कामरूपी अदभुत वृक्षका तथा उसे काटकर मुक्ति प्राप्त करनेके उपायका और शरीररूपी नगरका वर्णन”
व्यासजी कहते हैं--बेटा! मनुष्यकी हृदयभूमिमें मोहरूपी बीजसे उत्पन्न हुआ एक विचित्र वृक्ष है, जिसका नाम है काम। क्रोध और अभिमान उसके महान् स्कन्ध हैं। कुछ करनेकी इच्छा उसमें जल सींचनेका पात्र है। अज्ञान उसकी जड़ है। प्रमाद ही उसे सींचनेवाला जल है। दूसरोंके दोष देखना उस वृक्षका पत्ता है तथा पूर्व जन्ममें किये हुए पाप उसके सारभाग हैं ।। १-२ ।।
शोक उसकी शाखा, मोह और चिन्ता डालियाँ एवं भय उसके अंकुर हैं। मोहमें डालनेवाली तृष्णारूपी लताएँ उसमें लिपटी हुई हैं |। ३ ।।
लोभी मनुष्य लोहेकी जंजीरोंके समान वासनाके बन्धनोंमें बँधकर उस फलदायक महान् वृक्षको चारों ओरसे घेरकर आस-पास बैठे हैं और उसके फलको प्राप्त करना चाहते हैं ।। ४ ।।
जो उन वासनाके बन्धनोंको वशमें करके वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा उस काम-वृक्षको काट डालता है, वह मनुष्य जरा और मृत्युजनित दोनों प्रकारके दुःखोंसे पार हो जाता है ।। ५
परंतु जो मूर्ख फलके लोभसे सदा उस वृक्षपर चढ़ता है, उसे वह वृक्ष ही मार डालता है; ठीक वैसे ही, जैसे खायी हुई विषकी गोली रोगीको मार डालती है ।।
उस काम-वृक्षकी जड़ें बहुत दूरतक फैली हुई हैं। कोई विद्वान् पुरुष ही ज्ञानयोगके प्रसादसे समतारूप उत्तम खड्गके द्वारा बलपूर्वक उस वृक्षका मूलोच्छेद कर डालता है ।। ७ ।।
इस प्रकार जो केवल कामनाओंको निवृत्त करनेका उपाय जानता है तथा भोगविधायक शास्त्र बन्धनकारक है--इस बातको समझता है, वह सम्पूर्ण दुःखोंको लाँघ जाता है |। ८ ।।
इस शरीरको पुर या नगर कहते हैं। बुद्धि इस नगरकी रानी मानी गयी है और शरीरके भीतर रहनेवाला मन निनश्चयात्मिका बुद्धिरूप रानीके अर्थकी सिद्धिका विचार करनेवाला मन्त्री है ।। ९ ।।
इन्द्रियाँ इस नगरमें निवास करनेवाली प्रजा हैं। वे मनरूपी मन्त्रीकी आज्ञाके अधीन रहती हैं। उन प्रजाओंकी रक्षाके लिये मनको बड़े-बड़े कार्य करने पड़ते हैं। वहाँ दो दारुण दोष हैं, जो रज और तमके नामसे प्रसिद्ध हैं। नगरके शासक मन, बुद्धि और जीव इन तीनोंके साथ समस्त पुरवासीरूप इन्द्रियगण मनके द्वारा प्रस्तुत किये हुए शब्द आदि विषयोंका उपभोग करते हैं || १० ।।
रजोगुण और तमोगुण--ये दो दोष निषिद्धमार्गके द्वारा उस विषय-सुखका आश्रय लेते हैं। वहाँ बुद्धि दुर्धर्ष होनेपर भी मनके साथ रहनेसे उसीके समान हो जाती है ।। ११ ।।
उस समय इन्द्रियरूपी पुरवासीजन मनके भयसे त्रस्त हो जाते हैं, अतः उनकी स्थिति भी चंचल ही रहती है। बुद्धि भी उस अनर्थका ही निश्चय करती है। इसलिये वह अनर्थ आ बसता है || १२ |।।
बुद्धि जिस विषयका अवलम्बन करती है, मन भी उसीका आश्रय लेता है। मन जब बुद्धिसे पृथक् होता है, तब केवल मन रह जाता है ।। १३ ।।
उस समय रजोगुणजनित काम मनको आत्माके बलसे युक्त होनेपर भी विवेकसे रहित होनेके कारण सब ओरसे घेर लेता है। तब वह कामसे घिरा हुआ मन उस रजोगुणरूप कामके साथ मित्रता स्थापित कर लेता है। उसके बाद वह मन ही उस इन्द्रियरूप पुरवासीजनको रजोगुणजनित कामके हाथमें समर्पित कर देता है (जैसे राजाका विरोधी मन्त्री राज्य और प्रजाको शत्रुके हाथमें सौंप देता है) || १४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पचपनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पचपनवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
“पज्चभूतोंके तथा मन और बुद्धिके गुणोंका विस्तृत वर्णन”
भीष्मजी कहते हैं--निष्पाप पुत्र युधिष्ठिर! द्वैपायन व्यासजीके मुखसे वर्णित जो पञ्चमहाभूतोंका निरूपण है, वह मैं पुनः तुम्हें बता रहा हूँ; तुम बड़ी स्पृहाके साथ इस विषयको सुनो ।। १ ।।
वत्स! प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी भगवान् वेदव्यासने धूमाच्छादित अग्निके सदृश विराजमान अपने पुत्र शुकदेवके समक्ष पहले जिस प्रकार इस विषयका प्रतिपादन किया था, उसे मैं पुनः तुमसे कहूँगा। बेटा! तुम सुनिश्चित दर्शन-शास्त्रको श्रवण करो ।। २ ।।
स्थिरता, भारीपन, कठिनता (कड़ापन), बीजको अंकुरित करनेकी शक्ति, गन्ध, विशालता, शक्ति, संघात, स्थापना और धारणशक्ति--ये दस पृथ्वीके गुण हैं ।। ३ ।।
शीतलता, रस, क्लेद (गलाना या गीला करना), द्रवत्व (पिघलना), स्नेह (चिकनाहट), सौम्यभाव, जिह्ला, टपकना, ओले या बर्फके रूपमें जम जाना तथा पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले चावल-दाल आदिको गला देना--ये सब जलके गुण हैं ।। ४ ।।
दुर्धष होना, जलना, ताप देना, पकाना, प्रकाश करना, शोक, राग, हलकापन, तीक्ष्णता और आगकी लपटोंका सदा ऊपरकी ओर उठना एवं प्रकाशित होना--ये सब अग्निके गुण हैं ।। ५ ।।
अनियत स्पर्श, वाक्-इन्द्रियकी स्थिति, चलने-फिरने आदिकी स्वतन्त्रता, बल, शीघ्रगामिता, मल-मूत्र आदिको शरीरसे बाहर निकालना, उत्क्षेपण आदि कर्म, क्रियाशक्ति, प्राण और जन्म-मृत्यु--ये सब वायुके गुण हैं ।। ६ ।।
शब्द, व्यापकता, छिद्र होना, किसी स्थूल पदार्थका आश्रय न होना, स्वयं किसी दूसरे आधारपर न रहना, अव्यक्तता, निर्विकारता, प्रतिघातशून्यता और भूतता अर्थात् श्रवणेन्द्रियका कारण होना और विकृतिसे युक्त होना--से सब आकाशके गुण हैं। इस प्रकार पठचमहाभूतोंके ये पचास गुण बताये गये हैं || ७-८ ।।
धैर्य, तर्क-वितर्कमें कुशलता, स्मरण, भ्रान्ति, कल्पना, क्षमा, शुभ एवं अशुभ संकल्प और चंचलता--ये मनके नौ गुण हैं ।। ९ ।।
इष्ट और अनिष्ट वृत्तियोंका नाश, विचार, समाधान, संदेह और निश्चय--ये पाँच बुद्धिके गुण माने गये हैं || १० ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! बुद्धिके पाँच ही गुण कैसे हैं? तथा पाँच इन्द्रियाँ भी भूतोंके गुण कैसे हो सकती हैं? यह सारा सूक्ष्म ज्ञान आप मुझे बताइये ।। ११ ।।
भीष्मजीने कहा--वत्स युधिष्ठिर! महर्षियोंका कहना है कि बुद्धिके साठ गुण हैं;
अर्थात् पाँचों भूतोंके पूर्वाक्त पचास गुण तथा बुद्धिके पाँच गुण मिलकर पचपन हुए। इनमें पञ्चभूतोंको भी बुद्धिके गुणरूपसे गिन लेनेपर वे साठ हो जाते हैं। ये सभी गुण नित्य चैतन्यसे मिले हुए हैं। पणचमहाभूत और उनकी विभूतियाँ अविनाशी परमात्माकी सृष्टि हैं; परंतु परिवर्तनशील होनेके कारण उसे तत्त्वज्ञ पुरुष नित्य नहीं बताते हैं ।। १२
वत्स युधिष्ठिर! अन्य वक्ताओंने जगतकी उत्पत्तिके विषयमें पहले जो कुछ कहा है, वह सब वेदविरुद्ध और विचार-दूषित है; अत: इस समय तुम नित्यसिद्ध परमात्माका यथार्थ तत्त्व सुनकर उन्हीं परमेश्वरके प्रभाव एवं प्रसादसे शान्तबुद्धि हो जाओ ।। १३
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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