सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के दो सौ एकवें अध्याय से दो सौ पाँचवें अध्याय तक (From the 201 chapter to the 205 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ एकवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ एकवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“बृहस्पतिके प्रश्नके उत्तरमें मनुद्वारा कामनाओंके त्यागकी एवं ज्ञानकी प्रशंसा तथा परमात्मतत्त्वका निरूपण”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! ज्ञानयोगका, वेदोंका तथा वेदोक्त नियम (अग्निहोत्र आदि) का क्या फल है? समस्त प्राणियोंके भीतर रहनेवाले परमात्माका ज्ञान कैसे हो सकता है? यह मुझे बताइये ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें प्रजापति मनु तथा महर्षि बृहस्पतिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है ।। २ ।।

एक समयकी बात है, देवता और ऋषियोंकी मण्डलीमें प्रधान महर्षि बृहस्पतिने प्रजाओंके श्रेष्ठतम प्रजापति गुरु मनुको शिष्यभावसे प्रणाम करके यह प्राचीन प्रश्न पूछा -- || ३ ||

भगवन्‌! जो इस जगत्‌का कारण है, जिसके लिये वैदिक कर्मोंका अनुष्ठान किया जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ही ज्ञान होनेपर प्राप्त होनेवाला फल (परब्रह्म परमात्मा) बताते हैं तथा वेदके मन्त्र-वाक्योंद्वारा जिसका तत्त्व पूर्णरूपसे प्रकाशमें नहीं आता, उस नित्य वस्तुका मेरे लिये यथावद्रूपसे वर्णन कीजिये ।। ४ ।।

अर्थशास्त्र, आगम (वेद) और मन्त्रको जाननेवाले विद्वान्‌ पुरुष अनेकानेक महान यज्ञों और गोदानोंद्वारा जिस सुखमय फलकी उपासना करते हैं, वह क्या है, किस प्रकार प्राप्त होता है और कहाँ उसकी स्थिति है? ।। ५ ।।

भगवन्‌! पृथ्वी, पार्थिव पदार्थ, वायु, आकाश, जलजन्तु, जल, द्युलोक और देवता जिससे उत्पन्न होते हैं, वह पुरातन वस्तु क्या है? यह मुझे बताइये ।। ६ ।।

मनुष्यको जिस वस्तुका ज्ञान होता है, उसीको वह पाना चाहता है और पानेकी इच्छा उत्पन्न होनेपर उसके लिये वह प्रयत्न आरम्भ करता है; परंतु मैं तो उस पुरातन परमोत्कृष्ट वस्तुके विषयमें कुछ जानता ही नहीं हूँ; फिर उसे पानेके लिये झूठा प्रयत्न कैसे करूँ? ।। ७ ।।

मैंने ऋक्‌, साम और यजुर्वेदका तथा छन्‍्दका अर्थात्‌ अथर्ववेदका एवं नक्षत्रोंकी गति, निरुक्त, व्याकरण, कल्प और शिक्षाका भी अध्ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पाँचों महाभूतोंके उपादान कारणको न जान सका ।। ८ ।।

अतः आप सामान्य और विशेष शब्दोंद्वारा इस सम्पूर्ण विषयका मेरे निकट वर्णन कीजिये। तत्त्वज्ञान होनेपर कौन-सा फल प्राप्त होता है? कर्म करनेपर किस फलकी उपलब्धि होती है? देहाभिमानी जीव देहसे किस प्रकार निकलता है और फिर दूसरे शरीरमें कैसे प्रवेश करता है?--ये सारी बातें भी आप मुझे बताइये ।। ९६ ।।

मनुने कहा--जिसको जो-जो विषय प्रिय होता है, वही उसके लिये सुखरूप बताया गया है और जो अप्रिय होता है, उसे ही दुःखरूप कहा गया है। मुझे इष्ट (प्रिय) की प्राप्ति हो और अनिष्टका निवारण हो जाय, इसीके लिये कर्मोका अनुष्ठान आरम्भ किया गया है तथा इष्ट और अनिष्ट दोनों ही मुझे प्राप्त न हों, इसके लिये ज्ञानयोगका उपदेश किया गया है || १०-११ ।।

वेदमें जो कर्मोंके प्रयोग बताये गये हैं, वे प्रायः सकामभावसे युक्त हैं। जो इन कामनाओंसे मुक्त होता है, वही परमात्माको पा सकता है। नाना प्रकारके कर्ममार्गमें सुखकी इच्छा रखकर प्रवृत्त होनेवाला मनुष्य परमात्माको प्राप्त नहीं होता ।। १२ ।।

बृहस्पतिने कहा--भगवन्‌! सुख सबको अभीष्ट होता है और दुःख किसीको भी प्रिय नहीं होता। इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टके निवारणके लिये जो कामना होती है, वही मनुष्योंसे कर्म करवाती है और उन कर्मोंद्वारा उनका मनोरथ पूर्ण करती है; अत: कामनाको आप त्याज्य कैसे बताते हैं? || १२३ ।।

मनुने कहा--मनुष्य इन कामनाओंसे मुक्त हो निष्काम-भावसे कर्मोंका अनुष्ठान करके परब्रह्म परमात्माको प्राप्त करे, इसी उद्देश्यसे कर्मोंका विधान किया है, वेदमें स्वर्ग आदिकी कामनासे जो योगादि कर्मोका विधान किया गया है, वह उन्हीं मनुष्योंको अपने जालमें फँसाता है, जिनका मन भोगोंमें आसक्त है। वास्तवमें इन कामनाओंसे दूर रहकर परमात्माको ही प्राप्त करनेका प्रयत्न करे (भगवत्प्राप्तिके लिये ही कर्म करे, क्षुद्र भोगोंके लिये नहीं) ।। १३ ।।

जब मन नित्य कर्मोके अनुष्ठानसे राग आदि दोषोंको दूर करके दर्पणकी भाँति स्वच्छ एवं दीप्तिमान्‌ हो जाता है, तब वह द्युतिमान्‌ (सदसदू-विवेकके प्रकाशसे युक्त) और नित्य सुखका अभिलाषी (मुमुक्षु) होकर निर्वाणभावसे धर्ममें प्रवृत्त होता है एवं कर्ममार्गसे अतीत तथा कामनाओंसे रहित परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है ।। १४ ।।

ब्रह्माजीनी मन और कर्म--इन दोनोंके सहित प्रजाकी सृष्टि की है; अतः ये दोनों लोकसेवित सन्मार्गरूप हैं। कर्म दो प्रकारका देखा गया है--एक सनातन और दूसरा विनाशशील, (मोक्षका हेतुभूत कर्म सनातन है और नश्वर भोगोंकी प्राप्ति करानेवाला नाशवान है) मनके द्वारा किये जानेवाले फलकी इच्छाका त्याग ही कर्मोंको सनातन बनाने और उनके द्वारा परब्रह्मकी प्राप्ति करानेमें कारण है, दूसरा कुछ नहीं ।। १५ ।।

जब रात बीत जाती है और अन्धकारका आवरण हट जाता है, उस समय जैसे चलनेमें प्रवृत्त करनेवाला नेत्र अपने तैजस्‌ स्वरूपसे युक्त हो रास्तेमें पड़े हुए त्यागने योग्य काँटे आदिको देखते हैं, उसी प्रकार बुद्धि भी मोहका पर्दा हट जानेपर ज्ञानके प्रकाशसे युक्त हो त्यागने योग्य अशुभ कर्मको देखती है ।। १६ ।।

मनुष्य जब जान लेते हैं कि रास्तेमें सर्प है, कुशोंके काँटे हैं और कुएँ हैं, तब उनसे बचकर निकलते हैं। जो नहीं जानते हैं, ऐसे कितने ही पुरुष उन्हींपर गिर पड़ते हैं। अतः ज्ञानका जो विशिष्ट फल है, उसे तुम प्रत्यक्ष देख लो || १७ ।।

विधिपूर्वक सम्पूर्ण मन्त्रोंका उच्चारण, वेदोक्त विधानके अनुसार यज्ञोंका अनुष्ठान, यथायोग्य दक्षिणा, अन्नका दान और मनकी एकाग्रता--इन पाँच अंगोंसे सम्पन्न होनेपर ही यज्ञ-कर्मका पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है, ऐसा विद्वान्‌ पुरुष कहते हैं ।। १८ ।।

वेदोंका कहना है कि कर्म त्रिगुणात्मक होते हैं अर्थात्‌ सात्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारके होते हैं; इसीलिये मन्त्र भी सात्त्विक आदि भेदसे तीन प्रकारके ही होते हैं; क्योंकि मन्त्रोच्चारणपूर्वक ही कर्मका अनुष्ठान किया जाता है। इसी तरह उन कर्मोंकी विधि, विधेय (उनके लिये किया जानेवाला कार्य), मनके द्वारा अभीष्ट फलकी सिद्धि और उसका भोक्ता देहाभिमानी जीव--ये सभी तीन-तीन प्रकारके होते हैं ।। १९ ।।

शब्द, रूप, पवित्र रस, सुखद स्पर्श और सुन्दर गन्ध--ये ही कर्मोंके फल हैं; किंतु इस शरीरमें स्थित हुआ मनुष्य इन फलोंको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं है। कर्मोके फलकी प्राप्ति जो उनका फल भोमनेके लिये प्राप्त शरीरमें होती है, वह दैवाधीन है ।। २० ।।

जीव शरीरसे जो-जो अशुभ या शुभ कर्म करता है, शरीरसे युक्त हुआ ही उसके फलोंको भोगता है; क्योंकि शरीर ही सुख और दुःख भोगनेका स्थान है || २१ ।।

मनुष्य वाणीद्वारा जो कोई कर्म करता है, उसका सारा फल वह वाणीद्वारा ही भोगता है और मनसे जो कुछ कर्म करता है, उसका फल यह जीवात्मा मनके साथ हुआ मनसे ही भोगता है || २२ ।।

फलकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य कर्मके फलमें आसक्त हो जैसे-जैसे गुणवाला-सात््विक, राजस या तामस कर्म करता है, वैसे-ही-वैसे गुणोंसे प्रेरित होकर इसे उस कर्मका शुभाशुभ फल भोगना पड़ता है ।। २३ ।।

जैसे मछली जलके बहावके साथ बह जाती है, उसी प्रकार मनुष्य पहिलेके किये हुए कर्मका अनुसरण करता है। उसे उस कर्मप्रवाहमें बहना पड़ता है; परंतु उस दशामें वह श्रेष्ठ देहधारी जीव शुभ फल मिलनेपर तो संतुष्ट होता है और अशुभ फल प्राप्त होनेपर दुखी हो जाता है (यह उसकी मूढता ही तो है) || २४ ।।

जिससे इस सम्पूर्ण जगत्‌की उत्पत्ति हुई है, जिसे जानकर मनको वशमें रखनेवाले ज्ञानी पुरुष इस संसारको लाँधकर परमपद प्राप्त कर लेते हैं तथा वेदके मन्त्रवाक्योंद्वारा जिसका तात्विक स्वरूप पूर्णतः प्रकाशमें नहीं आता, उस सर्वोत्कृष्ट वस्तुका मैं वर्णन करता हूँ, सुनो | २५ ।।

वह अनिर्वचनीय वस्तु नाना प्रकारके रस और भाँति-भाँतिके गन्धोंसे रहित है। शब्द, स्पर्श एवं रूपसे भी शून्य है। मन, बुद्धि और वाणीद्वारा भी उसका ग्रहण नहीं हो सकता। वह अव्यक्त, अद्वितीय तथा रूप-रंगसे रहित है तथापि उसीने प्रजाओंके लिये रूप, रस आदि पाँचों विषयोंकी सृष्टि की है ।। २६ ।।

वह न तो स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न सत्‌ है, न असत्‌ है और न सदसत्‌ उभयरूप ही है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही उसका साक्षात्कार करते हैं। उसका कभी क्षय नहीं होता; इसलिये वह अविनाशी परब्रह्म परमात्मा अक्षर कहलाता है, इस बातको अच्छी तरह समझ लो || २७ |।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादविषयक दो सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ दौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ दौवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“आत्मतत्त्वका और बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंका विवेचन तथा उसके साक्षात्कारका उपाय”

मनु कहते हैं--बृहस्पते! अविनाशी परमात्मासे आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल और जलसे यह पृथ्वी उत्पन्न हुई है। इस पृथ्वीमें ही सम्पूर्ण पार्थिव जगतकी उत्पत्ति होती है || १ ।।

इन पूर्वोक्त शरीरोंके साथ (पार्थिव शरीरके बाद) प्राणियोंका जलमें लय होता है; फिर वे जलसे अग्निमें, अग्निसे वायुमें और वायुसे आकाशमें लीन होते हैं। आकाशसे सृष्टिकालमें फिर वे पूर्वोक्त क्रमसे उत्पन्न होते हैं; परंतु जो ज्ञानी हैं, वे मोक्षस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं। उनका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं होता ।। २ ।।

वह परमात्मतत्त्व न गर्म है न शीतल, न कोमल है न तीक्ष्ण, न खट्टा है न कसैला, न मीठा है न तीता। शब्द, गन्ध और रूपसे भी वह रहित है। उसका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट एवं विलक्षण है ।। ३ ।।

त्वचा स्पर्शका, जिह्ला रसका, प्राणेन्द्रिय गन्धका, कान शब्दका और नेत्र रूपका ही अनुभव करते हैं। ये इन्द्रियाँ परमात्माको प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं। अध्यात्मज्ञानसे हीन मनुष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं कर सकते ।। ४ ।।

अत: जो जिह्ठाको रससे, नासिकाको गन्धसे, कानोंको शब्दसे, त्वचाको स्पर्शसे और नेत्रोंकी रूपसे हटाकर अन्तर्मुखी बना लेता है, वही अपने मूलस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार कर सकता है ।। ५ ।।

महर्षिगण कहते हैं जो कर्ता जिस कारणसे, जिस फलके उद्देश्यसे, जिस देश या कालमें, जिस प्रिय या अप्रियके निमित्त, जिस राग या द्वेषसे प्रभावित हो प्रवृत्तिमार्गका आश्रय ले जिस कर्मको करता है, इन सबके समुदायका जो कारण है, वही सबका स्वरूपभूत परब्रह्म परमात्मा है ।। ६ ।।

श्रुतिके कथनानुसार जो व्यापक, व्याप्प और उनका साधन है, जो सम्पूर्ण लोकमें सदा ही स्थित रहनेवाला कूटस्थ, सबका कारण और स्वयं ही सब कुछ करनेवाला है, वही परम कारण है। उसके सिवा जो कुछ है, सब कार्यमात्र है ।। ७ ।।

जैसे कोई मनुष्य भलीभाँति किये हुए कर्मांद्वारा बिना किसी प्रतीकारके विभिन्न देश और कालमें उनका शुभाशुभ फल पाता है, उसी प्रकार अपने कर्मानुसार प्राप्त उत्तम और अधम शरीरोंमें यह चिन्मय ज्ञान बिना किसी विरोधके स्थित रहता है ।। ८ ।।

जिस प्रकार अग्निसे प्रज्वलित दीपक स्वयं प्रकाशित होता हुआ पासमें स्थित अन्य वस्तुओंको भी प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार इस शरीररूप वृक्षमें स्थित पाँच इन्द्रियाँ चैतन्यरूपी ज्ञानके प्रकाशसे प्रकाशित होकर विषयोंको प्रकाशित करती हैं (उनका प्रकाश चिन्मय प्रकाशके ही अधीन होनेके कारण वे पराधीन हैं। स्वतः प्रकाश करनेमें समर्थ नहीं हैं) ।। ९ ।।

जैसे किसी राजाके द्वारा भिन्न-भिन्न कार्योमें नियुक्त किये गये बहुत-से मन्त्री अपने पृथक्‌-पृथक्‌ कार्योकी जानकारी राजाको कराते हैं। उसी प्रकार शरीरोंमें स्थित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने एकदेशीय विषयका परिचय राजस्थानीय बुद्धिको देती हैं। जैसे मन्त्रियोंसे राजा श्रेष्ठ है, उसी प्रकार उन पाँचों इन्द्रियोंसे उनका प्रवर्तक वह ज्ञान श्रेष्ठ है ।। १० ।।

जैसे अग्निकी शिखाएँ, वायुका वेग, सूर्यकी किरणें और नदियोंका बहता हुआ जल-ये सदा आते-जाते रहते हैं, इसी प्रकार देहधारियोंके शरीर भी आवागमनके प्रवाहमें पड़े हुए हैं ।। ११ ।।

जैसे कोई मनुष्य कुल्हाड़ी लेकर लकड़ीको चीरे तो उसमें उसे न तो आग दिखायी देगी और न धुआँ ही प्रकट होगा, उसी प्रकार इस शरीरका पेट फाड़ने या हाथ-पैर काटनेसे कोई उसे नहीं देख पाता, जो अन्तर्यामी आत्मा शरीरसे भिन्न है || १२ ।।

परंतु उन्हीं काठोंका युक्तिपूर्वक मन्थन करनेपर जैसे अग्नि और धूम दोनों ही देखनेमें आते हैं, उसी प्रकार योगके द्वारा मन और इन्द्रियोंको बुद्धिके सहित समाहित कर लेनेवाला बुद्धिमान्‌ ज्ञानी पुरुष इन सबसे परम श्रेष्ठ उस ज्ञानको और आत्माको साक्षात्‌ कर लेता है ।। १३ ||

जैसे स्वप्नमें मनुष्य अपने शरीरके कटे हुए अंगको अपनेसे अलग और पृथ्वीपर पड़ा देखता है, उसी प्रकार दस इन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धि--इन सत्रह तत्त्वोंके समुदायका अभिमानी शुद्ध मन और बुद्धिवाला मनुष्य शरीरको अपनेसे पृथक्‌ जाने। जो ऐसा नहीं जानता, वही एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जन्म लेता रहता है ।। १४ ।।

आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न है। वह इसके उत्पत्ति, वृद्धि, क्षय और मृत्यु आदि दोषोंसे कभी लिप्त नहीं होता। किंतु अज्ञानी मनुष्य पूर्वकृत कर्मोके फलके सम्बन्धसे इस ऊपर बताये हुए सूक्ष्म शरीरके सहित दूसरे शरीरमें चला जाता है || १५ ।।

कोई भी इन चर्मचक्षुओंके द्वारा आत्माके स्वरूपको नहीं देख सकता। अपनी त्वचासे उसका स्पर्श भी नहीं कर सकता। भाव यह कि इन्द्रियोंद्वारा आत्माको जाननेका कोई कार्य नहीं किया जा सकता। वे इन्द्रियाँ उसे नहीं देखतीं; पर वह आत्मा उन सबको देखता है ।। १६ ||

जैसे कोई लोहा आदि पदार्थ समीप जलती हुई आगकी गर्मीसे लाल रंगका हो जाता है और उसमें दाहकताका गुण भी थोड़ी मात्रामें आ जाता है; परंतु वह उसके वास्तविक आन्तरिक रूप और गुणको धारण नहीं करता, उसी प्रकार आत्माका स्वरूप चैतन्यमात्र इन्द्रियादिके समूह शरीरमें दिखायी देता है, किंतु उनका समुदायभूत शरीर वास्तवमें चेतन नहीं होता। एवं समीपस्थ वस्तुका जैसा रूप होता है वैसा ही रूप उस अग्निका भी प्रतीत होने लगता है ।। १७ ।।

इसी तरह मनुष्य अपने दृश्य शरीरका त्याग करके जब दूसरे अदृश्य शरीरमें प्रवेश करता है, तब पहलेके स्थूल शरीरको पड्च महाभूतोंमें मिलनेके लिये छोड़कर दूसरे शरीरका आश्रय ले उसीको अपना स्वरूप मानकर धारण करता है ।। १८ ।।

देहाभिमानी जीव जब शरीर छोड़ता है, तब उस शरीरमें जो आकाशका अंश होता है, वह सब प्रकारसे आकाशमें, वायुका अंश वायुमें, अग्निका अंश अग्निमें, जलका अंश जलमें तथा पृथ्वीका अंश पृथ्वीमें विलीन हो जाता है। किंतु इन नाना भूतोंके आश्रित जो श्रोत्र आदि तत्त्व हैं, वे विलीन न होकर अपने-अपने कर्मामें प्रवृत्त रहते हैं और दूसरे शरीरमें जाकर पाँचों भूतोंका आश्रय ले लेते हैं ।। १९ ।।

आकाशशसे श्रोत्रेन्द्रिय (और उसका विषय शब्द), पृथ्वीसे प्राणेन्द्रिय (और उसका विषय गन्ध) होता है तथा रूप और विपाक वे दोनों (एवं नेत्र-इन्द्रिय)--ये सब तेजोमय हैं। स्वेद एवं रस (और रसना-) इन्द्रिय--ये जलके आश्रित हैं। एवं स्पर्श करनेवाली इन्द्रिय और स्पर्श यह वायुस्वरूप है || २० ।।

पाँचों इन्द्रियोंक पाँचों विषय तथा पाँचों इन्द्रियाँ भी पञ्च सूक्ष्म महाभूतोंमें निवास करते हैं, ये शब्द आदि विषय, आकाश आदि भूत तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ सब-के-सब मनके अनुगामी हैं। मन बुद्धिका अनुसरण करता है और बुद्धि आत्माका आश्रय लेकर रहती है ।। २१ ।।

जब जीवात्मा अपने कर्मोंद्वारा उपार्जित नवीन शरीरमें स्थित होता है, उस समय वह पहले जो शुभाशुभ कर्म किये हुए हैं उन्हींका फल प्राप्त करता है। जैसे जल-जन्तु जलके अनुकूल प्रवाहका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार पूर्वकृत अच्छे और बुरे कर्म मनका अनुगमन करते हैं अर्थात्‌ मनके द्वारा फल प्रदान करते हैं ।। २२ ।।

जैसे शीघ्रगामी नौकापर बैठे हुए पुरुषकी दृष्टिमें पार्श्ववर्ती वृक्ष पीछेकी ओर वेगसे भागते हुए दिखायी देते हैं, उसी प्रकार कूटस्थ निर्विकारी आत्मा बुद्धिके विकारसे विकारवान्‌-सा प्रतीत होता है एवं जैसे चश्मे या दूरबीनसे महीन अक्षर मोटा दीखता है और छोटी आकृति बहुत बड़ी दिखायी देती है, उसी प्रकार सूक्ष्म आत्मतत्त्व भी बुद्धि, विवेकसमूह शरीरसे संयुक्त होनेके कारण शरीरके रूपमें प्रतीत होने लगता है। तथा जैसे स्वच्छ दर्पण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखा देता है, उसी प्रकार शुद्ध बुद्धिमें आत्माके स्वरूपकी झाँकी उपलब्ध हो जाती है || २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु-ब॒हस्पति-संवादविषयक दो सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ तीनवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ तीनवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धिसे अतिरिक्त आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन”

मनुजी कहते हैं--बृहस्पते! बुद्धिके साथ तद्गरूप हुआ जो जीव नामक चेतनतत्त्व है, वह इन्द्रियोंद्वारा दीर्घकालतक पहलेके भोगे हुए विषयोंका कालान्तरमें स्मरण करता है। यद्यपि उस समय उन विषयोंका इन्द्रियोंसे सम्बन्ध नहीं है, उनका सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है तो भी वे बुद्धिमें संस्काररूपसे अंकित हैं; इसलिये उनका स्मरण होता है। (इससे बुद्धिके अतिरिक्त उसके प्रकाशक चेतनकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो जाती है) || १ ।।

वह एक समय अथवा अनेक समयोंमें भूत और भविष्यके सम्पूर्ण पदार्थोकी, जो इस जन्ममें या दूसरे जन्मोंमें देखे गये हैं, सामान्य रूपसे उपेक्षा नहीं करता अर्थात्‌ उन्हें प्रकाशित ही करता है तथा परस्पर विलग न होनेवाली तीनों अवस्थाओंमें विचरता रहता है; अतः वह सबको जाननेवाला साक्षी सर्वोत्कृष्ट देहका स्वामी आत्मा एक है ।। २ ।।

बुद्धिके जो स्थान-जागरित आदि अवस्थाएँ हैं, वे सभी सत्त्व, रज और तम--इन तीन गुणोंसे विभक्त हैं। इन अवस्थाओंसे सम्बन्धित जो सुख-दुःख आदि गुण हैं, वे परस्पर विलक्षण हैं। उन सबको वह आत्मा बुद्धिके सम्बन्धसे अनुभव करता है। इन्द्रियोंमें भी उस जीवात्माका आवेश उसी प्रकार होता है जैसे काठमें लगी हुई आगमें वायुका अर्थात्‌ वायु जैसे अग्निमें प्रविष्ट होकर अग्निको उद्दीप्त कर देती है, इसी प्रकार आत्मा इन्द्रियोंको चेतना प्रदान करता है ।।

मनुष्य नेत्रोंद्वारा आत्माके रूपका दर्शन नहीं कर सकता। त्वचा नामक इन्द्रिय उसका स्पर्श नहीं कर सकती; क्योंकि वह इन्द्रियोंकी भी इन्द्रिय अर्थात्‌ उनका प्रकाशक है। उस आत्माके स्वरूपका श्रवणेन्द्रियके द्वारा श्रवण नहीं हो सकता; क्‍योंकि वह शब्दरहित है। ज्ञानविषयक विचारसे जब आत्माका साक्षात्कार किया जाता है, तब उसके साधनोंका बाध हो जाता है ।। ४ ।।

श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ स्वयं अपने द्वारा आपको नहीं जान सकतीं। आत्मा सर्वज्ञ और सबका साक्षी है। सर्वज्ञ होनेके कारण ही वह उन सबको जानता है ।। ५ ।।

जैसे मनुष्योंद्वारा हिमालय पर्वतका दूसरा पार्श्व तथा चन्द्रमाका पृष्ठ भाग देखा हुआ नहीं है तो भी इसके आधारपर यह नहीं कहा जा सकता कि उनके पार्श्व और पृष्ठ भागका अस्तित्व ही नहीं है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके भीतर रहनेवाला उनका अन्तर्यामी ज्ञानस्वरूप आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण कभी नेत्रोंद्वारा नहीं देखा गया है; अतः उतनेहीसे यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा है ही नहीं ।। ६-७ ।।

जैसे चन्द्रमामें जो कलंक है, वह जगतका अर्थात्‌ तदगत पृथ्वीका ही चिह्न है; परंतु उसको देखकर भी मनुष्य ऐसा नहीं समझता कि वह जगत्‌का अर्थात्‌ पृथ्वीका चिह्न है। इसी प्रकार सबको “मैं हूँ” इस रूपमें आत्माका ज्ञान है; परंतु यथार्थ ज्ञान नहीं है; इस कारण मनुष्य उसके परायण-आश्रित नहीं है ।। ८ ।।

रूपवान्‌ पदार्थ अपनी उत्पत्तिसे पूर्व और नष्ट हो जानेके बाद रूपहीन ही रहते हैं, इस नियमसे जैसे बुद्धिमान लोग उनकी अरूपताका निश्चय करते हैं तथा सूर्यके उदय और अस्तके द्वारा विद्वान्‌ पुरुष बुद्धिसे जिस प्रकार न दिखायी देनेवाली सूर्यकी गतिका अनुमान कर लेते हैं, उसी प्रकार विवेकी मनुष्य बुद्धिरूप दीपकके द्वारा इन्द्रियातीत ब्रह्मका साक्षात्कार कर लेते हैं और इस निकटवर्ती दृश्य-प्रपंचको उस ज्ञानस्वरूप परमात्मामें विलीन कर देना चाहते हैं || ९-१० ।।

उचित उपाय किये बिना कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, जैसे जलमें रहनेवाले प्राणियोंसे जीविका चलानेवाले सूतके जाल बनाकर उनके द्वारा मछलियोंको बाँध लेते हैं, जैसे मृगोंके द्वारा मृगोंको, पक्षियोंद्वारा पक्षियोंको और हाथियोंद्वारा हाथियोंको पकड़ा जाता है, उसी प्रकार ज्ञेय वस्तुका ज्ञानके द्वारा ग्रहण होता है ।। ११-१२ ।।

हमने सुना है कि सर्पके पैरोंको सर्प ही पहचानता है, उसी प्रकार मनुष्य समस्त शरीरोंमें शरीरस्थ ज्ञेयस्वरूप आत्माको ज्ञानके द्वारा ही जान सकता है ।। १३ ।।

जैसे इन्द्रियाँ भी इन्द्रियोंद्वारा किसी ज्ञेयको नहीं जान सकतीं, उसी प्रकार यहाँ परा बुद्धि भी उस परम बोध्य तत्त्वको स्वयं नहीं देख पाती है; किंतु ज्ञाता पुरुष ही बुद्धिके द्वारा उसका साक्षात्‌ करता है || १४ ।।

जैस चन्द्रमा अमावास्याको प्रकाशहीन हो जानेके कारण दिखायी नहीं देता है; किंतु उस समय उसका नाश नहीं होता। उसी प्रकार शरीरधारी आत्माके विषयमें भी समझना चाहिये अर्थात्‌ आत्मा अदृश्य होनेपर भी उसका अभाव नहीं है, ऐसा समझना चाहिये ।। १५ ।।

जैसे चन्द्रमा अमावास्याको अपने प्रकाश्य स्थानसे वियुक्त हो जानेके कारण दिखायी नहीं देता है, उसी प्रकार देहधारी आत्मा शरीरसे वियुक्त होनेपर दृष्टिगोचर नहीं होता है ।। १६ ||

फिर वही चन्द्रमा जैसे अन्यत्र आकाशमें स्थान पाकर पुनः प्रकाशित होने लगता है, उसी प्रकार जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करके पुनः प्रकट हो जाता है ।। १७ ।।

जन्म, वृद्धि और क्षयका जो प्रत्यक्ष दर्शन होता है, वह चन्द्रमण्डलमें प्रतीत होनेवाली वृत्ति चन्द्रमाकी नहीं है। उसी प्रकार शरीरका ही जन्म आदि होता है, उस शरीरधारी आत्माका नहीं ।। १८ ।।

जैसे किसी व्यक्तिका जन्म होता है, वह बढ़ता है और किशोर, यौवन आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाओंमें पहुँच जाता है तो भी यही समझा जाता है कि यह वही व्यक्ति है तथा अमावास्याके बाद जब चन्द्रमा पुनः मूर्तिमान्‌ होकर प्रकट होता है तो यही माना जाता है कि यह वही चन्द्रमा है (उसी प्रकार दूसरे शरीरमें प्रवेश करनेपर भी वह देहधारी आत्मा वही है--ऐसा समझना चाहिये) ।। १९ ।।

जैसे अन्धकाररूप राहु चन्द्रमाकी ओर आता और उसे छोड़कर जाता हुआ नहीं दिखायी देता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी शरीरमें आता और उसे छोड़कर जाता हुआ नहीं दीख पड़ता है ऐसा समझो || २० ।।

जैसे सूर्यग्रहणकालमें चन्द्रमा सूर्यसे संयुक्त होनेपर सूर्यमें छायारूपी राहुका दर्शन होता है, उसी प्रकार शरीरसे संयुक्त होनेपर शरीरधारी आत्माकी उपलब्धि होती है ।।

जैसे चन्द्रमा-सूर्यससे अलग होनेपर सूर्यमें राहुकी उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार शरीरसे विलग होनेपर शरीरधारी आत्माका दर्शन नहीं होता || २२ ।।

जैसे अमावास्याका अतिक्रमण करनेपर चन्द्रमा नक्षत्रोंसे संयुक्त होता है, उसी प्रकार जीवात्मा एक शरीरका त्याग करनेपर कर्मोके फलस्वरूप दूसरे शरीरसे युक्त होता है || २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमह्ााभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादरूप दो सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ चारवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ चारवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

“आत्मा एवं परमात्माके साक्षात्कारका उपाय तथा महत्त्व”

मनु कहते हैं--बृहस्पते! जैसे स्वप्लावस्थामें यह स्थूल शरीर तो सोया रहता है और सूक्ष्म शरीर विचरण करता रहता है, उसी प्रकार इस शरीरको छोड़नेपर यह ज्ञानस्वरूप जीवात्मा या तो इन्द्रियोंके सहित पुन: शरीर ग्रहण कर लेता है या सुषुप्तिकी भाँति मुक्त हो जाता है || १ ।।

जिस प्रकार मनुष्य स्वच्छ और स्थिर जलमें नेत्रोंद्वारा अपना प्रतिबिम्ब देखता है, वैसे ही मनसहित इन्द्रियोंके शुद्ध एवं स्थिर हो जानेपर वह ज्ञानदृष्टिसे ज्ञेयस्वरूप आत्माका साक्षात्कार कर सकता है ।। २ ।।

वही मनुष्य हिलते हुए जलमें जैसे अपना रूप नहीं देख पाता, उसी प्रकार मनसहित इन्द्रियोंके चंचल होनेपर वह बुद्धिमें ज्ञेयस्वरूप आत्माका दर्शन नहीं कर सकता ।।

अविवेकसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और उस भ्रष्ट बुद्धिसे मन राग आदि दोषोंमें फँस जाता है। इस प्रकार मनके दूषित होनेसे उसके अधीन रहनेवाली पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं ।। ४ ।।

जिसको अज्ञानसे ही तृप्ति प्राप्त हो रही है, वह मनुष्य विषयोंके अगाध जलमें सदा डूबा रहकर भी कभी तृप्त नहीं होता। वह जीवात्मा प्रारब्धाधीन हुआ विषय-भोगोंकी इच्छाके कारण बारंबार इस संसारमें आता और जन्म ग्रहण करता है ।। ५ ।।

पापके कारण ही संसारमें पुरुषकी तृष्णाका अन्त नहीं होता। जब पापोंकी समाप्ति हो जाती है, तभी उसकी तृष्णा निवृत्त हो जाती है ।। ६ ।।

विषयोंके संसर्गसे, सदा उन्हींमें रचे-पचे रहनेसे तथा मनके द्वारा साधनके विपरीत भोगोंकी इच्छा रखनेसे पुरुषको परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती है ।।

पाप-कर्मोंका क्षय होनेसे ही मनुष्योंके अन्तःकरणमें ज्ञानका उदय होता है। जैसे स्वच्छ दर्पणमें ही मानव अपने प्रतिबिम्बको अच्छी तरह देख पाता है ।। ८ ।।

विषयोंकी ओर इन्द्रियोंके फैले रहनेसे ही मनुष्य दुखी होता है और उन्हींको संयममें रखनेसे सुखी हो जाता है; इसलिये इन्द्रियोंके विषयोंसे बुद्धिके द्वारा अपने मनको रोकना चाहिये ।। ९ ।।

इन्द्रियोंसे मन श्रेष्ठ है, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ है, बुद्धिसे ज्ञान श्रेष्ठठर है और ज्ञानसे परात्पर परमात्मा श्रेष्ठ है ।। १० ।।

अव्यक्त परमात्मासे ज्ञान प्रसारित हुआ है। ज्ञानसे बुद्धि और बुद्धिसे मन प्रकट हुआ है। वह मन ही श्रोत्र आदि इन्द्रियोंसे युक्त होकर शब्द आदि विषयोंका भलीभाँति अनुभव करता है ।। ११ ।।

जो पुरुष शब्द आदि विषयोंको, उनके आश्रयभूत सम्पूर्ण व्यक्त तत्त्वोंको, स्थूलभूतों और प्राकृत गुण-समुदायोंको त्याग देता है अर्थात्‌ उनसे सम्बन्धविच्छेद कर लेता है, वह उन्हें त्यागकर अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।। १२ ।।

जैसे सूर्य उदित होकर अपनी किरणोंको सब ओर फैला देता है और अस्त होते समय उन समस्त किरणोंको अपने भीतर ही समेट लेता है, उसी प्रकार जीवात्मा देहमें प्रविष्ट होकर फैली हुई इन्द्रियोंकी वृत्तिरूपी किरणोंद्वारा पाँचों विषयोंको ग्रहण करता है और शरीरको छोड़ते समय उन सबको समेटकर अपने साथ लेकर चल देता है ।। १३-१४ ।।

जिसने प्रवृत्तिप्रधान पुण्य-पापमय कर्मका आश्रय लिया है, वह जीवात्मा कर्मोद्वारा कर्म-मार्गपर बारंबार लाया जाकर अर्थात्‌ संसार-चक्रमें भ्रमाया जाकर सुख-दुःखरूप कर्मफलको प्राप्त होता है ।। १५ ।।

इन्द्रियद्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेसे पुरुषके वे विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; परंतु उनमें उनकी आसक्ति बनी रहती है। परमात्माका साक्षात्कार कर लेनेपर पुरुषकी वह आसक्ति भी दूर हो जाती है || १६ ।।

जिस समय बुद्धि कर्मजनित गुणोंसे छूटकर हृदयमें स्थित हो जाती है, उस समय जीवात्मा ब्रह्ममें लीन होकर ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है ।। १७ ।।

परब्रह्म परमात्मा स्पर्श, श्रवण, रसन, दर्शन, प्राण और संकल्प-विकल्पसे भी रहित है; इसलिये केवल विशुद्ध बुद्धि ही उसमें प्रवेश कर पाती है || १८ ।।

मनमें शब्दादि विषयरूप समस्त आकृतियोंका लय होता है। मनका बुद्धिमें, बुद्धिका ज्ञानमें और ज्ञानका परमात्मामें लय होता है ।। १९ ।।

इन्द्रियोंद्रार मनकी सिद्धि नहीं होती अर्थात्‌ इन्द्रियाँ मनको नहीं जानती हैं। मन बुद्धिको नहीं जानता और बुद्धि सूक्ष्म एवं अव्यक्त आत्माको नहीं जानती है; किंतु अव्यक्त आत्मा इन सबको देखता और जानता है ।। २० ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादविषयक दो सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौ पाँचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौ पाँचवें अध्याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

“परब्रह्म॒की प्राप्तिका उपाय”

मनुजी कहते हैं--बृहस्पते! जब मनुष्यपर कोई ऐसा शारीरिक या मानसिक दुःख आ पड़े, जिसके रहते हुए साधन करना अशक्य हो जाय, तब उस दुःखका चिन्तन करना छोड़ दे ।। १ ॥।

दुःखको दूर करनेके लिये सबसे अच्छी दवा यही है कि उसका चिन्तन छोड़ दिया जाय; क्योंकि चिन्तन करनेसे वह सामने आता है और अधिकाधिक बढ़ता रहता है ।। २

अतः मानसिक दुः:खको बुद्धि एवं विचारद्वारा तथा शारीरिक कष्टको ओषधियोंद्वारा दूर करे, यही विज्ञानकी सामर्थ्य है, जिससे मनुष्य दुःखमें पड़नेपर बच्चोंके समान बैठकर रोये नहीं ।। ३ ।।

यौवन, रूप, जीवन, धन-संग्रह, आरोग्य और प्रियजनोंका समागम--ये सब अनित्य हैं। विवेकशील पुरुषोंको इनमें आसक्त नहीं होना चाहिये ।। ४ ।।

जो दुःख सारे देशपर है, उसके लिये किसी एक व्यक्तिको शोक नहीं करना चाहिये। यदि उसे टालनेका कोई उपाय दिखायी दे तो शोक न करके उस दुःखके निवारणका प्रयत्न करना चाहिये ।। ५ ।।

इसमें संदेह नहीं कि जीवनमें सुखकी अपेक्षा दुःख ही अधिक है। जो पुरुष विषयोंमें अधिक आसक्त होता है, वह मोहवश मरणरूप अप्रिय कष्ट भोगता है || ६ ।।

जो मनुष्य सुख और दु:ख दोनोंको छोड़ देता है, वह अक्षय ब्रह्मको प्राप्त होता है, अतः: वे ज्ञानी पुरुष कभी शोक नहीं करते हैं ।। ७ ।।

विषयोंके उपार्जनमें दुःख है। उनकी रक्षामें भी तुम्हें सुख नहीं मिल सकता। दुःखसे ही उनकी उपलब्धि होती है; अतः उनका नाश हो जाय तो चिन्ता नहीं करनी चाहिये ।। ८ ।।

बृहस्पते! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि ज्ञेयरूपमें परमात्मासे ज्ञान प्रकट होता है और मन ज्ञानका गुण (कार्य) है। जब वह ज्ञानेन्द्रियोंसे युक्त होता है, तब बुद्धि कर्मॉमें प्रवृत्त होती है ।। ९ ।।

जिस समय बुद्धि कर्म-संस्कारोंसे रहित होकर हृदयमें स्थित हो जाती है, उसी समय ध्यानयोगजनित समाधिके द्वारा ब्रह्मका भलीभाँति ज्ञान हो जाता है ।।

अन्यथा जैसे जलकी धारा पर्वतके शिखरसे निकलकर ढालकी ओर बहती है, उसी प्रकार यह गुणवती बुद्धि अज्ञानके कारण परमात्मासे नियुक्त होकर रूप आदि गुणोंकी ओर बहने लग जाती है ।। ११ ।।

परंतु जब साधक सबके आदिकारण निर्गुण ध्येयतत्त्वको ध्यानद्वारा अन्त:ःकरणमें प्राप्त कर लेता है, तब कसौटीपर कसे हुए सुवर्णके समान ब्रह्मके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होता है ।। १२ ।।

परंतु इन्द्रियोंके विषयोंको दिखानेवाला मन जब पहलेसे ही विषयोंकी ओर अपहृत हो जाता है, तब वह विषयरूप गुणोंकी अपेक्षा रखनेवाला मन निर्गुण तत्त्वका दर्शन करानेमें समर्थ नहीं होता ।। १३ ।।

समस्त इन्द्रियोंको रोककर संकल्पमात्रसे मनमें स्थित हो उन सबको हृदयमें एकत्र करके साधक उससे भी परे विद्यमान परमात्माको प्राप्त कर लेता है || १४ ।।

जिस प्रकार गुणोंका क्षय होनेपर पठ्चमहाभूत निवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार बुद्धि समस्त इन्द्रियोंको लेकर हृदयमें स्थित हो जाती है ।। १५ ।।

जब निश्चयात्मिका बुद्धि अन्तर्मुखी होकर हृदयमें स्थित होती है, तब मन विशुद्ध हो जाता है || १६ |।

शब्दादि गुणोंसे युक्त इन्द्रियोंके सम्बन्धसे उन गुणोंसे घिरा हुआ मन जब ध्यानजनित गुणोंसे सम्पन्न होता है, तब उन समस्त गुणोंको त्यागकर निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है ।। १७ ।।

उस अव्यक्त ब्रह्मका बोध करानेके लिये इस संसारमें कोई योग्य दृष्टान्त नहीं है। जहाँ वाणीका व्यापार ही नहीं है, उस वस्तुको कौन वर्णनका विषय बना सकता है ।। १८ ।।

इसलिये तपसे, अनुमानसे, शम आदि गुणोंसे, जातिगत धर्मोके पालनसे तथा शास्‍्त्रोंके स्वाध्यायसे अन्तःकरणको विशुद्ध करके उसके द्वारा परब्रह्मको प्राप्त करनेकी इच्छा करे ।। १९ ||

उक्त तपस्या आदि गुणोंसे रहित मनुष्य बाहर रहकर बाहा मार्गका ही अनुसरण करता है। वह ज्ञेयस्वरूप परमात्मा गुणोंसे अतीत होनेके कारण स्वभावसे ही तर्कका विषय नहीं है || २० ।।

जैसे अग्नि सूखे काठमें विचरण करती है, उसी प्रकार बुद्धि भी शब्द, स्पर्श आदि गुणोंमें विचरती रहती है। जब वह उन गुणोंका सम्बन्ध छोड़ देती है, तब निर्गुण होनेके कारण ब्रह्मको प्राप्त होती है और जबतक गुणोंमें आसक्त रहती है, तबतक गुणोंसे सम्बन्धित होनेके कारण ब्रह्मको न पाकर लौट आती है ।। २१ ।।

जैसे पाँचों इन्द्रियाँ अपने कार्यरूप शब्द आदि गुणोंसे भिन्न हैं, उसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा भी प्रकृतिसे सर्वथा परे है || २२ ।।

इस प्रकार समस्त प्राणी प्रकृतिसे उत्पन्न होते और यथासमय उसीमें लयको प्राप्त होते हैं। उस लय अथवा मृत्युके पश्चात्‌ वे पुण्य और पापके फलस्वरूप स्वर्ग और नरकमें जाते हैं ।। २३ ।।

पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, पाँच विषय, दस इन्द्रियाँ, अहंकार, मन और पंच महाभूत--इन पचीस तत्त्वोंका समूह ही प्राणी नामसे कहा जाता है || २४ ।।

बुद्धि आदि तत्त्वसमूहकी प्रथम सृष्टि प्रकृतिसे ही हुई है। तदनन्तर दूसरी बारसे उनकी सामान्यतः मैथून-धर्मसे नियमपूर्वक अभिव्यक्ति होने लगी है || २५ ।।

धर्म करनेसे श्रेयकी वृद्धि होती है और अधर्म करनेसे मनुष्यका अकल्याण होता है। विषयासक्त पुरुष प्रकृतिको प्राप्त होता है और विरक्त आत्मज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो जाता है || २६ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादविषयक दो सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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