सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ इक्कीसवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथिसेवा आदिका विवेचन तथा यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करनेवालेको परम उत्तम गतिकी प्राप्तिका कथन”
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! व्रतयुक्त द्विजगण वेदोक्त सकामकर्मोंके फलकी इच्छासे हविष्यान्नका भोजन करते हैं, उनका यह काय उचित है या नहीं? ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो लोग अवैदिक व्रतका आश्रय ले हविष्यान्नका भोजन करते हैं, वे स्वेच्छाचारी हैं और जो वेदोका व्रतोंमें प्रवृत्त हो सकाम यज्ञ करते और उसमें खाते हैं, वे भी उस व्रतके फलोंके प्रति लोलुप कहे जाते हैं (अतः उन्हें भी बारंबार इस संसारमें आना पड़ता है) ।। २ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--महाराज! संसारके साधारण लोग जो उपवासको ही तप कहते हैं, क्या वास्तवमें यही तप है या दूसरा। यदि दूसरा है तो उस तपका क्या स्वरूप है? ।। ३ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! साधारण जन जो महीने-पंद्रह दिन उपवास करके उसे तप मानते हैं, उनका वह कार्य धर्मके साधनभूत शरीरका शोषण करनेवाला है; अतः श्रेष्ठ पुरुषोंके मतमें वह तप नहीं है ।। ४ ।।
उनके मतमें तो त्याग और विनय ही उत्तम तप है। इनका पालन करनेवाला मनुष्य नित्य उपवासी और सदा ब्रह्मचारी है ।। ५ ।।
भरतनन्दन! त्यागी और विनयी ब्राह्मण सदा मुनि और सर्वदा देवता समझा जाता है। वह कुट॒म्बके साथ रहकर भी निरन्तर धर्मपालनकी इच्छा रखे और निद्रा तथा आलस्यको कभी पास न आने दे ।। ६ ।।
मांस कभी न खाय, सदा पवित्र रहे, वैश्वदेव आदि यज्ञसे बचे हुए अमृतमय अन्नका भोजन तथा देवता और अतिथियोंकी पूजा करे ।। ७ ।।
उसे सदा यज्ञशिष्ट अन्नका भोक्ता, अतिथिसेवाका व्रती, श्रद्धालु तथा देवता और ब्राह्मणोंका पूजक होना चाहिये ।। ८ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! मनुष्य नित्य उपवास करनेवाला कैसे हो सकता है? वह सतत ब्रह्मचारी कैसे रह सकता है? वह किस प्रकार अन्न ग्रहण करे, जिससे सदा यज्ञशिष्ट अन्नका भोक्ता हो सके तथा वह निरन्तर अतिथिसेवाका व्रत भी कैसे निभा सकता है? ।॥ ९ ||
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! जो प्रतिदिन प्रातः:कालके सिवा फिर शामको ही भोजन करे और बीचमें कुछ न खाय, वह नित्य उपवास करनेवाला होता है ।। १० ।।
जो द्विज केवल ऋतुस्नानके समय ही पत्नीके साथ समागम करता, सदा सत्य बोलता और नित्य ज्ञानमें स्थित रहता है, वह सदा ब्रह्मचारी ही होता है | ११ ।।
तथा जो कभी मांस न खाय, वह अमांसाहारी होता है। जो नित्य दान करनेवाला है, वह पवित्र माना जाता है। जो दिनमें कभी नहीं सोता, वह सदा जागनेवाला समझा जाता है ।। १२ ||
युधिष्ठि!! जो सदा भरण-पोषण करनेके योग्य पिता-माता आदि कुटुम्बीजनों, सेवकों तथा अतिथियोंके भोजन कर लेनेपर ही खाता है, वह केवल अमृत भोजन करता है; ऐसा समझो ।। १३ ||
जो अतिथियोंको अन्न दिये बिना स्वयं भी नहीं खाता, वह अतिथिप्रिय है तथा जो देवताओंको अन्न दिये बिना भोजन नहीं करता, वह देवभक्त है ।।
जो द्विज भृत्यों और अतिथियोंके भोजन न करनेपर स्वयं भी कभी अन्न ग्रहण नहीं करता, वह भोजन न करनेके उस पुण्यसे स्वर्गलोकपर विजय पा लेता है || १४ ।।
देवगण, पितृगण, माता-पिता तथा अतिथियों-सहित भृत्यवर्गसे अवशिष्ट अन्नको ही जो भोजन करता है, उसे विघसाशी (यज्ञशिष्ट अन्नका भोक्ता कहते हैं ।। १५ ।।
ऐसे पुरुषोंको अक्षयलोक प्राप्त होते हैं। ब्रह्माजी तथा अप्सराओंसहित समस्त देवता उनके घरपर आकर उनकी परिक्रमा किया करते हैं ।। १६ ।।
जो देवताओं और पितरोंके साथ (अर्थात् उन्हें उनका भाग अर्पण करके) भोजन करते हैं, वे इस लोकमें पुत्र-पौत्रोंके साथ रहकर आनन्द भोगते हैं और परलोकमें भी उन्हें परम उत्तम गति प्राप्त होती है ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें अमृतभोजन-सम्बन्धी दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १८ “लोक: हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बाईसवें अध्याय के श्लोक 1-82½ का हिन्दी अनुवाद)
“सनत्कुमारजीका ऋषियोंको भगवत्स्वरूपका उपदेश देना”
युधिष्ठिरने पूछा--राजन्! जगत्में कुछ विद्वान जड और चेतन अथवा प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वोंका प्रतिपादन करते हैं। कुछ लोग जीव, ईश्वर और प्रकृति--इन तीन तत्त्वोंका वर्णन करते हैं और कितने ही विद्वान् अनेक तत्त्वोंका निरूपण करते रहते हैं; अतः कहीं न विश्वास किया जा सकता है, न अविश्वास। इसके सिवा वह परब्रह्म परमात्मा दिखायी नहीं देता है। नाना प्रकारके शास्त्र हैं और भिन्न-भिन्न प्रकारसे उनका वर्णन किया गया है; इसलिये पितामह! मैं किस सिद्धान्तका आश्रय लेकर रहूँ, यह मुझे बताइये ।।
भीष्मजीने कहा--राजन! शास्त्रोंके विचारमें प्रभावशाली सभी महात्मा अपने-अपने सिद्धान्तके प्रतिपादनमें स्थित हैं। ऐसे पण्डित इस जगतमें बहुत हैं; परंतु उनमें वास्तवमें कौन तत्त्वको जाननेवाला विद्वान है और कौन शास्त्रचर्चामें पण्डित है? यह कहना कठिन है ।।
सबके तत्त्वको भलीभाँति समझकर जैसी रुचि हो, उसीके अनुसार आचरण करे। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास प्रसिद्ध है। एक समय बहुत-से भावितात्मा मुनियोंका इसी विषयको लेकर आपसमें बड़ा भारी वाद-विवाद हुआ था ।।
हिमालय पर्वतके पार्श्चभागमें कठोर व्रतका पालन करनेवाले छ: हजार ऋषियोंकी एक बैठक हुई थी ।।
उनमेंसे कुछ लोग इस जगतको ध्रुव (सदा रहनेवाला) बताते थे, कुछ इसे ईश्वरसहित कहते थे और कुछ लोग बिना ईश्वरके ही जगतकी उत्पत्तिका प्रतिपादन करते थे। कुछ लोगोंका कहना था कि इसका कोई प्राकृत कारण नहीं है तथा कुछ लोगोंका मत यह था कि वास्तवमें इस सम्पूर्ण जगत्की सत्ता है ही नहीं ।।
इसी प्रकार दूसरे ब्राह्मणोंमेंसे कुछ लोग स्वभावको, कितने ही कर्मको, बहुतेरे पुरुषार्थको, दूसरे लोग दैवको और अन्य बहुत-से लोग स्वभाव-कर्म आदि सभीको जगत्का कारण बताते थे ।।
वे नाना प्रकारके शास्त्रोंके प्रवर्तक थे तथा अनेक प्रकारकी सैकड़ों युक्तियोंद्वारा अपने मतका पोषण करते थे। राजन! वे सभी ब्राह्मण स्वभावसे ही इस शास्त्रार्थमें एक दूसरेको पराजित करनेकी इच्छा करते थे ।।
तदनन्तर उन वादी और प्रतिवादियोंमें मूलभूत प्रश्नको लेकर बड़ा भारी वाद-विवाद खड़ा हो गया। उनमेंसे कितने ही क्रोधमें भरकर एक दूसरेके पात्र, दण्ड, वल्कल, मृगचर्म और वस्त्रोंको भी नष्ट करने लगे। तत्पश्चात् शान्त होनेपर वे सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण महर्षि वशिष्ठसे बोले--'प्रभो! आप ही हमें सनातन तत्त्वका उपदेश करें।” यह सुनकर वशिष्ठने उत्तर दिया--'विप्रवरो! मैं उस सनातन तत्त्वके विषयमें कुछ नहीं जानता” ।।
तब वे सब ब्राह्मण एक साथ नारदमुनिसे बोले--“महाभाग! आप ही हमें सनातन तत्त्वका उपदेश करें; क्योंकि आप तत्त्ववेत्ता हैं! ।।
तब भगवान् नारदने उन ब्राह्मणोंसे कहा--“विप्रगण! मैं उस तत्त्वको नहीं जानता। हम सब लोग मिलकर कहीं और चलें। इस जगत्में कौन ऐसा विद्वान् है, जिसमें मोह न हो तथा जो उस अदभुत अमृततत्त्वके प्रतिपादनमें समर्थ हो” ।।
यह बातचीत हो ही रही थी कि उन ब्राह्मणोंने किसी अदृश्य देवताकी बात सुनी --“ब्राह्मणो! सनत्कुमारके आश्रमपर जाकर पूछो। वे तुम्हें तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे” ।।
उस समय वेदराशिके ज्ञानसे सुशोभित विभाण्डक नामक किन्हीं ब्राह्मणशिरोमणिने उस अदृश्य देवतासे पूछा--“हम लोगोंमें तत्त्वके विषयमें मतभेद उत्पन्न हो गया है; ऐसी स्थितिमें आप कौन हैं, जो बात तो कर रहे हैं, किंतु दीखते नहीं हैं" ।।
(भीष्मजी कहते हैं--राजन्!) तब भगवान् सनत्कुमारने उनसे कहा--“महामुने! तुम तो पण्डित हो। तुम मुझे सदा एकरूपसे ही विचरण करनेवाला पुरातन ऋषि सनत्कुमार समझो। मैं वही हूँ, जिसे वेदवेत्ता पुरुष अक्षय बताते हैं' ।।
कुन्तीनन्दन! तब उन महात्मा विभाण्डकने पुनः उनसे कहा--'आदिमुनिप्रवर! आप अपने स्वरूपका परिचय दीजिये। केवल आप ही हमसे विलक्षण जान पड़ते हैं, आपका स्वरूप हमारे सामने प्रत्यक्ष नहीं है। अथवा यदि आपका भी कोई स्वरूप है तो वह कैसा है? ।।
तब उस अदृश्य आदि-महात्माने गम्भीर स्वरमें यह बात कही--'मुने! तुम्हारे न तो कान है, न मुख है, न हाथ है, न पैर है और न पैरोंके पंजे ही हैं ।।
मुनियोंसे बातचीत करते हुए विद्वान् विभाण्डकने अपने विषयमें जब यह सब सत्य देखा तो मन-ही-मन विचार करके कहा--“ऋषे! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? यदि इसको जाननेवाला या न जाननेवाला कोई न रहे, तब क्या होगा?” परंतु इसका उत्तर उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको फिर नहीं सुनायी दिया। वे हँसते हुए आकाशकी ओर देखते ही रह गये ।।
'यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है” ऐसा मानकर वे सभी मुनिश्रेष्ठ दल-बलसहित सुवर्णमय महागिरि मेरुपर सनत्कुमारजीके पास गये ।।
उस पर्वतपर आरूढ़ हो ध्यानका आश्रय ले उन ऋषियोंने पूजनीय देव सनत्कुमारको देखा, जो निरन्तर वेदके पारायणमें लगे हुए थे ।।
राजेन्द्र! एक वर्ष पूर्ण होनेपर जब महामुनि सनत्कुमार प्रकृतिस्थ हुए, तब वे ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये। ज्ञानसे जिनके सारे पाप धुल गये थे, उन भगवान् सनत्कुमारने वहाँ पधारे हुए ऋषियोंसे कहा--“मुनिगण! अदृश्य देवताने जो बात कही है, वह मुझे ज्ञात है; अतः आज आपलोगोंके प्रश्नोंका उत्तर देना है। मुनिवरो! आप इच्छानुसार प्रश्न करें ।।
(भीष्मजी कहते हैं--) तब उन ब्राह्मणोंने हाथ जोड़कर परम निर्मल ज्ञाननिधि द्विजश्रेष्ठ महामुनि सनत्कुमारसे कहा--“कुमार! हमलोग ज्ञानके भण्डार और सर्वश्रेष्ठ विश्वरूप परमेश्वरका किस प्रकार यजन करें? ।।
“भगवन्! महामुने! महानुभाव! आप हमपर प्रसन्न होइये और हमें ज्ञानरूपी मधुर अमृतका लेशमात्र दान दीजिये; क्योंकि संत अपने शरणागतोंको सदा सुख देते हैं। वह जो विश्वरूप पद है, वह क्या है? यह हमें बताइये” ।।
उनके इस प्रकार विशेष अनुरोध करनेपर परब्रह्म परमात्मामें आसक्तचित्त सत्यवेत्ता महात्मा भगवान् सनत्कुमारने जो कुछ कहा, उसे सुनो ।।
वे अनेक सहस्र ऋषियोंके बीचमें बैठे थे। उन्होंने उनके शुभ निवेदनसे सत्स्वरूप आनन्दमय परमेश्वरका इस प्रकार प्रतिपादन प्रारम्भ किया ।।
सनत्कुमार बोले--द्विजोत्तमो! आपलोगोंके बीचमें पहले अदृश्य देवताने जो कुछ कहा था, उनका वह कथन उसी रूपमें सत्य है। आपलोगोंने उसे न जानते हुए ही उसके साथ वार्तालाप किया था ।।
सुनिये, वह विश्वरूप परमात्मा सबका परम कारण है। जो उस सर्वस्वरूप परमेश्वरको जानता है, वह न तो भयभीत होता है और न कहीं जाता है। मैं कहाँ हूँ? किसका हूँ? किसका नहीं हूँ? किस-किस साधनसे कार्य करता हूँ? इत्यादि विचारोंमें न पड़कर परमात्माको अनुभव करता है ।।
वह परमात्मा युग-युगमें व्यापक है। वह जडात्मक प्रपंचसे अत्यन्त भिन्न रूपमें पृथक् स्थित है। उस परमात्मासे भिन्न जो कोई भी जड वस्तु है, उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है।।
जैसे वायु एक होकर भी अनेक रूपोंमें संचरित होता है। पक्षी, मृग, व्याप्र और मनुष्यमें तथा वेणुमें यथार्थ रूपसे स्थित होकर एक ही वायुके भिन्न-भिन्न स्वरूप हो जाते हैं। जो आत्मा है वही परमात्मा है; परंतु वह जीवात्मासे भिन्न-सा जान पड़ता है ।।
इस प्रकार वह आत्मा ही परमात्मा है। वही जाता है, वह आत्मा ही सबको देखता है, सबकी बातें सुनता है, सभी गंधोंको सूँघता है और सबसे बातचीत करता है ।।
सूर्यदेवके चक्रमें सब ओर दस-दस किरणें हैं, जो वहाँसे निकलकर महात्मा भगवान् सूर्यके पीछे-पीछे चलती हैं ।।
सूर्यदेव प्रतिदिन अस्त होते और पुनः पूर्वदिशामें उदित होते हैं; परंतु वे उदय और अस्त दोनों ही सूर्यमें नहीं हैं। इसी प्रकार शरीरके अन्तर्गत अन्तर्यामीरूपसे जो भगवान् नारायण विराजमान हैं, उनको जानो (उनमें शरीर और अशरीरभाव सूर्यमें उदय-अस्तकी ही भाँति कल्पित हैं) ।।
विप्रवरो! आपलोगोंको गिरते-पड़ते, चलते-फिरते और खाते-पीते प्रत्येक कार्यके समय, ऊपर-नीचे आदि प्रत्येक देश और दिशामें एकमात्र भगवान् नारायण सर्वत्र विराज रहे हैं--ऐसा अनुभव करना चाहिये ।।
उनका दिव्य सुवर्णमय धाम ही परमपद जानना चाहिये, उसे पाकर जीवन कृतार्थ हो जाता है। वह स्वयं ही अपना प्रकाशक और स्वयं ही अपने-आपमें अन्तर्यामी आत्मा है ।।
भौंरा पहले रसका संचय कर लेता है तब फूलके चारों ओर चक्कर लगाने लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञानी पुरुष देहाभिमानी-जैसा बनकर लोकसंग्रहके लिये सब विषयोंका अनुभव करता है वह न तो मोहमें पड़ता है और न क्षीण ही होता है ।।
कोई भी उस परमात्माको अपने चर्मचक्षुओंसे नहीं देख सकता। अन्त:करणमें स्थित निर्मल बुद्धिके द्वारा ही उसके रूपको ज्ञानी पुरुष देख पाता है। उस परमात्माका मन्त्रद्वारा यजन किया जाता है तथा श्रेष्ठ द्विज ही उसका यजन करता है ।।
वह अमृतस्वरूप परमात्मा न धर्मी है, न अधर्मी। वह द्वन्द्ोंसे अतीत और ईर्ष्या-द्वेषसे शून्य है। इसमें संदेह नहीं कि वह ज्ञानसे परितृप्त होकर सुखपूर्वक सोता है ।।
तथा ये भगवान् अपनी मायाद्वारा जगतकी सृष्टि करते हैं। जिसका हृदय मोहसे आच्छन्न है वह अपने कारणभूत परमात्माको नहीं जानता ।।
वही ध्यान, दर्शन, मनन और देखी हुई वस्तुओंका बोध प्राप्त करनेवाला है। सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति करनेवाले उस अनन्त परमात्माको कौन जान सकता है? मुनिवरो! मुझसे जहाँतक हो सकता था मैंने इसका स्वरूप बता दिया। अब आपलोग जाइये ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! इस प्रकार ज्ञानके समुद्रकी उत्पत्तिक कारणभूत मनोहर आकृतिवाले सनत्कुमारको प्रणाम करके उनका दर्शन करनेके पश्चात् वे सब ऋषि-मुनि वहाँसे चले गये ।।
अतः महाराज कुन्तीनन्दन! तुम भी ज्ञानयोगके साधनमें तत्पर हो जाओ। ऐसा ज्ञान ही सम्पूर्ण दुःखोंका विनाश करनेवाला है ।।
जो लोग महान् दुःखके आकर बने हुए हैं, उन मनुष्योंके परित्राणके लिये पूर्वकालमें पुराणपुरुष महात्मा महामुनिशिरोमणि नारायणऋषिने इस ज्ञानको प्रकट किया था, यह अविनाशी है ।।
युधिष्ठिरने पूछा--भारत! इस लोकमें जो यह शुभ अथवा अशुभ कर्म होता है, वह पुरुषको उसके सुख-दुःखरूप फल भोगनेमें लगा ही देता है; परंतु पुरुष उस कर्मका कर्ता है या नहीं, इस विषयमें मुझे संदेह है; अतः पितामह! मैं आपके द्वारा इसका तत्त्वयुक्त समाधान सुनना चाहता हूँ ।। १-२ ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और प्रह्नादके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। ३ ।।
प्रह्नादजीके मनमें किसी विषयके प्रति आसक्ति नहीं थी। उनके सारे पाप धुल गये थे। वे कुलीन और बहुश्रुत विद्वान् थे। वे गर्व और अहंकारसे रहित थे। वे धर्मकी मर्यादाके पालनमें तत्पर और शुद्ध सत्त्वगुणमें स्थित रहते थे। निन्दा और स्तुतिको समान समझते, मन और इन्द्रियोंको काबूमें रखते और एकान्त स्थानमें निवास करते थे। उन्हें चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाशका ज्ञान था। अप्रियकी प्राप्तिमें क्रोधयुक्त तथा प्रियकी प्राप्ति होनेपर हर्षयुक्त नहीं होते थे। मिट्टीके ढेले और सुवर्ण दोनोंमें उनकी समानदृष्टि थी। वे ज्ञानस्वरूप कल्याणमय परमात्माके ध्यानमें स्थित और धीर थे। उन्हें परमात्मतत्त्वका पूर्ण निश्चय हो गया था। उन्हें परावरस्वरूप ब्रह्मका पूर्ण ज्ञान था। वे सर्वज्ञ, सम्पूर्णभूतप्राणियोंमें समदर्शी एवं जितेन्द्रिय थे। वे भगवान् नारायणके प्रिय भक्त और सदा उन्हींके चिन्तनमें तत्पर रहनेवाले थे। हिरण्यकशिपुनन्दन प्रह्नादजीको एकान्तमें बैठकर परमात्मा श्रीहरिका ध्यान करते देख इन्द्र उनकी बुद्धि और विचारको जाननेकी इच्छासे उनके निकट जाकर इस प्रकार बोले-- || ४-८ ।।
'दैत्ययाज! संसारमें जिन गुणोंको पाकर कोई भी पुरुष सम्मानित हो सकता है, उन सबको मैं आपके भीतर स्थिरभावसे स्थित देखता हूँ ।। ९ ।।
“आपकी बुद्धि बालकोंके समान राग-द्वेषसे रहित दिखायी देती है। आप आत्माका अनुभव करते हैं, इसीलिये आपकी ऐसी स्थिति है; अतः मैं पूछता हूँ कि इस जगत्में आप किसको आत्मज्ञानका सर्वश्रेष्ठ साधन मानते हैं? ।। १० ।।
“आप रस्सियोंसे बाँधे गये, अपने राज्यसे भ्रष्ट हुए और शत्रुओंके वशमें पड़ गये थे। आप अपनी राज्यलक्ष्मीसे वंचित हो गये। प्रह्नमादजी! ऐसी शोचनीय स्थितिमें पड़ जानेपर भी आप शोक नहीं कर रहे हैं? ।।
'प्रह्मादजी! आप अपने ऊपर संकट आया देखकर भी निश्रिन्त कैसे हैं? दैत्यराज! आपकी यह स्थिति आत्मज्ञानके कारण है या धैर्यके कारण?” ।। १२ ।।
इन्द्रके इस प्रकार पूछनेपर परमात्मतत्त्वको निश्चितरूपसे जाननेवाले धीरबुद्धि प्रह्नादजीने अपने ज्ञानका वर्णन करते हुए मधुर वाणीमें कहा ।। १३ ।।
प्रह्नमादजी बोले--देवराज! जो प्राणियोंकी प्रवृत्ति और निवृत्तिको नहीं जानता, उसीको अविवेकके कारण स्तम्भ (जडता या मोह) होता है। जिसे आत्माका साक्षात्कार हो गया है, उसको कभी मोह नहीं होता ।।
सब तरहके भाव और अभाव स्वभावसे ही आते-जाते रहते हैं। उसके लिये पुरुषका कोई प्रयत्न नहीं होता || १५ ।।
पुरुषका प्रयत्न न होनेसे कोई पुरुष कर्ता नहीं हो सकता; परंतु स्वयं कभी न करते हुए भी उसे इस जगत्में कर्तापनका अभिमान हो जाता है ।। १६ ।।
जो आत्माको शुभ या अशुभ कर्मोंका कर्ता मानता है, उसकी बुद्धि दोषसे युक्त और तत्त्वज्ञानसे रहित है--ऐसी मेरी मान्यता है ।। १७ ।।
इन्द्र! यदि पुरुष ही कर्ता होता तो वह अपने कल्याणके लिये जो कुछ भी करता, उसके भी सारे कार्य अवश्य सिद्ध होते। उसे अपने प्रयत्नमें कभी पराभव नहीं प्राप्त होता ।। १८ ।।
परंतु देखा यह जाता है कि इष्टसिद्धिके लिये प्रयत्न करनेवालोंको अनिष्टकी भी प्राप्ति होती है और इष्टकी सिद्धिसे वे वंचित रह जाते हैं; अतः पुरुषार्थकी प्रधानता कहाँ रही? ।। १९ ।।
कितने ही प्राणियोंको बिना किसी प्रयत्नके ही हमलोग अनिष्टकी प्राप्ति और इष्टका निवारण होते देखते हैं। यह बात स्वभावसे ही होती है || २० ।।
कितने ही सुन्दर और अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुष भी कुरूप और अल्पबुद्धि मनुष्योंसे धन पानेकी आशा करते देखे जाते हैं | २१ ।।
जब शुभ और अशुभ सभी प्रकारके गुण स्वभावकी ही प्रेरणासे प्राप्त होते हैं, तब किसीको भी उनपर अभिमान करनेका क्या कारण है? ।। २२ ।।
मेरी तो यह निश्चित धारणा है कि स्वभावसे ही सब कुछ प्राप्त होता है। मेरी आत्मनिष्ठ बुद्धि भी इसके विपरीत विचार नहीं रखती || २३ ।।
यहाँपर जो शुभ और अशुभ फलकी प्राप्ति होती है, उसमें लोग कर्मको ही कारण मानते हैं; अतः मैं तुमसे कर्मके विषयका ही पूर्णतया वर्णन करता हूँ, सुनो ।।
जैसे कोई कौआ कहीं गिरे हुए भातको खाते समय काँव-काँव करके अन्य काकोंको यह जता देता है कि यहाँ अन्न है, उसी प्रकार समस्त कर्म अपने स्वभावको ही सूचित करनेवाले हैं || २५ ।।
जो विकारों (कार्यों) को ही जानता है, उनकी परम प्रकृति (स्वभाव) को नहीं जानता, उसीको अविवेकके कारण मोह या अभिमान होता है। जो इस बातको ठीक-ठीक समझता है, उसे मोह नहीं होता || २६ ।।
सभी भाव स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। इस बातको जो निश्चितरूपसे जान लेता है, उसका दर्प या अभिमान क्या बिगाड़ सकता है? ।। २७ ||
इन्द्र! मैं धर्मकी पूरी-पूरी विधि तथा सम्पूर्ण भूतोंकी अनित्यताको जानता हूँ। इसलिये, “यह सब नाशवान् है" ऐसा समझकर किसीके लिये शोक नहीं करता ।। २८ ।।
ममता, अहंकार तथा कामनाओंसे शून्य और सब प्रकारके बन्धनोंसे रहित हो आत्मनिष्ठ एवं असंग रहकर मैं प्राणियोंकी उत्पत्ति और विनाशको सदा देखता रहता हूँ ।।
इन्द्र! मैं शुद्ध-बुद्धि तथा मन और इन्द्रियोंको अपने अधीन करके स्थित हूँ। मैं तृष्णा और कामनासे रहित हूँ और सदा अविनाशी आत्मापर ही दृष्टि रखता हूँ, इसलिये मुझे कभी कष्ट नहीं होता ।। ३० ।।
प्रकृति और उसके कार्योंके प्रति मेरे मनमें न तो राग है, न द्वेष। मैं किसीको न अपना द्वेषी समझता हूँ और न आत्मीय ही मानता हूँ ।। ३१ ।।
इन्द्र! मुझे ऊपर (स्वर्गकी), नीचे (पातालकी) तथा बीचके लोक (मर्त्यलोक) की भी कभी कामना नहीं होती। ज्ञान-विज्ञान और ज्ञेयके निमित्त भी मेरे लिये कोई कर्म आवश्यक नहीं है ।। ३२ ।।
इन्द्रने कहा--प्रह्नादजी! जिस उपायसे ऐसी बुद्धि और इस तरहकी शान्ति प्राप्त होती है, उसे पूछता हूँ। आप मुझे अच्छी तरह उसे बताइये ।। ३३ ।।
प्रह्नमादने कहा--इन्द्र! सरलता, सावधानी, बुद्धिकी निर्मलता, चित्तकी स्थिरता तथा बड़े-बूढ़ोंकी सेवा करनेसे पुरुषको महत्-पदकी प्राप्ति होती है ।। ३४ ।।
इन गुणोंको अपनानेपर स्वभावसे ही ज्ञान प्राप्त होता है, स्वभावसे ही शान्ति मिलती है तथा जो कुछ भी तुम देख रहे हो, सब स्वभावसे ही प्राप्त होता है | ३५ ।।
राजन! दैत्यराज प्रह्नादके इस प्रकार कहनेपर इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उनके वचनोंकी प्रशंसा की || ३६ ।।
इतना ही नहीं, त्रिलोकीनाथ देवेश्वर इन्द्रने उस समय दैत्यों और असुरोंके स्वामी प्रह्नादका पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे अपने निवास-स्थान स्वर्गलोकको चले गये ।। ३७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें इन्द्र और प्रह्मादका संवादनामक दो सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४५½ “लोक मिलाकर कुल ८२½ *लोक हैं)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ तेईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तेईसवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और बलिका संवाद--इन्द्रके आक्षेपयुक्त वचनोंका बलिके द्वारा कठोर प्रत्युत्तर”
युधिष्ठटिरने पूछा--पितामह! जो राजलक्ष्मीसे भ्रष्ट हो गया हो और कालके दण्डसे पिस गया हो, वह भूपाल किस बुद्धिसे इस पृथ्वीपर विचरे, यह मुझे बताइये ।।
भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार मनुष्य विरोचनकुमार बलि और इन्द्रके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं ।। २ ।।
एक समय इन्द्र समस्त असुरोंपर विजय पाकर पितामह ब्रह्माजीके पास गये और हाथ जोड़कर प्रणाम करके उन्होंने पूछा--“भगवन्! बलि कहाँ रहता है?” ।। ३ ।।
“ब्रह्मम! जिसके दान देते समय उसके धनका भण्डार कभी खाली नहीं होता था, उस राजा बलिको मैं ढूँढ़नेपर भी नहीं पा रहा हूँ। आप मुझे बलिका पता बताइये ।। ४ ।।
“वह राजा बलि ही वायु बनकर चलता, वरुण बनकर वर्षा करता, सूर्य और चन्द्रमा बनकर प्रकाश करता, अग्नि बनकर समस्त प्राणियोंको ताप देता तथा जल बनकर सबकी प्यास बुझाता था, उसी राजा बलिको मैं कहीं नहीं पा रहा हूँ। ब्रह्म! आप मुझे बलिका पता बताइये ।। ५३ ।।
“वही यथासमय आलस्य छोड़कर सम्पूर्ण दिशाओंमें प्रकाशित होता, वही अस्त होता और वही वर्षा करता था। ब्रह्मन! उस बलिको मैं ढूँढ़नेपर भी नहीं पा रहा हूँ। आप मुझे राजा बलिका पता बताइये ।। ६-७ ।।
ब्रद्माजीने कहा--मघवन्! यह तुम्हारे लिये अच्छी बात नहीं है कि तुम मुझसे बलिका पता पूछ रहे हो। पूछनेपर झूठ नहीं बोलना चाहिये, इसलिये मैं तुमसे बलिका पता बता रहा हूँ || ८ ।।
शचीपते! किसी शून्य घरमें ऊँट, गौ, गर्दभ अथवा अश्वजातिके पशुओंमें जो श्रेष्ठ जीव उपलब्ध हो, उसे बलि समझो ।। ९ |।
इन्द्रने पूछा--ब्रह्मन्! यदि किसी एकान्त गृहमें राजा बलिसे मेरी भेंट हो जाय तो मैं उन्हें मार डालूँ या न मारूँ, यह मुझे बतावें ।। १० ।।
ब्रह्माजीने कहा--इन्द्र! तुम बलिका वध न करना, बलि वधके योग्य नहीं है। वासव! तुम उनसे इच्छानुसार न्यायोचित व्यवहारके विषयमें प्रश्न कर सकते हो || ११ ।।
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! भगवान् ब्रह्माजीके इस प्रकार आदेश देनेपर देवराज इन्द्र ऐगावतवकी पीठपर सवार हो राजलक्ष्मीसे सुशोभित होते हुए पृथ्वीपर विचरने लगे ।। १२ ।।
तदनन्तर उन्होंने भगवान् ब्रह्माके बताये अनुसार एक शून्य घरमें निवास करनेवाले राजा बलिको देखा, जिन्होंने गर्दभके वेषमें अपने आपको छिपा रखा था ।। १३ ।।
इन्द्र बोले--दानव! तुम गदहेकी योनिमें पड़कर भूसी खा रहे हो। यह नीच योनि तुम्हें प्राप्त हुई है। इसके लिये तुम्हें शोक होता है या नहीं? ।। १४ ।।
आज तुम्हारी ऐसी अवस्था देख रहा हूँ, जो पहले कभी नहीं देखी गयी थी। तुम शत्रुओंके वशमें पड़ गये हो। राजलक्ष्मी तथा मित्रोंसे हीन हो गये हो तथा तुम्हारा बलपराक्रम नष्ट हो गया है ।। १५
पहले तुम अपने सहस्रों वाहनों और सजातीय बन्धुओंसे घिरकर सब लोगोंको ताप देते और हम देवताओंको कुछ न समझते हुए यात्रा करते थे || १६ ।।
सब दैत्य तुम्हारा मुँह जोहते हुए तुम्हारे ही शासनमें रहते थे। तुम्हारे राज्यमें पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अनाज पैदा करती थी। परंतु आज तुम्हारे ऊपर यह संकट आ पहुँचा है। इसके लिये तुम शोक करते हो या नहीं? ।। १७३ ।।
जिस समय तुम समुद्रके पूर्वतटपर विविध भोगोंका आस्वादन करते हुए निवास करते थे और अपने भाई-बन्धुओंको धन बाँटते थे, उस समय तुम्हारे मनकी अवस्था कैसी रही होगी? ।। १८६ ।।
तुमने बहुत वर्षोतक राजलक्ष्मीसे सुशोभित हो विहारमें समय बिताया है। उस समय सुवर्णकी-सी कान्तिवाली सहस्रों देवांगनाएँ जो सब-की-सब पद्ममालाओंसे अलंकृत होती थीं, तुम्हारे सामने नृत्य किया करती थीं। दानवराज! उन दिनों तुम्हारे मनकी कया अवस्था थी और अब कैसी है? ।। १९-२० ३ ||
एक समय था, जब कि तुम्हारे ऊपर सोनेका बना हुआ रत्नभूषित विशाल छत्र तना रहता था और छ: हजार गन्धर्व सप्त स्वरोंमें गीत गाते हुए तुम्हारे सम्मुख अपनी नृत्यकलाका प्रदर्शन करते थे || २१६ ।।
यज्ञ करते समय तुम्हारे यज्ञमण्डपका अत्यन्त विशाल मध्यवर्ती स्तम्भ पूरा-का-पूरा सोनेका बना होता था। जिस समय तुम निरन्तर दस-दस करोड़ गौओंका सहस्रों बार दान किया करते थे, दैत्यायाज! उस समय तुम्हारे मनमें कैसे विचार उठते रहे होंगे? || २२-२३ ।।
जब तुमने शम्याक्षेपकी- विधिसे यज्ञ करते हुए सारी पृथ्वीकी परिक्रमा की थी, उस समय तुम्हारे हृदयमें कितना उत्साह रहा होगा? ।। २४ ।।
असुरराज! अब तो मैं तुम्हारे पास न तो सोनेकी झारी, न छत्र और न चँवर ही देखता हूँ तथा ब्रह्माजीकी दी हुई वह दिव्य माला भी तुम्हारे गलेमें नहीं दिखायी देती है ।।
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इन्द्रकी कही हुई वह भावगम्भीर वाणी सुनकर राजा बलि हँस पड़े और देवराजसे इस प्रकार बोले ।।
बलिने कहा--देवेश्वर! यहाँ तुमने जो मूर्खता दिखायी है, वह मेरे लिये आश्चर्यजनक है। तुम देवताओंके राजा हो। इस तरह दूसरोंको कष्ट देनेवाली बात कहना तुम्हारे लिये योग्य नहीं है ।।
इन्द्र! इस समय तुम मेरी सोनेकी झारीको, मेरे छत्र और चँवरको तथा ब्रह्माजीकी दी हुई मेरी उस दिव्य मालाको भी नहीं देख सकोगे ।। २६ ।।
तुम मेरे जिन रत्नोंके विषयमें पूछ रहे हो, वे सब गुफामें छिपा दिये गये हैं। जब मेरे लिये अच्छा समय आयेगा, तब तुम फिर उन्हें देखोगे || २७ ।।
इस समय तुम समृद्धिशाली हो और मेरी समृद्धि छिन गयी है, ऐसी अवस्थामें जो तुम मेरे सामने अपनी प्रशंसाके गीत गाना चाहते हो, यह तुम्हारे कुल और यशके अनुरूप नहीं है || २८ ।।
जिसकी बुद्धि शुद्ध है तथा जो ज्ञानसे तृप्त हैं, वे क्षमाशील मनीषी सत्पुरुष दुःख पड़नेपर शोक नहीं करते और समृद्धि प्राप्त होनेपर हर्षसे फूल नहीं उठते हैं || २९ ।।
पुरन्दर! तुम अपनी अशुद्ध बुद्धिके कारण मेरे सामने आत्मप्रशंसा कर रहे हो। जब मेरी-जैसी स्थिति तुम्हारी भी हो जायगी, तब ऐसी बात नहीं बोल सकोगे ।।३०॥
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपरवके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें बलि और इन्द्रका संवाद नामक दी सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं)
टिका टिप्पणी -
- शम्याक्षेप कहते हैं शम्यापातको। “शम्या” एक ऐसे काठके डंडेको कहते हैं, जिसका निचला भाग मोटा होता है। उसे जब कोई बलवान पुरुष उठाकर जोरसे फेंके, तब जितनी दूरीपर जाकर वह गिरे, उतने भूभागको एक “शम्यापात” कहते हैं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ चौबीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौबीसवें अध्याय के श्लोक 1-60 का हिन्दी अनुवाद)
“बलि और इन्द्रका संवाद, बलिके द्वारा कालकी प्रबलताका प्रतिपादन करते हुए इन्द्रको फटकारना”
भीष्मजी कहते हैं--भारत! ऐसा कहकर सर्पके समान फुफकारते हुए बलिसे इन्द्रने पुनः अपना उत्कर्ष सूचित करनेके लिये हँसते हुए कहा ।। १ ।।
इन्द्र बोले--दैत्ययाज बलि! पहले जो तुम सहस्रों वाहनों और भाई-बन्धुओंसे घिरकर सम्पूर्ण लोकोंको संताप देते और हम देवताओंको कुछ न समझते हुए यात्रा करते थे और अब बन्धु-बान्धवों तथा मित्रोंसे परित्यक्त होकर जो अपनी यह अत्यन्त दीनदशा देख रहे हो, इससे तुम्हारे मनमें शोक होता है या नहीं? ।।
पूर्वकालमें तुमने सम्पूर्ण लोकोंको अपने अधीन कर लिया था और अनुपम प्रसन्नता प्राप्त की थी; किंतु इस समय बाह्य जगतमें तुम्हारा यह घोर पतन हुआ है, यह सब सोचकर तुम्हारे मनमें शोक होता है या नहीं? ।। ४ ।।
बलिने कहा--इन््द्र! कालचक्र स्वभावसे ही परिवर्तनशील है, उसके द्वारा यहाँकी प्रत्येक वस्तुको मैं अनित्य समझता हूँ, इसीलिये कभी शोक नहीं करता हूँ; क्योंकि यह सारा जगत् विनाशशील है ।। ५ ।।
देवेश्वर! प्राणियोंके ये सारे शरीर अन्तवान् हैं; इसलिये मैं कभी शोक नहीं करता हूँ। यह गर्दभका शरीर भी मुझे किसी अपराधसे नहीं प्राप्त हुआ है (मैंने इसे स्वेच्छासे ग्रहण किया है) ।। ६ ।।
जीवन और शरीर दोनों जन्मके साथ ही उत्पन्न होते हैं, साथ ही बढ़ते हैं और साथ ही नष्ट हो जाते हैं || ७ ।।
मैं इस गर्दभ-शरीरको पाकर भी विवश नहीं हुआ हूँ। जब मैं इस प्रकार देहकी अनित्यता और आत्माकी असंगताको जानता हूँ, तब यह जानते हुए मुझे क्या व्यथा हो सकती है? ।। ८ ।।
वज्रधारी इन्द्र! जैसे जलके प्रवाहोंका अन्तिम आश्रय समुद्र है, उसी प्रकार शरीरधारियोंकी अन्तिम गति मृत्यु है। जो पुरुष इस बातको अच्छी तरह जानते हैं, वे कभी मोहमें नहीं पड़ते हैं || ९ ।।
जो लोग रजोगुण (काम-क्रोध) और मोहके वशीभूत हो इस बातको भलीभाँति नहीं जानते हैं तथा जिनकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वे संकटमें पड़नेपर बहुत दुखी होते हैं ।। १० ।।
जिसे सदबुद्धि प्राप्त होती है, वह पुरुष उस बुद्धिके द्वारा सारे पापोंको नष्ट कर देता है। पापहीन होनेपर उसे सत्त्वगुणकी प्राप्ति होती है और सत्त्वगुणमें स्थित होकर वह सात्विक प्रसन्नता प्राप्त कर लेता है ।।
जो मन्दबुद्धि मानव सत्त्वगुणसे भ्रष्ट हो जाते हैं, वे बारंबार इस संसारमें जन्म लेते हैं तथा रजोगुणजनित काम, क्रोध आदि दोषोंसे प्रेरित होकर सदा संतप्त होते रहते हैं ।। १२ ।।
मैं न तो अर्थसिद्धि, जीवन और सुखमय फलकी कामना करता हूँ और न अनर्थ, मृत्यु एवं दुःखमय फलसे द्वेष ही रखता हूँ ।। १३ ।।
जो मनुष्य किसीकी हत्या करता है, वह वास्तवमें स्वयं मरा हुआ होते हुए मरे हुएको ही मारता है। जो मारता है और जो मारा जाता है, वे दोनों ही आत्माको नहीं जानते हैं (क्योंकि आत्मा हननक्रियाका न तो कर्म है, न कर्ता) || १४ ।।
मघवन्! जो कोई किसीको मारकर या जीतकर अपने पौरुषपर गर्व करता है, वह वास्तवमें उस पुरुषार्थका कर्ता ही नहीं है; क्योंकि जो जगत्का कर्ता, जो परमात्मा है, वही उस कर्मका भी कर्ता है ।। १५ ।।
सम्पूर्ण जगत्का संहार और सृष्टि--इन दोनों कार्योको कौन करता है? वह सब प्राणियोंके कर्मोद्धारा ही किया गया है और उसका भी प्रयोजक कोई और (ईश्वर) ही है ।। १६ ||
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश--ये ही सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंके कारण हैं; अतः उनके लिये शोक और विलापकी क्या आवश्यकता है? ।। १७ ।।
कोई बड़ा भारी विद्वान् हो या अल्पविद्यासे युक्त, बलवान् हो या दुर्बल, सुन्दर हो या कुरूप, सौभाग्यशाली हो या दुर्भाग्ययुक्त, गम्भीर काल सबको अपने तेजसे ग्रहण कर लेता है; अतः उन सबके कालके अधीन हो जानेपर जगतकी क्षणभंगुरताको जाननेवाले मुझ बलिको क्या व्यथा हो सकती है? ।। १८-१९ ||
जो कालके द्वारा दग्ध हो चुका है, उसीको पीछेसे आग जलाती है। जिसे कालने पहलेसे ही मार डाला है, वही किसी दूसरेके द्वारा मारा जाता है। जो पहलेसे ही नष्ट हो चुकी है, वही वस्तु किसीके द्वारा नष्ट की जाती है तथा जिसका मिलना पहलेसे ही निश्चित है, उसीको मनुष्य हस्तगत करता है ।। २० ।।
मैं बहुत सोचनेपर भी दिव्य विधाता कालका अन्त नहीं देख पाता हूँ। उस समुद्र-जैसे कालका कहीं द्वीप भी नहीं है, फिर पार कहाँसे प्राप्त हो सकता है? उसका आर-पार कहीं नहीं दिखायी देता है || २१ ।।
शचीपते! यदि काल मेरे देखते-देखते समस्त प्राणियोंका विनाश नहीं करता तो मुझे हर्ष होता, अपनी शक्तिपर गर्व होता और उस क्रूर कालपर मुझे क्रोध भी होता || २२ ।।
इस एकान्त गृहमें गर्दभका रूप धारण किये मुझे भूसी खाता जानकर तुम यहाँ आये हो और मेरी निन्दा करते हो ।। २३ ।।
मैं चाहूँ तो अपने बहुत-से ऐसे भयानक रूप प्रकट कर सकता हूँ, जिन्हें देखकर तुम्हीं मेरे निकटसे भाग खड़े होओगे ।। २४ ।।
इन्द्र! काल ही सबको ग्रहण करता है, काल ही सब कुछ देता है तथा कालने ही सब कुछ किया है; अत: अपने पुरुषार्थका गर्व न करो || २५ ।।
पुरन्दर! पूर्वकालमें मेरे कुपित होनेपर सारा जगत् व्यथित हो उठता था। इस लोककी कभी वृद्धि होती है और कभी हास। यह इसका सनातन स्वभाव है। शक्र! इस बातको मैं अच्छी तरह जानता हूँ || २६ ।।
तुम भी जगतको इसी दृष्टिसे देखो। अपने मनमें विस्मित न होओ। प्रभुता और प्रभाव अपने अधीन नहीं हैं || २७ ।।
तुम्हारा चित्त अभी बालकके समान है। वह जैसा पहले था, वैसा ही आज भी है। मघवन्! इस बातकी ओर दृष्टिपात करो और नैषछ्लिक बुद्धि प्राप्त करो || २८ ।।
वासव! एक दिन देवता, मनुष्य, पितर, गन्धर्व, नाग और राक्षस--ये सभी मेरे अधीन थे। वह सब कुछ तुम जानते हो ।। २९ ।।
मेरे शत्रु अपने बुद्धिगत द्वेषसे मोहित होकर मेरी शरण ग्रहण करते हुए ऐसा कहा करते थे कि विरोचनकुमार बलि जिस दिशामें हों, उस दिशाको भी हमारा नमस्कार है ।। ३० ।।
शचीपते! मुझे अपने इस पतनके लिये तनिक भी शोक नहीं होता है, मेरी बुद्धिका ऐसा निश्चय है कि मैं सदा सबके शासक ईश्वरके वशमें हूँ || ३१ ।।
एक उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ दर्शनीय एवं प्रतापी पुरुष अपने मन्त्रियोंके साथ दुःखपूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है, उसका वैसा ही भवितव्य था || ३२ ।।
इन्द्र! एक नीच कुलमें उत्पन्न हुआ मूढ़ मनुष्य जिसका जन्म दुराचारसे हुआ है, अपने मन्त्रियोंसहित सुखी जीवन बिताता देखा जाता है। उसकी भी वैसी ही होनहार समझनी चाहिये ।। ३३ ।।
शक्र! एक कल्याणमय आचार-विचार रखनेवाली सुरूपवती युवती विधवा हुई देखी जाती है और दूसरी कुलक्षणा और कुरूपा स्त्री सौभाग्यवती दिखायी देती है |। ३४ ।।
वज्रधारी इन्द्र! आज तो तुम इस तरह समृद्धिशाली हो गये हो और हमलोग जो ऐसी अवस्थामें पहुँच गये हैं, यह न तो हमारा किया हुआ है और न तुमने ही कुछ किया है ।। ३५ ||
शतक्रतो! इस समय मैं इस परिस्थितिमें हूँ और जो कर्म मेरे इस शरीरसे हो रहा है, यह सब मेरा किया हुआ नहीं है। समृद्धि और निर्धनता (प्रारब्धके अनुसार) बारी-बारीसे सबपर आती है ।। ३६ ।।
मैं देखता हूँ, इस समय तुम देवराजके पदपर प्रतिष्ठित हो। अपने कान्तिमान् और तेजस्वी स्वरूपसे विराज रहे हो और मेरे ऊपर बारंबार गर्जना करते हो ।।
परंतु यदि इस तरह काल मुझपर आक्रमण करके मेरे सिरपर सवार न होता तो मैं आज वज्ञज लिये होनेपर भी तुम्हें केवल मुक्केसे मारकर धरतीपर गिरा देता ।।
किंतु यह मेरे लिये पराक्रम प्रकट करनेका समय नहीं है; अपितु शान्त रहनेका समय आया है। काल ही सबको विभिन्न अवस्थाओंमें स्थापित करके सबका पालन करता है और काल ही सबको पकाता (क्षीण करता) है ।। ३९ |।
एक दिन मैं दानवेश्वरोंद्वारा पूजित था और मैं भी गर्जता तथा अपना प्रताप सर्वत्र फैलाता था। जब मुझपर भी कालका आक्रमण हुआ है, तब दूसरे किसपर वह आक्रमण नहीं करेगा? ।। ४० ।।
देवराज! तुमलोग जो बारह महात्मा आदित्य कहलाते हो, तुम सब लोगोंके तेज मैंने अकेले धारण कर रखे थे ।। ४१ ।।
वासव! मैं ही सूर्य बनकर अपनी किरणोंद्वारा पृथ्वीका जल ऊपर उठाता और मेघ बनकर वर्षा करता था। मैं ही त्रिलोकीको ताप देता और विद्युत् बनकर प्रकाश फैलाता था ।। ४२ ।।
मैं प्रजाकी रक्षा करता था और लुटेरोंको लूट भी लेता था। मैं सदा दान देता और प्रजासे कर लेता था। मैं ही सम्पूर्ण लोकोंका शासक और प्रभु होकर सबको संयम-नियममें रखता था ।। ४३ ।।
अमरेश्वर! आज मेरी वह प्रभुता समाप्त हो गयी। कालकी सेनासे मैं आक्रान्त हो गया हूँ; अत: मेरा वह सब ऐश्वर्य अब प्रकाशित नहीं हो रहा है ।। ४४ ।।
शचीपति इन्द्र! न मैं कर्ता हूँ, न तुम कर्ता हो और न कोई दूसरा ही कर्ता है। काल बारी-बारीसे अपनी इच्छाके अनुसार सम्पूर्ण लोकोंका उपभोग करता है ।।
वेदवेत्ता पुरुष कहते हैं कि मास और पक्ष कालके आवास (शरीर) हैं। दिन और रात उसके आवरण (वस्त्र) हैं। ऋतुएँ द्वार (मन-इन्द्रिय) हैं और वर्ष मुख है। वह काल आयुस्वरूप है || ४६ ।।
कुछ विद्वान् अपनी बुद्धिके बलसे कहते हैं कि यह सब कुछ कालसंज्ञक ब्रह्म है। इसका इसी रूपमें चिन्तन करना चाहिये। इस चिन्तनके मास आदि उपर्युक्त पाँच ही विषय हैं। मैं पूर्वोक्त पाँच भेदोंसे युक्त कालको जानता हूँ || ४७ ।।
वह कालरूप ब्रह्म अनन्त जलसे भरे हुए महासागरके समान गम्भीर एवं गहन है। उसका कहीं आदि-अन्त नहीं है। उसे ही क्षर एवं अक्षररूप बताया गया है ।।
जो लोग तत्त्वदर्शी हैं, वे निश्चितरूपसे ऐसा मानते हैं कि वह कालरूप परबत्रह्म परमात्मा स्वयं निराकार होते हुए भी समस्त प्राणियोंके भीतर जीवका प्रवेश कराता है ।। ४९ ||
भगवान् काल ही समस्त प्राणियोंकी अवस्थामें उलट-फेर कर देते हैं। कोई भी व्यक्ति उनके इस माहात्म्यको समझ नहीं पाता। कालकी ही महिमासे पराजित होकर मनुष्य कुछ भी कर नहीं पाता ।। ५० |।
देवराज! समस्त प्राणियोंकी गति जो काल है, उसको प्राप्त हुए बिना तुम कहाँ जाओगे? मनुष्य भागकर भी उसे छोड़ नहीं सकता--उससे दूर नहीं जा सकता और न खड़ा होकर ही उसके चंगुलसे छूट सकता है। श्रवण आदि समस्त इन्द्रियाँ मास-पक्ष आदि पाँच भेदोंसे युक्त उस कालका अनुभव नहीं कर पातीं। कुछ लोग इन कालदेवताको अग्नि कहते हैं और कुछ प्रजापति ।।
दूसरे लोग उस कालको ऋतु, मास, पक्ष, दिन, क्षण, पूर्वाह्न, अपराह्न और मध्याह्न कहते हैं। उसीको विद्वान् पुरुष मुहूर्त भी कहते हैं। वह एक होकर भी अनेक प्रकारका बताया जाता है। इन्द्र! तुम उस कालको इस प्रकार जानो। यह सारा जगत् उसीके अधीन है ।।
शचीपति इन्द्र! जैसे तुम हो, वैसे ही बल और पराक्रमसे सम्पन्न अनेक सहस्र इन्द्र समाप्त हो चुके हैं ।।
शक्र! तुम अपनेको अत्यन्त शक्तिशाली और उत्कट बलसे युक्त देवराज समझते हो; परंतु समय आनेपर महापराक्रमी काल तुम्हें भी शान्त कर देगा ।। ५६ ।।
इन्द्र! वह काल ही सम्पूर्ण जगतको अपने वशमें कर लेता है; अतः तुम भी स्थिर रहो। मैं, तुम तथा हमारे पूर्वज भी कालकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकते ।। ५७ ||
तुम जिस इस परम उत्तम राजलक्ष्मीको पाकर यह जानते हो कि यह मेरे पास स्थिरभावसे रहेगी, तुम्हारी यह धारणा मिथ्या है; क्योंकि यह कहीं एक जगह बँधकर नहीं रहती है ।। ५८ ।।
इन्द्र! यह लक्ष्मी तुमसे भी श्रेष्ठ सहस्रों पुरुषोंके पास रह चुकी है। देवेश्वर! इस समय यह चंचला मुझे भी छोड़कर तुम्हारे पास गयी है ।। ५९ ।।
शक्र! अब फिर तुम ऐसा बर्ताव न करना। अब तुमको शान्ति धारण कर लेनी चाहिये। तुम्हें भी मेरी-जैसी स्थितिमें जानकर यह लक्ष्मी शीघ्र किसी दूसरेके पास चली जायगी ।। ६० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें बलि और इन्द्रका संवादविषयक दो सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पच्चीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पच्चीसवें अध्याय के श्लोक 1-38 का हिन्दी अनुवाद)
“इन्द्र और लक्ष्मीका संवाद, बलिको त्यागकर आयी हुई लक्ष्मीकी इन्द्रके द्वारा प्रतिष्ठा”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! तदनन्तर इन्द्रने देखा कि महात्मा बलिके शरीरसे परम सुन्दरी तथा कान्तिमती लक्ष्मी मूर्तिमती होकर निकल रही हैं ।। १ ।।
पाकशासन भगवान् इन्द्र प्रभासे प्रकाशित होनेवाली उस लक्ष्मीको देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। उनके नेत्र विस्मयसे खिल उठे। उन्होंने बलिसे पूछा ।। २ ।।
इन्द्र बोले--बले! यह वेणी धारण करनेवाली कान्तिमयी कौन सुन्दरी तुम्हारे शरीरसे निकल कर खड़ी है? इसकी भुजाओंमें बाजूबंद शोभा पा रहे हैं और यह अपने तेजसे उद्भासित हो रही है || ३ ।।
बलिने कहा--इन्द्र! मेरी समझमें न तो यह असुरकुलकी स्त्री है, न देवजातिकी है और न मानवी ही है। तुम जानना चाहते हो तो इसीसे पूछो अथवा न पूछो। जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो ।।
तब इन्द्रने पूछा--पवित्र मुसकानवाली सुन्दरी! बलिके शरीरसे निकलकर खड़ी हुई तुम कौन हो? तुम्हारी चमक-दमक अदभुत है। तुम्हारी वेणी भी अत्यन्त सुन्दर है। मैं तुम्हें जानता नहीं हूँ; इसलिये पूछता हूँ। तुम मुझे अपना नाम बताओ। सुभ्रू! दैत्यराजको त्यागकर अपने तेजसे मुझे प्रकाशित करती हुई इस प्रकार तुम कौन खड़ी हो? मेरे प्रश्नके अनुसार अपना परिचय दो ।। ५-६ ||
लक्ष्मी बोली--मुझे न तो विरोचन जानता है और न उसका पुत्र यह बलि। लोग मुझे दुःसहा कहते हैं और कुछ लोग मुझे विधित्साके नामसे भी जानते हैं ।।
वासव! जानकार मनुष्य मुझे भूति, लक्ष्मी और श्री भी कहते हैं। शक्र! तुम मुझे नहीं जानते तथा सम्पूर्ण देवताओंको भी मेरे विषयमें कुछ भी ज्ञान नहीं है ।। ८ ।।
इन्द्रने पूछा--दुःसहे! तुमने चिरकालतक राजा बलिके शरीरमें निवास किया है, अब क्या तुम मेरे लिये अथवा बलिके ही हितके लिये इनका त्याग कर रही हो? ।। ९ ।।
लक्ष्मीने कहा--इन्द्र! धाता या विधाता किसी प्रकार भी मुझे किसी कार्यमें नियुक्त नहीं कर सकते हैं; किंतु कालका ही आदेश मुझे मानना पड़ता है। वही काल इस समय बलिका परित्याग करनेके लिये मुझे प्रेरित करनेके निमित्त उपस्थित हुआ है। इन्द्र! तुम उस कालकी अवहेलना न करना ।। १० ।।
इन्द्रने पूछा--वेणी धारण करनेवाली लक्ष्मी! तुमने बलिका कैसे और किसलिये त्याग किया है? शुचिस्मिते! तुम मेरा त्याग किस प्रकार नहीं करोगी? यह मुझे बताओ ।। ११ ।।
लक्ष्मीने कहा--मैं सत्य, दान, व्रत, तपस्या, पराक्रम और धर्ममें निवास करती हूँ। राजा बलि इन सबसे विमुख हो चुके हैं || १२ ।।
ये पहले ब्राह्मणोंके हितैषी, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे; किंतु आगे चलकर ब्राह्मणोंके प्रति इनकी दोषदृष्टि हो गयी तथा इन्होंने जूठे हाथसे घी छू दिया था || १३ ।।
पहले ये सदा यज्ञ किया करते थे; किंतु आगे चलकर कालसे पीड़ित एवं मोहितचित्त होकर इन्होंने सब लोगोंको स्वयं ही स्पष्टरूपसे आदेश दिया कि तुम सब लोग मेरा ही यजन करो ।। १४ ।।
वासव! इस प्रकार इनके द्वारा तिरस्कृत होकर अब मैं तुममें ही निवास करूँगी। तुम्हें सदा सावधान रहकर तपस्या और पराक्रमद्वारा मुझे धारण करना चाहिये ।।
इन्द्रने कहा--कमलालये! देवताओं, मनुष्यों अथवा सम्पूर्ण प्राणियोंमें कोई भी ऐसा पुरुष नहीं है जो अकेला तुम्हारा भार सहन कर सके? ।। १६ ।।
लक्ष्मीने कहा--पुरंदर! देवता, गन्धर्व, असुर और राक्षस कोई भी अकेला मेरा भार सहन नहीं कर सकता ।। १७ ।।
इन्द्रने कहा--शुभे! तुम जिस प्रकार मेरे निकट सदा निवास कर सको, वह उपाय मुझे बताओ। मैं तुम्हारी आज्ञाका यथार्थरूपसे पालन करूँगा; क्योंकि तुम वह उपाय मुझे अवश्य बता सकती हो।।
लक्ष्मीने कहा--देवेन्द्र! मैं जिस उपायसे तुम्हारे निकट सदा निवास कर सकूँगी, वह बताती हूँ, सुनो। तुम वेदमें बतायी हुई विधिसे मुझे चार भागोंमें विभक्त करो ।। १९ ।।
इन्द्रने कहा--लक्ष्मी! मैं शारीरिक बल और मानसिक शक्तिके अनुसार तुम्हें धारण करूँगा, किंतु तुम्हारे निकट कभी मेरा परित्याग न हो ।। २० ।।
मेरी यह धारणा है कि मनुष्यलोकमें सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेवाली यह पृथ्वी ही सबको धारण करती है। वह तुम्हारे पैरका भार सह सकेगी; क्योंकि वह सामर्थ्यशालिनी है ।। २१ ||
लक्ष्मीने कहा--इन्द्र! यह जो मेरा एक पैर पृथ्वी पर रखा हुआ है, इसे मैंने यहीं प्रतिष्ठित कर दिया। अब तुम मेरे दूसरे पैरको भी सुप्रतिष्ठित करो ।। २२ ।।
इन्द्रने कहा--लक्ष्मी! मनुष्यलोकमें जल ही सब ओर प्रवाहित होता है; अतः वही तुम्हारे दूसरे पैरका भार सहन करे; क्योंकि जल इस कार्यके लिये पूर्ण समर्थ है ।। २३ ।।
लक्ष्मीने कहा--इन्द्र! लो, मैंने यह पैर जलमें रख दिया। अब यह जलमें ही सुप्रतिष्ठित है। अब तुम मेरे तीसरे पैरको भलीभाँति स्थापित करो ।। २४ ।।
इन्द्रने कहा--देवि! जिसमें वेद, यज्ञ और सम्पूर्ण देवता प्रतिष्ठित हैं। वे अग्निदेव तुम्हारे तीसरे पैरको अच्छी तरह धारण करेंगे || २५ ।।
लक्ष्मीने कहा--इन्न्द्र! यह तीसरा पाद मैंने अग्निमें रख दिया। अब यह अम्निमें प्रतिष्ठित है। इसके बाद मेरे चौथे पादको भलीभाँति स्थापित करो |।। २६ ।।
इन्द्र बोले--देवि! मनुष्योंमें जो ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी श्रेष्ठ पुरुष हैं, वे आपके चौथे पादका भार वहन करें; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष उसे सहन करनेमें पूर्ण समर्थ हैं ।। २७ ।।
लक्ष्मीने कहा--इन्द्र! यह मैंने अपना चौथा पाद रखा। अब यह सत्पुरुषोंमें प्रतिष्ठित हुआ। इसी प्रकार तुम अब सम्पूर्ण भूतोंमें मुझे स्थापित करके सब ओरसे मेरी रक्षा करो || २८ ।।
इन्द्रने कहा--देवि! मेरेद्वारा स्थापित की हुई आपको समस्त प्राणियोंमेंसे जो भी पीड़ा देगा, वह मेरेद्वारा दण्डनीय होगा। मेरी यह बात वे सब लोग सुन लें ।।
तदनन्तर लक्ष्मीसे परित्यक्त होकर दैत्यराज बलिने कहा--'सूर्य जबतक पूर्वदिशामें प्रकाशित होंगे, तभीतक वे दक्षिण, पश्चिम और उत्तरदिशाको भी प्रकाशित करेंगे ।।
“जब सूर्य केवल मध्याह्नकालमें ही स्थित रहेंगे, अस्ताचलको नहीं जायँगे, उस समय पुनः देवासुरसंग्राम होगा और उसमें मैं तुम सब देवताओंको परास्त करूँगा ।।
“शतक्रतो! जब सूर्य एक स्थान अर्थात् ब्रह्मलोकमें ही स्थित होकर नीचेके सम्पूर्ण लोकोंको ताप देने लगेंगे, उस समय देवासुरसंग्राममें मैं तुम्हें अवश्य जीत लूँगा-” ।।
इन्द्रने कहा--बले! ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि तुम बलिका वध न करना; इसीलिये तुम्हारे मस्तकपर मैं अपना वज्र नहीं छोड़ रहा हूँ ।। ३३ ।।
दैत्यराज! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चले जाओ। महान् असुर! तुम्हारा कल्याण हो। सूर्य कभी मध्याह्ममें ही स्थित होकर सम्पूर्ण लोकोंको ताप नहीं देंगे || ३४ ।।
ब्रह्माजीने पहलेसे ही उनके लिये मर्यादा स्थापित कर दी है, अतः उसी सत्यमर्यादाके अनुसार सूर्य सम्पूर्ण लोकोंको ताप प्रदान करते हुए निरन्तर परिभ्रमण करते हैं || ३५ ।।
उनके दो मार्ग हैं--उत्तर और दक्षिण। छ: महीनोंका उत्तरायण होता है और छ: महीनोंका दक्षिणायन। उसीसे सम्पूर्ण जगतमें सर्दी-गर्मीकी सृष्टि करते हुए सूर्यदेव भ्रमण करते हैं ।। ३६ ।।
भीष्मजी कहते हैं--भारत! इन्द्रके ऐसा कहनेपर दैत्यराज बलि दक्षिणदिशाको चले गये और स्वयं इन्द्र उत्तरदिशाको ।। ३७ ।।
राजा बलिका वह पूर्वोक्त अनहंकारसंज्ञक वाक्य सुनकर सहसनेत्रधारी इन्द्र पुनः आकाशको ही उड़ चले ।। ३८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीयंनिधाननामक दो सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- वैवस्वत मन्वन्तरको आठ भागोंमें विभक्त करके जब अन्तिम आठवाँ भाग व्यतीत होने लगेगा, तब पूर्व आदि चारों दिशाओंमें जो इन्द्र, यम, वरुण और कुबेरकी चार पुरियाँ हैं, वे नष्ट हो जायँगी। उस समय केवल ब्रह्मलोकमें स्थित होकर सूर्य नीचेके सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करेंगे। उसी समय सावर्णिक मन्वन्तरका आरम्भ होगा, जिसमें राजा बलि इन्द्र होंगे। (नीलकण्ठी)
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