सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छब्बीसवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और नमुचिका संवाद”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इसी विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और नमुचिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। १ ।।
एक समयकी बात है, दैत्यराज नमुचि राजलक्ष्मीसे च्युत हो गये, तो भी वे प्रशान्त महासागरके समान क्षोभरहित बने रहे; क्योंकि वे कालक्रमसे होनेवाले प्राणियोंके अभ्युदय और पराभवके तत्त्वको जाननेवाले थे। उस समय देवराज इन्द्र उनके पास जाकर इस प्रकार बोले-- || २ ।।
“नमुचे! तुम रस्सियोंसे बाँधे गये, राज्यसे भ्रष्ट हुए, शत्रुओंके वशमें पड़े और धनसम्पत्तिसे वंचित हो गये। तुम्हें अपनी इस दुरवस्थापर शोक होता है या नहीं?” ।। ३
नमुचिने कहा--देवराज! यदि शोकको रोका न जाय तो उसके द्वारा शरीर संतप्त हो उठता है और शत्रु प्रसन्न होते हैं। शोकके द्वारा विपत्तिको दूर करनेमें भी कोई सहायता नहीं मिलती || ४ ।।
इन्द्र! इसीलिये मैं शोक नहीं करता; क्योंकि यह सम्पूर्ण वैभव नाशवान् है। संताप करनेसे रूपका नाश होता है। संतापसे कान्ति फीकी पड़ जाती है और सुरेश्वर! संतापसे आयु तथा धर्मका भी नाश होता है ।।
अतः समझदार पुरुषको वैमनस्यके कारण प्राप्त हुए दुःखका निवारण करके मन-हीमन हृदयस्थित कल्याणमय परमात्माका चिन्तन करना चाहिये || ६६ ।।
पुरुष जब-जब कल्याणस्वरूप परमात्माके चिन्तनमें मन लगाता है, तब-तब उसके सारे मनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें संशय नहीं है |। ७ ।।
जगत्का शासन करनेवाला एक ही है, दूसरा नहीं। वही शासक गर्भमें सोये हुए जीवका भी शासन करता है, जैसे जल निम्न स्थानकी ओर ही प्रवाहित होता है, उसी प्रकार प्राणी उस शासकसे प्रेरित होकर उसकी अभीष्ट दिशाको ही गमन करता है। उस ईश्वरकी जैसी प्रेरणा होती है, उसीके अनुसार मैं भी कार्यभार वहन करता हूँ ।। ८ ।।
मैं प्राणियोंक अभ्युदय और पराभवको जानता हूँ। श्रेष्ठ तत््व्से भी परिचित हूँ और ज्ञानसे कल्याणकी प्राप्ति होती है, इस बातको भी समझता हूँ, तथापि उसका सम्पादन नहीं करता हूँ। इसके विपरीत धर्म-सम्मत अथवा अधर्मयुक्त आशाएँ मनमें लेकर जैसी अन्तर्यामीकी प्रेरणा होती है, उसके अनुसार कार्यभार वहन करता हूँ ।। ९ ।।
पुरुषको जो वस्तु जिस प्रकार मिलनेवाली होती है, वह उस प्रकार मिल ही जाती है। जिस वस्तुकी जैसी होनहार होती है, वह वैसी होती ही है ।। १० ।।
विधाता जिस-जिस गर्भमें रहनेके लिये जीवको बार-बार प्रेरित करते हैं, वह जीव उसी-उसी गर्भमें वास करता है; किंतु वह स्वयं जहाँ रहनेकी इच्छा करता है, वहाँ नहीं रह पाता है ।। ११ ।।
मुझे जो यह अवस्था प्राप्त हुई है, ऐसी ही होनहार थी। जिसके हृदयमें सदा इस तरहकी भावना होती है, वह कभी मोहमें नहीं पड़ता है ।। १२ ।।
कालक्रमसे प्राप्त होनेवाले सुख-दु:खोंद्वारा जो लोग आहत होते हैं, उनके उस दुःखके लिये दूसरा कोई दोषी या अपराधी नहीं है। दुःख पानेका कारण तो यह है कि पुरुष वर्तमान दुःखसे द्वेष करके अपनेको उसका कर्ता मान बैठता है ।। १३ ।।
ऋषि, देवता, बड़े-बड़े असुर, तीनों वेदोंके ज्ञानमें बढ़े हुए विद्वान् पुरुष तथा वनवासी मुनि--इनमेंसे किनके ऊपर संसारमें आपत्तियाँ नहीं आती हैं; परंतु जिन्हें सत्ू-असत्का विवेक है, वे मोह या भ्रममें नहीं पड़ते हैं || १४ ।।
विद्वान पुरुष कभी क्रोध नहीं करता, कहीं आसक्त नहीं होता, अनिष्टकी प्राप्ति होनेपर दुःखसे व्याकुल नहीं होता और किसी प्रिय वस्तुको पाकर अत्यन्त हर्षित नहीं होता है। आर्थिक कठिनाई या संकटके समय भी वह शोक ग्रस्त नहीं होता है; अपितु हिमालयके समान स्वभावसे ही अविचल बना रहता है ।। १५ ।।
जिसे उत्तम अर्थसिद्धि मोहमें नहीं डालती, इसी तरह जो कभी संकट पड़नेपर धैर्य या विवेकको खो नहीं बैठता तथा सुखका, दुःखका और दोनोंके बीचकी अवस्थाका समान भावसे सेवन करता है, वही महान् कार्यभारको सँभालनेवाला श्रेष्ठ पुरुष माना जाता है ।। १६ ||
पुरुष जिस-जिस अवस्थाको प्राप्त हो, उसीमें उसे संतप्त न होकर आनन्द मानना चाहिये। इस प्रकार संतापजनक बढ़े हुए कामको अपने शरीर और मनसे पूर्णतः निकाल दे ।। १७ |।
न तो ऐसी कोई सभा है, न साधु-सत्पुरुषोंकी कोई परिषद् है और न कोई ऐसा जनसमाज ही है, जिसे पाकर कोई पुरुष कभी भय न करे। जो बुद्धिमान धर्मतत्त्वमें अवगाहन करके उसीको अपनाता है, वही धुरंधर माना गया है ।। १८ ।।
विद्वान् पुरुषके सारे कार्य साधारण लोगोंके लिये दुर्बोध होते हैं। विद्वान् पुरुष मोहके अवसरपर भी मोहित नहीं होता। जैसे वृद्ध गौतममुनि अत्यन्त कष्टजनक विपत्तिमें पड़कर और पदच्युत होकर भी मोहित नहीं हुए ।। १९ ।।
जो वस्तु नहीं मिलनेवाली होती है, उसको कोई मनुष्य मन्त्र, बल, पराक्रम, बुद्धि, पुरुषार्थ, शील, सदाचार और धन-सम्पत्तिसे भी नहीं पा सकता; फिर उसके लिये शोक क्यों किया जाय? ।। २० ।।
पूर्वकालमें विधाताने मेरे लिये जैसा विधान रच रक्खा है, मैं जन्मके पश्चात् उसीका अनुसरण करता आया हूँ और आगे भी करूँगा; अतः मृत्यु मेरा क्या करेगी? ।। २१ ।।
मनुष्यको प्रारब्धके विधानसे जो कुछ पाना है, उसीको वह पाता है। जहाँ जाना है, वहीं वह जाता है और जो भी सुख या दुःख उसके लिये प्राप्तव्य हैं, उन्हें वह प्राप्त करता है।।
यह पूर्णरूपसे जानकर जो मनुष्य कभी मोहित नहीं होता है, वह सब प्रकारके दु:खोंमें सकुशल रहता है और वही हर तरहसे धनवान् है || २३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें इन्द्र और नमुचिका संवादनामक दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सत्ताईसवें अध्याय के श्लोक 1-119 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और बलिका संवाद--काल और प्रारब्धकी महिमाका वर्णन”
युधिष्ठिरने पूछा--भूपाल! जो मनुष्य बन्धु-बान्धवोंका अथवा राज्यका नाश हो जानेपर घोर संकटमें पड़ गया हो, उसके कल्याणका क्या उपाय है? भरतश्रेष्ठ! इस संसारमें आप ही हमारे लिये सबसे श्रेष्ठ वक्ता हैं; इसलिये यह बात आपसे ही पूछता हूँ। आप यह सब मुझे बतानेकी कृपा करें ।। १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--राजा युधिष्ठिर! जिसके स्त्री-पुत्र मर गये हों, सुख छिन गया हो अथवा धन नष्ट हो गया हो और इन कारणोंसे जो कठिन विपत्तिमें फँस गया हो, उसका तो धैर्य धारण करनेमें ही कल्याण है। जो धैर्यसे युक्त है, उस सत्पुरुषका शरीर चिन्ताके कारण नष्ट नहीं होता | ३६ ।।
शोकहीनता सुख और उत्तम आरोग्यका उत्पादन करती है, शरीरके नीरोग होनेसे मनुष्य फिर धन-सम्पत्तिका उपार्जन कर लेता है || ४६ ।|।
तात! जो बुद्धिमान मनुष्य सदा सात्त्विक वृत्तिका सहारा लिये रहता है। उसीको एऐश्वर्य और धैर्यकी प्राप्ति होती है तथा वही सम्पूर्ण कर्मोंमें उद्योगशील होता है ।। ५६ ।।
यथिष्ठिर! इस विषयमें पुन: बलि और इन्द्रके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।।
पूर्वकालमें जब दैत्यों और दानवोंका संहार करनेवाला देवासुर-संग्राम समाप्त हो गया, वामनरूपधारी भगवान् विष्णुने अपने पैरोंसे तीनों लोकोंको नाप लिया और सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले इन्द्र जब देवताओंके राजा हो गये, तब देवताओंकी सब ओर आराधना होने लगी। चारों वर्णोके लोग अपने-अपने धर्ममें स्थित रहने लगे। तीनों लोकोंका अभ्युदय होने लगा और सबको सुखी देखकर स्वयम्भू ब्रह्माजी अत्यन्त प्रसन्न रहने लगे ।।
उन्हीं दिनोंकी बात है, देवराज इन्द्र अपने ऐरावत नामक गजराजपर, जो चार सुन्दर दाँतोंसे सुशोभित और दिव्य शोभासे सम्पन्न था, आरूढ़ हो तीनों लोकोंमें भ्रमण करनेके लिये निकले। उस समय त्रिलोकीनाथ इन्द्र रुद्र, वसु, आदित्य, अश्विनीकुमार, ऋषिगण, गन्धर्व, नाग, सिद्ध तथा विद्याधरों आदिसे घिरे हुए थे ।। ९-१० ।।
घूमते-घूमते वे किसी समय समुद्रतटपर जा पहुँचे। वहाँ किसी पर्वतकी गुफामें उन्हें विरोचनकुमार बलि दिखायी दिये। उन्हें देखते ही इन्द्र हाथमें वज्ञ लिये उनके पास जा पहुँचे || ११ ।।
देवताओंसे घिरे हुए देवराज इन्द्रको ऐरावतकी पीठपर बैठे देख दैत्यराज बलिके मनमें तनिक भी शोक या व्यथा नहीं हुई ।। १२ ।।
उन्हें निर्भय और निर्विकार होकर खड़ा देख श्रेष्ठ गजराजपर चढ़े हुए शतक्रतु इन्द्रने उनसे इस प्रकार कहा-- ।। १३ ।।
'दैत्य! तुम्हें अपने शत्रुकी समृद्धि देखकर व्यथा क्यों नहीं होती? क्या शौर्यसे अथवा बड़े-बूढ़ोंकी सेवा करनेसे या तपस्यासे अन्तःकरण शुद्ध हो जानेके कारण तुम्हें शोक नहीं होता है? साधारण पुरुषके लिये तो यह धैर्य सर्वथा परम दुष्कर है || १४ ।।
“विरोचनकुमार! तुम शत्रुओंके वशमें पड़े और उत्तम स्थान (राज्य) से भ्रष्ट हुए--इस प्रकार शोचनीय दशामें पड़कर भी तुम किस बलका सहारा लेकर शोक नहीं करते हो? ।। १५ ||
“तुमने अपने जाति-भाइयोंमें सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त किया था और परम उत्तम महान् भोगोंपर अधिकार जमा रखा था; किंतु इस समय तुम्हारे रतन और राज्यका अपहरण हो गया है, तो भी बताओ, तुम्हें शोक क्यों नहीं होता है? ।। १६ ।।
“पहले तो तुम अपने बाप-दादोंके राज्यपर बैठकर तीनों लोकोंके ईश्वर बने हुए थे। अब उस राज्यको शत्रुओंने छीन लिया; यह देखकर भी तुम्हें शोक क्यों नहीं होता है? ।। १७ ।।
“तुम्हें वरूणके पाशसे बाँधा गया, वज़से घायल किया गया तथा तुम्हारी स्त्री और धनका भी अपहरण कर लिया गया; फिर भी बोलो, तुम्हें शोक कैसे नहीं होता है? ।।
“तुम्हारी राज्यलक्ष्मी नष्ट हो गयी। तुम अपने धन-वैभवसे हाथ धो बैठे। इतनेपर भी जो तुम्हें शोक नहीं होता है, यह दूसरोंके लिये बड़ा कठिन है। तीनों लोकोंका राज्य नष्ट हो जानेपर भी तुम्हारे सिवा दूसरा कौन जीवित रहनेके लिये उत्साह दिखा सकता है? ।।
ये तथा और भी बहुत-सी कठोर बातें सुनाकर इन्द्रने बलिका तिरस्कार किया। विरोचनकुमार बलिने वे सारी बातें बड़े आनन्दसे सुन लीं और मनमें तनिक भी घबराहट न लाकर उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया ।।
बलिने कहा--इन्द्र! जब मैं शत्रुओं अथवा कालके द्वारा भलीभाँति बन्दी बना लिया गया हूँ, तब मेरे सामने इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें बनानेसे तुम्हें क्या लाभ होगा? पुरंदर! मैं देखता हूँ, आज तुम वज्र उठाये मेरे सामने खड़े हो ।। २१ ।।
किंतु पहले तुममें ऐसा करनेकी शक्ति नहीं थी। अब किसी तरह शक्ति आ गयी है। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन ऐसा अत्यन्त क्िरूर वचन कह सकता है? ।। २२ ।।
जो शक्तिशाली होकर भी अपने वशमें पड़े हुए अथवा हाथमें आये हुए वीर शत्रुपर दया करता है, उसे अच्छे लोग उत्तम पुरुष मानते हैं || २३ ।।
जब दो व्यक्तियोंमें विवाद एवं युद्ध छिड़ जाता है, तब किसकी जीत होगी--इसका कोई निश्चय नहीं रहता है। उनमेंसे एक पक्ष विजयी होता है और दूसरेको पराजय प्राप्त होती है ।। २४ ।।
इसलिये देवराज! तुम्हारा स्वभाव ऐसा न हो, तुम ऐसा न समझ लो कि मैंने अपने बल और पराक्रमसे ही समस्त प्राणियोंके स्वामी मुझ बलिपर विजय पायी है || २५ ।।
वज्रधारी इन्द्र! आज जो तुम इस प्रकार राज-वैभवसे सम्पन्न हो अथवा हमलोग जो इस दीन दशाको पहुँच गये हैं, यह सब न तो तुम्हारा किया हुआ है और न हमारा ही किया हुआ है || २६ ।।
आज जैसे तुम हो, कभी मैं भी ऐसा ही था और इस समय जिस दशामें हमलोग पड़े हुए हैं, कभी तुम्हारी भी वैसी ही अवस्था होगी; अतः तुम यह समझकर कि मैंने बड़ा दुष्कर पराक्रम कर दिखाया है, मेरा अपमान न करो ।। २७ ।।
प्रत्येक पुरुष बारी-बारीसे सुख और दु:ख पाता है। इन्द्र! तुम भी अपने पराक्रमसे नहीं, कालक्रमसे ही इन्द्रपदको प्राप्त हुए हो || २८ ।।
काल ही मुझे कुसमयकी ओर ले जा रहा है और यह काल ही तुम्हें अच्छे दिन दिखा रहा है; इसलिये आज जैसे तुम हो, वैसा मैं नहीं हूँ और जैसे हमलोग हैं, वैसे तुम नहीं हो ।। २९ |।
माता-पिताकी सेवा, देवताओंकी पूजा तथा अन्य सदगुणयुक्त सदाचार भी बुरे दिनोंमें किसी पुरुषके लिये सुखदायक नहीं होता है || ३० ।।
कालसे पीड़ित हुए मनुष्यको न विद्या, न तप, न दान, न मित्र और न बन्धु-बान्धव ही कष्टसे बचा पाते हैं ।।
मनुष्य बुद्धि-बलके सिवा और किसी उपायसे सैकड़ों आघात करके भी आनेवाले अनर्थको नहीं रोक सकते ।। ३२ ।।
कालक्रमसे जिनपर आघात होता है--स्वयं काल जिन्हें पीड़ा देता है, उनकी रक्षा कोई नहीं कर सकता। शक्र! तुम जो अपनेको इस परिस्थितिका कर्ता मानते हो, यही तुम्हारे लिये दुःखकी बात है ।। ३३ ।।
यदि कार्य करनेवाला पुरुष स्वयं ही कर्ता होता तो उसको उत्पन्न करनेवाला दूसरा कोई कभी न होता। वह दूसरेके द्वारा उत्पन्न किया जाता है; इसलिये कालके सिवा दूसरा कोई कर्ता नहीं है || ३४ ।।
कालकी सहायता पाकर मैंने तुमपर विजय पायी थी और कालके ही सहयोगसे अब तुमने मुझे पराजित कर दिया है। काल ही जानेवाले प्राणियोंके साथ जाता या उन्हें गमनकी शक्ति प्रदान करता है और वही समस्त प्रजाका संहार करता है ।। ३५ ।।
इन्द्र! तुम्हारी बुद्धि साधारण है; इसलिये उसके द्वारा तुम एक-न-एक दिन अवश्य होनेवाले अपने विनाशकी बात नहीं समझ पाते। संसारमें कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो तुम्हें अपने ही पराक्रमसे श्रेष्ठताको प्राप्त हुआ मानते और तुम्हें अधिक महत्त्व देते हैं | ३६ ।
किंतु मेरे-जैसा पुरुष जो जगतकी प्रवृत्तिको जानता है-उन्नति और अवनतिका कारण काल-प्रारब्ध ही है; ऐसा समझता है, वह तुम्हें महत्त्व कैसे दे सकता है? जो कालसे पीड़ित है, वह प्राणी शोकग्रस्त, मोहित अथवा भ्रान्त भी हो सकता है ।। ३७ ।।
मैं होऊँ या मेरे-जैसा दूसरा कोई पुरुष हो। जब काल ([प्रारब्ध) से आक्रान्त हो जाता है, तब सदा ही उसकी बुद्धि संकटमें पड़कर फटी हुई नौकाके समान शिथिल हो जाती है ।। ३८ ।।
इन्द्र! मैं, तुम या और जो लोग भी देवेश्वरके पदपर प्रतिष्ठित होंगे, वे सब-के-सब उसी मार्गपर जायँगे, जिसपर पहलेके सैकड़ों इन्द्र जा चुके हैं ।। ३९ ।।
यद्यपि आज तुम इस प्रकार दुर्धर्ष हो और अत्यन्त तेजसे प्रज्वलित हो रहे हो; किंतु जब समय परिवर्तित होगा, अर्थात् जब तुम्हारा प्रारब्ध खराब होगा, तब मेरी ही भाँति तुम्हें भी काल अपना शिकार बना लेगा--इन्द्रपदसे भ्रष्ट कर देगा || ४० ।।
युग-युगमें (प्रत्येक मन्वन्तरमें) इन्द्रोंका परिवर्तन होनेके कारण अबतक देवताओंके अनेक सहस्र इन्द्र कालके गालमें चले गये हैं; अतः कालका उललड्घन करना किसीके लिये अत्यन्त कठिन है ।। ४१ ।।
तुम इस शरीरको पाकर समस्त प्राणियोंको जन्म देनेवाले सनातन देव भगवान् ब्रह्माजीकी भाँति अपनेको बहुत बड़ा मानते हो; किंतु तुम्हारा यह इन्द्रपद आजतक (किसीके लिये भी) अविचल या अनन्त कालतक रहनेवाला नहीं सिद्ध हुआ--इसपर कितने ही आये और चले गये। केवल तुम्हीं अपनी मूढ़बुद्धिके कारण इसे अपना मानते हो ।। ४२-४३ ।।
देवेश्वर! नाशवान् होनेके कारण जो विश्वासके योग्य नहीं है, उस राज्यपर तुम विश्वास करते हो और जो अस्थिर है, उसे स्थिर मानते हो; किंतु इसमें कोई आश्वर्यकी बात नहीं है; क्योंकि कालने जिसके हृदयपर अधिकार कर लिया हो, वह सदा ऐसी ही विपरीत भावनासे भावित होता है || ४४ ।।
तुम मोहवश जिस राजलक्ष्मीको “यह मेरी है” ऐसा समझकर पाना चाहते हो, वह न तुम्हारी है, न हमारी है और न दूसरोंकी ही है। वह किसीके पास भी सदा स्थिर नहीं रहती ।। ४५ |।
वासव! यह चड्चला राजलक्ष्मी दूसरे बहुत-से राजाओंको लाँधकर इस समय तुम्हारे पास आयी है और कुछ कालतक तुम्हारे यहाँ ठहरकर फिर उसी तरह दूसरेके पास चली जायगी, जैसे गौ जल पीनेके स्थानका परित्याग करके चली जाती है || ४६६ ।।
पुरंदर! अबतक इसने जितने राजाओंका परित्याग किया है, उनकी गणना मैं नहीं कर सकता। तुम्हारे बाद भी बहुत-से नरेश इसके अधिकारी होंगे || ४७ ३ ।।
जिन लोगोंने पहले वृक्ष, ओषधि, रत्न, जीव-जन्तु, वन और खानोंसहित इस सारी पृथ्वीका उपभोग किया है, उन सबको मैं इस समय नहीं देखता हूँ ।।
पृथु, इलानन्दन पुरूरवा, मय, भीम, नरकासुर, शम्बरासुर, अश्वग्रीव, पुलोमा, स्वर्भानु, अमितध्वज, प्रह्नाद, नमुचि, दक्ष, विप्रचित्ति, विरोचन, हीनिषेव, सुहोत्र, भूरिहा, पुष्पवान्, वृष, सत्येषु, ऋषभ, बाहु, कपिलाश्वच, विरूपक, बाण, कार्तस्वर, वह्ि, विश्वर्ंष्ट, नैर्ऋति, संकोच, वरीताक्ष, वराहाश्व, रुचिप्रभ, विश्वजित्, प्रतिरूप, वृषाण्ड, विष्कर, मधु, हिरण्यकशिपु और कैटभ--ये तथा और भी बहुत-से दैत्य, दानव एवं राक्षस सभी इस पृथ्वीके स्वामी हो चुके हैं। पहलेके और बहुत पहलेके ये पूर्वोक्त तथा अन्य अनेक दैत्यराज, दानवराज एवं दूसरे-दूसरे नरेश जिनका नाम हमलोग सुनते आ रहे हैं, कालसे पीड़ित हो सभी इस पृथ्वीको छोड़कर चले गये; क्योंकि काल ही सबसे बड़ा बलवान् हैं ।। ४९--५५ ६ |।
केवल तुमने ही सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया हो, यह बात नहीं है। उन सभी राजाओंने सौ-सौ यज्ञ किये थे। सभी धर्मपरायण थे और सभी निरन्तर यज्ञमें संलग्न रहते थे। वे सभी आकाशमें विचरनेकी शक्ति रखते थे और युद्धमें शत्रुके सामने डटकर लोहा लेनेवाले थे ।।
वे सब-के-सब सुदृढ़ शरीरसे सुशोभित होते थे। उन सबकी भुजाएँ परिघ (लोहदण्ड) के समान मोटी और मजबूत थीं। वे सभी सैकड़ों माया जानते और इच्छानुसार रूप धारण करते थे ।। ५८ ।।
वे सब लोग समराजड्रणमें पहुँचकर कभी पराजित होते नहीं सुने गये थे। सभी सत्यव्रतका पालन करनेमें तत्पर और इच्छानुसार विहार करनेवाले थे ।। ५९ ।।
सभी वेदोक्त व्रतको धारण करनेवाले और बहुश्रुत विद्वान् थे। सभी लोकेश्वर थे और सबने मनोवाज्छित ऐश्वर्य प्राप्त किया था || ६० ।।
उन महामना नरेशोंको पहले कभी भी ऐश्वर्यका मद नहीं हुआ था। वे सब-के-सब यथायोग्य दान करनेवाले और ईर्ष्या-द्वेषसे रहित थे || ६१ ।।
वे सभी सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ यथायोग्य बर्ताव करते थे। उन सबका जन्म दक्षकन्याओंके गर्भसे हुआ था और वे सभी महाबलशाली वीर प्रजापति कश्यपकी संतान थे।। ६२ ।।
इन्द्र! वे सभी नरेश अपने तेजसे प्रज्वलित होनेवाले और प्रतापी थे, किंतु कालने उन सबका संहार कर दिया। तुम जब इस पृथ्वीका उपभोग करके पुनः इसे छोड़ोगे, तब अपने शोकको रोकनेमें समर्थ न हो सकोगे ।। ६३ ३ ।।
तुम काम-भोगकी इच्छाको छोड़ो और राजलक्ष्मीके इस मदको त्याग दो। इस दशामें यदि तुम्हारे राज्यका नाश हो जाय तो तुम उस शोकको सह सकोगे || ६४ ६ ||
तुम शोकका अवसर आनेपर शोक न करो और हर्षके समय हर्षित मत होओ। भूत और भविष्यकी चिन्ता छोड़कर वर्तमान कालमें जो वस्तु उपलब्ध हो, उसीसे जीवन-निर्वाह करो || ६५३ ||
इन्द्र! मैं सदा सावधान रहता था, तथापि कभी आलस्य न करनेवाले कालका यदि मुझपर आक्रमण हो गया तो तुमपर भी शीघ्र ही उस कालका आक्रमण होगा। इस कटु सत्यके लिये मुझे क्षमा करना || ६६३ ।।
देवेन्द्र! इस समय भयभीत करते हुए-से तुम यहाँ अपने वाग्बाणोंसे मुझे छेदे डालते हो। मैं अपनेको संयममें रखकर शान्त बैठा हूँ; इसीलिये अवश्य तुम अपनेको बहुत बड़ा समझने लगे हो ।। ६७३ ।।
देवराज! जिस कालका पहले मुझपर धावा हुआ है, वही पीछे तुमपर भी चढ़ाई करेगा। मैं पहले कालसे पीड़ित हो गया हूँ; इसीलिये तुम सामने खड़े होकर गरज रहे हो || ६८ ३ ||
अन्यथा संसारमें कौन ऐसा वीर है, जो युद्धमें कुपित होनेपर मेरे सामने ठहर सके। इन्द्र! बलवान् काल (अदृष्ट) ने मुझपर आक्रमण किया है, इसीसे तुम मेरे सम्मुख खड़े हुए हो ।। ६९३ ।।
देवताओंका वह सहस्रों वर्षका समय अब पूरा होना ही चाहता है, जबतक कि तुम्हें इन्द्रके पदपर रहना है। कालके ही प्रभावसे मुझ महाबली वीरके अब सारे अंग उतने स्वस्थ नहीं रह गये हैं। मैं इन्द्रपदसे गिरा दिया गया और तुम स्वर्गमें इन्द्र बना दिये गये ।।
कालके उलट-फेरसे ही इस विचित्र जीवलोकमें तुम सबके आराध्य बन गये हो। भला बताओ तो तुम कौन-सा शुभ कर्म करके आज इन्द्र हो गये और हम कौन-सा अशुभ कर्म करके इन्द्रपदसे नीचे गिर गये ।।
काल ([प्रारब्ध) ही सबकी उत्पत्ति और संहारका कर्ता है। दूसरी सारी वस्तुएँ इसमें कारण नहीं मानी जा सकतीं; अतः विद्वान् पुरुष नाश-विनाश, ऐश्वर्य, सुख-दुःख, अभ्युदय या पराभव पाकर न तो अत्यन्त हर्ष माने और न अधिक व्यथित ही हो ।। ७३३ ।।
इन्द्र! हम कैसे हैं, यह तुम्हीं अच्छी तरह जानते हो। वासव! मैं तुम्हें भली-भाँति जानता हूँ; फिर भी तुम लज्जाको तिलाउ्जलि दे क्यों मेरे सामने व्यर्थ आत्मश्लाघा कर रहे हो। वास्तवमें काल ही यह सब कुछ करा रहा है || ७४ ३ ||
पहले मैं जो पुरुषार्थ प्रकट कर चुका हूँ, उसको सबसे अधिक तुम्हीं जानते हो। कई बारके युद्धोंमें तुम मेरा पराक्रम देख चुके हो। इस समय एक ही दृष्टान्त देना काफी होगा || ७५३ ||
शचीवल्लभ इन्द्र! पहले जब देवासुरसंग्राम हुआ था, उस समयकी बात तुम्हें अच्छी तरह याद होगी। मैंने अकेले ही समस्त आदित्यों, रुद्रों, साध्यों, वसुओं तथा मरुद्गणोंको परास्त किया था || ७६-७७ ||
मेरे वेगसे सब देवता युद्धका मैदान छोड़कर एक साथ ही भाग खड़े हुए थे। वन एवं वनवासियोंसहित कितने ही पर्वत, मैंने बारंबार तुमलोगोंपर चलाये थे। तुम्हारे सिरपर भी सुदृढ़ पाषाण और शिखरोंसहित बहुत-से पर्वत मैंने फोड़ डाले थे; किंतु इस समय मैं क्या कर सकता हूँ; क्योंकि कालका उललड्घण करना बहुत कठिन है | ७८-७९ |।
तुम्हारे हाथमें वज् रहनेपर भी मैं केवल मुक्केसे मारकर तुम्हें यमलोक न पहुँचा सककूँ, ऐसी बात नहीं है। किंतु मेरे लिये यह पराक्रम दिखानेका नहीं, क्षमा करनेका समय आया है || ८० ।।
इन्द्र! यही कारण है कि मैं तुम्हारे सब अपराध चुपचाप सहे लेता हूँ। अब भी मेरा वेग तुम्हारे लिये अत्यन्त दुःसह है। किंतु जब समयने पलटा खाया है, कालरूपी अग्निने मुझे सब ओरसे घेर लिया है और मैं कालपाशसे निश्चितरूपसे बँध गया हूँ, तब तुम मेरे सामने खड़े होकर अपनी झूठी बड़ाई किये जा रहे हो || ८१६ ।।
जैसे मनुष्य रस्सीसे किसी पशुको बाँध लेता है, उसी प्रकार यह भयंकर कालपुरुष मुझे अपने पाशमें बाँधे खड़ा है ।। ८२६ ।।
पुरुषको लाभ-हानि, सुख-दुःख, काम-क्रोध, अभ्युदयपराभव, वध, कैद और कैदसे छुटकारा--यह सब काल (प्रारब्ध) से ही प्राप्त होते हैं । ८३३ ।।
नमैं कर्ता हूँ, न तुम कर्ता हो। जो वास्तवमें सदा कर्ता है, वह सर्वसमर्थ काल वृक्षपर लगे हुए फलके समान मुझे पका रहा है ।। ८४३६ ।।
पुरुष कालका सहयोग पाकर जिन कर्मोंको करनेसे सुखी होता है, कालका सहयोग न मिलनेसे पुनः उन्हीं कर्मोंकोी करके वह दुःखका भागी होता है ।।
इन्द्र! जो कालके प्रभावको जानता है, वह उससे आक्रान्त होकर भी शोक नहीं करता; क्योंकि विपत्ति दूर करनेमें शोकसे कोई सहायता नहीं मिलती, इसलिये मैं शोक नहीं करता हूँ || ८६३ ।।
जब शोक करनेवाले पुरुषका शोक उसके संकटको दूर नहीं हटा पाता है, उलटे शोकग्रस्त मनुष्यकी शक्ति क्षीण हो जाती है, तब शोक क्यों किया जाय? यही सोचकर मैं शोक नहीं करता हूँ || ८७६ ।।
बलिके ऐसा कहनेपर सहस्नेत्रधारी पाकशासन शतक्रतु भगवान् इन्द्रने अपने क्रोधको रोककर इस प्रकार कहा-- || ८८३ ||
'दैत्यराज! मेरे हाथको वज्र एवं वरुणपाशसहित ऊपर उठा देखकर मारनेकी इच्छासे आयी हुई मृत्युका भी दिल दहल जाता है; फिर दूसरा कौन है जिसकी बुद्धि व्यथित न हो। तुम्हारी बुद्धि तत्वको जाननेवाली और स्थिर है; इसलिये तनिक भी विचलित नहीं होती है || ८९-९० ||
'सत्यपराक्रमी वीर! तुम निश्चय ही धैर्यके कारण व्यथित नहीं होते हो। इस सम्पूर्ण जगत्को विनाशकी ओर जाते देखकर कौन शरीरधारी पुरुष धन-वैभव, विषय-भोग अथवा अपने शरीरपर भी विश्वास कर सकता है? ।। ९१३ ।।
“मैं भी इसी प्रकार सर्वव्यापी, अविनाशी, घोर एवं गुह्य कालाग्निमें पड़े हुए इस जगत्को क्षणभंगुर ही जानता हूँ ।। ९२ $ ।।
“जो कालकी पकड़में आ चुका है, ऐसे किसी भी पुरुषके लिये उससे छूटनेका कोई उपाय नहीं है। सूक्ष्मसे सूक्ष्म और महान् भूत भी कालग्निमें पकाये जा रहे हैं, उनका भी उससे छुटकारा होनेवाला नहीं है || ९३ $ ।।
“कालपर किसीका भी वश नहीं चलता। वह सदा सावधान रहकर सम्पूर्ण भूतोंको पकाता रहता है। वह कभी लौटनेवाला नहीं है। ऐसे कालके अधीन हुआ प्राणी उससे छुटकारा नहीं पाता है || ९४६ ।।
“देहधारी जीव प्रमादमें पड़कर सोते हैं; किंतु काल सदा सावधान रहकर जागता रहता है। किसीके प्रयत्नसे भी कालको पीछे हटाया जा सका हो, ऐसा पहले कभी किसीने देखा नहीं है | ९५६ ।।
“काल पुरातन (अनादि), सनातन, धर्मस्वरूप और समस्त प्राणियोंके प्रति समान दृष्टि रखनेवाला है। कालका किसीके द्वारा भी परिहार नहीं हो सकता और न उसका कोई उल्लड्घन ही कर सकता है ।।
जैसे ऋण देनेवाला पुरुष व्याजका हिसाब जोड़कर ऋण लेनेवालोंको तंग करता है, उसी प्रकार वह काल दिन, रात, मास, क्षण, काष्ठा, लव और कला तकका हिसाब लगाकर प्राणियोंको पीड़ा देता रहता है || ९७३ ।।
'जैसे नदीका वेग सहसा बढ़कर किनारेके वृक्षका हरण कर लेता है। उसी प्रकार “यह आज करूँगा और वह कल पूरा करूँगा।” ऐसा कहनेवाले पुरुषका काल सहसा आकर हरण कर लेता है ।। ९८ ३ ।।
“अरे! अभी-अभी तो मैंने उसे देखा था। वह मर कैसे गया?” इस प्रकार कालसे अपहृत होनेवालोंके लिये अन्य मनुष्योंका प्रलाप सुना जाता है ।। ९९३ ||
“धन और भोग नष्ट हो जाते हैं। स्थान और ऐश्वर्य छिन जाता है तथा इस जीव-जगतके जीवनको भी काल आकर हर ले जाता है || १००३ ।।
'ऊँचे चढ़नेका अन्त है नीचे गिरना तथा जन्मका अन्त है मृत्यु। जो कुछ देखनेमें आता है, वह सब नाशवान् है, अस्थिर है तो भी इसका निरन्तर स्मरण रहना कठिन हो जाता है | १०१½ ||
“अवश्य ही तुम्हारी बुद्धि तत््वको जाननेवाली तथा स्थिर है, इसीलिये उसे व्यथा नहीं होती। मैं पहले अत्यन्त ऐश्वर्यशशाली था, इस बातको तुम मनसे भी स्मरण नहीं करते ।। १०२३ ।।
“अत्यन्त बलवान् काल इस सम्पूर्ण जगत्पर आक्रमण करके सबको अपनी आँचमें पका रहा है। वह इस बातको नहीं देखता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा? सब लोग कालाग्निमें झोंके जा रहे हैं, फिर भी किसीको चेत नहीं होता || १०३ ६ ।।
“लोग ईर्ष्या, अभिमान, लोभ, काम, क्रोध, भय, स्पृहा, मोह और अभिमानमें फँसकर अपना विवेक खो बैठे हैं ।।
'परंतु तुम विद्वान, ज्ञानी और तपस्वी हो। समस्त पदार्थोके तत्त्वको जानते हो। कालकी लीला और उसके तत्त्वको समझते हो। सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हो। तत्त्वके विवेचनमें कुशल, मनको वशगमें रखनेवाले तथा ज्ञानी पुरुषोंके आदर्श हो। इसीलिये हाथपर रक््खे हुए आँवलेके समान कालको स्पष्टरूपसे देख रहे हो। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि तुमने अपनी बुद्धिसे सम्पूर्ण लोकोंका तत्त्व जान लिया है || १०५--१०७ ।।
“तुम सर्वत्र विचरते हुए भी सबसे मुक्त हो। कहीं भी तुम्हारी आसक्ति नहीं है। तुमने अपनी इन्द्रियोंको जीत लिया है; इसलिये रजोगुण और तमोगुण तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकते ।। १०८ ।।
'जो हर्षसे रहित, संतापसे शून्य, सम्पूर्ण भूतोंका सुहृद, वैररहित और शान्तचित्त है, उस आत्माकी तुम उपासना करते हो ।। १०९ ।।
“तुम्हें देखकर मेरे मनमें दयाका संचार हो आया है। मैं ऐसे ज्ञानी पुरुषको बन्धनमें रखकर उसका वध करना नहीं चाहता ।। ११० |।
किसीके प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव न करना सबसे बड़ा धर्म है। तुम्हारे ऊपर मेरा पूर्ण अनुग्रह है। कुछ समय बीतनेपर तुम्हें बाँधनेवाले ये वरुणदेवताके पाश अपने आप ही तुम्हें छोड़ देंगे । १११ ।।
“महान् असुर! जब प्रजाजनोंका न््यायके विपरीत आचरण होने लगेगा, तब तुम्हारा कल्याण होगा। जब पतोहू बूढ़ी साससे अपनी सेवा-टहल कराने लगेगी और पुत्र भी मोहवश पिताको विभिन्न प्रकारके कार्य करनेके लिये आज्ञा प्रदान करने लगेगा, शूद्र ब्राह्मणोंसे पैर धुलाने लगेंगे तथा वे निर्भय होकर ब्राह्मण जातिकी स्त्रीको अपनी भार्या बनाने लगेंगे, जब पुरुष निर्भय होकर मानवेतर योनियोंमें अपना वीर्य स्थापित करने लगेंगे, जब काँसेके पात्रमें ऊँच जाति और नीच जातिके लोग एक साथ भोजन करने लगेंगे एवं अपवित्र पात्रोंद्वारा देवपूजाके लिये उपहार अर्पित किया जायगा, सारा वर्णधर्म जब मर्यादाशून्य हो जायगा, उस समय क्रमश: तुम्हारा एक-एक पाश (बन्धन) खुलता जायगा ।।
“हमारी ओरसे तुम्हें कोई भय नहीं है। तुम समयकी प्रतीक्षा करो और निर्बाध, स्वस्थचित्त एवं रोगरहित हो सुखसे रहो” || ११६ ।।
बलिसे ऐसा कहकर गजराजकी सवारीपर चलनेवाले भगवान् शतक्रतु इन्द्र अपने स्थानको लौट गये। वे समस्त असुरोंपर विजय पाकर देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हुए थे और एकच्छत्रसम्राट् होकर हर्षसे प्रफुल्लित हो उठे थे || ११७ ।।
उस समय महर्षियोंने सम्पूर्ण चराचर जगत्के स्वामी इन्द्रका भलीभाँति स्तवन किया। अग्निदेव यज्ञमण्डपमें देवताओंके लिये हविष्य वहन करने लगे और देवेश्वर इन्द्र भी सेवकोंद्वारा अर्पित अमृत पीने लगे | ११८ ।।
सर्वत्र पहुँचनेकी शक्ति रखनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उद्दीप्त तेजस्वी और क्रोधशून्य हुए देवेश्वर इन्द्रकी स्तुति की; फिर वे इन्द्र शान्तचित्त एवं प्रसन्न हो अपने निवासस्थान स्वर्गलोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करने लगे ।। ११९ |।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें बलि-वासवसंवादविषयक दो सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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