सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) के एक सौ इक्यानबेवें अध्याय से एक सौ पज्चानबेवें अध्याय तक (From the 191 chapter to the 195 chapter of the entire Mahabharata (shanti Parva))

 

 

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय



(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ इक्यानबेवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

 “ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमोंके धर्मका वर्णन”

भरद्वाजने पूछा--ब्रह्मन! आचरणमें लाये हुए दानरूप धर्मका, भलीभाँति की हुई तपस्याका तथा स्वाध्याय और अग्निहोत्रका क्या फल बताया गया है? ।। १ ।।

भगुजीने कहा--मुने! अग्निहोत्रसे पापका निवारण किया जाता है, स्वाध्यायसे उत्तम शान्ति मिलती है, दानसे भोगोंकी प्राप्ति बतायी गयी है और तपस्यासे मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है |। २ ।।

दान दो प्रकारका बताया जाता है--एक परलोकके लिये है और दूसरा इहलोकके लिये। सत्पुरुषोंको जो कुछ दिया जाता है, वह दान परलोकमें अपना फल देनेके लिये उपस्थित होता है और असत्पुरुषोंको जो दान दिया जाता है, उसका फल यहीं भोगा जाता है। जैसा दान दिया जाता है, वैसा ही उसका फल भी भोगनेमें आता है ।। ३-४ ।।

भरद्वाजने पूछा--ब्रह्म! किसका धर्माचरण कैसा होता है अथवा धर्मका लक्षण क्या है? या धर्मके कितने भेद हैं? यह सब आप मुझे बतानेकी कृपा करें ।।

भगुजीने कहा--मुने! जो मनीषी पुरुष अपने वर्णाश्रमोचित धर्मके आचरणमें सावधानीके साथ लगे रहते हैं, उन्हें स्वर्गरूपी फलकी प्राप्ति होती है। जो इसके विपरीत अधर्मका आचरण करता है, वह मोहके वशीभूत होता है ।। ६ ।।

भरद्वाज ऋषिने पूछा--भगवन! ब्रह्मर्षियोंने पूर्वकालमें जो चार आश्रमोंका विभाग किया है, उनके अपने-अपने धर्म क्या हैं? उन्हें बतानेकी कृपा कीजिये || ७ ।।

भगुजीने कहा--मुने! जगत्‌का कल्याण करनेवाले भगवान्‌ ब्रह्माने पूर्वकालमें ही धर्मकी रक्षाके लिये चार आश्रमोंका निर्देश किया था। उनमेंसे ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक गुरुकुलवासको ही पहला आश्रम कहते हैं। उसमें रहनेवाले ब्रह्मचारीको बाहर-भीतरकी शुद्धि, वैदिक संस्कार तथा व्रत-नियमोंका पालन करते हुए अपने मनको वशमें रखना चाहिये। सुबह और शाम दोनों संध्याओंके समय संध्योपासना, सूर्योपस्थान और अन्निहोत्रके द्वारा अग्निदेवकी आराधना करनी चाहिये। तन्द्रा और आलस्यको त्यागकर प्रतिदिन गुरुको प्रणाम करे और वेदोंके अभ्यास तथा श्रवणसे अपनी अन्तरात्माको पवित्र करे। सबेरे, शाम और दोपहर तीनों समय स्नान करे। ब्रह्मचर्यका पालन, अग्निकी उपासना और गुरुकी सेवा करे। प्रतिदिन भिक्षा माँगकर लाये। भिक्षामें जो कुछ प्राप्त हो, वह सब गुरुको अर्पण कर दे। अपनी अनन्‍्तरात्माको भी गुरुके चरणोंमें निछावर कर दे। गुरुजी जो कुछ कहें जिसके लिये संकेत करें और जिस कार्यके निमित्त स्पष्ट शब्दोंमें आज्ञा दें, उसके विपरीत आचरण न करे। गुरुके कृपाप्रसादसे मिले हुए स्वाध्यायमें तत्पर होवे ।। ८ ।।

इस विषयमें यह श्लोक है--

जो द्विज गुरुकी आराधना करके वेदाध्ययन करता है, उसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है और उसका मानसिक संकल्प सिद्ध होता है ।। ९ ।।

गार्हस्थ्यको दूसरा आश्रम कहते हैं। अब हम उसमें पालन करने योग्य समस्त उत्तम आचरणोंकी व्याख्या करेंगे। जो सदाचारका पालन करनेवाले ब्रह्मचारी विद्या पढ़कर गुरुकुलसे स्नातक होकर लौटते हैं, उन्हें यदि सहधर्मिणीके साथ रहकर धर्माचरण करने और उसका फल पानेकी इच्छा हो तो उनके लिये गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी विधि है। इस आश्रममें धर्म, अर्थ और काम तीनोंकी प्राप्ति होती है; इसलिये त्रिवर्गसाधनकी इच्छा रखकर गृहस्थको उत्तम कर्मके द्वारा धन संग्रह करना चाहिये, अर्थात्‌ वह स्वाध्यायसे प्राप्त हुई विशिष्ट योग्यतासे, ब्रह्मर्षियोंद्वारा धर्मशास्त्रोंमें निश्चित किये हुए मार्गसे अथवा पर्वतसे उपलब्ध हुए उसके सारभूत मणि रत्न, दिव्यौषधि एवं स्वर्ण आदिसे धनका संचय करे। अथवा हव्य (यज्ञ), कव्य (श्राद्ध), नियम, वेदाभ्यास तथा देवताओंकी प्रसन्नतासे प्राप्त धनके द्वारा गृहस्थ पुरुष अपनी गृहस्थीका निर्वाह करे; क्योंकि गृहस्थ आश्रमको सब आश्रमोंका मूल कहते हैं। गुरुकुलमें निवास करनेवाले ब्रह्मचारी, वनमें रहकर संकल्पके अनुसार व्रत, नियम तथा धर्मोंका पालन करनेवाले अन्यान्य वानप्रस्थ एवं सब कुछ त्यागकर सर्वत्र विचरनेवाले संन्यासी भी इस गृहस्थाश्रमसे ही भिक्षा, भेंट, उपहार तथा दान आदि पाकर अपने-अपने धर्मके पालनमें प्रवृत्त होते हैं || १० ।।

वानप्रस्थोंके लिये धनका संग्रह करना निषिद्ध है। ये श्रेष्ठ लोग प्राय: शुद्ध एवं हितकर अन्नमात्रके इच्छुक होकर स्वाध्याय, तीर्थयात्रा एवं देश-दर्शनके निमित्त सारी पृथ्वीपर घूमते-फिरते हैं। ये घरपर पधारें तो उठकर, आगे बढ़कर इनका स्वागत करे। इनके चरणोंमें मस्तक झुकावे, दोषदृष्टि न रखकर उनसे उत्तम वचन बोले। यथाशक्ति सुखद आसन दे, सुखद शय्यापर उन्हें सुलावे और उत्तम भोजन करावे। इस प्रकार उनका पूर्ण सत्कार करे। यही उन श्रेष्ठ पुरुषके प्रति गृहस्थका कर्तव्य है ।। ११ ।।

इस विषयमें ये श्लोक प्रसिद्ध हैं--

जिस गृहस्थके दरवाजेसे कोई अतिथि भिक्षा न पानेके कारण निराश होकर लौट जाता है, वह उस गृहस्थको अपना पाप दे उसका पुण्य लेकर चला जाता है ।।

इसके सिवा गृहस्थाश्रममें रहकर यज्ञ करनेसे देवता, श्राद्ध-तर्पण करनेसे पितर, वेदशास्त्रोंके श्रवण, अभ्यास और धारणसे ऋषि तथा संतानोत्पादनसे प्रजापति प्रसन्न होते हैं ।। १३ ।।

इस विषयमें ये दो श्लोक प्रसिद्ध हैं--

वाणी ऐसी बोलनी चाहिये, जिसमें सब प्राणियोंके प्रति स्नेह भरा हो तथा जो सुनते समय कानोंको सुखद जान पड़े। दूसरोंको पीड़ा देना, मारना और कटुवचन सुनाना--ये सब निन्दित कार्य हैं ।। १४ ।।

किसीका अनादर करना, अहंकार दिखाना और ढोंग करना--इन दुर्गुणोंकी भी विशेष निन्दा की गयी है। किसी भी प्राणीकी हिंसा न करना, सत्य बोलना और मनमें क्रोध न आने देना--यह सभी आश्रमवालोंके लिये उपयोगी तप है ।। १५ ।।

इसके सिवा इस गृहस्थ-आश्रममें फूलोंकी माला, नाना प्रकारके आभूषण, वस्त्र, अंगराग (तेल-उबटन), नित्य उपभोगकी वस्तु, नृत्य, गीत, वाद्य, श्रवणसुखद शब्द और नयनाभिराम रूपके दर्शनकी भी प्राप्ति होती है। भक्ष्य, भोज्य, लेह, पेय और चोष्यरूप नानाप्रकारके भोजनसम्बन्धी पदार्थ खाने-पीनेको भी मिलते हैं। अपने उद्यानमें घूमनेफिरनेका आनन्द प्राप्त होता है और कामसुखकी भी उपलब्धि होती है || १६ ।।

जिस पुरुषको गृहस्थाश्रममें सदा धर्म, अर्थ और कामके गुणोंकी सिद्धि होती रहती है, वह इस लोकमें सुखका अनुभव करके अन्तमें शिष्ट पुरुषोंकी गतिको प्राप्त कर लेता है ।। १७ ।।

जो गृहस्थ ब्राह्मण अपने धर्मके आचरणमें तत्पर हो उज्छवृत्तिसे (खेत या बाजारमें बिखरे हुए अनाजके एक-एक दानेको बीनकर) जीविका चलाता है तथा काम-सुखका परित्याग कर देता है, उसके लिये स्वर्ग कोई दुर्लभ वस्तु नहीं है ।। १८ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भगु- भरद्वाजसंवादाविषयक एक सौ इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी ;- 

  • इस श्लोकमें पूर्वोक्त तीनों प्रश्नोंका एक साथ ही सामान्य उत्तर दे दिया गया है। जो जिस वर्ण अथवा आश्रमका है, उसका धर्माचरण भी वैसा ही है। धर्मका लक्षण है--स्वर्गप्राप्ति करानेवाला वर्णाश्रमोचित आचार। वर्ण और आश्रमके जितने भेद हैं, उतने ही उनके धर्मके भी हैं।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ बानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ बानबेवें अध्याय के श्लोक 1-27 का हिन्दी अनुवाद)

“वानप्रस्थ और संन्यास धर्मोका वर्णन तथा हिमालयके उत्तर पार्श्व में स्थित उत्कृष्ट लोककी विलक्षणता एवं महत्ताका प्रतिपादन, भूगु-भरद्वाज-संवादका उपसंहार”

भगुजी कहते हैं--मुने! तीसरे आश्रम वानप्रस्थका पालन करनेवाले मनुष्य धर्मका अनुसरण करते हुए पवित्र तीर्थोमें, नदियोंके किनारे, झरनोंके आसपास तथा मृग, भैंसे, सूअर, सिंह एवं जंगली हाथियोंसे भरे हुए एकान्त वनोंमें तप करते हुए विचरते रहते हैं। गृहस्थोंके उपभोगमें आनेवाले ग्रामजनोचित सुन्दर वस्त्र, स्वादिष्ट भोजन और विषयभोगोंका परित्याग करके वे जंगलमें अपने-आप होनेवाले अन्न, फल, मूल तथा पत्तोंका परिमित, विचित्र एवं नियत आहार करते हैं। भूमिपर ही बैठते हैं। जमीन, पत्थर, रेत, कँकरीली मिट्टी, बालू अथवा राखपर ही सोते हैं। काश, कुश, मृगचर्म और वृक्षोंकी छालसे बने वस्त्रोंस अपना शरीर ढकते हैं। सिरके बाल, दाढ़ी, मूँठ, नख और रोम सदा धारण किये रहते हैं। नियत समयपर स्नान करके निश्चित कालका उल्लंघन न करते हुए बलिवैश्वदेव तथा अग्निहोत्र आदि कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं। सबेरे हवन-पूजनके लिये समिधा, कुशा और फूल आदिका संग्रह करके आश्रमको झाड़-बुहार लेनेके पश्चात्‌ उन्हें कुछ विश्राम मिलता है। सर्दी गर्मी, वर्षा और हवाका वेग सहते-सहते उनके शरीरके चमड़े फट जाते हैं। नाना प्रकारके नियमोंका पालन और सत्कर्मोंका अनुष्ठान करते रहनेसे उनके रक्त और मांस सूख जाते हैं और शरीरकी जगह चामसे ढँकी हुई हड्डियोंका ढाँचामात्र रह जाता है; फिर भी धैर्य रखकर साहसपूर्वक शरीरका भार ढोते रहते हैं ।। १ ।।

जो पुरुष नियमके साथ रहकर ब्रह्मर्षियोंद्वारा आचरणमें लायी हुई इस वानप्रस्थ धर्मकी विधिका अनुष्ठान करता है, वह अग्निकी भाँति अपने दोषोंको भस्म करके दुर्लभ लोकोंको प्राप्त कर लेता है || २ ।।

अब संन्यासियोंका आचरण बतलाया जाता है। वह इस प्रकार है--इसमें प्रवेश करनेवाले पुरुष अग्निहोत्र, धन, स्त्री आदि परिवार तथा घरकी सारी सामग्रीका परित्याग करके भोगों और संगोंके प्रति अपनी आसक्तिके बन्धनोंको तोड़कर सदाके लिये घरसे बाहर निकल जाते हैं। ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझते हैं। धर्म, अर्थ और कामसम्बन्धी प्रवृत्तियोंमें उनकी बुद्धि आसक्त नहीं होती। शत्रु, मित्र और उदासीन--सबके प्रति वे समान दृष्टि रखते हैं। स्थावर, पिण्डज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज प्राणियोंके प्रति मन, वाणी और कियाओंद्वारा कभी द्रोह नहीं करते हैं, कुटी या मठ बनाकर नहीं रहते हैं। उन्हें चाहिये कि चारों ओर विचरते रहें तथा रात्रिमें ठहरनेके लिये पर्वतकी गुफा, नदीका किनारा, वृक्षकी जड़, देवमन्दिर, नगर अथवा गाँवमें चले जाया करें। नगरमें पाँच रात्रि और गाँवमें एक रातसे अधिक न ठहरें। प्राणधारणके लिये अपने विशुद्ध धर्मोका पालन करनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य--इन द्विजातियोंके ऐसे घरोंपर जाकर खड़े हो जाये, जहाँ संकीर्णता न हो। बिना माँगे ही पात्रमें जितनी भिक्षा आ जाय, उतनी ही स्वीकार करें। काम, क्रोध, दर्प, लोभ, मोह, कृपणता, दम्भ, निन्‍्दा, अभिमान तथा हिंसासे सर्वथा दूर रहें | ३ ।।

इस विषयमें ये श्लोक प्रसिद्ध हैं--

जो मुनि सब प्राणियोंको अभयदान देकर विचरता है, उसको सम्पूर्ण प्राणियोंमें किसीसे भी कहीं भय नहीं प्राप्त होता है ।। ४ ।।

जो ब्राह्मण अग्निहोत्रको अपने शरीरमें आरोपित करके शरीरस्थ अग्निके उद्देश्यसे अपने मुखमें प्राप्त भिक्षारूप हविष्यका होम करता है, वह अग्नि-चयन करनेवाले अन्निहोत्रियोंके लोकमें जाता है || ५ ।।

जो बुद्धिको संकल्परहित करके पवित्र हो शास्त्रोक्त विधिके अनुसार मोक्ष-आश्रम (संन्यास) के नियमोंका पालन करता है, वह मनुष्य बिना ईँंधनकी आगके समान परम शान्त ज्योतिर्मय ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है || ६ ।।

भरद्वाजने पूछा--ब्रह्मन! इस लोकसे कोई श्रेष्ठ लोक सुना जाता है; किंतु वह देखनेमें नहीं आता। मैं उसे जानना चाहता हूँ, आप उसे बतानेकी कृपा करें ।। ७ ।।

भूगुजीने कहा--मुने! उत्तरदिशामें हिमालयके पार्श्वभागमें, जो सर्वगुणसम्पन्न एवं पुण्यमय प्रदेश है, वहाँके भू-भागपर श्रेष्ठ लोक बताया जाता है, वह पवित्र, कल्याणकारी और कमनीय लोक है ।। ८ ।।

वहाँ पापकर्मसे रहित, पवित्र, अत्यन्त निर्मल, लोभ और मोहसे शून्य तथा सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित मानव निवास करते हैं ।। ९ ।।

वह देश स्वर्गके तुल्य है। वहाँ सभी शुभ गुणोंकी स्थिति बतायी गयी है। वहाँ समयपर ही मृत्यु होती है। रोग-व्याधि किसीका स्पर्श नहीं करते हैं || १० ।।

वहाँ किसीके मनमें परायी स्त्रियोंके प्रति लोभ नहीं होता। सब लोग अपनी ही स्त्रियोंमें अनुरक्त रहते हैं। वहाँके निवासी धनके लिये एक दूसरेका वध नहीं करते। किसीको बन्धनमें नहीं डालते। उन्हें कभी महान्‌ विस्मय नहीं होता। अधर्मका तो वहाँ नाम भी नहीं है। वहाँ किसीके मनमें संदेह नहीं पैदा होता है ।। ११ ।

वहाँ किये हुए कर्मका फल प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है। उस लोकमें कुछ लोग बड़े-बड़े महलोंमें रहते, अच्छे आसनोंपर बैठते और उत्तमोत्तम वस्तुएँ खाते-पीते हैं। समस्त कामनाओंसे सम्पन्न और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित होते हैं तथा कुछ लोगोंको प्राणधारणमात्रके लिये भोजन प्राप्त होता है, कुछ लोग बड़े परिश्रमसे तपोमय जीवन व्यतीत करते हुए प्राण धारण करते हैं (इस प्रकार वह लोक इस लोकसे सर्वथा उत्कृष्ट है) ।। १२-१३ ।।

इस मनुष्यलोकमें कुछ मनुष्य धर्मपरायण होते हैं तो कुछ बड़े भारी ठग निकलते हैं। इसीलिये कोई सुखी और कोई दुखी होते हैं। कुछ धनवान्‌ और कुछ लोग निर्धन हो जाते हैं ।। १४ ।।

इहलोकमें श्रम, भय, मोह और तीव्र भूखका कष्ट होता है। मनुष्योंमें धनका लोभ विशेष होता है, जिससे अज्ञानी पुरुष मोहमें पड़ जाते हैं || १५ ।।

इस देशमें धर्म और अधर्म करनेवाले मनुष्योंके विषयमें नाना प्रकारकी बातें सुनी जाती हैं। जो धर्म और अधर्म दोनोंके परिणामको जानता है, वह विद्वान पुरुष पापसे लिप्त नहीं होता है || १६ ।।

कपट, शठता, चोरी, निन्दा, दूसरोंके दोष देखना, दूसरोंको हानि पहुँचाना, प्राणियोंकी हिंसा करना, चुगली खाना और झूठ बोलना--जो इन दुर्गुणोंका सेवन करता है, उसकी तपस्या क्षीण होती है और जो विद्वान्‌ इन दोषोंको कभी अपने आचरणमें नहीं लाता, उसकी तपस्या निरन्तर बढ़ती रहती है ।। १७-१८ ।।

इस लोकमें पुण्य और पापकर्मके सम्बन्धमें अनेक प्रकारके विचार होते रहते हैं। यह कर्मभूमि है। इस जगत्‌में शुभ और अशुभ कर्म करके मनुष्य शुभ कर्मोौका शुभ फल पाता है और अशुभ कर्मोंका अशुभ फल भोगता है ।। १९ |।

पूर्वकालमें यहीं प्रजापति, देवता तथा ऋषियोंने यज्ञ और अभीष्ट तपस्या करके पवित्र हो ब्रह्मलोकको प्राप्त कर लिया || २० ।।

पृथ्वीका उत्तरभाग सबसे अधिक पवित्र और मंगलमय है। इस लोकमें जो पुण्यात्मा मनुष्य हैं, वे ही मृत्युके पश्चात्‌ उस भूभागमें जन्म लेते हैं || २१ ।।

दूसरे लोग जो यहाँ पापकर्म करते हैं, वे पशु-पक्षियोंकी योनिमें जन्म ग्रहण करते हैं और दूसरे कितने ही आयुक्षय होनेपर नष्ट हो जाते हैं और पातालमें चले जाते हैं || २२ ।।

जो लोभ और मोहसे युक्त हो एक दूसरेको खा जानेके लिये उद्यत रहते हैं, वे भी इसी लोकमें आवागमन करते रहते हैं, उत्तरदिशाके उत्कृष्ट लोकमें नहीं जाने पाते हैं ।।

जो मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए गुरुजनोंकी उपासना करते हैं, वे मनीषी पुरुष सभी लोकोंके मार्गको जानते हैं || २४ ।।

इस प्रकार मैंने यहाँ ब्रह्माजीके द्वारा निर्मित इस धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया है। जो लोकमें करने और न करने योग्य धर्म और अधर्मको जानता है, वही बुद्धिमान्‌ है ।। २५ ।।

भीष्मजी कहते हैं--राजन्‌! भूगुजीके इस प्रकार कहनेपर परम धर्मात्मा प्रतापी भरद्वाजने आश्वर्यवकित होकर उनकी पूजा की || २६ ।।

परम बुद्धिमान्‌ नरेश! इस प्रकार मैंने तुमसे जगत्‌की उत्पत्तिके सम्बन्धमें ये सारी बातें बतायी हैं। अब और क्या सुनना चाहते हो? ।। २७ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भगु- भरद्वाजसंवादाविषयक एक सौ बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • आचार्य नीलकण्ठने “उत्तरे हिमवत्पाश्वें" इत्यादिसे लेकर इस अध्यायके अन्ततकके श्लोकोंका आध्यात्मिक अर्थ किया है। वे परलोक या उत्कृष्ट लोकका अर्थ परमात्मा मानते हैं और इसी दृष्टिसे उन्होंने श्रुति और युक्तिका आश्रय ले पूरे प्रकरणकी संगति लगायी है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ तिरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-33 का हिन्दी अनुवाद)

“शिष्टाचारका फलसहित वर्णन, पापको छिपानेसे हानि और धर्मकी प्रशंसा”

युधिष्ठिरने पूछा--धर्मज्ञ पितामह! अब मैं आपके मुखसे सदाचारकी विधि सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं ।। १ ।।

भीष्मजीने कहा--राजन्‌! जो दुराचारी, बुरी चेष्टावाले, दुर्बुद्धि और दुः:साहसको प्रिय माननेवाले हैं, वे दुष्टात्माके नामसे विख्यात होते हैं। श्रेष्ठ पुरुष तो वही हैं, जिनमें सदाचार देखा जाय--सदाचार ही उनका लक्षण है ।। २ ।।

जो मनुष्य सड़कपर, गौओंके बीचमें और अनाजमें मल या मूत्रका त्याग नहीं करते हैं, वे श्रेष्ठ समझे जाते हैं ।। ३ ।।

प्रतिदिन आवश्यक शौचका सम्पादन करके आचमन करे; फिर नदीमें नहाये और अपने अधिकारके अनुसार संध्योपासनाके अनन्तर देवता आदिका तर्पण करे। इसे विद्वान्‌ पुरुष मानवमात्रका धर्म बताते हैं ।। ४ ।।

नित्यप्रति सूर्योपस्थान करे। सूर्योदयके समय कभी न सोये। सायंकाल और प्रात:काल दोनों समय संध्योपासना करके गायत्रीमन्त्रका जप करे ।। ५ ।।

दोनों हाथ, दोनों पैर और मुँह--इन पाँच अंगोंको धोकर- पूर्वाभिमुख हो भोजन करे। भोजनके समय मौन रहे। परोसे हुए अन्नकी निन्दा न करे। वह स्वादिष्ट हो या न हो, प्रेमसे भोजन कर ले ।। ६ |।

भोजनके बाद हाथ धोकर उठे। रातको भीगे पैर न सोये। देवर्षि नारद इसीको सदाचारका लक्षण कहते हैं ।।

यज्ञशाला आदि पवित्र स्थान, बैल, देवालय, चौराहा, ब्राह्मण, धर्मात्मा मनुष्य तथा चैत्य (देवसम्बन्धी वृक्ष)--इनको सदा दाहिने करके चले। गृहस्थ पुरुषको घरमें अतिथियों, सेवकों और स्वजनोंके लिये भी एक-सा भोजन बनवाना श्रेष्ठ माना गया है ।। ८-९ ।।

शास्त्रमें मनुष्योंक लिये सायंकाल और प्रातःकाल दो ही समय भोजन करनेका विधान है। बीचमें भोजन करनेकी विधि नहीं देखी गयी है। जो इस नियमका पालन करता है, उसे उपवास करनेका फल प्राप्त होता है ।। १० ।।

जो होमके समय प्रतिदिन हवन करता, ऋतुकालमें स्त्रीके पास जाता और परायी सत्रीपर कभी दृष्टि नहीं डालता, वह बुद्धिमान्‌ पुरुष ब्रह्मचारीके समान माना जाता है ।। ११ ||

ब्राह्मणगको भोजन करानेके बाद बचा हुआ अन्न अमृत है। वह माताके स्तन्यकी भाँति हितकर है। उसको जो लोग सेवन करते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेते हैं || १२ ।।

जो मनुष्य मिट्टीके ढेले फोड़ता, तिनके तोड़ता, नख चबाता, सदा जूठे हाथ और जूठे मुँह रहता है तथा खूँटीमें बँधे हुए तोतेके समान पराधीन जीवन बिताता है, उसे इस जगतमें बड़ी आयु नहीं मिलती ।। १३ ।।

जो मांस-भक्षण न करता हो, वह यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा संस्कार किया हुआ मांस भी न खाय;। व्यर्थ मांस और श्राद्धशेष मांस भी वह त्याग दे ।। १४ ।।

मनुष्य स्वदेशमें हो या परदेशमें--अपने पास आये हुए अतिथिको भूखा न रहने दे। सकाम कर्तव्यकर्मोंक फलरूपमें प्राप्त पदार्थ अपने गुरुजनोंको निवेदित कर दे ।। १५ ।।

गुरुजन पधारें तो उन्हें बैठनेके लिये आसन दे, प्रणाम करे, गुरुओंकी पूजा करनेसे मनुष्य आयु, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होते हैं || १६ ।।

उगते हुए सूर्यकी ओर न देखे, नंगी हुई परायी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले और सदा धर्मानुसार ऋतुकालके समय अपनी ही पत्नीके साथ एकान्त स्थानमें समागम करे ।। १७ ||

तीर्थोमें श्रेष्ठ तीर्थ विशुद्ध हृदय है, पवित्र वस्तुओंमें अतिपवित्र भी विशुद्ध हृदय ही है। शिष्ट पुरुष जिसे आचरणमें लाते हैं, वह आचरण सर्वश्रेष्ठ है। चँवर आदिमें लगे हुए गायकी पूँछके बालोंका स्पर्श भी शिष्टाचारानुमोदित होनेके कारण शुद्ध है || १८ ।।

परिचित मनुष्यसे जब-जब भेंट हो, सदा उसका कुशल-समाचार पूछे। सायंकाल और प्रात:काल दोनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करे, यह शास्त्रकी आज्ञा है ।।

देवमन्दिरमें, गौओंके बीचमें, ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मोंमें, शास्त्रोंके स्वाध्यायकालमें और भोजन करते समय दाहिने हाथसे काम ले || २० ।।

सबेरे और शाम दोनों समय विधिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन (सेवा-सत्कार) करना चाहिये। यही व्यापारोंमें उत्तम व्यापारकी भाँति शोभा पाता है और यही खेतीमें सबसे अच्छी खेतीके समान प्रत्यक्ष फलदायक है। ब्राह्मणपूजक पुरुषके विविध अन्नोंकी वृद्धि होती है और उसे वाहनोंमें गोजातिके श्रेष्ठ वाहन सुलभ होते हैं || २१६ ।।

भोजन करानेके पश्चात्‌ दाता पूछे कि क्या भोजन सम्पन्न हो गया? ब्राह्मण उत्तर दे कि सम्पन्न हो गया। इसी प्रकार जल पिलानेके बाद दाता पूछे तृप्ति हुई क्या? ब्राह्मण उत्तर दे कि अच्छी तरह तृप्ति हो गयी। खीर खिलानेके बाद जब यजमान पूछे कि अच्छा बना था न? तब ब्राह्मण उत्तर दे बहुत अच्छा बना था। इसी प्रकार जौका हलुआ और खिचड़ी खिलानेके बाद भी प्रश्न और उत्तर होना चाहिये || २२६ ।।

हजामत बनाने, छींकने, स्नान और भोजन करनेके बाद हरेक मनुष्यको तथा सभी अवस्थाओंमें सम्पूर्ण रोगियोंका कर्तव्य है कि वे ब्राह्मणोंको प्रणाम आदिसे प्रसन्न करें। इससे उनकी आयु बढ़ती है || २३ ।।

सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब न करे। अपनी विष्ठापर दृष्टि न डाले। स्त्रीके साथ एक शय्यापर सोना और एक थालीमें भोजन करना छोड़ दे ।। २४ ।।

अपनेसे बड़ोंका नाम लेकर या तू कहकर न पुकारे, जो अपनेसे छोटे या समवयस्क हों, उनके लिये वैसा करना दोषकी बात नहीं है || २५ ।।

पापियोंका हृदय तथा उनके नेत्र और मुख आदिका विकार ही उनके पापोंको बता देता है। जो लोग जान-बूझकर किये हुए पापको महापुरुषोंसे छिपाते हैं, वे गिर जाते हैं ।। २६ ।।

मूर्ख मनुष्य ही जान-बूझकर किये हुए पापको छिपाता है। यद्यपि उस पापको मनुष्य नहीं देखते हैं, तो भी देवतालोग तो देखते ही हैं || २७ ।।

पापी मनुष्यका पापके द्वारा छिपाया हुआ पाप पुनः उसे पापमें ही लगाता है और धर्मात्माका धर्मतः गुप्त रक्खा हुआ धर्म उसे पुनः धर्ममें ही प्रवृत्त करता है ।।

मूर्ख मनुष्य अपने किये हुए पापको याद नहीं रखता; परंतु पापमें प्रवृत्त हुए कर्ताका पाप स्वयं ही उसके पीछे लगा रहता है, जैसे राहु चन्द्रमाके पास स्वतः पहुँच जाता है, उसी प्रकार उस मूढ़ मनुष्यके पास उसका पाप स्वयं चला जाता है || २९ |।

किसी विशेष कामनाकी पूर्तिकी आशासे जो धन संचित करके रखा गया है, उसका उपभोग दु:खपूर्वक ही किया जाता है; अतः विद्वान्‌ पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि मृत्यु किसीकी कामना-पूर्तिके अवसरकी प्रतीक्षा नहीं करती है ।। ३० ।।

मनीषी पुरुषोंका कथन है कि समस्त प्राणियोंके लिये मनद्वारा किया हुआ धर्म ही श्रेष्ठ है; अतः मनसे सम्पूर्ण जीवोंका कल्याण सोचता रहे ।। ३१ ।।

केवल वेदविधिका सहारा लेकर अकेले ही धर्मका आचरण करना चाहिये। उसमें सहायताकी आवश्यकता नहीं है। कोई दूसरा सहायक आकर क्या करेगा ।। ३२ ।।

धर्म ही मनुष्योंकी योनि है। वही स्वर्गमें देवताओंका अमृत है। धर्मात्मा मनुष्य मरनेके पश्चात्‌ धर्मके ही बलसे सदा सुख भोगते हैं || ३३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भीष्म-युधिष्टिरसंवादके प्रयंगमें आचारविधिविषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

टिका टिप्पणी - 

  • तात्पर्य यह कि भोजनके लिये जाते समय तत्काल हाथ, पैर और मुँह धोने चाहिये। बहुत पहलेके धोये हों, तो भी उस समय धो लेना आवश्यक है।

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ चोरानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ चोरानबेवें अध्याय के श्लोक 1-63 का हिन्दी अनुवाद)

“अध्यात्मज्ञानका निरूपण”

युधिष्ठिरने पूछा--पितामह! शास्त्रोंमें मनुष्यके लिये अध्यात्मके नामसे जिसका विचार किया जाता है, वह अध्यात्मज्ञान क्या है और कैसा है? यह मुझे बताइये ।।

ब्रह्म! इस चराचर जगत्‌की सृष्टि किससे हुई है और प्रलयकालमें इसका लय किस प्रकार होता है; इस विषयका मुझसे वर्णन कीजिये ।। २ ।।

भीष्मजीने कहा--तात! कुन्तीनन्दन! तुम जिस अध्यात्मज्ञानके विषयमें पूछ रहे हो, उसकी व्याख्या मैं तुम्हारे लिये करता हूँ; वह परम कल्याणकारी और सुखस्वरूप है ।। ३ |।

आचार्योने सृष्टि और प्रलयकी व्याख्याके साथ अध्यात्मज्ञानका विवेचन किया है, जिसे जानकर मनुष्य इस संसारमें सुख और प्रसन्नताका भागी होता है। उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति भी होती है। वह अध्यात्मज्ञान समस्त प्राणियोंके लिये हितकर है ।। ४ ।।

पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि--ये पाँच महाभूत सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान हैं ।। ५ ।।

जैसे लहरें समुद्रसे प्रकट होकर फिर उसीमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ये पाँच महाभूत भी जिस परमात्मासे उत्पन्न हुए हैं, उसीमें सब प्राणियोंके सहित बारंबार लीन होते हैं ।। ६ |।

जैसे कछुआ अपने अंगोंको फैलाकर पुन: समेट लेता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा परब्रह्म परमेश्वर अपने रचे हुए सम्पूर्ण भूतोंको फैलाकर फिर अपने भीतर ही समेट लेते हैं || ७ ।।

सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले परमात्माने सब प्राणियोंके शरीरोंमें पाँच ही महाभूतोंको स्थापित किया है; परंतु उनमें विषमता कर दी है--किसी महाभूतके अंशको अधिक और किसीके अंशको कम करके रखा है। उस वैषम्यको साधारण जीव नहीं देख पाता ॥। ८ ॥।

शब्दगुण, श्रोत्र इन्द्रिय और शरीरके सम्पूर्ण छिद्र--ये तीन आकाशके कार्य हैं। स्पर्श, चेष्टा और त्वगिन्द्रिय--ये तीन वायुके कार्य माने गये हैं ।। ९ ।।

रूप, नेत्र और परिपाक--ये तीन तेजके कार्य बताये जाते हैं। रस, जिह्ला तथा क्लेद (गीलापन)--ये तीन जलके गुण अर्थात्‌ कार्य माने गये हैं || १० ।।

गन्ध, प्राणेन्द्रिय और शरीर--ये तीन भूमिके गुण अर्थात्‌ कार्य हैं। इस प्रकार इस शरीरमें पाँच महाभूत और छठा मन है; ऐसा बताया जाता है ।। ११ ।।

भरतनन्दन! श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियाँ और मन--ये जीवात्माको विषयोंका ज्ञान करानेवाले हैं। शरीरमें इन छः के अतिरिक्त सातवीं बुद्धि और आठवाँ क्षेत्रज्ञ है ।।

इन्द्रियाँ विषयोंको ग्रहण कराती हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है। बुद्धि निश्चय करानेवाली है और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) साक्षीकी भाँति स्थित रहता है ।। १३ ।।

दोनों पैरोंके तलोंसे लेकर ऊपरतक जो शरीर स्थित है, उसे जो साक्षीभूत चेतन ऊपरनीचे सब ओरसे देखता है, वह इस सारे शरीरके भीतर और बाहर सब जगह व्याप्त है। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो ।। १४ ।।

सभी मनुष्योंको अपनी इन्द्रियों (और मन-बुद्धि) की देख-भाल करके उनके विषयमें पूरी जानकारी रखनी चाहिये; क्योंकि सत्त्व, रज और तम--ये तीनों गुण उन्हींका आश्रय लेकर रहते हैं || १५ ।।

मनुष्य अपनी बुद्धिके बलसे इन सबको और जीवोंके आवागमनकी अवस्थाको जानकर शनै:-शनै: उसपर विचार करनेसे उत्तम शान्ति पा जाता है || १६ ।।

तम आदि गुण बुद्धिको बारंबार विषयोंकी ओर ले जाते हैं; तथा बुद्धिके साथ-साथ मनसहित पाँचों इन्द्रियोंकोी और उनकी समस्त वृत्तियोंको भी ले जाते हैं। उस बुद्धिके अभावमें गुण कैसे रह सकते हैं? ।।

यह चराचर जगत्‌ बुद्धिके उदय होनेपर ही उत्पन्न होता है और उसके लयके साथ ही लीन हो जाता है; इसलिये यह सारा प्रपंच बुद्धिमय ही है; अतएव श्रुतिने सबकी बुद्धिरूपताका ही निर्देश किया है ।।

बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उसे नेत्र और जिसके द्वारा सुनती है, उसे श्रोत्र कहते हैं। इसी प्रकार जिससे वह सूँघती है, उसे प्राण कहा गया है, वही जिह्नाके द्वारा रसका अनुभव करती है ।। १९ ।।

बुद्धि त्वचासे स्पर्शका बोध प्राप्त करती है। इस प्रकार वह बारंबार विकारको प्राप्त होती रहती है। वह जिस करणके द्वारा जिसका अनुभव करना चाहती है, मन उसीका रूप धारण कर लेता है ।

भिन्न-भिन्न विषयोंको ग्रहण करनेके लिये जो बुद्धिके पाँच अधिष्ठान हैं, उन्हींको पाँच इन्द्रियाँ कहते हैं। अदृश्य जीवात्मा उन सबका अधिष्ठाता (प्रेरक) है | २१ ।।

जीवात्माके आश्रित रहकर बुद्धि (सुख, दुःख और मोह) तीन भावोंमें स्थित होती है। वह कभी तो प्रसन्नताका अनुभव करती है, कभी शोकमें डूबी रहती है और कभी सुख और दुःख दोनोंके अनुभवसे रहित मोहाच्छन्न हो जाती है || २२३६ ।।

इस प्रकार वह मनुष्योंके मनके भीतर तीन भावोंमें अवस्थित है, यह भावात्मिका बुद्धि (समाधि-अवस्थामें) सुख, दुःख और मोह--इन तीनों भावोंको लाँधघ जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सरिताओंका स्वामी समुद्र उत्ताल तरंगोंसे संयुक्त हो अपनी विशाल तटभूमिको भी कभी-कभी लाँघ जाता है || २३-२४ ।।

उपर्युक्त भावोंको लाँघ जानेपर भी बुद्धि भावात्मक मनमें सूक्ष्मरूपसे स्थित रहती है। तत्पश्चात्‌ समाधिसे उत्थानके समय प्रवृत्त्यात्मक रजोगुण बुद्धिभावका अनुसरण करता है ।। २५ ।।

उस समय रजोगुणसे युक्त हुई बुद्धि सारी इन्द्रियोंको प्रवृत्तिमें लगा देती है। तदनन्तर विषयोंके सम्बन्धसे प्रीतिरूप सत्त्वगुण प्रकट होता है। उसके बाद पुरुषके आसक्ति आदि दोषोंसे तमोमय भावका उदय होता है || २६ ।।

प्रसन्नता या हर्ष सत्त्वगगुणका कार्य है, शोक रजोगुणरूप है और मोह तमोगुणरूप। इस संसारमें जो-जो भाव हैं, वे सब इन्हीं तीनोंके अन्तर्गत हैं || २७ ।।

भारत! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष बुद्धिकी सम्पूर्ण गतिका विशद विवेचन किया है। बुद्धिमान पुरुषको चाहिये कि वह अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबूमें रखे ।।

भारत! सत्त्व, रज और तम--ये तीन गुण सदा ही प्राणियोंमें स्थित रहते हैं और इनके कारण उन सब जीवोंमें सात्विकी, राजसी और तामसी--यह तीन प्रकारकी अनुभूति देखी जाती है || २९३ ||

सत्त्गगुण सुखकी अनुभूति करानेवाला है, रजोगुण दुःखकी प्राप्ति कराता है और जब वे दोनों तमोगुण (मोह)-से संयुक्त होते हैं, तब व्यवहारके विषय नहीं रह जाते ।। ३० ।।

जब शरीर या मनमें किसी प्रकारसे भी प्रसन्नताका भाव हो, तब यह कहना चाहिये कि सात्चिक भावका उदय हुआ है | ३१ ।।

जब अपने मनमें दुःखसे युक्त अप्रसन्न्ताका भाव जाग्रत्‌ हो, तब यह समझना चाहिये कि रजोगुणकी प्रवृत्ति हुई है। अतः उस दुःखको पाकर मनमें चिन्ता न करे (क्योंकि चिन्तासे दुःख और बढ़ता है) ।। ३२ ।।

जब मनमें कोई मोहयुक्त भाव पैदा हो और किसी भी इन्द्रियका विषय स्पष्ट जान न पड़े, उसके विषयमें कोई तर्क भी काम न करे और वह किसी तरह समझमें न आवे, तब यही निश्चय करना चाहिये कि तमोगुणकी वृद्धि हुई है ।। ३३ ।।

जब मनमें किसी प्रकार भी अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, सुख और शान्तिका अनुभव हो रहा हो, तब इन गुणोंको सात््विक समझना चाहिये ।। ३४ ।।

जिस समय किसी कारणसे या बिना कारण ही असंतोष, शोक, संताप, लोभ और असहनशीलताके भाव दिखायी दें तो उन्हें रजोगुणका चिह्न जानना चाहिये ।। ३५ ।।

इसी प्रकार जब अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष किसी तरह भी घेरते हों तो उन्हें तमोगुणके ही विविध रूप समझे ।। ३६ ।।

जिसका दूरतक दौड़ लगानेवाला और अनेक विषयोंकी ओर जानेवाला कामनायुक्त संशयात्मक मन अच्छी तरह वशमें हो जाता है, वह मनुष्य इहलोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी सुखी होता है ।। ३७ ।।

बुद्धि और आत्मा--ये दोनों ही सूक्ष्म तत्त्व हैं तथापि इनमें बड़ा भारी अन्तर है। तुम इस अन्तरपर दृष्टिपात करो। इनमें बुद्धि तो गुणोंकी सृष्टि करती है और आत्मा गुणोंकी सृष्टिसे अलग रहता है ।। ३८ ।।

जैसे गूलरका फल और उसके भीतर रहनेवाले कीड़े एक साथ रहते हुए भी एकदूसरेसे अलग हैं, उसी प्रकार बुद्धि और आत्मा दोनोंका एक साथ रहना और भिन्न-भिन्न होना समझना चाहिये ।। ३९ ।।

ये दोनों स्‍्वभावसे ही अलग-अलग हैं तो भी सदा एक-दूसरेसे मिले रहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे मछली और जल एक-दूसरेसे पृथक्‌ होकर भी परस्पर संयुक्त रहते हैं। यही स्थिति बुद्धि और आत्माकी भी है ।। ४० ।।

सत्त्व आदि गुण जड होनेके कारण आत्माको नहीं जानते; किंतु आत्मा चेतन है, इसलिये वह गुणोंको सब प्रकारसे जानता है। यद्यपि आत्मा गुणोंका साक्षी है, अत: उनसे सर्वथा भिन्न है तो भी वह अपनेको उन गुणोंसे संयुक्त मानता है ।। ४१ ।।

जैसे घड़ेमें रखा हुआ दीपक घड़ेके छेदोंसे अपना प्रकाश फैलाकर वस्तुओंका ज्ञान कराता है, उसी प्रकार परमात्मा शरीरके भीतर स्थित होकर चेष्टा और ज्ञानसे शून्य इन्द्रियों तथा मन-बुद्धि इन सातोंके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोका अनुभव कराता है ।। ४२ ।।

बुद्धि गुणोंकी सृष्टि करती है और आत्मा साक्षी बनकर देखता रहता है। उन बुद्धि और आत्माका यह संयोग अनादि है ।। ४३ ।।

बुद्धिका परमात्माके सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं है और क्षेत्रज्षका भी कोई दूसरा आश्रय नहीं है। बुद्धि मनसे ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। गुणोंके साथ उसका साक्षात्‌ सम्पर्क कदापि नहीं होता ।। ४४ ।।

जब जीव बुद्धिरूपी सारथि और मनरूपी बागडोर-द्वारा इन्द्रियरूपी अश्वोंकी लगाम अच्छी तरह काबूमें रखता है तब घड़ेमें रखे हुए प्रजजलित दीपकके समान अपने भीतर ही उसका आत्मा प्रकाशित होने लगता है ।। ४५ ।।

जो सांसारिक कर्मोंका परित्याग करके सदा अपने-आपमें ही अनुरक्त रहता है, वह मननशील मुनि सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा होकर परम गतिको प्राप्त होता है ।। ४६ ।।

जैसे जलचर पक्षी जलसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार विशुद्धबुद्धि ज्ञानी पुरुष निर्लिप्त रहकर ही सम्पूर्ण भूतोंमें विचरता है || ४७ ।।

यह आत्मतत्त्व ऐसा ही निर्लिप्त एवं शुद्ध-बुद्धिस्वरूप है--ऐसा अपनी बुद्धिके द्वारा निश्चय करके ज्ञानी पुरुष हर्ष, शोक और मात्सर्य-दोषसे रहित हो सर्वत्र समानभाव रखते हुए विचरे || ४८ ।।

आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित रहकर ही सदा गुणोंकी सृष्टि करता है। ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपने स्वरूपमें स्थित रहती हुई ही जाला बनाती है। मकड़ीके जालेके ही समान समस्त गुणोंकी सत्ता समझनी चाहिये ।। ४९ ।।

आत्मसाक्षात्‌ हो जानेपर गुण नष्ट हो जाते हैं तो भी सर्वथा निवृत्त नहीं होते हैं; क्योंकि उनकी निवृत्ति प्रत्यक्ष नहीं देखी जाती है। जो परोक्ष वस्तु है उसकी सिद्धि अनुमानसे होती है। एक श्रेणीके विद्वानोंका ऐसा ही निश्चय है। दूसरे लोग यह मानते हैं कि गुणोंकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। इन दोनों मतोंपर भलीभाँति विचार करके अपनी बुद्धिके अनुसार यथार्थ वस्तुका निश्चय करना चाहिये || ५०-५१ ।।

बुद्धिके द्वारा कल्पित हुआ जो भेद है, वही --हृदयकी सुदृढ़ गाँठ है। उसे खोलकर संशयरहित हो ज्ञानवान्‌ पुरुष सुखसे रहे, कदापि शोक न करे || ५२ ।।

जैसे मैले शरीरवाले मनुष्य जलसे भरी हुई नदीमें नहा-धोकर साफ-सुथरे हो जाते हैं, उसी प्रकार इस ज्ञानमयी नदीमें अवगाहन करके मलिनचित्त मनुष्य भी शुद्ध एवं ज्ञानसम्पन्न हो जाते हैं--ऐसा जानो ।। ५३ ।।

किसी महानदीके पारको जाननेवाला पुरुष केवल जाननेमात्रसे कृतकृत्य नहीं होता; जबतक वह नौका आदिके द्वारा वहाँ पहुँच न जाय, तबतक वह चिन्तासे संतप्त ही रहता है। परंतु तत्त्वज्ञ पुरुष ज्ञानमात्रसे ही संसार-सागरसे पार हो जाता है; उसे संताप नहीं होता। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं ही पुलस्वरूप है || ५४ ।।

जो मनुष्य बुद्धिसे जीवोंके इस आवागमनपर शनै:-शनै: विचार करके उस विशुद्ध एवं उत्तम आध्यात्मिक ज्ञानको प्राप्त कर लेता है, वह परम शान्ति पाता है || ५५-५६ ।।

जिसे धर्म, अर्थ और काम--इन तीनोंका ठीक-ठीक ज्ञान है, जो खूब सोच-समझकर उनका परित्याग कर चुका है और जिसने मनके द्वारा आत्मतत्त्वका अनुसंधान करके योगयुक्त हो आत्मासे भिन्न वस्तुके लिये उत्सुकताका त्याग कर दिया है, वही तत्त्वदर्शी है | ५७ ||

जिन्होंने अपने मनको वशमें नहीं किया है, वे भिन्न-भिन्न विषयोंकी ओर प्रेरित हुई दुर्निवार्य इन्द्रियोंद्वारा आत्माका साक्षात्कार नहीं कर सकते ।। ५८ ।।

यह जानकर मनुष्य ज्ञानी हो जाता है। ज्ञानीका इसके सिवा और क्‍या लक्षण है? क्योंकि मनीषी पुरुष उस परमात्मतत्त्वको जानकर ही अपनेको कृतकृत्य मानते हैं ।। ५९ ।।

अज्ञानियोंके लिये जो महान्‌ भयका स्थान है, उसी संसारसे ज्ञानी पुरुषोंको भय नहीं होता। ज्ञान होनेपर सबको एक-सी ही गति (मुक्ति) प्राप्त होती है। किसीको उत्कृष्ट या निकृष्ट गति नहीं मिलती; क्योंकि गुणोंका सम्बन्ध रहनेपर ही उनके तारतम्यके अनुसार प्राप्त होनेवाली गतिमें भी असमानता बतायी जाती है (ज्ञानीका गुणोंसे सम्बन्ध नहीं रहता) ।। ६० ।।

जो निष्काम भावसे कर्म करता है, उसका वह कर्म पहलेके किये हुए समस्त कर्मसंस्कारोंका नाश कर देता है। पूर्वजन्म और इस जन्मके किये हुए वे दोनों प्रकारके कर्म उस पुरुषके लिये न तो अप्रिय फल उत्पन्न करते हैं और न तो प्रिय फलके ही जनक होते हैं (क्योंकि कर्तापनके अभिमान और फलकी आसक्तिसे शून्य होनेके कारण उनका उन कर्मोसे सम्बन्ध नहीं रह जाता) ।। ६१ ।।

जो काम, क्रोध आदि दुर्व्यसनोंसे आतुर रहता है, उसे विचारवान्‌ पुरुष थिक्कारते हैं। उसके निन्दनीय कर्म उस आतुर मानवको सभी योनियों (पशु-पक्षी आदिके शरीरों)-में जन्म दिलाता है ।। ६२ ।।

लोकमें भोगासक्तिके कारण आतुर रहनेवाले लोग स्त्री, पुत्र आदिके नाश होनेपर उनके लिये बहुत शोक करते और फूट-फ़ूटकर रोते हैं। तुम उनकी इस दुर्दशाको देख लो। साथ ही जो सारासार-विवेकमें कुशल हैं और सत्पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले दो प्रकारके पदको अर्थात्‌ सगुण-उपासना और निर्गुण-उपासनाके फलको जानते हैं, वे कभी शोक नहीं करते। उनकी अवस्थापर भी दृष्टिपात कर लो (फिर तुम्हें अपने लिये जो हितकर दिखायी दे, उसी पथका आश्रय लो) ।। ६३ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारतमें शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें अध्यात्मतत््वका वर्णनविषयक एक सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत

शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)

एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ पंचानबेवें अध्याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

“ध्यानयोगका वर्णन”

भीष्मजी कहते हैं--कुन्तीनन्दन! अब मैं तुमसे ध्यानयोगका वर्णन करूँगा जो आलम्बनके भेदसे चार प्रकारका होता है। जिसे जानकर महर्षिगण यहीं सनातन सिद्धिको प्राप्त करते हैं ।। १ ।।

निर्वाणस्वरूप मोक्षमें मन लगानेवाले ज्ञानतृप्त योगयुक्त महर्षिगण उसी उपायका अवलम्बन करते हैं, जिससे ध्यानका भलीभाँति अनुष्ठान हो सके ॥। २ ।।

कुन्तीनन्दन! वे संसारके काम, क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त तथा जन्मसम्बन्धी दोषसे शून्य होकर परमात्माके स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, इसलिये पुनः इस संसारमें उन्हें नहीं लौटना पड़ता ॥। ३ ।।

ध्यानयोगके साधकोंको चाहिये कि सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्धोंसे रहित, नित्य सत्त्वगुणमें स्थित, सब प्रकारके दोषोंसे रहित और शौच-संतोषादि नियमोंमें तत्पर रहें। जो स्थान असंग (सब प्रकारके भोगोंके संगसे शून्य), ध्यानविरोधी वस्तुओंसे रहित तथा मनको शान्ति देनेवाले हों, वहीं इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे समेटकर काठकी भाँति स्थिरभावसे बैठ जाय और मनको एकाग्र करके परमात्माके ध्यानमें लगा दे ।। ४-५ ।।

योगको जाननेवाले समर्थ पुरुषको चाहिये कि कानोंके द्वारा शब्द न सुने, त्वचासे स्पर्शका अनुभव न करे, आँखसे रूपको न देखे और जिह्ढासे रसोंको ग्रहण न करे एवं ध्यानके द्वारा समस्त सूँघने योग्य वस्तुओंको भी त्याग दे तथा पाँचों इन्द्रियोंको मथ डालनेवाले इन विषयोंकी कभी मनसे भी इच्छा न करे ।। ६-७ ।।

तत्पश्चात्‌ बुद्धिमान एवं विद्वान्‌ पुरुष पाँचों इन्द्रियोंको मनमें स्थिर करे। उसके बाद पाँचों इन्द्रियोंसहित चंचल मनको परमात्माके ध्यानमें एकाग्र करे ।। ८ ।।

मन नाना प्रकारके विषयोंमें विचरण करनेवाला है। उसका कोई स्थिर आलम्बन नहीं है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसके इधर-उधर निकलनेके द्वार हैं तथा वह अत्यन्त चंचल है। ऐसे मनको धीर योगी पुरुष पहले अपने हृदयके भीतर ध्यानमार्ममें एकाग्र करे ।। ९ ।।

जब यह योगी इन्द्रियोंसहित मनको एकाग्र कर लेता है, तभी उसके प्रारम्भिक ध्यानमार्गका आरम्भ होता है। युधिष्ठिर! यह मैंने तुम्हारे निकट प्रथम ध्यानमार्गका वर्णन किया है ।। १० ।।

इस प्रकार प्रयत्न करनेसे जो इन्द्रियोंसहित मन कुछ देरके लिये स्थिर हो जाता है, वही फिर अवसर पाकर जैसे बादलोंमें बिजली चमक उठती है, उसी प्रकार पुनः बारंबार विषयोंकी ओर जानेके लिये चंचल हो उठता है ।। ११ ।।

जैसे पत्तेपर पड़ी हुई पानीकी बूँद सब ओरसे हिलती रहती है, उसी प्रकार ध्यानमार्ममें स्थित साधकका मन भी प्रारम्भमें चंचल होता रहता है ।। १२ ।।

एकाग्र करनेपर कुछ देर तो वह ध्यानमें स्थित रहता है; परंतु फिर नाड़ी मार्ममें पहुँचकर भ्रान्त-सा होकर वायुके समान चंचल हो उठता है ।। १३ ।।

ध्यानयोगको जाननेवाला साधक ऐसे विक्षेपके समय खेद या क्लेशका अनुभव न करे; अपितु आलस्य और मात्सर्यका त्याग करके ध्यानके द्वारा मनको पुनः एकाग्र करनेका प्रयत्न करे || १४ ।।

योगी जब ध्यानका आरम्भ करता है, तब पहले उसके मनमें ध्यानविषयक विचार, विवेक और वितर्क आदि प्रकट होते हैं || १५ ।।

ध्यानके समय मनमें कितना ही क्लेश क्‍यों न हो, साधकको उससे ऊबना नहीं चाहिये; बल्कि और भी तत्परताके साथ मनको एकाग्र करनेका प्रयत्न करना चाहिये। ध्यानयोगी मुनिको सर्वथा अपने कल्याणका ही प्रयत्न करना चाहिये || १६ ।।

जैसे धूलि, भस्म और सूखे गोबरके चूर्णकी अलग-अलग इकट्टी की हुई ढेरियोंपर जल छिड़का जाय तो वे सहसा जलसे भीगकर इतनी तरल नहीं हो सकतीं कि उनके द्वारा कोई आवश्यक कार्य किया जा सके; क्योंकि बार-बार भिगोये बिना वह सूखा चूर्ण थोड़ा-सा भीगता है, पूरा नहीं भीगता; परंतु उसको यदि बार-बार जल देकर क्रमसे भिगोया जाय तो धीरे-धीरे वह सब गीला हो जाता है, उसी प्रकार योगी विषयोंकी ओर बिखरी हुई इन्द्रियोंको धीरे-धीरे विषयोंकी ओरसे समेटे और चित्तको ध्यानके अभ्याससे क्रमशः स्नेहयुक्त बनावे। ऐसा करनेपर वह चित्त भलीभाँति शान्त हो जाता है ।। १७-१९ ||

भरतनन्दन! ध्यानयोगी पुरुष स्वयं ही मन और पाँचों इन्द्रियोंको पहले ध्यानमार्गमें स्थापित करके नित्य किये हुए योगाभ्यासके बलसे शान्ति प्राप्त कर लेता है || २० ।।

इस प्रकार मनोनिग्रहपूर्वक ध्यान करनेवाले योगीको जो दिव्य सुख प्राप्त होता है, वह मनुष्यको किसी दूसरे पुरुषार्थसे या दैवयोगसे भी नहीं मिल सकता ।। २१ ।।

उस ध्यानजनित सुखसे सम्पन्न होकर योगी उस ध्यानयोगमें अधिकाधिक अनुरक्त होता जाता है। इस प्रकार योगीलोग दुःख--शोकसे रहित निर्वाण (मोक्ष) पदको प्राप्त हो जाते हैं || २२ ।।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें ध्यानयोगका वर्णनविषयक एक सौ पज्चानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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