सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ इकत्तीसवें अध्याय से दो सौ पैतीसवें अध्याय तक (From the 231 chapter to the 235 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ इकत्तीसवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इकत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)

“शुकदेवजीका प्रश्न और व्यासजीका उनके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए कालका स्वरूप बताना”

युधिष्ठिरने पूछा--कुरुनन्दन! अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति किससे होती है? उनका अन्त कहाँ होता है? परमार्थकी प्राप्तिके लिये किसका ध्यान और किस कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये? कालका क्या स्वरूप है? तथा भिन्न-भिन्न युगोंमें मनुष्योंकी कितनी आयु होती है? ।। १ ।।

मैं लोकका तत्त्व पूर्णरूपसे जानना चाहता हूँ। प्राणियोंक आवागमन और सृष्टि-प्रलय किससे होते हैं? । २ ।।

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! यदि आपका हमलोगोंपर अनुग्रह करनेका विचार है तो मैं यही बात आपसे पूछता हूँ। आप मुझे बताइये ।। ३ ।।

पहले ब्रह्मर्षि भरद्वाजके प्रति भूगुजीका जो उत्तम उपदेश हुआ था, उसे आपके मुँहसे सुनकर मुझे उत्तम बुद्धि प्राप्त हुई थी ।। ४ ।।

मेरी बुद्धि परम धर्मिष्ठ एवं दिव्य स्थितिमें स्थित हो गयी थी; इसीलिये फिर पूछता हूँ। आप इस विषयका वर्णन करनेकी कृपा करें ।। ५ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें भगवान्‌ व्यासने अपने पुत्रके पूछनेपर जो उपदेश दिया था, वही प्राचीन इतिहास मैं दुहराऊँगा ।। ६ ।।

अंगों और उपनिषदोंसहित सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके व्यासपुत्र शुकदेवने नैषप्ठिक कर्मको जाननेकी इच्छासे अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासकी धर्मज्ञानविषयक निपुणता देखकर उनसे अपने मनका संदेह पूछा। उन्हें यह विश्वास था कि पिताजीके उपदेशसे मेरा धर्म और अर्थविषयक सारा संशय दूर हो जायगा ।। ७-८ ।।

श्रीशुकदेवजी बोले--पिताजी! समस्त प्राणि-समुदायको उत्पन्न करनेवाला कौन है? कालके ज्ञानके विषयमें आपका क्‍या निश्चय है? और ब्राह्मणका क्या कर्तव्य है? ये सब बातें आप बतानेकी कृपा करें ।। ९ ।।

भीष्मजी कहते हैं-राजन! भूत और भविष्यके ज्ञाता तथा सम्पूर्ण धर्मोंको जाननेवाले सर्वज्ञ विद्वान्‌ पिता व्यासने अपने पुत्रके पूछनेपर उसे उन सब बातोंका इस प्रकार उपदेश किया ।। १० ।।

व्यासजी बोले--बेटा! सृष्टिके आरम्भमें अनादि, अनन्त, अजन्मा, दिव्य, अजरअमर, ध्रुव, अविकारी, अतर्क्य और ज्ञानातीत ब्रह्म ही रहता है ।। ११ ।।

(अब कालका विभाग इस प्रकार समझना चाहिये) पंद्रह निमेषकी एक काष्ठा और तीस काष्ठाकी एक कला गिननी चाहिये। तीस कलाका एक मुहूर्त होता है। उसके साथ कलाका दसवाँ भाग और सम्मिलित होता है अर्थात्‌ तीस कला और तीन काष्ठाका एक मुहूर्त होता है ।। १२ ।।

तीस मुहूर्तका एक दिन-रात होता है। महर्षियोंने दिन और रात्रिके मुहूर्तोंकी संख्या उतनी ही बतायी है। तीस रात-दिनका एक मास और बारह मासोंका एक संवत्सर बताया गया है ।। १३ ।।

विद्वान पुरुष दो अयनोंको मिलाकर एक संवत्सर कहते हैं। वे दो अयन हैं--उत्तरायण और दक्षिणायन ।। १४ ।।

मनुष्यलोकके दिन-रातका विभाग सूर्यदेव करते हैं। रात प्राणियोंके सोनेके लिये है और दिन काम करनेके लिये ।। १५ ।।

मनुष्योंके एक मासमें पितरोंका एक दिन-रात होता है। शुक्लपक्ष उनके काम-काज करनेके लिये दिन है और कृष्णपक्ष उनके विश्रामके लिये रात है ।। १६ ।।

मनुष्योंका एक वर्ष देवताओंके एक दिन-रातके बराबर है, उनके दिन-रातका विभाग इस प्रकार है। उत्तरायण उनका दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि ।। १७ ।।

पहले मनुष्योंके जो दिन-रात बताये गये हैं, उन्हींकी संख्याके हिसाबसे अब मैं ब्रह्माके दिन-रातका मान बताता हूँ। साथ ही सत्ययुग, त्रेता, द्वापए और कलियुग--इन चारों युगोंकी वर्ष-संख्या भी अलग-अलग बता रहा हूँ ।। १८-१९ ।।

देवताओंके चार हजार वर्षोका एक सत्ययुग होता है। सत्ययुगमें चार सौ दिव्य वर्षोंकी संध्या होती है और उतने ही वर्षोका एक संध्यांश भी होता है (इस प्रकार सत्ययुग अड़तालीस सौ दिव्य वर्षोका होता है) || २० ।।

संध्या और संध्यांशोंसहित अन्य तीन युगोंमें यह (चार हजार आठ सौ वर्षोकी) संख्या क्रमश: एक-एक चौथाई घटती जाती है- ।। २१ ।।

ये चारों युग प्रवाहरूपसे सदा रहनेवाले सनातन लोकोंको धारण करते हैं। तात! यह युगात्मक काल ब्रह्मवेत्ताओंके सनातन ब्रह्मका ही स्वरूप है || २२ ।।

सत्ययुगमें सत्य और धर्मके चारों चरण मौजूद रहते हैं--उस समय सत्य और धर्मका पूरा-पूरा पालन होता है उस समय कोई भी धर्मशास्त्र अधर्मसे संयुक्त नहीं होता; उसका उत्तम रीतिसे पालन होता है || २३ ।।

अन्य युगोंमें शास्त्रोक्त धर्मका क्रमश: एक-एक चरण क्षीण होता जाता है और चोरी, असत्य तथा छल-कपट आदिके द्वारा अधर्मकी वृद्धि होने लगती है ।।

सत्ययुगके मनुष्य नीरोग होते हैं। उनकी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध होती हैं तथा वे चार सौ वर्षोकी आयुवाले होते हैं। त्रेतायुग आनेपर उनकी आयु एक चौथाई घटकर तीन सौ वर्षोकी रह जाती है। इसी प्रकार द्वापरमें दो सौ और कलियुगमें सौ वर्षोकी आयु होती है ।। २५ ।।

त्रेता आदि युगोंमें वेदोंका स्वाध्याय और मनुष्योंकी आयु घटने लगती है, ऐसा सुना गया है। उनकी कामनाओंकी सिद्धिमें भी बाधा पड़ती है और वेदाध्ययनके फलमें भी न्यूनता आ जाती है ।।

युगोंके हासके अनुसार सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगमें मनुष्योंके धर्म भी भिन्नभिन्न प्रकारके हो जाते हैं || २७ ।।

सत्ययुगमें तपस्याको ही सबसे बड़ा धर्म माना गया है। त्रेतामें ज्ञानको ही उत्तम बताया गया है। द्वापरमें यज्ञ और कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ कहा गया है || २८ ।।

इस प्रकार देवताओंके बारह हजार वर्षोका एक चतुर्युग होता है; यह विद्वानोंकी मान्यता है। एक सहस्र चतुर्युगको ब्रह्माका एक दिन बताया जाता है ।। २९ ।।

इतने ही युगोंकी उनकी एक रात्रि भी होती है। भगवान्‌ ब्रह्मा अपने दिनके आरम्भमें संसारकी सृष्टि करते हैं और रातमें जब प्रलयका समय होता है, तब सबको अपनेमें लीन करके योगनिद्राका आश्रय ले सो जाते हैं; फिर प्रलयका अन्त होने अर्थात्‌ रात बीतनेपर वे जाग उठते हैं || ३० ।।

एक हजार चतुर्युगका जो ब्रह्माका एक दिन बताया गया है और उतनी ही बड़ी जो उनकी रात्रि कही गयी है, उसको जो लोग ठीक-ठीक जानते हैं, वे ही दिन और रात अर्थात्‌ कालतत्त्वको जाननेवाले हैं ।।

रात्रि समाप्त जाग्रत्‌ हुए ब्रह्माजी पहले अपने अक्षय स्वरूपको मायासे विकारयुक्त बनाते हैं फिर महत्तत्त्वको उत्पन्न करते हैं। तत्पश्चात्‌ उससे स्थूल जगत्‌को धारण करनेवाले मनकी उत्पत्ति होती है || ३२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकका अनुप्रश्नविषयक दो सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • अर्थात्‌ संध्या और संध्याशोंसहित त्रेतायुग छत्तीस सौ वर्षोका, द्वापर चौबीस सौ वर्षोफका और कलियुग बारह सौ वर्षोंका होता है।


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ बत्तीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-43 का हिन्दी अनुवाद)

“व्यासजीका शुकदेवको सृष्टिके उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मोंका उपदेश”

व्यासजी कहते हैं--बेटा! तेजोमय ब्रह्म ही सबका बीज है, उसीसे यह सम्पूर्ण जगत्‌ उत्पन्न हुआ है। उस एक ही ब्रह्मसे स्थावर और जंगम दोनोंकी उत्पत्ति होती है ।।

पहले कह आये हैं, ब्रह्माजी अपने दिनके आरम्भमें जागकर अविद्या (त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके) द्वारा सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि करते हैं। सबसे पहले महत्तत्त्व प्रकट होता है। उससे स्थूल सृष्टिका आधारभूत मन उत्पन्न होता है।। २ ।।

उस मनकी दूरतक गति है तथा वह अनेक प्रकारसे गमनागमन करता है। प्रार्थना और संशय-वृत्तिशाली वह मन चैतन्यसे संयुक्त होकर सम्पूर्ण पदार्थोंको अभिभूत करके सात- मानस ऋषियोंकी सृष्टि करता है ।। ३ ।।

फिर सृष्टिकी इच्छासे प्रेरित होनेपर मन नाना प्रकारकी सृष्टि करता है। उससे आकाशकी उत्पत्ति होती है। आकाशका गुण “शब्द” माना गया है ।। ४ ।।

तत्पश्चात्‌ जब आकाशमें विकार होता है, तब उससे पवित्र और सम्पूर्ण गन्धोंको वहन करनेवाले बलवान वायुतत्त्वका आविर्भाव होता है। उसका गुण 'स्पर्श! माना गया है ।। ५ ।।

फिर वायुमें भी विकार होता है और उससे प्रकाशपूर्ण अग्नि-तत्त्व प्रकट होता है। वह अग्नि-तत्त्व चमचमाता हुआ एवं दीप्तिमान्‌ है। उसका गुण “रूप! बताया जाता है ।। ६ ।।

फिर अग्नि-तत्त्वमें विकार आनेपर रसमय जल-तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। जलसे गन्धका वहन करनेवाली पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है। इस प्रकार पञ्चमहाभूतोंकी सृष्टि बतायी जाती है ।। ७ ।।

पीछे प्रकट हुए वायु आदि भूत उत्तरोत्तर अपने पूर्ववर्ती सभी भूतोंके गुण धारण करते हैं। इन सब भूतोंमेंसे जो भूत जितने समयतक जिस प्रकार रहता है, उसके गुण भी उतने ही समयतक रहते हैं ।। ८ ।।

यदि कुछ मनुष्य जलमें गन्ध पाकर अयोग्यतावश यह कहने लगें कि यह जलका ही गुण है तो उनका वह कथन मिथ्या होगा; क्योंकि गन्ध वास्तवमें पृथ्वीका गुण है; अतः उसे पृथ्वीमें ही स्थित जानना चाहिये। जल और वायुमें तो वह आगन्तुककी भाँति स्थित होता है ।। ९ ।।

ये नाना प्रकारकी शक्तिवाले महत्तत््व, मन (अहंकार) और पज्चसूक्ष्म महाभूत--सात पदार्थ पृथक्‌ू-पृथक्‌ रहकर जबतक सब-के-सब मिल न सकें; तबतक उनमें प्रजाकी सृष्टि करनेकी शक्ति नहीं आयी ।। १० ।।

परंतु ये सातों व्यापक पदार्थ ईश्वरकी इच्छा होनेपर जब एक-दूसरेसे मिलकर परस्पर सहयोगी हो गये, तब भिन्न-भिन्न शरीरके आकारमें परिणत हुए। उस शरीरनामक पुरमें निवास करनेके कारण जीवात्मा पुरुष कहलाता है ।। ११ ||

पञ्च स्थूल महाभूत, दस इन्द्रियाँ और मन--इन सोलह तत्त्वोंसे शरीरका निर्माण हुआ है। इन सबका आश्रय होनेके कारण ही देहको शरीर कहते हैं। शरीरके उत्पन्न होनेपर उसमें जीवोंके भोगावशिष्ट कर्मोंके साथ सूक्ष्म महाभूत प्रवेश करते हैं ।। १२ ।।

भूतोंके आदि कर्ता ब्रह्माजी ही तपस्याके लिये समस्त सूक्ष्म भूतोंको साथ लेकर समष्टि शरीरमें प्रवेश करके स्थित होते हैं; इसलिये मुनिजन उन्हें प्रजापति कहते हैं ।। १३ ।।

तदनन्तर वे ब्रह्मा ही चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं। वे ही देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य, नाना प्रकारके लोक, नदी, समुद्र, दिशा, पर्वत, वनस्पति, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग तथा सर्पोको भी उत्पन्न करते हैं। अक्षय आकाश आदि और क्षयशील चराचर प्राणियोंकी सृष्टि भी उन्हींके द्वारा हुई है ।। १४-१५ ।।

पूर्वकल्पकी सृष्टिमें जिन प्राणियोंद्वारा जैसे कर्म किये गये होते हैं, दूसरे कल्पोंमें बारंबार जन्म लेनेपर वे उन पूर्वकृत कर्मौकी वासनासे प्रभावित होनेके कारण वैसे ही कर्म करने लगते हैं ।। १६ ।।

एक जन्ममें मनुष्य हिंसा-अहिंसा, कोमलता-कठोरता, धर्म-अधर्म और सच-झूठ आदि जिन गुणों या दोषोंको अपनाता है, दूसरे जन्ममें भी उनके संस्कारोंसे प्रभावित होकर उन्हीं गुणोंको वह पसंद करता और वैसे ही कार्योमें लग जाता है | १७ ||

आकाश आदि महाभूतोंमें, शब्द आदि विषयोंमें तथा देवता आदिकी आकृतियोंमें जो अनेकता और भिन्नता है तथा प्राणियोंकी जो भिन्न-भिन्न कार्योमें नियुक्ति है, इन सबका विधान विधाता ही करते हैं ।। १८ ।।

कुछ लोग कर्मोंकी सिद्धिमें पुरुषार्थको ही प्रधान मानते हैं। दूसरे ब्राह्मण दैवको प्रधानता देते हैं और भूतचिन्तक नास्तिकगण स्वभावको ही कार्यसिद्धिका कारण बताते हैं ।। १९ |।

कुछ विद्वान्‌ कहते हैं कि पुरुषार्थ, दैव और स्वभावसे अनुगृहीत कर्म--इन तीनोंके सहयोगसे फलकी सिद्धि होती है। ये तीनों मिलकर ही कार्यसाधक होते हैं। इनका अलग-अलग होना कार्यकी सिद्धिका हेतु नहीं होता है ।। २० ।।

कर्मवादी इस विषयमें यह पुरुषार्थ ही कार्यसाधक है, ऐसा नहीं कहते। ऐसा नहीं है, अर्थात्‌ पुरुषार्थ नहीं, दैव कारण है, यह भी नहीं कहते। दोनों मिलकर कार्यसिद्धिके हेतु हैं, यह भी नहीं कहते और दोनों नहीं हैं, यह भी नहीं कहते हैं। तात्पर्य यह है कि वे इस विषयमें कुछ निश्चय नहीं कर पाते हैं; परंतु जो सत्त्वस्वरूप परमात्मामें स्थित हुए योगी हैं, वे समदर्शी हैं अर्थात्‌ शम (ब्रह्म) को ही कारण मानते हैं || २१ ।।

तप ही जीवके कल्याणका मुख्य साधन है। तपका मूल है शम और दम। पुरुष अपने मनसे जिन-जिन कामनाओंको पाना चाहता है, उन सबको वह तपस्यासे प्राप्त कर लेता है || २२ ।।

तपस्यासे वह उस परमात्मसत्ताको भी प्राप्त कर लेता है, जिससे इस जगत्‌की सृष्टि होती है। तपसे परमात्मस्वरूप होकर मनुष्य समस्त प्राणियोंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है ।। २३ ।।

तपके ही प्रभावसे महर्षिगण दिन-रात वेदोंका अध्ययन करते थे। तपःशक्तिसे सम्पन्न होकर ही ब्रह्माजीने आदि-अन्तसे रहित वेदमयी वाणीका प्रथम उच्चारण किया ।। २४ ।।

ऋषियोंके नाम, वेदोक्त सृष्टिक्रमके अनुसार रचे हुए सब पदार्थोके नाम, प्राणियोंके अनेकविध रूप तथा उनके कर्मोका विधान--यह सब कुछ वे ऐश्वर्यशाली प्रजापति सृष्टिके आदिकालमें वेदोक्त शब्दोंके अनुसार ही रचते हैं ।। २५½ |।

वेदोंमें ऋषियोंके नाम तो हैं ही, सृष्टिमें उत्पन्न हुए सब पदार्थोके भी नाम हैं। अजन्मा ब्रह्माजी अपनी रात्रिके अन्तमें अर्थात्‌ नूतन सृष्टिके प्रभातकालमें अपने द्वारा रचे गये सभी पदार्थोंका दूसरोंके लिये नाम-निर्देश करते हैं || २६½||

फिर ब्रह्माजीने ऋग्वेद आदिके नाम, वर्ण और आश्रमके भेद, तप, शाम, दम (कृच्छु-चान्द्रायणादि व्रत), कर्म (संध्योपासन आदि नित्य-कर्म) और ज्योतिष्टोम आदि यज्ञ बनाये। ये नाम आदि लौकिक सिद्धियाँ हैं || २७ ।

आत्मा (के मोक्ष) की सिद्धि तो वेदोंमें दस- उपायोंद्वारा बतायी जाती है। जो गहन ([दुर्बोध) ब्रह्म वेदवाक्योंमें वेददर्शी विद्वानोंद्वारा वर्णित हुआ है और वेदान्तवचनोंमें जिसका स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है, वह क्रमयोगसे लक्षित होता है || २८ ।।

देहाभिमानी जीवको जो यह पृथक्‌-पृथक्‌ शीत-उष्ण आदि द्वन्धोंका भोग प्राप्त होता है, वह कर्मजनित है। मनुष्य तत्त्वज्ञानके द्वारा उस द्वन्द्रभोगको त्याग देता है तथा ज्ञानके ही बलसे आत्मसिद्धि (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है || २९ |।

ब्रह्मके दो स्वरूप जानने चाहिये--एक शब्दब्रह्म और दूसरा परब्रह्म, जो शब्दब्रह्म अर्थात्‌ वेदका पूर्ण विद्वान्‌ है, वह सुगमतासे परब्रह्मका साक्षात्कार कर लेता है || ३० ।।

ब्राह्मणोंके लिये तप ही यज्ञ है, क्षत्रियोंके लिये हिंसाप्रधान युद्ध आदि ही यज्ञ हैं, वैश्योंक लिये घृत आदि हविष्यकी आहुति देना ही यज्ञ है और शूद्रोंके लिये तीनों वर्णोकी सेवा ही यज्ञ है || ३१ ।।

यह यज्ञोंका विधान त्रेतायुगमें ही था, सत्ययुगमें नहीं। द्वापरसे क्रमश: क्षीण होते हुए यज्ञ कलियुगमें लुप्त हो जाते हैं || ३२ ।।

सत्ययुगमें अद्दैत-धर्ममें निष्ठा रखनेवाले मनुष्य ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद तथा सकाम इष्टियोंको ज्ञानरूप तपस्यासे भिन्न देखकर उन सबको छोड़ केवल ज्ञानरूप तपस्यामें ही संलग्न होते हैं ।। ३३ ।।

त्रेतायुगमें जो महाबली नरेश प्रकट हुए थे, वे सब-के-सब समस्त चराचर प्राणियोंके नियन्ता थे || ३४ ।।

त्रेतायुगमें वेद, यज्ञ और वर्णाश्रम-धर्म सुव्यवस्थितरूपसे पालित होते थे; परंतु द्वापरयुगमें आयुकी न्यूनता होनेसे लोगोंमें उनके पालनका उत्साह कम हो गया--वे वेद यज्ञ आदिसे च्युत होने लगे || ३५ ।।

कलियुग आनेपर तो कहीं वेदोंका दर्शन होता है और कहीं नहीं होता है। उस समय केवल अधर्मसे पीड़ित होकर यज्ञ और वेद लुप्त हो जाते हैं ।। ३६ ।।

सत्ययुगमें जिस चारों चरणोंवाले धर्मकी चर्चा की गयी है, वह अन्य युगोंमें भी मनको वशमें रखनेवाले तपस्वी एवं वेद-वेदान्तोंके ज्ञाता ब्राह्मणोंमें प्रतिष्ठित देखा जाता है || ३७ ||

सत्ययुगमें मनुष्य स्वभावके अनुसार यज्ञ, व्रत और तीर्थाटन आदि करते हैं और त्रेता आदि युगमें वेदवादी एवं स्वधर्मनिष्ठ पुरुष शास्त्रके कथनानुसार धर्मके ह्वाससे विकारको प्राप्त होते हैं || ३८ ।।

जैसे वर्षाकालमें जलकी वर्षा होनेसे स्थावर और जंगम समस्त पदार्थ वृद्धिको प्राप्त होते हैं और वर्षा बीतनेपर उनका हास होने लगता है, उसी प्रकार प्रत्येक युगमें धर्म और अधर्मकी वृद्धि एवं हास होते रहते हैं ।। ३९ ।।

जैसे वसन्‍त आदि ऋतुओंमें फूल और फल आदि नाना प्रकारके ऋतुचिह्न दृष्टिगोचर होते हैं और भिन्न ऋतुओंमें उन चिह्नोंका दर्शन नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरमें भी सृष्टि, रक्षा और संहारकी शक्तियाँ कभी न्यून और कभी अधिक दिखायी देती हैं ।। ४० ।।

स्वयं ब्रह्माजीने ही सत्ययुग, त्रेता आदिके रूपमें कालभेदका विधान किया है। वह अनादि और अनन्त है। वह काल ही लोककी सृष्टि और संहार करता है। बेटा! यह बात मैं तुमसे पहले ही बता चुका हूँ ।। ४१ ।।

काल ही सम्पूर्ण प्राणियोंको संयम और नियममें रखनेवाला है। वही उनकी उत्पत्तिके लिये स्थान धारण करता है। सारे प्राणी स्वभावसे ही द्वद्धोंसे युक्त होकर अत्यन्त वष्ट पाते हैं || ४२ ।।

बेटा! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार मैंने तुम्हें सृष्टि, काल, क्रिया, वेद, कर्ता, कार्य तथा क्रियाफल आदि सब विषय बता दिये ।। ४३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवजीका अनुप्रश्रविषयक दो सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  • इन सप्तर्षियोंके नाम इस प्रकार हैं- मरीचिरङ्गिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः । वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते ।।

(महा० शान्ति० ३४०/६९)

  • मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ--ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्माजीके) द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं। - स्वाध्याय, गार्हस्थ्य, संध्यावन्दनादि, कृच्छुचान्द्रायणादि, यज्ञ, पूर्तकर्म, योग, दान, गुरुशुश्रूषा और समाधि--ये दस क्रमयोग हैं।


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ तैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मप्रलय एवं महाप्रलयका वर्णन”

व्यासजी कहते हैं--बेटा! अब मैं यह बता रहा हूँ कि ब्रह्माजीका दिन बीतनेपर उनकी रात्रि आरम्भ होनेके पहले ही किस प्रकार इस सृष्टिका लय होता है तथा लोकेश्वर ब्रह्माजी स्थूल जगत्‌को अत्यन्त सूक्ष्म करके इसे कैसे अपने भीतर लीन कर लेते हैं? ।। १ ।।

जब प्रलयका समय आता है, तब आकाशमें ऊपरसे सूर्य और नीचेसे अग्निकी सात ज्वालाएँ संसारको भस्म करने लगती हैं। उस समय यह सारा जगत्‌ ज्वालाओंसे व्याप्त होकर जाज्वल्यमान दिखायी देने लगता है ।। २ ।।

भूतलके जितने भी चराचर प्राणी हैं, वे सब पहले ही दग्ध होकर पृथ्वीमें एकाकार हो जाते हैं ।। ३ ।।

तदनन्तर स्थावर-जंगम सम्पूर्ण प्राणियोंके लीन हो जानेपर तृण और वृक्षोंसे रहित हुई यह भूमि कछुएकी पीठ-सी दिखायी देने लगती है ।। ४ ।।

तत्पश्चात्‌ जब जल पृथ्वीके गुण गन्धको ग्रहण कर लेता है, तब गन्धहीन हुई पृथ्वी अपने कारणभूत जलमें लीन हो जाती है ।। ५ ।।

फिर तो जल गम्भीर शब्द करता हुआ चारों ओर उमड़ पड़ता है और उसमें उत्ताल तरंगें उठने लगती हैं। वह सम्पूर्ण विश्वको अपनेमें निमग्न करके लहराता रहता है ।।

वत्स! तदनन्तर तेज जलके गुण रसको ग्रहण कर लेता है और रसहीन जल तेजमें लीन हो जाता है | ७ ।।

उस समय जब आगकी लपटें सूर्यकोी अपने भीतर करके चारों ओरसे ढक लेती हैं, तब सम्पूर्ण आकाश ज्वालाओंसे व्याप्त होकर प्रज्वलित होता-सा जान पड़ता है ।।

फिर तेजके गुण रूपको वायुतत्त्व ग्रहण कर लेता है। इससे आग शान्त हो जाती है और वायुमें मिल जाती है। तब वायु अपने महान्‌ वेगसे सम्पूर्ण आकाशको क्षुब्ध कर डालती है ।। ९ ।।

वह बड़े जोरसे हरहराती और अपने वेगसे उत्पन्न आवाजको फैलाती हुई ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर दसों दिशाओंमें चलने लगती है || १० ।।

इसके बाद आकाश वायुके गुण स्पर्शको भी ग्रस लेता है। तब वायु शान्त हो जाती और आकाशकमें मिल जाती है; फिर तो आकाश महान्‌ शब्दसे युक्त हो अकेला ही रह जाता है ।। ११ ||

उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्शका नाम भी नहीं रह जाता। किसी भी मूर्त पदार्थकी सत्ता नहीं रहती। जिसका शब्द सभी लोकोंमें निनादित होता था, वह आकाश ही केवल शब्द गुणसे युक्त होकर शेष रहता है ।। १२ ।।

तत्पश्चात्‌ दृश्य प्रपंचको व्यक्त करनेवाला मन आकाशके गुण शब्दको, जो मनसे ही प्रकट हुआ था, अपनेमें लीन कर लेता है। इस तरह व्यक्त मन और अव्यक्त (महत्तत्त्व) का ब्रह्माके मनमें लय होना ब्राह्म प्रलय कहलाता है ।। १३ ।।

महाप्रलयके समय चन्द्रमा व्यक्त मनको आत्मगुणमें प्रविष्ट करके स्वयं उसको ग्रस लेते हैं। तब मन उपरत (शान्त) हो जाता है; फिर वह चन्द्रमामें उपस्थित रहता है ।

तत्पश्चात्‌ संकल्प (अव्यक्त मन) दीर्घकालमें उस व्यक्तमनसहित चन्द्रमाको अपने वशीभूत कर लेता है और समशष्टि बुद्धि संकल्पको ग्रस लेती है। उसी बुद्धिको परम उत्तम ज्ञान माना गया है ।। १५ ।।

सुननेमें आया है कि काल ज्ञान (समष्टि बुद्धि) को ग्रस लेता है, शक्ति उस कालको अपने अधीन कर लेती है; फिर महाकाल शक्तिको और परब्रह्म महाकालको अपने अधीन कर लेता है ।। १६ ।।

जिस प्रकार आकाश अपने गुण शब्दको आत्मसात्‌ कर लेता है, उसी प्रकार ब्रह्म महाकालको अपनेमें विलीन कर लेता है। वह परब्रह्म परमात्मा अव्यक्त, सनातन और सर्वोत्तम है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंका लय होता है और सबके लयका अधिष्ठान परब्रह्म परमात्मा ही है ।। १७ ।।

इस प्रकार परमात्मस्वरूप योगियोंने इस ज्ञानमय बोध्यतत्त्वका साक्षात्कार करके इसका यथार्थरूपसे वर्णन किया है, यह उत्तम ज्ञान नि:संदेह ऐसा ही है ।। १८ ।।

इस प्रकार बारंबार अव्यक्त परब्रह्ममें सृष्टिका विस्तार और लय होता है। ब्रह्माजीका दिन एक हजार चतुर्युगका होता है और उनकी रात भी उतनी ही बड़ी होती है; यह बात पहले ही बता दी गयी है ।। १९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकका अनुप्रश्नविषयक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ  चौतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौतीसवें अध्याय के श्लोक 1-38 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणोंका कर्तव्य और उन्हें दान देनेकी महिमाका वर्णन”

व्यासजी कहते हैं--बेटा! तुमने भूतसमुदायके विषयमें जो प्रश्न किया था, उसीके उत्तरमें मैंने यह सब बताया है। अब मैं तुम्हें ब्राह्मणका जो कर्तव्य है, वह बता रहा हूँ, सुनो || १ ।।

ब्राह्मणग-बालकके जातकर्मसे लेकर समावर्तनतक समस्त संस्कार वेदोंके पारंगत विद्वान्‌ आचार्यके निकट रहकर सम्पन्न होने चाहिये और उनमें समुचित दक्षिणा देनी चाहिये ।। २ ।।

उपनयनके पश्चात्‌ ब्राह्मण-बालक गुरुशुश्रूषामें तत्पर हो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करे। तत्पश्चात्‌ पर्याप्त गुरु-दक्षिणा दे। गुर-ऋणसे उऋण हो वह यज्ञवेत्ता बालक समावर्तनसंस्कारके पश्चात्‌ घर लौटे ।। ३ ।।

तदनन्तर आचार्यकी आज्ञा लेकर चारों आश्रमोंमेंसे किसी एक आश्रममें शास्त्रोक्त विधिके अनुसार जीवनपर्यन्त रहे (अथवा क्रमश: सभी आश्रमोंमें प्रवेश करे) || ४ ।।

उसकी इच्छा हो तो स्त्री-परिग्रह करके गृहस्थ-धर्मका पालन करते हुए संतान उत्पन्न करे अथवा आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करे या वनमें रहकर वानप्रस्थ-धर्मका आचरण करे अथवा गुरुके समीप रहे या संन्यास-धर्मके अनुसार जीवन व्यतीत करे ।। ५ ।।

यह गृहस्थ-आश्रम सब धर्मोंका मूल कहा जाता है। इसमें रहकर अन्त:करणके रागादि दोष पक जानेपर जितेन्द्रिय पुरुषको सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है ।। ६ ।।

गृहस्थ पुरुष संतान उत्पन्न करके पितृ-ऋणसे, वेदोंका स्वाध्याय करके ऋषि-ऋणसे और यज्ञोंका अनुष्ठान करके देव-ऋणसे छुटकारा पाता है। इस प्रकार तीनों ऋणोंसे मुक्त हो विहित कर्मोंका सम्पादन करके पवित्र बने। तत्पश्चात्‌ दूसरे आश्रमोंमें प्रवेश करे || ७ ।।

इस पृथ्वीपर जो स्थान पवित्र एवं उत्तम जान पड़े, वहीं निवास करे। उसी स्थानमें रहकर वह उत्तम यशके विषयमें अपनेको आदर्श पुरुष बनानेका प्रयत्न करे || ८ ।।

महान्‌ तप, पूर्ण विद्याध्ययन, यज्ञ अथवा दान करनेसे ब्राह्मणोंका यश बढ़ता है। जबतक इस जगत्‌में यशको बढ़ानेवाली उसकी कीर्ति बनी रहती है, तबतक वह पुण्यवानोंके अक्षय लोकोंमें निवास करके दिव्य सुख भोगता रहता है ।। ९-१० ।।

ब्राह्मगको अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन तथा दान और प्रतिग्रह--इन छ: कर्मोंका आश्रय लेना चाहिये; परंतु उसे किसी तरह न तो अनुचित प्रतिग्रह स्वीकार करना चाहिये, न व्यर्थ दान ही देना चाहिये || ११ ।।

यजमानसे, शिष्यसे अथवा कन्या-शुल्कसे जब महान्‌ धन प्राप्त हो, तब उसके द्वारा यज्ञ करे, दान दे, अकेला किसी तरह उस धनका उपभोग न करे ।। १२ ।।

देवता, ऋषि, पितर, गुरु, वृद्ध, रोगी और भूखे मनुष्योंको भोजन देनेके लिये गृहस्थ ब्राह्मणको प्रतिग्रह स्वीकार करना चाहिये। प्रतिग्रहके सिवा ब्राह्मणके लिये धनसंग्रहका दूसरा कोई पवित्र मार्ग नहीं है || १३ ।।

जो दारिद्रयग्रस्त होनेके कारण लज्जासे छिपे-छिपे फिरते हैं तथा अत्यन्त संतप्त हैं, अथवा जो यथाशक्ति अपनी पारमार्थिक उन्नतिके लिये प्रयत्न करना चाहते हैं, ऐसे भूदेवोंको उपार्जित धनमेंसे यथाशक्ति देना चाहिये। योग्य एवं पूजनीय ब्राह्मणोंके लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं है। वैसे सत्पात्रोंके लिये तो उच्चै:श्रवा घोड़ा भी दिया जा सकता है, यह श्रेष्ठ पुरुषोंका मत है ।। १४-१५ ।।

महान्‌ व्रतधारी राजा सत्यसंधने इच्छानुसार अनुनय-विनय करके अपने प्राणोंद्वारा एक ब्राह्मणके प्राणोंकी रक्षा की थी, ऐसा करके वे स्वर्गलोकमें गये थे || १६ ।।

संकृतिके पुत्र राजा रन्तिदेवने महात्मा वसिष्ठको शीतोष्ण जल प्रदान किया था, जिससे वे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हैं | १७ ।।

अत्रिवंशज बुद्धिमान्‌ राजा इन्द्रदमनने एक योग्य ब्राह्मणको नाना प्रकारके धनका दान करके अक्षय लोक प्राप्त किये थे || १८ ॥।

उशीनरके पुत्र राजा शिबिने किसी ब्राह्मणके लिये अपने शरीर और प्रिय औरस पुत्रका दान कर दिया था, जिससे वे यहाँसे स्वर्गलोकमें गये थे || १९ ।।

काशिराज प्रतर्दनने किसी ब्राह्मणको अपने दोनों नेत्र प्रदान करके इस लोकमें अनुपम कीर्ति प्राप्त की और परलोकमें वे उत्तम सुख भोगते हैं || २० ।।

राजा देवावृधने आठ शलाकाओं (ताड़ियों) से युक्त सोनेका बना हुआ बहुमूल्य छत्र दान करके अपने देशकी प्रजाके साथ स्वर्गलोक प्राप्त किया || २१ ।।

अत्रिवंशमें उत्पन्न महातेजस्वी सांकृति अपने शिष्योंको निर्गुण ब्रह्मका उपदेश देकर उत्तम लोकोंको प्राप्त हुए ।। २२ ।।

प्रतापी राजा अम्बरीषने ब्राह्मणोंको ग्यारह अर्बुद (एक अरब दस करोड़) गौएँ दानमें देकर देशवासियोंसहित स्वर्गलोक प्राप्त किया || २३ ।।

सावित्रीने दो दिव्य कुण्डल दान किये थे और राजा जनमेजयने ब्राह्मणके लिये अपने शरीरका परित्याग किया था। इससे वे दोनों उत्तम लोकमें गये ।। २४ ।।

वृषदर्भके पुत्र युवनाश्व॒ सब प्रकारके रत्न, अभीष्ट स्त्रियाँ तथा सुरम्य गृह दान करके स्वर्गलोकमें निवास करते हैं || २५ ।।

विदेहराज निमिने अपना राज्य और जमदग्निनन्दन परशुराम तथा राजा गयने नगरोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मणको दानमें दे दी थी | २६ ।।

एक बार पानी न बरसनेपर महर्षि वसिष्ठने प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले दूसरे प्रजापतिके समान सम्पूर्ण प्रजाको जीवनदान दिया था || २७ ।।

करन्धमके पुण्यात्मा पुत्र राजा मरुत्तने महर्षि अंगिराको कन्यादान करके तत्काल स्वर्गलोक प्राप्त कर लिया था ।। २८ ।।

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ पांचाल राज ब्रह्मदत्तने उत्तम ब्राह्मणोंको शंखनिधि देकर पुण्यलोक प्राप्त किये थे || २९ ।।

राजा मित्रसहने महात्मा वसिष्ठको अपनी प्यारी रानी मदयन्ती देकर उसके साथ ही स्वर्गलोकमें पदार्पण किया था ।। ३० ।।

महायशस्वी राजर्षि सहस्नजित्‌ ब्राह्मणके लिये अपने प्यारे प्राणोंका परित्याग करके परम उत्तम लोकोंमें गये || ३१ ।।

महाराज शत्द्युम्न मुद्गल ब्राह्मणको समस्त भोगोंसे सम्पन्न सुवर्णमय भवन देकर स्वर्गलोकमें गये थे || ३२ ।।

प्रतापी शाल्वराज द्युतिमानने ऋचीकको राज्य देकर परम उत्तम लोक प्राप्त किये थे ।। ३३ |।

शक्तिशाली राजर्षि लोमपाद अपनी पुत्री शान्ताका ऋष्यशुड़ मुनिको दान करके सब प्रकारके प्रचुर भोगोंसे सम्पन्न हो गये || ३४ ।।

राजर्षि मदिराश्व हिरण्यहस्तको अपनी सुन्दरी कन्या देकर देववन्दित लोकोंमें गये थे ।। ३५ |।

महातेजस्वी राजा प्रसेनजितने एक लाख सवत्सा गौओंका दान करके उत्तम लोक प्राप्त किये थे || ३६ ।।

ये तथा और भी बहुत-से शिष्ट स्वभाववाले जितेन्द्रिय महात्मा दान और तपस्यासे स्वर्गलोकमें चले गये ।। ३७ ।।

जबतक यह पृथ्वी रहेगी, तबतक उनकी कीर्ति संसारमें स्थिर रहेगी। उन सबने दान, यज्ञ और प्रजा-सृष्टिके द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त किया था ।। ३८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकानुप्रश्नविषयक दो सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ पैतीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पैतीसवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्राह्मणके कर्तव्यका प्रतिपादन करते हुए कालरूप नदको पार करनेका उपाय बतलाना”

व्यासजी कहते हैं--बेटा! ब्राह्मणको चाहिये कि वेदोंमें बतायी गयी त्रयी विद्या--“अ उ म्‌ इन तीन अक्षरोंसे सम्बन्ध रखनेवाली प्रणवविद्याका चिन्तन एवं विचार करे। वेदके छहों अंगोंसहित ऋक्‌, साम, यजुष्‌ एवं अथर्वके मन्त्रोंका स्वर-व्यंजनके सहित अध्ययन करे; क्योंकि यजन-याजन, अध्ययन-अध्यापन, दान और प्रतिग्रह--इन छः कर्मामें विराजमान भगवान्‌ धर्म ही इन वेदोंमें प्रतिष्ठित हैं ।। १६ ।।

जो लोग वेदोंके प्रवचनमें निपुण, अध्यात्मज्ञानमें कुशल, सत्त्वगुणसम्पन्न और महान्‌ भाग्यशाली हैं, वे जगत्‌की सृष्टि और प्रलयको ठीक-ठीक जानते हैं; अतः ब्राह्मणको इस प्रकार धर्मानुकूल बर्ताव करते हुए शिष्ट पुरुषोंकी भाँति सदाचारका पालन करना चाहिये ।। २-३ ।।

ब्राह्णण किसी भी जीवको कष्ट न देकर--उसकी जीविकाका हनन न करके अपनी जीविका चलानेकी इच्छा करे। संतोंकी सेवामें रहकर तत्त्वज्ञान प्राप्त करे, सत्पुरुष बने और शास्त्रकी व्याख्या करनेमें कुशल हो ।। ४ ।।

जगत्‌में अपने धर्मके अनुकूल कर्म करे, सत्यप्रतिज्ञ बने। गृहस्थ ब्राह्मणको पूर्वोक्त छः कर्मोमें ही स्थित रहना चाहिये || ५ ।।

सदा श्रद्धापूर्वक पञ्च-महायज्ञोंद्वारा परमात्माका पूजन करे, सर्वदा धैर्य धारण करे। प्रमाद (अकर्तव्य कर्मको करने और कर्तव्य कर्मकी अवहेलना करने) से बचे, इन्द्रियोंको संयममें रखे, धर्मका ज्ञाता बने और मनको भी अपने अधीन रखे ।। ६ ।।

जो ब्राह्मण हर्ष, मद और क्रोधसे रहित है, उसे कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता है। दान, वेदाध्ययन, यज्ञ, तप, लज्जा, सरलता और इन्द्रियसंयम--इन सदगुणोंसे ब्राह्मण अपने तेजकी वृद्धि और पापका नाश करता है || ७½||

इस प्रकार पाप धुल जानेपर बुद्धिमान्‌ ब्राह्मण स्वल्पाहार करते हुए इन्द्रियोंको जीते और काम तथा क्रोधको अधीन करके ब्रह्मपदको प्राप्त करनेकी इच्छा करे || ८½ ।।

अग्नि, ब्राह्मण और देवताओंको प्रणाम एवं उनका पूजन करे। कड़वी बात मुँहसे न निकाले और हिंसा न करे; क्योंकि वह अधर्मसे युक्त है। यह ब्राह्मणके लिये परम्परागत वृत्ति (कर्तव्य) का विधान किया गया है ।। ९-१० ।।

कर्मोके तत््वको जानकर उनका अनुष्ठान करनेसे अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। संसारका जीवन एक भयंकर नदीके समान है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ इस नदीका जल हैं। लोभ किनारा है। क्रोध इसके भीतर कीचड़ है। इसे पार करना अत्यन्त कठिन है और इसके वेगको दबाना अत्यन्त असम्भव है, तथापि बुद्धिमान्‌ पुरुष इसे पार कर जाता है। प्राणियोंको अत्यन्त मोहमें डालनेवाला काल सदा आक्रमण करनेके लिये उद्यत है, इस बातकी ओर सदा ही दृष्टि रखे ।। ११-१२ ।।

जो महान्‌ है, जो विधाताकी ही दृष्टिमें आ सकता है तथा जिसका बल कहीं प्रतिहत नहीं होता, उस स्वभावरूप धारा-प्रवाहमें यह सारा जगत्‌ निरन्तर बहता जा रहा है ।। १३ ।।

कालरूपी महान्‌ नद बह रहा है। इसमें वर्षरूपी भँवरें सदा उठ रही हैं। महीने इसकी उत्ताल तरंगें हैं। ऋतु वेग हैं। पक्ष लता और तृण हैं। निमेष और उन्मेष फेन हैं। दिन और रात जल-प्रवाह हैं। कामदेव भयंकर ग्राह है। वेद और यज्ञ नौका हैं। धर्म प्राणियोंका आश्रयभूत द्वीप है। अर्थ और काम जल हैं। सत्यभाषण और मोक्ष दोनों किनारे हैं। हिंसारूपी वृक्ष उस कालरूपी प्रवाहमें बह रहे हैं। युग हृद है तथा ब्रह्म ही उस कालनदको उत्पन्न करनेवाला पर्वत है। उसी प्रवाहमें पड़कर विधाताके रचे हुए समस्त प्राणी यमलोककी ओर खिंचे चले जा रहे हैं | १४--१७ ।।

बुद्धिमान्‌ और धीर मनुष्य प्रज्ञारूप नौकाओंद्वारा उस कालनदके पार हो जाते हैं। जो वैसी नौकाओंसे रहित हैं, वे अविवेकी मनुष्य क्या करेंगे? ।। १८ ।।

विद्वान्‌ पुरुष जो कालनदसे पार हो जाता है और अज्ञानी मनुष्य नहीं पार होता है, यह युक्तिसंगत ही है; क्योंकि ज्ञानवान्‌ पुरुष सर्वत्र गुण और दोषोंको दूरसे ही देख लेता है ।। १९ |।

कामनाओंमें आसक्त, चंचलचित्त, मन्दबुद्धि एवं अज्ञानी पुरुष संदेहमें पड़ जानेके कारण कालनदको पार नहीं कर पाता तथा जो निश्वेष्ट होकर बैठ जाता है, वह भी उसके पार नहीं जा सकता ।। २० ||

जिसके पास ज्ञानमयी नौका नहीं है, वह मोहितचित्त मूढ़ मानव महान्‌ दोषको प्राप्त होता है। कामरूपी ग्राहसे पीड़ित होनेके कारण ज्ञान भी उसके लिये नौका नहीं बन पाता ।| २१ ||

इसलिये बुद्धिमान्‌ पुरुषको कालनद या भवसागरसे पार होनेका अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। उसका पार होना यही है कि वह वास्तवमें ब्राह्मण बन जाय अर्थात्‌ ब्रह्मज्ञान प्राप्त करे ।। २२ ।।

उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण अध्यापन, याजन और प्रतिग्रह--इन तीन कर्मोंको संदेहकी दृष्टिसे देखे (के कहीं इनमें आसक्त न हो जाऊँ) और अध्ययन, यजन तथा दान --इन तीन कर्मोंका अवश्य पालन करे। वह जैसे भी हो प्रज्ञाद्वारा अपने उद्धारका प्रयत्न करे, उस कालनदसे पार हो जाय ।। २३ ।।

जिसके वैदिक संस्कार विधिवत्‌ सम्पन्न हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन और इन्द्रियोंपर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुषको इहलोक और परलोकमें कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती ।। २४ ।।

गृहस्थ ब्राह्मण क्रोध और दोष-दृष्टिका त्याग करके पूर्वोक्त नियमोंके पालनमें संलग्न रहे। नित्य पठ्चमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे और यज्ञशिष्ट अन्नका ही भोजन करे ।। २५ ।

श्रेष्ठ पुरुषोंके धर्मके अनुसार चले और शिष्टाचारका पालन करे तथा ऐसी आजीविका प्राप्त करनेकी इच्छा करे, जिससे दूसरे लोगोंकी जीविकाका हनन न हो और जिसकी लोकमें निन्‍दा न होती हो || २६ ।।

ब्राह्मणको वेदका विद्वान, तत्त्वज्ञानी, सदाचारी और चतुर होना चाहिये। वह अपने धर्मके अनुसार कार्य करे, परंतु कर्मद्वारा संकरता न फैलावे अर्थात्‌ स्वधर्म और परधर्मका सम्मिश्रण न करे || २७ ।।

जो अपने धर्मके अनुसार कार्य करनेवाला, श्रद्धालु, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाला, विद्वान, किसीके दोष न देखनेवाला तथा धर्म और अधर्मका विशेषज्ञ है, वह सम्पूर्ण दुःखोंसे पार हो जाता है || २८ ।।

जो धैर्यवान्‌ प्रमादशून्य, जितेन्द्रिय, धर्मज्, मनस्वी तथा हर्ष, मद और क्रोधसे रहित है, वह ब्राह्मण कभी विषादको नहीं प्राप्त होता है ।। २९ ।।

यह ब्राह्मणकी प्राचीनकालसे चली आनेवाली वृत्तिका विधान किया गया है। ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाले ब्राह्मणको सर्वत्र सिद्धि प्राप्त होती है ।। ३० ।।

जो मूढ़ है, वह धर्मकी इच्छा रखकर भी अधर्म करता है अथवा शोकमग्न-सा होकर अधर्मतुल्य धर्मका सम्पादन करता है। मूर्ख या अविवेकी मनुष्य न जाननेके कारण “मैं धर्म कर रहा हूँ” ऐसा समझकर अधर्म करता है और अधर्मकी इच्छा रखकर धर्म करता है, इस प्रकार अज्ञानपूर्वक दोनों तरहके कर्म करनेवाला देहधारी मनुष्य बारंबार जन्म लेता और मरता है ।। ३१-३२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शुकदेवका अनुप्रश्नविषयक दी सौ पैतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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