सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ छानबेवें अध्याय से दो सौवें अध्याय तक (From the 196 chapter to the 200 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ छानबेवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छानबेवें अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

“जपयज्ञके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न, उसके उत्तरमें जप और ध्यानकी महिमा और उसका फल”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने चार आश्रमों तथा राजधर्मोंका वर्णन किया एवं अनेकानेक विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले बहुत-से भिन्न-भिन्न इतिहास भी सुनाये ।। १ ।।

महामते! मैंने आपके मुखसे अनेक धर्मयुक्त कथाएँ सुनी हैं; फिर भी मेरे मनमें एक संदेह रह गया है, उसे आप मुझे बतानेकी कृपा करें ।। २ ।।

भरतनन्दन! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि जप करनेवालोंको फलकी प्राप्ति कैसे होती है? जापकोंके जपका फल क्‍या बताया गया है अथवा जप करनेवाले पुरुष किन लोकोंमें स्थान पाते हैं? ।। ३ ।।

अनघ! आप मुझे जपकी सम्पूर्ण विधि भी बताइये। “जापक” इस पदसे क्‍या तात्पर्य है? क्या यह सांख्ययोग, ध्यानयोग अथवा क्रियायोगका अनुष्ठान है? ।। ४ ।।

अथवा यह जप भी कोई यज्ञकी ही विधि है? जिसका जप किया जाता है, वह क्‍या वस्तु है? आप यह सारी बातें मुझे बताइये; क्योंकि आप मेरी मान्यताके अनुसार सर्वज्ञ हैं ।। ५ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! इस विषयमें विद्वान्‌ पुरुष उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो पूर्वकालमें यम, काल और ब्राह्मणके बीचमें घटित हुआ था।। ६ ।।

मोक्षदर्शी मुनियोंने जो सांख्य और योगका वर्णन किया है, उनमेंसे वेदान्त (सांख्य)-में तो जपका संन्यास (त्याग) ही बताया गया है ।। ७ ।।

उपनिषदोंके वाक्य निर्वत्ति (परमानन्द), शान्ति तथा ब्रह्मनिष्ठताका बोध करानेवाले हैं (अतः वहाँ जपकी अपेक्षा नहीं है)। समदर्शी मुनियोंने जो सांख्य और योग बताये हैं, वे दोनों मार्ग चित्तशुद्धिके द्वारा ज्ञानप्राप्तिमें उपकारक होनेसे जपका आश्रय लेते हैं, नहीं भी लेते हैं || ८६ ।।

राजन! यहाँ जैसा कारण सुना जाता है, वैसा आगे बताया जायगा। सांख्य और योग --इन दोनों मार्गोंमें भी मनोनिग्रह और इन्द्रियसंयम आवश्यक माने गये हैं ।। ९६ ।।

सत्य, अग्निहोत्र, एकान्तसेवन, ध्यान तपस्या, दम, क्षमा, अनसूया, मिताहार, विषयोंका संकोच, मितभाषण तथा शम--यह प्रवर्तक यज्ञ है। अब निवर्तक यज्ञका वर्णन सुनो; जिसके अनुसार जप करनेवाले ब्रह्मचारी साधकके सारे कर्म निवृत्त हो जाते हैं (अर्थात्‌ उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है) || १०-१२ ।।

इन मनोनिग्रह आदि पूर्वोक्त सभी साधनोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करके उन्हें प्रवृत्तिके विपरीत निवृत्तिमार्गमें बदल डाले। निवृत्तिमार्ग तीन तरहका है-व्यक्त, अव्यक्त और अनाश्रय, उस मार्गका आश्रय लेकर स्थिरचित्त हो जाय ।। १३ ||

निवृत्तिमार्गपर पहुँचनेकी विधि यह है--जपकर्ताको कुशासनपर बैठना चाहिये। उसे अपने हाथमें भी कुश रखना चाहिये। शिखामें भी कुश बाँध लेना चाहिये, वह कुशोंसे घिरकर बैठे और मध्यभागमें भी कुशोंसे आच्छादित रहे ।। १४ ।।

विषयोंको दूरसे ही नमस्कार करे और कभी उनका अपने मनमें चिन्तन न करे। मनसे समताकी भावना करके मनका मनमें ही लय करे || १५ ।।

फिर बुद्धिके द्वारा परब्रह्म परमात्माका ध्यान करे तथा सर्व-हितकारिणी वेदसंहिताका एवं प्रणव और गायत्री मन्त्रका जप करे। फिर समाधिमें स्थित होनेपर उस संहिता एवं गायत्री मन्त्र आदिके जपको भी त्याग दे ।।

संहिताके जपसे जो बल प्राप्त होता है, उसका आश्रय लेकर साधक अपने ध्यानको सिद्ध कर लेता है। वह शुद्धचित्त होकर तपके द्वारा मन और इन्द्रियोंको जीत लेता है तथा द्वेष और कामनासे रहित एवं आसक्ति और मोहसे रहित हुआ शीत और उष्ण आदि समस्त दन्द्"ोंस अतीत हो जाता है। अतः वह न तो कभी शोक करता है और न कहीं भी आसक्त होता है। वह कर्मोका कारण और कार्यका कर्ता नहीं होता (अर्थात्‌ अपनेमें कर्तापनका अभिमान नहीं लाता है) ।।

वह अहंकारसे मुक्त होकर कहीं भी अपने मनको नहीं लगाता है। वह न तो स्वार्थसाधनमें संलग्न होता है, न किसीका अपमान करता है और न अकर्मण्य होकर ही बैठता है ।। १९ ||

वह ध्यानरूप क्रियामें ही नित्य तत्पर रहता है, ध्याननिष्ठ हो ध्यानके द्वारा ही तत्त्वका निश्चय कर लेता है, ध्यानमें समाधिस्थ होकर क्रमश: ध्यानरूप क्रियाका भी त्याग कर देता है ।। २० ।।

वह उस अवस्थामें स्थित हुआ योगी निस्संदेह सर्वत्यागरूप निर्बीज समाधियसे प्राप्त होनेवाले दिव्य परमानन्दका अनुभव करता है। वह योगजनित अणिमा आदि सिद्धियोंकी भी इच्छा न रखकर सर्वथा निष्काम हो प्राणोंका परित्याग कर देता है और विशुद्ध परब्रह्म परमात्माके स्वरूपमें प्रवेश कर जाता है || २१ ।।

अथवा यदि वह परब्रह्मका सायुज्य नहीं प्राप्त करना चाहता तो देवयानमार्गपर स्थित हो ऊपरके लोकोंमें गमन करता है, अर्थात्‌ परब्रह्म परमात्माके परम धाममें चला जाता है। पुनः इस संसारमें कहीं जन्म नहीं लेता ।।

आत्मस्वरूपका बोध हो जानेसे वह रजोगुणसे रहित निर्मल शान्तस्वरूप योगी अमृतस्वरूप विशुद्ध आत्माको प्राप्त होता है ।। २३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ छानबेवाँ अध्याय प्रा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सत्तानबेवें अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

“जापकमें दोष आनेके कारण उसे नरककी प्राप्ति”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने यहाँ जापकोंके लिये गतियोंमें उत्तम गतिकी प्राप्ति बतायी है। क्या उनके लिये एकमात्र यही गति है? या वे किसी दूसरी गतिको भी प्राप्त होते हैं? ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! तुम सावधान होकर जापकोंकी गतिका वर्णन सुनो। प्रभो! पुरुषप्रवर! अब मैं यह बता रहा हूँ कि वे किस तरह नाना प्रकारके नरकोंमें पड़ते हैं" २ ।।

जो जापक जैसा पहले बताया गया है, उसी तरह नियमोंका ठीक-ठीक पालन नहीं करता, एकदेशका ही अनुष्ठान करता है अर्थात्‌ किसी एक ही नियमका पालन करता है, वह नरकमें पड़ता है ।। ३ ।।

जो अवहेलनापूर्वक जप करता है, उसके प्रति प्रेम या प्रसन्नता नहीं प्रकट करता है, ऐसा जापक भी नि:संदेह नरकमें ही पड़ता है ।। ४ ।।

जपके कारण अपनेमें बड़प्पनका अभिमान करनेवाले सभी जापक नरकगामी होते हैं। दूसरोंका अपमान करनेवाला जापक भी नरकमें ही पड़ता है || ५ ।।

जो मोहित हो फलकी इच्छा रखकर जप करता है, वह जिस फलका चिन्तन करता है, उसीके उपयुक्त नरकमें पड़ता है ।। ६ ।।

यदि जप करनेवाले साधकको अणिमा आदि ऐकश्वर्य प्राप्त हों और वह उनमें अनुरक्त हो जाय तो वह ही उसके लिये नरक है, वह उससे छुटकारा नहीं पाता है ।।

जो जापक मोहके वशीभूत हो विषयासक्तिपूर्वक जप करता है, वह जिस फलमें उसकी आसक्ति होती है, उसीके अनुरूप शरीरको प्राप्त होता है। इस प्रकार उसका पतन हो जाता है ।। ८ ।।

जिसकी बुद्धि भोगोंमें आसक्तिके कारण दूषित है तथा जो विवेकशील नहीं है, वह जापक यदि मनके चंचल रहते हुए ही जप करता है तो विनाशशील गतिको प्राप्त होता है अथवा नरकमें गिरता है। अर्थात्‌ विनाशशील या स्वर्गादि विचलित स्वभाववाले लोकोंको प्राप्त होता है या तिर्यक्‌-योनियोंमें जाता है ।। ९ ।।

जो विवेकशून्य मूढ़ जापक मोहग्रस्त हो जाता है, वह उस मोहके कारण नरकमें गिरता है और उसमें गिरकर निरन्तर शोकमग्न रहता है ।। १० ।।

“मैं निश्चय ही जपका अनुष्ठान पूरा करूँगा,” ऐसा दृढ़ आग्रह रखकर जो जापक जपमें प्रवृत्त होता है, परंतु न तो उसमें अच्छी तरह संलग्न होता है और न उसे पूरा ही कर पाता है, वह नरकमें गिरता है ।। ११ ।।

युधिष्ठिरने पूछा--जो कभी निवृत्त न होनेवाला सनातन अव्यक्त ब्रह्म है, उस गायत्रीके जपमें स्थित रहने-वाला एवं उससे भावित हुआ जापक किस कारणसे यहाँ शरीरमें प्रवेश करता है अर्थात्‌ पुनर्जन्म ग्रहण करता है? ।।१२।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! काम आदिसे बुद्धि दूषित होनेके कारण ही उसके लिये बहुत-से नरकोंकी प्राप्ति अर्थात्‌ नाना योनियोंमें जन्म ग्रहण करनेकी बात कही गयी है। जापक होना तो बहुत उत्तम है। वे उपर्युक्त राग आदि दोष तो उसमें दूषित बुद्धिके कारण ही आते हैं ।।१३।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • इस प्रकरणमें पुनर्जन्मको ही नरकके नामसे कहा गया है। यह बात छठे और सातवें श्लोकके वर्णनसे स्पष्ट हो जाती है।

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शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अट्ठानबेवें अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

“परमधामके अधिकारी जापकके लिये देवलोक भी नरक-तुल्य हैं--इसका प्रतिपादन”

युधिष्ठिरने पूछा--दादाजी! जप करनेवालेको उसके दोषोंके कारण किस तरहके नरककी प्राप्ति होती है? उसका मुझसे वर्णन कीजिये। राजन्‌! उसे जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है; अतः आप अवश्य बतावें ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--अनघ! तुम धर्मके अंशसे उत्पन्न हुए हो और स्वभावसे ही धर्मनिष्ठ हो; अतः सावधान होकर धर्मके मूलभूत वेद और परमात्मासे सम्बन्ध रखनेवाली मेरी बात सुनो | २ ।।

परम बुद्धिमान्‌ देवताओंके ये जो स्थान बताये जाते हैं, उनके रूप-रंग अनेक प्रकारके हैं। फल भी नाना प्रकारके हैं। देवताओंके यहाँ इच्छानुसार विचरनेवाले दिव्य विमान तथा दिव्य सभाएँ होती हैं। राजन्‌! उनके यहाँ नाना प्रकारके क्रीडास्थल तथा सुवर्णमय कमलोंसे सुशोभित बावलियाँ होती हैं ।। ३-४ ।।

तात! वरुण, कुबेर, इन्द्र और यमराज--इन चारों लोकपालों, शुक्र, बृहस्पति, मरुदगण, विश्वेदेव, साध्य, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु तथा अन्य देवताओंके जो ऐसे ही लोक हैं, वे सब परमात्माके परमधामके सामने नरक ही हैं ।। ५-६ ।।

परमात्माका परमधाम विनाशके भयसे रहित है; क्योंकि वह कारणरहित नित्य-सिद्ध है। वह अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक पाँच क्लेशोंसे घिरा हुआ नहीं है। उसमें प्रिय और अप्रिय ये दो भाव नहीं हैं*। प्रिय और अप्रियके हेतुभूत तीन गुण--सत्त्व, रज और तम भी नहीं हैं तथा वह परमधाम भूत, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, उपासना, कर्म, प्राण और अविद्या--इन आठ पुरियोंसेः भी मुक्त है। वहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय--इस त्रिपुटीका भी अभाव है ।। ७ |।

इतना ही नहीं, वह दृष्टि, श्रुति, मति और विज्ञाति-इन चार लक्षणोंसे रहित हैः। ज्ञानके कारणभूत प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द--इन चारोंसे वह परे है। वहाँ इष्ट विषयकी प्राप्तिसे होनेवाले हर्ष और उसके भोगजनित आनन्दका भी अभाव है। वह शोक और श्रमसे भी सर्वथा रहित है ।। ८ ।।

राजन्‌! कालकी उत्पत्ति भी वहींसे होती है। उस धामपर कालकी प्रभुता नहीं चलती। वह परमात्मा कालका भी स्वामी और स्वर्गका भी ईश्वर है ।। ९ ।।

जो आत्मकैवल्यको प्राप्त हो चुका है वही मनुष्य वहाँ जाकर शोकसे रहित हो जाता है। उस परमधामका स्वरूप ऐसा ही है और पहले जो नाना प्रकारके सुखभोगोंसे सम्पन्न लोक बताये गये हैं, वे सभी उसकी तुलनामें नरक हैं ।। १० ।।

राजन! इस प्रकार मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे ये सभी नरक बताये हैं। उस परमपदके सामने वस्तुत: वे सभी लोक “नरक' ही कहलाने योग्य हैं || ११ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  1. श्रुति भी कहती है--'अशरीरं वावसन्तं न प्रियाप्रिये स्‍्पृशत: ।/
  2. आठ पुरियोंका बोधक वचन इस प्रकार उपलब्ध होता है-भूतेन्द्रियमनोबुद्धिवासनाकर्मवायव: । अविद्या चेत्यमुं वर्गमाहु: पुर्यष्टक॑ बुधा: ।। 
  3. इन लक्षणोंका नाम-निर्देश श्रुतिमें इस प्रकार किया गया है--“न दृष्टेद्रष्टारं पश्येर्न श्रुतेः श्रोतारं शृणुयान्न मतेर्मन्तारमन्वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं विजानीया: ।


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ निन्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-128 का हिन्दी अनुवाद)

“जापकको सावित्रीका वरदान, उसके पास धर्म, यम और काल आदिका आगमन, राजा इक्ष्वाकु और जापक ब्राह्मणका संवाद, सत्यकी महिमा तथा जापककी परम गतिका वर्णन”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! आपने काल, मृत्यु, यम, इक्ष्वाकु और ब्राह्मणके विवादकी पहले चर्चा की थी; अतः उसे बतानेकी कृपा करें ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--युधिष्ठिर! इसी प्रसंगमें उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें राजा इक्ष्वाकु, सूर्यपुत्र यम, ब्राह्मण, काल और मृत्युके वृत्तान्तका उल्लेख है। जिस स्थानपर और जिस रूपमें उनका वह संवाद हुआ था, उसे बताता हूँ, मुझसे सुनो || २-३ ।।

कहते हैं कि हिमालय पर्वतके निकटवर्ती पहाड़ियोंपर एक महायशस्वी धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था, जो वेदके छहों अंगोंका ज्ञाता, परम बुद्धिमान्‌ तथा जपमें तत्पर रहनेवाला था। वह पिप्पलादका पुत्र था और कौशिक वंशमें उसका जन्म हुआ था। वेदके छहों अंगोंका विज्ञान उसे प्रत्यक्ष हो गया था, अतः वह वेदोंका पारंगत विद्धान्‌ था ।। ४-५ ||

वह अर्थज्ञानपूर्वक संहिताका जप करता हुआ इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्राह्मणोचित तपस्या करने लगा। नियमपूर्वक जप-तप करते हुए उसके एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये ।। ६ ।।

कहते हैं, उसके उस जपसे प्रसन्न होकर देवी सावित्रीने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा कि मैं तुझपर प्रसन्न हूँ। ब्राह्मण अपने जपनीय वेद-संहिताके गायत्रीमन्त्रकी आवृत्ति कर रहा था; इसलिये सावित्रीदेवीके आनेपर भी चुपचाप बैठा ही रह गया। उनसे कुछ न बोला || ७ |।

देवी सावित्रीकी उसपर कृपा हो गयी थी; अतः वे उसके उस समयके व्यवहारसे भी प्रसन्न ही हुईं। वेदमाताने ब्राह्मणके उस नियमानुकूल जपकी मन-ही-मन प्रशंसा की ।। ८ ।।

जब जप समाप्त हो गया, तब धर्मात्मा ब्राह्मणने उठकर देवी सावित्रीके चरणोंमें मस्तक रखकर साष्टांग प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-- || ९ |।

देवि! आज मेरा अहोभाग्य है कि आपने प्रसन्न होकर मुझे दर्शन दिया। यदि वास्तवमें आप मुझपर संतुष्ट हैं तो ऐसी कृपा कीजिये जिससे मेरा मन जपमें लगा रहे” || १० ।।

सावित्रीने कहा--ब्रह्मर्ष! तुम क्या चाहते हो? कौन-सी वस्तु तुम्हें अभीष्ट है? बताओ । मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगी। जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! तुम अपनी अभिलाषा बताओ। तुम्हारी वह सारी इच्छा पूर्ण हो जायगी || ११ ।।

सावित्रीदेवीके ऐसा कहनेपर वह धर्मात्मा ब्राह्मण बोला--'शुभे! इस मन्त्रके जपमें मेरी यह इच्छा बराबर बढ़ती रहे और मेरे मनकी एकाग्रता भी प्रतिदिन बढ़े” || १२३ ।

तब सावित्रीदेवीने मधुर वाणीमें “तथास्तु” कहा। इसके बाद देवीने ब्राह्मणका प्रिय करनेकी इच्छासे यह दूसरा वचन और कहा--:विप्रवर! जहाँ दूसरे श्रेष्ठ ब्राह्मण गये हैं, उन स्वर्गादि निम्नश्रेणीके लोकोंमें तुम नहीं जाओगे। तुम्हें स्‍्वभावसिद्ध एवं निर्दोष ब्रह्मपदकी प्राप्ति होगी। तुमने मुझसे जो यहाँ प्रार्थना की है, वह पूरी होगी। मैं उसे पूर्ण करनेकी चेष्टा करूँगी। तुम नियमपूर्वक एकाग्रचित्त होकर जप करो। धर्म स्वयं तुम्हारी सेवामें उपस्थित होगा। काल, मृत्यु और यम भी तुम्हारे निकट पधारेंगे, तुम्हारा उन सबके साथ यहाँ धर्मानुकूल वाद-विवाद भी होगा || १३--१६ ३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर भगवती सावित्री देवी अपने धामको चली गयीं और ब्राह्मण भी दिव्य सौ वर्षोतक पूर्ववत्‌ जपमें संलग्न रहा || १७६ ।।

वह सदा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखता था, क्रोधको जीत चुका था। अपनी की हुई प्रतिज्ञुका सचाईके साथ पालन करता था और किसीके दोष नहीं देखता था। बुद्धिमान्‌ ब्राह्मणका वह नियम पूर्ण होनेपर साक्षात्‌ भगवान्‌ धर्म उस समय उसपर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया || १८-१९ ।।

धर्म बोले--विप्रवर! तुम मेरी ओर देखो। मैं धर्म हूँ और तुम्हारा दर्शन करनेके लिये आया हूँ। तुम्हें इस झपका जो फल प्राप्त हुआ है, वह सब मुझसे सुन लो || २० ।।

तुमने दिव्य और मानुष सभी लोकोंपर विजय प्राप्त की है। साधो! तुम सम्पूर्ण देवताओंके लोकोंको लाँधकर उनसे भी ऊपर जाओगे ।। २१ ।।

मुने! अब तुम अपने प्राणोंका परित्याग करो और अभीष्ट लोकोंमें जाओ। अपने शरीरका परित्याग करनेके पश्चात्‌ ही तुम उन पुण्यलोकोंमें जाओगे ।। २२ ।।

ब्राह्मणने कहा--धर्म! मुझे उन लोकोंको लेकर क्या करना है? आप सुखपूर्वक यहाँसे अपने स्थानको पधारिये। प्रभो! मैंने इस शरीरके साथ बहुत दुःख और सुख उठाया है; अत: इसका त्याग नहीं कर सकता ।। २३ ।।

धर्म बोले--निष्पाप मुनिश्रेष्ठ! शरीर तो तुम्हें अवश्य त्यागना पड़ेगा। विप्रवर! अब स्वर्गलोकपर आरूढ़ हो जाओ अथवा तुम्हारी क्या रुचि है? बताओ || २४ ।।

ब्राह्मणने कहा--प्रभो! मैं इस शरीरके बिना स्वर्गलोकमें निवास करना नहीं चाहता; अतः धर्मदेव! आप यहाँसे जाइये। इस शरीरको छोड़कर स्वर्गलोकमें जानेके लिये मेरे मनमें तनिक भी उत्साह नहीं है || २५ ।।

धर्म बोले--मुने! शरीरमें मनको आसक्त रखना ठीक नहीं है। तुम देह त्यागकर सुखी हो जाओ। उन रजोगुणरहित निर्मल लोकोंमें जाओ, जहाँ जाकर फिर तुम्हें शोक नहीं करना पड़ेगा || २६ |।

ब्राह्मणने कहा--महाभाग! मैं तो जपमें ही सुख मानता हूँ। मुझे सनातन लोकोंको लेकर क्‍या करना है? भगवन्‌! यह बताइये, मैं सशरीर स्वर्गलोकमें जा सकता हूँ या नहीं? ।। २७ ।।

धर्म बोले--ब्रह्मन! यदि तुम शरीर छोड़ना नहीं चाहते हो तो देखो, ये काल, मृत्यु और यम तुम्हारे पास आये हैं || २८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! तदनन्तर वैवस्वत यम, काल और मृत्यु--तीनों उस महाभाग ब्राह्मणके पास जाकर इस प्रकार बोले-- || २९ ।।

यमराज बोले--ब्रह्मन! तुम्हारेद्वारा भलीभाँति की हुई इस तपस्याका तथा शुभ आचरणोंका भी तुम्हें उत्तम फल प्राप्त हुआ है। मैं यमराज हूँ और स्वयं तुमसे यह बात कहता हूँ ।। ३० ।।

कालने कहा--विप्रवर! तुम्हारे इस जपका यथायोग्य सर्वोत्तम फल प्राप्त हुआ है। अतः अब तुम्हारे लिये स्वर्गलोकमें जानेका समय आया है। यही सूचित करनेके लिये मैं साक्षात्‌ काल तुम्हारे पास आया हूँ ।।

मृत्युने कहा--धर्मज्ञ ब्राह्मण! मुझे मृत्यु समझो। मैं स्वयं ही शरीर धारण करके यहाँ आया हूँ। विप्रवर! मैं कालसे प्रेरित होकर आज तुम्हें यहाँसे ले जानेके लिये उपस्थित हुआ हूँ ।। ३२ ।।

ब्राह्मणने कहा--सूर्यपुत्र यम, महामना काल, मृत्यु तथा धर्म--इन सबका स्वागत है। बताइये, मैं आपलोगोंका कौन-सा कार्य करूँ? ।। ३३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! वहाँ उन सबका समागम होनेपर ब्राह्मणने उनके लिये अर्घ्य और पाद्य देकर बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा--'देवताओ! मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपलोगोंकी क्या सेवा करूँ?” ।। ३४ ।।

इसी समय तीर्थयात्राके लिये आये हुए राजा इक्ष्वाकु भी उस स्थानपर आ पहुँचे, जहाँ वे सब लोग एकत्र हुए थे || ३५ ।।

नृपश्रेष्ठ राजर्षि इक्ष्वाकुने उन सबको प्रणाम करके उनकी पूजा की और उन सबका कुशल-समाचार पूछा ।। ३६ ।।

ब्राह्मणने भी राजाको अर्घ्य, पाद्य और आसन देकर कुशल-मंगल पूछनेके बाद इस प्रकार कहा-- ।।

“महाराज! आपका स्वागत है! आपकी जो-जो इच्छा हो, उसे यहाँ बताइये। मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपकी क्‍या सेवा करूँ? यह आप मुझे बतावें" ।। ३८ ।।

राजाने कहा--विप्रवर! मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप छ: कर्मोमें स्थित रहनेवाले ब्राह्णण अतः मैं आपको कुछ धन देना चाहता हूँ। आप प्रसिद्ध धनरत्न मुझसे माँगिये ।। ३९ ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन! ब्राह्मण दो प्रकारके होते हैं और धर्म भी दो प्रकारका माना गया है--प्रवृत्ति और निवृत्ति। मैं प्रतिग्रहसे निवृत्त ब्राह्मण हूँ || ४० ।।

नरेश्वर! आप उन ब्राह्मणोंको दान दीजिये, जो प्रवृत्तिमार्गमें हों। मैं आपसे दान नहीं लूँगा। नृपश्रेष्ठी इस समय आपको क्‍या अभीष्ट है? मैं आपको क्‍या दूँ? बताइये, मैं अपनी तपस्याद्वारा आपका कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ? ।। ४१ ।।

राजा बोले--द्विजश्रेष्ठ! मैं क्षत्रिय हूँ। “दीजिये” ऐसा कहकर याचना करनेकी बातको मैं कभी नहीं जानता। माँगनेके नामपर तो हमलोग यही कहना जानते हैं कि “युद्ध दो” ।। ४२ ।।

ब्राह्मणने कहा--नरेश्वर! जैसे आप अपने धर्मसे संतुष्ट हैं, उसी तरह हम भी अपने धर्मसे संतुष्ट हैं। हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। अतः आपको जो अच्छा लगे, वह कीजिये ।। ४३ ।।

राजाने कहा--्रह्मन! आपने मुझसे पहले कहा है कि “मैं अपनी शक्तिके अनुसार दान दूँगा” तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि आप अपने झपका फल मुझे दे दीजिये ।। ४४ ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! आप तो बहुत बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे कि मेरी वाणी सदा युद्धकी ही याचना करती है। तब आप मेरे साथ भी युद्धकी ही याचना क्‍यों नहीं कर रहे हैं? || ४५ ।।

राजाने कहा--विप्रवर! ब्राह्मणोंकी वाणी ही वज़्के समान प्रभाव डालनेवाली होती है और क्षत्रिय बाहुबलसे जीवन-निर्वाह करनेवाले होते हैं। अतः आपके साथ मेरा यह तीव्र वाग्युद्ध उपस्थित हुआ है ।।

ब्राह्मणने कहा-राजेन्द्र! मेरी वही प्रतिज्ञा इस समय भी है। मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपको कया दूँ? बोलिये, विलम्ब न कीजिये। मैं शक्ति रहते आपको मुँहमाँगी वस्तु अवश्य प्रदान करूँगा ।। ४७ ।।

राजाने कहा--मुने! यदि आप देना ही चाहते हैं तो पूरे सौ वर्षोतक जप करके आपने जिस फलको प्राप्त किया है, वही मुझे दे दीजिये || ४८ ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! मैंने जो जप किया है उसका उत्तम फल आप ग्रहण करें। मेरे झपका आधा फल तो आप बिना विचारे ही प्राप्त करें अथवा यदि आप मेरेद्वारा किये हुए जपका सारा ही फल लेना चाहते हों तो अवश्य अपनी इच्छाके अनुसार वह सब प्राप्त कर लें ।। ४९-५० ।।

राजाने कहा--ब्रह्मन! मैंने जो जपका फल माँगा है, उन सबकी पूर्ति हो गयी। आपका भला हो, कल्याण हो। मैं चला जाऊँगा; किंतु यह तो बता दीजिये कि उसका फल क्या है? ।। ५१ ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! इस जपका फल क्या मिलेगा? इसको मैं नहीं जानता; परंतु मैंने जो कुछ जप किया था, वह सब आपको दे दिया। ये धर्म, यम, मृत्यु और काल इस बातके साक्षी हैं || ५२ ।।

राजाने कहा--ब्रह्मन! यदि आप मुझे अपने जपजनित धर्मका फल नहीं बता रहे हैं तो इस धर्मका अज्ञात फल मेरे किस काम आयेगा? वह सारा फल आपटहीके पास रहे। मैं संदिग्ध फल नहीं चाहता ।। ५३ ।।

ब्राह्मणने कहा--राजर्षे! अब तो मैं अपने जपका फल दे चुका; अतः दूसरी कोई बात नहीं स्वीकार करूँगा। इस विषयमें आज मेरी और आपकी बातें ही प्रमाणस्वरूप हैं (हम दोनोंको अपनी-अपनी बातोंपर दृढ़ रहना चाहिये) ।। ५४ ।।

राजसिंह! मैंने जप करते समय कभी फलकी कामना नहीं की थी; अत: इस जपका क्या फल होगा, यह कैसे जान सकूँगा? ।। ५५ ।।

आपने कहा था कि “दीजिये” और मैंने कहा था कि “दूँगा'--ऐसी दशामें मैं अपनी बात झूठी नहीं करूँगा। आप सत्यकी रक्षा कीजिये और इसके लिये सुस्थिर हो जाइये ।। ५६ ।।

राजन! यदि इस तरह स्पष्ट बात करनेपर भी आप आज मेरे वचनका पालन नहीं करेंगे तो आपको असत्यका महान्‌ पाप लगेगा ।। ५७ |।

शत्रुदमन नरेश! आपके लिये भी झूठ बोलना उचित नहीं है और मैं भी अपनी कही हुई बातको मिथ्या नहीं कर सकता ।। ५८ |।

मैंने बिना कुछ सोच-विचार किये ही पहले देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है; अतः आप भी बिना विचारे मेरा दिया हुआ जप ग्रहण करें। यदि आप सत्यपर दृढ़ हैं तो आपको ऐसा अवश्य करना चाहिये ।। ५९ |।

राजन! आपने स्वयं यहाँ आकर मुझसे जपके फलकी याचना की है और मैंने उसे आपके लिये दे दिया है; अतः आप उसे ग्रहण करें और सत्यपर डटे रहें ।।

जो झूठ बोलनेवाला है, उस मनुष्यको न इस लोकमें सुख मिलता है और न परलोकमें ही। वह अपने पूर्वजोंको भी नहीं तार सकता; फिर भविष्यमें होनेवाली संततिका उद्धार तो कर ही कैसे सकता है? ।।

पुरुषश्रेष्ठ! परलोकमें सत्य जिस प्रकार जीवोंका उद्धार करता है, उस प्रकार यज्ञ, वेदाध्ययन, दान और नियम भी नहीं तार सकते हैं || ६२ ।।

लोगोंने अबतक जितनी तपस्याएँ की हैं और भविष्यमें भी जितनी करेंगे, उन सबको सौगुना या लाखगुना करके एकत्र किया जाय तो भी उनका महत्त्व सत्यसे बढ़कर नहीं सिद्ध होगा ।। ६३ ।।

सत्य ही एकमात्र अविनाशी ब्रह्म है। सत्य ही एकमात्र अक्षय तप है, सत्य ही एकमात्र अविनाशी यज्ञ है, सत्य ही एकमात्र नाशरहित सनातन वेद है ।। ६४ ।।

वेदोंमें सत्य ही जागता है--उसीकी महिमा बतायी गयी है। सत्यका ही सबसे श्रेष्ठ फल माना गया है। धर्म और इन्द्रिय-संयमकी सिद्धि भी सत्यसे ही होती है। सत्यके ही आधारपर सब कुछ टिका हुआ है ।। ६५ ।।

सत्य ही वेद और वेदांग है। सत्य ही विद्या तथा विधि है। सत्य ही व्रतचर्या तथा सत्य ही ओंकार है ।। ६६ ।।

सत्य प्राणियोंको जन्म देनेवाला (पिता) है, सत्य ही संतति है, सत्यसे ही वायु चलती है और सत्यसे ही सूर्य तपता है || ६७ ।।

सत्यसे ही आग जलती है तथा सत्यपर ही स्वर्गलोक प्रतिष्ठित है। यज्ञ, तप, वेद, स्तोभ, मन्त्र और सरस्वती--सब सत्यके ही स्वरूप हैं ।। ६८ ।।

मैंने सुना है कि किसी समय धर्म और सत्यको तराजूपर, जिसके दोनों पलड़े बराबर थे, रखा और तौला गया; उस समय जिस ओर सत्य था, उधरका ही पलड़ा भारी हुआ ।। ६९ ||

जहाँ धर्म है वहाँ सत्य है। सत्यसे ही सबकी वृद्धि होती है। राजन! आप क्‍यों असत्यपूर्ण बर्ताव करना चाहते हैं? ।। ७० ।।

महाराज! आप सत्यमें ही अपने मनको स्थिर कीजिये। मिथ्यापूर्ण बर्ताव न कीजिये। यदि लेना ही नहीं था तो आपने “दीजिये” यह झूठा और अशुभ वचन क्‍यों मुँहसे निकाला था ।। ७१ ||

नरेश्वर! यदि आप मेरे दिये हुए इस जपके फलको नहीं स्वीकार करेंगे तो धर्मश्रष्ट होकर सम्पूर्ण लोकोंमें भटकते फिरेंगे || ७२ ।।

जो पहले देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर देना नहीं चाहता तथा जो याचना तो करता है, किंतु मिलनेपर उसे लेना नहीं चाहता, वे दोनों ही मिथ्यावादी होते हैं; अतः आप अपनी और मेरी भी बात मिथ्या न कीजिये ।। ७३ ।।

राजाने कहा--ब्रह्मन! क्षत्रियका धर्म तो प्रजाकी रक्षा और युद्ध करना है। क्षत्रियोंको दाता कहा गया है; फिर मैं उलटे ही आपसे दान कैसे ले सकता हूँ? ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! दान लेनेके लिये मैंने आपसे अनुरोध या आग्रह नहीं किया था और न मैं देनेके लिये आपके घर ही गया था। आपने स्वयं यहाँ आकर याचना की है; फिर लेनेसे कैसे इनकार करते हैं? || ७५ ।।

धर्म बोले--आप दोनोंमें विवाद न हो। आपको विदित होना चाहिये कि मैं साक्षात्‌ धर्म यहाँ आया हूँ। ब्राह्मणदेवता दानके फलसे युक्त हो जायँ और राजा भी सत्यके फलसे सम्पन्न हों || ७६ ।।

स्वर्ग बोला--राजेन्द्र! आपको विदित हो कि मैं स्वर्ग हूँ और स्वयं ही शरीर धारण करके यहाँ आया हूँ। आप दोनोंमें विवाद न हो। आप दोनों समान फलके भागी हों ।। ७७ ।।

राजाने कहा--मुझे स्वर्गकी कोई आवश्यकता नहीं है। स्वर्ग! तुम जैसे आये थे, वैसे ही लौट जाओ। यदि ये ब्राह्मणदेवता स्वर्गमें जाना चाहते हों तो मेरे किये हुए पुण्पफलको ग्रहण करें || ७८ ।।

ब्राह्मणने कहा--यदि बाल्यावस्थामें अज्ञानवश मैंने कभी किसीके सामने हाथ फैलाया हो तो उसका मुझे स्मरण नहीं है; परंतु अब तो संहिता--गायत्रीमन्त्रका जप करता हुआ निवृत्तिधर्मकी उपासना करता हूँ || ७९ ।।

राजन! मैं निवृत्तिमार्गका पथिक हूँ, आप बहुत देरसे मुझे लुभानेका प्रयत्न क्यों करते हैं? नरेश्वर! मैं स्वयं ही अपना कर्तव्य करूँगा, आपसे कोई फल नहीं लेना चाहता। मैं प्रतिग्रहसे निवृत्त होकर तप और स्वाध्यायमें लगा हुआ हूँ || ८० ।।

राजाने कहा--विप्रवर! यदि आपने अपने जपका उत्तम फल दे ही दिया है तो ऐसा कीजिये कि हम दोनोंके जो भी पुण्यफल हों, उन्हें एकत्र करके हम दोनों साथ ही भोगें-हम दोनोंका उनपर समान अधिकार रहे ।। ८१ ।।

ब्राह्मणोंको दान लेनेका अधिकार है और क्षत्रिय केवल दान देते हैं, लेते नहीं; यह धर्म आपने भी सुना होगा; अतः विप्रवर! हम दोनोंके कार्यका फल साथ ही हम दोनोंके उपयोगमें आवे || ८२ ।।

अथवा यदि आपकी इच्छा न हो तो हमें साथ रहकर कर्मफल भोगनेकी आवश्यकता नहीं है। उस अवस्थामें मैं यही प्रार्थना करूँगा कि यदि आपका मुझपर अनुग्रह हो तो आप ही मेरे शुभकर्मोका पूरा-पूरा फल ग्रहण कर लें। मैंने जो कुछ भी धर्म किया है, वह सब आप स्वीकार कर लें ।। ८३ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! इसी समय वहाँ विकराल वेषधारी दो पुरुष उपस्थित हुए। दोनोंने एक-दूसरेको पकड़कर अपने हाथोंसे आवेष्टित कर रखा था। दोनोंके शरीरपर मैले वस्त्र थे (उनमेंसे एकका नाम विकृत था और दूसरेका नाम विरूप)। वे दोनों बारंबार इस प्रकार कह रहे थे ।। ८४ ।।

एकने कहा--भाई! तुम्हारे ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है। दूसरा कहता--नहीं, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। पहलेने कहा--यहाँ जो हम दोनोंका विवाद है, इसका निर्णय ये सबका शासन करनेवाले राजा करेंगे ।। ८५ ।।

दूसरा बोला--मैं सच कहता हूँ कि तुमपर मेरा कोई ऋण नहीं है। पहलेने कहा--तुम झूठ बोलते हो। मुझपर तुम्हारा ऋण है ।। ८६ ।।

तब वे दोनों अत्यन्त संतप्त होकर राजासे इस प्रकार बोले--आप हमारे मामलेकी जाँच-पड़ताल करके फैसला कर दें, जिससे हम दोनों यहाँ दोषके भागी और निन्दाके पात्र नहों।। ८७ |।

विरूप बोला--पुरुषसिंह! मैं विकृतके एक गोदानका फल ऋणके तौरपर अपने यहाँ रखता हूँ। पृथ्वीनाथ! उस ऋणको आज मैं दे रहा हूँ; परंतु यह विकृत ले नहीं रहा है ।। ८८ ।।

विकृतने कहा--नरेश्वर! इस विरूपपर मेरा कोई ऋण नहीं है। यह आपसे झूठ बोलता है। इसकी बातमें सत्यका आभासमात्र है ।। ८९ ।।

राजा बोले--विरूप! तुम्हारे ऊपर विकृतका कौन-सा ऋण है। बताओ, मैं उसे सुनकर कोई निर्णय करूँगा। मेरे मनका ऐसा ही निश्चय है || ९० ।।

विरूप बोला--राजन्‌! नरेश्वरर! आप सावधान होकर सुनें, राजर्ष! इस विकृतका ऋण जिस प्रकार मैं धारण करता हूँ, वह सब पूर्णरूपसे बता रहा हूँ ।। ९१ ।।

निष्पाप राजर्षे! इसने धर्मकी प्राप्तिके लिये एक तपस्वी और स्वाध्यायशील ब्राह्मणको एक दूध देनेवाली उत्तम गाय दी थी || ९२ ।।

राजन! मैंने इसके घर जाकर इससे उसी गोदानका फल माँगा था और विकृतने शुद्ध हृदयसे मुझे वह दे दिया था || ९३ ।।

तदनन्तर मैंने भी अपनी शुद्धिके लिये पुण्यकर्म किया। राजन! दो अधिक दूध देनेवाली कपिला गौएँ, जिनके साथ उनके बछड़े भी थे, खरीदकर उन्हें मैंने एक उछ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणको विधि और श्रद्धा-पूर्वक दे दिया। प्रभो! उसी गोदानका फल मैं पुनः इसे वापस करना चाहता हूँ ।। ९४-९५ ।।

पुरुषसिंह! इससे एक गोदानका फल लेकर आज मैं इसे दूना फल लौटा रहा हूँ। ऐसी परिस्थितिमें आप स्वयं निर्णय कीजिये कि हम दोनोंमेंसे कौन शुद्ध है और कौन दोषी? ।। ९६ ||

नरेश्वर! इस प्रकार आपसमें विवाद करते हुए हम दोनों यहाँ आपके समीप आये हैं। आप निर्णय कीजिये। अब आप चाहे न्याय करें या अन्याय। इस झगड़ेका निपटारा कर दें। हम दोनोंको विशिष्ट न्यायके मार्गपर लगा दें ।। ९७ ।।

इसने जिस तरह मुझे दान दिया है, उसी तरह यदि स्वयं भी मुझसे लेना नहीं चाहता है तो आप स्वयं सुस्थिर होकर हम दोनोंको धर्मके मार्गपर स्थापित कर दें ।। ९८ ।।

राजाने कहा--विकृत! जब विरूप तुम्हें तुम्हारा दिया हुआ ऋण लौटा रहा है, तब तुम उसे आज ग्रहण क्यों नहीं करते? जैसे इसने तुम्हारी दी हुई वस्तु स्वीकार कर ली थी, उसी प्रकार तुम भी इसकी दी हुई वस्तुको ले लो। विलम्ब न करो ।। ९९ |।

विकृत बोला--राजन्‌! विरूपने अभी आपसे कहा है कि मैं ऋण धारण करता हूँ; परंतु मैंने उस समय “दान” कह करके वह वस्तु इसे दी थी; इसलिये इसके ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है। अब यह जहाँ जाना चाहे, जा सकता है || १०० ।।

राजाने कहा--विकृत! यह तुम्हें तुम्हारी वस्तु दे रहा है और तुम लेते नहीं हो। यह मुझे अनुचित जान पड़ता है; अतः मेरे मतमें तुम दण्डनीय हो; इसमें कोई संशय नहीं है ।। १०१ |।

विकृत बोला--राजर्षे! मैंने इसे दान दिया था; फिर वह दान इससे वापस कैसे ले लूँ। भले, इसमें मेरा अपराध समझा जाय; परंतु मैं दिया हुआ दान वापस नहीं ले सकता। प्रभो! मुझे दण्ड भोगनेकी आज्ञा प्रदान करें || १०२ ।।

विरूपने कहा--विकृत! यदि तुम मेरी दी हुई वस्तु स्वीकार नहीं करोगे तो ये धर्मपूर्ण शासन करनेवाले नरेश तुम्हें कैद कर लेंगे || १०३ ।।

विकृत बोला--तुम्हारे माँगनेपर मैंने अपना धन दानके रूपमें दिया था; फिर आज उसे वापस कैसे ले सकता हूँ? तुम्हारे ऊपर मेरा कुछ भी पावना नहीं है। मैं तुम्हें जानेके लिये आज्ञा देता हूँ, तुम जाओ || १०४ ।।

इसी बीचमें जापक ब्राह्मण बोल उठा--राजन्‌! आपने इन दोनोंकी बातें सुन लीं। मैंने आपको देनेके लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार आप मेरा दान बिना विचारे ग्रहण करें | १०५ ||

राजाने मन-ही-मन कहा--इन दोनोंका बड़ा भारी और गहन कार्य सामने आ गया है। इधर जापक ब्राह्मणका सुदृढ़ आग्रह ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। इससे निपटारा कैसे होगा || १०६ ||

यदि मैं आज ब्राह्मणकी दी हुई वस्तु ग्रहण न करूँ तो किस प्रकार महान्‌ पापसे निर्लिप्त रह सकूँगा ।। १०७ ।।

इसके बाद राजर्षि इक्ष्वाकुने उन दोनोंसे कहा--“तुम दोनों अपने विवादका निपटारा हो जानेपर ही यहाँसे जाना। इस समय मेरे पास आकर अपना कार्य पूर्ण हुए बिना न जाना। मुझे भय है कि राजधर्म मिथ्या अथवा कलंकित न हो जाय ।। १०८ ।।

राजाओंको अपने धर्मका पालन करना चाहिये, यही शास्त्रका सिद्धान्त है। इधर मुझ अजितात्माके भीतर गहन ब्राह्मणधर्मने प्रवेश किया है || १०९ |।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! आपने जो वस्तु माँगी थी और जिसे देनेकी मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी, उसे मैं आपकी धरोहरके रूपमें अपने पास रखता हूँ; अतः शीघ्र उसे ले लें। यदि नहीं लेंगे तो निस्संदेह मैं आपको शाप दे दूँगा ।। ११० ।।

राजाने कहा--धिक्कार है राजधर्मको, जिसके कार्यका यहाँ यह परिणाम निकला। ब्राह्यणगको और मुझको समान फलकी प्राप्ति कैसे हो, इसी उद्देश्यसे मुझे यह दान ग्रहण करना है ।। १११ ।।

ब्रह्म! यह मेरा हाथ जो आजसे पहले किसीके सामने नहीं फैलाया गया था, आज आपसे धरोहर लेनेके लिये आपके सामने फैला है। आप मेरा जो कुछ भी धरोहर धारण करते हैं, उसे इस समय मुझे दे दीजिये ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! मैंने संहिताका जप करते हुए कहींसे जितना भी पुण्य अथवा सदगुण संग्रह किया है, वह सब आप ले लें। इसके सिवा भी मेरे पास जो कुछ पुण्य हो, उसे ग्रहण करें ।। ११३ ।।

राजाने कहा--द्विजश्रेष्ठ! मेरे हाथपर यह संकल्पका जल पड़ा हुआ है। मेरा और आपका सारा पुण्य हम दोनों के लिये समान हो और हम साथ-साथ उसका उपभोग करें; इस उद्देश्यसे आप मेरा दिया हुआ दान भी ग्रहण करें ।। ११४ ।।

विरूपने कहा--राजन्‌! आपको विदित हो कि हम दोनों काम और क्रोध हैं। हमने ही आपको इस कार्यमें लगाया है। आपने जो साथ-साथ फल भोगनेकी बात कही है, इससे आपको और इस ब्राह्मणको एक समान लोक प्राप्त होंगे || ११५ ।।

यह मेरा साथी कुछ भी धारण नहीं करता अथवा मुझपर भी इसका कोई ऋण नहीं है। यह सब खेल तो हमलोगोंने आपकी परीक्षा लेनेके लिये किया था। काल, धर्म, मृत्यु, काम, क्रोध और आप दोनों--ये सब-के-सब एक-दूसरेकी कसौटीपर आपके देखते-देखते कसे गये हैं। अब जहाँ आपकी इच्छा हो, अपने कर्मसे जीते हुए उन लोकोमें जाइये ।। ११६-११७ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन! जापकोंको किस प्रकार फलकी प्राप्ति होती है? इस बातका दिग्दर्शन मैंने तुम्हें करा दिया। जापक ब्राह्मणने कौन-सी गति प्राप्त की? किस स्थानपर अधिकार किया? कौन-कौन-से लोक उसके लिये सुलभ हुए? और यह सब किस प्रकार सम्भव हुआ? ये बातें बतायी जायँगी ।। ११८ ।।

संहिताका स्वाध्याय करनेवाला द्विज परमेष्ठी ब्रह्माको प्राप्त होता है अथवा अम्निमें समा जाता है अथवा सूर्यमें प्रवेश कर जाता है ।। ११९ ।।

यदि वह जापक तैजस्‌ शरीरसे उन लोकोंमें रमण करता है तो रागसे मोहित होकर उनके गुणोंको अपने भीतर धारण कर लेता है ।। १२० ।।

इसी प्रकार संहिताका जप करनेवाला पुरुष रागयुक्त होनेपर चन्द्रलोक, वायुलोक, भूमिलोक तथा अन्तरिक्षलोकके योग्य शरीर धारण करके वहाँ निवास करता है और उन लोकोंमें रहनेवाले पुरुषोंके गुणोंका आचरण करता रहता है || १२१ ।।

यदि उन लोकोंकी उत्कृष्टतामें संदेह हो जाय और इस कारण वह जापक वहाँसे विरक्त हो जाय तो वह उत्कृष्ट एवं अविनाशी मोक्षकी इच्छा रखता हुआ फिर उसी परमेष्ठी ब्रह्मामें प्रवेश कर जाता है ।। १२२ ।।

अन्य लोकोंकी अपेक्षा परमेष्ठिभावकी प्राप्ति अमृतरूप है। उससे भी उत्कृष्ट कैवल्यरूपी अमृतको प्राप्त होकर वह शान्त (निष्काम), अहंकारशून्य, निर्द्धन्द्ध, सुखी, शान्तिपरायण तथा रोग-शोकसे रहित ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ।। १२३ 

ब्रह्मपद पुनरावृत्तिरहित, एक, अविनाशी, संज्ञारहित, दुःख-शून्य, अजर और शान्त आश्रय है, उसे ही वह जापक प्राप्त होता है ।। १२४ ।।

जापक पूर्वोक्त परमेष्ठी पुरुष (सगुण ब्रह्म) से भी ऊपर उठकर आकाशस्वरूप निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त होता है। वहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द--इन चारों प्रमाणों और लक्षणोंकी पहुँच नहीं है। क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह तथा जरा और मृत्यु--ये छः तरंगें वहाँ नहीं हैं। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ, पाँचों प्राण तथा मन--इन सोलह उपकरणोंसे भी वह रहित है ।। १२५ ।।

यदि उसके मनमें भोगोंके प्रति राग है और वह निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त होना नहीं चाहता है तो वह सभी पुण्यलोकोंका अधिष्ठाता बन जाता है और मनसे जिस वस्तुको पाना चाहता है, उसे तुरंत प्राप्त कर लेता है ।। १२६ ।।

अथवा वह सम्पूर्ण उत्तम लोकोंको भी नरकके तुल्य देखता है और सब ओरसे निःस्पृह एवं मुक्त होकर उसी निर्गुण ब्रह्ममें सुखपूर्वक रमण करता है ।। १२७ ।।

महाराज! इस प्रकार यह जापककी गति बतायी गयी है। यह सारा प्रसंग मैंने कह सुनाया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो? ।। १२८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

दो सौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) दो सौवें अध्याय के श्लोक 1-34 का हिन्दी अनुवाद)

“जापक ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकुकी उत्तम गतिका वर्णन तथा जापकको मिलनेवाले फलकी उत्कृष्टता”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! उस समय विरूपके पूर्वोक्त वचन कहनेपर ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकु उन दोनोंने उसे क्या उत्तर दिया, यह मुझे बताइये ।। १ ।।

तथा आपने जो यह स््योमुक्ति, क्रममुक्ति और लोकान्तरकी प्राप्तिरूप तीन प्रकारकी गति बतायी है, उनमेंसे वे दोनों किस गतिको प्राप्त हुए? उस समय उन दोनोंमें क्या बातचीत हुई और उन्होंने क्या किया? ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--प्रभो! तब “बहुत अच्छा” कहकर ब्राह्मणने धर्म, यम, काल, मृत्यु और स्वर्ग--इन सभी पूजनीय देवताओंका पूजन किया। वहाँ पहलेसे जो ब्राह्मण मौजूद थे और दूसरे भी जो श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ पधारे थे, उन सबके चरणोंमें सिर झुकाकर सबकी यथोचित पूजा करके ब्राह्मणने राजासे कहा-- ।। ३-४ ।।

'राजर्षे! इस फलसे संयुक्त होकर आप श्रेष्ठ गतिको प्राप्त कीजिये और आपकी आज्ञा लेकर मैं फिर जपमें लग जाऊँगा ।। ५ ।।

“महाबली प्रजानाथ! मुझे देवी सावित्रीने वर दिया है कि जपमें तुम्हारी नित्य श्रद्धा बनी रहेगी” ।। ६ ।।

राजाने कहा--विप्रवर! यदि इस प्रकार मुझे फल समर्पण करनेके कारण आपको फलकी प्राप्ति नहीं हो रही है और पुनः: जप करनेमें ही आपकी श्रद्धा होती है तो आप मेरे साथ ही चलें और जप-दानजनित फलको प्राप्त करें || ७ ।।

ब्राह्मणने कहा--राजन्‌! मैंने यहाँ सबके समीप आपको अपने जपका फल देनेके लिये महान्‌ प्रयत्न किया है; फिर भी आपका आग्रह साथ-साथ फलका उपभोग करनेका रहा है; अतः हम दोनों समान फलके ही भागी हों। चलिये, जहाँतक हम दोनोंकी गति हो सके, साथ-साथ चलें ।। ८ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! उन दोनोंका वहाँ ऐसा निश्चय जानकर सम्पूर्ण देवताओं तथा लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्र उस स्थानपर आये। उनके साथ साध्यगण, विश्वेदेवणषण और मरुद्गण भी थे। बड़े-बड़े वाद्य बज रहे थे। नदियाँ, पर्वत, समुद्र, नाना प्रकारके तीर्थ, तपस्या, संयोगविधि, वेद, स्तोभ (साम-गानकी पूर्तिके लिये बोले जानेवाले अक्षर हाई हावु इत्यादि), सरस्वती, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा, हूहू, परिवारसहित चित्रसेन गन्धर्व, नाग, सिद्ध, मुनि, देवाधिदेव प्रजापति ब्रह्मा, सहस्रों मस्तकवाले शेषनाग तथा अचिन्त्य देव भगवान्‌ विष्णु भी वहाँ पधारे। प्रभो! उस समय आकाशकमें भेरियाँ और तुरही आदि बाजे बज रहे थे || ९--१३ ।।

वहाँ उन महात्माओंपर दिव्य फूलोंकी वर्षा होने लगी। झुंडकी झुंड अप्सराएँ सब ओर नृत्य करने लगीं ।। १४ ।।

तदनन्तर मूर्तिमान्‌ स्वर्गने ब्राह्यणसे कहा--“महाभाग! तुम सिद्ध हो गये।' फिर राजासे कहा--“नरेश्वर! तुम भी सिद्ध हो गये" || १५ ।।

राजन! तदनन्तर वे दोनों एक-दूसरेका उपकार करते हुए एक साथ हो गये। उन्होंने एक ही साथ अपने मनको विषयोंकी ओरसे हटा लिया ।। १६ ।।

तदनन्तर प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान--इन पाँचों प्राण-वायुओंको हृदयमें स्थापित किया; इस प्रकार स्थित हुए उन दोनोंने मनको प्राण और अपानके साथ मिला दिया। भौहोंके नीचे नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखते हुए मनसहित प्राण-अपानको उन्होंने दोनों भौहोंके बीच स्थिर किया || १७-१८ ।।

इस प्रकार मनको जीतकर दृष्टिको एकाग्र करके उन दोनोंने प्राणसहित मनको सुषुम्णा मार्गद्वारा मूर्धामें स्थापित कर दिया। फिर वे दोनों समाधिमें स्थित हो गये। उस समय उन दोनोंके शरीर जड़की भाँति चेष्टाहीन हो गये ।। १९ ।।

इसी समय महात्मा ब्राह्मणके तालुदेश (ब्रह्म-रन्ध्र) का भेदन करके एक ज्योतिर्मयी विशाल ज्वाला निकली और स्वर्गकी ओर चल दी || २० 

फिर तो सम्पूर्ण दिशाओंमें महान्‌ कोलाहल मच गया। उस ज्योतिकी सभी लोग स्तुति करने लगे। प्रजानाथ! प्रादेशके बराबर लंबे पुरुषका आकार धारण किये वह तेज:पुंज ब्रह्माजीके पास पहुँचा, तब ब्रह्माजीने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया ।। २१-२२ ।।

ब्रह्माजीने उस तेजोमय पुरुषका स्वागत करनेके पश्चात्‌ पुनः उससे मधुर वाणीमें इस प्रकार कहा--'विप्रवर! योगियोंको जो फल मिलता है, निस्संदेह वही फल जप करनेवालोंको भी प्राप्त होता है ।। २३ ।।

“योगियोंको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह इन सभासदोंने प्रत्यक्ष देखा है; किंतु जापकोंको उनसे भी श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है, यह सूचित करनेके लिये ही मैंने उठकर तुम्हारा स्वागत किया है || २४ ।।

“अब तुम मेरे भीतर सुखपूर्वक निवास करो।' इतना कहकर ब्रह्माजीने उसे पुनः तत्त्वज्ञान प्रदान किया। आज्ञा पाकर वह ब्राह्मण-तेज रोग-शोकसे मुक्त हो ब्रह्माजीके मुखारविन्दमें प्रविष्ट हो गया ॥२५॥

राजा इक्ष्वाकु भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मणकी ही भाँति विधिपूर्वक भगवान्‌ ब्रह्माजीके मुखारविन्दमें प्रविष्ट हो गये  ॥२६॥

तदनन्तर देवताओंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा--'भगवन्‌! आपने जो आगे बढ़कर इस ब्राह्मणका स्वागत किया है, इससे सिद्ध हो गया कि जापकोंको योगियोंसे भी श्रेष्ठ फलकी प्राप्ति होती है । २७ ।।

“इस जापक ब्राह्मणको सदगति देनेके लिये ही आपने ऐसा उद्योग किया था। इसीको देखनेके लिये हमलोग भी आये थे। आपने इन दोनोंका समानरूपसे आदर किया और ये दोनों ही एक-सी स्थितिमें पहुँचकर आपके समान फलके भागी हुए हैं || २८ ।।

“आज हमलोगोंने योगी और जापकके महान्‌ फलको प्रत्यक्ष देख लिया। वे सम्पूर्ण लोकोंको लाँधकर जहाँ उनकी इच्छा हो, जा सकते हैं" ।। २९ |।

ब्रह्माजीनी कहा--देवताओ! जो महास्मृति तथा कल्याणमयी अनुस्मृतिका पाठ करता है, वह भी इसी विधिसे मेरा सालोक्य प्राप्त कर लेता है। जो योगका भक्त है, वह भी देहत्यागके पश्चात्‌ इसी विधिसे मेरे लोकोंको प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। अब तुम सब लोग अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये अपने-अपने स्थानको जाओ। मैं तुम लोगोंका अभीष्ट साधन करता रहूँगा ।। ३०-३१ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! ऐसा कहकर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। देवता भी उनकी आज्ञा पाकर अपने-अपने स्थानको चले गये ।। ३२ ।।

राजन! फिर वे सभी महात्मा धर्मको सत्कार-पूर्वक आगे करके प्रसन्नचित्त हो पीछेपीछे चल दिये ।।३३।।

महाराज! मैंने जैसा सुना था, उसके अनुसार जापकोंको मिलनेवाले इस उत्तम फल और गतिका वर्णन किया। अब तुम और क्‍या सुनना चाहते हो? ।। ३४ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)



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