सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ इकतालीसवें अध्याय से दो सौ पैतालीसवें अध्याय तक (From the 241 chapter to the 245 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ इकतालीसवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इकतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“कर्म और ज्ञानका अन्तर तथा ब्रद्नाप्राप्तिके उपायका वर्णन”

शुकदेवने पूछा--पिताजी! वेदमें “कर्म करो” और “कर्म छोड़ो'--ये जो दो प्रकारके वचन मिलते हैं, उनके सम्बन्धमें मैं यह जानना चाहता हूँ कि विद्या (ज्ञान) के द्वारा कर्मको त्याग देनेपर मनुष्य किस दिशामें जाते हैं? और कर्म करनेसे उन्हें किस गतिकी प्राप्ति होती है? ।। १ ।।

मैं इस विषयको सुनना चाहता हूँ, आप कृपापूर्वक मुझे यह बतावें। ये दोनों वचन एक दूसरेके विपरीत हैं, अतः प्रतिकूल परिणाम ही उत्पन्न कर सकते हैं ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! शुकदेवजीके इस प्रकार पूछनेपर पराशरनन्दन भगवान्‌ व्यासने यों उत्तर दिया-'बेटा! ये कर्ममय और ज्ञानमय मार्ग क्रमशः विनाशशील और अविनाशी हैं, मैं इनकी व्याख्या आरम्भ करता हूँ ।। ३ ।।

“वत्स! ज्ञानसे मनुष्य जिस दिशाको जाते हैं और कर्मद्वारा उन्हें जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह सब बताता हूँ, एकचित्त होकर सुनो। इन दोनोंका अन्तर अत्यन्त गहन है ।। ४ ।।

“धर्म है, ऐसा शास्त्रका उपदेश है, इसके विपरीत यदि कोई कहे कि धर्म नहीं है तो उसे सुनकर एक आस्तिकको जितना कष्ट होता है, उसके पक्षके ही समान यह कर्म और विद्याका तारतम्यविषयक प्रश्न मेरे लिये क्लेशदायक है ।। ५ ।।

'प्रवृत्तिलक्षण धर्म और निवृत्तिके उद्देश्यसे प्रतिपादित धर्म, ये दो मार्ग हैं जहाँ वेद प्रतिष्ठित हैं |। ६ ।।

“सकामकर्मसे मनुष्य बन्धनमें पड़ता है और ज्ञानसे मुक्त हो जाता है, अतः दूरदर्शी यति कर्म नहीं करते हैं || ७ ।।

“कर्म करनेसे मनुष्य मृत्युके पश्चात्‌ सोलह- तत्त्वोंके बने हुए मूर्तिमान्‌ शरीरको धारण करके जन्म लेता है; किन्तु ज्ञानके प्रभावसे जीव नित्य, अव्यक्त, अविनाशी परमात्माको प्राप्त होता है ।। ८ ।।

“अधूरे ज्ञानमें आसक्त अर्थात्‌ इन्द्रियज्ञानको ही ज्ञान माननेवाले कुछ मनुष्य सकामकर्मकी प्रशंसा करते हैं, इसलिये वे भोगासक्त होकर बारंबार विभिन्न शरीरोंमें आनन्द मानकर उनका सेवन करते हैं ।। ९ ।।

'परंतु जो धर्मके तत्त्वको भलीभाँति समझकर सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं, वे कर्मकी उसी तरह प्रशंसा नहीं करते हैं, जैसे प्रतिदिन नदीका पानी पीनेवाले मनुष्य कुएँका आदर नहीं करते हैं || १० ।।

“कर्मके फल हैं सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु। कर्मद्वारा मनुष्य इन्हींको पाते हैं, परंतु ज्ञानके द्वारा उन्हें उस परमपदकी प्राप्ति होती है, जहाँ जानेसे सदाके लिये शोकसे मुक्त हो जाता है | ११ ।।

“जहाँ जाकर फिर मृत्युका कष्ट नहीं उठाना पड़ता, जहाँ जानेसे फिर जन्म नहीं होता, जहाँ पुनर्जन्मका भय नहीं रहता तथा जहाँ जाकर मनुष्य फिर इस संसारमें नहीं लौटता ।॥। १२ ।।

“जहाँ बिना क्लेशके प्राप्त होनेवाले और मिलकर कभी विलग न होनेवाले, अव्यक्त, अचल, नित्य, अनिर्वचनीय तथा विकारशून्य उस परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार हो जाता है ।। १३ ।।

“उस स्थितिको प्राप्त हुए मनुष्योंको सुख-दुःखादि द्वन्द्ध, मानसिक संकल्प और कर्मसंस्कार बाधा नहीं पहुँचाते। वहाँ पहुँचे हुए मानव सर्वत्र समानभाव रखते हैं, सबको मित्र मानते हैं और समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहते हैं ।। १४ ।।

“तात! ज्ञानी मनुष्य कुछ और ही होता है, कर्मासक्त मनुष्य उससे सर्वथा भिन्न है। जैसे चन्द्रमा घटते-घटते अमावास्याको एक सूक्ष्म कलाके रूपमें ही शेष रह जाता है, यही अवस्था तुम कर्मासक्त मनुष्योंकी भी समझो--उसे क्षय और वृद्धिके ही चक्‍्करमें पड़े रहना पड़ता है ।। १५ ।।

“इस बातको एक मन्त्रद्र्ठ ऋषिने विस्तारके साथ बताया है। अमावास्याके बाद आकाशमें एक टेढ़े और पतले सूतके समान प्रतीत होनेवाले नवोदित चन्द्रमाको देखकर ऐसा ही अनुमान किया जाता है || १६ ।।

“कर्मजन्य कलाओंके भारको धारण करनेवाला कर्मासक्त मनुष्य मन और इन्द्रियरूप ग्यारह विकारोंसे युक्त होकर जन्म धारण किया करता है। इस प्रकार वह मूर्तिमान्‌ (देहधारी) व्यक्ति होता है। तुम उसे कर्मफलसम्भूत त्रिगुणात्मक शरीरसे युक्त तथा चन्द्रमाके समान वृद्धि और हासका भागी होनेवाला समझो ।। १७ ।।

'प्राणियोंके अन्तःकरण (हृदयाकाश) में जो स्वयम्प्रकाश चिन्मय देवता कमलके पत्तेपर पड़ी हुई पानीकी बूँदके समान निर्लेपभावसे विराजमान है तथा जिसने योगके द्वारा चित्तको वशमें किया है, उस आत्मतत्त्वको तुम सदैव क्षेत्रज्ष समझो ।। १८ ।।

“तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण-इन तीनोंको बुद्धिका गुण समझो, इनके सम्बन्धसे जीव गुणस्वरूप और गुण जीवस्वरूप प्रतीत होने लगते हैं। अतः वास्तवमें जीवात्मा परमात्माका ही अंश है, ऐसा समझो ।। १९ |।

“शरीर स्वयं तो अचेतन (जड) है, परंतु चेतनसे युक्त होनेसे उसे जीवात्माके गुण चैतन्यसे युक्त कहा जाता है। जीवात्मा ही शरीरके द्वारा चेष्टा करता है और वही समस्त शरीरको जीवन (चेतना) प्रदान करता है, परंतु जिस परमात्माने सातों भुवनोंकी सृष्टि की है, उसे क्षेत्रवेत्ता विद्वान्‌ उस जीवात्मासे भी श्रेष्ठ बताते हैं | २० ।।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • पाँच इन्द्रियाँ, पाँच इन्द्रियोंके विषय, स्वभाव (शीतोष्णादि धर्म), चेतना (ज्ञानशक्ति), मन, प्राण, अपान और जीव-ये सोलह तत्त्व पूर्वमें २३९ वें अध्यायके १३ वें श्लोकमें बतला चुके हैं।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ बयालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बयालीसवें अध्याय के श्लोक 1-30 का हिन्दी अनुवाद)

“आश्रमधर्मकी प्रस्तावना करते हुए ब्रह्मचर्य-आश्रमका वर्णन”

शुकदेवजीने पूछा--पिताजी! क्षर अर्थात्‌ प्रधानसे जो चौबीस तत्त्वोवाली सामान्य सृष्टि हुई है तथा शब्द आदि विषयोंसहित जो इन्द्रियाँ हैं, उनकी सृष्टि बुद्धिके सामर्थ्यसे हुई है, अत: यह अतिसर्ग--असाधारण सृष्टि है। बन्धनकारी होनेके कारण इसे प्रमुख या प्रबल माना गया है, यह दोनों प्रकारकी सृष्टि पुरुषके संनिधानसे, प्रकृतिसे उत्पन्न हुई है; यह सब मैंने पहले सुन लिया है ।। १ ।।

अब पुनः इस संसारमें प्रत्येक युगके अनुसार जो शिष्ट पुरुषोंकी आचार-परम्परा रही है तथा जिसके अनुकूल सत्पुरुषोंका बर्ताव होता आया है, उसका मैं भी अनुसरण करना चाहता हूँ ।। २ ।।

वेदमें “कर्म करो” और “कर्म छोड़ो'--ये दोनों बातें कही गयी हैं। मैं इनका तात्पर्य कैसे समझू? जिससे इनका विरोध हट जाय। आप इस विषयकी व्याख्या करें ।। ३ ।।

मैं आप-जैसे गुरुके उपदेशसे पवित्र हो गया हूँ तथा मुझे जगतके वृत्तान्त (लौकिक नीति-रीति) का भी ज्ञान हो गया है; अतः धर्माचरणसे बुद्धिका संस्कार करके स्थूल देहका अभिमान त्यागकर अपने अविनाशीस्वरूप परमात्माका दर्शन करूँगा ।। ४ ।।

व्यासजीने कहा--बेटा! पूर्वकालमें साक्षात्‌ ब्रह्माजीनी जिस आचार-व्यवहारका विधान कर दिया है, पहलेके सत्पुरुष तथा ऋषि-महर्षि भी उसीका पालन करते आ रहे है।।

परम ऋषियोंने ब्रह्मचर्यके पालनसे ही उत्तम लोकोंपर विजय पायी है; अतः मन-हीमन अपने कल्याणकी इच्छा रखकर पहले ब्रह्मचर्यका पालन करे ।।

(फिर वानप्रस्थ-धर्मका आश्रय ले) वनमें फल-मूल खाकर रहे, भारी तपस्यामें तत्पर हो जाय, पुण्य-तीर्थोंमें भ्ररण करे और किसी भी प्राणीकी अपने द्वारा हिंसा न होने दे।। ७ ।।

इसके बाद संन्यासी होकर यथासमय भिक्षासे जीवन निर्वाह करते हुए भिक्षाके लिये “वानप्रस्थी” के आश्रमपर उस समय जाना चाहिये, जब कि मूसलसे धान कूटनेकी आवाज न सुनायी पड़े और रसोईघरसे धूँआ निकलना बंद जो जाय। इस प्रकार जीवन बितानेवाला संन्यासी ब्रह्मभावको प्राप्त होनेमें समर्थ होता है ।। ८ ।।

शुकदेव! तुम भी स्तुति और नमस्कारसे अलग रहकर शुभाशुभ कर्मोंका परित्याग करके जो कुछ फल-मूल मिल जाय, उसीसे भूख मिटाते हुए वनमें अकेले विचरते रहो || ९ ||

शुकदेवने पूछा--पिताजी! “कर्म करो” और “कर्म छोड़ो'--ये जो वेदके दो तरहके वचन हैं, लोकदृष्टिसे विचार करनेपर परस्पर विरुद्ध जान पड़ते हैं। ये प्रामाणिक हैं या अप्रामाणिक? यदि प्रामाणिक हैं तो परस्पर विरोध रहते हुए इन्हें शास्त्रवचन कैसे माना जा सकता है तथा दोनों ही प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ; साथ ही यह भी बताइये कि कर्मोका विरोध किये बिना मोक्षकी प्राप्ति किस तरह हो सकती है? ।। १०-११ ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! उनके इस प्रकार पूछनेपर गनन्‍्धवती (सत्यवती) के पुत्र महर्षि व्यासने अपने अमिततेजस्वी पुत्रके ववचनका आदर करते हुए उससे इस प्रकार कहा ।। १२ ।।

व्यासजी बोले--बेटा! ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यासी--ये सभी अपनेअपने आश्रमके लिये विहित शास्त्रोक्त कर्मोंका पालन करते हुए परम गतिको प्राप्त होते हैं ।। १३ ।।

यदि कोई एक पुरुष भी इन आश्रमोंके धर्मोका राग-द्वेषसे शून्य होकर विधिपूर्वक अनुष्ठान कर ले तो वह परब्रह्म परमात्माको तत्त्वसे जाननेका अधिकारी हो जाता है ।। १४ ।।

ये चारों आश्रम ब्रह्ममें ही प्रतिष्ठित हैं और ब्रह्मतक पहुँचानेके लिये चार पैंडीवाली सीढ़ीके समान माने गये हैं। इस सीढ़ीपर चढ़कर मनुष्य ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है | १५ ||

द्विजके बालकको चाहिये कि ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए गुरु अथवा मुरुपुत्रकी सेवामें अपनी आयुके एक चौथाई भाग अर्थात्‌ पच्चीस वर्षोतक रहे। वहाँ रहते हुए किसीके दोष न देखे। ऐसा करनेवाला ब्रह्मचारी धर्म और अर्थके ज्ञानमें कुशल होता है ।। १६ ||

वह गुरुके सोनेके पश्चात्‌ नीचे आसनपर सोवे और उनके जागनेसे पहले ही उठ जाय। गुरुके घरमें एक शिष्य या दासके करने योग्य जो कुछ भी कार्य हो, उसे वह स्वयं पूरा करें।।

गुरुजी जो भी आज्ञा दें उसके लिये सदा यही उत्तर दे कि भगवन्‌! इसे अभी पूरा किया” और वह सब कार्य करके उनके पास आकर खड़ा जो जाय। "मेरे लिये क्या आज्ञा है?” ऐसा पूछते हुए एक आज्ञाकारी सेवककी भाँति गुरुका सारा कार्य करनेके लिये तैयार रहे और सभी कर्मोके सम्पादनमें कुशल हो ।। १८ ।।

अपनी उन्नति चाहनेवाले शिष्यको गुरुकी सेवा-टहलका सारा कार्य समाप्त करके उनके पास बैठकर अध्ययन करना चाहिये। वह सबके प्रति सदा उदार रहे और किसीपर कोई कलंक न लगावे। गुरुके बुलानेपर झट उनकी सेवामें उपस्थित हो जाय ।। १९ ।।

बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। कार्यमें कुशल हो। गुणवान्‌ बने। भीतरसे सदभावना रखकर बीच-बीचमें ऐसी बात बोले जो गुरुको प्रिय लगनेवाली हो। शान्त भावसे भक्तिभरी दृष्टि डालकर गुरुकी ओर देखे और इन्द्रियोंको वशमें रखे || २० ।।

आचार्य जबतक भोजन न कर लें, तबतक स्वयं भी न खाय। वे जबतक जल-पान न कर लें, तबतक स्वयं भी न करे। उनके बैठनेसे पहले स्वयं भी न बैठे और उनके सोनेसे पहले स्वयं भी न सोये || २१ ।।

दोनों हाथ फैलाकर अपने दाहिने हाथसे गुरुका दाहिना चरण और बायें हाथसे उनका बायाँ चरण धीरे-धीरे छूकर प्रणाम करे || २२ ।।

इस प्रकार अभिवादनके पश्चात्‌ हाथ जोड़कर गुरुसे कहे--“भगवन्‌! अब आप मुझे पढ़ावें। मैंने अमुक काम पूरा कर लिया है और यह अमुक कार्य अभी करूँगा ।। २३ ।।

“ब्रह्म! इसके सिवा और भी जिन कार्योंके लिये आप आज्ञा देंगे, उन्हें भी मैं शीघ्र पूर्ण करूँगा।' इस तरह सब बातें विधिवत्‌ निवेदन करके गुरुकी आज्ञा लेकर फिर दूसरा कार्य करे और उसे पूरा करके पुनः उसका सारा समाचार गुरुजीको बतावे || २४ ३ ।।

जिन-जिन गन्धों और रसोंका ब्रह्मचारीको सेवन नहीं करना चाहिये, उनका वह ब्रह्मचर्यकालमें त्याग करे। समावर्तनसंस्कारके बाद ही वह उनका सेवन कर सकता है, यही धर्मका निश्चय है ।। २५६ ।।

शास्त्रोंमें ब्रह्मचारीके लिये जो कोई भी नियम विस्तारपूर्वक बताये गये हैं, उन सबका वह पालन करे तथा सदा गुरुके समीप ही रहे ।। २६६ ।।

इस प्रकार शिष्य यथाशक्ति सेवा करके गुरुको प्रसन्न करे और उन्हें उपहार देकर उनकी अआज्ञासे ब्रह्मचर्य-आश्रमसे दूसरे आश्रमोंमें पदार्पण करे और वहाँ भी उन आश्रमोंके कर्तव्योंका पालन करता रहे ।।

जब वेदसम्बन्धी व्रत और उपवास करते हुए आयुका एक चौथाई भाग व्यतीत हो जाय, तब गुरुको दक्षिणा देकर विधिपूर्वक समावर्तन-संस्कार सम्पन्न करे || २८-२९ ।।

धर्मतः पत्नीका पाणिग्रहण करके उसके साथ यत्नपूर्वक अग्निकी स्थापना करे और आयुके द्वितीय भाग अर्थात्‌ पचास वर्षकी अवस्थातक उत्तम व्रतका पालन करते हुए गृहस्थ बना रहे || ३० ।।

(इस प्रकार श्रीमह्याभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ तैंतालिसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तैंतालिसवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणोंके उपलक्षणसे गार्हस्थ्य-धर्मका वर्णन”

व्यासजी कहते हैं--बेटा! गृहस्थ पुरुष अपनी आयुके दूसरे भागतक गृहस्थधर्मका पालन करते हुए घरपर ही रहे। धर्मानुसार स्त्रीसे विवाह करके उसके साथ अग्नि-स्थापना करनेके पश्चात्‌ नित्य अग्निहोत्र आदि करे और उत्तम व्रतका पालन करता रहे | १ ।।

गृहस्थ ब्राह्मणके लिये विद्वानोंने चार प्रकारकी आजीविका बतायी है--कोठेभर अनाजका संग्रह करके रखना, यह पहली जीविकावृत्ति है। कुंडेभर अन्नका संग्रह करना, यह दूसरी वृत्ति है तथा उतने ही अन्नका संग्रह करना जो दूसरे दिनके लिये शेष न रहे, यह तीसरी वृत्ति है। अथवा “कापोतीवृत्ति” (उज्छवृत्ति) का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करे, यह चौथी वृत्ति है। इन चारोंमें पहलीकी अपेक्षा दूसरी-दूसरी वृत्ति श्रेष्ठ है। अन्तिम वृत्तिका आश्रय लेनेवाला धर्मकी दृष्टिसे सर्वश्रेष्ठ है और वही सबसे बढ़कर धर्मविजयी है ।।

पहली श्रेणीके अनुसार जीविका चलानेवाले ब्राह्मणको यजन-याजन, अध्ययनअध्यापन तथा दान और प्रतिग्रह--ये छः: कर्म करने चाहिये। दूसरी श्रेणीवालेको अध्ययन, यजन और दान--इन तीन कर्मामें ही प्रवृत्त होना चाहिये। तीसरी श्रेणीवालेकोी अध्ययन और दान-ये दो ही कर्म करने चाहिये तथा चौथी श्रेणीवालेको केवल ब्रह्मयज्ञ (वेदाध्ययन) करना उचित है ।। ४ ।।

गृहस्थोंके लिये शास्त्रोंमें बहुत-से श्रेष्ठ नियम बताये गये हैं। वह केवल अपने ही भोजनके लिये रसोई न बनावे (अपितु देवता, पितर और अतिथियोंके उद्देश्यसे ही बनावे) और पशुहिंसा न करे, क्योंकि यह अनर्थमूलक है ।। ५ ।।

यज्ञमें यजमान एवं हविष्य आदि सबका यजुर्वेदके मन्त्रसे संस्कार होना चाहिये। गृहस्थ पुरुष दिनमें कभी न सोये। रातके पहले और पिछले भागमें भी नींद न ले ।। ६ ।।

सबेरे और शाम दो ही समय भोजन करे, बीचमें न खाय। ऋतुकालके सिवा अन्य समयमें स्त्रीको अपनी शय्यापर न बुलावे। उसके घरपर आया हुआ कोई ब्राह्मण अतिथि आदर-सत्कार और भोजन पाये बिना न रह जाय ।। ७ ।।

यदि द्वारपर अतिथिके रूपमें वेदके पारंगत विद्वान, स्नातक, श्रोत्रिय, हव्य (यज्ञान्न) और कव्य (श्राद्धान्र) भोजन करनेवाले, जितेन्द्रिय, क्रियानिष्ठ, स्वर्मसे ही जीवन-निर्वाह करनेवाले और तपस्वी ब्राह्मण आ जायाँ तो सदा उनकी विधिवत्‌ पूजा करके उन्हें हव्य और कव्य समर्पित करने चाहिये। उनके सत्कारके लिये यह सब करनेका विधान है ।। ८-९ |।

जो धार्मिकताका ढोंग दिखानेके लिये अपने नख और बाल बढ़ाकर आया हो, अपने ही मुखसे अपने किये हुए धर्मका विज्ञापन करता हो, अकारण अन्निहोत्रका त्याग कर चुका हो अथवा गुरुके साथ कपट करनेवाला हो, ऐसा मनुष्य भी गृहस्थके घरमें अन्न पानेका अधिकारी है। वहाँ सभी प्राणियोंके लिये अन्न-वितरणकी विधि है। जो अपने हाथसे भोजन नहीं बनाते, ऐसे लोगों (ब्रह्मचारियों और संन्यासियों) के लिये गृहस्थ पुरुषको सदा ही अन्न देना चाहिये ।।

गृहस्थको सदा विघस और अमृत अन्नका भोजन करना चाहिये। यज्ञसे बचा हुआ भोजन हविष्यके समान और अमृत माना गया है ।। १२ ।।

कुट॒म्बमें भरण-पोषणके योग्य जितने लोग हैं, उनको भोजन करानेके बाद बचे हुए अन्नको जो भोजन करता है, उसे विघसाशी (विघस अन्न भोजन करनेवाला) बताया गया है। पोष्यवर्गसे बचे हुए अन्नको विघस तथा पंचमहायज्ञ एवं बलिवैश्वदेवसे बचे हुए अन्नको अमृत कहते हैं ।। १३ ।।

गृहस्थ पुरुष सदा अपनी ही स्त्रीसे प्रेम करे। इन्द्रियोंका संयम करके जितेन्द्रिय बने। किसीके गुणोंमें दोष न ढूँढ़े। वह ऋत्विज, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, शरणागत, वृद्ध, बालक, रोगी, वैद्य, जाति-भाई, सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव, माता-पिता, कुटु॒म्बकी स्त्री, भाई, पुत्र, पत्नी, पुत्री तथा सेवक-समूहके साथ कभी विवाद न करे। जो इन सबके साथ कलह त्याग देता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। १४--१६ ।।

इनसे हार मानकर रहनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाता है, इसमें संशय नहीं है। आचार्य ब्रह्मलोकका स्वामी है, पिता प्रजापतिलोकका ईश्वर है, अतिथि इन्द्रलोकके और ऋत्विज देवलोकके स्वामी हैं। कुटुम्बकी स्त्रियाँ अप्सराओंके लोककी स्वामिनी हैं और जाति-भाई विश्वेदेव लोकके अधिकारी हैं || १७-१८ ।।

सम्बन्धी और बन्धु-बान्धव दिशाओंपर, माता और मामा पृथ्वीपर तथा वृद्ध, बालक और निर्बल रोगी आकाशपर अपना प्रभुत्व रखते हैं। इन सबको संतुष्ट रखनेसे उन-उन लोकोंकी प्राप्ति होती है ।। १९ ।।

बड़ा भाई पिताके समान है। पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर हैं तथा सेवकगण अपनी छायाके समान हैं। बेटी तो और भी अधिक दयनीय है || २० ।।

अतः इनके द्वारा कभी अपना तिरस्कार भी हो जाय तो सदा क्रोधरहित रहकर सहन कर लेना चाहिये। गृहस्थधर्मका पालन करनेवाले विद्वान्‌ पुरुषको निश्चिन्त होकर क्लेश और थकावटको जीतकर धर्मका निरन्तर पालन करते रहना चाहिये ।। २१ ।।

किसी भी धर्मात्मा पुरुषको धनके लोभसे धर्मकर्मोंका अनुष्ठान नहीं करना चाहिये। गृहस्थ ब्राह्मणके लिये जो तीन आजीविकाकी वृत्तियाँ बतायी गयी हैं, उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ एवं कल्याणकारिणी हैं ।। २२ ।।

इसी प्रकार चारों आश्रम भी उत्तरोत्तर श्रेष्ठ कहे गये हैं। उन आश्रमोंके जो शास्त्रोक्त नियम हैं, उन सबका अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको पालन करना चाहिये ।। २३ ।।

कुंडेभर अनाजका संग्रह करके अथवा उज्छशिल (अनाजके एक-एक दाने बीनने अथवा उस अनाजकी बाली बीनने) के द्वारा अन्नका संग्रह करके “कापोती-वृत्ति” का आश्रय लेनेवाले पूजनीय ब्राह्मण जिस देशमें निवास करते हैं, उस राष्ट्रकी वृद्धि होती है || २४ ।।

जो मनमें तनिक भी क्लेशका अनुभव न करके गृहस्थकी इन वृत्तियोंके सहारे जीवन निभाता है, वह अपनी दस पीढ़ीके पूर्वजोंको तथा दस पीढ़ीतक आगे होनेवाली संतानोंको पवित्र कर देता है || २५ ।।

उसे चक्रधारी श्रीविष्णुके लोकके सदृश उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होती है अथवा वह जितेन्द्रिय पुरुषको मिलनेवाली श्रेष्ठ गति प्राप्त कर लेता है || २६ ।।

उदारचित्तवाले गृहस्थोंकों हितकारक स्वर्गलोक प्राप्त होता है। उनके लिये विमानसहित सुन्दर फूलोंसे सुशोभित परम रमणीय स्वर्ग सुलभ होता है, जिसका वेदोंमें वर्णन है || २७ ।।

मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले गृहस्थोंके लिये स्वर्गलोकको ही प्रतिष्ठाका स्थान नियत किया है। ब्रह्माजीने गार्हस्थ्य-आश्रमको स्वर्गकी प्राप्तिका कारण बनाया है; इसीलिये इसके पालनका विधान किया गया है। इस प्रकार क्रमश: द्वितीय आश्रम गार्हस्थ्यको पाकर मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।। २८ ।।

इस गृहस्थाश्रमके पश्चात्‌ तीसरा उससे भी श्रेष्ठ परम उदार वानप्रस्थ-आश्रम है; जो शरीरको सुखाकर अस्थिचर्मावशिष्ट कर देनेवाले तथा वनमें रहकर तपस्यापूर्वक शरीरको त्यागनेवाले वानप्रस्थियोंका आश्रय है। यह गृहस्थोंसे श्रेष्ठठटम माना गया है, अब इसके धर्म बताता हूँ, सुनो || २९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ तैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ चौवालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौवालीसवें अध्याय के श्लोक 1-31½ का हिन्दी अनुवाद)

 “वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रमके धर्म और महिमाका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--बेटा युधिष्ठिर! मनीषी पुरुषोंद्वारा जिसका विधान एवं आचरण किया गया है, उस गृहस्थ वृत्तिका मैंने तुमसे वर्णन किया। तदनन्तर व्यासजीने अपने महात्मा पुत्र शुकदेवसे जो कुछ कहा था, वह सब बताता हूँ, सुनो ।। १ ।।

वत्स! तुम्हारा कल्याण हो। गृहस्थकी इस उत्तम तृतीय वृत्तिकी भी उपेक्षा करके सहधर्मिणीके संयोगसे किये जानेवाले व्रत-नियमोंद्वारा जो खिन्न हो चुके हैं तथा वानप्रस्थआश्रमको जिन्होंने अपना आश्रय बना लिया है, सम्पूर्ण लोक और आश्रम जिनके अपने ही स्वरूप हैं, जो विचारपूर्वक व्रत और नियमोंमें प्रवृत्त हैं तथा पवित्र स्थानोंमें निवास करते हैं, ऐसे वनवासी मुनियोंका जो धर्म है, उसे बताता हूँ, सुनो || २-३ ।।

व्यासजी बोले--बेटा! गृहस्थ पुरुष जब अपने सिरके बाल सफेद दिखायी दें, शरीरमें झुर्रियाँ पड़ जायूँ और पुत्रको भी पुत्रकी प्राप्ति हो जाय तो अपनी आयुका तीसरा भाग व्यतीत करनेके लिये वनमें जाय और वानप्रस्थ-आश्रममें रहे। वह वानप्रस्थ-आश्रममें भी उन्हीं अग्नियोंका सेवन करे, जिनकी गृहस्थाश्रममें उपासना करता था। साथ ही वह प्रतिदिन देवाराधन भी करता रहे ।। ४-५ ।।

वानप्रस्थी पुरुष नियमके साथ रहे, नियमानुकूल भोजन करे। दिनके छठे भाग अर्थात्‌ तीसरे पहरमें एक बार अन्न ग्रहण करे और प्रमादसे बचा रहे। गृहस्थाश्रमकी ही भाँति अनग्निहोत्र, वैसी ही गो-सेवा तथा उसी प्रकार यज्ञके सम्पूर्ण अंगोंका सम्पादन करना वानप्रस्थका धर्म है ।। ६ ।।

वनवासी मुनि बिना जोती हुई पृथ्वीसे पैदा हुआ धान, जौ, नीवार तथा विघस (अतिथियोंको देनेसे बचे हुए) अन्नसे जीवन-निर्वाह करे। वानप्रस्थमें भी पंचमहायज्ञोंमें हविष्य वितरण करे ।। ७ ।।

वानप्रस्थ-आश्रममें भी चार प्रकारकी वृत्तियाँ मानी गयी हैं। कोई उतने ही अन्नका संग्रह करते हैं कि तुरंत बना-खाकर बर्तनको धो-माँजकर साफ कर लें अर्थात्‌ वे दूसरे दिनके लिये कुछ नहीं बचाते। कुछ दूसरे लोग वे हैं, जो एक महीनेके लिये अनाजका संग्रह करते हैं ।। ८ ।।

कोई वर्षभरके लिये और कोई बारह वर्षोंके लिये अन्नका संग्रह करते हैं। उनका यह संग्रह अतिथि-सेवा तथा यज्ञकर्मके लिये होता है ।। ९ ।।

वे वर्षकि समय खुले आकाशके नीचे और सर्दीमें पानीके भीतर खड़े रहते हैं। जब गर्मी आती है, तब पंचाग्निसे शरीरको तपाते हैं और सदा स्वल्प भोजन करनेवाले होते हैं ।। १० ।।

वानप्रस्थी महात्मा जमीनपर लोट-पोट करते, पंजोंके बल खड़े होते, एक स्थानपर आसन लगाकर बैठते तथा तीनों काल स्नान और संध्या करते हैं ।। ११ ।।

कोई दाँतोंसे ही ओखलीका काम लेते हैं, अर्थात्‌ कच्चे अन्नको चबा-चबाकर खाते हैं। दूसरे लोग पत्थरपर कूटकर भोजन करते हैं और कोई-कोई शुक्लपक्ष या कृष्णपक्षमें एक बार जौका औटाया हुआ माँड़ पीकर रह जाते हैं अथवा समयानुसार जो कुछ मिल जाय वही खाकर जीवन-निर्वाह करते हैं || १२३ ।।

वानप्रस्थ-धर्मका आश्रय लेकर कोई कन्द-मूलसे और कोई-कोई दृढ़ व्रतका पालन करते हुए फूलोंसे ही धर्मानुकूल जीविका चलाते हैं ।। १३ $ ।।

उन मनीषी पुरुषोंके लिये ये तथा और भी बहुत-से नाना प्रकारके नियम शास्त्रोंमें बताये गये हैं। चौथे संन्यास-आश्रममें विहित जो उपनिषद्‌-प्रतिपादित शाम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधानरूप धर्म है, वह सभी आश्रमोंके लिये साधारण माना गया है, उसका पालन सभी आश्रमवालोंको करना चाहिये; किंतु चौथे आश्रम संन्यासका जो विशेष धर्म है, वह वानप्रस्थ और गृहस्थसे भिन्न है ।। १४-१५ ।।

तात! इस युगमें भी सर्वार्थदर्शी ब्राह्मणोंने इस वानप्रस्थ-धर्मका पालन एवं प्रसार किया। अगस्त्य, सप्तर्षिगण, मधुच्छन्द, अघमर्षण, सांकृति, सुदिवा, तण्डि, यथावास, अकृतश्रम, अहोवीर्य, काव्य (शुक्राचार्य), ताण्ड्य, मेधातिथि, बुध, शक्तिशाली कर्ण निर्वाक, शून्यपाल और कृतश्रम--इन सबने इस धर्मका पालन किया, जिससे ये सभी स्वर्गलोकको प्राप्त हुए ।। १६--१८ ।।

तात! जिनकी तपस्या उग्र है, जिन्होंने धर्मकी निपुणताकों देखा और अनुभव किया है, उन ऋषियोंके यायावर नामक गण भी वानप्रस्थी हैं, जिन्हें धर्मके फलका प्रत्यक्ष अनुभव है। वे तथा और भी असंख्य वनवासी ब्राह्मण, बालखिल्य और सैकत नामवाले दूसरे मुनि भी वैखानस [वानप्रस्थ) धर्मका पालन करनेवाले हैं ।।

ये सब ब्राह्मण प्रायः उपवास आदि क्लेशदायक कर्म करनेके कारण लौकिक सुखसे रहित थे। सदा धर्ममें तत्पर रहते और इन्द्रियोंको वशमें रखते थे। उन्हें धर्मके फलका प्रत्यक्ष अनुभव था। वे सब-के-सब वानप्रस्थी थे। इस लोकसे जानेपर आकाशकमें वे नक्षत्र भिन्न, दुर्धर्ष ज्योतिर्मय तारोंके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं ।।

इस प्रकार वानप्रस्थकी अवधि पूरी कर लेनेके बाद जब आयुका चौथा भाग शेष रह जाय, वृद्धावस्थासे शरीर दुर्बल हो जाय और रोग सताने लगें तो उस आश्रमका परित्याग कर दे (और संन्यास-आश्रम ग्रहण कर ले)। संन्यासकी दीक्षा लेते समय एक दिनमें पूरा होनेवाला यज्ञ करके अपना सर्वस्व दक्षिणामें दे डाले ।।

फिर आत्माका ही यजन, आत्मामें ही रत होकर आत्मामें ही क्रीडा करे। सब प्रकारसे आत्माका ही आश्रय ले। अग्निहोत्रकी अग्नियोंको आत्मामें ही आरोपित करके सम्पूर्ण संग्रह-परिग्रहको त्याग दे और तुरंत सम्पन्न किये जानेवाले ब्रह्मयज्ञ आदि यज्ञों तथा इष्टियोंका सदा ही मानसिक अनुष्ठान करता रहे। ऐसा तबतक करे, जबतक कि याज्ञिकोंके कर्ममय यज्ञसे हटकर आत्मयज्ञका अभ्यास न हो जाय ।। २४-२५ ।।

आत्मयज्ञका स्वरूप इस प्रकार है, अपने भीतर ही तीनों अग्नियोंकी विधिपूर्वक स्थापना करके देहपात होनेतक प्राणाग्निहोत्रकी- विधिसे भलीभाँति यजन करता रहे। यजुर्वेदके *प्राणाय स्वाहा” आदि मन्त्रोंका उच्चारण करता हुआ पहले अन्नके पाँच-छ: ग्रास ग्रहण करे (फिर आचमनके पश्चात) शेष अन्नकी निन्‍्दा न करते हुए मौनभावसे भोजन करे ।। २६ |।

तदनन्तर वानप्रस्थ मुनि केश, लोम और नख कटाकर कर्मोंसे पवित्र हो वानप्रस्थआश्रमसे पुण्यमय संन्यास-आश्रममें प्रवेश करे || २७ ।।

जो ब्राह्मण सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदान देकर संन्यासी हो जाता है, वह मरनेके पश्चात्‌ तेजोमय लोकमें जाता है और अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। २८ ।।

आत्मज्ञानी पुरुष सुशील, सदाचारी और पापरहित होता है। वह इहलोक और परलोकके लिये भी कोई कर्म करना नहीं चाहता। क्रोध, मोह, संधि और विग्रहका त्याग करके वह सब ओरसे उदासीन-सा रहता है ।।

जो अहिंसा आदि यमों और शौच-संतोष आदि नियमोंका पालन करनेमें कभी कष्टका अनुभव नहीं करता, संन्यास-आश्रमका विधान करनेवाले शास्त्रके सूत्रभूत वचनोंके अनुसार त्यागमयी अग्निमें अपने सर्वस्वकी आहुति दे देनेके लिये निरन्तर उत्साह दिखाता है, उसे इच्छानुसार गति (मुक्ति) प्राप्त होती है। ऐसे जितेन्द्रिय एवं धर्मपरायण आत्मज्ञानीकी मुक्तिके विषयमें तनिक भी संदेहके लिये स्थान नहीं है || ३० ।।

जो वानप्रस्थ-आश्रमसे उत्कृष्ट तथा अपने सदगुणोंके कारण अति ही श्रेष्ठ है, जो पूर्वोक्त तीनों आश्रमोंसे ऊपर है, जिसमें शम आदि गुणोंका अधिक विकास होता है, जो सबसे श्रेष्ठ और सबकी परम गति है, उस सर्वोत्तम चतुर्थ आश्रमका यद्यपि वर्णन किया गया है, तथापि पुनः विशेषरूपसे उसका प्रतिपादन करता हूँ; तुम ध्यान देकर सुनो || ३१ |।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका ३ “लोक मिलाकर कुल ३१½ “लोक हैं)

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  • ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा--ये प्राणाग्निहोत्रके पाँच मन्त्र हैं, भोजन आरम्भ करते समय पहले आचमन करके इनमेंसे एक-एक मन्त्रको पढ़कर एक-एक ग्रास अन्न मुँहमें डाले। इस प्रकार पाँच ग्रास पूरे होनेपर पुन: आचमन कर ले। यही प्राणाग्निहोत्र कहलाता है।


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ पैतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पैतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

 “संन्यासीके आचरण और ज्ञानवान्‌ संन्यासीकी प्रशंसा”

शुकदेवजीने पूछा--पिताजी! ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमोंमें जैसे शास्त्रोक्त नियमके अनुसार चलना आवश्यक है, उसी प्रकार इस वानप्रस्थ आश्रममें भी शास्त्रोक्त नियमका पालन करते हुए चलना चाहिये। यह सब तो मैंने सुन लिया। अब मैं यह जानना चाहता हूँ, जो जानने योग्य परबत्रह्म परमात्माको पाना चाहता हो, उसे अपनी शक्तिके अनुसार उस परमात्माका चिन्तन कैसे करना चाहिये? ।। १ ।।

व्यासजीने कहा--बेटा! ब्रह्मचर्य और गृहस्थाश्रमके धर्मोद्वारा चित्तका संस्कार (शोधन) करनेके अनन्तर मुक्तिके लिये जो वास्तविक कर्तव्य है, उसे बताता हूँ, तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। २ ।।

पंक्तिक्रमसे स्थित पूर्वोक्त तीन आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थमें चित्तके रागद्वेष आदि दोषोंको पकाकर--उन्हें नष्ट करके शीघ्र ही सर्वोत्तम चतुर्थ आश्रम संन्यासको ग्रहण कर ले ।। ३ ।।

बेटा! तुम इस संन्यास-धर्मके नियमोंको सुनो और उन्हें अभ्यासमें लाकर उसीके अनुसार बर्ताव करो। संन्यासीको चाहिये कि वह सिद्धि प्राप्त करनेके लिये किसीको साथ न लेकर अकेला ही संन्यास-धर्मका पालन करे ।। ४ ।।

जो आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करके एकाकी विचरता रहता है, वह सर्वव्यापी होनेके कारण न तो स्वयं किसीका त्याग करता है और न दूसरे ही उसका त्याग करते हैं। संन्यासी कभी न तो अग्निकी स्थापना करे और न घर या मठ ही बनाकर रहे; केवल भिक्षा लेनेके लिये ही गाँवमें जाय ।। ५ ।।

वह दूसरे दिनके लिये अन्नका संग्रह न करे। चित्त-वृत्तियोंको एकाग्र करके मौनभावसे रहे। हलका और नियमानुकूल भोजन करे तथा दिन-रातमें केवल एक ही बार अन्न ग्रहण करे ।। ६ ।।

भिक्षापात्र एवं कमण्डलु रखे। वृक्षकी जड़में सोये या निवास करे। जो देखनेमें सुन्दर न हो, ऐसा वस्त्र धारण करे। किसीको साथ न रखे और सब प्राणियोंकी उपेक्षा कर दे। ये सब संन्यासीके लक्षण हैं ।। ७ ।।

जैसे डरे हुए हाथी भागकर किसी जलाशयमें प्रवेश कर जाते हैं, फिर सहसा निकलकर अपने पूर्व स्थानको नहीं लौटते उसी प्रकार जिस पुरुषमें दूसरोंके कहे हुए निन्दात्मक या प्रशंसात्मक वचन समा जाते हैं, परंतु प्रत्युत्तरके रूपमें वे वापस पुनः नहीं लौटते अर्थात्‌ जो किसीकी की हुई निन्दा या स्तुतिका कोई उत्तर नहीं देता, वही संन्यासआश्रममें निवास कर सकता है ।।

संन्यासी किसीकी निन्‍दा करनेवाले पुरुषकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं, कभी किसीका निन्दात्मक वचन सुने नहीं तथा विशेषत: ब्राह्मणोंके प्रति किसी प्रकार न कहने योग्य बात न कहे ।। ९ |।

जिससे ब्राह्मणोंका हित हो, वैसा ही वचन सदा बोले। अपनी निन्दा सुनकर भी चुप रह जाय--इस मौनावलम्बनको भवरोगसे छूटनेकी दवा समझकर इसका सेवन करता रहे || १० ।।

जो सदा अपने सर्वव्यापी स्वरूपसे स्थित होनेके कारण अकेले ही सम्पूर्ण आकाभमें परिपूर्ण-सा हो रहा है तथा जो असंग होनेके कारण लोगोंसे भरे हुए स्थानको भी सूना समझता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण (ब्रह्मज्ञानी) मानते हैं ।। ११ ।।

जो जिस किसी भी (वस्त्र-वल्कल आदि) वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता है, समयपर जो भी रूखा-सूखा मिल जाय, उसीसे भूख मिटा लेता है और जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्रह्मज्ञानी समझते हैं || १२ ।।

जो जनसमुदायको सर्प-सा समझकर उसके निकट जानेसे डरता है, स्वादिष्ट भोजनजनित तृप्तिको नरक-सा मानकर उससे दूर रहता है और स्त्रियोंको मुर्दोके समान समझकर उनकी ओरसे विरक्त होता है, उसे देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं || १३ ।।

जो सम्मान प्राप्त होनेपर हर्षित, अपमानित होनेपर कुपित नहीं होता तथा जिसने सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय दान कर दिया है, उसे ही देवता लोग ब्रह्मज्ञानी मानते हैं ।। १४ ।।

संन्‍न्यासी न तो जीवनका अभिनन्दन करे और न मृत्युका ही। जैसे सेवक स्वामीके आदेशकी प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार उसे भी कालकी प्रतीक्षा करनी चाहिये ।। १५ ।।

संन्यासी अपने चित्तको राग-द्वेष आदि दोषोंसे दूषित न होने दे। अपनी वाणीको निन्दा आदि दोषोंसे बचावे और सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर सर्वथा शत्रुहीन हो जाय। जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो उसे किसीसे क्या भय हो सकता है? ।। १६ ।।

जिसे सम्पूर्ण प्राणियोंसे अभय प्राप्त है तथा जिसकी ओरसे किसी भी प्राणीको कोई भय नहीं है, उस मोहमुक्त पुरुषको किसीसे भी भय नहीं होता ।।

जैसे पैरोंद्वारा चलनेवाले अन्य प्राणियोंके सम्पूर्ण पदचिह्न हाथीके पदचिह्ममें समा जाते हैं, उसी प्रकार सारा धर्म और अर्थ अहिंसाके अन्तर्भूत है। जो किसीकी हिंसा नहीं करता, वह सदा अमृत (जन्म और मृत्युके बन्धनसे मुक्त) होकर निवास करता है ।। १८-१९ ||

जो हिंसा न करनेवाला, समदर्शी, सत्यवादी, धैर्यवान्‌, जितेन्द्रिय और सम्पूर्ण प्राणियोंको शरण देनेवाला है, वह अत्यन्त उत्तम गति पाता है || २० ।।

इस प्रकार जो ज्ञानानन्दसे तृप्त होकर भय और कामनाओंसे रहित हो गया है, उसपर मृत्युका जोर नहीं चलता। वह स्वयं ही मृत्युको लाँध जाता है || २१ ।।

जो सब प्रकारकी आसक्तियोंसे छूटकर मुनिवृत्तिसे रहता है, आकाशकी भाँति निर्लेप और स्थिर है, किसी भी वस्तुको अपनी नहीं मानता, एकाकी विचरता और शान्तभावसे रहता है, उसे देवता ब्रह्मवेत्ता मानते हैं ।।

जिसका जीवन धर्मके लिये और धर्म भगवान्‌ श्रीहरिके लिये होता है, जिसके दिन और रात धर्म-पालनमें ही व्यतीत होते हैं, उसे देवता ब्रह्मज्ञ मानते हैं ।।

जो कामनाओंसे रहित तथा सब प्रकारके आरम्भोंसे रहित है, नमस्कार और स्तुतिसे दूर रहता तथा सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त होता है, उसे ही देवता ब्रह्मज्ञानी मानते हैं ।। २४ ।।

सम्पूर्ण प्राणी सुखमें प्रसन्न होते और दुःखसे बहुत डरते हैं; अतः प्राणियोंपर भय आता देखकर जिसे खेद होता है, उस श्रद्धालु पुरुषको भयदायक कर्म नहीं करना चाहिये।।

इस जगतमें जीवोंको अभयकी दक्षिणा देना सब दानोंसे बढ़कर है। जो पहलेसे ही हिंसाका त्याग कर देता है, वह सब प्राणियोंसे निर्भय होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। २६ ।।

जो संन्यासी खोले हुए मुखमें “प्राणाय स्वाहा” इत्यादि मन्त्रोंसे प्राणोंके लिये अन्नकी आहुति नहीं देता, अपितु प्राणों (इन्द्रिय-मन आदि) को ही आत्मामें होम देता--लीन करता है, उसका मस्तक आदि सारा अंगसमुदाय तथा किया हुआ और नहीं किया हुआ कर्मसमूह अग्निका ही अवयव हो जाता है अर्थात्‌ वह उस अग्निका स्वरूप हो जाता है, जो सृष्टिके आरम्भसे ही प्राणियोंके नाभिस्थान--उदरमें जठरानलरूपमें विराजमान है तथा सम्पूर्ण जगत्‌का आश्रय है। उस वैश्वानर (अग्नि)-ने इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है || २७ |।

आत्मयज्ञ करनेवाला ज्ञानी पुरुष नाभिसे लेकर हृदयतकका जो प्रादेशमात्र स्थान है, उसमें प्रकट हुई जो चैतन्यज्योति है, उसीमें समस्त प्राणोंकी--इन्द्रिय, मन आदिकी आहुति देता है अर्थात्‌ समस्त प्राणादिका आत्मामें लय करता है। उसका प्राणाग्निहोत्र यद्यपि अपने शरीरके भीतर ही होता है तथापि वह सर्वात्मा होनेके कारण उसके द्वारा देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकोंमें प्राणाग्निहोत्रकर्म सम्पन्न हो जाता है; अर्थात्‌ उसके प्राणोंकी तृप्तिसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके प्राण तृप्त हो जाते हैं || २८ ।।

जो सम्पूर्ण जगत्‌में अपने चिन्मयस्वरूपसे प्रकाशित होता है, तीन धातु (वर्ण-अकार, उकार, मकार) अर्थात्‌ प्रण० जिसका वाचक है, जो सत्त्व आदि तीनों गुणोंमें--त्रिगुणमयी मायामें उसके नियन्तारूपसे विद्यमान है तथा जिसके जगत्‌-सम्बन्धी व्यापार वृक्षके सुन्दर पत्तोंक समान विस्तारको प्राप्त हुए हैं, उस अन्तर्यामी पुरुषको तथा उसकी उत्तम परब्रह्मस्वरूपताको जो जानते हैं, वे सम्पूर्ण लोकोंमें सम्मानित होते हैं और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण देवता उनके शुभकर्मकी प्रशंसा करते हैं || २९ ।।

सम्पूर्ण वेदशास्त्र, ज्ञेय वस्तु (आकाश आदि भूत और भौतिक जगत), समस्त विधि (कर्मकाण्ड), निरुक्त (शब्दप्रमाणगम्पय परलोक आदि) और परमार्थता (आत्माकी सत्यस्वरूपता)--यह सब कुछ शरीरके भीतर विद्यमान आत्मामें ही प्रतिष्ठित है। ऐसा जो जानता है, उस सर्वात्मा ज्ञानी पुरुषकी सेवाके लिये देवता भी सदा लालायित रहते हैं ।। ३० ।।

जो पृथ्वीपर रहकर भी उसमें आसक्त नहीं है, अनन्त आकाशमें अप्रमेयभावसे स्थित है, जो हिरण्मय (चिन्मय ज्योतिस्वरूप), अण्डज--्रह्माण्डके भीतर प्रादुर्भूत और अण्डपिण्डात्मक शरीरके मध्यभागमें स्थित हृदय-कमलके आसनपर, भोग्यात्मा (शरीर) के अन्तर्गत हृदयाकाशमें जीवरूपसे विराजमान है; जिसमें अनेक अंगदेवता छोटे-छोटे पंखोंके समान शोभा पाते हैं तथा जो मोद और प्रमोद नामक दो प्रमुख पंखोंसे शोभायमान है; उस सुवर्णमय पक्षीरूप जीवात्मा एवं ब्रह्मको जो जानता है, वह ज्ञानकी तेजोमयी किरणोंसे प्रकाशित होता है ।। ३१ ।।

जो निरन्तर घूमता रहता है, कभी जीर्ण या क्षीण नहीं होता, जो लोगोंकी आयुको क्षीण करता है, छः ऋतुएँ जिसकी नाभि हैं, बारह महीने जिसके अरे हैं, दर्शपौर्णमास आदि जिसके सुन्दर पर्व हैं; यह सम्पूर्ण विश्व जिसके मुँहमें भक्ष्य पदार्थके समान जाता है, वह कालचक्र बुद्धिरूपी गुहामें स्थित है (उसे जो जानता है, देवगण उसके शुभकर्मकी प्रशंसा करते हैं) ।। ३२ ।।

जो मनको प्रसन्नता प्रदान करता है, इस जगत्‌का शरीर है अर्थात्‌ सम्पूर्ण जगत्‌ जिसके विराट्‌ शरीरमें विराजित है, वह परमात्मा इस जगत्‌में सब लोकोंको घेरे हुए स्थित है। उस परमात्मामें ध्यानद्वारा स्थापित किया हुआ मन, इस देहमें स्थित देवताओं-प्राणोंको तृप्त करता है और वे तृप्त हुए प्राण उस ज्ञानीके मुखको ज्ञानामृतसे तृप्त करते हैं || ३३ ।।

जो ब्रह्मज़्ानमय तेजसे सम्पन्न और पुरातन नित्य-ब्रह्मपरायण है, वह भिक्षु अनन्त एवं निर्भय लोकोंको प्राप्त होता है। जिससे जगतके प्राणी कभी भयभीत नहीं होते, वह भी संसारके प्राणियोंसे कभी भय नहीं पाता है ।।

जो न तो स्वयं निन्दनीय है और न दूसरोंकी निन्दा करता है, वही ब्राह्मण परमात्माका दर्शन कर सकता है। जिसके मोह और पाप दूर हो गये हैं, वह इस लोक ओर परलोकके भोगोंमें आसक्त नहीं होता ।। ३५ ।।

ऐसे संन्यासीको रोष और मोह नहीं छू सकते। वह मिट्टीके ढेले और सोनेको समान समझता है। पाँच कोशोंका अभिमान त्याग देता है और संधि-विग्रह तथा निन्दा-स्तुतिसे रहित हो जाता है। उसकी दृष्टिमें न कोई प्रिय होता है न अप्रिय। वह संन्यासी उदासीनकी भाँति सर्वत्र विचरता रहता है || ३६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ पैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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