सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ छठवें अध्याय से दो सौ आठवें अध्याय तक (From the 206 chapter to the 208 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ छठावाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ छठवें अध्याय के श्लोक 1-32 का हिन्दी अनुवाद)

“परमात्मतत्त्वका निरूपण--मनु-बृहस्पति-संवादकी समाप्ति”

मनुजी कहते हैं--बृहस्पते! जिस समय मनुष्य शब्द आदि पाँच विषयोंसहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और मनको काबूमें कर लेता है, उस समय वह मणियोंमें ओतप्रोत तागेके समान सर्वत्र व्याप्त परब्रह्मका साक्षात्कार कर लेता है ।। १ ।।

जैसे वही तागा सोनेकी लड़ियोंमें, मोतियोंमें, मूँगोंमें और मिट्टीकी मालाके दानोंमें ओतप्रोत होकर सुशोभित होता है, उसी प्रकार एक ही परमात्मा गौ, अश्व, मनुष्य, हाथी, मृग और कीट-पतंग आदि समस्त शरीरोंमें व्याप्त है! विषयासक्त जीवात्मा अपने-अपने कर्मके अनुसार भिन्न-भिन्न शरीर धारण करता है ।।

यह मनुष्य जिस-जिस शरीरसे जो-जो कर्म करता है, उस-उस शरीरसे उसी-उसी कर्मका फल भोगता है ।। ४ ।।

जैसे भूमिमें एक ही रस होता है तो भी उसमें जैसा बीज बोया जाता है, उसीके अनुसार वह उसमें रस उत्पन्न करती है, उसी तरह अन्तरात्मासे ही प्रकाशित बुद्धि पूर्वजन्मके कर्मोके अनुसार ही एक शरीरसे दूसरे शरीरको प्राप्त होती है ।। ५ ।।

मनुष्यको पहले तो विषयका ज्ञान होता है; फिर उसके मनमें उसे पानेकी इच्छा उत्पन्न होती है। उसके बाद “इस कार्यको सिद्ध करूँ” यह निश्चय और प्रयत्न आरम्भ होता है। फिर कर्म सम्पन्न होता और उसका फल मिलता है ।। ६ ।।

इस प्रकार फलको कर्मस्वरूप समझे। कर्मको जाननेमें आनेवाले पदार्थोका रूप समझे और ज्ञेयको ज्ञानरूप समझे तथा ज्ञानका स्वरूप कार्य और कारण जाने ।। ७ ।

ज्ञान, फल, ज्ञेय और कर्म--इन सबका अन्त होनेपर जो प्राप्तव्य फलरूपसे शेष रहता है, उसको ही तुम ज्ञेयमात्रमें व्याप्त होकर स्थित हुआ ज्ञानस्वरूप परमात्मा समझो || ८ ।।

उस परम महान्‌ तत्त्वको योगिजन ही देख पाते हैं। विषयोंमें आसक्त अज्ञानी मनुष्य अपने भीतर ही विराजमान उस परब्रह्म परमात्माको नहीं देख सकते हैं ।। ९ ।।

इस जगतमें पृथ्वीके रूपसे जलका ही रूप महान्‌ है। जलसे तेज अति महान है, तेजसे पवन महान्‌ है, पवनसे आकाश महान्‌ है, आकाशसे मन परतर है अर्थात्‌ सूक्ष्म, श्रेष्ठ और महान्‌ है। मनसे बुद्धि महान्‌ है, बुद्धिसे काल अर्थात्‌ प्रकृति महान्‌ है और कालसे भगवान्‌ विष्णु अनन्त, सूक्ष्म, श्रेष्ठ और महान्‌ हैं। यह सारा जगत्‌ उन्हींकी सृष्टि है। उन भगवान्‌ विष्णुका न कोई आदि है, न मध्य है और न अन्त ही है ।।

वे आदि, मध्य और अन्तसे रहित होनेके कारण ही अविनाशी हैं; अतएव सम्पूर्ण दुःखोंसे परे हैं, क्योंकि विनाशशील वस्तु ही दुःखरूप हुआ करती है ।। १३ ।।

अविनाशी विष्णु ही परब्रह्म कहे जाते हैं। वे ही परमधाम और परमपद हैं। उन्हें प्राप्त कर लेनेपर जीव कालके राज्यसे मुक्त हो मोक्षधाममें स्थित हो जाते हैं ।।

ये वध्य जीव गुणोंमें अर्थात्‌ गुणोंके कार्यरूप शरीर आदिके सम्बन्धसे व्यक्त हो रहे हैं; परंतु परमात्मा निर्मुण होनेके कारण उनसे अत्यन्त परे हैं। जो निवृत्तिरूप धर्म (निष्काम कर्म) है, वह अक्षय पद (मोक्ष) की प्राप्ति करानेमें समर्थ है ।। १५ ।।

ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद--ये अध्ययनकालमें शरीरके आश्रित रहते हैं और जिह्वाके अग्रभागपर प्रकट होते हैं; इसीलिये वे यत्नसाध्य और विनाशशील हैं अर्थात्‌ इनका लुप्त होना स्वाभाविक है ।। १६ ।।

किंतु परब्रह्म परमात्मा इस प्रकार शरीरका आश्रय लेकर प्रकट होनेपर भी वेदाध्ययनकी भाँति यत्नसाध्य नहीं है; क्योंकि उनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है ।।

वही ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदका आदि कहलाता है। जिनका कोई आदि होता है, उन पदार्थोंका अन्त होता देखा गया है। ब्रह्मका कोई भी आदि नहीं बताया गया है ।।

वह अनादि और अनन्त होनेके कारण अक्षय और अविनाशी है। अविनाशी होनेसे ही दुःखरहित है। उसमें हर्ष और शोक आदि द्वल्धोंका अभाव है; अतएव वह सबसे परे है ।। १९ ||

परंतु दुर्भाग्य, साधनहीनता और कर्मफलविषयक आसक्तिके कारण जिससे परमात्माकी प्राप्ति होती है, मनुष्य उस मार्गका दर्शन नहीं कर पाते हैं || २० ।।

मनुष्योंकी विषयोंमें आसक्ति है; क्योंकि विषय-सुख सदा रहनेवाले हैं; ऐसी उनकी भावना है तथा वे अपने मनसे सांसारिक पदार्थोंको पानेकी इच्छा रखते हैं; इसीलिये उन्हें परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती है ।।

संसारी मनुष्य इस संसारमें जिन-जिन विषयोंको देखते हैं, उन्हींको पाना चाहते हैं। सर्वश्रेष्ठ परब्रह्म परमात्मा हैं, उन्हें पानेके लिये उनके मनमें इच्छा नहीं होती है; क्योंकि वे गुणार्थी (विषयाभिलाषी) होते हैं और परमात्मा निर्गुण (गुणातीत) हैं | २२ ।।

भला, जो इन तुच्छ विषयोंमें फँसा हुआ है, वह परमदिव्य गुणोंको कैसे जान सकता है? जैसे धूमसे अग्निका अनुमान होता है, उसी प्रकार नित्यत्व आदि स्वरूपभूत दिव्य गुणोंद्वारा परब्रह्म परमात्माके स्वरूपका दिग्दर्शन हो सकता है ।। २३ ।।

हम ध्यानद्वारा शुद्ध और सूक्ष्म हुए मनसे परमात्माके स्वरूपका अनुभव तो कर सकते हैं, किंतु वाणीद्वारा उसका वर्णन नहीं कर सकते; क्योंकि मनके द्वारा ही मानसिक विषयका ग्रहण हो सकता है और ज्ञानके द्वारा ही ज्ञेयको जाना जा सकता है ।। २४ ।।

इसलिये ज्ञानके द्वारा बुद्धिको, बुद्धिके द्वारा मनको तथा मनके द्वारा इन्द्रियसमुदायको निर्मल एवं शुद्ध करके अविनाशी परमात्माको प्राप्त किया जा सकता है ।।

बुद्धिमें प्रवीण अर्थात्‌ विशुद्ध और सूक्ष्म बुद्धिसे सम्पन्न एवं मानसिक बलसे युक्त हुआ पुरुष, समस्त इच्छासे अतीत निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त होता है। जैसे वायु काठमें रहनेवाले अदृश्य अग्निको बिना प्रज्वलित किये ही छोड़ देता है, वैसे ही कामनाओंसे विकल हुए पुरुष भी अपने शरीरके भीतर स्थित परमात्माका त्याग कर देते हैं अर्थात्‌ उसे जानने और पानेकी चेष्टा नहीं करते ।।

जब साधक साधनरूप गुणोंकोी धारण कर लेता है और उन सांसारिक पदार्थोंसे मनको हटा लेता है, तब उसका मन बुद्धिजन्य अच्छे-बुरे भावोंसे रहित होकर निरन्तर निर्मल रहता है। इस प्रकार साधनमें लगा हुआ साधक जब गुणोंसे अतीत हो जाता है, तब ब्रह्मके स्वरूपका साक्षात्‌ कर लेता है || २७ ।।

पुरुषका आत्मा (वास्तविक स्वरूप) अव्यक्त है और उसके कर्म शरीररूपमें व्यक्त हैं। अतः वह अन्तकालमें अव्यक्तभावको प्राप्त हो जाता है। परंतु कामनाओंसे तद्गरूप हुआ वह जीव उन बढ़ी हुई विषयप्रबल इन्द्रियोंसे युक्त होकर पुनः संसारमें आ जाता है अर्थात्‌ पुनः शरीरको धारण कर लेता है ।। २८ ।।

सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे संयुक्त होकर यह देहधारी जीव पंचभूतस्वरूप शरीरके आश्रित हो जाता है। ज्ञान और उपासना आदिकी शक्तिके बिना वह केवल कर्मोद्वारा परमात्माको नहीं पाता। अतः वह उस अविनाशी परमेश्वरसे वंचित रह जाता है ।। २९ ।।

इस भूतलपर रहनेवाला मनुष्य यद्यपि इस पृथ्वीका अन्त नहीं देखता है तो भी कहींन-कहीं इसका अन्त अवश्य है, ऐसा समझो। जैसे समुद्रमें लहरोंद्वारा ऊपर-नीचे होते हुए जहाजको प्रवाहके अनुकूल बहती हुई हवा तटपर लगा देती है, उसी प्रकार संसारसमुद्रमें गोता लगाते हुए मनुष्यको अनुकूल वातावरण संसारसागरसे पार कर देता है ।।

सम्पूर्ण जगत्‌का प्रकाशक सूर्य प्रकाशरूपी गुणको पाकर भी अस्ताचलको जाते समय अपने किरणसमूहको समेटकर जैसे निर्गुण हो जाता है, उसी प्रकार भेदभावसे रहित हुआ मुनि यहाँ अविनाशी निर्गुण ब्रह्ममें प्रवेश कर जाता है || ३१ ।।

जो कहींसे आया हुआ नहीं है, नित्य विद्यमान है, पुण्यवानोंकी परमगति है, स्वयम्भू (अजन्मा) है, सबकी उत्पत्ति और प्रलयका स्थान है, अविनाशी एवं सनातन है, अमृत, अविकारी एवं अचल है, उस परमात्माका ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य परममोक्षको प्राप्त कर लेता है ।। ३२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादरूप दो सौ छठावाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ सातवें अध्याय के श्लोक 1-49 का हिन्दी अनुवाद)

“श्रीकृष्णसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिका तथा उनकी महिमाका कथन”

युधिष्ठिरने कहा--भरतश्रेष्ठ! महाप्राज्ञ पितामह! कमलनयन भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, सबके कर्ता, अकृत (नित्य सिद्ध), सर्वव्यापी तथा सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान हैं। ये कभी किसीसे पराजित नहीं होते। ये ही नारायण, हृषीकेश, गोविन्द और केशव--इन नामोंसे भी विख्यात हैं। मैं इनके स्वरूपका तात्विक विवेचन सुनना चाहता हूँ ।।

भीष्मजी बोले--युधिष्ठिर! मैंने इस विषयका विवेचन जमदग्निनन्दन परशुराम, देवर्षि नारद तथा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीके मुँहसे सुना है ।। ३ ।।

तात! असित, देवल, महातपस्वी वाल्मीकि और महर्षि मार्कण्डेयजी भी इन भगवान्‌ गोविन्दके विषयमें बड़ी अदभुत बातें कहा करते हैं ।। ४ ।।

भरतश्रेष्ठ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके ईश्वर और प्रभु हैं। श्रुतिमें 'पुरुष एवेदँ सर्वम्‌'इत्यादि वचनोंद्वारा इन्हीं सर्वव्यापी श्रीकृष्णकी महिमाका नाना प्रकारसे निरूपण किया गया है || ५ ।।

महाबाहु युधिष्ठिर! जगत्‌में शार्इ्रधनुष धारण करनेवाले श्रीकृष्णके जिन माहात्म्योंको ब्राह्मणलोग जानते हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो || ६ ।।

नरेन्द्र! पुराणवेत्ता पुरुष गोविन्दकी जिन-जिन लीलाओं तथा चरित्रोंका वर्णन करते हैं, उनका मैं यहाँ वर्णन करूँगा ।। ७ ।।

सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा महात्मा पुरुषोत्तमने आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-इन पाँच महाभूतोंकी रचना की है ।। ८ ।।

सर्वभूतेश्वर, प्रभु, महात्मा पुरुषोत्तमने इस पृथ्वीकी सृष्टि करके जलमें ही अपना निवासस्थान बनाया ।। ९ |।

उसमें शयन करते हुए सर्वतेजोमय पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने मनसे ही सम्पूर्ण प्राणियोंके अग्रज तथा आश्रय संकर्षणको उत्पन्न किया, यह हमने सुना है ।।

वे संकर्षण ही समस्त भूतोंको धारण करते है तथा वे ही भूत और भविष्यके भी आधार हैं। उन महाबाहु महात्मा संकर्षणका प्रादुर्भाव होनेके पश्चात्‌ श्रीहरिकी नाभिसे एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जो सूर्यके समान प्रकाशमान था || ११-१२ ।।

तात! उस कमलसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित करते हुए समस्त प्राणियोंके पितामह देवस्वरूप भगवान्‌ ब्रह्मा उत्पन्न हुए || १३ ।।

उन महाबाहु महात्मा ब्रह्माजीकी भी उत्पत्ति हो जानेपर वहाँ तमोगुणसे मधुनामक महान्‌ असुर प्रकट हुआ, जो असुरोंका पूर्वज था ।। १४ ।।

उसका स्वभाव बड़ा ही उग्र था। वह सदा ही भयानक कर्म करनेवाला था। भयंकर कर्म करनेका निश्चय लेकर आये हुए उस असुरको पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णुने ब्रह्माजीका हित करनेके लिये मार डाला || १५ |।

तात! उस मधुका वध करनेके कारण ही सम्पूर्ण देवता, दानव और मानव--इन सर्वसात्वतशिरोमणि श्रीकृष्णको मधुसूदन कहते हैं ।। १६ ।।

ब्रह्माजीने सात मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया, जिनमें दक्ष प्रजापति सातवें थे (ये ही सबसे प्रथम उत्पन्न हुए थे)। शेष छः पुत्रोंके नाम इस प्रकार हैं--मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु || १७ ।।

तात! इन छ: पुत्रोंमें सबसे बड़े थे मरीचि। उन्होंने अपने मनसे ही ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ कश्यप नामक श्रेष्ठ पुत्रको जन्म दिया, जो बड़े ही तेजस्वी हैं || १८ ।।

भरतमश्रेष्ठ! ब्रह्माजीने दक्षको अपने अँगूठेसे उत्पन्न किया था। वे मरीचिसे भी बड़े थे। इसीलिये प्रजापतिके पदपर दक्ष प्रतिष्ठित हुए || १९ ।।

भरतनन्दन! प्रजापति दक्षके पहले तेरह कन्याएँ उत्पन्न हुईं, जिनमें दिति सबसे बड़ी थी ।। २० ।।

तात! सम्पूर्ण धर्मोंके विशेषज्ञ, पुण्यकीर्ति, महायशस्वी मरीचिनन्दन कश्यप उन सब कन्याओंके पति हुए ।। २१ ।।

तदनन्तर धर्मके ज्ञाता महाभाग प्रजापति दक्षने दस कन्याएँ और उत्पन्न कीं, जो पूर्वोक्त तेरह कनन्‍्याओंसे छोटी थीं। उन सबका विवाह उन्होंने धर्मके साथ कर दिया ।। २२ ।।

भरतनन्दन! धर्मके वसु, अमित तेजस्वी रुद्र, विश्वेदेव, साध्य तथा मरुदगण--ये बहुतसे पुत्र हुए ।।

तत्पश्चात्‌ दक्षके अन्य सत्ताईस कन्याएँ हुईं, जो पूर्वोक्त कन्‍्याओंसे छोटी थीं। महाभाग सोम उन सबके पति हुए। इन सबके अतिरिक्त भी दक्षके बहुत-सी कन्याएँ हुईं, जिन्होंने गन्धर्वों, अश्वों, पक्षियों, गौओं, किम्पुरुषों, मत्स्यों, उद॒भिज्जों और वनस्पतियोंको जन्म दिया ।। २४-२५ ।।

अदितिने देवताओंमें श्रेष्ठ महाबली आदित्योंको उत्पन्न किया। उन आदित्योंमें सर्वव्यापी भगवान्‌ गोविन्द भी वामनरूपसे प्रकट हुए ।। २६ ।।

उनके विक्रमसे अर्थात्‌ विराट्रूप धारणकर तीन पैडमें त्रिलोकीको नाप लेनेके कारण देवताओंकी श्रीवृद्धि हुई। दानव पराजित हुए तथा दैत्यों और असुरोंकी प्रजा भी पराभवको प्राप्त हुई |। २७ ।।

दनुने दानवोंको जन्म दिया, जिनमें विप्रचित्ति आदि दानव प्रमुख थे। दिति समस्त असुरों--महान्‌ शक्तिशाली दैत्योंकी जननी हुई ।। २८ ।।

इन्हीं श्रीमधुसूदनने दिन-रात, ऋतुके अनुसार काल, पूर्वाह्न तथा अपराह्न आदि समस्त काल-विभागकी व्यवस्था की ।। २९ ।।

उन्होंने ही अपने मनके संकल्पसे मेघों, स्थावर-जंगम प्राणियों तथा समस्त पदार्थोसहित महान्‌ तेजसे संयुक्त समूची पृथ्वीकी सृष्टि की || ३० ।।

युधिष्ठिर! तदनन्तर महाभाग श्रीकृष्णने पुनः सैकड़ों श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको मुखसे ही उत्पन्न किया ।। ३१ ।।

भरतश्रेष्ठ) इन केशवने सैकड़ों क्षत्रियोंको अपनी दोनों भुजाओंसे, सैकड़ों वैश्योंको अपनी जाँघोंसे तथा सैकड़ों शूद्रोंको दोनों पैरोंसे उत्पन्न किया ।। ३२ ।।

इस प्रकार इन महातपस्वी श्रीहरिने चारों वर्णोको उत्पन्न करके स्वयं ही धाताको सम्पूर्ण भूतोंका अध्यक्ष बनाया ।। ३३ ।।

वे ही वेदविद्याको धारण करनेवाले अमित तेजस्वी ब्रह्मा हुए। फिर श्रीहरिने भूतों और मातृगणोंके अध्यक्ष विरूपाक्ष (रुद्र) की रचना की ।। ३४ ।।

सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा श्रीहरिने पापियोंको दण्ड देनेवाले तथा पितरोंके समवर्ती यमराजको और सम्पूर्ण निधियोंके पालक धनाध्यक्ष कुबेरको उत्पन्न किया || ३५ ।।

इसी प्रकार उन्होंने जल-जन्तुओंके स्वामी जलेश्वर वरुणकी सृष्टि की। उन्हीं भगवानने इन्द्रको सम्पूर्ण देवताओंका अध्यक्ष बनाया || ३६ ||

पहले मनुष्योंको जितने दिनोंतक शरीर धारण करनेकी इच्छा होती, उतने दिनोंतक वे जीवित रहते थे। उन्हें यमराजका कोई भय नहीं होता था ।। ३७ ।।

भरतश्रेष्ठ) पहलेके लोगोमें मैथुनधर्मकी प्रवृत्ति नहीं हुई थी। इन सबको संकल्पसे ही संतान पैदा होती थी ।। ३८ ।।

तदनन्तर त्रेतायुगका समय आनेपर स्पर्श करनेमात्रसे संतानकी उत्पत्ति होने लगी। नरेश्वर! उस समयके लोगोंमें भी मैथुन-धर्मका प्रचार नहीं हुआ था ।। ३९ ।।

नरेश्वर! द्वापरयुगमें प्रजाके मनमें मैथुनधर्मका सूत्रपात हुआ। राजन! उसी तरह कलियुगमें भी लोग मैथुनधर्मको प्राप्त होने लगे || ४० ।।

तात कुन्तीनन्दन! ये भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही भूतनाथ एवं सबके अध्यक्ष कहे जाते हैं। अब जो नरकका दर्शन करनेवाले हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो || ४१ ।।

नरेश्वर! दक्षिण भारतमें जन्म लेनेवाले सभी आन्ध्र, गुह, पुलिन्द, शबर, चूचुक और मद्रक-ये सब-के-सब म्लेच्छ हैं || ४२ ।।

तात! अब उत्तर भारतमें जन्म लेनेवाले म्लेच्छोंका वर्णन करूँगा; यौन, काम्बोज, गान्धार, किरात और बर्बर--ये सब-के-सब पापाचारी होकर इस सारी पृथ्वीपर विचरते रहते हैं || ४३६ ।।

नरेश्वर! ये सब-के-सब चाण्डाल, कौए और गीधोंके समान आचार-विचारवाले हैं। ये सत्ययुगमें इस पृथ्वीपर नहीं विचरण करते हैं || ४४ ६ ।।

भरतश्रेष्ठ! त्रेतासे वे लोग बढ़ने लगे थे। तदनन्तर त्रेता और द्वापरका महाघोर संध्याकाल उपस्थित होनेपर राजालोग एक दूसरेसे टक्कर लेकर युद्धमें आसक्त हुए ।।४५-४६।।

कुरुश्रेष्ठ) इस प्रकार महात्मा श्रीकृष्णने इस लोकको उत्पन्न किया है ।।४६½।।

सबको मान देनेवाले नरेश! महान्‌ देवता भगवान्‌ देवकीनन्दन श्रीकृष्ण तपस्यारूप ही हैं। उन्हींकी कृपासे तुम्हारे सारे दुःखोंका नाश हो जायगा। एकमात्र जगत्स्रष्टा श्रीकृष्ण ज्ञानियोंकी परमगति हैं ।।

तपस्यारूप इन श्रीकृष्णका आश्रय लेकर देवराज इन्द्र अन्यान्य देवता, रुद्रगण, दोनों अश्विनीकुमार तथा भोग और मोक्षके तत्त्वको जाननेवाले महर्षि अपने-अपने पदपर प्रतिष्ठित रहते हैं ।।

वे सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं तथा नित्य वैकुण्ठधाममें अपनी योगमायासे आवृत होकर निवास करते हैं। उनकी सत्ता और महत्ताको तुम श्रवण करो, जिससे तुम्हें श्रीकृष्णतत्त्वका ज्ञान हो जाय ।।

पहलेकी बात है परमार्थसे सम्पन्न देवर्षि श्रीनारदजी भूमण्डलके सम्पूर्ण तीर्थोमें विचरण करते हुए घूम रहे थे ।।

वे हिमालयके समीपवर्ती पर्वतपर बारंबार विचरण करके एक ऐसे स्थानपर गये, जहाँ उन्हें कमल और उत्पलसे भरा हुआ एक सरोवर दिखायी दिया ।।

तत्पश्चात्‌ महातेजस्वी पुरुषप्रवर नारदने उस सरोवरमें मौनभावसे स्नान करके इन्द्रियोंको संयममें रखकर उस भगवानके स्वरूपका अदभुत रहस्य जाननेके लिये भगवानकी स्तुति की ।।

तदनन्तर सौ वर्ष पूर्ण होनेपर लोकस्रष्टा विश्वात्मा भगवान्‌ श्रीहरि ऋषिके प्रति परम सौहार्दवश उनके सामने प्रकट हुए ।।

नारदजीने देखा, समस्त कारणोंके भी कारण भगवान्‌ जगन्नाथ पधारे हैं। उनके युगल चरणारविन्द सम्पूर्ण देवताओंके सुवर्णमय मुकुटोंके कुंकुमसे रक्तवर्ण हो रहे हैं। गरुड़जीके ऊपर सवारी करनेसे उनके दोनों घुटनोंमें रगड़ पड़नेके कारण चिह्न बन गये हैं; जो उन घुटनोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उनके श्यामसुन्दर अंगपर पीताम्बर शोभा पा रहा है और कटिप्रदेशमें किंकिणीकी लड़ें बँधी हुई हैं। वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सकी सुनहरी रेखा शोभा पाती है। गलेमें मनोहर कौस्तुभभमणि अपना प्रकाश बिखेर रही है। मुखारविन्दपर मन्द-मन्द मुसकानकी मनोहर छटा छा रही है। विशाल नेत्र चंचल गतिसे इधर-उधर देख रहे हैं। झुके हुए दो धनुषोंकी भाँति बाँकी भौंहें उनके मुखमण्डलकी शोभा बढ़ा रही हैं। नाना प्रकारके रत्न, मणि और हीरोंसे जटित मकराकार कुण्डल जगमगा रहे हैं। उनकी अंगकान्ति इन्द्रनीलमणिके समान श्याम है। बाँहोंमें केयूर तथा मस्तकपर मुकुटकी उज्ज्वल आभा छिटक रही है एवं इन्द्र आदि देवता और महर्षियोंके समुदाय उनकी स्तुति करते हैं। भगवानकी यह झाँकी देखकर जय-जयकार करते हुए नारदजीने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ।।

तदनन्तर नारदजीको पृथ्वीपर पड़ा देख सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी श्रीमान्‌ भगवान्‌ नारायणने मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ।।

श्रीभगवान्‌ बोले--उत्तम व्रतका पालन करनेवाले देवर्षे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर माँगो। तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हुई हो, उसे स्पष्ट बताओ। मैं उसे पूर्ण करूँगा ।।

भीष्मजी कहते हैं--युधिष्ठिर! प्रेमसे आतुर हुए मुनिवर नारदने जय-जयकार करते हुए अपने हृदयमें नित्य विराजमान रहनेवाले शंख, चक्र और गदाधारी भगवानसे कहा --'प्रभो! प्रसन्न होइये। जगन्नाथ! अच्युत! हृषीकेश! हरे! मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ, वह आपको पहलेसे ही ज्ञात है। मैं उसीको सुनना चाहता हूँ। आप मुझपर कृपा करें” ।।

तब मुसकराते हुए भगवान्‌ महाविष्णुने नारदजीसे कहा--“जो लोग शीत, उष्ण आदि द्न्द्ोंसे रहित, अहंकारशून्य, पवित्र तथा निर्दोष दृष्टिवाले महात्मा हैं वे निरन्तर मेरे उस स्वरूपका साक्षात्कार करते हैं; अतः तुम यहाँ जो कुछ चाहते हो, उसके विषयमें उन्हीं महात्माओंके पास जाकर प्रश्न करो ।।

देवर्षे! जो लोग योगी और महाज्ञानी हैं; तथा जो मेरे अंशरूपसे स्थित हैं, उनके प्रसादको तुम मेरा ही कृपाप्रसाद समझो” ।।

ऐसा कहकर भूतभावन भगवान्‌ विष्णु वहाँसे चले गये; अतः युधिष्ठिर! तुम भी सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी भगवान्‌ देवकीनन्दन श्रीकृष्णकी शरणमें जाओ ।।

इन भगवान्‌ गोविन्दकी आराधना करके कितने ही महर्षि मुक्तिको प्राप्त हो गये हैं। ये ही जगतके सृष्टिकर्ता, संहारकर्ता और समस्त कारणोंके भी कारण हैं ।।

राजन! मैंने भी यह बात नारदजीसे ही सुनी है। तुम भी उनके मुखसे सुन सकते हो। भगवान्‌ नारदमुनिने स्वयं ही यह बात मुझसे कही थी ।।

जो समस्त संसार-बन्धनकी निवृत्तिके कारणभूत भगवान्‌ विष्णुकी अनन्य चित्तसे आराधना करते हैं, वे अत्यन्त दुर्लभ सायुज्य मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यह बात सदा मेरे हृदयमें बनी रहती है तथा ऋषिलोग भी इसका वर्णन करते हैं ।।

सम्पूर्ण जगत्‌को देखनेवाले देवर्षि नारदने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमाका प्रतिपादन किया था ।। ४७ ।।

महाबाहु भरतश्रेष्ठ नरेश्वर! नारदजीने श्रीकृष्णके परम सनातन परमात्मभावको यथावत्‌्रूपसे जाना और माना है ।।

युधिष्ठिर! इस प्रकार ये सत्यपराक्रमी कमलनयन महाबाहु केशव अचिन्त्य परमेश्वर हैं। इन्हें केवल मनुष्य नहीं मानना चाहिये ।। ४९ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्णसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्तिविषयक दो सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ आठवें अध्याय के श्लोक 1-36 का हिन्दी अनुवाद)

“ब्रह्माके पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियोंके वंशका तथा प्रत्येक दिशामें निवास करनेवाले महर्षियोंका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--भरतश्रेष्ठ! पूर्वकालमें कौन-कौन-से लोग प्रजापति थे और प्रत्येक दिशामें किन-किन महाभाग महर्षियोंकी स्थिति मानी गयी है ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--भरतश्रेष्ठ) इस जगतमें जो प्रजापति रहे हैं तथा सम्पूर्ण दिशाओंमें जिन-जिन ऋषियोंकी स्थिति मानी गयी है, उन सबको जिनके विषयमें तुम मुझसे पूछते हो; मैं बताता हूँ, सुनो || २ ।।

एकमात्र सनातन भगवान्‌ स्वयम्भू ब्रह्मा सबके आदि हैं। स्वयम्भू ब्रह्माके सात महात्मा पुत्र बताये गये हैं ।। ३ ।।

उनके नाम इस प्रकार हैं--मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा महाभाग वसिष्ठ। ये सभी स्वयम्भू ब्रह्माके समान ही शक्तिशाली हैं ।। ४ ।।

पुराणमें ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। अब मैं समस्त प्रजापतियोंका वर्णन आरम्भ करता हूँ ।। ५ ।।

अत्रिकुलमें उत्पन्न जो सनातन ब्रह्मयोनि भगवान्‌ प्राचीनबर्हि हैं, उनसे प्राचेतस नामवाले दस प्रजापति उत्पन्न हुए ।। ६ ।।

उन दसोंके एकमात्र पुत्र दक्ष नामसे प्रसिद्ध प्रजापति हैं। उनके दो नाम बताये जाते हैं --'दक्ष' और “क' ।। ७ ।।

मरीचिके पुत्र जो कश्यप हैं, उनके भी दो नाम माने गये हैं। कुछ लोग उन्हें अरिष्टनेमि कहते हैं और दूसरे लोग उन्हें कश्यपके नामसे जानते हैं ।। ८ ।।

अत्रिके औरस पुत्र श्रीमान्‌ और बलवान राजा सोम हुए, जिन्होंने सहस्र दिव्य युगोंतक भगवानकी उपासना की थी ।। ९ ।।

प्रभो! भगवान्‌ अर्यमा और उनके सभी पुत्र--ये प्रदेश (आदेश देनेवाले शासक) तथा प्रभावन (उत्तम स्रष्टा) कहे गये हैं || १० ।।

धर्मसे विचलित न होनेवाले युधिष्ठिर! शशबिन्दुके दस हजार स्ट्रियाँ थीं। उनमेंसे प्रत्येकके गर्भसे एक-एक हजार पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार उन महात्माके एक करोड़ पुत्र थे। वे उनके सिवा किसी दूसरे प्रजापतिकी इच्छा नहीं करते थे || ११-१२ ।।

प्राचीनकालके ब्राह्मण अधिकांश प्रजाकी उत्पत्ति शशबिन्दुसे ही बताते हैं। प्रजापतिका वह महान्‌ वंश ही वृष्णिवंशका उत्पादक हुआ ।। १३ ।।

युधिष्ठि!! ये सब यशस्वी प्रजापति बताये गये हैं। अब मैं तीनों लोकोंपर शासन करनेवाले देवताओंका परिचय दूँगा || १४ ।।

भग, अंश, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, महाबली विवस्वान्‌, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र और बारहवें विष्णु कहे गये हैं। ये बारह आदित्य हैं, जो कश्यप और अदितिके पुत्र हैं ।। १५-१६ ।।

नासत्य और दखस्न--ये दोनों अश्विनीकुमार बताये गये हैं। ये दोनों अष्टम आदित्य महात्मा सूर्यके पुत्र हैं ।।

ये तथा पूर्वोक्त देवता-दो प्रकारके पितर माने गये हैं। त्वष्टाके पुत्र महायशस्वी श्रीमान्‌ विश्वरूप हुए ।।

अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, विरूपाक्ष, रैवत, हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, सुरेश्वर, सावित्र, जयन्त, पिनाकी और अपराजित--ये ग्यारह रुद्र हैं। महाभाग आठ वसुओंके नाम पहले ही बताये गये हैं || १९-२० ।।

इस प्रकार ये देवता प्रजापति मनुकी ही संतान हैं। वे तथा पूर्वोक्त देवता-ये दो प्रकारके पितर माने गये हैं || २१ ।।

देवताओंमें एक वर्ग ऐसा है, जो सुन्दर शील-स्वभाव और अक्षय यौवनसे सम्पन्न है। दूसरा वर्ग सिद्धों और साध्योंका है। ऋभु और मरुतू-ये देवताओंके समुदायोंके नाम हैं ।। २२ ।।

इसी प्रकार ये विश्वेदेव और अश्विनीकुमार भी देवताओंके गण माने गये हैं। इन देवताओंमें आदित्यगण क्षत्रिय और मरुद्गण वैश्य माने जाते हैं || २३ ।।

उग्र तपस्यामें लगे हुए दोनों अश्विनीकुमारोंको शूद्र कहा जाता है। अंगिरा गोत्रवाले सम्पूर्ण देवता ब्राह्मण माने गये हैं। यही विद्वानोंका निश्चय है || २४ ।।

इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंमें जो चार वर्ण हैं, उनका वर्णन किया गया। जो सबेरे उठकर इन देवताओंका कीर्तन करता है, वह स्वयं किये हुए तथा दूसरोंके संसर्गसे प्राप्त हुए सम्पूर्ण पापसमूहसे मुक्त हो जाता है || २५३६ ।।

यवक्रीत, रैभ्य, अर्वावसु, परावसु, औशिज, कक्षीवान्‌ और बल--ये अंगिराके पुत्र हैं || २६६ |।

तात! मेधातिथिके पुत्र कण्वमुनि, बर्हिषद तथा त्रिलोकीको उत्पन्न करनेमें समर्थ सप्तर्षिगण हैं, जो पूर्व दिशामें स्थित होते हैं | २७३ ।।

उन्मुच, विमुच, बलवान स्वस्त्यात्रेय, प्रमुच, इध्मवाह, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मित्रावरुणके प्रतापी पुत्र भगवान्‌ अगस्त्य--ये ब्रह्मर्षि सदा दक्षिण दिशामें रहते हैं ।। २८-२९ ३ ।।

उषंगु, कवष, धौम्य, शक्तिशाली परिव्याध, एकत, द्वित, त्रित तथा अत्रिके प्रभावशाली पुत्र भगवान्‌ सारस्वत--ये महात्मा महर्षि पश्चिम दिशामें निवास करते हैं || ३०-३१ ३ 

आत्रेय, वसिष्ठ, महर्षि कश्यप, गौतम, भरद्वाज, कुशिकवंशी विश्वामित्र तथा महात्मा ऋचीकके पुत्र भगवान्‌ जमदग्नि--ये सात उत्तर दिशामें रहते हैं ।।

इस प्रकार प्रत्येक दिशामें रहनेवाले सम्पूर्ण तेजस्वी महर्षियोंका वर्णन किया गया। ये महात्मा सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि करनेमें समर्थ एवं सबके साक्षी हैं। इनका हृदय बड़ा विशाल है। इस तरह ये प्रत्येक दिशामें निवास करते हैं | ३४-३५ ।।

इन सबका गुणगान करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। जिस-जिस दिशामें ये महर्षि रहते हैं, उस-उस दिशामें जानेपर जो मनुष्य इनकी शरण लेता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और कुशलपूर्वक अपने घरको पहुँच जाता है ।। ३६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपवके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें दिशास्वस्तिक नामक दो सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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