सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-41 का हिन्दी अनुवाद)
“ध्यानके सहायक योग, उनके फल और सात प्रकारकी धारणाओंका वर्णन तथा सांख्य एवं योगके अनुसार ज्ञानद्वारा मोक्षकी प्राप्ति”
व्यासजी कहते हैं--वत्स! मनुष्य जिस प्रकार डूबता-उतराता हुआ जलके प्रवाहमें बहता रहता है और यदि संयोगवश कोई नौका मिल गयी तो उसकी सहायतासे पार लग जाता है, उसी प्रकार संसार-सागरमें डूबता-उतराता हुआ मानव यदि इस संकटसे मुक्त होना चाहे तो उसे ज्ञानरूपी नौकाका आश्रय लेना चाहिये ।। १ ।।
जिन्हें बुद्धिद्वारा तत्त्वका पूर्ण निश्चय हो गया है, वे धीर पुरुष अपनी ज्ञाननौकाद्वारा दूसरे अज्ञानियोंको भी भवसागरसे पार कर देते हैं, परंतु जो अज्ञानी हैं वे न तो दूसरोंको तार सकते हैं और न अपना ही किसी प्रकार उद्धार कर पाते हैं || २ ।।
समाहितचित्त मुनिको चाहिये कि वह हृदयके राग आदि दोषोंको नष्ट करके योगमें सहायता पहुँचानेवाले देश, कर्म, अनुराग, अर्थ, उपाय, अपाय, निश्चय, चक्षुष, आहार, संहार, मन और दर्शन--इन बारह योगोंका आश्रय ले ध्यानयोगका अभ्यास करे" ।। ३६ ।।
जो उत्तम ज्ञान प्राप्त करना चाहता हो, उसे बुद्धिके द्वारा मन और वाणीको जीतना चाहिये तथा जो अपने लिये शान्ति चाहे, उसे ज्ञानद्वारा बुद्धिको परमात्मामें नियन्त्रित करना चाहिये ।। ४३ ।।
मनुष्य अत्यन्त दारुण हो या सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञाता हो अथवा ब्राह्मण होकर भी वैदिक ज्ञानसे शून्य हो अथवा धर्मपरायण एवं यज्ञशील हो या घोर पापाचारी हो अथवा पुरुषोंमें सिंहके समान शूरवीर हो या बड़े कष्टसे जीवन धारण करता हो, वह यदि इन बारह योगोंका भलीभाँति साक्षात्कार अर्थात् ज्ञान कर ले तो जरा-मृत्युके परम दुर्गम समुद्रसे पार हो जाता है ।। ५--७ ।।
इस प्रकार सिद्धिपर्यन्त इस योगका अभ्यास करनेवाला पुरुष यदि ब्रह्मका जिज्ञासु हो तो वेदोक्त सकाम कर्मोकी सीमाको लाँघ जाता है ।। ८ ।।
यह योग एक सुन्दर रथ है। धर्म ही इसका पिछला भाग या बैठक है। लज्जा आवरण है। पूर्वोक्त उपाय और अपाय इसका कूबर है। अपानवायु धुरा है। प्राणवायु जूआ हैं। बुद्धि आयु है। जीवन बन्धन है। चैतन्य बन्धुर है। सदाचार-ग्रहण इस रथकी नेमि हैं। नेत्र, त्वचा, प्राण और श्रवण इसके वाहन हैं। प्रज्ञा नाभि है। सम्पूर्ण शास्त्र चाबुक है। ज्ञान सारथि है। क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) इसपर रथी बनकर बैठा हुआ है। यह रथ धीरे-धीरे चलनेवाला है। श्रद्धा और इन्द्रिययमन इस रथके आगे-आगे चलनेवाले रक्षक हैं। त्यागरूपी सूक्ष्म गुण इसके अनुगामी (पृष्ठ-रक्षक) हैं। यह मंगलमय रथ ध्यानके पवित्र मार्गपर चलता है। इस प्रकार यह जीवयुक्त दिव्य रथ ब्रह्मलोकमें विराजमान होता है। अर्थात् इसके द्वारा जीवात्मा परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है ।। ९--१२ ||
इस प्रकार योगरथपर आरूढ़ हो साधनकी इच्छा रखनेवाले तथा अविनाशी परब्रह्म परमात्माको तत्काल प्राप्त करनेकी कामनावाले साधकको जिस उपायसे शीघ्र सफलता मिलती है, वह उपाय मैं बता रहा हूँ ।।
साधक वाणीका संयम करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, बुद्धि और अहंकार-सम्बन्धी सात धारणाओंको सिद्ध करता है। इनके विषयों (गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, अहंवृत्ति और निश्चय) से सम्बन्धित सात प्रधारणाएँ इनकी पार्श्ववर्तिनी एवं पृष्ठवर्तिनी हैं ।।
साधक क्रमशः पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और बुद्धिके ऐश्वर्यपर अधिकार कर लेता है। इसके बाद वह क्रमपूर्वक अव्यक्त ब्रह्मका ऐश्वर्य भी प्राप्त कर लेता है- ।। १५ ।।
अब योगाभ्यासमें प्रवृत्त हुए योगियोंमेंसे जिस योगीको ये आगे बताये जानेवाले पृथ्वीजय आदि ऐश्वर्य जिस प्रकार प्राप्त होते हैं; वह बताता हूँ तथा धारणापूर्वक ध्यान करते समय ब्रह्म-प्राप्तिका अनुभव करनेवाले योगीको जो सिद्धि प्राप्त होती है, उसका भी वर्णन करता हूँ ।। १६ ।।
साधक जब स्थूल देहके अभिमानसे मुक्त होकर ध्यानमें स्थित होता है, उस समय सूक्ष्मदृष्टिसे युक्त होनेके कारण उसे कुछ इस तरहके रूप (चिह्न) दिखायी पड़ते हैं। प्रारम्भमें पृथ्वीकी धारणा करते समय मालूम होता है कि शिशिरकालीन कुहरेके समान कोई सूक्ष्म वस्तु सम्पूर्ण आकाशको आच्छादित कर रही है ।। १७ ।।
इस प्रकार देहाभिमानसे मुक्त हुए योगीके अनुभवका यह पहला रूप है। जब कुहरा निवृत्त हो जाता है, तब दूसरे रूपका दर्शन होता है ।। १८ ।।
वह सम्पूर्ण आकाशमें जल-ही-जल-सा देखता है तथा आत्माको भी जलरूप अनुभव करता है (यह अनुभव जलतत्त्वकी धारणा करते समय होता है)। फिर जलका लय हो जानेपर अग्नितत्त्वकी धारणा करते समय उसे सर्वत्र अग्नि प्रकाशित दिखायी देती है ।। १९ ।।
उसके भी लय हो जानेपर योगीको आकाशमें सर्वत्र फैले हुए वायुका ही अनुभव होता है। उस समय वृक्ष और पर्वत आदि अपने समस्त शस्त्रोंको पी जानेके कारण वायुकी “पीतशस्त्र' संज्ञा हो जाती है अर्थात् पृथ्वी, जल और तेजरूप समस्त पदार्थोकी निगलकर वायु केवल आकाशगमें ही आन्दोलित होता रहता है और साधक स्वयं भी ऊनके धागेके समान अत्यन्त छोटा और हलका होकर अपनेको निराधार आकाशमें वायुके साथ ही स्थित मानता है || २० ।।
तदनन्तर तेजका संहार और वायु-तत्त्वपर विजय प्राप्त होनेके पश्चात् वायुका सूक्ष्म रूप स्वच्छ आकाशगमें लीन हो जाता है और केवल नीलाकाशमात्र शेष रह जाता है। उस अवस्थामें ब्रह्मभावको प्राप्त होनेकी इच्छा रखनेवाले योगीका चित्त अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है, ऐसा बताया गया है। (उसे अपने स्थूल रूपका तनिक भी भान नहीं रहता। यही वायुका लय और आकाशतत्त्वपर विजय कहलाता है) || २१ ।।
इन सब लक्षणोंके प्रकट हो जानेपर योगीको जो-जो फल प्राप्त होते हैं, उन्हें मुझसे सुनो। पार्थिव ऐश्वर्यकी सिद्धि हो जानेपर योगीमें सृष्टि करनेकी शक्ति आ जाती है || २२ ।।
वह प्रजापतिके समान क्षोभरहित होकर अपने शरीरसे प्रजाकी सृष्टि कर सकता है। जिसको वायुतत्त्व सिद्ध हो जाता है, वह बिना किसीकी सहायताके हाथ-पैर, अँगूठे अथवा अंगुलिमात्रसे दबाकर पृथ्वीको कम्पित कर सकता है-ऐसा सुननेमें आया है | २३ ।।
आकाशको सिद्ध करनेवाला पुरुष आकाशमें आकाशके ही समान सर्वव्यापी हो जाता है। वह अपने शरीरको अन्तर्धान करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। जिसका जलतत्त्वपर अधिकार होता है, वह इच्छा करते ही बड़े-बड़े जलाशयोंको पी जाता है || २४ ।।
अग्नितत्त्वको सिद्ध कर लेनेपर वह अपने शरीरको इतना तेजस्वी बना लेता है कि कोई उसकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता और न उसके तेजको बुझा ही सकता है। अहंकारको जीत लेनेपर पाँचों भूत योगीके वशमें हो जाते हैं || २५ ।।
पजञ्चभूत और अहंकार--इन छ: तत्त्वोंका आत्मा है बुद्धि। उसको जीत लेनेपर सम्पूर्ण ऐश्वर्योंकी प्राप्ति हो जाती है तथा उस योगीको निर्दोष प्रतिभा (विशुद्ध तत्त्वज्ञान) पूर्ण रूपसे प्राप्त हो जाती है || २६ ।।
उपर्युक्त सप्त पदार्थोंका कार्यभूत व्यक्त जगत् अव्यक्त परमात्मामें ही विलीन हो जाता है, क्योंकि उन्हीं परमात्मासे यह जगत् उत्पन्न होता है और व्यक्त नाम धारण करता है || २७ ।।
वत्स! तुम सांख्यदर्शनमें वर्णित अव्यक्तविद्याका विस्तारपूर्वक मुझसे श्रवण करो। सर्वप्रथम सांख्यशास्त्रमें कथित व्यक्तविद्याको मुझसे समझो || २८ ।।
सांख्य और पातञ्जलयोग--इन दोनों दर्शनोंमें समानभावसे पचीस तत्त्वोंका प्रतिपादन किया गया है-। इस विषयमें जो विशेष बात है, वह मुझसे सुनो ।। २९ |।
जन्म, वृद्धि, जरा और मरण--इन चार लक्षणोंसे युक्त जो तत्त्व है, उसीको व्यक्त कहते हैं || ३० ।।
जो तत्त्व इसके विपरीत हैं अर्थात् जिसमें जन्म आदि चारों विकार नहीं हैं, उसे अव्यक्त कहा गया है। वेदों और सिद्धान्तप्रतिपादक शास्त्रोंमें उस अव्यक्तके दो भेद बताये गये हैं--जीवात्मा और परमात्मा || ३१ ।।
अव्यक्त होते हुए भी जीवात्मा व्यक्तके सम्पर्कसे जन्म, वृद्धि, जरा और मृत्यु--इन चार लक्षणोंसे युक्त तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष--इन चार पुरुषार्थोंसे सम्बन्धित कहा जाता है। दूसरा अव्यक्त परमात्मा ज्ञानस्वरूप है। व्यक्त (जडवर्ग) की उत्पत्ति उसी अव्यक्त (परमात्मा) से होती है। व्यक्तको सत्त्व (जडवर्ग--श्षेत्र) तथा अव्यक्त जीवात्माको क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। इस प्रकार इन दोनोंहीका वर्णन किया गया है। वेदोंमें भी पूर्वोक्त दो आत्मा बताये गये हैं। विषयोंमें आसक्त हुआ जीवात्मा जब आसक्तिरहित होकर विषयोंसे निवृत्त हो जाता है, तब वह मुक्त कहलाता है। सांख्यवादियोंके मतमें यही मोक्षका लक्षण है || ३२-३३ ।।
जिसने ममता और अहंकारका त्याग कर दिया है, जो शीत, उष्ण आदि द्न्दोंको समानभावसे सहता है, जिसके संशय दूर हो गये हैं, जो कभी क्रोध और द्वेष नहीं करता, झूठ नहीं बोलता, किसीकी गाली सुनकर और मार खाकर भी उसका अहित नहीं सोचता, सबपर मित्रभाव ही रखता है, जो मन, वाणी और कर्मसे किसी जीवको कष्ट नहीं पहुँचाता और समस्त प्राणियोंपर समानभाव रखता है, वही योगी ब्रह्मभावको प्राप्त होता है ।। ३४-३५ ६ ।।
जो किसी वस्तुकी न तो इच्छा करता है, न अनिच्छा ही करता है, जीवननिर्वाहमात्रके लिये जो कुछ मिल जाता है, उसीपर संतोष करता है, जो निर्लोभ, व्यथारहित और जितेन्द्रिय है, जिसको न तो कुछ करनेसे प्रयोजन है और न कुछ न करनेसे ही, जिसकी इन्द्रियाँ और मन कभी चंचल नहीं होते, जिसका मनोरथ पूर्ण हो गया है, जो समस्त प्राणियोंपर समान दृष्टि और मैत्रीभाव रखता है, मिट्टीके ढेले, पत्थर और स्वर्णको एक-सा समझता है, जिसकी दृष्टिमें प्रिय और अप्रियका भेद नहीं है, जो धीर है और अपनी निन्दा तथा स्तुतिमें सम रहता है, जो सम्पूर्ण भोगोंमें स्पृहारहित है, जो दृढ़तापूर्वक ब्रह्मचर्य-व्रतमें स्थित है तथा जो सब प्राणियोंमें हिंसाभावसे रहित है, ऐसा सांख्ययोगी (ज्ञानी) संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। ३६--३९ ।।
योगी जिस प्रकार और जिन कारणोंसे योगके फल-स्वरूप मोक्ष लाभ करते हैं, अब उन्हें बताता हूँ सुनो। जो परवैराग्यके बलसे योगजनित ऐश्वर्यको लाँघकर उसकी सीमासे बाहर निकल जाता है, वही मुक्त होता है || ४० ।।
बेटा! यह तुम्हारे निकट मैंने भावशुद्धिसे प्राप्त होनेवाली बुद्धिका वर्णन किया है। जो उपर्युक्तरूपसे साधना करके द्वन्दों से रहित हो जाता है, वही ब्रह्मभावको प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।। ४१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- ध्यानयोगके साधकको ऐसे स्थानपर आसन लगाना चाहिये, जो समतल और पवित्र हो। निर्जन वन, गुफा या ऐसा ही कोई एकान्त स्थान ही ध्यानके लिये उपयोगी होता है। ऐसे स्थानपर आसन लगानेको देशयोग कहते हैं। आहार-विहार, चेष्टा, सोना और जागना--ये सब परिमित और नियमानुकूल होने चाहिये। यही कर्मनामक योग है। परमात्मा एवं उसकी प्राप्तिके साधनोंमें तीव्र अनुराग रखना अनुरागयोग कहलाता है। केवल आवश्यक सामग्रीको ही रखना अर्थयोग है। ध्यानोपयोगी आसनसे बैठना उपाययोग है। संसारके विषयों और सगे-सम्बन्धियोंसे आसक्ति तथा ममता हटा लेनेको अपाययोग कहते हैं। गुरु और वेदशास्त्रके वचनोंपर विश्वास रखनेका नाम निश्चययोग है। चक्षुको नासिकाके अग्रभागपर स्थिर करना चक्षुर्योग है। शुद्ध और सात्त्विक भोजनका नाम है आहारयोग। विषयोंकी ओर होनेवाली मनइन्द्रियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्तिको रोकना संहारयोग कहलाता है। मनको संकल्प-विकल्पसे रहित करके एकाग्र करना मनोयोग है। जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि होनेके समय महान् दुःख और दोषोंका वैराग्यपूर्वक दर्शन करना दर्शनयोग है। जिसे योगके द्वारा सिद्धि प्राप्त करनी हो, उसे इन बारह योगोंका अवश्य अवलम्बन करना चाहिये।
- पातज्जलयोगदर्शनमें “देशबन्धश्षित्तस्य धारणा” अर्थात् एकदेशमें चित्तको एकाग्र करना धारणा बतलाया गया है। साधक सर्वप्रथम पृथ्वीतत्त्वमें चित्तको लगावे। इस धारणासे उसका पृथ्वीतत्त्वपर अधिकार हो जाता है। फिर पृथ्वीतत्त्वको जलतत्त्वमें विलीन करके जलतत्त्वकी धारणा करे। इससे साधक जलतत्त्वका ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता है। फिर जलतत्त्वको अग्नितत्त्वमें विलीन करके अग्नितत्त्वकी धारणा करे। इससे अग्नितत्त्वपर अधिकार हो जाता है। तदनन्तर अग्निको वायुमें विलीन करके चित्तको वायुतत्त्वमें एकाग्र करे। इससे साधक वायुतत्त्वपर प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार क्रमश: वायुको आकाशमें और आकाशको मनमें तथा मनको बुद्धिमें लय करके उस-उस तत्त्वकी धारणा करे। इस प्रकार धारणाके ये सात स्तर हैं। अन्तमें बुद्धिको अव्यक्त ब्रह्ममें विलीन कर देना चाहिये।
1. सांख्य-कारिकामें बतलाया है-- मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतयः सप्त | षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष: ।। (सां० का० ३)
- मूल प्रकृति--अव्याकृत माया, महत्तत्त्व आदि प्रकृतिके सात विकार--महतत्तत्त्व, अहंकार और पज्चतम्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध), सोलह विकार--पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और प्राण), पाँच कर्मेन्द्रियाँ (वाकू, हाथ, पैर, गुदा और शिक्ष) तथा मन और पजञ्चमहाभूत (आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) एवं पुरुष, जो न प्रकृति है और न प्रकृतिका विकार ही--इस प्रकार सांख्यके अनुसार ये पचीस तत्त्व हैं।
- “विशेष--पञ्चमहाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और मन, अविशेष-पञ्चतन्मात्रा और अहंकार, लिंगमात्र--महत्तत्त्व, अलिंग--मूलप्रकृति; इस प्रकार ये चौबीस तत्त्व एवं पचीसवाँ द्रष्टा (पुरुष) है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सैतीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“सृष्टिके समस्त कारयोंमें बुद्धिकी प्रधानता और प्राणियोंकी श्रेष्ठठाके तारतम्यका वर्णन”
व्यासजी कहते हैं--वत्स! धीर पुरुषको चाहिये कि वह विवेकरूप नौकाका अवलम्बन लेकर भव-सागरमें डूबता-उतराता हुआ अर्थात् प्रत्येक परिस्थितिमें अपनी परम शान्तिके लिये वास्तविक ज्ञानके आश्रित हो जाय ।। १ ।।
शुकदेवजीने पूछा--पिताजी! जिसके द्वारा मनुष्य जन्म और मृत्यु दोनोंके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है, वह ज्ञान अथवा विद्या क्या है? वह प्रवृत्तिरूप धर्म है या निवृत्तिरूप? यह मुझे बताइये ।। २ ।।
व्यासजीने कहा--जो यह समझता है कि यह जगत् स्वभावसे ही उत्पन्न है, इसका कोई चेतन मूल कारण नहीं है, वह अज्ञानी मनुष्य व्यर्थ तर्कयुक्त बुद्धिद्वारा हेतुरहित वचनोंका बारंबार पोषण करता रहता है ।। ३ ।।
जिनकी यह मान्यता है कि निश्चित रूपसे वस्तुगत स्वभाव ही जगत्का कारण है-स्वभावसे भिन्न अन्य कोई कारण नहीं है, (किंतु इन्द्रियोंद्वारा उपलब्ध न होनेमात्र हेतुसे उनका यह मानना कि ईश्वर-जैसा कोई जगत्का कारण है ही नहीं, युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि) मूँजके भीतर स्थित दिखायी न देनेवाली सींक क्या मूँजको चीर डालनेपर उन्हें उपलब्ध नहीं होती? अपितु अवश्य होती है (उसी प्रकार समस्त जगतूमें व्याप्त परमात्मा यद्यपि इन्द्रियोंद्वारा दिखायी नहीं देता तो भी उसकी उपलब्धि दिव्य-ज्ञानके द्वारा अवश्य होती है) || ४ ।।
जो मन्दबुद्धि मानव इस नास्तिक मतका अवलम्बन करके स्वभावहीको कारण जानकर परमेश्वरकी उपासनासे निवृत्त हो जाते हैं, वे कल्याणके भागी नहीं होते ।। ५ ।।
नास्तिक लोग जो स्वभाववादका आश्रय लेकर ईश्वर और अदृष्टकी सत्ताको स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनका मोहजनित कार्य है, स्वभाववाद मूढ़ोंकी कल्पना-मात्र है। यह मानवोंको परमार्थसे वंचित करके उनका विनाश करनेके लिये ही उपस्थित किया गया है। स्वभाव और परिभावके तत्त्वका यह आगे बताया जानेवाला विवेचन सुनो ।। ६ ।।
देखा जाता है कि जगतमें बुद्धिसम्पन्न चेतन प्राणियोंद्वारा ही भूमिको जोतने आदिके कार्य, अनाजके बीजोंका संग्रह तथा सवारी, आसन और गृहनिर्माण--ये सब कार्य सदासे किये जाते हैं। यदि स्वभावसे ये कार्य हो जाते तो कोई इनमें प्रवृत्त ही न होता || ७ ।।
बेटा! चेतन प्राणी क्रीडाके लिये स्थान और रहनेके लिये घर बनाते हैं। वे ही रोगोंको पहचानकर उनपर ठीक-ठीक दवाका प्रयोग करते हैं। बुद्धिमान पुरुषोंद्वारा ही इन सब कार्योका यथावत् अनुष्ठान होता है (स्वभावसे--अपने-आप नहीं) ।। ८ ।।
बुद्धि ही धनकी प्राप्ति कराती है। बुद्धिसे ही मनुष्य कल्याणको प्राप्त होता है। एक-से लक्षणोंवाले राजाओंमें भी जो बुद्धिमें बढ़े-चढ़े होते हैं, वे ही राज्यका उपभोग और दूसरोंपर शासन करते हैं ।। ९ ।।
तात! प्राणियोंके स्थूल-सूक्ष्म या छोटे-बड़ेका भेद बुद्धिसे ही जाना जाता है। इस जगतमें सब प्राणियोंकी सृष्टि विद्यासे हुई है और उनकी परम गति विद्या ही है ।। १० ।।
संसारमें जो नाना प्रकारके जरायुज, अण्डज, स्वदेज और उद्धिज्ज-ये चतुर्विध प्राणी हैं, उन सबके जन्मकी ओर भी लक्ष्य करना चाहिये ।। ११ ।।
स्थावर प्राणियोंसे जंगम प्राणियोंको श्रेष्ठ समझना चाहिये। यह बात युक्तिसंगत भी है, क्योंकि उनमें विशेषरूपसे चेष्टा देखी जाती है, इस विशेषताके कारण जंगम प्राणियोंकी विशिष्टता स्वत: सिद्ध है ।। १२ ।।
जंगम जीवोंमें भी बहुत पैरवाले और दो पैरवाले--ये दो तरहके प्राणी होते हैं। इनमें बहुत पैरवालोंकी अपेक्षा दो पैरवाले अनेक प्राणी श्रेष्ठ बताये गये हैं ।।
दो पैरवाले जंगम प्राणी भी दो प्रकारके कहे गये हैं--पार्थिव (मुनष्य) और अपार्थिव (पक्षी)। अपार्थिवोंसे पार्थिव श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे अन्न भोजन करते हैं ।। १४ ।।
पार्थिव (मनुष्य) भी दो प्रकारके बताये गये हैं--मध्यम और अधम। उनमें मध्यम मनुष्य अधमकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे जाति-धर्मको धारण करते हैं ।। १५ ।।
मध्यम मनुष्य दो प्रकारके कहे गये हैं--धर्मज्ञ और धर्मसे अनभिज्ञ। इनमें धर्मज्ञ ही श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे कर्तव्य और अकर्त्तव्यका विवेक रखते और कर्त्तव्यका पालन करते हैं ।। १६ ।।
धर्मज्ञोंके भी दो भेद कहे गये हैं--वेदज्ञ और अवेदज्ञ। इनमें वेदज्ञ श्रेष्ठ हैं; क्योंकि उन्हींमें वेद प्रतिष्ठित है ।। १७ ।।
वेदज्ञ भी दो प्रकारके बताये गये हैं--प्रवक्ता और अप्रवक्ता। इनमें प्रवक्ता (प्रवचन करनेवाले) श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे वेदमें बताये हुए सम्पूर्ण धर्मोंकोी धारण करनेवाले होते हैं ।। १८ ।।
एवं उन्हींके द्वारा धर्म, कर्म और फलोंसहित वेदोंका ज्ञान दूसरोंको होता है। धर्मसहित सम्पूर्ण वेद प्रवक्ताओंके ही मुखसे प्रकट होते हैं || १९ ।।
प्रवक्ता भी दो प्रकारके कहे गये हैं--आत्मज्ञ और अनात्मज्ञ। इनमें आत्मज्ञ पुरुष ही श्रेष्ठ हैं; क्योंकि वे जन्म और मृत्युके तत्त्वको समझते हैं || २० ।।
जो प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप दो प्रकारके धर्मको जानता है, वही सर्वज्ञ, सर्ववेत्ता, त्यागी, सत्यसंकल्प, सत्यवादी, पवित्र और समर्थ होता है || २१ ।।
जो शब्दब्रह्म (वेद) में पारंगत होकर परब्रह्मके तत्त्वका निश्चय कर चुका है और सदा ब्रह्मज्ञानमें ही स्थित रहता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं ।।
बेटा! जो लोग ज्ञानवान् होकर बाहर और भीतर व्याप्त अधियज्ञ (परमात्मा) और अधिदैव (पुरुष) का साक्षात्कार कर लेते हैं, वे ही देवता और वे ही द्विज हैं |।
उन्हींमें यह सारा विश्व, सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। उनके माहात्म्यकी कहीं कोई तुलना नहीं है | २४ ।।
वे जन्म, मृत्यु और कर्मकी सीमाको भलीभाँति लाँधकर समस्त चतुर्विध प्राणियोंके अधीश्वर एवं स्वयम्भू होते हैं || २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्यपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दो सौ सैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अड़तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अड़तीसवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“नाना प्रकारके भूतोंकी समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्वका विवेचन, युगधर्मका वर्णन एवं कालका महत्त्व”
व्यासजी कहते हैं--बेटा! यह ब्राह्मणकी अत्यन्त प्राचीनकालसे चली आयी हुई वृत्ति है, जो शास्त्रविहित है। ज्ञानवान् मनुष्य ही सर्वत्र कर्म करता हुआ सिद्धि प्राप्त करता है।। १।।
यदि कर्ममें संशय न हो तो वह सिद्धि देनेवाला होता है। यहाँ संदेह यह होता है कि क्या यह कर्म स्वभावसिद्ध है अथवा ज्ञानजनित? ।। २ ।।
उपर्युक्त संशय होनेपर यह कहा जाता है कि यदि वह पुरुषके लिये वैदिक विधानके अनुसार कर्त्तव्य हो तो ज्ञानजन्य है, अन्यथा स्वाभाविक है। मैं युक्ति और फल-प्राप्तिके सहित इस विषयका वर्णन करूँगा, तुम उसे सुनो ।। ३ ।।
कुछ मनुष्य कर्मोमें पुरुषार्थको कारण बताते हैं। कोई-कोई दैव (प्रारब्ध अथवा भावी) की प्रशंसा करते हैं और दूसरे लोग स्वभावके गुण गाते हैं ।। ४ ।।
कितने ही मनुष्य पुरुषार्थद्वारा की हुई क्रिया, दैव और कालगत स्वभाव-इन तीनोंको कारण मानते हैं। कुछ लोग इन्हें पृथक्-पृथक् प्रधानता देते हैं अर्थात् इनमेंसे एक प्रधान है और दूसरे दो अप्रधान कारण हैं--ऐसा कहते हैं और कुछ लोग इन तीनोंको पृथक् न करके इनके समुच्चयको ही कारण बताते हैं ।। ५ ।।
कुछ कर्मनिष्ठ विचारक घट-पट आदि विषयोंके सम्बन्धमें कहते हैं कि “यह ऐसा ही है।' दूसरे कहते हैं कि यह ऐसा नहीं है।” तीसरोंका कहना है कि “ये दोनों ही सम्भव हैं अर्थात् यह ऐसा है और नहीं भी है।” अन्य लोग कहते हैं कि “ये दोनों ही मत सम्भव नहीं हैं' परंतु सत्त्वगुणमें स्थित हुए योगी पुरुष सर्वत्र समस्वरूप ब्रह्मको ही कारणरूपमें देखते हैं ।। ६ ।।
त्रेता,द्वापप तथा कलियुगके मनुष्य परमार्थके विषयमें संशयशील होते हैं; परंतु सत्ययुगके लोग तपस्वी और सत्त्वगुणी होनेके-कारण-प्रशान्त (संशयरहित) होते हैं |। ७
सत्ययुगमें सभी द्विज ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद--इन तीनोंमें भेददृष्टि न रखते हुए राग-द्वेषको मनसे हटाकर तपस्याका आश्रय लेते हैं ।। ८ ।।
जो मनुष्य तपस्यारूप धर्मसे संयुक्त हो पूर्णतया संयमका पालन करते हुए सदा तपमें ही तत्पर रहता है, वह उसीके द्वारा अपने मनसे जिन-जिन कामनाओंको चाहता है, उन सबको प्राप्त कर लेता है ।। ९ |।
तपस्यासे मनुष्य उस ब्रह्मभावको प्राप्त कर लेता है, जिसमें स्थित होकर वह सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करता है, अतः ब्रह्मभावको प्राप्त व्यक्ति समस्त प्राणियोंका प्रभु हो जाता है || १० ।।
वह ब्रह्म वेदके कर्मकाण्डोंमें गुप्तरूपसे प्रतिपादित हुआ है; अतः वेदज्ञ विद्वानोंद्वारा भी वह अज्ञात ही रहता है। किंतु वेदान्तमें उसी ब्रह्मका स्पष्टरूपसे प्रतिपादन किया गया है और निष्काम कर्मयोगके द्वारा उस ब्रह्मका साक्षात्कार किया जा सकता है | ११ ।।
क्षत्रिय आलम्भ- यज्ञ करनेवाले होते हैं, वैश्य हविष्यप्रधान यज्ञ करनेवाले माने गये हैं, शूद्र सेवारूप यज्ञ करनेवाले और ब्राह्मण जपयज्ञ करनेवाले होते हैं ।।
क्योंकि ब्राह्मण वेदोंके स्वाध्यायसे ही कृतकृत्य हो जाता है। वह और कोई कार्य करे या न करे, सब प्राणियोंके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाला होनेके कारण ही वह ब्राह्मण कहलाता है || १३ ||
सत्ययुग और त्रेतामें वेद, यज्ञ तथा वर्णाश्रम धर्म विशुद्ध रूपमें पालित होते हैं, परंतु द्वापरयुगमें लोगोंकी आयुका हास होनेके कारण ये भी क्षीण होने लगते हैं ।।
द्वापपर और कलियुगमें वेद प्रायः लुप्त हो जाते हैं। कलियुगके अन्तिम भागमें तो वे कभी कहीं दिखायी देते हैं और कभी दिखायी भी नहीं देते हैं || १५ ।।
उस समय अधर्मसे पीड़ित हो सभी वर्णोके स्वधर्म नष्ट हो जाते हैं। गौ, जल, भूमि और ओषधियोंके रस भी नष्टप्राय हो जाते हैं ।। १६ ।।
वेद, वैदिक धर्म तथा स्वधर्मपरायण आश्रम--ये सभी उस समय अधर्मसे आच्छादित हो अदृश्य हो जाते हैं और स्थावर-जंगम सभी प्राणी अपने धर्मसे विकृत हो जाते हैं; अर्थात् सबमें विकार उत्पन्न हो जाता है || १७ ।।
जैसे वर्षा भूतलके समस्त प्राणियोंको उत्पन्न करती है और सर्व ओरसे उनके अंगोंको पुष्ट करती है, उसी प्रकार वेद प्रत्येक युगमें सम्पूर्ण योगाड़ोंका पोषण करते हैं ।। १८ ।।
इसी प्रकार निश्चय ही कालके भी अनेक रूप हैं। उसका न आदि है और न अन्त। वही प्रजाकी सृष्टि करता है और अन्तमें वही सबको अपना ग्रास बना लेता है। यह बात मैंने तुमको पहले ही बता दी है || १९ |।
यह जो काल नामक तत्त्व है, वही प्राणियोंकी उत्पत्ति, पालन, संहार और नियन्त्रण करनेवाला है। उसीमें द्वन्धयुक्त असंख्य प्राणी स्वभावसे ही निवास करते हैं || २० ।।
तात! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने तुम्हारे समक्ष सर्ग, काल, धारणा, वेद, कर्ता, कार्य और क्रियाफलके विषयमें ये सब बातें कही हैं || २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- आलम्भके दो अर्थ हैं--स्पर्श और हिंसा। क्षत्रिय नरेश किसी वस्तुका स्पर्श करके अथवा छूकर जो दान देते हैं, वह आलम्भ कहलाता है। इसी प्रकार वे प्रजाकी रक्षाके लिये जो हिंसक जन्तुओं तथा दुष्ट डाकुओंका वध करते हैं, यह भी आलम्भ यज्ञके अन्तर्गत है।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ उनतालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उनतालीसवें अध्याय के श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद)
“ज्ञानका साधन और उसकी महिमा”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इस प्रकार महर्षि व्यासके उपदेश देनेपर शुकदेवजीने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और मोक्षधर्मके विषयमें पूछनेके लिये उत्सुक होकर इस प्रकार कहा ।। १ ।।
शुकदेवने पूछा--पिताजी! प्रज्ञावान, वेदवेत्ता, याज्ञिक, दोष-दृष्टिसे रहित तथा शुद्ध बुद्धिवाला पुरुष उस ब्रह्मको कैसे प्राप्त करता है, जो प्रत्यक्ष और अनुमानसे भी अज्ञात है तथा वेदके द्वारा भी जिसका इदमित्थंरूपसे वर्णन नहीं किया गया है ।। २ ।।
सांख्य एवं योगमें तप, ब्रह्मचर्य, सर्वस्वका त्याग और मेधाशक्ति--इनमेंसे किस साधनके द्वारा तत्त्वका साक्षात्कार माना गया है? यह आपफसे मेरा प्रश्न है, आप मुझे कृपापूर्वक इस विषयका उपदेश दीजिये ।। ३ ।।
मनुष्य मन और इन्द्रियोंको जिस उपायसे और जिस तरह एकाग्र कर सकता है, उस विषयका आप विशद विवेचन कीजिये ।। ४ ।।
व्यासजीने कहा--बेटा! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और सर्वस्वत्यागके बिना कोई भी सिद्धि नहीं पा सकता ।। ५ |।
सम्पूर्ण महाभूत विधाताकी पहली सृष्टि है। वे समस्त प्राणिसमुदायमें तथा सभी देहधारियोंके शरीरोंमें अधिक-से-अधिक भरे हुए हैं ।। ६ ।।
देहधारियोंकी देहका निर्माण पृथ्वीसे हुआ है, चिकनाहट और पसीने आदि जलसे प्रकट होते हैं, अग्निसे नेत्र तथा वायुसे प्राण और अपानका प्रादुर्भाव हुआ है। नाक, कान आदिके छिद्रोंमें आकाश-तत्त्व स्थित है ।। ७ ।।
चरणोंकी गतिमें विष्णु और बाहुबल [पाणि नामक इन्द्रिय] में इन्द्र स्थित हैं। उदरमें अग्निदेवता प्रतिष्ठित हैं, जो भोजन चाहते और पचाते हैं। कानोंमें श्रवणशक्ति और दिशाएँ हैं तथा जिह्लामें वाणी और सरस्वती देवीका निवास है ।। ८ ।।
दोनों कान, त्वचा, दोनों नेत्र, जिह्ला और पाँचवीं नासिका--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इन्हें विषयानुभवका द्वार बतलाया गया है ।। ९ ।।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये पाँच इन्द्रियोंके विषय हैं। इन्हें सदा इन्द्रियोंसे पृथक् समझना चाहिये ।।
जैसे सारथि घोड़ोंको अपने वशमें रखकर उन्हें इच्छानुसार चलाता है, इसी प्रकार मन इन्द्रियोंको काबूमें रखकर उन्हें स्वेच्छासे विषयोंकी ओर प्रेरित करता है, परंतु हृदयमें रहनेवाला जीवात्मा सदा उस मनपर भी शासन किया करता है ।। ११ ।।
जैसे मन सम्पूर्ण इन्द्रियोंका राजा और उन्हें विषयोंकी ओर प्रवृत्त करने तथा रोकनेमें भी समर्थ है, उसी प्रकार हृदयस्थित जीवात्मा भी मनका स्वामी तथा उसके निग्रहअनुग्रहमें समर्थ है ।। १२ ।।
इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंके रूप, रस आदि विषय, स्वभाव [शीतोष्णादि धर्म], चेतना-, मन, प्राण, अपान और जीव--ये देहधारियोंके शरीरोंमें सदा विद्यमान रहते हैं || १३ ।।
शरीर भी वास्तवमें सत्त्व अर्थात् बुद्धिका आश्रय नहीं है; क्योंकि पाउचभौतिक शरीर तो उसका कार्य है तथा गुण, शब्द एवं चेतना भी बुद्धिके आश्रय (कारण) नहीं हैं; क्योंकि बुद्धि चेतनाकी सृष्टि करती है, परंतु बुद्धि त्रिगुणात्मिका प्रकृतिको उत्पन्न नहीं करती; क्योंकि बुद्धि स्वयं उसका कार्य है ।। १४ ।।
इस प्रकार बुद्धिमान् ब्राह्मण इस शरीरमें पाँच इन्द्रिय, पाँच विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान और जीव--इन सोलह तत्त्वोंसे आवृत सत्रहवें परमात्माका बुद्धिके द्वारा अन्त:करणमें साक्षात्कार करता है ।। १५ ।।
इस परमात्माका नेत्रों अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे भी दर्शन नहीं हो सकता। यह विशुद्ध मनरूपी दीपकसे ही बुद्धिमें प्रकाशित होता है || १६ ।।
वह आत्मतत्त्व यद्यपि शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धसे हीन, अविकारी तथा शरीर और इन्द्रियोंसे रहित है तो भी शरीरोंके भीतर ही इसका अनुसंधान करना चाहिये ।। १७
जो इस विनाशशील समस्त शरीरोंमें अव्यक्तभावसे स्थित परमेश्वरका ज्ञानमयी दृष्टिसे निरन्तर दर्शन करता रहता है, वह मृत्युके पश्चात् ब्रह्मभावको प्राप्त होनेमें समर्थ हो जाता है ।। १८ ।।
पण्डितजन विद्या और उत्तम कुलसे सम्पन्न ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समभावसे स्थित ब्रह्मका दर्शन करनेवाले होते हैं ।। १९ ।।
जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, वह एक परमात्मा ही समस्त चराचर प्राणियोंके भीतर निवास करता है ।।
जब जीवात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंमें अपनेको और अपनेमें सम्पूर्ण प्राणियोंको स्थित देखता है, उस समय वह ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है ।। २१ ।।
अपने शरीरके भीतर जैसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वैसा ही दूसरोंके शरीरमें भी है, जिस पुरुषको निरन्तर ऐसा ज्ञान बना रहता है, वह अमृतत्त्वको प्राप्त होनेमें समर्थ है ।। २२
जो सम्पूर्ण प्राणियोंका आत्मा होकर सब प्राणियोंके हितमें लगा हुआ है, जिसका अपना कोई स्पष्ट मार्ग नहीं है तथा जो ब्रह्मपदको प्राप्त करना चाहता है, उस समर्थ ज्ञानयोगीके मार्गकी खोज करनेमें देवता भी मोहित हो जाते हैं ।। २३ ।।
जैसे आकाशगमें चिड़ियोंक और जलमें मछलियोंके पदचिह्न नहीं दिखायी देते, उसी प्रकार ज्ञानियोंकी गतिका भी किसीको पता नहीं चलता है ।। २४ ।।
काल सम्पूर्ण प्राणियोंको स्वयं ही अपने भीतर पकाता रहता है, परंतु जहाँ काल भी पकाया जाता है, जो कालका भी काल है; उस परमात्माको यहाँ कोई नहीं जानता ।। २५ ||
वह परमात्मा न ऊपर है न नीचे और न वह अगल-बगलमें अथवा बीचमें ही है। कोई भी स्थानविशेष उसको ग्रहण नहीं कर सकता, वह परमात्मा किसी एक स्थानसे दूसरे स्थानको नहीं जाता है। ये सम्पूर्ण लोक उसके भीतर ही स्थित हैं, इनका कोई भी भाग या प्रदेश उस परमात्मासे बाहर नहीं है || २६३ ।।
यदि कोई धनुषसे छूटे हुए बाणके समान अथवा मनके सदृश तीव्र वेगसे निरन्तर दौड़ता रहे तो भी जगत॒के कारणस्वरूप उस परमेश्वरका अन्त नहीं पा सकता ।। २७½।।
उस सूक्ष्मस्वरूप परमात्मासे बढ़कर सूक्ष्मतर वस्तु कोई नहीं है, उससे बढ़कर स्थूलतर वस्तु भी कोई नहीं है। उसके सब ओर हाथ पैर हैं, सब ओर नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब ओर कान हैं। वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है || २८-२९ ।।
वह लघुसे भी अत्यन्त लघु और महानसे भी अत्यन्त महान् है, वह निश्चय ही समस्त प्राणियोंके भीतर स्थित है तो भी किसीको दिखायी नहीं देता ।। ३० ।।
उस परमात्माके क्षर और अक्षर ये दो भाव (स्वरूप) हैं, सम्पूर्ण भूतोंमें तो उसका क्षर (विनाशी) रूप है और दिव्य सत्यस्वरूप चेतनात्मा अक्षर (अविनाशी) है ।। ३१ ।।
स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंका ईश्वर स्वाधीन परमात्मा नव द्वारोंवाले शरीरमें प्रवेश करके हंस (जीव) रूपसे स्थिरतापूर्वक स्थित है || ३२ ।।
पारदर्शी (तत्त्वज्ञानी) पुरुष परिणाममें हानि, भंग एवं विकल्पसे युक्त नवीन शरीरोंको बारंबार ग्रहण करनेके कारण अजन्मा परमात्माके अंशभूत जीवात्माको “हंस” कहते हैं ।। ३३ ।।
हंस नामसे जिस अविनाशी जीवात्माका प्रतिपादन किया गया है, वह कूटस्थ अक्षर ही है, इस प्रकार जो विद्वान् उस अक्षर आत्माको यथार्थरूपसे जान लेता है, वह प्राण, जन्म और मृत्युके बन्धनको सदाके लिये त्याग देता है || ३४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
टिका टिप्पणी -
- अन्तःकरणमें जो ज्ञानशक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य सुख-दुःख और समस्त पदार्थोका अनुभव करते हैं, जो कि अन्तःकरणकी एक वृत्तिविशेष है, इसे ही “चेतना” कहते हैं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ चालीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चालीसवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)
“योगसे परमात्माकी प्राप्तिका वर्णन”
व्यासजी कहते हैं--सत्पुत्र शुक! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने जो यहाँ ज्ञानके विषयका यथार्थ रूपसे तात््विक वर्णन किया है, ये सब सांख्यज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाली बातें हैं ।। १ ।।
अब योगसम्बन्धी सम्पूर्ण कृत्योंका वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो। तात! इन्द्रिय, मन और बुद्धिकी वृत्तियोंकोी सब ओरसे रोककर सर्वव्यापी आत्माके साथ उनकी एकता स्थापित करना ही योगशास्त्रियोंके मतमें सर्वोत्तम ज्ञान है ।। २½ ।।
इसे प्राप्त करनेके लिये साधक सब ओरसे मनको हटाकर शाम, दम, आदि साधनोंसे सम्पन्न हो आत्मतत्त्वका चिन्तन करे, एकमात्र परमात्मामें ही रमण करे, ज्ञानवान् पुरुषसे ज्ञान ग्रहण करे एवं शास्त्रविहित पवित्र कर्तव्यकर्मोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करके ज्ञातव्य तत्त्वको जाने || ३½ |।
विद्वानोंने योगके जो काम, क्रोध, लोभ, भय और पाँचवाँ स्वप्र--ये पाँच दोष बताये हैं उनका पूर्णतया उच्छेद करे। इनमेंसे क्रोधको शम (मनोनिग्रह) के द्वारा जीते, कामको संकल्पके त्यागद्वारा पराजित करे तथा धीर पुरुष सत्वगुणका सेवन करनेसे निद्राका उच्छेद कर सकता है ।। ४-५३ ।।
मनुष्य धैर्यका सहारा लेकर शिश्न और उदरकी रक्षा करे अर्थात् विषयभोग और भोजनकी चिन्ता दूर कर दे। नेत्रोंकी सहायतासे हाथ और पैरोंकी, मनके द्वारा नेत्र और कानोंकी तथा कर्मके द्वारा मन और वाणीकी रक्षा करे अर्थात् इनको शुद्ध बनावे। सावधानीके द्वारा भयका और दिद्दान् पुरुषोंके सेवनसे दम्भका त्याग करे ।। ६-७ ।।
इस प्रकार सदैव सावधानीपूर्वक आलस्य छोड़कर इन योगसम्बन्धी दोषोंको जीतनेका प्रयत्न करना चाहिये। एवं अग्नि और ब्राह्मणोंकी पूजा करनी चाहिये तथा देवताओंको प्रणाम करना चाहिये ।। ८ ।।
साधकको चाहिये कि मनको पीड़ा देनेवाली हिंसायुक्त वाणीका प्रयोग न करे। तेजोमय निर्मल ब्रह्म सबका बीज (कारण) है। यह जो कुछ दिखायी दे रहा है, सब उसीका रस (कार्य) है। सम्पूर्ण चराचर जगत् उस ब्रह्मके ही ईक्षण (संकल्प) का परिणाम है ।। ९½।।
ध्यान, वेदाध्ययन, दान, सत्य, लज्जा, सरलता, क्षमा, शौच, आचारशुद्धि एवं इन्द्रियोंका निग्रह--इनके द्वारा तेजकी वृद्धि होती है और पापोंका नाश हो जाता है || १०-११ ।।
इतना ही नहीं, इनसे साधक के सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं तथा उसे विज्ञानकी भी प्राप्ति होती है। योगीको चाहिये कि वह सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान भाव रक्खे। जो कुछ भी मिले या न मिले, उसीसे संतोषपूर्वक निर्वाह करे। पापोंको धो डाले तथा तेजस्वी, मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर काम और क्रोधको वशमें करके ब्रह्मपदको पानेकी इच्छा करे ।। १२-१३ ।।
योगी मन और इन्द्रियोंको एकाग्र करके रातके पहले और पिछले पहरमें ध्यानस्थ होकर मनको आत्मामें लगावे ।।
जैसे मशकमें एक जगह भी छेद हो जाय तो वहाँसे पानी बह जाता है, उसी प्रकार पाँच इन्द्रियोंसे युक्त जीवात्माकी एक इन्द्रिय भी यदि छिठद्रयुक्त हुई-विषयोंकी ओर प्रवृत्ति हुई तो उसीसे उसकी बुद्धि क्षीण हो जाती है || १५ ।।
जैसे मछलीमार जाल काटनेवाली दुष्ट मछलीको पहले पकड़ता है, उसी तरह योगवेत्ता साधक पहले अपने मनको वशमें करे। उसके बाद कानका, फिर नेत्रका, तदनन्तर जिह्ठा और प्राण आदिका निग्रह करे ।।
यत्नशील साधक इन पाँचों इन्द्रियोंको वशमें करके मनमें स्थापित करे। इसी प्रकार संकल्पोंका परित्याग करके मनको बुद्धिमें लीन करे ।। १७ ।।
योगी पाँचों इन्द्रियोंको वशमें करके उन्हें दृढ़तापूर्वक मनमें स्थापित करे। जब छठे मनसहित ये इन्द्रियाँ बुद्धिमें स्थिर होकर प्रसन्न (स्वच्छ) हो जाती हैं, तब उस योगीको ब्रह्मका साक्षात्कार हो जाता है ।। १८½ ।।
वह योगी अपने अन्तःकरणमें धूमरहित प्रज्वलित अग्नि, दीप्तिमान् सूर्य तथा आकाशमें चमकती हुई बिजलीकी ज्योतिके समान प्रकाशस्वरूप आत्माका दर्शन करता है | १९½||
सब उस आत्मामें दृष्टिगोचर होते हैं और व्यापक होनेके कारण वह आत्मा सबमें दिखायी देता है। जो महात्मा ब्राह्मण मनीषी, महाज्ञानी, धैर्यवान् और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले हैं, वे ही उस परमात्माका दर्शन कर पाते हैं || २०-२१ ।।
जो योगी प्रतिदिन नियत समयतक अकेला एकान्त स्थानमें बैठकर भलीभाँति नियमोंके पालनपूर्वक इस प्रकार योगाभ्यास करता है, वह अक्षर-ब्रह्मकी समताको प्राप्त हो जाता है || २२ ।।
योगसाधनामें अग्रसर होनेपर मोह, भ्रम और आवर्त आदि विष्न प्राप्त होते हैं। फिर दिव्य सुगन्न्ध आती है और दिव्य शब्दोंके श्रवण एवं दिव्य रूपोंके दर्शन होते हैं। नाना प्रकारके अद्भुत रस और स्पर्शका अनुभव होता है। इच्छानुकूल सर्दी और गर्मी प्राप्त होती है तथा वायुरूप होकर आकाशमें चलने-फिरनेकी शक्ति आ जाती है ।।
प्रतिभा बढ़ जाती है। दिव्य भोग अपने आप उपस्थित हो जाते हैं। इन सब सिद्धियोंको योगबलसे प्राप्त करके भी तत्त्ववेत्ता योगी उनका आदर न करे; क्योंकि ये सब योगके विघ्न हैं। अत: मनको उनकी ओरसे लौटाकर आत्मामें ही एकाग्र करे || २४ ।।
नित्य-नियमसे रहकर योगी मुनि किसी पर्वतके शिखरपर किसी देववृक्षके समीप या एकान्त मन्दिरमें अथवा वृक्षोंके सम्मुख बैठकर तीन समय (सबेरे तथा रातके पहले और पिछले पहरोंमें) योगका अभ्यास करे ।।
द्रव्य चाहनेवाले मनुष्य जैसे सदा द्रव्यसमुदायको कोठेमें बाँध करके रखता है, उसी तरह योगका साधक भी इन्द्रिय-समुदायको संयममें रखकर हृदयकमलमें स्थित नित्य आत्माका एकाग्रभावसे चिन्तन करे। मनको योगसे उद्विग्न न होने दे || २६ ।।
जिस उपायसे चंचल मनको रोका जा सके, योगका साधक उसका सेवन करे और उस साधनसे वह कभी विचलित न हो ।। २७ ।।
एकाग्रचित्त योगी पर्वतकी सूनी गुफा, देवमन्दिर तथा एकान्तस्थ शून्य गृहको ही अपने निवासके लिये चुने ।।
योगका साधक मन, वाणी या क्रियाद्वारा भी किसी दूसरेमें आसक्त न हो। सबकी ओरसे उपेक्षाका भाव रक्खे। नियमित भोजन करे और लाभ-हानिमें भी समान भाव रक््खे ।। २९ ।।
जो उसकी प्रशंसा करे और जो उसकी निन्दा करे, उन दोनोंमें वह समान भाव रकक््खे, एककी भलाई या दूसरेकी बुराई न सोचे || ३० ।।
कुछ लाभ होनेपर हर्षसे फूल न उठे और न होनेपर चिन्ता न करे। समस्त प्राणियोंके प्रति समान दृष्टि रखे। वायुके समान सर्वत्र विचरता हुआ भी असंग और अनिकेत रहे || ३१ ।।
इस प्रकार स्वस्थचित्त और सर्वत्र समदर्शी रहकर कर्मफलका उल्लंघन करके छ: महीनेतक नित्य योगाभ्यास करनेवाला श्रेष्ठ योगी वेदोक्त परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है || ३२ ।।
प्रजाको धनकी प्राप्तिके लिये वेदनासे पीड़ित देख धनकी ओरसे विरक्त हो जाय-मिट्टीके ढेले, पत्थर तथा स्वर्णको समान समझे। विरक्त पुरुष इस योगमार्गसे न तो विरत हो और न मोहमें ही पड़े || ३३ ।।
कोई नीच वर्णका पुरुष और स्त्री ही क्यों न हो, यदि उनके मनमें धर्मसम्पादनकी अभिलाषा है तो इस योगमार्गका सेवन करनेसे उन्हें भी परमगतिकी प्राप्ति हो सकती है ।। ३४ ||
जिसने अपने मनको वशगमें कर लिया है, वही योगी निश्चल मन, बुद्धि और इन्द्रियोंद्वारा जिसकी उपलब्धि होती है, उस अजन्मा, पुरातन, अजर, सनातन, नित्यमुक्त, अणुसे भी अणु और महानसे भी महान् परमात्माका आत्मासे अनुभव करता है ।। ३५ ||
महर्षि महात्मा व्यासके यथावद्रूपसे कहे गये इस उपदेशवाक्यपर मन-ही-मन विचार करके एवं इसको भली-भाँति समझकर जो इसके अनुसार आचरण करते हैं, वे मनीषी पुरुष ब्रह्माजीकी समानताको प्राप्त होते हैं और प्रलयकालपर्यन्त ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीके साथ रहकर अन्तमें उन्हींके साथ मुक्त हो जाते हैं || ३६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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