सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ सौलहवें अध्याय से दो सौ बीसवें अध्याय तक (From the 216 chapter to the 220 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ सोलहवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सोलहवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्थामें मनकी स्थिति तथा गुणातीत ब्रह्मकी प्राप्तिका उपाय”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! सदा निष्कलंक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको स्वप्नके दोषोंपर दृष्टि रखते हुए सब प्रकारसे निद्राका परित्याग कर देना चाहिये ।। १ ।।

स्वप्नमें जीवको प्रायः रजोगुण और तमोगुण दबा लेते हैं। वह कामनायुक्त होकर दूसरे शरीरको प्राप्त हुएकी भाँति विचरता है ।। २ ।।

मनुष्यमें पहले तो ज्ञानका अभ्यास करनेसे जागनेकी आदत होती है, तत्पश्चात्‌ विचार करनेके लिये जागना अनिवार्य हो जाता है तथा जो तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह तो ब्रह्ममें निरन्तर जागता ही रहता है ।। ३ ।।

यहाँ पूर्व पक्ष यह प्रश्न उठाता है कि स्वप्नमें जो यह देहादि पदार्थ दिखायी देता है, क्या है? (सत्य है या असत्य? यदि कहें कि सत्य है तो ठीक नहीं; क्योंकि) स्वप्रावस्थामें सब कुछ विषयोंसे सम्पन्न-सा दिखायी देनेपर भी वास्तवमें वहाँ कोई विषय नहीं होता, सारी इन्द्रियाँ उस समय मनमें विलीन हो जाती हैं। उन्हीं इन्द्रियोंसे देहाभिमानी जीव देहधारीजैसा बर्ताव करता है। और यदि कहें कि स्वप्नके पदार्थ असत्य हैं तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जो सर्वथा असत्‌ है, (जैसे आकाशका पुष्प) उसकी प्रतीति ही नहीं होती ।। ४ ।।

अब यहाँ सिद्धान्तका प्रतिपादन किया जाता है। यह स्वप्न-जगत्‌ जैसा है, उसे ठीकठीक योगेश्वर श्रीहरि ही जानते हैं; पर जैसा श्रीहरि जानते हैं, वैसा ही महर्षि भी उसका वर्णन करते हैं, उनका वह वर्णन युक्तिसंगत भी है ।। ५ ।।

विद्वान्‌ महर्षियोंका कहना है कि जाग्रत्‌ू-अवस्थामें निरन्तर शब्द आदि विषयोंको ग्रहण करते-करते श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ जब थक जाती हैं, तब सभी प्राणियोंके अनुभवमें आनेवाला स्वप्न दिखायी देने लगता है। उस समय इन्द्रियोंके लय होनेपर भी मनका लय नहीं होता है; इसलिये वह समस्त विषयोंका जो मनसे अनुभव करता है, वही स्वप्न कहलाता है। इस विषयमें प्रसिद्ध दृष्टान्त बताया जाता है || ६ ।।

जैसे जाग्रत-अवस्थामें विभिन्न कार्यामें आसक्त-चित्त हुए मनुष्यके संकल्प मनोराज्यकी ही विभूति हैं, उसी प्रकार स्वप्नके भाव भी मनसे ही सम्बन्ध रखते हैं ।। ७ ।।

कामनाओंमें जिसका मन आसक्त है, वह पुरुष स्वप्नमें असंख्य संस्कारोंके अनुसार अनेक दृश्योंको देखता है। वे समस्त संस्कार उसके मनमें ही छिपे रहते हैं, जिन्हें वह सर्वश्रेष्ठ अन्तर्यामी पुरुष परमात्मा जानता है ।। ८ ।।

कर्मोके अनुसार सत्त्वादि गुणोंमेंसे यदि यह सत्त्व, रज या तम जो कोई भी गुण प्राप्त होता है, उससे मनपर जब जैसे संस्कार पड़ते हैं अथवा जब जिस कर्मसे मन भावित होता है, उस समय सूक्ष्मभूत स्वप्नमें वैसे ही आकार प्रकट कर देते हैं ।। ९ ।।

उस स्वप्रका दर्शन होते ही सातक्विक, राजस अथवा तामस गुण यथायोग्य सुखदुःखरूप फलका अनुभव करानेके लिये उसके पास आ पहुँचते हैं || १० ।।

तदनन्तर मनुष्य स्वप्नमें अज्ञानवश वात, पित्त या कफकी प्रधानतासे युक्त तथा काम, मोह आदि राजस, तामस भावोंसे व्याप्त नाना प्रकारके शरीरोंका दर्शन करते हैं। तत्त्वज्ञान हुए बिना उस स्वप्नदर्शनको लाँघना अत्यन्त कठिन बताया गया है ।। ११ ।।

जाग्रतू-अवस्थामें प्रसन्न इन्द्रियोंके द्वारा मनुष्य अपने मनमें जो-जो संकल्प करता है, स्वप्नावस्था आनेपर भी उसका वह मन हर्षपूर्वक उसी-उसी संकल्पको पूर्ण होता देखा करता है ।। १२ ।।

मनकी सर्वत्र अबाध गति है। वह अपने अधिष्ठान-भूत आत्माके ही प्रभावसे सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त है; अतः आत्माको अवश्य जानना चाहिये; क्योंकि सभी देवता आत्मामें ही स्थित हैं ।। १३ ।।

स्वप्न-दर्शनका द्वारभूत जो स्थूल मानव देह है, वह सुषुप्ति-अवस्थामें मनमें लीन हो जाता है। उसी देहका आश्रय ले मन अव्यक्त सदसत्स्वरूप एवं साक्षीभूत आत्माको प्राप्त होता है। वह आत्मा सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत है। ज्ञानी पुरुष उसे अध्यात्मगुणसे युक्त मानते हैं ।। १४ ।।

जो योगी मनके द्वारा संकल्पसे ही ईश्वरीय गुणको पाना चाहता है, वह उस आत्मप्रसादको प्राप्त कर लेता है; क्योंकि सम्पूर्ण देवता आत्मामें ही स्थित हैं || १५ ।।

इस प्रकार तपस्यासे युक्त हुआ मन अज्ञानान्धकारसे ऊपर उठकर सूर्यके समान ज्ञानमय प्रकाशसे प्रकाशित होने लगता है। जीवात्मा तीनों लोकोंका कारणभाूत ब्रह्म ही है। वह अज्ञान निवृत्तिके पश्चात्‌ महेश्वर (विशुद्ध परमात्मा) रूपसे प्रतिष्ठित होता है ।। १६ ।।

देवताओंने तपका आश्रय लिया है और असुरोंने तपस्यामें विघ्न डालनेवाले दम्भ, दर्प आदि तमको अपनाया है; परंतु ब्रह्मतत््व देवताओं और असुरोंसे छिपा हुआ है; तत्वज्ञ पुरुष इसे ज्ञानस्वरूप बताते हैं || १७ ।।

सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण--इन्हें देवताओं और असुरोंका गुण माना गया है। इनमें सत्त्व तो देवताओंका गुण और शेष दोनों असुरोंके गुण हैं ।। १८ ।।

ब्रह्म इन सभी गुणोंसे अतीत, अक्षर, अमृत, स्वयंप्रकाश और ज्ञानस्वरूप है। जो शुद्ध अन्त:करणवाले महात्मा उसे जानते हैं, वे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं ।। १९ ।।

ज्ञानमयी दृष्टि रखनेवाले महापुरुष ही ब्रह्मके विषयमें युक्तिसंगत बात कह सकते हैं अथवा मन और इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे हटाकर एकाग्रचित्त हो चिन्तन करनेसे भी ब्रह्मका साक्षात्कार हो सकता है |। २० ||

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका कथनविषयक दो सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ सत्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सत्रहवें अध्याय के श्लोक 1-38 का हिन्दी अनुवाद)

“सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) उन चारोंके ज्ञानसे मुक्तिका कथन तथा परमात्मप्राप्तिके अन्य साधनोंका भी वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--राजन! जो मनुष्य सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग तथा प्रकृति और पुरुष--इन चारोंको नहीं जानता है, वह परब्रह्म परमात्माको नहीं जानता है। परम ऋषि नारायणने जिस व्यक्त और अव्यक्त तत्त्वका प्रतिपादन किया है, उसमें व्यक्त (दृश्यवर्ग) को मृत्युके मुखमें पड़नेवाला जाने और अव्यक्तको अमृतपद समझे तथा नारायण ऋषिने जिस प्रवृत्तिरूप धर्मका प्रतिपादन किया है, उसीपर चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी प्रतिष्ठित है। निवृत्तिरूप जो धर्म है, वह अव्यक्त सनातन ब्रह्मस्वरूप है || १--३ ।।

प्रजापति ब्रह्माजीने प्रवृत्तिरूप धर्मका उपदेश दिया है; परंतु प्रवृत्तिरूप धर्म पुनरावृत्तिका कारण है। उसके आचरणसे संसारमें बारंबार जन्म लेना पड़ता है और निवृत्तिरूप धर्म परमगतिकी प्राप्ति करानेवाला है || ४ ।।

जो सदा ज्ञानतत्त्वके चिन्तनमें संलग्न रहनेवाला, शुभ और अशुभको (ज्ञाननेत्रोंके द्वारा तत््वसे) देखनेवाला तथा निवृत्तिपरायण मुनि है, वही उस परमगतिको प्राप्त होता है ।। ५ ।।

इस प्रकार विचारशील पुरुषको चाहिये कि वह पहले अव्यक्तः (प्रकृति) और पुरुष (जीवात्मा)--इन दोनोंका ज्ञान प्राप्त करे; फिर इन दोनोंसे श्रेष्ठ जो परम महान्‌ पुरुषोत्तम तत्त्व है, उसका विशेषरूपसे ज्ञान प्राप्त करे || ६३ ।।

ये प्रकृति और पुरुष (जीवात्मा) दोनों ही अनादि और अनन्त हैंः। दोनों ही अलिंग निराकार हैं तथा दोनों ही नित्य, अविचल और महानसे भी महान हैं। ये सब बातें इन दोनोंमें समानरूपसे पायी जाती हैं; परंतु इनमें जो अन्तर या वैलक्षण्य है, वह दूसरा ही है, जिसे बताया जाता है ।। ७-८ ।।

प्रकृति त्रिगुणमयी है। ब्रह्मके सकाशसे सृष्टि करना उसका सहज धर्म है, किंतु क्षेत्रज्ष अथवा पुरुषके स्वरूपको प्रकृतिसे सर्वथा विपरीत (विलक्षण) जानना चाहिये ।। ९ ।।

वह स्वयं गुणोंसे रहित तथा प्रकृतिके विकारों (कार्यों) का द्रष्टा है। ये दोनों प्रकृति और पुरुष सम्पूर्णत: इन्द्रियोंके विषय नहीं हैं। दोनों ही आकाररहित तथा एक-दूसरेसे विलक्षण हैं || १० ।।

प्रकृति और पुरुषके संयोगसे चराचर जगत्‌की उत्पत्ति होती है, जो कर्मसे ही जानी जाती है। जीव मन-इन्द्रियोंद्वारा कर्म करता है। वह जिस-जिस कर्मको करता है, उस-उसका कर्ता कहलाता है। 'कौन' “मैं! “यह” और “वह'--इन शब्दों एवं संज्ञाओंद्वारा उसीका वर्णन किया जाता है ॥। ११ ।।

जैसे पगड़ी बाँधनेवाला पुरुष तीन वस्त्रों (पगड़ी, ऊर्ध्ववस्त्र, अधोवस्त्र) से परिवेष्टित होता है, उसी प्रकार यह देहाभिमानी जीव सत्त्व, रज और तम--तीन गुणोंसे आवृत होता है || १२ 

अतः इन्हीं हेतुओंसे आवृत हुई इन चार वस्तुओं (सच्चिदानन्दघन परमात्मा, दृश्यवर्ग, प्रकृति और पुरुष) को जानना चाहिये। इन्हें भलीभाँति तत्त्वसे जान लेनेपर मनुष्य मृत्युके समय मोहमें नहीं पड़ता है ।। १३ ।।

जो दिव्य सम्पत्ति अर्थात्‌ ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना चाहे, उस देहधारी पुरुषको अपना मन शुद्ध रखना चाहिये और शरीरसे कठोर नियमोंका पालन करते हुए निर्दोष तपका अनुष्ठान करना चाहिये ।। १४ ।।

आन्तरिक तप चैतन्यमय प्रकाशसे युक्त है। उसके द्वारा तीनों लोक व्याप्त हैं। आकाशमें सूर्य और चन्द्रमा भी तपसे ही प्रकाशित हो रहे हैं ।। १५ ।।

लोकमें तप शब्द विख्यात है। उस तपका फल है, ज्ञानस्वरूप प्रकाश। रजोगुण और तमोगुणका नाश करनेवाला जो निष्काम कर्म है, वही तपस्याका स्वरूपबोधक लक्षण है || १६ |।

ब्रह्मचर्य और अहिंसाको शारीरिक तप कहते हैं। मन और वाणीका भलीभाँति किया हुआ संयम मानसिक तप कहलाता है ।। १७ ।।

वैदिक विधिको जानने और उनके अनुसार चलनेवाले द्विजातियोंसे ही अन्न ग्रहण करना उत्तम माना गया है। ऐसे अन्नका नियमपूर्वक भोजन करनेसे रजोगुणसे उत्पन्न होनेवाला पाप शान्त हो जाता है ।। १८ ।।

उससे साधककी इन्द्रियाँ भी विषयोंकी ओरसे विरक्त हो जाती हैं। इसलिये उतना ही अन्न ग्रहण करना चाहिये, जितना जीवन-रक्षाके लिये  वाञ्छनीय हो।।

इस प्रकार योगयुक्त मनके द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे जीवनके अन्त समयतक पूरी शक्ति लगाकर धीरे-धीरे प्राप्त ही कर लेना चाहिये। इस कार्यमें धैर्य नहीं छोड़ना चाहिये ।। २० ।।

योगपरायण योगीकी बुद्धि कार्योद्वारा व्याहत नहीं होती। वह वैराग्यवश अपने स्वभावमें स्थित रहता है, रजोगुणसे रहित होता है तथा देहथधारी होकर भी शब्दकी भाँति अबाध गतिसे सर्वत्र विचरण करता है || २१ ।।

देह-त्यागपर्यन्त प्रमाद न होनेपर योगी देहावसानके पश्चात्‌ मोक्ष प्राप्त कर लेता है और जो बन्धनके कारणभूत अज्ञानसे युक्त होते हैं, उन प्राणियोंके सदा जन्म और मरण होते रहते हैं | २२ ।।

जिनको ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो गया है, उनका प्रारब्ध अनुसरण नहीं करता है अर्थात्‌ वे प्रारब्धके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। परंतु जो इसके विपरीत स्थितिमें हैं अर्थात्‌ जिनका अज्ञान दूर नहीं हुआ है, वे प्रारब्धवश जन्म-मृत्युके चक्करमें पड़े रहते हैं || २३ ।।

कुछ योगीजन बुद्धिके द्वारा अपने चित्तको विषयोंकी ओरसे हटाकर आसनकी दृढ़तासे स्थिरता-पूर्वक देहको धारण करते हुए इन्द्रिय-गोलकोंसे सम्बन्ध त्यागकर सूक्ष्म बुद्धि होनेके कारण ब्रह्मकी उपासना करते हैं. ।। २४ ।।

कोई-कोई शास्त्रमें बताये हुए क्रमसे (उत्तरोत्तर उत्कृष्ट तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करते हुए पराकाष्ठातक पहुँचकर वहीं) बुद्धिके द्वारा ब्रह्मका अनुभव करते हैं। जिसने योगके द्वारा अपनी बुद्धिको शुद्ध कर लिया है, ऐसा कोई-कोई योगी ही देहस्थितिपर्यन्त आश्रयरहित--अपनी ही महिमामें प्रतिष्ठित ब्रह्ममें स्थित रहता है ।। २५ ।।

इसी तरह कोई तो योगधारणाके द्वारा सगुण ब्रह्मकी उपासना करते हैं और कोई उस परम देवका चिन्तन करते हैं, जो विद्युतके समान ज्योतिर्मय और अविनाशी कहा गया है ।। २६ ।।

कुछ लोग तपस्यासे अपने पापोंको दग्ध करके अन्तकालनमें ब्रह्मकी प्राप्ति करते हैं। इन सभी महात्माओंको उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है । २७ ।।

शास्त्रीय दृष्टिसे उन महात्माओंकी सूक्ष्म विशेषताको देखे। देहत्यागपर्यन्त नित्यमुक्त, अपरिग्रह, आकाशसे भी विलक्षण उस परब्रह्मका ज्ञान प्राप्त करे, जिसमें योगधारणाद्वारा मनको स्थापित किया जाता है ।। २८ ।।

जिनका मन ज्ञानके साधनमें लगा हुआ है, वे मर्त्यलोकके बन्धनसे छूट जाते हैं और रजोगुणसे रहित एवं ब्रह्मस्वरूप हो परम गतिको प्राप्त कर लेते हैं ।। २९ |।

वेदके ज्ञाता विद्वान्‌ पुरुषोंने इस प्रकार एकमात्र ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाले साधनरूप धर्मका वर्णन किया है। अपने-अपने ज्ञानके अनुसार उपासना करनेवाले सभी साधक परम गतिको प्राप्त होते हैं || ३० ।।

जिन्हें राग आदि दोषोंसे रहित अस्थायी ज्ञान प्राप्त होता है, वे भी उत्तम लोकोंको प्राप्त होते हैं। तदनन्तर साधन-बलसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं || ३१ ।।

जो सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे युक्त, अजन्मा, दिव्य एवं अव्यक्त नामवाले भगवान्‌ विष्णुकी भक्तिभावसे शरण लेते हैं, वे ज्ञानानन्दसे तृप्त, विशुद्ध और कामनारहित हो जाते हैं ।। ३२ ।।

वे अपने अन्तःकरणमें श्रीहरिको स्थित जानकर अव्यय-स्वरूप हो जाते हैं। उन्हें फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता। वे उस अविनाशी और अविकारी परमपदको पाकर परमानन्दमें निमग्न हो जाते हैं || ३३ ।।

इतना ही यह विज्ञान है-यह जगत्‌ है भी और नहीं भी है (अर्थात्‌ व्यावहारिक अवस्थामें यह जगत्‌ है और पारमार्थिक अवस्थामें नहीं है)। सम्पूर्ण जगत्‌ तृष्णामें बँधकर चक्रके समान घूम रहा है ।। ३४ ।।

जैसे कमलकी नालमें रहनेवाला तन्तु उसके सभी अंशोंमें फैला रहता है, उसी प्रकार अनादि एवं अनन्त वृष्णातन्तु सदा देहधारीके चित्तमें स्थित रहता है || ३५ ||

जैसे कपड़ा बुननेवाला बुनकर सूईसे वस्त्रमें सूतको पिरो देता है, उसी प्रकार तृष्णारूपी सूईसे संसाररूपी सूत्र ग्रथित होता है || ३६ ।।

जो प्रकृतिको, उसके कार्यको, पुरुष (जीवात्मा) को और सनातन परमात्माको यथार्थ रूपसे जानता है, वह तृष्णासे रहित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है || ३७ ।।

संसारको शरण देनेवाले ऋषिश्रेष्ठ भगवान्‌ नारायणने जीवोंपर दया करनेके लिये ही इस अमृतमय ज्ञानको प्रकाशित किया ।। ३८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन अध्यात्मका वर्णनविषयक दो सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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  1. इससे पूर्व पहले, दूसरे और तीसरे श्लोकोंमें “अव्यक्त*” शब्द परमात्माका वाचक है और यहाँ “अव्यक्त' शब्द प्रकृतिका वाचक समझना चाहिये।
  2. प्रकृति प्रवाहरूपसे अनादि और अनन्त है तथा पुरुष (जीवात्मा) स्वरूपसे। - “पुराणान्तरमें बताया गया है कि इन्द्रियोंका आत्मभावसे चिन्तन करनेवाले योगी दस मन्वन्तरोंतक ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। यथा- “दशमन्वन्तराणीह तिष्ठन्तीन्द्रियचिन्तका:।'

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ अट्ठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक 1-49 का हिन्दी अनुवाद)

“राजा जनकके दरबारमें पजड्चशिखका आगमन और उनके द्वारा नास्तिक मतोंके निराकरणपूर्वक शरीरसे भिन्न आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन”

युधिष्ठिरने पूछा--सदाचारके ज्ञाता पितामह! मोक्षधर्मको जाननेवाले मिथिलानरेश जनकने मानवभोगोंका परित्याग करके किस प्रकारके आचरणसे मोक्ष प्राप्त किया? ।। १ ||

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसके आचरणसे धर्मज्ञ राजा जनक महान्‌ सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुए थे।।२।।

प्राचीन कालकी बात है, मिथिलामें जनकवंशी राजा जनदेव राज्य करते थे। वे सदा देह-त्यागके पश्चात्‌ आत्माके अस्तित्वरूप धर्मोके ही चिन्तनमें लगे रहते थे || ३ ।।

उनके दरबारमें सौ आचार्य बराबर रहा करते थे, जो विभिन्न आश्रमोंके निवासी थे और उन्हें भिन्न-भिन्न धर्मोंका उपदेश देते रहते थे ।। ४ ।।

“इस शरीरको त्याग देनेके पश्चात्‌ जीवकी सत्ता रहती है या नहीं, अथवा देह-त्यागके बाद उसका पुनर्जन्म होता है या नहीं", इस विषयमें उन आचार्योंका जो सुनिश्चित सिद्धान्त था, वे लोग आत्मतत्त्वके विषयमें जैसा विचार उपस्थित करते थे, उससे शास्त्रानुयायी राजा जनदेवको विशेष संतोष नहीं होता था ।। ५ ।।

एक बार कपिलाके पुत्र महामुनि पंचशिख सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करते हुए मिथिलामें जा पहुँचे ।। ६ ।।

वे सम्पूर्ण संन्यास-धर्मोंके ज्ञाता और तत्त्वज्ञानके निर्णयमें एक सुनिश्चित सिद्धान्तके पोषक थे। उनके मनमें किसी प्रकारका संदेह नहीं था। वे निर्द्धदद्ध होकर विचरा करते थे।। ७ ।।

उन्हें ऋषियोंमें अद्वितीय बताया जाता है। वे कामनासे सर्वथा शून्य थे। वे मनुष्योंके हृदयमें अपने उपदेशद्वारा अत्यन्त दुर्लभ सनातन सुखकी प्रतिष्ठा करना चाहते थे ।। ८ ।।

सांख्यके विद्वान तो उन्हें साक्षात्‌ प्रजापति महर्षि कपिलका ही स्वरूप बताते हैं। उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक भगवान्‌ कपिल स्वयं पंचशिखके रूपमें आकर लोगोंको आश्रर्यमें डाल रहे हैं ।। ९ ।।

उन्हें आसुरि मुनिका प्रथम शिष्य और चिरंजीवी बताया जाता है। उन्होंने एक हजार वर्षोतक मानस यज्ञका अनुष्ठान किया था ।। १० ।।

एक समय आसूुरि मुनि अपने आश्रममें बैठे हुए थे। इसी समय कपिलमतावलम्बी मुनियोंका महान्‌ समुदाय वहाँ आया और प्रत्येक पुरुषके भीतर स्थित, अव्यक्त एवं परमार्थतत्त्वके विषयमें उनसे कुछ कहनेका अनुरोध करने लगा। उन्हींमें पंचशिख भी थे, जो पाँच स्रोतों (इन्द्रियों) वाले मनके व्यापार (ऊहापोह) में कुशल थे, पंचरात्र आगमके विशेषज्ञ थे, पाँच कोशोंके ज्ञाता और तद्विषयक पाँच प्रकारकी उपासनाओंके जानकार थे। शाम, दम, उपरति, तितिक्षा और समाधान--इन पाँच गुणोंसे भी युक्त थे। उन पाँचों कोशोंसे भिन्न होनेके कारण उनके शिखास्थानीय जो ब्रह्म है, वह पंचशिख कहा गया है। उसके ज्ञाता होनेसे ऋषिको भी 'पंचशिख' माना गया है ।। ११-१२ ।।

आसुरि तपोबलसे दिव्य दृष्टि प्राप्त कर चुके थे। ज्ञानयञ्ञके द्वारा सिद्धि प्राप्त करके उन्होंने क्षेत्र और क्षेत्रज्मक भेदको स्पष्टरूपसे समझ लिया था ।। १३ ।।

जो एकमात्र अक्षर और अविनाशी ब्रह्म नाना रूपोंमें दिखायी देता है, उसका ज्ञान आसुरिने उस मुनिमण्डलीमें प्रतिपादित किया ।। १४ ।।

उन्हींके शिष्य पंचशिख थे, जो मानवी स्त्रीके दूधसे पले थे। कपिला नामवाली कोई कुटुम्बिनी ब्राह्मणी थी। उसी स्त्रीके पुत्रभावको प्राप्त होकर वे उसके स्तनोंका दूध पीते थे; अतः कपिलाका पुत्र कहलानेके कारण कापिलेय नामसे उनकी प्रसिद्धि हुई। उन्होंने नैप्ठिक (ब्रह्ममें निष्ठा रखनेवाली) बुद्धि प्राप्त की थी ।। १५-१६ ।।

कापिलेयके जन्मका यह वृतान्त मुझे भगवानने बताया था। उनके कपिलापुत्र कहलाने और सर्वज्ञ होनेका यही परम उत्तम वृत्तान्त है ।। १७ ।।

धर्मज्ञ पंचशिखने उत्तम ज्ञान प्राप्त किया था। वे राजा जनकको सौ आचार्योंपर समानभावसे अनुरक्त जान उनके दरबारमें गये और वहाँ जाकर उन्होंने अपने युक्तियुक्त वचनोंद्वारा उन सब आचार्योंको मोहित कर दिया ।। १८ ।।

उस समय महाराज जनक कपिलानन्दन पंच-शिखका ज्ञान देखकर उनके प्रति आकृष्ट हो गये और अपने सौ आचार्योंको छोड़कर उन्हींके पीछे चलने लगे || १९ |।

तब मुनिवर पंचशिखने राजाको धर्मानुसार चरणोंमें पड़ा देख उन्हें योग्य अधिकारी मानकर परम मोक्षका उपदेश दिया, जिसका सांख्यशास्त्रमें वर्णन है || २० ।।

उन्होंने 'जातिनिर्वेद'* का वर्णन करके “कर्मनिर्वेद'* का उपदेश किया। तत्पश्चात्‌ 'सर्वनिर्वेद'* की बात बतायी ।। २१ ।।

उन्होंने कहा--“जिसके लिये धर्मका आचरण किया जाता है, जो कर्मोके फलका उदय होनेपर प्राप्त होता है, वह इहलोक या परलोकका भोग नश्चर है। उसपर आस्था करना उचित नहीं। वह मोहरूप, चंचल और अस्थिर है” || २२ ।।

कुछ नास्तिक ऐसा कहा करते हैं कि देहरूपी आत्माका विनाश प्रत्यक्ष देखा जा रहा है। सम्पूर्ण लोक इसका साक्षी है। फिर भी यदि कोई शास्त्रप्रमाणकी ओट लेकर देहसे भिन्न आत्माकी सत्ताका प्रतिपादन करता है तो वह परास्त है; क्योंकि उसका कथन लोकानुभवके विरुद्ध है ।। २३ ।।

आत्माके स्वरूपभूत शरीरका अभाव होना ही उसकी मृत्यु है। इस दृष्टिसे दुःख, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकारके रोग--ये सभी आत्माकी मृत्यु ही हैं (क्योंकि इनके द्वारा शरीरका आंशिक विनाश होता रहता है)। फिर भी जो लोग आत्माको देहसे भिन्न मानते हैं, उनकी यह मान्यता बहुत ही असंगत है ।। २४ ।।

यदि ऐसी वस्तुका भी अस्तित्व मान लिया जाय, जो लोकमें सम्भव नहीं है अर्थात्‌ यदि शास्त्रके आधारपर यह स्वीकार कर लिया जाय कि शरीरसे भिन्न कोई अजर-अमर आत्मा है, जो स्वर्गादि लोकोंमें दिव्य सुख भोगता है, तब तो बन्दीजन जो राजाको अजर-अमर कहते हैं, उनकी वह बात भी ठीक माननी पड़ेगी (सारांश यह है कि जैसे बन्दीजन आशीर्वादमें उपचारत: राजाको अजर-अमर कहते हैं, उसी प्रकार यह शास्त्रका वचन भी औपचारिक ही है। नीरोग शरीरको ही अजर-अमर और यहाँके प्रत्यक्ष सुख-भोगको ही स्वर्गीय सुख कहा गया है) || २५ ।।

यदि आत्मा है या नहीं--यह संशय उपस्थित होनेपर अनुमानसे उसके अस्तित्वका साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्ध होता, जो कहीं दोषयुक्त न होता हो; फिर किस अनुमानका आश्रय लेकर लोकव्यवहारका निश्चय किया जा सकता है ।। २६ ।।

अनुमान और आगम--इन दोनों प्रमाणोंका मूल प्रत्यक्ष प्रमाण है। आगम या अनुमान यदि प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है--उसकी प्रामाणिकता नहीं स्वीकार की जा सकती ।। 

जहाँ-कहीं भी ईश्वर, अदृष्ट अथवा नित्य आत्माकी सिद्धिके लिये अनुमान किया जाता है, वहाँ साध्य-साधनके लिये की हुई भावना भी व्यर्थ है, अतः नास्तिकोंके मतमें जीवात्माकी शरीरसे भिन्न कोई सत्ता नहीं है--यह बात स्थिर हुई || २८ ।।

जैसे वटवृक्षके बीजमें पत्र, पुष्प, फल, मूल तथा त्वचा आदि छिपे होते हैं, जैसे गायके द्वारा खायी हुई घासमेंसे घी, दूध आदि प्रकट होते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध द्रव्योंका पाक एवं अधिवासन करनेसे उसमें नशा पैदा करनेवाली शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार वीर्यसे ही शरीर आदिके साथ चेतनता भी प्रकट होती है। इसके सिवा जाति, स्मृति, अयस्कान्तमणि, सूर्यकानामणि और बड़वानलके द्वारा समुद्रके जलका पान आदि दृष्टन्तोंसे भी देहातिरिक्त चैतन्यकी सिद्धि नहीं होती- ।। २९ ।।

(इस नास्तिक मतका खण्डन इस प्रकार समझना चाहिये) मरे हुए शरीरमें जो चेतनताका अभाव देखा जाता है, वही देहातिरिक्त आत्माके अस्तित्वमें प्रमाण है (यदि चेतनता देहका ही धर्म हो तो मृतक शरीरमें भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिये; परंतु मृत्युके पश्चात्‌ कुछ कालतक शरीर तो रहता है, पर उसमें चेतनता नहीं रहती; अतः यह सिद्ध हो जाता है कि चेतन आत्मा शरीरसे भिन्न है)। नास्तिक भी रोग आदिकी निवृत्तिके लिये मन्त्र, जप तथा तान्त्रिक पद्धतिसे देवता आदिकी आराधना करते हैं। (वह देवता क्या है? यदि पाज्चभौतिक है तो घट आदिकी भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थोंसे भिन्न है तो चेतनकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो गयी; अतः देहसे भिन्न आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभवसे सिद्ध हो जाता है और देह ही आत्मा है, यह प्रत्यक्ष अनुभवके विरुद्ध जान पड़ता है)। यदि शरीरकी मृत्युके साथ आत्माकी भी मृत्यु मान ली जाय, तब तो उसके किये हुए कर्मोका भी नाश मानना पड़ेगा; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगनेवाला कोई नहीं रह जायगा और देहकी उत्पत्तिमें अकृताभ्यागम (बिना किये हुए कर्मका ही भोग प्राप्त हुआ ऐसा) माननेका प्रसंग उपस्थित होगा। ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्त चेतन आत्माकी सत्ता अवश्य है ।। ३० ।।

नास्तिकोंकी ओरसे जो कोई हेतुभूत दृष्टान्त दिये गये हैं, वे सब मूर्त पदार्थ हैं। मूर्त जड पदार्थसे मूर्त जड पदार्थकी ही उत्पत्ति होती है। यही उन दृष्टन्तोंद्वारा सिद्ध होता है। जैसे काष्ठसे अग्निकी उत्पत्ति (यदि पञ्चभूतोंसे आत्माकी अथवा मूर्तसे अमूर्तकी उत्पत्ति स्वीकार की जाय तब तो पृथ्वी आदि मूर्त पदार्थोंसे आकाशकी भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो असम्भव है)। आत्मा अमूर्त पदार्थ है और देह मूर्त; अतः अमूर्तकी मूर्तके साथ समानता अथवा मूर्त भूतोंके संयोगसे अमूर्त चेतन आत्माकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ।। ३१ 

कुछ लोग अविद्या, कर्म, तृष्णा, लोभ, मोह तथा दोषोंके सेवनको पुनर्जन्ममें कारण बताते हैं | ३२ ।।

अविद्याको वे क्षेत्र कहते हैं। पूर्व-जन्मोंका किया हुआ कर्म बीज है और तृष्णा अंकुरकी उत्पत्ति करानेवाला स्नेह या जल है। यही उनके मतमें पुनर्जन्मका प्रकार है ।। ३३ ।।

वे अविद्या आदि कारणसमूह सुषुप्ति और प्रलयमें भी संस्काररूपमें गूढ़भावसे स्थित रहते हैं। उनके रहते हुए जब एक मरणधर्मा शरीर नष्ट हो जाता है, तब उसीसे पूर्वाक्त अविद्या आदिके कारण दूसरा शरीर उत्पन्न हो जाता है। जब ज्ञानके द्वारा अविद्या आदि निमित्त दग्ध हो जाते हैं, तब शरीर-नाशके पश्चात्‌ सत्त्व (बुद्धि) का क्षयरूप मोक्ष होता है, ऐसा उनका कथन है ।। ३४ ।।

(उपर्युक्त नास्तिक मतमें आस्तिकलोग इस प्रकार दोष देते हैं--) क्षणिक विज्ञानवादीकी मान्यताके अनुसार शरीर और जीव जब क्षणिक हैं, तब पूर्व-क्षणवर्ती शरीरसे परक्षणवर्ती शरीर रूप, जाति, धर्म और प्रयोजन सभी दृष्टियोंसे भिन्न हैं। ऐसी अवस्थामें यह वही है, इस प्रकार प्रत्यभिज्ञा (स्मृति) नहीं हो सकती। अथवा भोग, मोक्ष आदि सब कुछ बिना इच्छा किये ही अकस्मात्‌ प्राप्त हो जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा (उस दशामें यह भी कहा जा सकता है कि मोक्षकी इच्छा करनेवाला दूसरा है, साधन करनेवाला दूसरा है और उससे मुक्त होनेवाला भी दूसरा ही है) |। ३५ ।।

यदि ऐसी ही बात है, तब दान, विद्या, तपस्या और बलसे किसीको क्‍या प्रसन्नता होगी? क्योंकि उसका किया हुआ सारा कर्म दूसरेको ही अपना फल प्रदान करेगा (अर्थात्‌ दान करते समय जो दाता है, वह क्षणिक विज्ञानवादके अनुसार फल-भोगकालमें नहीं रह जाता, अतः पुण्य या पाप एक करता है और उसका फल दूसरा भोगता है) ।। ३६ ।।

(यदि कहें, यह आपत्ति तो अभीष्ट ही है कि कर्म करते समय जो कर्ता है, वह फलभोग-कालनमें नहीं है। एक विज्ञानसे उत्पन्न हुआ दूसरा विज्ञान ही फल भोगता है, तब तो) इस जगतमें यह देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त आदि दूसरोंके किये हुए अशुभ कर्मोंसे दुखी एवं परकृत शुभ कर्मोंसे सुखी हो सकता है (क्योंकि जब कर्ता दूसरा और भोक्ता दूसरा है, तब तो किसीका भी कर्म किसीको भी सुख-दुःख दे सकता है)। उस दशामें दृश्य और अदृश्यका निर्णय भी यही होगा कि जो पूर्वक्षणमें दृश्य था, वह वर्तमान क्षणमें अदृश्य हो गया तथा जो पहले अदृश्य था, वही इस समय दृश्य हो रहा है || ३७ ।।

यदि कहें, देवदत्तके ज्ञानसे यज्ञदत्तका ज्ञान पृथक्‌ एवं विजातीय है, सजातीय विज्ञानधारामें ही कर्म और उसके फलका भोग प्राप्त होता है; अतः देवदत्तके किये हुए कर्मका भोग यज्ञदत्तको नहीं प्राप्त हो सकता, उस कारण पूर्वाक्त दोषकी आपत्ति सम्भव नहीं है, तब हम यह पूछते हैं कि आपके मतमें जो यह सादृश्य या सजातीय विज्ञान उत्पन्न होता है, उसका उपादान क्या है? यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञानको ही उपादान बताया जाय तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि वह विज्ञान नष्ट हो चुका और यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञानका नाश ही उत्तरक्षणवर्ती सजातीय विज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण है, तब तो यदि कुछ लोग किसीके शरीरको मूसलोंसे मार डालें तो उस मरे हुए शरीरसे भी दूसरे शरीरकी पुनः उत्पत्ति हो सकती है (अत: यह मत ठीक नहीं है) ।। ३८ ।।

ऋतु, संवत्सर, युग, सर्दी, गर्मी तथा प्रिय और अप्रिय--ये सब वस्तुएँ आकर चली जाती हैं और जाकर फिर आ जाती हैं, यह सब लोग प्रत्यक्ष देखते हैं। उसी प्रकार सत्त्वसंक्षयरूप मोक्ष भी फिर आकर निवृत्त हो सकता है (क्योंकि विज्ञानधाराका कहीं अन्त नहीं है) || ३९ ।।

जैसे मकानके दुर्बल-दुर्बल अंग पहले नष्ट होने लगते हैं और फिर क्रमश: सारा मकान ही गिर जाता है, उसी प्रकार वृद्धावस्था और विनाशकारी मृत्युसे आक्रान्त हुए शरीरके दुर्बल-दुर्बल अंग क्षीण होते-होते एक दिन सम्पूर्ण शरीरका नाश हो जाता है || ४० ।।

इन्द्रिय, मन, प्राण, रक्त, मांस और हड्डी--ये सब क्रमशः नष्ट होते और अपने कारणमें मिल जाते हैं || ४१ ।।

यदि आत्माकी सत्ता न मानी जाय तो लोकयात्राका निर्वाह नहीं होगा। दान और दूसरे धर्मोंके फलकी प्राप्तिके लिये कोई आस्था नहीं रहेगी; क्योंकि वैदिक शब्द और लौकिक व्यवहार सब आत्माको ही सुख देनेके लिये हैं |। ४२ ।।

इस प्रकार मनमें अनेक प्रकारके तर्क उठते हैं और उन तर्कों तथा युक्तियोंसे आत्माकी सत्ता या असत्ताका निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता || ४३ ।।

इस तरह विचार करते हुए भिन्न-भिन्न मतोंकी ओर दौड़नेवाले लोगोंकी बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्षकी भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है ।। ४४ ।।

इस प्रकार अर्थ और अनर्थसे सभी प्राणी दुखी रहते हैं। केवल शास्त्रके वचन ही उन्हें खींचकर राहपर लाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे महावत हाथीपर अंकुश रखकर उन्हें काबूमें किये रहते हैं ।। ४५ ।।

बहुत-से शुष्क हृदयवाले लोग ऐसे विषयोंकी लिप्सा रखते हैं, जो अत्यन्त सुखदायक हों; किंतु इस लिप्सामें उन्हें भारी-से-भारी दुःखोंका ही सामना करना पड़ता है और अन्तमें वे भोगोंको छोड़कर मृत्युके ग्रास बन जाते हैं ।। ४६ ।।

जो एक दिन नष्ट होनेवाला है, जिसके जीवनका कुछ ठिकाना नहीं, ऐसे अनित्य शरीरको पाकर इन बन्धु-बान्धवों तथा स्त्री-पुत्र आदिसे क्या लाभ है? यह सोचकर जो मनुष्य इन सबको क्षणभरमें वैराग्यपूर्वक त्यागकर चल देता है, उसे मृत्युके पश्चात्‌ फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता || ४७ |।

पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु--ये सदा शरीरकी रक्षा करते रहते हैं। इस बातको अच्छी तरह समझ लेनेपर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है? जो एक दिन मृत्युके मुखमें पड़नेवाला है, ऐसे शरीरसे सुख कहाँ है || ४८ ।।

पंचशिखका यह उपदेश जो भ्रम और वंचनासे रहित, सर्वथा निर्दोष तथा आत्माका साक्षात्कार करानेवाला था, सुनकर राजा जनकको बड़ा विस्मय हुआ; अतः उन्होंने पुनः प्रश्न करनेका विचार किया ।। ४९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें पंचशिखके उपदेशके प्रसंगमें पाखण्डखण्डन नामक दो सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  1. जन्मके समय गर्भवास आदिके कारण जो कष्ट होता है, उसपर विचार करके शरीरसे वैराग्य होना “जातिनिर्वेद' है।
  2. कर्मजनित क्लेश--नाना योनियोंकी प्राप्ति एवं नरकादि यातनाका विचार करके पाप तथा काम्य-कर्मोंसे विरत होना “कर्मनिर्वेद' है।
  3. इस जगत्‌की छोटी-से-छोटी वस्तुओंसे लेकर ब्रह्मलोकतकके भोगोंकी क्षणभंगुरता और दुःखरूपताका विचार करके सब ओरसे विरक्त होना 'सर्वनिर्वेद” कहलाता है।

  • जाति कहते हैं जन्मको। जैसे गुड़ या महुवे आदिसे अनेक द्रव्योंके संयोगद्वारा जो मद्य तैयार किया जाता है, उसमें उपादानकी अपेक्षा विलक्षण मादकशक्तिका जन्म हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु--इन चार द्रव्योंके संयोगसे इस शरीरमें ही जीव चैतन्य प्रकट हो जाता है। जैसे जड मनसे अजड स्मृति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार जड शरीरसे चेतन जीवकी उत्पत्ति हो जाती है।
  • जैसे अयस्कान्तमणि (चुम्बक) जड होकर भी लोहको खींच लेती है, उसी प्रकार जड शरीर भी इन्द्रियोंका संचालन और नियन्त्रण कर लेता है; अतः आत्मा उससे भिन्न नहीं है। जैसे सूर्यकान्तमणि शीतल होकर भी सूर्यकी किरणोंके संयोगसे आग प्रकट करने लगती है, उसी प्रकार वीर्य शीतल होकर भी रस और रक्तके संयोगसे जठरानलका आविष्कार करता है और जैसे जलसे उत्पन्न हुआ बडवानल जलको ही भक्षण करता है, उसी प्रकार वीर्यसे उत्पन्न हुआ यह शरीर स्वयं भी वीर्यका आधान एवं धारण करता है। अत: शरीरसे भिन्न आत्माकी सत्ता माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ उन्नीसवें अध्याय के श्लोक 1-67 का हिन्दी अनुवाद)

“पंचशिखतके द्वारा मोक्षतत्त्वका विवेचन एवं भगवान विष्णुद्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेवकी परीक्षा और उनके लिये वरप्रदान”

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! महर्षि पंचशिखके इस प्रकार उपदेश देनेपर जनदेव जनककने पुनः उनसे मृत्युके पश्चात्‌ आत्माकी सत्ता या विनाशके विषयमें प्रश्न किया ।। १ ।।

जनकने पूछा--भगवन्‌! यदि मृत्युके पश्चात्‌ किसीकी कोई विशेष संज्ञा नहीं रह जाती तो उस स्थितिमें अज्ञान अथवा ज्ञान क्‍या करेगा? ।। २ ।।

द्विजश्रेष्ठ) देखिये, मनुष्यकी मृत्युके साथ-साथ उसका सारा साधन नष्ट हो जाता है; फिर वह पहलेसे सावधान हो या असावधान, क्या विशेष लाभ उठा सकेगा? ।। ३ ।।

मृत्यु होनेके पश्चात्‌ जीवात्माका विनाशशील पञ्चमहाभूतोंसे कोई संसर्ग रहता है या नहीं? यदि रहता है तो किसलिये रहता है? इस विषयमें यथार्थरूपसे क्या निश्चय किया जा सकता है? ।। ४ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! राजा जनककी बुद्धिको अज्ञानान्धकारसे आच्छादित तथा आत्माके नाशकी सम्भावनासे भ्रान्त एवं व्याकुल जानकर ज्ञानी महात्मा पंचशिख उन्हें मधुर वचनोंद्वारा शान्त करते हुए-से बोले-- ।। ५ ।।

“राजन! मृत्युके पश्चात्‌ आत्माका न तो नाश होता है और न वह किसी विशेष आकारमें ही परिणत होता है। यह जो प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला संघात है, यह भी शरीर, इन्द्रिय और मनका समूहमात्र है। यद्यपि ये सब पृथक्‌-पृथक्‌ हैं तो भी एक-दूसरेका आश्रय लेकर कर्मामें प्रवृत्त होते हैं | ६ ।।

प्राणियोंके शरीरमें उपादानके रूपमें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी--ये पाँच धातु हैं। ये स्वभावसे ही एकत्र होते और विलग हो जाते हैं ।। ७ ।।

आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी--इन पाँच तत्त्वोंके समाहारसे ही अनेक प्रकारके शरीरोंका निर्माण हुआ है ।। ८ ।।

शरीरमें ज्ञान (बुद्धि), ऊष्मा (जठरानल) तथा वायु (प्राण)--इनका समुदाय समस्त कर्मोका संग्राहक-गण है; क्योंकि इन्हींसे इन्द्रिय, इन्द्रियोंके विषय, स्वभाव, चेतना, मन, प्राण, अपान, विकार और धातु प्रकट हुए हैं ।। ९ ।।

श्रवण, त्वचा, जिह्ठा, नेत्र और नासिका--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। शब्द आदि गुण चित्तसे संयुक्त होकर इन इन्द्रियोंके विषय होते हैं || १० ।।

विज्ञानयुक्त चेतना (विषयोंकी उपादेयता, हेयता और उपेक्षणीयताके कारण) निश्चय ही तीन प्रकारकी होती है। उसे अदु:खा, असुखा और सुख-दुःखा कहते हैं || ११ ।।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध तथा मूर्त द्रव्य--ये छः गुण जीवकी मृत्युके पहलेतक इन्द्रियजन्य ज्ञानके साधक होते हैं (इनके साथ इन्द्रियोंका संयोग होनेपर ही भिन्न-भिन्न विषयोंका ज्ञान होता है) ।। १२ ।।

श्रोत्र आदि इन्द्रियोंमें उनके विषयोंका विसर्जन (त्याग) करनेसे सम्पूर्ण तत्त्वोंके यथार्थ निश्चयरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। उस तत्त्वनिश्चयको अत्यन्त निर्मल उत्तम ज्ञान और अविनाशी महान्‌ ब्रह्मपद कहते हैं || १३ ।।

जो लोग गुणोंके संघातरूप इस शरीरको ही आत्मा समझ लेते हैं, उन्हें मिथ्या ज्ञानके कारण अनन्त दु:खोंकी प्राप्ति होती है और उनकी परम्परा कभी शान्त नहीं होती ।। १४ 

इसके विपरीत जिनकी दृष्टिमें यह दृश्य प्रपंच अनात्मा सिद्ध हो चुका है, उनकी इसके प्रति न ममता होती है न अहंता, फिर उन्हें दुःखपरम्परा कैसे प्राप्त हो; उन दुःखोंके लिये आधार ही क्या रह जाता है? ॥।| १५ ||

अब मैं उस परम उत्तम सांख्यशास्त्रका वर्णन करता हूँ, जिसका नाम है सम्यग्वध (सम्यग्रूपेण दुःखोंका नाश करनेवाला)। उसमें त्यागकी प्रधानता है। तुम ध्यान देकर सुनो। उसका उपदेश तुम्हारे लिये मोक्षदायक होगा ।। १६ ।।

जो लोग मुक्तिके लिये प्रयत्नशील हों, उन सबको चाहिये कि सम्पूर्ण कर्मोमें अहंता, ममता, आसक्ति और कामनाका त्याग करे। जो इनका त्याग किये बिना ही विनीत (शाम, दम आदि साधनोंमें तत्पर) होनेका झूठा दावा करते हैं, उन्हें अविद्या आदि दुःखदायी क्लेश प्राप्त होते हैं | १७ ।।

शास्त्रोंमें द्रव्यका त्याग करनेके लिये यज्ञ आदि कर्म, भोगका त्याग करनेके लिये व्रत, दैहिक सुखोंके त्यागके लिये तप और सब कुछ (अहंता, ममता, आसक्ति, कामना आदि) त्याग देनेके लिये योगके अनुष्ठानकी आज्ञा दी गयी है। यही त्यागकी चरम सीमा है ।। १८ ।।

सर्वस्व-त्यागका यह एकमात्र मार्ग ही दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये उत्तम बताया गया है, इसके विपरीत आचरण करनेवालोंको दुर्गति भोगनी पड़ती है ।। १९ ।।

बुद्धिमें स्थित मनसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियोंका वर्णन करके अब पाँच कर्मेन्द्रियोंका वर्णन करूँगा। जिनके साथ प्राणशक्ति छठी बतायी गयी है || २० ।।

दोनों हाथोंको काम करनेवाली इन्द्रिय जानना चाहिये, दोनों पैर चलने-फिरनेका काम करनेवाली इन्द्रिय हैं। लिंग संतानोत्पादन एवं मैथुनजनित आनन्दकी प्राप्ति करनेके लिये है। गुदनामक इन्द्रियका कार्य मल-त्याग करना है || २१ ।।

वाक्‌-इन्द्रिय शब्दविशेषका उच्चारण करनेके लिये है। इस प्रकार पाँच कर्मेन्द्रियोंको पाँच विषयोंसे युक्त माना गया है। मनसहित एकादश इन्द्रियोंके विषयोंका बुद्धिके द्वारा शीघ्र त्याग कर देना चाहिये || २२ ।।

श्रवण-कालमें श्रोत्ररूपी इन्द्रिय, शब्दरूपी विषय और चित्तरूपी कर्ता--इन तीनोंका संयोग होता है, इसी प्रकार स्पर्श, रूप, रस तथा गन्धके अनुभव-कालमें भी इन्द्रिय, विषय एवं मनका संयोग अपेक्षित है ।। २३ ।।

इस प्रकार ये तीन-तीनके पाँच समुदाय हैं, ये सब गुण कहे गये हैं। इनसे शब्दादि विषयोंका ग्रहण होता है, जिससे ये कर्ता, कर्म और करणरूपी त्रिविध भाव बारी-बारीसे उपस्थित होते हैं || २४ ।।

इनमेंसे एक-एकके सातच्चिक, राजस और तामस तीन-तीन भेद होते हैं। उनसे प्राप्त होनेवाले अनुभव भी तीन प्रकारके ही हैं। जो हर्ष, प्रीति आदि सभी भावोंके साधक हैं ।। २५ ।।

हर्ष, प्रीति, आनन्द, सुख और चित्तकी शान्ति-ये सब भाव बिना किसी कारणके स्वतः हों या कारणवश (भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सत्संग आदिके कारण) हों, सात्विक गुण माने गये हैं ।। २६ ।।

असंतोष, संताप, शोक, लोभ और असहनशीलता--ये किसी कारणसे हों या अकारण -रजोगुणके चिह्न हैं |।

अविवेक, मोह, प्रमाद, स्वप्न और आलस्य--ये किसी तरह भी क्‍यों न हों, तमोगुणके ही विविध रूप हैं ।।

इनमें जो शरीर या मनमें प्रीतिके संयोगसे उदित हो, वह सातक््चिक भाव है और उसको सत्त्वगुणकी वृद्धि जाननी चाहिये || २९ ।।

जो अपने लिये असंतोषजनक एवं अप्रीतिकर हो, उसको रजोगुणकी प्रवृत्ति एवं अभिवृद्धि समझनी चाहिये ।। ३० ।।

शरीर या मनमें जो अतर्क्य, अज्ञेय एवं मोह-संयुक्त भाव प्रादुर्भूत हो, उसको तमोगुणजनित जानना चाहिये ।। ३१ ।।

शब्दका आधार श्रोत्रेन्द्रिय है और श्रोत्रेन्द्रियका आधार आकाश है; अतः वह आकाशरूप ही है। ऐसी स्थितिमें शब्दका अनुभव करते समय आकाश और श्रोत्र--ये दोनों ही ज्ञान अथवा अज्ञानके विषय नहीं होते हैं- || ३२ ।।

इसी प्रकार त्वचा, नेत्र, जिह्ला और नासिका भी क्रमशः स्पर्श, रूप, रस और गन्धके आश्रय तथा अपने आधारभूत महाभूतोंके स्वरूप हैं। इन सबका कारण मन है, इसलिये ये सब-के-सब मनःस्वरूप हैं ।

इन दसों इन्द्रियोंमें अपने-अपने विषयोंको एक साथ भी ग्रहण करनेकी शक्ति होती है। ग्यारहवाँ मन और बारहवीं बुद्धि--इनको इन्द्रियोंका सहायक समझना चाहिये ।। ३४ ।।

तमोगुणजनित सुषुप्तिकालमें अपने कारणमें विलीन हो जानेसे इन्द्रियाँ विषयोंका ग्रहण नहीं कर सकतीं, किंतु उनका नाश नहीं होता है। उनमें जो अपने विषयोंको एक साथ ग्रहण करनेकी शक्ति है, वह लौकिक व्यवहारमें ही दिखायी देती है (सुषुप्तिकालमें नहीं) ।। ३५ ।।

पहले जाग्रत-अवस्थाके देखने-सुनने आदिके द्वारा पूर्ववासनावश शब्द आदि विषयोंकी प्राप्ति होनेसे स्वप्नदर्शी पुरुष सूक्ष्म ग्यारह इन्द्रियोंको देखकर विषयसंगकी भावना करता हुआ सत्त्व आदि तीनों गुणोंसे युक्त हो शरीरके भीतर ही इच्छानुसार घूमता रहता है ।। ३६ ।।

सुषुप्तिकालमें जब चित्त तमोगुणसे अभिभूत होकर अपने प्रवृत्ति और प्रकाशस्वभावका शीघ्र ही संहार करके थोड़ी देरके लिये इन्द्रियोंके व्यापारको बंद कर देता है, उस समय शरीरमें जो सुखकी प्रतीति होती है, उसे विद्वान्‌ पुरुष तामस सुख कहते हैं || ३७ 

सुषुप्तिकालमें स्वप्नदर्शी पुरुष उपस्थित दुःखको प्रत्यक्षकी भाँति अनुभव नहीं करता है। इसलिये वह सुषुप्तिकालमें भी तमोगुणयुक्त मिथ्या सुखका अनुभव करता है ।। ३८ ।।

इस प्रकार अपने कर्मके अनुसार गुणकी प्राप्तिके विषयमें कहा गया है। अज्ञानियोंके ये गुण सम्यक्रूपेण प्रवृत्त होते हैं और ज्ञानियोंके निवृत्त हो जाते हैं ।। ३९ ।।

अध्यात्मतत्त्वका चिन्तन करनेवाले विद्वान्‌ इस शरीर और इन्द्रियोंके संघातको क्षेत्र कहते हैं और मनमें जो चेतन सत्ता स्थित है, वही क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) कहलाता है ।। ४० ।।

ऐसी अवस्थामें आत्माका विनाश कैसे हो सकता है? अथवा हेतुपूर्वक प्रकृतिके अनुसार प्रवृत्त पज्चमहाभूतोंसे उसका शाश्वत संसर्ग भी कैसे रह सकता है? ।। ४१ ।।

जैसे नद और नदियाँ समुद्रमें मिलकर अपने नाम और व्यक्तित्व (रूप) को त्याग देती हैं तथा जैसे बड़े-बड़े नद छोटी-छोटी नदियोंको अपनेमें विलीन कर लेते हैं, उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मामें विलीन हो जाता है। यही मोक्ष है ।। ४२ ।।

जीवके ब्रह्ममें विलीन हो जानेपर उसके नाम-रूपका किसी प्रकार भी ग्रहण नहीं हो सकता। ऐसी दशामें मृत्युके पश्चात्‌ जीवकी संज्ञा कैसे रहेगी? ।। ४३ ।।

जो इस मोक्षविद्याको जानता है और सावधानीके साथ आत्मतत्त्वका अनुसंधान करता है, वह जलसे कमलके पत्तेकी भाँति कर्मके अनिष्ट फलोंसे कभी लिप्त नहीं होता ।। ४४ ।।

किंतु संतानोंके प्रति आसक्तिके कारण और भिन्न-भिन्न देवताओंकी प्रसन्नताके लिये अज्ञानियोंद्वारा जो सकाम कर्म किये जाते हैं, ये सब मनुष्यके लिये नाना प्रकारके सुदृढ़ बन्धन हैं। जब वह इन बन्धनोंसे छूटकर सुख-दुःखकी चिन्ता छोड़ देता है, उस समय सूक्ष्म शरीरके अभिमानका त्याग करके सर्वश्रेष्ठ गति प्राप्त कर लेता है ।। ४५ ।।

श्रुति-प्रतिपादित प्रमाणोंका विचार और शास्त्रमें बताये हुए मंगलमय साधनोंका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य जरा और मृत्युके भयसे रहित होकर सुखसे सोता है। जब पुण्य और पापका क्षय तथा उनसे मिलनेवाले सुख-दुःख आदि फलोंका नाश हो जाता है, उस समय सम्पूर्ण पदार्थो्में सर्वयधा आसक्तिसे रहित पुरुष आकाशके समान निर्लेप और निर्गुण परमात्मामें स्थित हुए उसका साक्षात्कार कर लेते हैं ।। ४६ ।।

जैसे मकड़ी जाला तानकर उसपर चक्कर लगाती रहती है; किंतु उन जालोंका नाश हो जानेपर एक स्थानपर स्थित हो जाती है, उसी प्रकार अविद्याके वशीभूत हो नीचे गिरनेवाला जीव कर्मजालमें पड़कर भटकता रहता है और उससे छूटनेपर दुःखसे रहित हो जाता है। जैसे पर्वतपर फेंका हुआ मिट्टीका ढेला उससे टकराकर चूर-चूर हो जाता है, उसी प्रकार उसके सम्पूर्ण दुःखोंका विध्वंस हो जाता है ।। ४७ ।।

जैसे रुकुनामक मृग अपने पुराने सींगको और साँप अपनी केंचुलको त्यागकर उसकी ओर देखे बिना ही चल देता है, उसी प्रकार ममता और अभिमानसे रहित हुआ पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो अपने सम्पूर्ण दुःखोंको दूर कर देता है || ४८ ।।

जिस प्रकार पक्षी वृक्षको जलमें गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्षका परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरुष सुख और दुःख--दोनोंका त्याग करके सूक्ष्म शरीरसे रहित हो उत्तम गतिको प्राप्त होता है ।। ४९ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! स्वयं आचार्य पंचशिखके बताये हुए इस अमृतमय ज्ञानोपदेशको सुनकर राजा जनक एक निश्चित सिद्धान्तपर पहुँच गये और सारी बातोंपर विचार करके शोकरहित हो बड़े सुखसे रहने लगे; फिर तो उनकी स्थिति ही कुछ और हो गयी। एक बार उन मिथिलानरेश राजा जनकने मिथिला-नगरीको आगसे जलती देखकर स्वयं यह उदगार प्रकट किया था कि इस नगरके जलनेसे मेरा कुछ भी नहीं जलता है || ५०-५१ ||

राजन! यहाँ जो मोक्षतत्त्वका निर्णय किया गया है, उसका जो पुरुष सदा स्वाध्याय और चिन्तन करता रहता है, उसे उपद्रवोंका कष्ट नहीं भोगना पड़ता। दुःख तो उसके पास कभी फटकने नहीं पाते हैं तथा जिस प्रकार राजा जनक कपिलमतावलम्बी पंचशिखके समागमसे इस ज्ञानको पाकर मुक्त हो गये थे, उसी प्रकार वह भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है | ५२ ।।

नृपश्रेष्ठ) महामते! पूर्वकालमें जिस उद्देश्यसे अग्निद्वारा मिथिलानगरी जलायी गयी, उसे बताता हूँ, सुनो ।।

जनकवंशी राजा जनदेव परमात्मामें कर्मोको स्थापित करके सर्वात्मताको प्राप्त होकर उसी भावसे सर्वत्र विचरण करते थे ।।

महाप्राज्ञ जनक अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता होनेके कारण निष्कामभावसे यज्ञ, दान, होम और पृथ्वीका पालन करते हुए भी उस अध्यात्मज्ञानमें ही तन्मय रहते थे ।।

एक समय सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति साक्षात्‌ भगवान्‌ नारायणने राजा जनकके मनोभावकी परीक्षा लेनेका विचार किया; अतः वे ब्राह्मणरूपसे वहाँ आये। उन परम बुद्धिमान्‌ श्रीहरिने मिथिलानगरीमें कुछ प्रतिकूल आचरण किया। तब वहाँके श्रेष्ठ द्विजोंने उन्हें पकड़कर राजाको सौंप दिया। ब्राह्मणके अपराधको लक्ष्य करके राजाने उनसे इस प्रकार कहा ।।

जनकने कहा--ब्राह्मण! मैं तुम्हें किसी प्रकार दण्ड नहीं दूँगा, तुम मेरे राज्यसे, जहाँतक मेरी राज्यभूमिकी सीमा है, उससे बाहर निकल जाओ ।।

मिथिलानरेशके ऐसा कहनेपर जन श्रेष्ठ ब्राह्मणने मन्त्रियोंसे घिरे हुए उन महात्मा राजा जनकसे इस प्रकार कहा-- ।।

“महाराज! आप सदा पद्मनाभ भगवान्‌ नारायणके चरणोंमें अनुराग रखनेवाले और उन्हींके शरणागत हैं। अहो! आप कृतार्थरूप हैं, आपका कल्याण हो! अब मैं चला जाऊँगा' ।।

ऐसा कहकर वे ब्राह्मण वहाँसे चल दिये। जाते-जाते राजाकी परीक्षा लेनेके लिये उन श्रेष्ठ ब्राह्यणरूपधारी भगवान्‌ श्रीहरिने स्वयं ही मिथिलानगरीमें आग लगा दी ।।

मिथिलाको जलती हुई देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुए। लोगोंके पूछनेपर उन्होंने उनसे यह बात कही-- ।।

“मेरे पास आत्मज्ञानरूप अनन्त धन है; अत: अब मेरे लिये कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है, इस मिथिला-नगरीके जल जानेपर भी मेरा कुछ नहीं जलता है ।।

राजा जनकके इस प्रकार कहनेपर उन द्विजश्रेष्ठने भी उनकी बात सुनी और उनके मनोभावको समझा; फिर उन्होंने मिथिलानगरीको पूर्ववत्‌ सजीव एवं दाह-रहित कर दिया ।।

साथ ही उन्होंने राजाको अपने साक्षात्‌ स्वरूपका दर्शन कराया और उन्हें वर देते हुए पुनः: कहा--“नरेश्वर! तुम्हारा मन सदभावपूर्वक धर्ममें लगा रहे और बुद्धि तत्त्वज्ञानमें परिनिष्ठित हो। सदा विषयोंसे विरक्त रहकर तुम सत्यके मार्गपर डटे रहो। तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं जाता हूँ ।।

उनसे ऐसा कहकर भगवान्‌ श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये। राजन! यह प्रसंग तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें पंचशिखका उपदेशनामक दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय प्रा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके १५ श्लोक मिलाकर कुल ६७ श्लोक हैं)

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  1. ये दोनों ज्ञान अथवा अज्ञानके विषय नहीं होते, इस कथनका अभिप्राय यों समझना चाहिये--जो श्रवणकालमें शब्दका अनुभव करता है, वह उसके साथ ही श्रोत्र और आकाशका अनुभव नहीं करता है। साथ ही उसे इन दोनोंका अज्ञान भी नहीं रहता; क्योंकि शब्दका श्रवणेन्द्रिय और आकाश दोनोंसे सम्बन्ध है। इन दोनोंके बिना शब्दका अनुभव हो ही नहीं सकता।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बीसवें अध्याय के श्लोक 1-128½ का हिन्दी अनुवाद)

“श्वेतकेतु और सुवर्चलाका विवाह, दोनों पति-पत्नीका अध्यात्मविषयक संवाद तथा गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करते हुए ही उनका परमात्माको प्राप्त होना एवं दमकी महिमाका वर्णन”

युधिष्ठिरने कहा--महाप्राज्ञ! प्रभो! यदि कोई ऐसा पुरुष हो, जो गृहस्थ आश्रममें पत्नीसहित संयम-नियमके साथ रहता हो, समस्त सांसारिक बन्धनोंको पार कर चुका हो और सम्पूर्ण द्वद्धोंसे दूर रहकर उन्हें धैर्यपूर्वक सहन करता हो तो उसका मुझे परिचय दीजिये, क्योंकि ऐसा महापुरुष दुर्लभ होता है ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! तुमने मुझसे जो विषय पूछा है, उसे यथावत्‌्रूपसे सुनो। यह विशुद्ध इतिहास जन्म-मरणरूप रोगका भय दूर करनेके लिये उत्तम औषध है ।।

ब्रह्मर्षि देवलका नाम सर्वत्र प्रसिद्ध है। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण, क्रियानिष्ठ, धार्मिक तथा देवताओं और ब्राह्मणोंकी सदा पूजा करनेवाले थे ।।

उनके एक पुत्री थी, जो सुवर्चलाके नामसे पुकारी जाती थी। वह यशस्विनी कन्या सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। वह न तो अधिक नाटी थी और न अधिक लंबी, वह विशेष दुबली भी नहीं थी ।।

धीरे-धीरे उसकी विवाहके योग्य अवस्था हो गयी। उसके पिता सोचने लगे, मेरी इस पुत्रीका पति श्रेष्ठ श्रोत्रिय ब्राह्मण होना चाहिये, जो विद्वान्‌ होनेके साथ ही प्रिय वचन बोलनेवाला, महातपस्वी और अविवाहित हो; परंतु ऐसा पुरुष कहाँसे सुलभ हो सकता है? ।।

एकान्तमें बैठकर ऐसी ही चिन्तामें पड़े हुए पिताके पास जाकर सुवर्चलाने इस प्रकार कहा--'पिताजी! आप परम बुद्धिमान, विद्वान्‌ और मुनि हैं। आप मुझे ऐसे पतिके हाथमें सौंपियेगा, जो अन्धा भी हो और आँखवाला भी हो। मेरी इस प्रार्थनाको सदा याद रखियेगा” ॥।

पिता बोले--बेटी! तुम्हारी यह प्रार्थना पूर्ण हो सके, ऐसा तो मुझे नहीं प्रतीत होता है; क्योंकि एक ही व्यक्ति अन्धा भी हो और अन्धा न भी हो, यह कैसे सम्भव है? तुम्हारी यह बात सुनकर मेरे मनमें खेद होता है। शुभलोचने! तुम पगली-सी होकर अशुभ बात मुँहसे निकाल रही हो ।।

सुवर्चला बोली--पिताजी! मैं पगली नहीं हूँ। खूब सोच-समझकर आपसे ऐसी बात कह रही हूँ। यदि ऐसा कोई वेदवेत्ता पति प्राप्त हो जाय तो वह मेरा भरण-पोषण कर सकता है ।।

आप जिन ब्राह्मणोंके हाथमें मुझे देना चाहते हैं, उन सबको यहाँ बुलवा लीजिये। मैं उन्हींमेंसे अपनी पसंदके अनुसार योग्य पतिका वरण कर लूँगी ।।

तब अपनी पुत्रीसे “तथास्तु' कहकर ऋषिने शिष्योंसे कहा--'शिष्यगण! जो वेदविद्यासे सम्पन्न, निष्कलंक माता-पितासे उत्पन्न, निर्दोष कुलके बालक, शुद्ध आचारविचारवाले, शुभ लक्षणोंसे युक्त, नीरोग, बुद्धिमान, शील और सत्त्वसे सम्पन्न, गोत्रोंमें वर्णसंकरताके दोषसे रहित, वेदोक्त व्रतके पालनमें तत्पर, स्नातक, जीवित माता-पितावाले तथा मेरी कन्यासे विवाहकी इच्छा रखनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण हों, उन सबको देखकर तुमलोग यहाँ शीघ्र बुला ले आओ |। ”

मुनिकी यह बात सुनकर उनके शिष्योंने तुरंत इधर-उधर आश्रमों तथा गाँवोंमें जाकर ब्राह्मणोंको इसकी सूचना दी ।।

राजन! ऋषि और उस कन्याके प्रभावको जानकर अनेक श्रेष्ठ ब्राह्मण महर्षि देवलके आश्रमपर आये ।।

कन्याके महान्‌ पिता देवलने वहाँ आये हुए ऋषियों तथा ऋषिकुमारोंका यथायोग्य सम्मान तथा विधिपूर्वक पूजन करके अपनी पुत्रीसे कहा--

बेटी! ये मुनि जो यहाँ पधारे हैं, वेद-वेदांगोंसे सम्पन्न, कुलीन और शीलवान हैं। ये मेरे लिये अपने पुत्रके समान प्रिय हैं। भद्रे! इन लोगोंमेंसे तुम जिस महान्‌ व्रतधारी ऋषिकुमारको पति बनाना चाहो, उसे आज चुन लो, शुभे! मैं उसीके साथ तुम्हारा विवाह कर दूँगा! ।।

तब “तथास्तु' कहकर तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिवाली, समस्त शुभलक्षणोंसे सम्पन्न, यशस्विनी, कल्याणमयी सुवर्चला ब्राह्मणोंक उस समुदायको देखकर सम्पूर्ण तपोधनोंको प्रणाम करके इस प्रकार बोली-- ।।

सुवर्चलाने कहा--इस ब्राह्मण-सभामें वही मेरा पति हो सकता है, जो अन्धा हो और अन्धा न भी हो ।।

उस कन्याकी यह बात सुनकर सब मुनि एक-दूसरेका मुँह देखने लगे। वे महाभाग ब्राह्मण उस कन्याको अबोध जानकर कुछ बोले नहीं ।।

नाना देशोंमें निवास करनेवाले वे श्रेष्ठ मुनि कुपित हो मन-ही-मन देवल ऋषिकी निन्दा करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये और वह मानिनी कन्या वहाँ पिताके ही घरमें रह गयी।

तदनन्तर किसी समय दिद्वान्‌, ब्राह्मणभक्त, न्यायविशारद, ऊहापोह करनेमें कुशल, ब्रह्मचर्यसे सम्पन्न, वेदवेत्ता, वेदतत्त्वज्ञ, कर्मकाण्डविशारद, आत्मतत्त्वको विवेकपूर्वक जाननेवाले, जीवित पितावाले तथा सदगुणोंके सागर श्वेतकेतु ऋषि सारा वृत्तान्त सुनकर उस कन्याको प्राप्त करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक आदरसहित देवल ऋषिके आश्रमपर आये |।

उद्दालकके पुत्र महान्‌ व्रतधारी श्वेतकेतुको आया देख देवलने उनकी यथायोग्य पूजा करके अपनी पुत्रीसे कहा-- ।।

“महान्‌ सौभाग्यशालिनी कन्ये! ये ऋषिकुमार श्वेतकेतु पधारे हैं। ये बड़े भारी पण्डित और वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान्‌ हैं। तुम इनका वरण कर लो” ।।

पिताकी यह बात सुनकर कनन्‍्याने कुपित हो ऋषिकुमार श्वेतकेतुकी ओर देखा। तब ब्रह्मर्षि श्वेतकेतुने उस कन्यासे कहा--“भद्रे! मैं वही हूँ (जिसे तुम चाहती हो), तुम्हारे लिये ही यहाँ आया हूँ ।।

“मैं अन्ध हूँ, यह यथार्थ है। मैं अपने मनमें सदा ऐसा ही मानता भी हूँ। साथ ही मैं संदेहरहित होनेके कारण विशाल नेत्रोंसे युक्त भी हूँ। ऐसा ही तुम मुझे समझो। श्रेष्ठ अंगोंवाली अनिन्द्य सुन्दरी! तुम मुझे अंगीकार करो। मैं तुम्हारी अभीष्ट-सिद्धि करूँगा ।।

“जिस परमात्माकी शक्तिसे जीवात्मा सदा यह सब कुछ देखता है, ग्रहण करता है, स्पर्श करता है, सूँघता है, बोलता है, निरन्तर विभिन्न वस्तुओंका स्वाद लेता है, तत्त्वका मनन करता और बुद्धिद्वारा निश्चय करता है, वह परमात्मा ही चक्षु- कहलाता है। जो इस चक्षुसे रहित है, वही प्राणियोंमें अन्धा कहलाता है (और परमात्मारूपी चक्षुसे युक्त होनेके कारण मैं अनन्ध--नेत्रवाला भी हूँ) ।।

“जिस परमात्माके भीतर ही यह सम्पूर्ण जगत्‌ व्यवहारमें प्रवृत्त होता है। यह जगत्‌ जिस आँखसे देखता, कानसे सुनता, त्वचासे स्पर्श करता, नासिकासे सूँघता, रसनासे रस लेता एवं जिस लौकिक चक्षुसे यह सारा बर्ताव करता है, उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये मैं अन्ध हूँ; अतः भद्रे! तुम मेरा वरण करो ।।

“मैं लोकसंग्रहकी दृष्टिसे ही यहाँ नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म करता हूँ तथा नित्य आत्मदृष्टि रखनेके कारण उन सब कर्मोसे लिप्त नहीं होता हूँ ।।

“कार्य-कारणरूप परमात्माका चिन्तन करता हुआ मैं सदा शान्तभावसे उन्हींपर निर्भर रहता हूँ। कर्मोके अनुष्ठानसे मृत्युको पार करके ज्ञानके द्वारा अमृतमय परमात्माका साक्षात्कार कर चुका हूँ और प्रारब्धवश जो कुछ प्रिय-अप्रिय पदार्थ प्राप्त होता है, उसको समानभावसे देखता हुआ मैं ईर्ष्या-द्रेषसे रहित होकर यहाँ निवास करता हूँ ।।

भद्रे! मैं तुम्हारा उचित शुल्क चुकानेका निश्चय कर चुका हूँ और तुम्हारा भरण-पोषण करनेमें समर्थ हूँ; अतः तुम मेरा वरण करो।” यह सुनकर सुवर्चलाने द्विजश्रेष्ठ श्वेतकेतुकी ओर देखकर कहा ।।

सुवर्चला बोली--विद्वन्‌! मैंने अपने हृदयसे आपका वरण कर लिया। शास्त्रमें कथित शेष कार्योंकी पूर्ति करनेवाले मेरे पिताजी हैं। आप उनसे मुझे माँग लीजिये। यही वेदविहित मर्यादा है ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! यह सब वृत्तान्त जानकर सुवर्चलाके पिता मुनिश्रेष्ठ देवलने उददालकसहित श्वेतकेतुकी पूजा करके मुनियोंके सामने जलसे संकल्प करके अपनी कन्या श्वेतकेतुको दे दी ।।

वहाँ श्वेतकेतुको देखकर ऋषिगण इस प्रकार कहने लगे--मानो यहाँ श्वेतकेतुके रूपमें सबके हृदय-कमलमें निवास करनेवाले, सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान्‌ मधुसूदन ही विराजमान हैं ।।

देवल बोले--वररूपमें विराजमान ये भगवान्‌ लक्ष्मीपति प्रसन्न हों। यह मेरी पुत्री इन्हें पत्नीरूपसे समर्पित है। प्रभो! मैं आपको कल्याणमयी सहधर्मिणीके रूपमें अपनी यह कन्या दे रहा हूँ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर मुनिवर देवलने उन्हें कन्यादान कर दिया। महायशस्वी श्वेतकेतुने उस कनन्‍्याको लेकर उसके साथ यथोचितरूपसे विधि-पूर्वक विवाह किया। फिर मुनियोंद्वारा कराये हुए परम उत्तम वैवाहिक विधानको पूर्ण करके गृहस्थआश्रममें रहते हुए बुद्धिमान्‌ श्वेतकेतुने अपनी उस धर्मपत्नीसे इस प्रकार कहा ।।

श्वेतकेतुने कहा--शोभने! वेदोंमें जिन शुभ कर्मोका विधान है, मेरे साथ रहकर उन सबका यथोचितरूपसे अनुष्ठान करो और यथार्थरूपसे मेरी सहधर्मचारिणी बनो ।।

मैं इसी भावसे स्थित हूँ। तुम भी इसी भावसे स्थित रहना, अतः मेरी आज्ञाके अनुसार सारे कर्म करो, फिर मैं भी तुम्हारा प्रिय कार्य करूँगा ।।

तदनन्तर “ये सब कर्म मेरे नहीं हैं और मैं इनका कर्ता नहीं हूँ” इस भावसे ज्ञानाग्निद्वारा उन सब कर्मोको भस्म कर डालो, तुम परम सौभाग्यवती हो। तुम्हें सदा इसी तरह ममता और अहंकारसे रहित होकर कर्म करना चाहिये और मुझे भी ऐसा ही करना चाहिये। श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है वैसे ही दूसरे लोग भी करते हैं, अतः लोकव्यवहारकी सिद्धि तथा आत्मकल्याणके लिये हम दोनोंको कर्मोंका अनुष्ठान करते रहना चाहिये ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! ऐसा उपदेश देकर सम्पूर्ण ज्ञानके एकमात्र निधि महाज्ञानी श्वेतकेतुने सुवर्चलाके गर्भसे अनेक पुत्र उत्पन्न किये। यज्ञोंद्वारा देवताओंको संतुष्ट किया; फिर आत्मयोगमें नित्य तत्पर रहकर वे निर्द्धन्द्र एवं परिग्रहशून्य हो गये ।।

अपने अनुरूप पत्नीको पाकर श्वेतकेतु उसी प्रकार सुशोभित होते थे, जैसे बुद्धिको पाकर क्षेत्रज्ञ। वे दोनों पति-पत्नी लोकान्तरमें भी पहुँच जाते थे और इस जगतमें साक्षीकी भाँति स्थित होकर प्रसन्नतापूर्वक विचरते थे ।।

तदनन्तर एक दिन सुवर्चलाने अपने पति श्वेतकेतुसे पूछा--'द्विजश्रेष्ठी] आप कौन हैं, यह मुझे बताइये!” उस समय प्रवचन-कुशल भगवान्‌ श्वेतकेतुने उससे कहा--'देवि! तुमने मेरे विषयमें जान ही लिया है, इसमें संदेह नहीं है। तुमने द्विजश्रेष्ठ कहकर मुझे सम्बोधित भी किया है; फिर उस द्विजश्रेष्ठके सिवा और किसको पूछ रही हो?” ।।

तब सुवर्चलाने अपने महात्मा पतिसे कहा--“नाथ! मैं हृदय-गुफामें शयन करनेवाले आत्माको पूछती हूँ ।।

यह सुनकर श्वेतकेतुने उससे कहा--“भामिनि! वह तो कुछ कहेगा नहीं। यदि तुम आत्माको नाम और गोत्रसे युक्त मानती हो तो यह तुम्हारी मिथ्या धारणा है; क्योंकि नामगोत्र होनेपर देहका बन्धन प्राप्त होता है ।।

'आत्मामें अहम्‌ (मैं हूँ) यह भाव स्थापित किया गया है। तुममें भी वही भाव है। तुम भी अहम, मैं भी अहम्‌ और यह सब अहमका ही रूप है। इसमें वह परमार्थतत्त्व नहीं है; फिर किसलिये पूछती हो?” ।।

नरेश्वर! तब धर्मचारिणी पत्नी सुवर्चला बहुत प्रसन्न हुई, उसने हँसकर मुस्कराते हुए यह समयोचित्त वचन कहा ।।

सुवर्चला बोली--ब्रह्मर्ष! अनेक प्रकारके विरोधसे क्‍या प्रयोजन? सदा इस नाना प्रकारके क्रिया-कलापमें पड़कर आपका ज्ञान लुप्त होता जा रहा है। अतः महाप्राज्ञ! आप मुझे इसका कारण बताइये, क्योंकि मैं आपका अनुसरण करनेवाली हूँ ।।

श्वेतकेतुने कहा--प्रिये! श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वही दूसरे लोग भी करते हैं; अतः हमारे कर्म त्याग देनेसे यह सारा जनसमुदाय संकरताके दोषसे दूषित हो जायगा ।।

इस प्रकार धर्ममें संकीर्णता आनेपर प्रजामें वर्ण-संकरता फैल जाती है और संकरता फैल जानेपर सर्वत्र मात्स्यन्यायकी प्रवृत्ति हो जाती है (जैसे प्रबल मत्स्य दुर्बल मत्स्यको निगल जाते हैं, उसी प्रकार बलवान्‌ मनुष्य दुर्बलोंको सताने लगते हैं) ।।

भद्रे! सम्पूर्ण जगत्‌का भरण-पोषण करनेवाले परमात्मा श्रीहरिको यह अभीष्ट नहीं है। शुभे! जगत्‌की यह सारी सृष्टि परमेश्वरकी क्रीड़ा है ।।

धूलिके जितने कण हैं, उतनी ही परमेश्वर श्रीहरिकी विभूतियाँ हैं, उतनी ही उनकी मायाएँ हैं और उतनी ही उन मायाओंकी शक्तियाँ भी हैं ।।

स्वयं भगवान्‌ नारायणका कथन है कि “जो मुक्तिलाभके लिये उद्योगशील पुरुष अत्यन्त गहन गुफामें रहकर ज्ञानरूप खड़्गके द्वारा जन्म-मृत्युके बन्धनको काटकर मेरे धामको चला जाता है, वही विद्वान्‌ है और वही मुझे प्रिय है। वह योगी पुरुष मैं ही हूँ। इसमें संदेह नहीं है” यह भगवानकी प्रतिज्ञा है ।।

'जो मूढ़, दुरात्मा, धर्मसंकरता उत्पन्न करनेवाले, मर्यादाभेदक और नीच मनुष्य हैं, वे नरकमें गिरते हैं और आसुरी योनिमें पड़ते हैं, यह भी उन्हीं भगवान्‌का अनुशासन है” ।।

देवि! तुम्हें भी जगत्‌की रक्षाके लिये लोकमर्यादाका पालन करना चाहिये। इसमें संशय नहीं है। मैं भी इसी भावसे लोक-मर्यादाकी रक्षामें स्थित हूँ ।।

सुवर्चलाने पूछा--महामुने! यहाँ शब्द किसे कहा गया है और अर्थ भी क्या है? आप उन दोनोंकी आकृति और लक्षणका निर्देश करते हुए उनका पृथक्‌-पृथक्‌ वर्णन कीजिये ।।

श्वेतकेतुने कहा--अकार आदि वर्णोके समुदायको क्रम या व्यतिक्रमसे उच्चारण करनेपर जो वस्तु प्रकाशित होती है, उसे “शब्द” जानना चाहिये और उस शब्दसे जिस अभिप्रायकी प्रतीति हो, उसका नाम “अर्थ” है ।।

सुवर्चला बोली--यदि शब्दके होनेपर ही अर्थकी प्रतीति होती है तो इन शब्द और अर्थमें कोई सम्बन्ध है या नहीं? यह आप मुझे यथार्थरूपसे बतावें ।।

श्वेतकेतुने कहा--शब्द और अर्थमें एक प्रकारसे कोई नियत सम्बन्ध नहीं है। कमलके पत्तेपर स्थित जलकी भाँति शब्द एवं अर्थका अनियत सम्बन्ध है, ऐसा जानो ।।

सुवर्चला बोली--महाप्राज्ञ! अर्थपर ही शब्दकी स्थिति है, अन्यथा उसकी स्थिति नहीं हो सकती। साधु-शिरोमणे! यदि बिना अर्थका कोई शब्द हो तो उसे बताइये ।।

श्वेतकेतुने कहा--अर्थके साथ शब्दका वाचकत्वरूप सम्बन्ध है और वह सम्बन्ध नित्य है। यदि शब्द है तो उसका अर्थ भी सदा है ही। विपरीत क्रमसे उच्चारण करनेपर भी शब्दका कुछ-न-कुछ अर्थ होता ही है (जैसे नदी, दीन इत्यादि) ।।

सुवर्चला बोली--शब्द अर्थात्‌ वेदका आधार है अर्थभूत परमात्मा। ऐसा ही दिद्वानोंने कहा है और यही मेरा भी मत है। उस अर्थका आधार लिये बिना तो शब्द टिक ही नहीं सकता। परंतु आप तो इनमें कोई नियत सम्बन्ध ही नहीं मानते हैं, अतः आपका कथन प्रसिद्धिके विपरीत है ।।

श्वेतकेतुने कहा--मैंने प्रसिद्धिके विपरीत कुछ नहीं कहा है। देखो, आकाशके बिना पृथ्वी अथवा पार्थिव जगत्‌ टिक नहीं सकता तथापि इनमें कोई नित्य सम्बन्ध नहीं है। शब्द और अर्थका सम्बन्ध भी वैसा ही मानना चाहिये ।।

सुवर्चला बोली--यह “अहम्‌' शब्द सदा ही आत्माके अर्थमें स्पष्टरूपसे प्रयुक्त होता है; परंतु “यतो वाचो निवर्तन्ते” इस श्रुतिके अनुसार वहाँ वाणीकी पहुँच नहीं है; अतः आत्माके लिये “अहम्‌' पदका प्रयोग भी मिथ्या ही होगा ।।

श्वेतकेतुने कहा--शुभव्रते! अहम्‌ शब्दका आत्म-भावमें प्रयोग नहीं होता; किंतु अहम्‌ भावका ही आत्म-भावमें प्रयोग होता है; क्योंकि सगुण पदार्थके बोधक वचन अचिन्त्य परब्रह्म परमात्माका बोध करानेमें असमर्थ हैं ।।

जैसे मिट्टीके घड़ेमें मृत्तिका-भाव होता है, उसी प्रकार परमात्मासे उत्पन्न हुए प्रत्येक पदार्थमें परमात्मभाव अभीष्ट है; अतएव अचिन्त्य परब्रह्म परमात्मामें अहम्‌ भाव ही आत्मभाव है और वही यथार्थ है ।।

मैं', “तुम/ और “यह“--ये सब नाम परब्रह्म परमात्मामें हमलोगोंद्वारा कल्पित हैं (वास्तविक नहीं है), अतः “उस परमात्मातक वाणीकी पहुँच नहीं हो पाती" श्रुतिके इस कथनसे कोई विरोध नहीं है ।।

अतएव भीरु! मनुष्य भ्रान्तचित्तद्वारा ही अहम्‌ आदि पदोंका प्रयोग करता है। जैसे आकाशकमें स्थित सम्पूर्ण विश्व उसमें सटा हुआ-सा दीखता है, उसी प्रकार परमात्मामें स्थित हुआ सारा दृश्य-प्रपंच उससे जुड़ा हुआ-सा जान पड़ता है ।।

ब्रह्मके साथ जगतका जो सम्बन्ध है, उसी सम्बन्धसे यह उसीका कार्य जान पड़ता है। जैसे सारा जगत्‌ आकाशसे पृथक्‌ है तो भी उसके विकारोंसे सम्बन्ध होनेके कारण सदा उससे मिश्रित ही रहता है, उसी प्रकार जगत्से ब्रह्मका कोई सम्पर्क नहीं है तो भी यह उसीसे उत्पन्न होनेके कारण तद्रूप माना जाता है ।।

वह ब्रह्म परम शुद्ध और उपमारहित है; अतः वाणी-द्वारा उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इन चर्मचक्षुओंसे उसको नहीं देखा जा सकता है तथा ज्ञानदृष्टिसे उसका साक्षात्कार होता है, ऐसा मेरा मत है ।।

सुवर्चला बोली--तब तो यह मानना होगा कि जिस प्रकार निर्विकार, निराकार, निःसीम और सर्वव्यापी आकाशका सर्वदा ही दर्शन होता है, उसीके समान ज्ञानस्वरूप आत्माका भी दर्शन होता है ।।

श्वेतकेतुने कहा--मनुष्य त्वचाद्वारा आकाशमें स्थित वायुका बारंबार स्पर्श करता है, नासिकाद्वारा आकाशवर्ती गन्धको बारंबार सूँघता है और नेत्रद्वारा आकाशस्थित ज्योतिका दर्शन करता है ।।

इसके सिवा अन्धकार, किरणसमूह, मेघोंकी घटा, वर्षा तथा तारागणका भी बारंबार दर्शन होता है; परंतु आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता ।।

सत्स्वरूप परमात्मा उस आकाशका भी आकाश है, अर्थात्‌ उसे भी अवकाश देनेवाला महाकाश है; यह निश्चित है, उन्हींके लिये और उन्हींके द्वारा इस सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि हुई है। वे ही सत्य तथा सर्वव्यापी हैं ।।

भगवानके जो गुण-सम्बन्धी नाम हैं, वे परमात्मामें औपचारिक हैं। नेत्र, मन तथा अन्य किसी इन्द्रियके द्वारा भी उस सर्वव्यापी परमात्माका ग्रहण नहीं हो सकता। वाणीद्वारा भी उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। केवल सूक्ष्म बुद्धिद्वारा उनका चिन्तन एवं साक्षात्कार किया जा सकता है ।।

यह सारा प्रपंच (समष्टि एवं व्यष्टि-जगत) उन्हीं परमात्मामें प्रतेष्ठित है। ठीक उसी तरह, जैसे बड़ा और छोटा घड़ा पृथ्वीपर स्थित होते हैं ।।

वह परमात्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है, केवल ज्ञानस्वरूप है। उसीके आधारपर यह सम्पूर्ण जगत्‌ प्रतिष्ठित है ।।

जैसे एक ही जलमें मृत्तिकाविशेष एवं बीज आदि द्रव्यविशेषके संयोगसे रसभेद उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार प्रकृति और आत्माके संयोगसे गुण-कर्मके अनुसार अनेक प्रकारकी सृष्टि प्रकट होती है ।।

जैसे प्यासा मनुष्य पानी पीकर तृप्ति लाभ करता है, उसी प्रकार साधक ब्रह्मबवोधक वाक्यको स्मरण करके सदा तृप्ति एवं सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है और उस ज्ञानसे उसका सुख उत्तरोत्तर अभ्युदयको प्राप्त होता है ।।

सुवर्चला बोली--निष्पाप मुने! इस शब्दसे क्या सिद्ध होनेवाला है? मेरी तो ऐसी धारणा है कि शब्दसे कुछ भी होने-जानेवाला नहीं है। परंतु पौराणिक विद्वान्‌ ऐसा मानते हैं कि परमात्मा अचिन्त्य एवं वेदगम्य हैं। जैसे लोकमें बहुत-से शब्द निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार वैदिक शब्द भी हो सकते हैं। मेरी बुद्धिमें तो यही बात आती है; अत: आप इस विषयमें यथोचित विचार करके मुझे यथार्थ बात बतानेकी कृपा करें ।।

श्वेतकेतुने कहा--'शुद्धस्वरूप परब्रह्म परमात्मा वेदगम्य हैं" श्रुतिका यह कथन परम सत्य है। इस विषयमें नास्तिकोंका कहना है कि परब्रह्मकी प्रत्यक्ष उपलब्धि न होनेसे उक्त श्रुतिका कथन व्याघात दोषसे दूषित होनेके कारण सत्य नहीं है। इसका उत्तर आस्तिक यों देते हैं कि सूक्ष्म शरीरविशिष्ट स्थूल देहमें जीवात्मारूपसे परब्रह्मकी ही उपलब्धि होती है; अतः: श्रुतिका पूर्वाक्त कथन यथार्थ ही है ।।

उत्तम अंगोंवाली देवि! कोई लौकिक शब्द भी निरर्थक नहीं है; फिर वैदिक शब्द तो व्यर्थ हो ही कैसे सकता है। जिन शब्दोंका परस्पर अन्वय नहीं होता--जो एक दूसरेसे असम्बद्ध होते हैं, उन्हींको लौकिक पुरुष निरर्थक बताते हैं ।।

किंतु शुभे! लौकिक शब्दोंकी ही भाँति वैदिक शब्द भी यद्यपि सार्थक समझे जाते हैं, तथापि वे साक्षात्‌ परमात्माका बोध करानेमें असमर्थ हैं; क्योंकि परमात्माको वाणीका अगोचर बताया गया है और उनकी अगोचरता युक्तिसंगत भी है ।।

वेदोंमें ब्रह्म णी उपासना अथवा उसकी प्राप्तिके साधनका उपदेश है। उपासनाके उपाय भी सूचित किये गये हैं। (जैसे ग्रहणकालमें चन्द्रमा और सूर्यके साथ राहुका दर्शन होता है उसी प्रकार) उपलक्षण-योगसे प्रत्येक शरीरमें जीवात्मारूपसे ब्रह्मकी ही स्थितिका प्रदर्शन किया गया है। इसके सिवा नेति-नेति आदि निषेधात्मक वचनोंद्वारा अनात्मवस्तुके बाधपूर्वक ब्रह्मके स्वरूपकी ओर संकेत किया गया है। इसलिये शुद्धस्वरूप परमात्मा एकमात्र वेदगम्य हैं, यही मेरी सुनिश्चित धारणा है ।।

शुभ आचरणोंवाली देवि! तुम्हें यह विदित हो कि अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनसे नित्य-ज्ञान दीपककी भाँति स्पष्टरूपसे प्रकाशित होने लगता है। उस ज्ञानसे मनुष्य परमगतिको प्राप्त होते हैं ।।

शुभे! शुद्धस्वरूपे! ज्ञानदृष्टिसे सम्पन्न देवि! मैंने यह जो गूढ़ एवं यथार्थ ब्रह्मज्ञानका विषय बताया है, इसे तुमने सुना है या नहीं? ।।

शुभे! परब्रह्म परमात्माका ऐश्वर्य नाना रूपोंमें दिखायी देता है। वायुकी वहाँतक पहुँच नहीं है। सूर्य और अग्नि उस परमपदस्वरूप परमेश्वरको प्रकाशित नहीं कर सकते। परमात्मासे ही यह सम्पूर्ण जगत्‌ परिपूर्ण है और वे ही प्रत्येक प्राणीके हृदयमें आत्मारूपसे निवास करते हैं ।।

इतना ही परमात्मविज्ञान है। इतना ही अहम्‌ पदार्थ माना गया है। हम दोनोंकी सत्ता नित्य नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञानके कारण होती है ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! अपने पति श्वेतकेतुके इस प्रकार यथार्थ उपदेश देनेपर सुवर्चला आनन्दमग्न हो गयी। वह निरन्तर तत्त्वज्ञाननिष्ठ रहकर तदनुरूप आचरण करने लगी |।

श्वेतकेतु पत्नीको साथ रखकर नित्य-नैमित्तिक कर्मोमें संलग्न रहते थे। वे सबके हृदयमें निवास करनेवाले महामना परमात्मा गोविन्दको अपने समस्त कर्म समर्पित करके उन्हींके ध्यानमें तनन्‍्मय रहा करते थे। राजन्‌! इस प्रकार दीर्घकालतक परमात्मचिन्तन करके उन्होंने परमगति प्राप्त कर ली ।।

नरेश्वर! तुमने जो प्रश्न किया था, उसके उत्तरमें मैंने यह प्रसंग सुनाया है। इस प्रकार वे दोनों पति-पत्नी गृहस्थधर्मका आश्रय लेकर परमात्माको प्राप्त हो गये ।।

युधिष्ठिरने पूछा--भारत! मनुष्य क्या उपाय करनेसे सुख पाता है; क्या करनेसे दुःख उठाता है और कौन-सा काम करनेसे वह सिद्धकी भाँति संसारमें निर्भय होकर विचरता है ।। १ |।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! मनोयोगपूर्वक वेदार्थका विचार करनेवाले वृद्ध पुरुष सामान्यतः सभी वर्णोके लिये और विशेषतः: ब्राह्मणके लिये मन और इन्द्रियोंके संयमरूप “दम' की ही प्रशंसा करते हैं || २ ।।

जिसने दमका पालन नहीं किया है, उसे अपने कर्मोमें यथोचित सफलता नहीं मिलती; क्योंकि क्रिया, तप और सत्य--ये सभी दमके आधारपर ही प्रतिष्ठित होते हैं |। ३ ।।

“दम” तेजकी वृद्धि करता है। “दम” परम पवित्र बताया गया है, मन और इन्द्रियोंका संयम करनेवाला पुरुष पाप और भयसे रहित होकर “महत्‌” पदको प्राप्त कर लेता है ।। ४ ।।

दमका पालन करनेवाला मनुष्य सुखसे सोता, सुखसे जागता और सुखसे ही संसारमें विचरता है तथा उसका मन भी प्रसन्न रहता है || ५ ।।

दमसे ही तेजको धारण किया जाता है, जिसमें दमका अभाव है, वह तीव्र कामवाला रजोगुणी पुरुष उस तेजको नहीं धारण कर सकता और सदा काम, क्रोध आदि बहुत-से शत्रुओंकी अपनेसे पृथक्‌ अनुभव करता है ।। ६ ।।

जिन्होंने मन और इन्द्रियोंका दमन नहीं किया है, उनसे समस्त प्राणियोंको उसी प्रकार सदा भय बना रहता है, जैसे मांसभक्षी व्याप्र आदि जन्तुओंसे भय हुआ करता है। ऐसे उद्दण्ड मनुष्योंकी उच्छुंखल प्रवृत्तिको रोकनेके लिये ही ब्रह्माजीने राजाकी सृष्टि की है ।। ७ ।।

चारों आश्रमोंमें दमको ही श्रेष्ठ बताया गया है। उन सब आश्रमोंमें धर्मका पालन करनेसे जो फल मिलता है, दमनशील पुरुषको वह फल और अधिक मात्रामें उपलब्ध होता है ।। ८ ।।

अब मैं उन लक्षणोंका वर्णन करूँगा, जिनकी उत्पत्तिमें दम ही कारण है। कृपणताका अभाव, उत्तेजनाका न होना, संतोष, श्रद्धा, क्रोधका न आना, नित्य सरलता, अधिक बकवाद न करना, अभिमानका त्याग, गुरुसेवा, किसीके गुणोंमें दोषदृष्टि न करना, समस्त जीवोंपर दया करना, किसीकी चुगली न करना, लोकापवाद, असत्यभाषण तथा निन्दास्तुति आदिको त्याग देना, सत्पुरुषोंके संगकी इच्छा तथा भविष्यमें आनेवाले सुखकी स्पृहा और दु:खकी चिन्ता न करना-- || ९--११ |।

जितेन्द्रिय पुरुष किसीके साथ वैर नहीं करता। उसका सबके साथ अच्छा बर्ताव होता है। वह निन्‍्दा और स्तुतिमें समान भाव रखनेवाला, सदाचारी, शीलवान्‌, प्रसन्नचित्त, धैर्यवान्‌ तथा दोषोंका दमन करनेमें समर्थ होता है। वह इहलोकमें सम्मान पाता और मृत्युके पश्चात्‌ स्वर्गलोकमें जाता है || १२६ ।।

दमनशील पुरुष समस्त प्राणियोंको दुर्लभ वस्तुएँ देकर--दूसरोंको सुख पहुँचाकर स्वयं सुखी और प्रमुदित होता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगा रहता और किसीसे द्वेष नहीं करता है, वह बहुत बड़े जलाशयकी भाँति गम्भीर होता है। उसके मनमें कभी क्षोभ नहीं होता तथा वह सदा ज्ञानानन्दसे तृप्त एवं प्रसन्न रहता है ।। १३-१४ ।।

जो समस्त प्राणियोंसे निर्भय है तथा जिससे सम्पूर्ण प्राणी निर्भय हो गये हैं, वह दमनशील एवं बुद्धिमान्‌ पुरुष सब जीवोंके लिये वन्दनीय होता है || १५ ।।

जो बहुत बड़ी सम्पत्ति पाकर हर्षसे फूल नहीं उठता और संकटमें पड़नेपर शोक नहीं करता, वह द्विज सूक्ष्म बुद्धिसे युक्त एवं जितेन्द्रिय कहलाता है ।। १६ ।।

जो वेदशास्त्रोंका ज्ञाता और सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए शुभ कर्मोसे पवित्र है तथा जिसने सदा ही दमका पालन किया है, वह अपने शुभकर्मका महान्‌ फल भोगता है ।। १७ ।।

किसीके दोष न देखना, हृदयमें क्षमाभाव रखना, शान्ति, संतोष, मीठे वचन बोलना, सत्य, दान तथा क्रियामें परिश्रमका बोध न होना--से सदगुण हैं। दुरात्मा पुरुष इस मार्गसे नहीं चलते हैं ।। १८ ।।

उनमें तो काम, क्रोध, लोभ, दूसरोंके प्रति डाह और अपनी झूठी प्रशंसा आदि दुर्गुण ही भरे रहते हैं; इसलिये उत्तम एवं कठोर व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्णको चाहिये कि वह जितेन्द्रिय होकर काम और क्रोधको वशमें करे तथा ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक उत्साहके साथ घोर तपस्यामें संलग्न हो जाय एवं मृत्युकालकी प्रतीक्षा करता हुआ विघ्न-बाधाओंसे रहित हो धैर्यपूर्वक सम्पूर्ण जगत्‌में विचरे || १९-२० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें दमकी प्रशंसाविषयक दो सौ बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठका १०८½ “लोक मिलाकर कुल १२८½ श्लोक हैं)

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  • “चष्टे इति चक्षु::--जो देखता है, वह चक्षु है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार सर्वद्रष्टा परमात्मा ही चक्षु: पदका वाच्यार्थ है।


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