सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छियालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छियालीसवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“परमात्माकी श्रेष्ठता, उसके दर्शनका उपाय तथा इस ज्ञानमय उपदेशके पात्रका निर्णय”
व्यासजी कहते हैं--बेटा! देह, इन्द्रिय और मन आदि जो प्रकृतिके विकार हैं, वे क्षेत्रज् (आत्मा) के ही आधारपर स्थित रहते हैं। वे जड होनेके कारण क्षेत्रज्ञको नहीं जानते; परंतु क्षेत्रज्ष गज सबको जानता है ।।
जैसे चतुर सारथि अपने वशमें किये हुए बलवान् और उत्तम घोड़ोंसे अच्छी तरह काम लेता है, उसी प्रकार यहाँ क्षेत्रज्ञ भी अपने वशमें किये हुए मनसहित इन्द्रियोंके द्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध करता है ।। २ ।।
इन्द्रियोंकी अपेक्षा उनके विषय बलवान हैं, विषयोंसे मन बलवान् है, मनसे बुद्धि बलवान है और बुद्धिसे जीवात्मा बलवान् है ।। ३ ।।
जीवात्मासे बलवान् है अव्यक्त (मूल प्रकृति) और अव्यक्तसे बलवान् और श्रेष्ठ है अमृतस्वरूप परमात्मा। उस परमात्मासे बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। वही श्रेष्ठताकी चरम सीमा और परम गति है ।। ४ ।।
इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंक भीतर उनकी हृदय-गुफामें छिपा हुआ वह परमात्मा इन्द्रियोंद्वारा प्रकाशमें नहीं आता। सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी महात्मा ही अपनी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ बुद्धिद्वारा उसका दर्शन करते हैं ।। ५ ।।
योगी बुद्धिके द्वारा मनसहित इन्द्रियों और उनके विषयोंको अन्तरात्मामें लीन करके नाना प्रकारके चिन्तनीय विषयका चिन्तन न करता हुआ जब विवेकद्धारा विशुद्ध किये हुए मनको ध्यानके द्वारा सब ओरसे पूर्णतया उपरत करके अपनेको कुछ भी करनेमें असमर्थ बना लेता है अर्थात् सर्वथा कर्तापनके अभिमानसे शून्य हो जाता है, तब उसका मन अविचल परम शान्ति-सम्पन्न हो जाता है और वह अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।। ६-७ ।।
जिसका मन सम्पूर्ण इन्द्रियोंके वशमें होता है, वह मनुष्य विवेक-शक्तिको खो देता है और अपनेको काम आदि शत्रुओंके हाथोंमें सौंपकर मृत्युका कष्ट भोगता है ।। ८ ।।
अतः सब प्रकारके संकल्पोंका नाश करके चित्तको सूक्ष्म बुद्धिमें लीन करे। इस प्रकार बुद्धिमें चित्तका लय करके वह कालपर विजय पा जाता है ।।
चित्तकी पूर्ण शुद्धिसे सम्पन्न हुआ यत्नशील योगी इस जगत्में शुभ और अशुभको त्याग देता है और प्रसन्नचित्त एवं आत्मनिष्ठ होकर अक्षय सुखका उपभोग करता है ।। १० ।।
मनुष्य नींदके समय जैसे सुखसे सोता है--सुषुप्तिके सुखका अनुभव करता है, अथवा जैसे वायुरहित स्थानमें जलता हुआ दीपक कम्पित नहीं होता, एकतार जला करता है, उसी प्रकार मन कभी चंचल न हो, यही उसके प्रसादका अर्थात् परम शुद्धिका लक्षण है ।। ११ ||
जो मिताहारी और शुद्धचित्त होकर रातके पहले और पिछले पहरोंमें उपर्युक्त प्रकारसे आत्माको परमात्माके ध्यानमें लगाता है, वही अपने अन्तःकरणमें परमात्माका दर्शन करता है ।। १२ ।।
बेटा! मैंने जो यह उपदेश दिया है, यह परमात्माका ज्ञान करानेवाला शास्त्र है। यही सम्पूर्ण वेदोंका रहस्य है। केवल अनुमान या आगमसे इसका ज्ञान नहीं होता, अनुभवसे ही यह ठीक-ठीक समझमें आता है ।। १३ ।।
धर्म और सत्यके जितने भी आख्यान हैं, उन सबका यह सारभूत धन है। ऋग्वेदकी दस हजार ऋचाओंका मन्थन करके यह अमृतमय सारतत्त्व निकाला गया है ।। १४ ।।
बेटा! मनुष्य जैसे दहीसे मक्खन निकालते हैं और काठसे आग प्रकट करते हैं, उसी प्रकार मैंने भी विद्वानोंके लिये ज्ञानजनक यह मोक्षशास्त्र शास्त्रोंकी मथकर निकाला है ।। १५ ||
बेटा! व्रतधारी स्नातकोंको ही तुम इस मोक्ष-शास्त्रका उपदेश करना। जिसका मन शान्त नहीं है, जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं तथा जो तपस्वी नहीं है, उसे इस ज्ञानका उपदेश नहीं करना चाहिये ।। १६ ।।
जो वेदका विद्वान् न हो, अनुगत भक्त न हो, दोषदृष्टिसे रहित न हो, सरल स्वभावका न हो और आज्ञाकारी न हो तथा तर्कशास्त्रकी आलोचना करते-करते जिसका हृदय दग्ध -रस-शून्य हो गया हो और जो दूसरोंकी चुगली खाता हो--ऐसे लोगोंको इस ज्ञानका उपदेश देना उचित नहीं है ।। १७३ ।।
जो तत्त्वज्ञानकी अभिलाषा रखनेवाला, स्पृहणीय गुणोंसे युक्त, शान्तचित्त, तपस्वी एवं अनुगत शिष्य हो अथवा इन्हीं गुणोंसे युक्त प्रिय पुत्र हो, उसीको इस गूढ़ रहस्यमय धर्मका उपदेश देना चाहिये; दूसरे किसीको किसी प्रकार भी नहीं ।। १८-१९ ।।
यदि कोई मनुष्य रत्नोंसे भरी हुई यह सम्पूर्ण पृथ्वी देने लगे तो भी तत्त्ववेत्ता पुरुष यही समझे कि इस सारे धनकी अपेक्षा यह ज्ञान ही श्रेष्ठ है ।। २० ।।
बेटा! तुम मुझसे जो प्रश्न कर रहे हो, उसके अनुसार मैं इससे भी गूढ़तर अर्थवाले अलौकिक अध्यात्मज्ञानका उपदेश करूँगा, जिसे महर्षियोंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है और जिसका वेदान्तशास्त्र--उपनिषदोंमें गान किया गया है | २१-२२ ।।
पुत्र! तुम्हारे मनमें जो वस्तु सर्वश्रेष्ठ जान पड़ती हो तथा जिसके विषयमें तुम्हें कहीं संशय हो रहा हो, उसे पूछो और उसके उत्तरमें मैं जो कुछ तुम्हारे सामने कहूँ, उसे सुनो! बोलो, मैं फिर तुम्हें किस विषयका उपदेश करूँ || २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सैतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सैतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“महाभूतादि तत्त्वोंका विवेचन”
शुकदेवजीने कहा--भगवन्! मुनिश्रेष्ठ ! अब पुनः मुझे अध्यात्मज्ञानका विस्तारपूर्वक उपदेश दीजिये। अध्यात्म क्या है और उसे मैं कैसे जानूँगा? ।। १ ।।
व्यासजीने कहा--तात! मनुष्यके लिये शास्त्रमें जो यह अध्यात्मविषयकी चर्चा की जाती है, उसका परिचय मैं तुम्हें दे रहा हूँ; तुम अध्यात्मकी यह व्याख्या सुनो ।। २ ।।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश--ये पाँच महाभूत सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरमें स्थित हैं। जैसे समुद्रकी लहरें उठती और विलीन होती रहती हैं, उसी प्रकार ये पाँचों महाभूत प्राणियोंके शरीरके रूपमें जन्म ग्रहण करते और विलीन होते रहते हैं ।। ३ ।।
जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगोंको सब ओर फैलाकर फिर समेट लेता है, इसी प्रकार ये सारे महाभूत छोटे-छोटे शरीरोंमें विकृत होते--उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं ।। ४ ।।
इस प्रकार यह समस्त स्थावर-जंगम जगत् पंचभूतमय ही है। सृष्टिकालमें पंचभूतोंसे ही सबकी उत्पत्ति होती है और प्रलयके समय उन्हींमें सबका लय बताया जाता है ।। ५ ।।
यद्यपि सम्पूर्ण शरीरोंमें पाँच ही भूत हैं तथापि लोगोंको उनमेंसे जिसमें जो वैषम्य दिखायी देता है, उसका कारण यह है कि सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीने समस्त प्राणियोंमें उनके कर्मानुसार ही न्यूनाधिकरूपमें उन भूतोंका समावेश किया है ।। ६ ।।
शुकदेवजीने पूछा--पिताजी! देवता, मनुष्य, पशु और पक्षी आदिके शरीरोंमें विधाताने जो वैषम्य किया है, उसको किस प्रकार लक्ष्य किया जाय? शरीरमें इन्द्रियाँ भी हैं और कुछ गुण भी हैं, उन्हें कैसे देखा जाय--उनमेंसे कौन किस महाभूतके कार्य हैं, इसकी पहचान कैसे हो? ।। ७ ।।
व्यासजीने कहा--बेटा! मैं इस विषयका क्रमशः और यथावतरूपसे प्रतिपादन करूँगा। यह समस्त विषय तत्त्वतः जैसा है, वह सब तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो |। ८ ।।
शब्द, श्रोत्रेन्द्रिय तथा शरीरके सम्पूर्ण छिद्र--ये तीनों वस्तुएँ आकाशसे उत्पन्न हुई हैं। प्राण, चेष्टा तथा स्पर्श--ये तीनों वायुके गुण (कार्य) हैं ।। ९ ।।
रूप, नेत्र और जठरानल--इन तीन रूपोंमें अग्निका ही कार्य प्रकट हुआ है। रस, रसना और स्नेह--ये तीनों जलके कार्य हैं || १० ।।
गन्ध, नासिका और शरीर--ये तीनों भूमिके गुण हैं। इस प्रकार इन्द्रियसमुदायसहित यह शरीर पाञज्चभौतिक बताया गया है || ११ ।।
स्पर्श वायुका, रस जलका और रूप तेजका गुण बताया जाता है एवं शब्द आकाशका और गन्ध भूमिका गुण माना गया है || १२ ।।
मन, बुद्धि और स्वभाव (अहंभाव)-ये तीनों अपने कारणभूत पूर्वसंस्कारोंसे उत्पन्न हुए हैं। ये तीनों पाउचभौतिक होते हुए भी भूतोंके अन्य कार्य जो श्रोत्रादि हैं, उनसे श्रेष्ठ हैं तो भी गुणोंका सर्वथा उल्लंघन नहीं कर पाते हैं || १३ ।।
जैसे कछुआ यहाँ अपने अंगोंको फैलाकर फिर समेट लेता है, उसी प्रकार बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर फैलाकर फिर उन्हें वहाँसे हटा लेती है ।। १४ ।।
पैरोंसे ऊपर और मस्तकसे नीचे मनुष्य जो कुछ देखता है अर्थात् सम्पूर्ण शरीरको जो अहंभावसे देखना है, इस कार्यमें उत्तम बुद्धि प्रवृत्त होती है। तात्पर्य यह कि शरीरमें जो अहंभावका अनुभव है, वह बुद्धिका ही रूपान्तर है || १५ ।।
बुद्धि ही शब्द आदि गुणोंको श्रोत्र आदि इन्द्रियोंके पास बार-बार ले जाती है और बुद्धि ही मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंको विषयोंके पास पुनः-पुनः खींच ले जाती है; यदि इनके साथ बुद्धि न रहे तो इन्द्रियोंद्वारा शब्द आदि विषयोंका अनुभव कैसे हो सकता है ।।
मनुष्यके शरीरमें पाँच इन्द्रियाँ हैं। छठा तत्त्व मन है। सातवाँ तत्त्व बुद्धि और आठवाँ क्षेत्रज्म बताया गया है ।। १७ ।।
आँख देखनेका काम करती है, (यह उपलक्षण है। इससे सभी इन्द्रियोंके कार्यका लक्ष्य कराया गया है) मन संदेह करता है और बुद्धि उसका निश्चय करती है; किंतु क्षेत्रज्ञ (आत्मा) उन सबका साक्षी कहलाता है ।।
रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण--ये तीनों अपने कारणभूत मूल प्रकृतिसे प्रकट हुए हैं; वे तीनों गुण सब प्राणियोंमें समानरूपसे रहते हैं। उनकी पहचान उनके कार्योद्वारा करे ।। १९ ||
जब अपनेमें कुछ प्रसन्नतायुक्त विशुद्ध और शान्त-सा भाव दिखायी दे, तब यह निश्चय करे कि सत्वगुण प्रवृत्त हुआ है || २० ।।
शरीर अथवा मनमें जब कुछ संतापयुक्त भाव दृष्टिगोचर हो, तब वहाँ यह समझ लेना चाहिये कि रजोगुणकी प्रवृत्ति हो रही है ।। २१ ।।
जब मोहसयुक्त भाव मनपर छा जाय, किसी भी विषयमें कोई बात स्पष्ट न जान पड़े, जब तर्क भी काम न दे और किसी तरह कोई बात समझमें न आवे, तब समझना चाहिये कि तमोगुण प्रवृत्त हुआ है ।। २२ ।।
जब अतिशय हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्तता--ये सदगुण अकस्मात् या किसी कारणवश विकसित हों, तब समझना चाहिये कि ये सात्विक गुण हैं ।। २३ ।।
अभिमान, असत्यभाषण, लोभ, मोह और असहनशीलता-ये दोष चाहे किसी कारणसे प्रकट हुए हों अथवा बिना कारणके हर एक परिस्थितिमें रजोगुणके ही चिह्न माने गये हैं ।। २४ ।।
इसी प्रकार मोह, प्रमाद, निद्रा, तन्द्रा और अज्ञान जिस किसी कारणसे हो जाये, उन्हे तमोगुणका कार्य जानना चाहिये ।। २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ सैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अड़तालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अड़तालीसवें अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
“बुद्धिकी श्रेष्ठठा और प्रकृति-पुरुष-विवेक”
व्यासजी कहते हैं--पुत्र! कर्म करनेमें तीन प्रकारसे प्रेरणा प्राप्त होती है। पहले तो मन संकल्पमात्रसे नाना प्रकारके भावकी सृष्टि करता है, बुद्धि उसका निश्चय करती है। तत्पश्चात् हृदय उनकी अनुकूलता और प्रतिकूलताका अनुभव करता है। (इसके बाद कर्ममें प्रवृत्ति होती है) || १ ।।
इन्द्रियोंसे उनके विषय बलवान हैं (क्योंकि वे बलात् इन्द्रियोंकोी अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं), उन विषयोंसे मन बलवान् है (क्योंकि वह इन्द्रियोंको उनसे हटानेमें समर्थ है)। मनसे बुद्धि बलवान् है (क्योंकि वह मनको वशमें रख सकती है) और बुद्धिसे आत्मा बलवान माना गया है (क्योंकि वह बुद्धिको सम बनाकर स्वाधीन कर सकता है) ।। २ ।।
बुद्धि प्राणियोंकी समस्त इन्द्रियोंकी अधिष्ठात्री है, इसलिये वह जीवात्माके समान ही उनकी आत्मा मानी गयी है। बुद्धि ही स्वयं अपने भीतर जब भिन्न-भिन्न विषयोंको ग्रहण करनेके लिये विकृत हो नाना प्रकारके रूप धारण करती है, तब वही मन बन जाती है ।। ३ ।।
इन्द्रियाँ पृथक्-पृथक् हैं, इसलिये उनकी क्रियाएँ भी पृथक्-पृथक् हैं। अतः उन्हींके लिये बुद्धि नाना प्रकारके रूप धारण करती है। वही जब सुनती है तो श्रोत्र कहलाती है और स्पर्श करते समय स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) के नामसे पुकारी जाती है || ४ ।।
वही देखते समय दृष्टि और रसास्वादनके समय रसना हो जाती है। जब वह गन्धको ग्रहण करती है, तब वही प्राणेन्द्रिय कहलाती है। इस प्रकार बुद्धि ही पृथक्-पृथक् विकृत होती है ।। ५ ।।
बुद्धिके इन विकारोंको ही इन्द्रियाँ कहते हैं। अदृश्य जीवात्मा उन सबमें अधिष्ठित है। बुद्धि उस जीवात्मामें ही स्थित हो सात््विक आदि तीनों भावोंमें रहती है || ६ ।।
इसी हेतुसे वह कभी प्रेम और प्रसन्नता लाभ करती है (यह उसका सात््विक भाव है)। कभी शोकमें डूबती है (यह उसका राजस भाव है)। और कभी न तो सुखसे युक्त होती है एवं न दुःखसे ही; उसपर मोह छाया रहता है (यही उसका तामस भाव है) ।। ७ ।।
जैसे उत्ताल तरंगोंसे युक्त सरिताओंका स्वामी समुद्र कभी-कभी अपनी विशाल तटभूमिको भी लाँघ जाता है, उसी प्रकार यह भावात्तमिका बुद्धि चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगमें स्थित होनेपर इन तीनों भावोंको लाँघ जाती है ।। ८ ।।
मनुष्य जब किसी वस्तुकी इच्छा करता है, तब उसकी बुद्धि मनके रूपमें परिणत हो जाती है। ये जो एक दूसरेसे पृथक्-पृथक् इन्द्रियोंके भाव हैं, इन्हें बुद्धिके ही अन्तर्गत समझना चाहिये। “मेधा' कहते हैं रूप आदिके ज्ञानको, उसमें हितकर या सहायक होनेके कारण इन्द्रियाँ “मेध्यः कही गयी हैं। योगीको सम्पूर्ण इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करनी चाहिये ।। ९ ।।
बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियोंमेंसे जब जिस इन्द्रियके साथ हो जाती है, उस समय पहले अलग न होनेपर भी वह बुद्धि संकल्पात्मक मन एवं घटादि पदार्थोमें उपस्थित होती है अर्थात् बुद्धिसे अनुगृहीत होनेपर ही कोई भी इन्द्रिय संकल्पजनित घट-पटादिको क्रमशः ग्रहण करती है ।। १० ।।
जगत्में जो भी नाना भाव हैं, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस--इन तीनों भावोंके ही अन्तर्गत हैं। जैसे अरे रथकी नेमिसे जुड़े होते हैं, उसी प्रकार सभी भाव सात्विक आदि गुणोंके अनुगामी हैं ।।
बुद्धिरूप अधिष्ठानमें स्थित हुई उदासीनभावसे स्वभावके अनुसार यथासम्भव विषयोंकी ओर जानेवाली इन्द्रियोंद्वारा मन दीपकका कार्य करता है अर्थात् जैसे दीपक अपनी प्रभाद्वारा घटादि वस्तुओंको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मन नेत्र आदि इन्द्रियोंद्वारा घट-पट आदि वस्तुओंका दर्शन एवं ग्रहण कराता है || १२ ।।
इस जगतका ऐसा ही परिवर्तनस्वभाव है, ऐसा जाननेवाला ज्ञानी पुरुष कभी मोहमें नहीं पड़ता, हर्ष और शोक नहीं करता तथा ईर्ष्या-द्वेष आदिसे रहित रहता है ।। १३ ।।
जो दुष्कर्मपरायण और अशुद्ध अन्तःकरणवाले हैं, वे अज्ञानी पुरुष अन्यायपूर्वक मनोवाजञ्छित विषयोंमें विचरनेवाली इन्द्रियोंद्वारा आत्माका दर्शन नहीं कर सकते ।।
परंतु जब मनुष्य अपने मनके द्वारा इन्द्रियरूपी अश्वोंकी बागडोरको सदा पकड़े रहकर उन्हें अच्छी तरह काबूमें कर लेता है, तब उसे ज्ञानके प्रकाशमें आत्माका दर्शन उसी प्रकार होता है जिस प्रकार दीपकके प्रकाशमें किसी वस्तुकी आकृति स्पष्ट दिखायी देती है । १५ ||
जैसे अन्धकार दूर हो जानेपर सभी प्राणियोंके सामने प्रकाश छा जाता है, उसी प्रकार यह निश्चितरूपसे समझ लो कि अज्ञानका नाश होनेपर ही ज्ञानस्वरूप आत्माका साक्षात्कार होता है || १६ ।।
जैसे जलचर पक्षी जलमें विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसारमें रहकर भी उसके गुण और दोषोंसे लिपायमान नहीं होता ।। १७ ।।
इसी प्रकार जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह स्त्री, पुत्र आदि सम्बन्धियोंमें आसक्त न होनेके कारण विषयोंका सेवन करता हुआ भी किसी प्रकार उनके दोषोंसे लिप्त नहीं होता है।।
जो अपने पूर्वकृत कर्मोंके संस्कारोंका त्याग करके सदा परमात्मामें ही अनुराग रखता है, वह सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा हो जाता है और विषयोंमें कभी आसक्त नहीं होता ।। १९ ||
जीवात्मा कभी बुद्धिकी ओर झुकता है और कभी गुणोंकी ओर। गुण आत्माको नहीं जानते, किंतु आत्मा गुणोंको सदा जानता रहता है, क्योंकि वह गुणोंका द्रष्टा और यथावत्रूपसे स्रष्टा भी है। यद्यपि बुद्धि और क्षेत्रज्ञ दोनों ही सूक्ष्म वस्तु हैं, किंतु उन दोनोंमें यही अन्तर समझो कि बुद्धि दृश्य है और आत्मा द्रष्टा है ।। २१ ।।
इन दोनोंमेंसे एक (बुद्धि) तो गुणोंकी सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणोंकी सृष्टि नहीं करता है। वे दोनों स्वरूपत: एक दूसरेसे पृथक हैं; परंतु सदा संयुक्त रहते हैं || २२ ।।
जैसे मछली जलसे भिन्न है, फिर भी वे एक दूसरेसे संयुक्त रहते हैं। जैसे गूलर और उसके कीड़े एक दूसरेसे पृथक हैं तथापि परस्पर संयुक्त रहते हैं। उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रञको भी समझना चाहिये ।।
जैसे मूँजमें जो सींक है, वह उससे पृथक् है तो भी वे दोनों साथ ही रहते हैं, उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञ सर्वथा एक दूसरेसे पृथक् होते हुए भी दोनों साथ-साथ और एक दूसरेके आश्रित रहते हैं || २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्यपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ अड़्तालीसवाँ अध्याय पूरा हआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ उन्चासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उन्चासवें अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
“ज्ञानके साधन तथा ज्ञानीके लक्षण और महिमा”
व्यासजी कहते हैं--पुत्र! प्रकृति ही गुणोंकी सृष्टि करती है। क्षेत्रज्--आत्मा तो उदासीनकी भाँति उन सम्पूर्ण विकारशील गुणोंको देखा करता है। वह स्वाधीन एवं उनका अधिष्ठाता है || १ ।।
जैसे मकड़ी अपने शरीरसे तन्तुओंकी सृष्टि करती है, उसी प्रकार प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थोंको उत्पन्न करती है। प्रकृति जो इन सब विषयोंकी सृष्टि करती है, वह सब उसके स्वभावसे ही होता है || २ ।।
किन्हींका मत है कि तत्त्वज्ञानसे जब गुणोंका नाश कर दिया जाता है, तब भी वे सर्वथा नष्ट नहीं होते; किंतु तत्त्वज्ञके लिये उनकी उपलब्धि नहीं होती अर्थात् उसका उनसे सम्बन्ध नहीं रहता। दूसरे लोग मानते हैं कि उनकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है अर्थात् उनका अस्तित्त्व नहीं रहता ।। ३ ।।
इन दोनों मतोंपर अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करके सिद्धान्तका निश्चय करे। इस प्रकार निश्चय करनेसे (बार-बार) गर्भमें शयन करनेवाला जीव महान् हो जाता है || ४ ।
आत्मा आदि और अन्तसे रहित है। उसे जानकर मनुष्य सदा हर्ष, क्रोध और ईर्ष्यादेषसे रहित हो विचरता रहे ।। ५ ।।
साधकको चाहिये कि बुद्धिके चिन्ता आदि धर्मोंसे सुदृढ़ हुई हृदयकी अविद्यामयी अनित्य ग्रन्थिको उपर्युक्त प्रकारसे काटकर शोक और संदेहसे रहित हो सुखपूर्वक परमात्मस्वरूपमें स्थित हो जाय ।। ६ ।।
जैसे तैरनेकी कला न जाननेवाले मनुष्य यदि किनारेकी भूमिसे जलपूर्ण नदीमें गिर पड़ते हैं तो गोते खाते हुए महान् क्लेश सहन करते हैं; उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य इस संसार-सागरमें ड्ूबकर कष्ट भोगते रहते हैं--ऐसा समझो ।। ७ ।।
परंतु जो तैरना जानता है, वह कष्ट नहीं उठाता। वह तो जलमें भी स्थलकी ही भाँति चलता है, उसी तरह ज्ञानस्वरूप विशुद्ध आत्माको प्राप्त हुआ तत्त्ववेत्ता संसार-सागरसे पार हो जाता है || ८ ।।
जो मनुष्य इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंके आवागमनको जानता तथा उनकी विषम अवस्थापर विचार करता है, उसे परम उत्तम शान्ति प्राप्त होती है ।। ९ ।।
विशेषरूपसे ब्राह्मणमें और समानभावसे मनुष्यमात्रमें इस ज्ञानको प्राप्त करनेकी जन्मसिद्ध शक्ति है। मन और इन्द्रियोंका संयम तथा आत्मज्ञान मोक्ष-प्राप्तिके लिये पर्याप्त साधन है ।। १० ।।
शम और आत्मतत्त्वको जानकर पुरुष अत्यन्त शुद्ध-बुद्ध हो जाता है। ज्ञानीका इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है। बुद्धिमान् मनुष्य इस आत्मतत्त्वको जानकर कृतार्थ और मुक्त हो जाते हैं ।। ११ ।।
परलोकमें जो अज्ञानी मनुष्योंको महान् भय प्राप्त होता है, यह महान् भय ज्ञानी पुरुषोंको नहीं होता। ज्ञानीको जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर उत्तम गति और किसीको भी प्राप्त नहीं होती ।। १२ ।।
कुछ लोग मनुष्योंको दुखी और रोगी देखकर उनमें दोष-दृष्टि करते हैं और दूसरे लोग उनकी वह अवस्था देखकर शोक करते हैं। परंतु जो कार्य और कारण दोनोंको तत्त्वसे जानते हैं, वे शोक नहीं करते। तुम उन्हीं लोगोंको वहाँ कुशल समझो ।। १३ ।।
कर्मपरायण मनुष्य निष्कामभावसे जिस कर्मका अनुष्ठान करते हैं, वह पहलेके किये हुए सकाम या अशुभ कर्मोको भी नष्ट कर देता है; इस प्रकार कर्म करनेवाले साधकके कर्म इस लोकमें या परलोकमें कहीं भी उसका भला-बुरा या दोनों कुछ भी नहीं कर सकते ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पचासवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पचासवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“परमात्माकी प्राप्तिका साधन, संसार-नदीका वर्णन और ज्ञानसे ब्रह्मकी प्राप्ति”
शुकदेवजीने पूछा--पिताजी! इस जगतमें जिस धर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है तथा जो सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है, उसका आप मुझसे वर्णन कीजिये ।। १ ।।
व्यासजीने कहा--बेटा! मैं ऋषियोंके बताये हुए उस प्राचीन धर्मका, जो सब धर्मोंसे श्रेष्ठ है, तुमसे यहाँ वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो || २ ।।
जैसे पिता अपने छोटे पुत्रोंको काबूमें रखता है, उसी प्रकार मनुष्यको चाहिये कि वह सब विषयोंपर टूट पड़नेवाली अपनी प्रमथनशील इन्द्रियोंका बुद्धिके द्वारा यत्नपूर्वक संयम करके उन्हें वशमें रखे ।। ३ ।।
मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रता ही सबसे बड़ी तपस्या है। यही सब धर्मोंसे श्रेष्ठठटम परम धर्म बताया जाता है ।। ४ ।।
मनसहित सम्पूर्ण इन्द्रियोंको बुद्धिके द्वारा स्थिर करके बहुत-से चिन्तनीय विषयोंका चिन्तन न करते हुए अपनी आत्मामें तृप्त-सा होकर निश्चिन्त और निश्चल हो जाय ।। ५ ।।
जिस समय ये इन्द्रियाँ अपने विषयोंसे हटकर अपने निवासस्थानमें स्थित हो जायँगी, उस समय तुम स्वयं ही उस सनातन परमात्माका दर्शन कर लोगे ।। ६ ।।
धूमरहित अग्निके समान देदीप्यमान वह परमेश्वर ही सबका आत्मा और परम महान् है। महात्मा एवं ज्ञानी ब्राह्मण ही उसे देख पाते हैं || ७ ।।
जैसे फल और फूलोंसे भरा हुआ अनेक शाखाओंसे युक्त विशाल वृक्ष अपने ही विषयमें यह नहीं जानता कि कहाँ मेरा फ़ूल है और कहाँ मेरा फल है; उसी प्रकार जीवात्मा यह नहीं जानता कि मैं कहाँसे आया हूँ और कहाँ जाऊँगा। किंतु शरीरमें जीवसे पृथक् दूसरा ही अन्तरात्मा है, जो सबको सब प्रकारसे निरन्तर देखता रहता है ।। ८-९ ।।
पुरुष प्रज्वलित ज्ञानमय प्रदीपके द्वारा अपनेमें ही परमात्माका दर्शन करता है; इसी प्रकार तुम भी आत्माद्वारा परमात्माका साक्षात्कार करके सर्वज्ञ और स्वाभिमानसे रहित हो जाओ ।। १० ||
केंचुल छोड़कर निकले हुए सर्पके समान सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो उत्तम बुद्धि पाकर तुम यहाँ पाप और चिन्तासे रहित हो जाओ ।। ११ ।।
यह संसार एक भयंकर नदी है, जो सम्पूर्ण लोकमें प्रवाहित हो रही है। इसके स्रोत सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर बहते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ इसके भीतर पाँच ग्राहोंके समान हैं। मनके संकल्प ही इसके किनारे हैं। लोभ और मोहरूपी घास और सेवारसे यह ढकी हुई है। काम और क्रोध इसमें सर्पके समान निवास करते हैं। सत्य इसका घाट है। मिथ्या इसकी हलचल है। क्रोध ही कीचड़ है। यह नदी दूसरी नदियोंसे श्रेष्ठ है। यह अव्यक्त प्रकृतिरूपी पर्वतसे प्रकट हुई है। इसके जलका वेग बड़ा प्रखर है। अजितात्मा पुरुषोंके लिये इसे पार करना अत्यन्त कठिन है। इसमें कामरूप ग्राह सब ओर भरे हैं। यह नदी संसार-सागरमें मिली है। वासनारूपी गहरे गड़ढोंके कारण इसे पार करना अन्यन्त कठिन है। तात! यह अपने कर्मोसे ही उत्पन्न हुई है। जिह्ना भवँर है तथा इस नदीको लाँघना दुष्कर है। तुम अपनी विशुद्ध बुद्धिके द्वारा इस नदीको पार कर जाओ ।। १२--१५ |।
धैर्यशशाली, मनीषी और तत्त्वज्ञानी लोग जिस नदीको पार करते हैं, उसे तुम भी तैर जाओ। सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त, संयतचित्त, आत्मज्ञ और पवित्र हो जाओ। उत्तम बुद्धि (ज्ञान) का आश्रय ले तुम सब प्रकारके सांसारिक बन्धनोंसे छूट जाओगे और निष्पाप एवं प्रसन्नचित्त हो ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाओगे ।।
जैसे पर्वतके शिखरपर खड़ा हुआ पुरुष धरतीपर रहनेवाले समस्त प्राणियोंको सुस्पष्ट देखता है, उसी प्रकार तुम भी ज्ञानरूपी शैलशिखरपर आरूढ़ हो समस्त प्राणियोंकी अवस्थापर दृष्टिपात करो। क्रोध और हर्षसे रहित हो जाओ तथा बुद्धिकी क्रूरतासे भी रहित हो जाओ ।। १८ ।।
ऐसा करनेसे तुम समस्त भूतोंके उत्पत्ति और प्रलयको देख सकोगे। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तत्त्वदर्शी ज्ञानी मुनि इस धर्मको समस्त प्राणियोंके लिये सबसे श्रेष्ठ मानते हैं ।। १९ ।।
बेटा! यह उपदेश व्यापक आत्माका ज्ञान करानेवाला है। जो संयतचित्त, हितैषी और अनुगत भक्त हो, उसीके समक्ष इसका वर्णन करना चाहिये ।। २० ।।
यह गोपनीय आत्मज्ञान सबसे अधिक गुह्मतम और महान् है। तात! मैंने जिसका उपदेश किया है, वह यथार्थतः मेरे अपने प्रत्यक्ष अनुभवमें लाया हुआ ज्ञान है ।।
दुःख और सुखसे रहित तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमानस्वरूप ब्रह्म तो न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है || २२ ।।
पुरुष हो या स्त्री, इस ब्रह्मको जान ले तो उसका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं होता। अपुनर्भवस्थिति प्राप्त करनेके लिये ही इस ब्रह्मज्ञानरूप धर्मका विधान किया गया है ।। २३ ।।
बेटा! सारे विभिन्न मत जैसे रहे हैं, वैसे ही मेरेद्वारा तुम्हारे समक्ष यथार्थरूपसे बताये गये हैं। जो इन मतोंका अनुसरण करते हैं; वे मुक्त हो जाते हैं, जो नहीं करते हैं, वे नहीं होते ।। २४ ।।
सत्पुत्र शुकदेव! प्रीतियुक्त, गुणवान् तथा इन्द्रियसंयमी पुत्र यदि प्रश्न करे तो पिता संतुष्टचित्त होकर उस जिज्ञासु पुत्रके समीप यथार्थरूपसे इस ज्ञानका उपदेश करे, जो कुछ मैंने तुम्हारे निकट कहा है || २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें