सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ नोवें अध्याय व दो सौ दसवें अध्याय तक (From the 209 chapter and the 210 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ नोवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ नोवें अध्याय के श्लोक 1-122½ का हिन्दी अनुवाद)

“भगवान्‌ विष्णुका वराहरूपमें प्रकट होकर देवताओंकी रक्षा और दानवोंका विनाश कर देना तथा नारदको अनुस्मृतिस्तोत्रका उपदेश और नारदद्वारा भगवान्‌की स्तुति”

युधिष्ठिरने पूछा--युद्धमें सच्चा पराक्रम प्रकट करनेवाले महाप्राज्ञ पितामह! भगवान्‌ श्रीकृष्ण अविनाशी ईश्वर हैं; मैं पूर्णरूपसे इनके महत्त्वका वर्णन सुनना चाहता हूँ ।।१।।

पुरुषप्रवर! इनका जो महान्‌ तेज है, इन्होंने पूर्वकालमें जो महान्‌ कर्म किया है, वह सब आप मुझे यथार्थरूपसे बताइये ।। २ ।।

महाबली पितामह! सम्पूर्ण जगतके प्रभु होकर भी इन्होंने किस निमित्तसे तिर्यग्योनिमें जन्म ग्रहण किया; यह मुझे बताइये ।। ३ ।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! पहलेकी बात है, मैं शिकार खेलनेके लिये वनमें गया और मार्कण्डेय मुनिके आश्रमपर ठहरा। वहाँ मैंने सहस्रों मुनियोंको बैठे देखा || ४ ।।

मेरे जानेपर उन महर्षियोंने मधुपर्क समर्पित करके मेरा आतिथ्य-सत्कार किया। मैंने भी उनका सत्कार ग्रहण करके उन सभी महर्षियोंका अभिनन्दन किया ।। ५ |।

फिर महर्षि कश्यपने मनको आनन्द प्रदान करनेवाली यह दिव्य कथा मुझे सुनायी। मैं उसे कहता हूँ, तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ।। ६ ।।

पूर्वकालमें नरकासुर आदि सैकड़ों मुख्य-मुख्य दानव क्रोध और लोभके वशीभूत हो बलके मदसे मतवाले हो गये थे || ७ ।।

इनके सिवा और भी बहुत-से रणदुर्मद दानव थे, जो देवताओंकी उत्तम समृद्धिको सहन नहीं कर पाते थे ।।

राजन! उन दानवोंसे पीड़ित हो देवता और देवर्षि कहीं चैन नहीं पाते थे। वे इधर-उधर लुकते-छिपते फिरते थे ।। ९ ।।

समूचे भूमण्डलमें भयानक रूपधारी महाबली दानव फैल गये थे। देवताओंने देखा, यह पृथ्वी दानवोंके पापभारसे पीड़ित एवं आर्त हो उठी है || १० ।।

यह भारसे व्याकुल, हर्ष और उल्लाससे शून्य तथा दुखी हो रसातलमें डूब रही है। यह देखकर अदितिके सभी पुत्र भयसे थर्रा उठे और ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले-- ।। ११ 

“ब्रह्म! दानवलोग जो हमें इस प्रकार रौंद रहे हैं, इसे हम किस प्रकार सह सकेंगे? तब स्वयम्भू ब्रह्माने उनसे इस प्रकार कहा--'देवताओ! इस विपत्तिको दूर करनेके लिये मैंने उपाय कर दिया है ।। १२ ।।

“वे दानव वर पाकर बल और अभिमानसे मत्त हो उठे हैं। वे मूढ़ दैत्य अव्यक्तस्वरूप भगवान्‌ विष्णुको नहीं जानते, जो देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष हैं। उन्होंने वाराह रूप धारण कर रखा है || १३३ ।।

“वे सहस्रों घोर दैत्य और दानवाधम भूमिके भीतर पाताललोकमें निवास करते हैं; भगवान्‌ वाराह वेगपूर्वक वहीं जाकर उन सबका विनाश कर देंगे। यह सुनकर सभी श्रेष्ठ देवता हर्षसे खिल उठे ।। १४-१५ ।।

उधर महातेजस्वी भगवान्‌ विष्णु वाराहरूप धारण कर बड़े वेगसे भूमिके भीतर प्रविष्ट हुए और दैत्योंके पास जा पहुँचे ।। १६ ।।

उस अलौकिक जनन्‍्तुको देखकर सब दैत्य एक साथ हो वेगपूर्वक उसका सामना करनेके लिये हठात्‌ खड़े हो गये; क्योंकि वे कालसे मोहित हो रहे थे ।।

उन सबने कुपित होकर भगवान्‌ वाराहपर एक साथ धावा बोल दिया और उन्हें हाथोंहाथ पकड़ लिया। पकड़कर वे वाराहदेवको चारों ओरसे खींचने लगे ।। १८ ।।

प्रभो! यद्यपि वे विशालकाय दानवराज महान्‌ बल और वीर्यसे सम्पन्न थे, तो भी उन भगवानका कुछ बिगाड़ न सके ।। १९ |।

इससे उन दानवेन्द्रोंकी बड़ा विस्‍स्मयथ और भय प्राप्त हुआ। वे सहस्रों दैत्य अपने आपको जीवनके संशयमें पड़ा हुआ मानने लगे || २० ।।

भरतश्रेष्ठ) इसके बाद योगस्वरूप योगके नियन्ता देवाधिदेव भगवान्‌ वाराह दैत्यों और दानवोंको क्षोभमें डालनेके लिये योगका आश्रय ले बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। उस भीषण गर्जनासे तीनों लोक और ये सारी दसों दिशाएँ गज उठीं || २१-२२ ।।

उस भीषण गर्जनासे समस्त लोकोंमें हलचल मच गयी। स्वर्गलोकमें इन्द्र आदि देवता भी अत्यन्त भयभीत हो उठे ।। २३ ।।

उस सिंहनादसे मोहित होकर समस्त चराचर जगत्‌ अत्यन्त चेष्टारहित हो गया ।। २४ ।।

तदनन्तर वे सब दानव भगवानूकी उस गर्जनासे भयभीत हो प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। वे सब-के-सब भगवान्‌ विष्णुके तेजसे मोहित हो अपनी सुध-बुध खो बैठे थे।। २५ |।

रसातलमें जाकर भी भगवान्‌ वाराहने देवद्रोही असुरोंको अपने खुरोंसे विदीर्ण कर दिया। उनके मांस, मेदा और हड्डियोंके ढेर लग गये थे || २६ ।।

सम्पूर्ण प्राणियोंक आचार्य और स्वामी महायोगी वे भगवान्‌ पद्मनाभ अपने महान्‌ सिंहनादके कारण 'सनातन”” माने गये हैं || २७ ।।

उनके उस सिंहनादको सुनकर सब देवता जगदीश्वर भगवान्‌ ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पहुँचकर वे इस प्रकार बोले--'देव! प्रभो! यह कैसा सिंहनाद है? इसे हमलोग नहीं जानते। वह कौन वीर है? अथवा किसकी गर्जना है? जिसने इस जगत्‌को व्याकुल कर दिया है। देवता और दानव सभी उसके तेजसे मोहित हो रहे हैं! || २८-२९३ ।।

महाबाहो! इसी बीचमें वाराहरूपधारी भगवान्‌ विष्णु जलसे ऊपर उठे। उस समय महर्षिगण उनकी स्तुति कर रहे थे || ३० ।।

ब्रह्माजी बोले--देवताओ! ये महाकाय महाबली महायोगी भूतभावन भूतात्मा भगवान्‌ विष्णु हैं, जो दानवराजोंका वध करके आ रहे हैं ।। ३१ ।।

ये सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर, योगी, मुनि तथा आत्माके भी आत्मा हैं, ये ही समस्त विघ्नोंका विनाश करनेवाले श्रीकृष्ण हैं; अत: तुमलोग धैर्य धारण करो ।। ३२ ।।

अनन्त प्रभासे परिपूर्ण, महातेजस्वी एवं महान्‌ सौभाग्यके आश्रयभूत ये भगवान्‌ अत्यन्त उत्तम और दूसरोंके लिये असम्भव कार्य करके आ रहे हैं ।। ३३ ।।

सुरश्रेष्ठटण! ये महायोगी भूतभावन महात्मा पद्मनाभ हैं; अतः तुम्हें अपने मनसे संताप, भय एवं शोकको दूर कर देना चाहिये ।। ३४ ।।

ये ही विधि हैं, ये ही प्रभाव हैं और ये ही संहारकारी काल हैं, इन्हीं परमात्माने सम्पूर्ण जगत्‌की रक्षा करते हुए यह भीषण सिंहनाद किया है || ३५ ।।

ये सम्पूर्ण भूतोंक आदि कारण, सर्वलोकवन्दित ईश्वर महाबाहु कमलनयन अच्युत हैं ।। ३६ ||

युधिष्ठिरने पूछा--सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण महाप्राज्ञ पितामह! मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले तत्त्व-चिन्तकोंको मृत्युकालमें किस मन्त्रका जप करना चाहिये ।।

कुरुश्रेष्ठ! मृत्युका समय उपस्थित होनेपर किसका चिन्तन करनेवाला पुरुष परम सिद्धिको प्राप्त हो सकता है? यह मैं यथार्थरूपसे सुनना चाहता हूँ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! निष्पाप नरेश! तुमने जो प्रश्न उपस्थित किया है, वह उत्तम युक्तियुक्त और सूक्ष्म है। उसे सावधान होकर सुनो। जो पूर्वकालमें मैंने नारदजीसे सुना था, वहीं मैं तुमसे कहता हूँ ।।

जिनका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्से सुशोभित है, जो इस जगतके बीज (मूल कारण) हैं, जिनका कहीं अन्त नहीं है तथा जो इस जगतके साक्षी हैं, उन्हीं भगवान्‌ नारायणसे पूर्वकालमें नारदजीने इस प्रकार प्रश्न किया ।।

नारदजीने पूछा--भगवन्‌! महर्षिगण कहते हैं, आप अविनाशी (नित्य), परब्रह्म, निर्मुण, अज्ञानान्धकार एवं तमोगुणसे अतीत, विद्याके अधिपति, परम धामस्वरूप, ब्रह्मा तथा उनकी प्राकट्यभूमि--आदिकमलके उत्पत्ति-स्थान हैं। भूत और भविष्यके स्वामी परमेश्वर! श्रद्धालु और जितेन्द्रिय भक्तों तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले योगियोंको आपके स्वरूपका किस प्रकार चिन्तन करना चाहिये? ।।

मनुष्य प्रतिदिन सबेरे उठकर किस जपनीय मन्त्रका जप करे और योगी पुरुष किस प्रकार निरन्तर ध्यान करे? आप इस सनातन तत्त्वका वर्णन कीजिये ।।

देवर्षि नारदका यह वचन सुनकर वाणीके अधिपति वरदायक भगवान्‌ विष्णुने नारदजीसे इस प्रकार कहा ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--देवर्षे! मैं हर्षपूर्वक तुम्हारे सामने इस दिव्य अनुस्मृतिका वर्णन करता हूँ। मृत्युकालमें जिसका अध्ययन और श्रवण करके मनुष्य मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है ।।

नारद! आदिमें ओंकारका उच्चारण करके मुझे नमस्कार करे। अर्थात्‌ एकाग्र एवं पवित्रचित्त होकर इस मन्त्रका उच्चारण करे--“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इति ।।

भगवानके ऐसा कहनेपर नारदजी हाथ जोड़ प्रणाम करके खड़े हो गये और उन सर्वदेवेश्वर सर्वात्मा एवं पापहारी प्रभु श्रीविष्णुसे बोले ।।

नारदजीने कहा--प्रभो! जो अव्यक्त सनातन देवता, सबकी उत्पत्तिके कारण, पुरुषोत्तम, अविनाशी और परम पदस्वरूप हैं, उन भगवान्‌ विष्णुकी मैं हाथ जोड़कर शरण लेता हूँ ।।

जो पुराणपुरुष, सबकी उत्पत्तिके कारण, नित्य, अक्षय और सम्पूर्ण जगतके साक्षी हैं, जिनके नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं, उन भक्तवत्सल भगवान्‌ विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ ।।

जो सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी तथा संरक्षक हैं, जिनके सहस्ौरों नेत्र हैं; तथा जो भूत, भविष्य और वर्तमानके स्वामी हैं, उन अद्भुत परमपदरूप भगवान्‌ विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ ।।

समस्त लोकोंके स्रष्टा और सब ओर मुखवाले, अनन्त, सत्य, अच्युत एवं सम्पूर्ण इन्द्रियोंक स्वामी भगवान्‌ पद्मनाभकी मैं शरण लेता हूँ ।।

जो हिरण्यगर्भ, अमृतस्वरूप, पृथ्वीको गर्भमें धारण करनेवाले, परात्पर तथा प्रभुओंके भी प्रभु हैं, उन अनादि, अनन्त तथा सूर्यके समान कान्तिवाले भगवान्‌ श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ ।।

जिनके सहस्रों मस्तक हैं, जो अन्तर्यामी आत्मा हैं, तत्त्वोंका चिन्तन करनेवाले महर्षि कपिलस्वरूप हैं, उन सूक्ष्म, अचल, वरेण्य और अभयप्रद भगवान्‌ श्रीहरिकी शरण लेता हूँ ।।

जो पुरातन ऋषि नारायण हैं, योगात्मा हैं, सनातन पुरुष हैं, सम्पूर्ण तत्त्वोंके अधिष्ठान एवं अविनाशी ईश्वर हैं, उन भगवान्‌ श्रीहरिकी मैं शरण लेता हूँ ।।

जो सम्पूर्ण भूतोंके प्रभु हैं, जिन्होंने इस समस्त संसारको व्याप्त कर रखा है; तथा जो चर और अचर प्राणियोंके गुरु हैं, वे भगवान्‌ विष्णु मुझपर प्रसन्न हों ।।

जिनसे पदमयोनि पितामह ब्रह्माकी उत्पत्ति होती है; तथा जो वेद और ब्राह्मणोंकी योनि हैं, वे विश्वात्मा विष्णु मुझपर प्रसन्न हों ।।

प्राचीन कालमें महाप्रलय प्राप्त होनेपर जब सभी चराचर प्राणी नष्ट हो जाते हैं, ब्रह्मा आदि देवताओंका भी लय हो जाता है और संसारकी छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ लुप्त हो जाती हैं; तथा सम्पूर्ण भूतोंका क्रमश: लय होकर जब प्रकृतिमें महत्तत््व भी विलीन हो जाता है, उस समय जो एकमात्र शेष रह जाते हैं, वे विश्वात्मा विष्णु मुझपर प्रसन्न हों ।।

चार, चारः, दो, पाँच तथा दोः--इन सत्रह अक्षरोंवाले मन्त्रोंद्वारा जिन्हें आहुति दी जाती है, वे भगवान्‌ विष्णु मुझपर प्रसन्न हों ।।

मेघ, पृथ्वी, सस्य, काल, धर्म, कर्म और कर्मका अभाव--ये सब जिनके स्वरूप हैं, गुणोंके भण्डाररूप वे श्यामवर्ण भगवान्‌ वासुदेव मुझपर प्रसन्न हों ।।

जो अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, तारागण, ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र तथा योगियोंके भी तेजको जीत लेते हैं, वे भगवान्‌ विष्णु मुझपर प्रसन्न हों ।।

योगके आवासस्थान! आपको नमस्कार है। सबके निवासस्थान, वरदायक, यज्ञगर्भ, सुनहरे रंगोंवाले पजचयज्ञमय परमेश्वर! आपको नमस्कार है ।।

आप श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्यम्म और अनिरुद्ध--इन चार रूपोंवाले, परमधामस्वरूप, लक्ष्मीनिवास, परमपूजित, सबके आवासस्थान और प्रकृतिके भी प्रवर्तक हैं। वासुदेव! आपको नमस्कार है ।।

आप अजन्मा हैं, अगम्य मार्ग हैं, निराकार हैं अथवा जगतके सम्पूर्ण आकार आप ही धारण करते हैं, आप ही संहारकारी रुद्र हैं। आप प्रातः, सड्रव, मध्याह्न, अपराह्न और सायाह्न--इन पाँच कालोंको जाननेवाले हैं। ज्ञानसागर! आपको नमस्कार है ।।

जिन अव्यक्त परमात्मासे इस व्यक्त जगतकी उत्पत्ति हुई है, जो व्यक्तसे परे और अविनाशी हैं, जिनसे उत्कृष्ट दूसरी कोई वस्तु नहीं है, उन भगवान्‌ विष्णुकी मैं शरणमें आया हूँ ।।

प्रकृति और महत्तत्त्व--ये दोनों जड हैं। पुरुष चेतन और अजन्मा है। इन दोनों क्षर और अक्षर पुरुषोंसे जो उत्कृष्ट और विलक्षण हैं, उन भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी मैं शरण लेता हूँ ।।

ब्रद्या और शिव आदि देवता जिन भगवानका सदा चिन्तन करते रहनेपर भी उनके स्वरूपके सम्बन्धमें किसी निश्चयतक नहीं पहुँच पाते, उन परमेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ ।

ज्ञानी और ध्यानपरायण जितेन्द्रिय महात्मा जिन्हें पाकर फिर इस संसारमें नहीं लौटते हैं, उन भगवान्‌ श्रीहरिकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।।

 जो सर्वव्यापी परमेश्वर इस सम्पूर्ण जगत्‌को अपने एक अंशसे धारण करके स्थित हैं, जो किसी इन्द्रियविशेषके द्वारा ग्रहण नहीं किये जाते तथा जो निर्गुण एवं नित्य हैं, उन परमात्माकी मैं शरणमें जाता हूँ ।।

आकाशमें जो सूर्य और चन्द्रमाका तेज प्रकाशित होता है तथा तारगणोंकी जो ज्योति जगमगाती रहती है, वह सब जिनका ही स्वरूप है, वे परमात्मा मुझपर प्रसन्न हों ।।

जो समस्त गुणोंके आदि कारण और स्वयं निर्गुण हैं, आदि पुरुष, लक्ष्मीवान्‌ू, चेतन, अजन्मा, सूक्ष्म, सर्वव्यापी तथा योगी हैं, वे महात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों ।।

ज्ञानयोगी, कर्मयोगी तथा जो दूसरे-दूसरे सिद्ध और महर्षि हैं, वे जिन्हें जानकर इस संसारसे मुक्त हो जाते हैं, वे परमात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों ।।

जो अव्यक्त, सबके अधिष्ठाता, अचिन्त्य और सत्‌-असतसे विलक्षण हैं, आधाररहित एवं प्रकृतिसे श्रेष्ठ हैं, वे महात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों ।।

जो जीवात्मारूपसे पाँच ज्ञानेन्द्रियरूपी मुखोंद्वारा शब्द आदि पाँच विषयोंका उपभोग करते हैं तथा स्वयं महान्‌ होकर भी जो गुणोंका अनुभव करते हैं, वे महात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों ।।

जो सूर्यमण्डलमें सोमरूपसे स्थित होते हैं, उस सोमके भीतर जो अलौकिक दीप्ति है, वह जिनका स्वरूप है, वे परमात्मा श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों ।।

सर्वस्वरूप परमेश्वर! आपको सब ओरसे नमस्कार है, आपके सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं। निर्विकार परमात्मन! आपको नमस्कार है। आप प्रत्येक क्षेत्र (शरीर)-में साक्षीरूपसे स्थित हैं ।।

इन्द्रियातीत परमेश्वर! आपको नमस्कार है। व्यक्त लिंगोंद्वारा आपका ज्ञान होना असम्भव है। संसारमें जो आपको नहीं जानते, वे जन्म-मृत्युके चकक्‍्करमें पड़े रहते हैं ।।

जो काम और क्रोधसे मुक्त, राग-द्वेषसे रहित तथा आपके अनन्य भक्त हैं, वे ही आपको जान पाते हैं। जो विषयोंके नरकमें पड़े हुए द्विज हैं, वे आपको नहीं जानते हैं ।।

जो आपके अनन्य भक्त, द्वद्धोंसे रहित तथा निष्काम कर्म करनेवाले हैं, जिन्होंने ज्ञानममयी अग्निसे अपने समस्त कर्मोंको दग्ध कर दिया है, वे आपके प्रति दृढ़ निष्ठा रखनेवाले पुरुष आपमें ही प्रवेश करते हैं ।।

आप शरीरमें रहते हुए भी उससे रहित हैं तथा सम्पूर्ण देहधारियोंमें समभावसे स्थित हैं। जो पुण्य और पापसे मुक्त हैं, वे भक्तजन आपमें ही प्रवेश करते हैं ।।

अव्यक्त प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व), अहंकार, मन, पञ्च महाभूत तथा सम्पूर्ण इन्द्रियाँ सभी आपमें हैं और उन सबमें आप हैं, किंतु वास्तवमें न उनमें आप हैं, न आपमें वे हैं ।

एकत्व, अन्यत्व और नानात्वका रहस्य जो लोग अच्छी तरह जानते हैं, वे आप परमात्माको प्राप्त होते हैं। आप सम्पूर्ण भूतोंमें सम हैं। आपका न कोई द्वेषपात्र है और न प्रिय। मैं अनन्य चित्तसे आपकी भक्तिके द्वारा समत्व पाना चाहता हूँ ।।

चार प्रकारका जो यह चराचर प्राणिसमुदाय है, वह सब आपसे व्याप्त है। जैसे सूतमें मणियाँ पिरोये होते हैं, उसी प्रकार यह सारा जगत्‌ आपमें ही ओत-प्रोत है ।।

आप जगतृके स्रष्टा, भोक्ता और कूटस्थ हैं। तत्त्वरूप होकर भी उससे सर्वथा विलक्षण हैं। आप कर्मके हेतु नहीं हैं। अविचल परमात्मा हैं। प्रत्येक शरीरमें पृथक्‌ू-पृथक्‌ जीवात्मारूपसे आप ही विद्यमान हैं ।।

वास्तवमें प्राणियोंसे आपका संयोग नहीं है। आप भूत, तत्त्व और गुणोंसे परे हैं। अहंकार, बुद्धि और तीनों गुणोंसे आपका कोई सम्बन्ध नहीं है ।।

न आपका कोई धर्म है और न कोई अधर्म। न कोई आरम्भ है न जन्म। मैं जरा-मृत्युसे छुटकारा पानेके लिये सब प्रकारसे आपकी शरणमें आया हूँ ।।

जगन्नाथ! आप ईश्वर हैं, इसीलिये परमात्मा कहलाते हैं। देव! सुरेश्वर! भक्तोंके लिये जो हितकी बात हो, उसका मेरे लिये चिन्तन कीजिये ।।

विषयों और इन्द्रियोंक साथ फिर मेरा कभी समागम न हो। मेरी प्राणेन्द्रिय पृथ्वीतत्त्वमें मिल जाय और रसना जलमें, रूप (नेत्र) अग्निमें, स्पर्श (त्वचा) वायुमें, श्रोत्रेन्द्रिय आकाशमें और मन वैकारिक अहंकारमें मिल जाय ।।

अच्युत! इन्द्रियाँ अपनी-अपनी योनियोंमें मिल जाय, पृथ्वी जलमें, जल अग्निमें, अग्नि वायुमें, वायु आकाशमें, आकाश मनमें, मन समस्त प्राणियोंको मोहनेवाले अहंकारमें, अहंकार बुद्धि (महत्तत्त्व)-में और बुद्धि अव्यक्त प्रकृतिमें मिल जाय ।।

जब प्रधान प्रकृतिको प्राप्त हो जाय और गुणोंकी साम्यावस्थारूप महाप्रलय उपस्थित हो जाय, तब मेरा समस्त इन्द्रियों और उनके विषयोंसे वियोग हो जाय ।।

तात! मैं तुम्हारे लिये परम मोक्षकी आकांक्षा रखता हूँ। आपके साथ मेरा एकीभाव हो जाय। इस संसारमें फिर मेरा जन्म न हो ।।

मृत्युकाल उपस्थित होनेपर मेरी बुद्धि आपमें ही लगी रहे। मेरे प्राण आपमें ही लीन रहें। मेरा आपमें ही भक्तिभाव बना रहे और मैं सदा आपकी ही शरणमें पड़ा रहूँ। इस प्रकार मैं निरन्तर आपका ही स्मरण करता रहूँ ।।

पूर्व शरीरमें मैंने जो दुष्कर्म किये हों, उनके फलस्वरूप रोग-व्याधि मेरे शरीरमें प्रवेश करें और नाना प्रकारके दुःख मुझे आकर सतावें। इन सबका जो मेरे ऊपर ऋण है, वह उतर जाय ।।

देवेश्वर! मैंने इसलिये आपका स्मरण किया है कि फिर मेरा जन्म न हो; अतः फिर कहता हूँ कि मेरे कर्म नष्ट हो जायँ और मुझपर किसीका ऋण बाकी न रह जाय ।।

पूर्व जन्ममें जिन कर्मोका मेरे द्वारा संचय किया गया है, वे सभी रोग मेरे शरीरमें उपस्थित हो जायेँ। मैं सबसे उक्रण होकर भगवान्‌ विष्णुके परम धामको जाना चाहता हूँ ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--नारद! मैं उस सौभाग्यशाली भक्तका हूँ और वह भक्त भी मेरा सनातन सखा है। मैं उसके लिये कभी अदृश्य नहीं होता और न वही कभी मेरी दृष्टिसे ओझल होता है ।।

साधक पाँच कर्मेन्द्रियों तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियोंको संयममें रखकर उन दसों इन्द्रियोंको मनमें विलीन करे। मनको अहंकारमें, अहंकारको बुद्धिमें और बुद्धिको आत्मामें लगावे ।।

पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंकोी संयममें रखकर बुद्धिके द्वारा परात्पर परमात्माका अनुभव करे कि यह परमेश्वर मेरा है और मैं इसका हूँ, तथा इसीने इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है ।।

स्वयं ही अपने-आपको परमात्माके ध्यानमें लगाकर निरन्तर उनका स्मरण करे, तदनन्तर बुद्धिसे भी परे परमात्माको जानकर मनुष्य फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता। जो मृत्युकाल आनेपर इस प्रकार मेरा स्मरण करता है, वह पुरुष पहलेका पापाचारी रहा हो तो भी परम गतिको प्राप्त होता है ।।

समस्त देहधारियोंके परमात्मा तथा भक्तोंके प्रति एकमात्र निष्ठा रखनेवाले उन सनातन भगवान्‌ नारायणको नमस्कार है ।।

यह दिव्य वैष्णवी-अनुस्मृति विद्या है। मनुष्य एकाग्रचित्त होकर सोते, जागते और स्वाध्याय करते समय जहाँ कहीं भी इसका जप करता रहे ।।

पूर्णिमा, अमावास्या तथा विशेषत: द्वादशी तिथिको मेरे श्रद्धालु भक्तोंको इसका श्रवण करावे ।।

यदि कोई अहंकारका आश्रय लेकर यज्ञ, दान और तपरूप कर्म करे तो उसका फल उसे मिलता है। परंतु वह आवागमनके चक्‍्करमें डालनेवाला होता है ।।

जो देवताओं और पितरोंकी पूजा, पाठ, होम और बलिवैश्वदेव करते तथा अग्निमें आहुति देते समय मेरा स्मरण करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है ।।

यज्ञ, दान और तप--ये मनीषी पुरुषोंकों पवित्र करनेवाले हैं; अतः यज्ञ, दान और तपका निष्कामभावसे अनुष्ठान करे ।।

नारद! जो मेरा भक्त श्रद्धापूर्वक मेरे लिये केवल नमस्कारमात्र बोल देता है, वह चाण्डाल ही क्यों न हो, उसे अक्षयलोककी प्राप्ति होती है ।।

फिर जो साधक मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर मेरे आश्रित हो श्रद्धा और विधिके साथ मेरी आराधना करते हैं, वे मुझे ही प्राप्त होते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है? ।।

देवर्षे! सारे कर्म और उनके फल आदि-अन्तवाले हैं; परंतु मेरा भक्त अन्तवान्‌ (विनाशशील) फलका उपभोग नहीं करता; अतः तुम सदा आलस्यरहित होकर मेरा ही ध्यान करो। इससे तुम्हें परम सिद्धि प्राप्त होगी और तुम मेरे परमधामका दर्शन कर लोगे ।।

जो धर्मोपदेशके द्वारा अज्ञानी पुरुषको ज्ञान प्रदान करता है अथवा जो किसीको समूची पृथ्वीका दान कर देता है तो उस ज्ञानदानका फल इस पृथ्वीदानके बराबर ही माना जाता है ।।

नरश्रेष्ठ नारद! इसलिये साधु पुरुषोंको जन्म और बन्धनके भयको दूर करनेवाला ज्ञान ही देना चाहिये। इस प्रकार ज्ञान देकर मनुष्य कल्याण और बल प्राप्त करता है ।।

जो दस लाख अभश्वमेध-यज्ञोंका अनुष्ठान कर ले, वह भी उस पदको नहीं पा सकता, जो मेरे भक्तोंको प्राप्त हो जाता है ।।

भीष्मजी कहते हैं--सुव्रत! इस प्रकार पूर्वकालमें देवर्षि नारदके पूछनेपर कल्याणमय भगवान्‌ विष्णुने उस समय जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हें बता दिया ।।

तुम भी एकचित्त होकर उन गुणातीत परमात्माका ध्यान करो और सम्पूर्ण भक्तिभावसे उन्हीं अविनाशी परमात्माका भजन करो ।।

भगवान्‌ नारायणका कहा हुआ यह दिव्य वचन सुनकर अत्यन्त भक्तिमान्‌ देवर्षि नारद भगवानके प्रति एकाग्रचित्त हो गये ।।

जो पुरुष अनन्यभावसे दस वर्षोतक ऋषि-प्रवर नारायणदेवका ध्यान करते हुए इस मन्त्रका जप करता है, वह भगवान्‌ विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लेता है ।।

जिसकी भगवान्‌ जनार्दनमें भक्ति है, उसे बहुत-से मन्त्रोंद्वारा क्या लेना है? ॐ नमो नारायणाय” यह एकमात्र मन्त्र ही सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला है ।।

इस परम गोपनीय अनुस्मृति विद्याका स्वाध्याय करके मनुष्य भगवानके प्रति दृढ़ निष्ठा रखनेवाली बुद्धि प्राप्त कर लेता है। वह सारे दुःखोंको दूर करके संकटसे मुक्त एवं वीतराग हो इस पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करता है ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें भूमिके भीतर भगवान्‌ वाराहकी क्रीड़ानामक दो सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 (दाक्षिणात्य अधिक पाठके ८६½ श्लोक मिलाकर कुल १२२½ “लोक हैं)

टिका टिप्पणी - 

  • इस श्लोकमें वर्णित भावके अनुसार सनातन शब्दकी व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये--नादनेन सहितः सनादन:। दकार के स्थान में तकार हो छान्दस:। जो नादके साथ हो, वह 'सनादन” कहलाता है। सनादनके दकारके स्थानमें तकार हो जानेसे “सनातन” बनता है।
  • १. आश्रावय, २. अस्तु श्रौषट्‌, ३. यज, ४. ये यजामहे, ५. वषट्‌।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ दसवें अध्याय के श्लोक 1-122½ का हिन्दी अनुवाद)

“गुरु-शिष्यके संवादका उल्लेख करते हुए श्रीकृष्ण-सम्बन्धी अध्यात्मतत्त्वका वर्णन”

युधिष्ठिरने कहा--वक्ताओंमें श्रेष्ठ तात भरतनन्दन! आप मुझे मोक्षके साधनभूत परम योगका उपदेश कीजिये। मैं उसे यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ ।। १ ।।

भीष्मजी बोले--राजन्‌! इस विषयमें एक शिष्यका गुरुके साथ जो मोक्षसम्बन्धी संवाद हुआ था, उसी प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है || २ ।।

किसी समयकी बात है, एक दिद्वान्‌ ब्राह्मण श्रेष्ठ आसनपर विराजमान थे। वे आचार्यकोटिके पण्डित और श्रेष्ठतम महर्षि थे। देखनेमें महान्‌ तेजकी राशि जान पड़ते थे। बड़े महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे। एक दिन उनकी सेवामें कोई परम मेधावी कल्याणकामी एवं समाहितचित्त शिष्य आया (जो चिरकालतक उनकी शुश्रूषा कर चुका था), वह उनके दोनों चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़ सामने खड़ा हो इस प्रकार बोला -- || ३-४ ||

“भगवन्‌! यदि आप मेरी सेवासे प्रसन्न हैं तो मेरे मनमें जो एक बड़ा भारी संदेह है, उसे दूर करनेकी कृपा करें--मेरे प्रश्नकी विशद व्याख्या करें। मैं इस संसारमें कहाँसे आया हूँ और आप भी कहाँसे आये हैं? यह भलीभाँति समझाकर बताइये। इसके सिवा जो परम तत्त्व है, उसका भी विवेचन कीजिये ।। ५ ।।

द्विजश्रेष्ठ! पृथ्वी आदि सम्पूर्ण महाभूत सर्वत्र समान हैं; सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर उन्हींसे निर्मित हुए हैं तो भी उनमें क्षय और वृद्धि--ये दोनों विपरीतभाव क्‍यों होते हैं? ।। ६ ।।

“वेदों और स्मृतियोंमें भी जो लौकिक और व्यापक धर्मोका वर्णन है, उनमें भी विषमता है। अतः विद्वन्‌! इन सबकी आप यथार्थरूपसे व्याख्या करें" || ७ ।।

गुरुने कहा--वत्स! सुनो। महामते! तुमने जो बात पूछी है, वह वेदोंका उत्तम एवं गूढ़ रहस्य है। यही अध्यात्मतत्त्व है तथा यही समस्त विद्याओं और शास्त्रोंका सर्वस्व है ।। ८ ।।

सम्पूर्ण वेदका मुख जो प्रणव है वह तथा सत्य, ज्ञान, यज्ञ, तितिक्षा, इन्द्रिय-संयम, सरलता और परम तत्त्व--यह सब कुछ वासुदेव ही है ।। ९ ।।

वेदज्ञजन उसीको सनातन पुरुष और विष्णु भी मानते हैं। वही संसारकी सृष्टि और प्रलय करनेवाला अव्यक्त एवं सनातन ब्रह्म है ।। १० ।।

वही ब्रह्म वृष्णिकुलमें श्रीकृष्णरूपमें अवतीर्ण हुआ, इस कथाको तुम मुझसे सुनो। ब्राह्मण ब्राह्मणको, क्षत्रिय क्षत्रियको, वैश्य वैश्यको तथा शूद्र महामनस्वी शूद्रको, अमित तेजस्वी देवाधिदेव विष्णुका माहात्म्य सुनावे || ११-१२ ।।

तुम भी यह सब सुननेके योग्य अधिकारी हो; अतः भगवान्‌ श्रीकृष्णका जो कल्याणमय उत्कृष्ट माहात्म्य है, उसे सुनो। यह जो सृष्टि-प्रलयरूप अनादि, अनन्त कालचक्र है, वह श्रीकृष्णका ही स्वरूप है। सर्वभूतेश्वर श्रीकृष्णमें ये तीनों लोक चक्रकी भाँति घूम रहे हैं || १३ ६ ।।

पुरुषसिंह! पुरुषोत्तम श्रीकृष्णको ही अक्षर, अव्यक्त, अमृत एवं सनातन परब्रह्म कहते हैं ।। १४ ।।

ये अविनाशी परमात्मा श्रीकृष्ण ही पितर, देवता, ऋषि, यक्ष, राक्षस, नाग, असुर और मनुष्य आदिकी रचना करते हैं || १५ ।।

इसी प्रकार प्रलयकाल बीतनेपर कल्पके आरम्भमें प्रकृतिका आश्रय ले भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही ये वेद-शास्त्र और सनातन लोक-धर्मोंको पुनः प्रकट करते हैं ।। १६ ।।

जैसे ऋतु-परिवर्तनके साथ ही भिन्न-भिन्न ऋतुओंके नाना प्रकारके वे-ही-वे लक्षण प्रकट होते रहते हैं, वैसे ही प्रत्येक कल्पके आरम्भमें पूर्व कल्पोंके अनुसार तदनुरूप भावोंकी अभिव्यक्ति होती रहती है ।।

काल-क्रमसे युगादिमें जब-जब जो-जो वस्तु भासित होती है, लोक-व्यवहारवश तबतब उसी-उसी विषयका ज्ञान प्रकट होता रहता है ।। १८ ।।

कल्पके अन्तमें लुप्त हुए वेदों और इतिहासोंको कल्पके आरम्भमें स्वयम्भू ब्रह्माके आदेशसे महर्षियोंने तपस्याद्वारा सबसे पहले उपलब्ध किया था ॥। १९ |।

उस समय स्वयं भगवान्‌ ब्रह्माको वेदोंका, बृहस्पतिजीको वेदांगोंका और शुक्राचार्यको नीति-शास्त्रका ज्ञान हुआ तथा उन लोगोंने जगत्‌के हितके लिये उन सब विषयोंका उपदेश किया ।। २० ||

नारदजीको गान्धर्व वेदका, भरद्वाजको धरनुर्वेदका, महर्षि गार्ग्यको देवर्षियोंके चरित्रका तथा कृष्णात्रेयको चिकित्साशास्त्रका ज्ञान हुआ || २१ ||

तर्कशील दिद्वानोंने तर्कशास्त्रके अनेक ग्रन्थोंका प्रणणन किया। उन महर्षियोंने युक्तियुक्त शास्त्र और सदाचारके द्वारा जिस ब्रह्मका उपदेश किया है, उसीकी तुम भी उपासना करो ।। २२ ।।

वह परब्रह्म अनादि और सबसे परे है। उसे न देवता जानते हैं न ऋषि। उसे तो एकमात्र जगत्पालक नारायण ही जानते हैं || २३ ।।

नारायणसे ही ऋषियों, मुख्य-मुख्य देवताओं, असुरों तथा प्राचीन राजर्षियोंने उस ब्रह्मको जाना है; वह ब्रह्म-ज्ञान ही समस्त दुःखोंका परम औषध है ।। २४ ।।

पुरुषद्वारा संकल्पमें लाये गये विविध पदार्थोकी रचना प्रकृति ही करती है। इस प्रकृतिसे सर्वप्रथम कारणसहित जगत्‌ उत्पन्न होता है || २५ ।।

जैसे एक दीपकसे दूसरे सहस्रों दीप जला लिये जाते हैं और पहले दीपकको कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार एक प्रकृति ही असंख्य पदार्थोंको उत्पन्न करती है और अनन्त होनेके कारण उसका क्षय नहीं होता ।।

अव्यक्त प्रकृतिमें क्षोभ होनेपर जिस बुद्धि (महत्तत्त्व) की उत्पत्ति होती है, वह बुद्धि अहंकारको जन्म देती है। अहंकारसे आकाश और आकाशसे वायुकी उत्पत्ति होती है।

वायुसे अग्निकी, अग्निसे जलकी और जलसे पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार ये आठ मूल-प्रकृतियाँ बतायी गयी हैं। इन्हींमें सम्पूर्ण जगत्‌ प्रतिष्ठित है । २८ ।।

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच विषय और एक मन--ये सोलह विकार कहे गये हैं। (इनमें मन तो अहंकारका विकार है और अन्य पन्द्रह अपने-अपने कारणरूप सूक्ष्म महाभूतोंके विकार हैं) ।। २९ ।।

श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्ला और नासिका--ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ, पैर, गुदा, उपस्थ (लिंग) और वाक्‌ू--ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं ।। ३० ।।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध--ये पाँच विषय हैं तथा इनमें व्यापक जो चित्त है, उसीको मन समझना चाहिये। मन सर्वगत कहा गया है ।। ३१ ।।

रस-ज्ञानके समय मन ही यह रसना (जिह्ला)-रूप हो जाता है तथा बोलनेके समय वह मन ही वागिन्द्रिय कहलाता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंके साथ मिलकर उन सबके रूपमें मन ही व्यका होता है ।।

दस इन्द्रिय, पञजच महाभूत और एक मन--ये सोलह तत्त्व इस शरीरमें विभागपूर्वक रहते हैं। इनको देवतारूप जानना चाहिये। शरीरके भीतर जो ज्ञान प्रकट करनेवाला परमात्माके निकटस्थ जीवात्मा है, उसकी ये सोलहों देवता उपासना करते हैं ।। ३३ ।।

जिह्नला जलका कार्य है, प्राणेन्द्रिय पृथ्वीका कार्य है, श्रवणेन्द्रिय आकाशका और नेत्रेन्द्रिय अग्निका कार्य है तथा सम्पूर्ण भूतोंमें त्वचा नामकी इन्द्रियको सदा वायुका कार्य समझना चाहिये ।। ३४ ।।

मनको महत्तत्त्वका कार्य कहा है और महत्तत्त्वको अव्यक्त प्रकृतिका कार्य कहा है। अतः बुद्धिमान्‌ पुरुषको चाहिये कि वह समस्त भूतोंके आत्मारूप परमेश्वरको समस्त प्राणियोंमें स्थित जाने || ३५ ।।

इस प्रकार ये सम्पूर्ण पदार्थ समस्त चराचर जगत्‌का भार वहन करते हैं। ये सब जो प्रकृतिसे अतीत रजोगुणरहित हैं, उस परमदेव परमात्माके आश्रित हैं ।।

इन्हीं चौबीस पदार्थोंसे सम्पन्न इस नौ द्वारोंवाले पवित्र पुर (शरीर)-को व्याप्त करके इसमें इन सबसे जो महान्‌ है वह आत्मा शयन करता है; इसलिये उसे “पुरुष” कहते हैं ।। ३७ ।।

वह पुरुष जरा-मरणसे रहित, व्यापक, समस्त स्थूल-सूक्ष्म तत्त्वोंका प्रेरक, सर्वज्ञत्व आदि गुणोंसे युक्त, सूक्ष्म तथा सम्पूर्ण भूतों और उनके गुणोंका आश्रय है ।। ३८ ।॥।

जैसे दीपक छोटा हो या बड़ा, प्रकाशस्वरूप ही है, उसी प्रकार समस्त प्राणियोंमें स्थित जीवात्मा ज्ञानस्वरूप है, ऐसा समझे ।। ३९ |।

वही श्रवणेन्द्रियको उसके ज्ञेयभूत शब्दका बोध कराता है। तात्पर्य यह कि श्रवण और नेत्रोंद्राय वही सुनता और देखता है। यह शरीर उसके शब्द आदि विषयोंके अनुभवमें निमित्त है। वह जीवात्मा ही समस्त कर्मोका कर्ता है || ४० ।।

जिस प्रकार अग्नि काष्ठमें व्याप्त रहनेपर भी काष्ठके चीरनेपर भी उसमें दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार आत्मा शरीरमें रहता है, परंतु दिखायी नहीं देता--योगसे ही उसका दर्शन होता है। जैसे मन्थन आदि उपायोंद्वारा काष्ठको मथकर उनमें अग्निको प्रत्यक्ष किया जाता है, उसी प्रकार योगके द्वारा शरीरस्थ आत्माका साक्षात्कार किया जा सकता है || ४१-४२ ।।

जैसे नदियोंमें जल रहता ही है और सूर्यमें किरणें भी रहती ही हैं तथा वे जल और किरणें नदी और सूर्यसे नित्य सम्बद्ध होनेके कारण उनके साथ-साथ जाती हैं, उसी प्रकार देहधारियोंके सूक्ष्म शरीर भी जीवात्माके साथ ही रहते हैं और उसे साथ लेकर ही आतेजाते हैं || ४३ ।।

जैसे स्वप्नमें पाँच ज्ञानेन्द्रियोंसहित जीवात्मा इस शरीरको छोड़कर अन्यत्र चला जाता है, वैसे ही मृत्युके बाद भी वह इस शरीरको छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण कर लेता है || ४४ ।।

कर्मके द्वारा ही इस देहका बाध होता है; कर्मसे ही अन्य देहकी उपलब्धि होती है तथा अपने किये हुए प्रबल कर्मके द्वारा ही वह अन्य शरीरमें ले जाया जाता है || ४५ ।।

वह जीवात्मा जिस प्रकार एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण करता है तथा अपने कर्मोसे उत्पन्न हुआ प्राणिसमुदाय जिस प्रकार अन्य देह धारण करता है, वह सब मैं तुम्हें बतलाता हूँ ।। ४६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसम्बन्धी अध्यात्मतत््वका निरूपणविषयक दो सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें