सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ ग्यारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ ग्यारहवें अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
“संसारचक्र और जीवात्माकी स्थितिका वर्णन”
गुरुजी कहते हैं--वत्स! जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्धिज्ज--ये चार प्रकारके जो स्थावर और जड़म प्राणी हैं, वे सब अव्यक्तसे उत्पन्न हुए बताये गये हैं और अव्यक्तमें ही उन सबका लय होता है। जिसका कोई लक्षण व्यक्त न हो उसे अव्यक्त समझना चाहिये। मन अव्यक्त प्रकृतिके समान ही त्रिगुणात्मक है ।। १ ।।
जैसे पीपलके छोटे-से बीजमें एक विशाल वृक्ष अव्यक्तरूपसे समाया हुआ है, जो बीजके उगनेपर वृक्षरूपमें परिणत हो प्रत्यक्ष दिखायी देता है, उसी प्रकार अव्यक्तसे व्यक्त जगतकी उत्पत्ति होती है |। २ ।॥।
जिस प्रकार लोहा अचेतन होनेपर भी चुम्बककी ओर खिंच जाता है, वैसे ही शरीरके उत्पन्न होनेपर प्राणीके स्वाभाविक संस्कार तथा अविद्या, काम, कर्म आदि दूसरे गुण उसकी ओर खिंच आते हैं ।। ३ ।।
इसी प्रकार उस अव्यक्तसे उत्पन्न हुए उपर्युक्त कारणस्वरूप भाव अचेतन होनेपर भी चेतनकताके सम्बन्धसे चेतन-से होकर जानना आदि क्रियाके हेतु बन जाते हैं ।। ४ ।।
पहले पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग, भूतगण, ऋषिगण तथा देवता और असुरगण इनमेंसे कोई नहीं था। चेतनके सिवा दूसरी किसी वस्तुकी सत्ता ही नहीं थी। जड-चेतनका संयोग भी नहीं था ।। ५ ।।
आत्मा सबके पहले विद्यमान था। वह नित्य, सर्वगत, मनका भी हेतु और लक्षणरहित है। यह कारणस्वरूप समस्त जगत् अज्ञानका कार्य बताया गया है ।। ६ ।।
इन कारणोंसे युक्त होकर जीव कर्मोंका संग्रह करता है। कर्मोंसे वासना और वासनाओंसे पुनः कर्म होते हैं। इस प्रकार यह अनादि, अनन्त महान् संसार-चक्र चलता रहता है || ७ ।।
यह जन्म-मरणका प्रवाहरूप संसार चक्रके समान घूम रहा है। अव्यक्त उसकी नाभि है। व्यक्त (देह और इन्द्रिय आदि) उसके अरे हैं। सुख-दुःख, इच्छा आदि विकार इसकी नेमि हैं। आसक्ति धुरा है। यह चक्र निश्चितरूपसे घूमता रहता है। क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) इस चक्रपर चालक बनकर बैठा हुआ है ।। ८ ।।
जैसे तेली लोग तेलसे युक्त होनेके कारण तिलोंको कोल्हूमें पेरते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत् आससत्तिग्रस्त होनेके कारण अज्ञानजनित भोगोंद्वारा दबा-दबाकर इस संसारचक्रमें पेरा जा रहा है ।। ९ ।।
जीव अहंकारके अधीन होकर तृष्णाके कारण कर्म करता है और वह कर्म आगामी कार्य-कारण-संयोगमें हेतु बन जाता है || १० ।।
न तो कारण कार्यमें प्रवेश करता है और न कार्य कारणमें। कार्य करते समय काल ही उनकी सिद्धि और असिद्धिमें हेतु होता है ।। ११ ।।
हेतुसहित आठों प्रकृतियाँ और सोलह विकार--ये पुरुषसे अधिष्ठित हो सदा एकदूसरेसे मिलते और सृष्टिका विस्तार करते हैं ।। १२ ।।
राजस और तामसभावोंसे युक्त हेतुबलसे प्रेरित सूक्ष्मशरीर क्षेत्रज्ञ जीवात्माके साथसाथ ठीक उसी तरह दूसरे स्थूल शरीरमें चला जाता है, जैसे वायुद्वारा उड़ायी हुई धूल उसीके साथ-साथ एक स्थानसे दूसरे स्थानको जाती है ।। १३ ।।
जैसे धूलके उड़नेसे वायु न तो धूलसे लिप्त होती है और न अलिप्त ही रहती है। उसी प्रकार न तो उन राजस, तामस आदि भावोंसे जीवात्मा लिप्त होता है और न अलिप्त ही रहता है ।। १४ ।।
अत: विवेकी पुरुषको क्षेत्र और क्षेत्रज्षका यह अन्तर जान लेना चाहिये। इन दोनोंके तादात्म्यका-सा अभ्यास हो जानेसे जीव ऐसा हो गया है कि उसे अपने शुद्ध स्वरूपका पता ही नहीं लगता ।। १५ ।।
(भीष्मजी कहते हैं--) इस प्रकार उन महर्षि भगवान् गुरुदेवने शिष्यके उत्पन्न हुए इस संदेहको काट डाला। अतः विद्वान पुरुष ऐसे उपायोंपर दृष्टि रखे, जो क्रियाद्वारा उद्देश्यकी सिद्धिमें सहायक हों ।। १६ ।।
जैसे आगमें भूने हुए बीज नहीं उगते, उसी प्रकार ज्ञानरूपी अग्निसे अविद्यादि सब क्लेशोंके दग्ध हो जानेपर जीवात्माको फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता ॥। १७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका कथनविषयक दो सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ बारहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ बारहवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)
“निषिद्ध आचरणके त्याग, सत्त्व, रज और तमके कार्य एवं परिणामका तथा सत्त्वगुणके सेवनका उपदेश”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! कर्मनिष्ठ पुरुषोंको जिस प्रकार प्रवृत्तिधर्मकी उपलब्धि होती है--वही उन्हें अच्छा लगता है, उसी प्रकार जो ज्ञानमें निष्ठा रखनेवाले हैं, उन्हें ज्ञानके सिवा दूसरी कोई वस्तु अच्छी नहीं लगती ।। १ ।।
वेदोंके विद्वान् और वेदोक्त कर्मोमें निष्ठा रखनेवाले पुरुष प्राय: दुर्लभ हैं। जो अत्यन्त बुद्धिमान् हैं, वे पुरुष वेदोक्त दोनों मार्गोमेंसे जो अधिक महत्त्वपूर्ण होनेके कारण सबके द्वारा प्रशंसित है, उस मोक्षमार्गको ही चाहते हैं || २ ।।
सत्पुरुषोंने सदा इसी मार्गको ग्रहण किया है; अतः यही अनिन््द्य एवं निर्दोष है। यह वह बुद्धि है जिसके द्वारा चलकर मनुष्य परम गतिको प्राप्त कर लेता है ।।
जो देहाभिमानी है, वह मोहवश क्रोध, लोभ आदि राजस, तामस भावोंसे युक्त होकर सब प्रकारकी वस्तुओंके संग्रहमें लग जाता है || ४ ।।
अत: जो देह-बन्धनसे मुक्त होना चाहता हो, उसे कभी अशुद्ध (अवैध) आचरण नहीं करना चाहिये। वह निष्काम कर्मद्वारा मोक्षका द्वार खोले और स्वर्ग आदि पुण्यलोक पानेकी कदापि इच्छा न करे ।। ५ ।।
जैसे लोहयुक्त सुवर्ण आगमें पकाकर शुद्ध किये बिना अपने स्वरूपसे प्रकाशित नहीं होता, उसी प्रकार चित्तके राग आदि दोषोंका नाश हुए बिना उसमें ज्ञानस्वरूप आत्मा प्रकाशित नहीं होता है ।। ६ ।।
जो लोभवश काम-क्रोधका अनुसरण करते हुए धर्ममार्गका उल्लंघन करके अधर्मका आचरण करने लगता है, वह सगे-सम्बन्धियोंसहित नष्ट हो जाता है ।।
अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको कभी रागके वशमें होकर शब्द आदि विषयोंका सेवन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वैसा करनेपर हर्ष, क्रोध और विषाद--इन सात््विक, राजस और तामस भावोंकी एक-दूसरेसे उत्पत्ति होती है ।। ८ ।।
यह शरीर पाँच भूतोंका विकार है और सत्त्व, रज एवं तम--तीन गुणोंसे युक्त है। इसमें रहकर यह निर्विकार आत्मा क्या कहकर किसकी निन्दा और किसकी स्तुति करे ।। ९ |।
अज्ञानी पुरुष स्पर्श, रूप और रस आदि विषयोंमें आसक्त होते हैं। वे विशिष्ट ज्ञानसे रहित होनेके कारण यह नहीं जानते हैं कि यह शरीर पृथ्वीका विकार है ।। १० ।।
जैसे मिट॒टीका घर मिट्टीसे ही लीपा जाता है तो सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर पृथ्वीके ही विकारभूत अन्न और जलके सेवनसे ही नष्ट नहीं होता है ।। ११ ।।
मधु, तेल, दूध, घी, मांस, लवण, गुड़, धान्य, फल-मूल और जल--ये सभी पृथ्वीके ही विकार हैं || १२ ।।
जैसे वनमें रहनेवाला संन्यासी स्वादिष्ट अन्न (मिठाई आदि)-के लिये उत्सुक नहीं होता। वह शरीर-निर्वाहके लिये स्वाधीन रूखा-सूखा ग्रामीण आहार भी ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार संसाररूपी वनमें रहनेवाला गृहस्थ परिश्रममें संलग्न हो जीवन-निर्वाहमात्रके लिये शुद्ध सात््विक आहार ग्रहण करे। ठीक उसी तरह, जैसे रोगी जीवनरक्षाके लिये औषध सेवन करता है ।। १३-१४ ।।
उदारचित्त पुरुष सत्य, शौच, सरलता, त्याग, तेज, पराक्रम, क्षमा, धैर्य, बुद्धि, मन और तपके प्रभावसे समस्त विषयात्मक भावोंपर आलोचनात्मक दृष्टि रखते हुए शान्तिकी इच्छासे अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखे ।।
अजितेन्द्रिय जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज और तमसे मोहित हो निरन्तर चक्रकी तरह घूमते रहते हैं ।।
अतः विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह अज्ञानजनित दोषोंकी भलीभाँति परीक्षा करे तथा उस अज्ञानसे उत्पन्न हुए दुःख और अहंकारको त्याग दे ।। १८ ।।
पञ्चमहाभूत, इन्द्रियाँ, शब्द आदि गुण, सत्त्व, रज और तम तथा लोकपालोंसहित तीनों लोक--यह सब कुछ अहंकारमें ही प्रतिष्ठित है ।। १९ ।।
जैसे इस जगत्में नियत काल यथासमय ऋतु-सम्बन्धी गुणोंको प्रकट कर दिखाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंमें अहंकारको ही उनके कर्मोंका प्रवर्तक जानना चाहिये ।। २० ।।
अहंकार सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकारका होता है। तमोगुण मोहमें डालनेवाला तथा अन्धकारके समान काला है। उसे अज्ञानसे उत्पन्न हुआ समझना चाहिये। प्रीति उत्पन्न करनेवाले भाव सात्त्विक हैं और दुःख देनेवाले राजस। इस प्रकार इन समस्त त्रिविध गुणोंका स्वरूप जानना चाहिये ।। २१ ।।
अब मैं तुम्हें सत््वगुण, रजोगुण और तमोगुणके कार्य बताता हूँ, सुनो। प्रसन्नता, हर्षजनित प्रीति, संदेहका अभाव, धैर्य और स्मृति--इन सबको सत्त्वगुणके कार्य समझो। काम, क्रोध, प्रमाद, लोभ, मोह, भय, क्लान्ति, विषाद, शोक, अप्रसन्नता, मान, दर्प और अनार्यता--इन्हें रजोगुण और तमोगुणके कार्य समझना चाहिये ।। २२-२३ ।।
इनके तथा ऐसे ही दूसरे दोषोंके बड़े-छोटेका विचार करके फिर इस बातकी परीक्षा करे कि इनमेंसे एक-एक दोष मुझमें है या नहीं। यदि है तो कितनी मात्रामें है (इस तरह विचार करते हुए सभी दोषोंसे छूटनेका प्रयत्न करे) ।। २४ ।।
युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! पूर्वकालके मुमुक्षुओंने किन-किन दोषोंका मनके द्वारा त्याग किया है और किन्हें बुद्धिके द्वारा शिथिल किया है? कौन दोष बारंबार आते हैं और कौन मोहवश फल देनेमें असमर्थ-से प्रतीत होते हैं? || २५ ।।
विद्वान् पुरुष अपनी बुद्धि तथा युक्तियोंद्वारा किन दोषोंके बलाबलका विचार करे। तात! पितामह! यह मेरा संशय है। आप मुझसे इसका विवेचन कीजिये ।। २६ ।।
भीष्मजीने कहा--राजन्! इन दोषोंका मूल कारण है अज्ञान। अत: मूलसहित इन दोषोंका नाश हो जानेपर मनुष्यका अन्त:ःकरण विशुद्ध होता है और वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। जैसे लोहेकी बनी हुई छेनीकी धार लोहमयी साँकलको काटकर स्वयं भी नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार शुद्ध हुई बुद्धि तमोगुणजनित सहज दोषोंको नष्ट करके उनके साथ ही स्वयं भी शान्त हो जाती है || २७ ।।
यद्यपि रजोगुण, तमोगुण तथा काम, मोह आदि दोषोंसे रहित शुद्ध सत्त्वमुण--ये तीनों ही देहधारियोंकी देहकी उत्पत्तिके मूल कारण हैं, तथापि जिसने अपने मनको वशमें कर लिया है, उस पुरुषके लिये सत्त्वगुण ही समताका साधन है ।। २८ ।।
अतः जितात्मा पुरुषको रजोगुण और तमोगुणका त्याग ही करना चाहिये। इन दोनोंसे छूट जानेपर बुद्धि निर्मल हो जाती है || २९ ।।
अथवा बुद्धिको वशमें करनेके लिये शास्त्रविहित मन्त्रयुक्त यज्ञादि कर्मको कुछ लोग दोषयुक्त बताते हैं; परंतु वह मन्त्रयुक्त यज्ञादि धर्म भी निष्कामभावसे किये जानेपर वैराग्यका हेतु है। तथा शुद्ध धर्म--शम, दम आदिके निरन्तर पालनमें भी वही निमित्त बनता है ।।
मनुष्य रजोगुणके अधीन होनेपर उसके द्वारा भाँति-भाँतिके अधर्मयुक्त एवं अर्थयुक्त कर्म करने लगता है, तथा वह सम्पूर्ण भोगोंका अत्यन्त आसक्तिपूर्वक सेवन करता है ।। ३१ ||
तमोगुणद्वारा मनुष्य लोभ और क्रोधजनित कर्मोंका सेवन करता है, हिंसात्मक कर्मामें उसकी विशेष आसक्ति हो जाती है, तथा वह हर समय निद्रा-तन्द्रासे घिरा रहता है ।। ३२ ।।
सत्त्वगुणमें स्थित हुआ पुरुष शुद्ध सात््विक भावोंको ही देखता और उन्हींका आश्रय लेता है। वह अत्यन्त निर्मल और कान्तिमान् होता है। उसमें श्रद्धा और विद्याकी प्रधानता होती है ।। ३३ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन अध्यात्मकथनविषयक दो सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ तेरहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तेरहवें अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
“जीवोत्पत्तिका वर्णन कद दोषों और बन्धनोंसे मुक्त होनेके लिये विषयासक्तिके त्यागका उपदेश”
भीष्मजी कहते हैं--भरतश्रेष्ठ! रजोगुण और तमोगुणसे मोहकी उत्पत्ति होती है, तथा उससे क्रोध, लोभ, भय एवं दर्प उत्पन्न होते हैं। इन सबका नाश करनेसे ही मनुष्य शुद्ध होता है ।। १ ।।
ऐसे शुद्धात्मा पुरुष ही उस अक्षय, अविनाशी, परमदेव, अव्यक्तस्वरूप, देवप्रवर परमात्मा विष्णुका तत्त्व जान पाते हैं || २ ।।
उसी ईश्वरकी मायासे आवृत हो जानेपर मनुष्योंके ज्ञान और विवेकका नाश हो जाता है, तथा वे बुद्धिके व्यामोहसे क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं ।। ३ ।।
क्रोधसे काम उत्पन्न होता है और फिर कामसे मनुष्य लोभ, मोह, मान, दर्प एवं अहंकारको प्राप्त होते हैं। तत्पश्चात् अहंकारसे प्रेरित होकर ही उनकी सारी क्रियाएँ होने लगती हैं || ४ ।।
ऐसी क्रियाओंद्वारा मनुष्य आसक्तिसे युक्त हो जाता है। आसक्तिसे शोक होता है। फिर सुख-दु:खयुक्त कार्य आरम्भ करनेसे मनुष्यको जन्म और मृत्युके कष्ट स्वीकार करने पड़ते हैं ।। ५ |।
जन्मके निमित्तसे गर्भवासका कष्ट भोगना पड़ता है। रज और वीर्यके परस्पर संयुक्त होनेपर गर्भवासका अवसर आता है, जहाँ मल और मूत्रसे भीगे तथा रक्तके विकारसे मलिन स्थानमें रहना पड़ता है ।। ६ ।।
तृष्णासे अभिभूत तथा काम, क्रोध आदि दोषोंसे बद्ध होकर उन्हींका अनुसरण करता हुआ मनुष्य (महान् दुःख उठाता रहता है। यदि उनसे छूटनेकी इच्छा हो तो) स्त्रियोंको संसाररूपी वस्त्रको बुननेवाली तन्तुवाहिनी समझे और उनसे दूर रहे ।। ७ ।।
स्त्रियाँ प्रकृतिके तुल्य हैं; अतः क्षेत्रस्वरूपा हैं और पुरुष क्षेत्रज्रूप हैं (जैसे प्रकृति अज्ञानी पुरुषको बाँधती है, उसी प्रकार ये स्त्रियाँ पुरुषोंको अपने मोहजालमें बाँध लेती हैं), इसलिये सामान्यतः प्रत्येक पुरुषको विशेष प्रयत्नपूर्वक स्त्रीके संसर्गसे दूर रहना चाहिये ।। ८ ।।
ये स्त्रियाँ भयानक कृत्याके समान हैं; अतः अज्ञानी मनुष्योंको मोहमें डाल देती हैं। इन्द्रियोंमें विकार उत्पन्न करनेवाली यह सनातन नारीमूर्ति रजोगुणसे तिरोहित है ।। ९ ।।
अतः स्त्रीसम्बन्धी अनुरागके कारण पुरुषके वीर्यसे जीवोंकी उत्पत्ति होती है, जैसे मनुष्य अपनी ही देहसे उत्पन्न हुए जूँ और लीख आदि स्वेदज कीटोंको अपना न मानकर त्याग देता है, उसी प्रकार अपने कहलानेवाले जो अनात्मा पुत्रनामधारी कीट हैं, उन्हें भी त्याग देना चाहिये || १० ।।
इस शरीरसे वीर्यद्वारा अथवा पसीनोंद्वारा स्वभावसे अथवा प्रारब्धके अनुसार जन्तुओंका जन्म होता रहता है। बुद्धिमान् पुरुषोंको उनकी उपेक्षा करनी चाहिये || ११ ।।
तमोगुणमें स्थित रजोगुण तथा रजोगुणमें स्थित सत्त्वमुण जब रजोगुण-तमोगुणमें स्थित हो जाता है और सत्त्वगुण रजोगुणमें स्थित हो जाता है, तब ज्ञानका अधिष्ठानभूत अव्यक्त आत्मा बुद्धि और अहंकारसे युक्त हो जाता है ।। १२
वह अव्यक्त आत्मा ही देहधारी प्राणियोंका बीज है और वह बीजभूत आत्मा ही गुणोंके संगके कारण जीव कहलाता है। वही कालसे युक्त कर्मसे प्रेरित हो संसार-चक्रमें घूमता रहता है ।। १३ ।।
जैसे स्वप्नावस्थामें यह जीव मनके द्वारा ही दूसरा शरीर धारण करके क्रीडा करता है, उसी प्रकार वह कर्मगर्भित गुणोंद्वारा गर्भमें उपलब्ध होता है ।। १४ ।।
बीजभूत कर्मसे जिस-जिस इन्द्रियको उत्पत्तिके लिये प्रेरणा प्राप्त होती है, रागयुक्त चित्त एवं अहंकारसे वही-वही इन्द्रिय प्रकट हो जाती है || १५ ।।
शब्दके प्रति राग होनेसे उस भावितात्मा पुरुषकी श्रवणेन्द्रिय प्रकट होती है। रूपके प्रति राग होनेसे नेत्र और गन्ध ग्रहण करनेकी इच्छा होनेसे नासिकाका प्राकट्य होता है ।। १६ ||
स्पर्शके प्रति राग होनेसे त्वगिन्द्रिय और वायुका प्राकट्य होता है। वायु प्राण और अपानका आश्रय है। वही उदान, व्यान तथा समान है। इस प्रकार वह पाँच रूपोंमें प्रकट हो शरीर-यात्राका निर्वाह करती है || १७ ।।
मनुष्य जन्मकालमें पूर्णतः उत्पन्न हुए कर्मजनित अंगों और सम्पूर्ण शरीरसे युक्त होकर जन्म ग्रहण करता है। वह मनुष्य आदि, मध्य और अन्तमें भी शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे पीड़ित रहता है ।। १८ ।।
शरीरके ग्रहणमात्रसे दुःखकी प्राप्ति निश्चित समझनी चाहिये। शरीरमें अभिमान करनेसे उस दुःखकी वृद्धि होती है। अभिमानके त्यागसे उन दुःखोंका अन्त होता है। जो दुःखोंके अन्त होनेकी इस कलाको जानता है, वह मुक्त हो जाता है ।।
इन्द्रियोंकी उत्पत्ति और लय--ये दोनों कार्य रजोगुणमें ही होते हैं। विद्वान् पुरुष शास्त्रदृष्टिसे इन बातोंकी भलीभाँति परीक्षा करके यथोचित आचरण करे ।।
जिसमें तृष्णाका अभाव है उस पुरुषको ये ज्ञानेन्द्रियाँ विषयोंकी प्राप्ति नहीं करातीं। इन्द्रियोंके विषयासक्तिसे रहित हो जानेपर देही पुनः शरीरको धारण नहीं करता ।। २१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मका कथनविषयक दो सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ चौदहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चौदहवें अध्याय के श्लोक 1-29 का हिन्दी अनुवाद)
“ब्रह्मचर्य तथा वैराग्यसे मुक्ति”
भीष्मजी कहते हैं--राजन्! अब मैं तुम्हें शास्त्र-दृष्टिसे मोक्षका यथावत् उपाय बताता हूँ। शास्त्रविहित कर्मोका निष्कामभावसे आचरण करता हुआ मनुष्य तत्त्वज्ञानसे परमगतिको प्राप्त कर लेता है ।। १ ।।
समस्त प्राणियोंमें मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है। मनुष्योंमें द्विजोंको और द्विजोंमें भी मन्त्रद्रष्टा (वेदज्ञ) ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ बताया गया है ।। २ ।।
वेद-शास्त्रोंके यथार्थ ज्ञाता ब्राह्मण समस्त भूतोंके आत्मा, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं। उन्हें परमार्थतत्त्वका पूर्ण निश्चय होता है ।। ३ ।।
जैसे नेत्रहीन पुरुष मार्गमें अकेला होनेपर तरह-तरहके दुःख पाता है, उसी प्रकार संसारमें ज्ञानहीन मनुष्यको भी अनेक प्रकारके कष्ट भोगने पढ़ते हैं; इसलिये ज्ञानी पुरुष ही सबसे श्रेष्ठ है ।। ४ ।।
धर्मकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य शास्त्रके अनुसार उन-उन यज्ञादि सकाम धर्मोका अनुष्ठान करते हैं; किंतु आगे बताये जानेवाले गुणोंके बिना इन्हें सबके लिये समानरूपसे अभीष्ट मोक्ष नामक पुरुषार्थकी प्राप्ति नहीं होती || ५ ।।
वाणी, शरीर और मनकी पवित्रता, क्षमा, सत्य, धैर्य और स्मृति--इन गुणोंको प्राय: सभी धर्मोके धर्मज्ञ पुरुष कल्याणकारी बताते हैं ।। ६ ।।
यह जो ब्रह्मचर्य नामक गुण है, इसे तो शास्त्रोंमें ब्रह्मका स्वरूप ही बताया गया है। यह सब धर्मोसे श्रेष्ठ है। ब्रह्मचर्यके पालनसे मनुष्य परमपदको प्राप्त कर लेते हैं ।। ७ ।।
वह परमपद पाँच प्राण, मन, बुद्धि और दसों इन्द्रियोंके संघातरूप शरीरके संयोगसे शून्य है, शब्द और स्पर्शसे रहित है। जो कानसे सुनता नहीं, आँखसे देखता नहीं और वाणीद्वारा कुछ बोलता नहीं है, तथा जो मनसे भी रहित है, वही वह परमपद या ब्रह्म है। मनुष्य बुद्धिके द्वारा उसका निश्चय करे और उसकी प्राप्तिके लिये निष्कलंक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करे ।।
जो मनुष्य इस व्रतका अच्छी तरह पालन करता है, वह ब्रह्मलोक प्राप्त कर लेता है। मध्यम श्रेणीके ब्रह्मबचारीको देवताओंका लोक प्राप्त होता है और कनिष्ठ श्रेणीका विद्वान ब्रह्मचारी श्रेष्ठ ब्राह्मणके रूपमें जन्म लेता है ।। १० ।।
ब्रह्मचर्यका पालन अत्यन्त कठिन है। उसके लिये जो उपाय है, वह मुझसे सुनो। ब्राह्मणको चाहिये कि जब रजोगुणकी वृत्ति प्रकट होने और बढ़ने लगे तो उसे रोक दे ॥। ११ ।।
स्त्रियोंकी चर्चा न सुने। उन्हें नंगी अवस्थामें न देखे; क्योंकि यदि किसी प्रकार नग्नावस्थाओंमें उनपर दृष्टि चली जाती है तो दुर्बल हृदयवाले पुरुषोंके मनमें रजोगुण--राग या कामभावका प्रवेश हो जाता है || १२ ।।
ब्रह्मचारीके मनमें यदि राग या काम-विकार उत्पन्न हो जाय तो वह आत्मशुद्धिके लिये कृच्छुव्रतका5 आचरण करे। यदि वीर्यकी वृद्धि होनेसे उसे कामवेदना अधिक सता रही हो तो वह नदी या सरोवरके जलमें प्रवेश करके स्नान करे। यदि स्वप्नावस्थामें वीर्यपात हो जाय तो जलमें गोता लगाकर मन-ही-मन तीन बार अघमर्षणः सूक्तका जप करे ।। १३ ।।
विवेकी पुरुषको इस प्रकार ज्ञानयुक्त एवं संयमशील मनके द्वारा अपने अन्तःकरणमें प्रकट हुए पापमय कामविकारको दग्ध कर देना चाहिये ।। १४ ।।
मुर्देके समान अपवित्र एवं मलयुक्त नाड़ियाँ जिस प्रकार देहके भीतर दृढ़तापूर्वक बँधी हुई हैं, उसी प्रकार (अज्ञानसे) उसके भीतर जीवात्मा भी दृढ़ बन्धनमें बँधा हुआ है, ऐसा जानना चाहिये || १५ ।।
भोजनसे प्राप्त हुए रस नाड़ीसमूहोंद्वारा संचरित होकर मनुष्योंके वात, पित्त, कफ, रक्त, त्वचा, मांस, स्नायु, अस्थि, चर्बी एवं सम्पूर्ण शरीरको तृप्त एवं पुष्ट करते हैं | १६ ।।
इस शरीरके भीतर उपर्युक्त वात, पित्त आदि दस वस्तुओंकोी वहन करनेवाली दस ऐसी नाड़ियाँ हैं जो पाँचों इन्द्रियोंके शब्द आदि गुणोंको ग्रहण करनेकी शक्ति प्राप्त करानेवाली हैं। उन्हींके साथ अन्य सहस्ौरों सूक्ष्म नाड़ियाँ सारे शरीरमें फैली हुई हैं | १७ ।।
जैसे नदियाँ अपने जलसे यथासमय समुद्रको तृप्त करती रहती हैं, उसी प्रकार रसको बहानेवाली ये नाड़ीरूप नदियाँ इस देह-सागरको तृप्त किया करती हैं || १८ ।।
हृदयके मध्यभागमें एक मनोवहा नामकी नाड़ी है जो पुरुषोंक कामविषयक संकल्पके द्वारा सारे शरीरसे वीर्यको खींचकर बाहर निकाल देती है ।। १९ ।।
उस नाड़ीके पीछे चलनेवाली और सम्पूर्ण शरीरमें फैली हुई अन्य नाड़ियाँ तैजस-गुणरूप ग्रहणकी शक्तिको वहन करती हुई नेत्रोंतक पहुँचती हैं || २० ।।
जिस प्रकार दूधमें छिपे हुए घीको मथानीसे मथकर अलग किया जाता है, उसी प्रकार देहस्थ संकल्प और इन्द्रियोंसे होनेवाले स्त्रियोंके दर्शन एवं स्पर्श आदिसे मथित होकर पुरुषका वीर्य बाहर निकल जाता है ।। २१ ।।
जैसे स्वप्नमें संसर्ग न होनेपर भी मनके संकल्पसे उत्पन्न हुआ स्त्रीविषयक राग उपस्थित हो जाता है, उसी प्रकार मनोवहा नाड़ी पुरुषके शरीरसे संकल्पजनित वीर्यका नि:सारण कर देती है || २२ ।।
भगवान् महर्षि अत्रि वीर्यकी उत्पत्ति और गतिको जानते हैं, तथा ऐसा कहते हैं कि मनोवहा नाड़ी, संकल्प और अन्न--ये तीन ही वीर्यके कारण हैं। इस वीर्यका देवता इन्द्र है; इसलिये इसे इन्द्रिय कहते हैं |। २३ ।।
जो यह जानते हैं कि वीर्यकी गति ही सम्पूर्ण प्राणियोंमें वर्णसंकरता उत्पन्न करनेवाली है, वे विरक्त हो अपने सारे दोषोंको भस्म कर डालते हैं; इसलिये वे पुनः देहके बन्धनमें नहीं पड़ते || २४ ।।
जो केवल शरीरकी रक्षाके लिये भोजन आदि कर्म करता है, वह अभ्यासके बलसे गुणोंकी साम्यावस्थारूप निर्विकल्प समाधि प्राप्त करके मनके द्वारा मनोवहा नाड़ीको संयममें रखते हुए अन्तकालनमें प्राणोंको सुषुम्णा मार्गसे ले जाकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।।
उन महात्माओंके मनमें तत्त्वज्ञाकाक उदय हो जाता है; क्योंकि प्रणवोपासनासे परिशुद्ध हुआ उनका मन नित्य प्रकाशमय और निर्मल हो जाता है || २६ ।।
अतः मनको वशमें करनेके लिये मनुष्यको निर्दोष एवं निष्काम कर्म करने चाहिये। ऐसा करनेसे वह रजोगुण और तमोगुणसे छूटकर इच्छानुसार गति प्राप्त कर लेता है | २७ ।।
युवावस्थामें प्राप्त किया हुआ ज्ञान प्राय: बुढ़ापेमें क्षीण हो जाता है, परंतु परिपक्वबुद्धि मनुष्य समयानुसार ऐसा मानसिक बल प्राप्त कर लेता है, जिससे उसका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता ।। २८ ।।
वह परिपक्व बुद्धिवाला मनुष्य अत्यन्त दुर्गम मार्गके समान गुणोंके बन्धनको पार करके जैसे-जैसे अपने दोष देखता है, वैसे-ही-वैसे उन्हें लाँधकर अमृतमय परमात्मपदको प्राप्त कर लेता है || २९ ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन अध्यात्मकथनविषयक दो सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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त्र्यहं प्रातरूयहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम् । त्र्यहं परं च नाश्नीयात् प्राजापत्योऽयमुच्यते ।।
(मनुस्मृति ११।२१२)
तीन दिन केवल प्रातःकाल, तीन दिन केवल सायंकाल तथा तीन दिनतक केवल अयाचित अन्नका भोजन करे। फिर तीन दिनतक उपवास रखे। इसे प्राजापत्यकृच्छ्र कहा जाता है।
2. अघमर्षणसूक्त निम्नलिखित है-
ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः। समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्वः ।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
दो सौ पन्द्रहवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पन्द्रहवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)
“आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्नाकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करनेका उपदेश”
भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! इन्द्रियोंके विषयोंका पार पाना बहुत कठिन है। जो प्राणी उनमें आसक्त होते हैं वे दुःख भोगते रहते हैं; और जो महात्मा उनमें आसक्त नहीं होते वे परम गतिको प्राप्त होते हैं || १ ।।
यह जगत् जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थाके दु:खों, नाना प्रकारके रोगों तथा मानसिक चिन्ताओंसे व्याप्त है; ऐसा समझकर बुद्धिमान् पुरुषको मोक्षके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये ।। २ ।।
वह मन, वाणी और शरीरसे पवित्र रहकर अहंकारशून्य, शान्तचित्त, ज्ञानवान् एवं निःस्पृह होकर भिक्षावृत्तिसे निर्वाह करता हुआ सुखपूर्वक विचरे ।। ३ ।।
अथवा प्राणियोंपर दया करते रहनेसे भी मोहवश उनके प्रति मनमें आसक्ति हो जाती है। इस बातपर दृष्टिपात करे और यह समझकर कि सारा जगत् अपने-अपने कर्मोंका फल भोग रहा है, सबके प्रति उपेक्षाभाव रखे ।। ४ ।।
मनुष्य शुभ या अशुभ जैसा भी कर्म करता है उसका फल उसे स्वयं ही भोगना पड़ता है; इसलिये मन, बुद्धि और क्रियाके द्वारा सदा शुभ कर्मोंका ही आचरण करे || ५ ।।
अहिंसा, सत्यभाषण, समस्त प्राणियोंके प्रति सरलतापूर्ण बर्ताव, क्षमा तथा प्रमादशून्यता--ये गुण जिस पुरुषमें विद्यमान हों, वही सुखी होता है ।। ६ ।।
जो मनुष्य इस अहिंसा आदि परम धर्मको समस्त प्राणियोंके लिये सुखद और दुःखनिवारक जानता है, वही सर्वज्ञ है और वही सुखी होता है || ७ ।।
इसलिये बुद्धिके द्वारा मनको समाहित करके समस्त प्राणियोंमें स्थित परमात्मामें लगावे। किसीका अहित न सोचे, असम्भव वस्तुकी कामना न करे, मिथ्या पदार्थोंकी चिन्ता न करे और सफल प्रयत्न करके मनको ज्ञानके साधनमें लगा दे। वेदान्त-वाक्योंके श्रवण तथा सुदृढ़ प्रयत्नसे उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।।
जो सूक्ष्म धर्मको देखता और उत्तम वचन बोलना चाहता हो, उसको ऐसी बात कहनी चाहिये जो सत्य होनेके साथ ही हिंसा और परनिन्दासे रहित हो। जिसमें शठता, कठोरता, क्रूरता और चुगली आदि दोषोंका सर्वथा अभाव हो, ऐसी वाणी भी बहुत थोड़ी मात्रामें और सुस्थिर चित्तसे बोलनी चाहिये || १०-११ ।।
संसारका सारा व्यवहार वाणीसे ही बँधा हुआ है, अतः सदा उत्तम वाणी ही बोले और यदि वैराग्य हो तो बुद्धिके द्वारा मनको वशमें करके अपने किये हुए हिंसादि तामस कर्मोंको भी लोगोंसे कह दे (क्योंकि प्रकाशित कर देनेसे पापकी मात्रा घट जाती है) || १२ ।।
रजोगुणसे प्रभावित हुई इन्द्रियोंकी प्रेरणासे मनुष्य विषयभोगरूप कर्मामें प्रवृत्त होता है और इस लोकमें दुःख भोगकर अन्तमें नरकगामी होता है। अतः मन, वाणी और शरीरद्वारा ऐसा कार्य करे जिससे अपनेको धैर्य प्राप्त हो ।। १३ ।।
जैसे चोर या लुटेरे किसीकी भेड़को मारकर उसे कंधेपर उठाये हुए जबतक भागते हैं तबतक उन्हें सारी दिशाओंमें पकड़े जानेका भय बना रहता है; और जब मार्गको प्रतिकूल समझकर उस भेड़के बोझको अपने कंधेसे उतार फेंकते हैं तब अपनी अभीष्ट दिशाको सुखपूर्वक चले जाते हैं। उसी प्रकार अज्ञानी मनुष्य जबतक सांसारिक कर्मरूप बोझको ढोते हैं तबतक उन्हें सर्वत्र भय बना रहता है; और जब उसे त्याग देते हैं, तब शान्तिके भागी हो जाते हैं ।। १४ ।।
जैसे चोर या डाकू जब उस चोरीके मालका बोझ उतार फेंकता है तब जहाँ उसे सुख मिलनेकी आशा होती है, उस दिशामें अनायास चला जाता है। उसी प्रकार मनुष्य राजस और तामस कर्मोको त्यागकर शुभ गति प्राप्त कर लेता है ।। १५ ।।
जो सब प्रकारके संग्रहसे रहित, निरीह, एकान्त-वासी, अल्पाहारी, तपस्वी और जितेन्द्रिय है, जिसके सम्पूर्ण क्लेश ज्ञानाग्निसे दग्ध हो गये हैं; तथा जो योगानुष्ठानका प्रेमी और मनको वशमें रखनेवाला है, वह अपने निश्चल चित्तके द्वारा उस परब्रह्म परमात्माको नि:संदेह प्राप्त कर लेता है ।। १६-१७ ।।
बुद्धिमान् एवं धीर पुरुषको चाहिये कि वह बुद्धिको निश्चय ही अपने वशमें करे; फिर बुद्धिके द्वारा मनको और मनके द्वारा अपनी इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे रोककर अपने अधीन करे ।। १८ ।।
इस प्रकार जिसने इन्द्रियोंको वशमें करके मनको अपने अधीन कर लिया है, उस अवस्थामें उसकी इन्द्रियोंके अधिष्ठातृदेवता प्रसन्नतासे प्रकाशित होने लगते हैं; और ईश्वरकी ओर प्रवृत्त हो जाते हैं ।। १९ ।।
उन इन्द्रिययेवताओंसे जिसका मन संयुक्त हो गया है, उसके अन्तःकरणमें परब्रह्म परमात्मा प्रकाशित हो उठता है; फिर धीरे-धीरे सत्त्वगुण प्राप्त होनेपर वह मनुष्य ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाता है || २० ।।
अथवा यदि पूर्वोक्तरूपसे उसके भीतर ब्रह्म प्रकाशित न हो तो वह योगी योगप्रधान उपायोंद्वारा अभ्यास आरम्भ करे। जिस हेतुसे योगाभ्यास करते हुए योगीकी ब्रह्ममें ही स्थिति हो, वह उसी-उसीका अनुष्ठान करे || २१ ।।
अन्नके दाने, उड़द, तिलकी खली, साग, जौकी लप्सी, सत्तू, मूल और फल जो कुछ भी भिक्षामें मिल जाय, क्रमश: उसी अन्नसे योगी अपने जीवनका निर्वाह करे || २२ ।।
देश और कालके अनुसार सात्त्विक आहार ग्रहण करनेका नियम रखे। उस आहारके दोष-गुणकी परीक्षा करके यदि वह योगसिद्धिके अनुकूल हो तो उसे उपयोगमें ले ।। २३
साधन आरम्भ कर देनेपर उसे बीचमें न रोके। जैसे आग धीरे-धीरे तेज की जाती है, उसी प्रकार ज्ञानके साधनको शनैः:-शनैः उद्दीपित करे। ऐसा करनेसे ज्ञान सूर्यके समान प्रकाशित होने लगता है ।।
अज्ञानका अधिष्ठान भी ज्ञान ही है जो तीनों लोकोंमें व्याप्त है। अज्ञानके द्वारा विज्ञानयुक्त ज्ञानका हास होता है | २५ ।।
शास्त्रोंमें कहीं जीवात्मा और परमात्माकी पृथक्ताका प्रतिपादन करनेवाले वचन उपलब्ध होते हैं और कहीं उनकी एकताका। यह परस्पर विरोध देखकर दोषदृष्टि न करते हुए सनातन ज्ञानको प्राप्त करे। जो उन दोनों प्रकारके वचनोंका तात्पर्य समझकर मोक्षके तत्त्वको जान लेता है, वह वीतराग पुरुष संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। २६ ।।
ऐसा पुरुष जरा और मृत्युका उल्लंघनकर सनातन ब्रह्मको जानकर उस अक्षर, अविकारी एवं अमृत ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है ।। २७ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन अध्यात्मतत्त्वका वर्णनविषयक दो सौ पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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