सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अट्ठाईसवें अध्याय के श्लोक 1-96 का हिन्दी अनुवाद)
“दैत्योंको त्यागकर इन्द्रके पास लक्ष्मीदेवीका आना तथा किन सदगुणोंके होनेपर लक्ष्मी आती हैं और किन दर्गुणी के होनेपर वे त्यागकर चली जाती हैं, इस बातको विस्तारपूर्वक बताना”
युधिष्ठिरने पूछा--राजन्! पितामह! जिस पुरुषका उत्थान या पतन होनेवाला होता है, उसके पूर्व लक्षण कैसे होते हैं? यह मुझे बताइये ।। १ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! तुम्हारा कल्याण हो। जिस मनुष्यका उत्थान या पतन होनेको होता है, उसका मन ही उसके पूर्व लक्षणोंको प्रकट कर देता है ।।
इस विषयमें लक्ष्मीके साथ जो इन्द्रका संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण यहाँ दिया जाता है। युधिष्ठिर! तुम ध्यान देकर उसे सुनो ।। ३ ।।
एक समयकी बात है, महातपस्वी एवं पापरहित नारदजी अपनी इच्छाके अनुसार तीनों लोकोंमें विचरण करते थे। वे अपनी बड़ी भारी तपस्याके प्रभावसे ऊँचे और नीचे दोनों प्रकारके लोकोंको देख सकते थे तथा ब्रह्मलोक-निवासी ऋषियोंके समान होकर ब्रह्माजीकी ही भाँति अमित दीप्ति और ओजसे प्रकाशित हो रहे थे || ४-५ ।।
एक दिन वे प्रात:काल उठकर पवित्र जलमें स्नान करनेकी इच्छासे ध्रुवद्वारसे प्रवाहित हुई गंगाजीके तटपर गये और उसके भीतर उतरे ।। ६ ।।
इसी समय शम्बरासुर और पाक नामक दैत्यका वध करनेवाले वज्रधारी सहस्रलोचन इन्द्र भी देवर्षियोंद्वारा सेवित गंगाजीके उसी तटपर आये || ७ ।।
फिर उन दोनोंने गंगाजीमें गोते लगाकर मनको एकाग्र करके संक्षेपसे गायत्रीजपका कार्य पूर्ण किया। इसके बाद सूक्ष्म सुवर्णमयी बालुकासे भरे हुए सुन्दर गंगातटपर आकर वे दोनों बैठ गये और पुण्यात्मा पुरुषों, देवर्षियों तथा महर्षियोंके मुखसे सुनी हुई कथाएँ कहने-सुनने लगे ।। ८-९ ।।
दोनों एकाग्रचित्त होकर प्राचीन वृत्तान्तोंकी चर्चा कर ही रहे थे कि किरणजालसे मण्डित भगवान् भास्करका उदय हुआ। सूर्यदेवका सम्पूर्ण मण्डल देख उन दोनोंने खड़े होकर उनका उपस्थान किया ।। १०३ ।।
उदित होते हुए सूर्यके पास ही आकाशमें उन्हें द्वितीय सूर्यके समान एक दिव्य ज्योति दिखायी दी, जो प्रज्वलित अग्निशिखाके समान प्रकाशित हो रही थी। भारत! वह ज्योति क्रमश: उन दोनोंके समीप आती दिखायी दी ।। ११-१२ ।।
वह प्रभापुञज्ज भगवान् विष्णुका एक विमान था, जो अपनी दिव्य प्रभासे तीनों लोकोंको प्रकाशित करता हुआ अनुपम जान पड़ता था। सूर्य और गरुड़ जिस आकाशशभमार्गसे चलते हैं, उसीपर वह भी चल रहा था ।।
उस विमानमें उन दोनोंने कमलदलपर विराजमान साक्षात् लक्ष्मीदेवीको देखा, जो पद्माके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें बहुत-सी परम शोभामयी सुन्दरी अप्सराएँ आगे किये खड़ी थीं। लक्ष्मीदेवीकी आकृति विशाल थी। वे अंशुमाली सूर्यके समान तेजस्विनी थीं और प्रज्वलित अग्निकी ज्वालाके समान जाज्वल्यमान हो रही थीं। उनके आभूषण नक्षत्रोंके समान चमक रहे थे। मोती-जैसे रत्नोंके हार उनके कण्ठदेशकी शोभा बढ़ा रहे थे।। १४-१५ ||
अड्भरनाओंमें परम उत्तम लक्ष्मीदेवी उस विमानके अग्रभागसे उतरकर त्रिभुवनपति इन्द्र और देवर्षि नारदके पास आयीं ।। १६ ।।
आगे-आगे नारदजी और उनके पीछे साक्षात् इन्द्रदेव हाथ जोड़े हुए देवीकी ओर बढ़े। उन्होंने स्वयं ही देवीको आत्मसमर्पण करके उनकी अनुपम पूजा की। राजन! तत्पश्चात् सर्वज्ञ देवराजने लक्ष्मीदेवीसे इस प्रकार कहा ।। १७-१८ ।।
इन्द्र बोले--चारुहासिनि! तुम कौन हो? और किस कार्यसे यहाँ आयी हो? सुन्दर भौंहोंवाली देवि! तुम्हारा शुभागमन कहाँसे हुआ है? और शुभे! तुम्हें जाना कहाँ है? ।। १९ |।
लक्ष्मीने कहा--इन्द्र! तीनों पुण्यमय लोकोंके समस्त चराचर प्राणी मुझे प्राप्त करनेकी इच्छासे परम उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते रहते हैं || २० ।।
मैं समस्त प्राणियोंको ऐश्वर्य प्रदान करनेके लिये सूर्यकी किरणोंके तापसे खिले हुए कमलनमें प्रकट हुई हूँ। मेरा नाम पद्मा, श्री और पद्ममालिनी है || २१ ।।
बलसूदन! मैं ही लक्ष्मी हूँ। मैं ही भूति हूँ और मैं ही श्री हूँ। मैं श्रद्धा, मेधा, संनति, विजिति, स्थिति, धृति, सिद्धि, कान्ति, समृद्धि, स्वाहा, स्वधा, संस्तुति, नियति और स्मृति हूँ ।। २२-२३ ।।
युद्धमें विजय पानेवाले राजाओंकी सेनाओंके अग्रभागमें फहरानेवाले ध्वजाओंपर और स्वभावसे ही धर्माचरण करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषोंके निवासस्थानमें, उनके राज्य और नगरोंमें भी मैं सदा निवास करती हूँ || २४ ।।
बलसूदन! संग्रामसे पीछे न हटनेवाले तथा विजयसे सुशोभित होनेवाले शूरवीर नरेशके शरीरमें भी मैं सदा ही मौजूद रहती हूँ | २५ ।।
नित्य धर्माचरण करनेवाले, परम बुद्धिमान, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी, विनयी तथा दानशील पुरुषमें भी मैं सदा ही निवास करती हूँ | २६ ।।
सत्य और धर्मसे बँधकर पहले मैं असुरोंके यहाँ रहती थी। अब उन्हें धर्मके विपरीत देखकर मैंने तुम्हारे यहाँ रहना पसंद किया है || २७ ।।
इन्द्रने कहा--सुमुखि! दैत्योंका आचरण पहले कैसा था? जिससे तुम उनके पास रहती थी और अब क्या देखा है, जो उन दैत्यों और दानवोंको छोड़कर यहाँ चली आयी हो? ॥ २८ ।।
लक्ष्मीने कहा--इन्द्र! जो अपने धर्मका पालन करते, धैर्यसे कभी विचलित नहीं होते और स्वर्गप्राप्तिके साधनोंमें सानन्द लगे रहते हैं, उन प्राणियोंके भीतर मैं सदा निवास करती हूँ ।। २९ ।।
पहले दैत्यलोग दान, अध्ययन और यज्ञ-यागमें संलग्न रहते थे। देवता, गुरु, पितर और अतिथियोंकी पूजा करते थे। उनके यहाँ सत्यका भी पालन होता था ।। ३० ।।
वे अपना घर-द्वार झाड़-बुहारकर साफ रखते थे। अपनी स्त्रीके मनको प्यारसे जीत लेते थे। प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे। वे गुरुसेवी, जितेन्द्रिय, ब्राह्मणभक्त तथा सत्यवादी थे।। ३१ ।।
उनमें श्रद्धा थी। वे क्रोधको जीत चुके थे। वे दानी थे। दूसरोंके गुणोंमें दोषदृष्टि नहीं रखते थे और ईर्ष्यारहित थे। वे स्त्री, पुत्र और मन्त्री आदिका भरण-पोषण करते थे ।। ३२ ।।
अमर्षवश कभी एक-दूसरेके प्रति लाग-डाँट नहीं रखते थे। सभी धीर स्वभावके थे। दूसरोंकी समृद्धियोंसे उनके मनमें कभी संताप नहीं होता था ।। ३३ ।।
वे दान देते, कर आदिके द्वारा धन-संग्रह करते तथा आर्य-जनोचित आचार-विचारसे रहते थे। वे दया करना जानते थे। वे दूसरोंपर महान् अनुग्रह करनेवाले थे। वे सभी सरल स्वभावके और दृढ़तापूर्वक भक्ति रखनेवाले थे। उन सबने अपनी इन्द्रियोॉंपर विजय पायी थी ।। ३४ ।।
वे अपने भृत्यों और मन्त्रियोंको संतुष्ट रखते थे। कृतज्ञ और मधुरभाषी थे। सबका समुचित रूपसे सम्मान करते, सबको धन देते, लज्जाका सेवन करते और व्रत एवं नियमोंका पालन करते थे ।। ३५ ।।
सदा ही पर्वोपर विशेष स्नान करते, अपने अंगोंमें चन्दन लगाते और सुन्दर अलंकार धारण करते थे। स्वभावसे ही उपवास और तपमें लगे रहते थे। सबके विश्वासपात्र थे और वेदोंका स्वाध्याय किया करते थे ।।
दैत्य कभी प्रात:काल सोये नहीं रहते थे। उनके सोते समय सूर्य नहीं उगते थे; अर्थात् वे सूर्योदयसे पहले ही जाग उठते थे। वे रातमें कभी दही और सत्तू नहीं खाते थे || ३७ ।।
वे मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते, सबेरे उठकर घीका दर्शन करते, वेदोंका पाठ करते, अन्य मांगलिक वस्तुओंको देखते और ब्राह्मणोंकी पूजा करते थे || ३८ ।।
सदा धर्मकी ही चर्चामें लगे रहते और प्रतिग्रहसे दूर रहते थे। रातके आधे भागमें ही सोते थे और दिनमें नहीं सोते थे ।। ३९ ।।
कृपण, अनाथ, वृद्ध, दुर्बल, रोगी और स्त्रियोंपर दया करते तथा उनके लिये अन्न और वस्त्र बाँटते थे। इस कार्यका वे सदा अनुमोदन किया करते थे || ४० ।।
त्रस्त, विषादग्रस्त, उद्विग्न, भयभीत, व्याधिग्रस्त, दुर्बल और पीड़ितको तथा जिसका सर्वस्व लुट गया हो, उस मनुष्यको वे सदा ढाढ़स बँँधाया करते थे ।। ४१ ।।
वे धर्मका ही आचरण करते थे। एक-दूसरेकी हिंसा नहीं करते थे। सब कार्योंमें परस्पर अनुकूल रहते और गुरुजनों तथा बड़े-बूढ़ोंकी सेवामें दत्तचित्त थे || ४२ ।।
पितरों, देवताओं और अतिथियोंकी विधिवत् पूजा करते थे तथा उन्हें अर्पण करनेके पश्चात् बचे हुए अन्नको ही प्रसादरूपमें पाते थे। वे सभी सत्यवादी और तपस्वी थे ।। ४३
वे अकेले बढ़िया भोजन नहीं करते थे। पहले दूसरोंको देकर पीछे अपने उपभोगमें लाते थे। परायी स्त्रीसे कभी संसर्ग नहीं रखते थे। सब प्राणियोंको अपने ही समान समझकर उनपर दया रखते थे ।। ४४ ।।
वे आकाशमें, पशुओंमें, विपरीत योनिमें तथा पर्वके अवसरोंपर वीर्यत्याग करना कदापि अच्छा नहीं मानते थे || ४५ ।।
प्रभो! नित्य दान, चतुरता, सरलता, उत्साह, अहंकारशून्यता, परम सौहार्द, क्षमा, सत्य, दान, तप, शौच, करुणा, कोमल वचन, मित्रोंसे द्रोह न करनेका भाव--ये सभी सदगुण उनमें सदा मौजूद रहते थे || ४६-४७ ।।
निद्रा, तन्दा (आलस्य), अप्रसन्नता, दोषदृष्टि, अविवेक, अप्रीति, विषाद और कामना आदि दोष उनके भीतर प्रवेश नहीं कर पाते थे ।। ४८ ।।
इस प्रकार उत्तम गुणोंवाले दानवोंके पास सृष्टिकालसे लेकर अबतक मैं अनेक युगोंसे रहती आयी हूँ ।। ४९ ।।
किंतु समयके उलट-फेरसे उनके गुणोंमें विपरीतता आ गयी। मैंने देखा, दैत्योंमें धर्म नहीं रह गया है। वे काम और क्रोधके वशीभूत हो गये हैं || ५० ।।
जब बड़े-बूढ़े लोग उस सभामें बैठकर कोई बात कहते हैं, तब गुणहीन दैत्य उनमें दोष निकालते हुए उन सब वृद्ध पुरुषोंकी हँसी उड़ाया करते हैं ।। ५१ ।।
ऊँचे आसनोंपर बैठे हुए नवयुवक दैत्य बड़े-बूढ़ोंके आ जानेपर भी पहलेकी भाँति न तो उठकर खड़े होते हैं और न प्रणाम करके ही उनका आदर-सत्कार करते हैं ।। ५२
बापके रहते ही बेटा मालिक बन बैठता है। वे शत्रुओंके सेवक बनकर अपने उस कर्मको निर्लज्जतापूर्वक दूसरोंके सामने कहते हैं || ५३ ।।
धर्मके विपरीत निन्दित कर्मद्वारा जिन्हें महान् धन प्राप्त हो गया है, उनकी उसी प्रकार धनोपार्जन करनेकी अभिलाषा बढ़ गयी है || ५४ ।।
दैत्य रातमें जोर-जोरसे हल्ला मचाते हैं और उनके यहाँ अग्निहोत्रकी आग मन्दगतिसे जलने लगी है। पुत्रोंने पिताओंपर और स्त्रियोंने पतियोंपर अत्याचार आरम्भ कर दिया है ।। ५५ ||
दैत्य और दानव गुरुत्व होते हुए भी माता-पिता, वृद्ध पुरुष, आचार्य, अतिथि और गुरुजनोंका अभिनन्दन नहीं करते हैं। संतानोंके लालन-पालनपर भी ध्यान नहीं देते हैं ।। ५६ ।।
देवताओं, पितरों, गुरुजनों तथा अतिथियोंका यजन-पूजन और उन्हें अन्नदान किये बिना, भिक्षादान और बलिवैश्वदेव-कर्मका सम्पादन किये बिना ही दैत्यलोग स्वयं भोजन कर लेते हैं ।। ५७ ।।
दैत्य तथा उनके रसोइये मन, वाणी और क्रियाद्वारा शौचाचारका पालन नहीं करते हैं। उनका भोजन बिना ढके ही छोड़ दिया जाता है ।। ५८ ।।
उनके घरोंमें अनाजके दाने बिखरे रहते हैं और उन्हें कौए तथा चूहे खाते हैं। वे दूधको बिना ढके छोड़ देते हैं और घीको जूठे हाथोंसे छू देते हैं । ५९ ।।
दैत्योंकी गृहस्वामिनियाँ घरमें इधर-उधर बिखरे हुए कुदाल, दराँती (या हँसुआ), पिटारी, काँसेके बर्तन तथा अन्य सब द्रव्यों और सामानोंकी देख-भाल नहीं करती हैं ।। ६० ।।
उनके गाँवों और नगरोंकी चहारदिवारी तथा घर गिर जाते हैं; परंतु वे उसकी मरम्मत नहीं कराते हैं। दैत्यलोग पशुओंको घरमें बाँध देते हैं, किंतु चारा और पानी देकर उनकी सेवा नहीं करते हैं || ६१ ।।
छोटे बच्चे आशा लगाये देखते रहते हैं और दानवलोग खानेकी चीजें स्वयं खा लेते हैं। सेवकों तथा अन्य सब कुट॒म्बीजनोंको भूखे छोड़कर अपने खा लेते हैं || ६२ ।।
खीर, खिचड़ी, मांस, पूछा और पूरी आदि भोजन वे सिर्फ अपने खानेके लिये बनवाते हैं तथा वे व्यर्थ ही मांस खाया करते हैं ।। ६३ ।।
अब वे सूर्योदय होनेतक सोने लगे हैं। प्रातः:कालको भी रात ही समझते हैं। उनके घरघरमें दिन-रात कलह मचा रहता है ।। ६४ ।।
दानवोंके यहाँ अनार्य वहाँ बैठे हुए आर्य पुरुषकी सेवामें उपस्थित नहीं होते हैं। अधर्मपरायण दैत्य आश्चमवासी महात्माओंसे तथा आपसमें भी द्वेष रखते हैं || ६५ ।।
अब उनके यहाँ वर्णसंकर संतानें होने लगी हैं। किसीमें पवित्रता नहीं रह गयी है। जो वेदोंके विद्वान ब्राह्मण हैं और जो स्पष्ट ही वेदकी एक ऋचा भी नहीं जानते हैं, उन दोनोंमें वे दैत्यलोग कोई अन्तर या विशेषता नहीं समझते हैं और न उनका मान या अपमान करनेमें ही कोई अन्तर रखते हैं ।। ६६३ ।।
वहाँकी दासियाँ सुन्दर हार एवं अन्य आभूषण पहनकर मनोहर वेष धारण करतीं और दुराचारिणी स्त्रियोंकी भाँति चलती-फिरती, खड़ी होती और कटाक्ष करती हैं। साथ ही वे उस कुकृत्यको अपनाती हैं, जिसका आचरण दुराचारीजन करते हैं ।। ६७ ३ ।।
क्रीडा, रति और विहारके अवसरोंपर वहाँकी स्त्रियाँ पुरुषवेष धारण करके और पुरुष स्त्रियोंका वेष बनाकर एक-दूसरेसे मिलते और बड़े आनन्दका अनुभव करते हैं || ६८
कितने ही दानव पूर्वकालमें अपने पूर्वजोंद्वारा सुयोग्य ब्राह्मणोंको दानके रूपमें दी हुई जागीरें नास्तिकताके कारण उनके पास रहने नहीं देते हैं यद्यपि वे अन्य सम्भव उपायोंसे जीवन-निर्वाह कर सकते हैं तथापि उस दिये हुए दानको छीन लेते हैं ।। ६९ $ ।।
कहीं धनके विषयमें संशय उपस्थित होनेपर अर्थात् यह धन न्यायतः मेरा है या दूसरेका, यह प्रश्न खड़ा होनेपर यदि उस धनका अधिकारी व्यक्ति अपने किसी मित्रसे प्रार्थना करता है कि वह पंचायतद्वारा इस मामलेको निपटा दे तो वह मित्र अपने बालकी नोकके बराबर स्वार्थके लिये भी उसकी उस सम्पत्तिको चौपट कर देता है || ७० ६ ।।
दानवोंके यहाँ जो व्यापारी हैं, वे सदा दूसरोंका धन ठग लेनेका ही विचार रखते हैं तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंमें शूद्र भी मिलकर तपोधन बन बैठे हैं || ७१३ ।।
कुछ लोग ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन किये बिना ही वेदोंका स्वाध्याय करते हैं, कुछ लोग व्यर्थ (अवैदिक) व्रतका आचरण करते हैं || ७२ ।।
शिष्य गुरुकी सेवा करना नहीं चाहता। कोई-कोई गुरु भी ऐसा है जो शिष्योंको दोस्त बनाकर रखता है ।।
जब पिता और माता उत्सवशून्यकी भाँति थक जाते हैं, तब घरमें उनकी कोई प्रभुता नहीं रह जाती। वे दोनों बूढ़े दम्पति बेटोंसे अन्नकी भीख माँगते हैं | ७३ ३ ।।
वहाँ जो वेदवेत्ता ज्ञानी तथा गम्भीरतामें समुद्रके समान पुरुष हैं, वे तो खेती आदि कार्योमें संलग्न हो गये हैं और मूर्खलोग श्राद्धान्न खाते फिरते हैं || ७४६ ।।
गुरुलोग प्रतिदिन प्रातः:काल जाकर शिष्योंसे पूछते हैं कि आपकी रात सुखसे बीती है न? इसके सिवा वे उन शिष्योंके वस्त्र आदि ठीकसे पहनाते और उनकी वेश-भूषा सँवारते हैं तथा उनकी ओरसे कोई प्रेरणा न होनेपर भी स्वयं ही उनके संदेशवाहक दूत आदिका कार्य करते हैं || ७५३६ ।।
सास-ससुरके सामने ही बहू सेवकोंपर शासन करने लगी है। वह पतिको भी आदेश देती है और सबके सामने पतिको बुलाकर उससे बात करती है || ७६६ ।।
पिता विशेष प्रयत्नपूर्वक पुत्रका मन रखते हैं। वे उनके क्रोधसे डरकर सारा धन पुत्रोंकोी बाँट देते हैं और स्वयं बड़े कष्टसे जीवन बिताते हैं || ७७ $ ।।
जिन्हें हितेषी और मित्र समझा जाता था, वे ही लोग जब अपने सम्बन्धीके धनको आग लगने, चोरी हो जाने अथवा राजाके द्वारा छिन जानेसे नष्ट हुआ देखते हैं, तब द्वेषवश उसकी हँसी उड़ाते हैं || ७८३ ।।
दैत्यगण कृतघ्न, नास्तिक, पापाचारी तथा गुरुपत्नीगामी हो गये हैं। जो चीज नहीं खानी चाहिये, वे भी खाते और धर्मकी मर्यादा तोड़कर मनमाने आचरण करते हैं। इसीलिये वे कान्तिहीन हो गये हैं || ७९६ ।।
देवेन्द्र! जबसे इन दैत्योंने ये धर्मके विपरीत आचरण अपनाये हैं, तबसे मैंने यह निश्चय कर लिया है कि अब इन दानवोंके घरमें नहीं रहूँगी || ८०३ ।।
शचीपते! देवेश्वर! इसीलिये मैं स्वयं तुम्हारे यहाँ आयी हूँ। तुम मेरा अभिनन्दन करो। तुमसे पूजित होनेपर मुझे अन्य देवता भी अपने सम्मुख स्थापित (एवं सम्मानित) करेंगे ।। ८१६ ।।
जहाँ मैं रहूँगी, वहाँ सात देवियाँ और निवास करेंगी, उन सबके आगे आठवीं जया देवी भी रहेंगी। ये आठों देवियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं, मुझसे भी श्रेष्ठ हैं और मुझे आत्मसमर्पण कर चुकी हैं || ८२६ ।।
पाकशासन! उन देवियोंके नाम इस प्रकार हैं--आशा, श्रद्धा, धृति, शान्ति, विजिति, संनति, क्षमा और आठवीं वृत्ति (जया)। ये आठवीं देवी उन सातोंकी अग्रगामिनी हैं ।। ८३ ई ||
वे देवियाँ और मैं सब-के-सब उन असुरोंको त्यागकर तुम्हारे राज्यमें आयी हैं। देवताओंकी अन्तरात्मा धर्ममें निष्ठा रखनेवाली है; इसलिये अब हमलोग इन्हींके यहाँ निवास करेंगी ।। ८४३६ ।।
(भीष्मजी कहते हैं--) लक्ष्मीदेवीके इस प्रकार कहनेपर देवर्षि नारद तथा वृत्रहन्ता इन्द्रने उनकी प्रसन्नताके लिये उनका अभिनन्दन किया || ८५३ ।।
उस समय देवमार्गोंपर मनोरम गन्ध और सुखद स्पर्शसे युक्त तथा सम्पूर्ण इन्द्रियोंको आनन्द प्रदान करनेवाले वायुदेव, जो अग्निदेवताके मित्र हैं, मन्दगतिसे बहने लगे ।। ८६½।।
उस परम पवित्र एवं मनोवाडञ्छित प्रदेशमें राजलक्ष्मीसहित इन्द्रदेवका दर्शन करनेके लिये प्रायः सभी देवता उपस्थित हो गये ।। ८७-८८ ।।
तत्पश्चात् सहसनेत्रधारी सुरश्रेष्ठ इन्द्र लक्ष्मीदेवी तथा अपने सुहृद् महर्षि नारदके साथ हरे रंगके घोड़ोंसे जुते हुए रथपर बैठकर स्वर्गलोककी राजधानी अमरावतीमें आये और देवताओंसे सत्कृत हो उनकी सभामें गये ।। ८९ ।।
उस समय अमरोंके पौरुषको प्रत्यक्ष देखनेवाले देवर्षि नारदजीने अन्य महर्षियोंके साथ मिलकर वज्धारी इन्द्र और लक्ष्मीदेवीके संकेतपर मन-ही-मन विचार करके वहाँ लक्ष्मीजीके शुभागमनकी प्रशंसा की और उनका पदार्पण सम्पूर्ण लोकोंके लिये मंगलकारी बताया ।। ९० ||
तदनन्तर निर्मल एवं प्रकाशपूर्ण आकाशमण्डल स्वयम्भू ब्रह्माजीके भवनमें अमृतकी वर्षा करने लगा। देवताओंकी दुन्दुभियाँ बिना बजाये ही बज उठीं तथा सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ एवं प्रकाशित दिखायी देने लगीं ।। ९१ ।।
लक्ष्मीजीके स्वर्गमें पधारनेपर इन्द्रदेव ऋतुके अनुसार संसारमें लगी हुई खेतीको सींचनेके लिये समयपर वर्षा करने लगे। कोई भी धर्मके मार्गसे विचलित नहीं होता था तथा अनेक समुद्रोंसे विभूषित हुई पृथ्वी उन समुद्रोंकी गर्जनाके रूपमें त्रिभुवनवासियोंकी विजयके लिये मानो सुन्दर जयघोष करने लगी || ९२ ।।
उस समय मनस्वी मानव पुण्यवानोंके मंगलमय पथपर स्थित हो सत्कर्मोंसे परम सुन्दर शोभा पाने लगे तथा देवता, किन्नर, यक्ष, राक्षस और मनुष्य समृद्धिशाली एवं उदारचेता हो गये ।। ९३ ।।
उन दिनों अकाल मृत्युकी तो बात ही क्या है, प्रचण्ड पवनके वेगपूर्वक हिलानेसे भी किसी वृक्षसे असमयमें फ़ूलतक नहीं गिरता था; फिर फल कहाँसे गिरेगा? सभी धेनुएँ दुग्ध आदि रस देती थीं। वे इच्छानुसार दुग्ध दिया करती थीं। किसीके मुखसे कभी कोई कठोर वचन नहीं निकलता था ।। ९४ ।।
सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाले इन्द्र आदि देवताओंद्वारा की हुई लक्ष्मीजीकी इस पूजाअर्चाके प्रसंगको जो लोग ब्राह्मणोंकी सभामें आकर पढ़ते हैं, उनकी सारी कामनाएँ सम्पन्न होती हैं और वे लक्ष्मी भी प्राप्त कर लेते हैं || ९५ ।।
कुरुश्रेष्ठ युधिष्ठिर! तुमने जो अभ्युदय-पराभवका लक्षण पूछा था, वह सब मैंने आज यह उत्तम दृष्टान्त देकर बता दिया। तुम्हें स्वयं सोच-विचारकर उसकी यथार्थताका निश्चय करना चाहिये ।। ९६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें लक्ष्मी और इन्द्रका संवादनामक दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ उनत्तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उनत्तीसवें अध्याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)
“जैगीषव्यका असित-देवलको समत्वबुद्धिका उपदेश”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! कैसे शील, किस तरहके आचरण, कैसी विद्या और कैसे पराक्रमसे युक्त होनेपर मनुष्य प्रकृतिसे परे अविनाशी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है? || १ ॥।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो पुरुष मिताहारी और जितेन्द्रिय होकर मोक्षोपयोगी धर्मोके पालनमें संलग्न रहता है, वही प्रकृतिसे परे अविनाशी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है ।। २।।
भारत! इस विषयमें भी जैगीषव्य और असित-देवल मुनिका संवादरूप यह पुरातन इतिहास उदाहरणके तौरपर प्रस्तुत किया जाता है || ३ ।।
एक बार सम्पूर्ण धर्मोको जाननेवाले शास्त्रवेत्ता, महाज्ञानी और क्रोध एवं हर्षसे रहित जैगीषव्य मुनिसे असित-देवलने इस प्रकार पूछा ।। ४ ।।
देवल बोले--मुनिवर! यदि आपको कोई प्रणाम करे, तो आप अधिक प्रसन्न नहीं होते और निन्दा करे तो भी आप उसपर क्रोध नहीं करते, यह आपकी बुद्धि कैसी है? कहाँसे प्राप्त हुई है? और आपकी इस बुद्धिका परम आश्रय क्या है? ।। ५ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! देवलके इस प्रकार प्रश्न करनेपर महातपस्वी जैगीषव्यने उनसे इस प्रकार संदेहरहित, प्रचुर अर्थका बोधक, पवित्र और उत्तम वचन कहा ।। ६ ।।
जैगीषव्य बोले--मुनिश्रेष्ठ! पुण्यकर्म करनेवाले महापुरुषोंको जिसका आश्वय लेनेसे उत्तम गति, उत्कर्षकी चरम सीमा और परम शान्ति प्राप्त होती है, उस श्रेष्ठ बुद्धिका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ || ७ ।।
देवल! महात्मा पुरुषोंकी कोई निन्दा करे या सदा उनकी प्रशंसा करे अथवा उनके सदाचार तथा पुण्य कर्मोंपर पर्दा डाले, किंतु वे सबके प्रति एक-सी ही बुद्धि रखते हैं ।। ८ ।।
उन मनीषी पुरुषोंसे कोई कटु वचन कह दे तो वे उस कटुवादी पुरुषको बदलेमें कुछ नहीं कहते। अपना अहित करनेवालेका भी हित ही चाहते हैं तथा जो उन्हें मारता है, उसे भी वे बदलेमें मारना नहीं चाहते हैं ।। ९ ।।
जो अभी सामने नहीं आयी है या भविष्यमें होनेवाली है, उसके लिये वे शोक या चिन्ता नहीं करते हैं। वर्तमान समयमें जो कार्य प्राप्त हैं, उन्हींको वे करते हैं। जो बातें बीत गयी हैं, उनके लिये भी उन्हें शोक नहीं होता है और वे किसी बातकी प्रतिज्ञा नहीं करते हैं || १० ।।
देवल! यदि कोई कामना मनमें लेकर किन्हीं विशेष प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये पूजनीय पुरुष उनके पास आ जायाँ तो वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाले शक्तिशाली महात्मा यथाशक्ति उनके कार्य-साधनकी चेष्टा करते हैं || ११ ।।
उनका ज्ञान परिपक्व होता है। वे महाज्ञानी, क्रोधको जीतनेवाले और जितेन्द्रिय होते हैं तथा मन, वाणी और शरीरसे कभी किसीका अपराध नहीं करते हैं |। १२ ।।
उनके मनमें एक-दूसरेके प्रति ईर्ष्या नहीं होती। वे कभी हिंसा नहीं करते तथा वे धीर पुरुष दूसरोंकी समृद्धियोंसे कभी मन-ही-मन जलते नहीं हैं ।। १३ ।।
वे दूसरोंकी न तो निन््दा करते हैं और न अधिक प्रशंसा ही। उनकी भी कोई निन्दा या प्रशंसा करे तो उनके मनमें कभी विकार नहीं होता है || १४ ।।
वे सर्वथा शान्त और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहते हैं, न कभी क्रोध करते हैं, न हर्षित होते हैं और न किसीका अपराध ही करते हैं || १५ ।।
वे हृदयकी अज्ञानमयी गाँठ खोलकर चारों ओर आनन्दके साथ विचरा करते हैं। न उनके कोई भाई-बन्धु होते हैं और न वे ही दूसरोंके भाई-बन्धु होते हैं || १६ ।।
न उनके कोई शत्रु होते हैं और न वे ही किसीके शत्रु होते हैं। जो मनुष्य ऐसा करते हैं, वे सदा सुखसे जीवन बिताते हैं || १७ ।।
द्विजश्रेष्ठ! जो धर्मके अनुसार चलते हैं, वे ही धर्मज्ञ हैं। तथा जो धर्ममार्गसे भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें ही हर्ष-उद्वेग आदि प्राप्त होते हैं ।। १८ ।।
मैंने भी उसी धर्ममार्गका अवलम्बन किया है; अत: अपनी निन्दा सुनकर क्यों किसीके प्रति द्वेष-दृष्टि करूँ? अथवा प्रशंसा सुनकर भी किसलिये हर्ष मानूँ? || १९ ।।
मनुष्य निंदा और प्रशंसामेंसे जिससे जो-जो लाभ उठाना चाहते हों, उससे वह-वह लाभ उठा लें। उस निन्दा और प्रशंसासे न मेरी कोई हानि होगी, न लाभ ।। २० ।।
तत्त्वज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह अपमानको अमृतके समान समझकर उससे संतुष्ट हो और विद्वान् मनुष्य सम्मानको विषके तुल्य समझकर उससे सदा डरता रहे ।।
सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त महात्मा पुरुष अपमानित होनेपर भी इस लोक और परलोकमें निर्भय होकर सुखसे सोता है; परंतु उसका अपमान करनेवाला पुरुष पापाबन्धनमें पड़ जाता है || २२ ।।
जो मनीषी पुरुष उत्तम गति प्राप्त करना चाहते हैं, वे इस उत्तम व्रतका आश्वय लेकर सुखी एवं अभ्युदयशील होते हैं || २३ ।।
मनुष्यको चाहिये कि सारे काम्य-कर्मोंका परित्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियोंको वशमें कर ले। फिर वह प्रकृतिसे परे अविनाशी ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है ।। २४ ।।
परमगतिको प्राप्त हुए उस ज्ञानी महात्माके पदका अनुसरण न देवता कर पाते हैं न गन्धर्व, न पिशाच कर पाते हैं और न राक्षस ही ।। २५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपरवकि अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जैगीषव्य और असितदेवलसंवादविषयक दो सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ तीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तीसवें अध्याय के श्लोक 1-96 का हिन्दी अनुवाद)
“श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवाद--नारदजीकी लोकप्रियताके हेतुभूत गुणोंका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! इस भूतलपर कौन ऐसा मनुष्य है; जो सब लोगोंका प्रिय, सम्पूर्ण प्राणियोंकों आनन्द प्रदान करनेवाला तथा समस्त सदगुणोंसे सम्पन्न है।। १।।
भीष्मजीने कहा--भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे इस प्रश्नके उत्तरमें मैं श्रीकृष्ण और उमग्रसेनका संवाद सुनाता हूँ, जो नारदजीके विषयमें हुआ था ।। २ ।।
उग्रसेन बोले--जनार्दन! सब लोग जिनके गुणोंका कीर्तन करनेकी इच्छा रखते हैं, वे नारदजी मेरी समझमें अवश्य उत्तम गुणोंसे सम्पन्न हैं; अतः मैं उनके गुणोंके विषयमें पूछता हूँ, तुम मुझे बताओ ।। ३ ।।
श्रीकृष्णने कहा--कुकुरकुलके स्वामी! नरेश्वर! मैं नारदके जिन उत्तम गुणोंको मानता और जानता हूँ, उन्हें संक्षेपसे बताना चाहता हूँ। आप मुझसे उनका श्रवण कीजिये ।। ४ ।।
नारदजीमें शास्त्रज्ञान और चरित्रबल दोनों एक साथ संयुक्त हैं। फिर भी उनके मनमें अपनी सच्चरित्रताके कारण तनिक भी अभिमान नहीं है। वह अभिमान शरीरको संतप्त करनेवाला है। उसके न होनेसे ही नारदजीकी सर्वत्र पूजा (प्रतिष्ठा) होती है ।। ५ ।।
नारदजीमें अप्रीति, क्रोध, चपलता और भय--ये दोष नहीं हैं, वे दीर्घसूत्री (किसी कामको विलम्बसे करनेवाले या आलसी) नहीं हैं तथा धर्म और दया आदि करमनेमें बड़े शूरवीर हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर होता है || ६ ।।
निश्चय ही नारद उपासना करनेके योग्य हैं। कामना या लोभसे भी कभी उनके द्वारा अपनी बात पलटी नहीं जाती; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है ।। ७ ।।
वे अध्यात्मशास्त्रके तत्त्वज्ञ विद्वान, क्षमाशील, शक्तिमान, जितेन्द्रिय, सरल और सत्यवादी हैं। इसीलिये वे सर्वत्र पूजे जाते हैं ।। ८ ।।
नारदजी तेज, बुद्धि, यश, ज्ञान, विनय, जन्म और तपस्याद्वारा भी सबसे बढ़े-चढ़े हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है ।। ९ ।।
वे सुशील, सुखसे सोनेवाले, पवित्र भोजन करनेवाले, उत्तम आदरके पात्र, पवित्र, उत्तम वचन बोलनेवाले तथा ईष्यसे रहित हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा हुई है ।। १०
वे खुले दिलसे सबका कल्याण करते हैं। उनके मनमें लेशमात्र भी पाप नहीं है। दूसरोंका अनर्थ देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं होती; इसीलिये उनका सब जगह सम्मान होता है ।। ११ ||
नारदजी वेदों और उपनिषदोंकी, श्रुतियों तथा इतिहास-पुराणकी कथाओंद्वारा प्रस्तुत विषयोंको समझाने और सिद्ध करनेकी चेष्टा करते हैं। वे सहनशील तो हैं ही, कभी किसीकी अवज्ञा नहीं करते हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है ।।
वे सर्वत्र समभाव रखते हैं; इसलिये उनका न कोई प्रिय है और न किसी तरह अप्रिय ही है। वे मनके अनुकूल बोलते हैं, इसलिये सर्वत्र उनका आदर होता है ।। १३ ।।
वे अनेक शास्त्रोंके विद्वान् हैं और उनका कथा कहनेका ढंग भी बड़ा विचित्र है। उनमें पूर्ण पाण्डित्य होनेके साथ ही लालसा और शठताका भी अभाव है। दीनता, क्रोध और लोभ आदि दोषणसे वे सर्वथा रहित हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है ।। १४ ।।
धन, अन्य कोई प्रयोजन अथवा कामके विषयमें नारदजीका पहले कभी किसीके साथ कलह हुआ हो, ऐसी बात नहीं है। उनमें समस्त दोषोंका अभाव है, इसीलिये उनका सब जगह आदर होता है || १५ ।।
उनकी मेरे प्रति दृढ़ भक्ति है। उनका हृदय शुद्ध है। वे विद्वान् और दयालु हैं। उनके मोह आदि दोष दूर हो गये हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर है || १६ ।।
वे सम्पूर्ण प्राणियोंमें आसक्तिसे रहित हैं; फिर भी आसक्त हुए-से दिखायी देते हैं। उनके मनमें दीर्घकालतक कोई संशय नहीं रहता और वे बहुत अच्छे वक्ता हैं; इसीलिये उनकी सर्वत्र पूजा होती है ।। १७ ।।
उनका मन कभी विषयभोगोंमें स्थित नहीं होता और वे कभी अपनी प्रशंसा नहीं करते हैं। किसीके प्रति ईर्ष्या नहीं रखते तथा सबसे मीठे वचन बोलते हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र आदर होता है || १८ ।।
नारदजी लोगोंकी नाना प्रकारकी चित्तवृत्तिको देखते और समझते हैं। फिर भी किसीकी निन्दा नहीं करते। किसका संसर्ग कैसा है? इसके ज्ञानमें वे बड़े निपुण हैं । इसीलिये वे सर्वत्र पूजित होते हैं ।। १९ ।।
वे किसी शास्त्रमें दोषदृष्टि नहीं करते। अपनी नीतिके अनुसार जीवन-यापन करते हैं। समयको कभी व्यर्थ नहीं गँवाते और मनको वशमें रखते हैं; इसीलिये वे सर्वत्र सम्मानित होते हैं | २० ।।
उन्होंने योगाभ्यासके लिये बड़ा परिश्रम किया है। उनकी बुद्धि पवित्र है। उन्हें समाधिसे कभी तृप्ति नहीं होती। वे कर्तव्य-पालनके लिये सदा उद्यत रहते हैं और कभी प्रमाद नहीं करते हैं; इसीलिये सर्वत्र पूजे जाते हैं || २१ ।।
नारदजी निर्लज्ज नहीं हैं। दूसरोंकी भलाईके लिये सदा उद्यत रहते हैं; इसीलिये दूसरे लोग उन्हें अपने कल्याणकारी कार्योमें लगाये रखते हैं तथा वे किसीके गुप्त रहस्यको कहीं प्रकट नहीं करते हैं; इसीलिये उनका सर्वत्र सम्मान होता है || २२ ।।
वे धनका लाभ होनेसे प्रसन्न नहीं होते और उसके न मिलनेसे उन्हें दुःख भी नहीं होता है। उनकी बुद्धि स्थिर और मन आसक्तिरहित है; इसीलिये वे सर्वत्र पूजित हुए हैं || २३ ।।
वे सम्पूर्ण गुणोंसे सुशोभित, कार्यकुशल, पवित्र, नीरोग, समयका मूल्य समझनेवाले और परम प्रिय आत्मतत्त्वके ज्ञाता हैं; फिर कौन उन्हें अपना प्रिय नहीं बनायेगा? ।। २४ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्ण और उग्रसेनका संवादविषयक दो सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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