सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ छियासीवें अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“जीवकी सत्तापर नाना प्रकारकी युक्तियोंसे शंका उपस्थित करना”
भरद्वाजने पूछा--भगवन्! यदि वायु ही प्राणीको जीवित रखती है, वायु ही शरीरको चेष्टाशील बनाती है, वही साँस लेती और वही बोलती भी है, तब तो इस शरीरमें जीवकी सत्ता स्वीकार करना व्यर्थ ही है ।। १ ।।
यदि शरीरमें गर्मी अग्निका अंश है, यदि अग्निसे ही खाये हुए अन्नका परिपाक होता है, यदि अग्नि ही सबको जीर्ण करती है, तब तो जीवकी सत्ता मानना व्यर्थ ही है | २ ।।
जब किसी प्राणीकी मृत्यु होती है; तब वहाँ जीवकी उपलब्धि नहीं होती। प्राणवायु ही इस प्राणीका परित्याग करती है और शरीरकी गर्मी नष्ट हो जाती है || ३ ।।
यदि जीव वायुमय है, यदि वायुसे उसका घनिष्ठ सम्पर्क है, तब तो वायुमण्डलके समान उसे प्रत्यक्ष अनुभवमें आना चाहिये। वह मृत्युके पश्चात् वायुके साथ ही जाता हुआ दिखायी देना चाहिये ।। ४ ।।
यदि वायुके साथ जीवका दृढ़ संयोग है और उसीके कारण वह वायुके साथ ही नष्ट हो जाता है, तब तो जैसे जलपात्रमें पत्थर भरकर उसे कोई समुद्रमें डाल दे और वह डूब जाय, उसी प्रकार वायुके सम्पर्कसे ही जीवका विनाश मानना पड़ेगा। उस दशामें जैसे प्रस्तरसे पृथक् जलपात्रकी उपलब्धि होती है, उसी प्रकार प्राणवायुसे पृथक् जीवकी उपलब्धि होनी चाहिये || ५ ।।
अथवा जैसे कुआँमें जल गिराया जाय या जलती आगमें जला हुआ दीपक डाल दिया जाय, तो वे दोनों शीघ्र ही उनमें प्रविष्ट होकर अपना पृथक् अस्तित्व खो बैठते हैं। उसी प्रकार पांचभौतिक शरीरका नाश होनेपर जीव भी पाँचों तत्त्वमें विलीन होकर अपने पृथक् अस्तित्वसे रहित हो जाना चाहिये, ऐसा मान लेनेपर तो पाँच भूतोंसे धारण किये हुए इस शरीरमें जीव है ही कहाँ? अतः यह सिद्ध हुआ कि पांचभौतिक संघातसे भिन्न जीव नहीं है; उन पाँच तत्त्वोमेंसे किसी एकका अभाव होनेपर शेष चारोंका भी अभाव हो जाता है-इसमें संशय नहीं है || ६-७ ।।
जलका सर्वथा त्याग करनेसे शरीरके जलीय अंशका नाश हो जाता है, श्वास रुक जानेसे वायुका नाश होता है। उदरका भेदन होनेसे आकाशतत्त्व नष्ट होता है और भोजन बंद कर देनेसे शरीरके अग्नितत्त्वका नाश हो जाता है ।। ८ ।।
ज्वर आदि रोग, घाव तथा अन््यान्य प्रकारके क्लेशोंसे शरीरका पृथ्वीतत्त्व बिखर जाता है। इन पाँचों तत्त्वोंमेंसे एक तत्त्वको भी यदि हानि पहुँची तो इनका सारा संघात ही पंचत्वको प्राप्त हो जाता है ।। ९ ।।
पांचभौतिक संघात (शरीर) के नष्ट होनेपर यदि जीव है तो वह किसके पीछे दौड़ता है? क्या अनुभव करता है? क्या सुनता है और क्या बोलता है? ।। १० ।।
मृत्युके समय लोग इस आशासे गोदान करते हैं कि यह गौ परलोकमें जानेपर मुझे तार देगी; परंतु जीव तो गोदान करके मर जाता है; फिर वह गौ किसको तारेगी? ।। ११ ।।
गौ, गोदान करनेवाला मनुष्य तथा उसको लेनेवाला ब्राह्मण--ये तीनों जब यहीं मर जाते हैं, तब परलोकमें उनका कैसे समागम होता है? ।। १२ ।।
इनमेंसे जो मरता है, उसे या तो पक्षी खा जाते हैं या वह पर्वतके शिखरसे गिरकर चूरचूर हो जाता है अथवा आगमें जलकर भस्म हो जाता है। ऐसी दशामें उनका पुनः जीवित होना कैसे सम्भव है? ।। १३ ।।
यदि जड़से कटे हुए वृक्षका मूल फिर अंकुरित नहीं होता है, केवल उसके बीज ही जमते हैं, तब मरा हुआ मनुष्य फिर कहाँसे आ जायगा? ।। १४ ।।
पूर्वकालमें बीजमात्रकी सृष्टि हुई थी, जिससे यह जगत् चलता आ रहा है। जो लोग मर जाते हैं, वे तो नष्ट हो जाते हैं और बीजसे बीज पैदा होता रहता है || १५ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जीवके स्वरूपपर आक्षेपविषयक एक सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ सतासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ सतासीवें अध्याय के श्लोक 1-31 का हिन्दी अनुवाद)
“जीवकी सत्ता तथा नित्यताको युक्तियोंसे सिद्ध करना”
भगुजीने कहा--ब्रह्मग! जीवका तथा उसके दिये हुए दान एवं किये हुए कर्मका कभी नाश नहीं होता है। जीव तो दूसरे शरीरमें चला जाता है, केवल उसका छोड़ा हुआ शरीर ही यहाँ नष्ट होता है ।। १ ।।
शरीरके आश्रयसे रहनेवाला जीव उसके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता है। जैसे समिधाओंके आश्रित हुई आग उनके जल जानेपर भी देखी जाती है, उसी प्रकार जीवकी सत्ताका भी प्रत्यक्ष अनुभव होता है || २ ।।
भरद्वाजने पूछा--भगवन्! यदि अग्निके समान जीवका नाश नहीं होता तो ईंधनके जल जानेपर वह भी तो बुझ ही जाती है; फिर उसकी तो उपलब्धि नहीं होती है ।। ३ ।।
अतः मैं ईंधनरहित बुझी हुई आगको यही समझता हूँ कि वह नष्ट हो गयी; क्योंकि जिसकी गति, प्रमाण अथवा स्थिति नहीं है, उसका नाश भी मानना पड़ता है। यही दशा जीवकी भी है ।। ४ ।।
भगुजीने कहा--मुने! समिधाओंके जल जानेपर अग्निका नाश नहीं होता। वह आकाशमें अव्यक्तरूपसे स्थित हो जाती है, इसलिये उसकी उपलब्धि नहीं होती; क्योंकि बिना किसी आश्रयके अग्निका ग्रहण होना अत्यन्त कठिन है ।। ५ ।।
उसी प्रकार शरीरको त्याग देनेपर जीव आकाशकी भाँति स्थित होता है। वह अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण बुझी हुई आगके समान अनुभवमें नहीं आता, परंतु रहता अवश्य है; इसमें संशय नहीं है ।। ६ ।।
अग्नि प्राणोंको धारण करती है। जीवको उस अग्निके समान ही ज्योतिर्मय समझो। उस अग्निको वायु देहके भीतर धारण किये रहती है। श्वास रुक जानेपर वायुके साथ-साथ अग्नि भी नष्ट हो जाती है ।। ७ ।।
उस शरीराग्निके नष्ट होनेपर अचेतन शरीर पृथ्वीपर गिरकर पार्थिवभावको प्राप्त हो जाता है; क्योंकि पृथ्वी ही उसका आधार है। समस्त स्थावरों और जंगमोंकी प्राणवायु आकाशको प्राप्त होती है और अग्नि भी उस वायुका ही अनुसरण करती है। इस प्रकार आकाश, वायु और अग्नि--ये तीन तत्त्व एकत्र हो जाते हैं और जल तथा पृथ्वी--दो तत्त्व भूमिपर ही रह जाते हैं ।। ८-९ ।।
जहाँ आकाश होता है, वहीं वायुकी स्थिति होती है और जहाँ वायु होती है, वहीं अग्नि भी रहती है। ये तीनों तत्त्व यद्यपि निराकार हैं तथापि देहधारियोंके शरीरोंमें स्थित होकर मूर्तिमान् समझे जाते हैं || १० ।।
भरद्वाजने पूछा--निष्पाप मुनिवर! यदि देह-धारियोंके शरीरोंमें केवल अग्नि, वायु, भूमि, आकाश और जल-तत्त्व ही विद्यमान है तो उनमें रहनेवाले जीवके कया लक्षण हैं? यह मुझे बताइये ।। ११ ।।
प्राणियोंका शरीर पांचभौतिक है। पाँच विषयोंमें इसकी रति है। इसमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और चित्त उपलब्ध होते हैं। इसमें रहनेवाले जीवका स्वरूप कैसा है; इस बातको मैं जानना चाहता हूँ || १२ ।।
रक्त और मांसके समूह, चर्बी, नाड़ी और हडियोंके संग्रहरूपी इस शरीरको चीरनेफाड़नेपर इसके भीतर कोई जीव नहीं उपलब्ध होता ।। १३ ।।
यदि इस पांचभौतिक शरीरको जीवरहित मान लिया जाय, तब प्रश्न यह होता है कि शरीर अथवा मनमें पीड़ा होनेपर उसके कष्टका अनुभव कौन करता है? ।। १४ ।।
महर्ष! जीव किसीकी कही हुई बातको पहले दोनों कानोंसे सुनता है; परंतु यदि मनमें व्यग्रता रही तो वह सुनकर भी नहीं सुनता; इसलिये मनके अतिरिक्त किसी जीवकी सत्ता मानना व्यर्थ है ।। १५ ।।
जो भी दृश्य पदार्थ है, उसे प्राणी तभी देख पाता है जब कि उसकी दृष्टिके साथ मनका संयोग हो। यदि मन व्याकुल हो तो उसकी आँख देखती हुई भी नहीं देख पाती है ।। १६ ||
निद्राके वशमें पड़ा हुआ पुरुष (सम्पूर्ण इन्द्रियोंके होते हुए भी) न देखता है, न सूँघता है, न सुनता है, न बोलता है और न स्पर्श तथा रसका ही अनुभव करता है ।। १७ ।।
अतः यह जिज्ञासा होती है कि इस शरीरके अंदर कौन हर्ष और कौन क्रोध करता है? किसे शोक और उद्वेग होता है? इच्छा, ध्यान, द्वेष और बातचीत कौन करता है? ।। १८
भगुजीने कहा--मुने! मन भी पांचभौतिक ही है; अतः वह पाँचों भूतोंसे भिन्न कोई दूसरा तत्त्व नहीं है। एकमात्र अन्तरात्मा ही इस शरीरका भार वहन करता है, वही रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्दका और दूसरे भी जो गुण हैं, उनका अनुभव करता है ।। १९ ।।
वह अन्तरात्मा पाँचों इन्द्रियोंके गुणोंको धारण करनेवाले मनका द्रष्टा है और वही इस पाज्चभौतिक शरीरके सम्पूर्ण अवयवोंमें व्याप्त होकर सुख-दुःखका अनुभव करता है। जब उसका शरीरके साथ सम्बन्ध छूट जाता है, तब इस शरीरको सुख-दुःखका भान नहीं होता है (इससे मनके अतिरिक्त उसके साक्षी आत्माकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो जाती है) |। २० ।।
जब पाञ्चभौतिक शरीरमें रूप, स्पर्श और गर्मीका भान नहीं होता, उस अवस्थामें शरीरस्थित अग्निके शान्त हो जानेपर जीवात्मा इस शरीरको त्यागकर भी नष्ट नहीं होता ।। २१ ।।
यह सब प्रपंच जलमय है, प्राणियोंका यह शरीर भी प्रायः जलमय ही है। उसमें मनमें रहनेवाला आत्मा विद्यमान है। वही सम्पूर्ण भूतोंमें लोकस्रष्टा ब्रह्माके नामसे विख्यात है; क्योंकि समस्त जीवोंके संघातका ही नाम ब्रह्मा है ।। २२ ।।
आत्मा जब प्राकृत गुणोंसे युक्त होता है, तब उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं और उन्हीं गुणोंसे जब वह मुक्त हो जाता है, तब परमात्मा कहलाता है ।। २३ ।।
तुम क्षेत्रज््को आत्मा ही समझो। वह सर्वलोक-हितकारी है। इस शरीरमें रहकर भी वह कमल-पत्रपर पड़े हुए जलबिन्दुकी तरह वास्तवमें इससे पृथक् ही है ।। २४ ।।
क्षेत्रज्यको सदा आत्मा ही जानो। वह सम्पूर्ण जगत्का हितस्वरूप है। तमोगुण, रजोगुण और सत्त्वगुण--इन तीनों प्राकृत गुणोंको प्रकृति-स्थित होनेके कारण जीवके गुण समझो || २५ ||
चेतन जीवके सम्बन्धसे उपर्युक्त जीवके गुणोंको चेतनायुक्त कहते हैं-। वह जीव स्वयं चेष्टा करता है और सबसे चेष्टा करवाता है। शरीरके तत्त्वको जाननेवाले पुरुष इस क्षेत्रज्ञ आत्मासे उस परमात्माको श्रेष्ठ बताते हैं, जिसने भू:भुवः आदि सातों लोकोंको उत्पन्न किया है | २६ ।।
देहका नाश होनेपर भी जीवका नाश नहीं होता। जो जीवकी मृत्यु बताते हैं, वे अज्ञानी हैं और उनका वह कथन मिथ्या है। जीव तो इस मृत देहका त्याग करके दूसरे शरीरमें चला जाता है। शरीरके पाँच तत्त्वोंका अलग-अलग हो जाना ही शरीरका नाश है ।। २७ ।।
इस प्रकार आत्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर उनकी हृदयगुफामें गूढ़भावसे छिपा रहता है। वह तत्त्वदर्शी पुरुषोंद्वारा तीक्ष्ण एवं सूक्ष्म बुद्धिसे साक्षात् किया जाता है ।।
जो विद्वान परिमित आहार करके रातके पहले और पिछले पहरमें सदा ध्यानयोगका अभ्यास करता है, वह अन्त:करण शुद्ध होनेपर अपने हृदयमें ही उस आत्माका साक्षात्कार कर लेता है ।। २९ |।
चित्त शुद्ध होनेपर वह शुभाशुभ कर्मोंसे अपना सम्बन्ध हटाकर प्रसन्नचित्त हो आत्मस्वरूपमें स्थित हो जाता है और अनन्त आनन्दका अनुभव करने लगता है || ३०
समस्त शरीरोंमें मनके भीतर रहनेवाला जो अग्निके समान प्रकाशस्वरूप चैतन्य है, उसीको समष्टि जीवस्वरूप प्रजापति कहते हैं। उसी प्रजापतिसे यह सृष्टि उत्पन्न हुई है। यह बात अध्यात्मतत्त्वका निश्चय करके कही गयी है ।। ३१ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भगु-भरद्वाजके संवादके प्रयंगें जीवके स्वरूपका निरूपणविषयक एक सौ सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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- जैसे लोहा दाहक एवं दीप्तिमान् हो उठता है, उसी प्रकार चेतन जीवके संसर्गसे उसके सत्त्वादि गुणको भी चैतन्ययुक्त कहते हैं।
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ अट्ठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ अट्ठासीवें अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
“वर्णविभागपूर्वक मनुष्योंकी और समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन”
भगुजी कहते हैं--मुने! ब्रह्माजीने सृष्टिके प्रारम्भमें अपने तेजसे सूर्य और अग्निके समान प्रकाशित होनेवाले ब्राह्मणों, मरीचि आदि प्रजापतियोंको ही उत्पन्न किया ।। १ ।।
उसके बाद भगवान् ब्रह्माने स्वर्ग-प्राप्तिके साधनभूत सत्य, धर्म, तप, सनातन वेद, आचार और शौचके नियम बनाये ।। २ ।।
तदनन्तर देवता, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, महान् सर्प, यक्ष, राक्षस, नाग, पिशाच और मनुष्योंको उत्पन्न किया ।। ३ ।।
द्विजश्रेष्ठ! फिर उन्होंने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र--इन चारों वर्णॉंकी रचना की और प्राणिसमूहोंमें जो अन्य समुदाय हैं, उनकी भी सृष्टि की ।। ४ ।।
ब्राह्मणोंका रंग श्वैत, क्षत्रियोंका लाल, वैश्योंका पीला तथा शूद्रोंका काला बनाया ।। ५ ||
भरद्वाजने पूछा--प्रभो! यदि चारों वर्णोमेंसे एक वर्णके साथ दूसरे वर्णका रंग-भेद है, तब तो सभी वर्णोमें विभिन्न रंगके मनुष्य होनेके कारण वर्णसंकरता ही दिखायी देती है ।। ६ |।
काम, क्रोध, भय, लोभ, शोक, चिन्ता, क्षुधा और थकावटका प्रभाव हम सब लोगोंपर समानरूपसे ही पड़ता है; फिर वर्णोका भेद कैसे सिद्ध होता है? ।। ७ ।।
हम सब लोगोंके शरीरसे पसीना, मल, मूत्र, कफ, पित्त और रक्त निकलते हैं। ऐसी दशामें रंगके द्वारा वर्णोका विभाग कैसे किया जा सकता है? ।। ८ ।।
पशु, पक्षी, मनुष्य आदि जंगम प्राणियों तथा वृक्ष आदि स्थावर जीवोंकी असंख्य जातियाँ हैं। उनके रंग भी नाना प्रकारके हैं, अत: उनके वर्णोका निश्चय कैसे हो सकता है? ।। ९ |।
भगुजीने कहा--मुने! पहले वर्णो्में कोई अन्तर नहीं था, ब्रह्माजीसे उत्पन्न होनेके कारण यह सारा जगत् ब्राह्मण ही था। पीछे विभिन्न कर्मोंके कारण उनमें वर्णभेद हो गया ।। १० ।।
जो अपने ब्राह्मणोचित धर्मका परित्याग करके विषयभोगके प्रेमी, तीखे स्वभाववाले, क्रोधी और साहसका काम पसंद करनेवाले हो गये और इन्हीं कारणोंसे जिनके शरीरका रंग लाल हो गया, वे ब्राह्मण क्षत्रिय-भावको प्राप्त हुए--क्षत्रिय कहलाने लगे || ११ ।।
जिन्होंने गौओंसे तथा कृषिकर्मके द्वारा जीविका चलानेकी वृत्ति अपना ली और उसीके कारण जिनके रंग पीले पड़ गये तथा जो ब्राह्मणोचित धर्मको छोड़ बैठे, वे ही ब्राह्मण वैश्यभावको प्राप्त हुए ।। १२ ।।
जो शौच और सदाचारसे भ्रष्ट होकर हिंसा और असत्यके प्रेमी हो गये, लोभवश व्याधोंके समान सभी तरहके निन्द्य कर्म करके जीविका चलाने लगे और इसीलिये जिनके शरीरका रंग काला पड़ गया, वे ब्राह्मण शूद्रभावको प्राप्त हो गये || १३ ।।
इन्हीं कर्मोके कारण ब्राह्मणत्वसे अलग होकर वे सभी ब्राह्मण दूसरे-दूसरे वर्णके हो गये, किंतु उनके लिये नित्यधर्मानुष्ठान और यज्ञकर्मका कभी निषेध नहीं किया गया है ।। १४ ।।
इस प्रकार ये चार वर्ण हुए, जिनके लिये ब्रह्माजीने पहले ब्राह्मी सरस्वती (वेदवाणी) प्रकट की। परंतु लोभविशेषके कारण शूद्र अज्ञानभावको प्राप्त हुए--वेदाध्ययनके अनधिकारी हो गये ।। १५ ।।
जो ब्राह्मण वेदकी आज्ञाके अधीन रहकर सारा कार्य करते, वेदमन्त्रोंको स्मरण रखते और सदा व्रत एवं नियमोंका पालन करते हैं, उनकी तपस्या कभी नष्ट नहीं होती ।। १६ ।।
जो इस सारी सृष्टिको परब्रह्म परमात्माका रूप नहीं जानते हैं, वे द्विज कहलानेके अधिकारी नहीं हैं। ऐसे लोगोंको नाना प्रकारकी दूसरी-दूसरी योनियोंमें जन्म लेना पड़ता है ।। १७ |।
वे ज्ञान-विज्ञानसे हीन और स्वेच्छाचारी लोग पिशाच, राक्षस, प्रेत तथा नाना प्रकारकी म्लेच्छ-जातिके होते हैं | १८ ।।
पीछेसे ऋषियोंने अपनी तपस्याके बलसे कुछ ऐसी प्रजा उत्पन्न की, जो वैदिक संस्कारोंसे सम्पन्न तथा अपने धर्म-कर्ममें दृढ़तापूर्वक डटी रहनेवाली थी। इस प्रकार प्राचीन ऋषियोंद्वारा अर्वाचीन ऋषियोंकी सृष्टि होने लगी ।। १९ ।।
किंतु जो सृष्टि आदिदेव ब्रह्माके मनसे उत्पन्न हुई है, जिसके जड़-मूल केवल ब्रह्माजी ही हैं तथा जो अक्षय, अविकारी एवं धर्ममें तत्पर रहनेवाली है, वह सृष्टि मानसी कहलाती है || २० ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत गोक्षधर्मपर्वमें भगु-भरद्वाजके प्रसंगमें वर्णोके विभागका वर्णनविषयक एक सौ अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ नवासीवें अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
“चारों वर्णगोके अलग-अलग कर्मोका और सदाचारका वर्णन तथा वैराग्यसे परब्रह्मकी प्राप्ति”
भरद्वाजने पूछा--वक्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मर्षे! द्विजोत्तम! अब मुझे यह बताइये कि मनुष्य कौन-सा कर्म करनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है? ।। १ ।।
भगुजीने कहा--जो जाति, कर्म आदि संस्कारोंसे सम्पन्न, पवित्र तथा वेदोंके स्वाध्यायमें संलग्न है, (यजन-याजन, अध्ययनाध्यापन और दान-प्रतिग्रह--इन) छ: कर्मोमें स्थित रहता है, शौच एवं सदाचारका पालन तथा परम उत्तम यज्ञशिष्ट अन्नका भोजन करता है, गुरुके प्रति प्रेम रखता, नित्य व्रतका पालन करता तथा सत्यमें तत्पर रहता है, वही ब्राह्मण कहलाता है ।। २-३ ।।
जिसमें सत्य, दान, द्रोह न करनेका भाव, क्रूरताका अभाव, लज्जा, दया और तप-ये सदगुण देखे जाते हैं, वह ब्राह्मण माना गया है ।। ४ ।।
जो क्षत्रियोचित युद्ध आदि कर्मका सेवन करता है, वेदोंके अध्ययनमें लगा रहता है, ब्राह्मणोंको दान देता है और प्रजासे कर लेकर उसकी रक्षा करता है, वह क्षत्रिय कहलाता है ।। ५ |।
इसी प्रकार जो वेदाध्ययनसे सम्पन्न होकर व्यापार, पशुपालन और खेतीका काम करके अन्न संग्रह करनेकी रुचि रखता है और पवित्र रहता है, वह वैश्य कहलाता है ।।
किंतु जो वेद और सदाचारका परित्याग करके सदा सब कुछ खानेमें अनुरक्त रहता है और सब तरहके काम करता है, साथ ही बाहर-भीतरसे अपवित्र रहता है, वह शूद्र कहा गया है || ७ ।।
उपर्युक्त सत्य आदि सात गुण यदि शूद्रमें दिखायी दें और ब्राह्मणमें न हों तो वह शाद्र शूद्र नहीं है और वह ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है ।। ८ ।।
सभी उपायोंसे लोभ और क्रोधको जीतना चाहिये। यही ज्ञानोंमें पवित्र ज्ञान है और यही आत्मसंयम है ।।
क्रोध और लोभ मनुष्यके कल्याणमें बाधा डालनेके लिये सदा उद्यत रहते हैं; अतः पूरी शक्ति लगाकर इन दोनोंका निवारण करना चाहिये। धन-सम्पत्तिको क्रोधके आघातसे बचाना चाहिये, तपको मात्सर्यके आघातसे बचाना चाहिये, विद्याको मान-अपमानसे और अपने-आपको प्रमादके आक्रमणके बचाना चाहिये ।। १०३ ।।
ब्रह्म! जिसके सभी कार्य कामनाओंके बन्धनसे रहित होते हैं तथा जिसने त्यागकी अतामें सब कुछ होम दिया है, वही त्यागी और वही बुद्धिमान् है ।। ११६ ।।
किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे, सबके साथ मैत्रीपूर्ण बर्ताव करे। स्त्री-पुत्र आदिकी ममता एवं आसक्तिको त्यागकर बुद्धिके द्वारा इन्द्रियोंको वशमें करे और उस स्थितिको प्राप्त करे, जो इहलोक और परलोकमें भी निर्भय एवं शोकरहित है ।। १२-१३ ।।
नित्य तप करे, मननशील होकर इन्द्रियोंका दमन और मनका संयम करे। आसक्तिके आश्रयभूत देह-गेह आदिमें आसक्त न होकर अजित (परमात्मा) को जीतने (प्राप्त करने) की इच्छा रक्खे ।। १४ ।।
इन्द्रियोंसे जिसका ग्रहण होता है, वह सब व्यक्त, कहलाता है। जो इन्द्रियातीत होनेके कारण अनुमानसे ही जाना जाय, उसे अव्यक्त समझना चाहिये ।। १५ ।।
जो विश्वासके योग्य नहीं है, उस मार्गपर न चले और जो विश्वास करनेयोग्य है, उसमें मन लगावे। मनको प्राणमें और प्राणको ब्रह्ममें स्थापित करे ।। १६ ।।
वैराग्यसे ही निर्वाणपद (मोक्ष) प्राप्त होता है। उसे पाकर मनुष्य किसी अनात्मपदार्थका चिन्तन नहीं करता है। ब्राह्मण संसारसे वैराग्य होनेपर सुखस्वरूप परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है || १७ ।।
सर्वदा शौच और सदाचारका पालन करे और समस्त प्राणियोंपर दयाभाव बनाये रकक््खे; यह ब्राह्मणका प्रधान लक्षण है ।। १८ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्यपर्वमें भरगु-भरद्वाजसंवादके प्रसंगमें वर्णोके स्व्रूपका कथनविषयक एक सौ नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
शान्ति पर्व (मोक्षधर्मपर्व)
एक सौ नब्बेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (शान्ति पर्व) एक सौ नब्बेवें अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
“सत्यकी महिमा, असत्यके दोष तथा लोक और परलोकके सुख-दुःखका विवेचन”
भगुजी कहते हैं--मुने! सत्य ही ब्रह्म है, सत्य ही तप है, सत्य ही प्रजाकी सृष्टि करता है, सत्यके ही आधारपर संसार टिका हुआ है और सत्यके ही प्रभावसे मनुष्य स्वर्गमें जाता है।। १।।
असत्य अन्धकारका रूप है। वह मनुष्यको नीचे गिराता है। अज्ञानारन्धकारसे घिरे हुए मनुष्य तमोगुणसे ग्रस्त होकर ज्ञानके प्रकाशको नहीं देख पाते हैं ।। २ ।।
स्वर्ग प्रकाशभय है और नरक अन्धकारमय है, ऐसा कहते हैं। सत्य और अनृतसे युक्त जो मानव-योनि है, वह ज्ञान और अज्ञान दोनोंके सम्मिश्रणसे जगत्के जीवोंको प्राप्त होती है ।। ३ ।।
उसमें भी लोकमें ऐसी वृत्ति जाननी चाहिये, जो सत्य और अनृत हैं, वे ही धर्म और अधर्म, प्रकाश और अन्धकार तथा दुःख और सुख हैं ।। ४ ।।
वहाँ जो सत्य है, वही धर्म है, जो धर्म है वही प्रकाश है और जो प्रकाश है, वही सुख है। इसी प्रकार वहाँ जो अनृत अर्थात् असत्य है, वही अधर्म है और जो अधर्म है, वही अन्धकार है और जो अन्धकार है, वही दुःख है ।। ५ ।।
इस विषयमें ऐसा कहा जाता है--संसारकी सृष्टि शारीरिक और मानसिक क्लेशोंसे युक्त है। इसमें जो सुख हैं, वे भी अन्तमें दुःख ही उत्पन्न करनेवाले हैं। ऐसी दृष्टि रखनेवाले विद्वान् पुरुष कभी मोहमें नहीं पड़ते हैं |। ६ ।।
अतः विज्ञ एवं बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि सदा दुःखसे छूटनेके लिये प्रयत्न करे। इहलोक और परलोकमें भी प्राणियोंको जो सुख मिलता है, वह अनित्य है ।। ७ ।।
जैसे राहुसे ग्रस्त होनेपर चन्द्रमाकी चाँदनी प्रकाशमें नहीं आती, उसी प्रकार तम (अज्ञान एवं दुःख) से पीड़ित हुए प्राणियोंका सुख नष्ट हो जाता है ।। ८ ।।
सुख दो प्रकारका बताया जाता है--शारीरिक और मानसिक। इहलोक और परलोकमें जो वस्तुओंकी प्राप्तिके लिये प्रवृत्तियाँ हैं, वे सुखके लिये ही बतायी जाती हैं। इस सुखसे बढ़कर त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) का और कोई अत्यन्त विशिष्ट फल नहीं है। वह सुख ही प्राणीका वाउ्छनीय गुणविशेष है। धर्म और अर्थ जिसके अंग हैं, उस सुखके लिये ही कर्मोका आस्मभ किया जाता है; क्योंकि सुखकी उत्पत्तिमें उद्यम ही हेतु हैं; अतः सुखके उद्देश्यसे ही कर्मोंका आरम्भ किया जाता है ।। ९ ।।
भरद्वाजने पूछा--प्रभो! आपने जो यह बताया है कि सुखोंका ही सबसे ऊँचा स्थान है--सुखसे बढ़कर त्रिवर्गकका और कोई फल नहीं है, आपकी यह बात हमारे मनमें ठीक नहीं जँचती है; क्योंकि जो महान् तपमें स्थित ऋषिगण हैं, उनके लिये यह वाउ्छनीय गुणविशेष सुख यद्यपि प्राप्त हो सकता है, तो भी वे इसे नहीं चाहते हैं। सुना जाता है कि तीनों लोकोंकी सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्मा अकेले ही रहते हैं, ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं और कामसुखमें कभी मन नहीं लगाते हैं। भगवती उमाके प्राणवल्लभ भगवान् विश्वनाथने भी अपने सामने आये हुए कामको जलाकर शान्त कर दिया और उसे अनंग बना दिया; इसलिये हम कहते हैं कि महात्मा पुरुषोंने कभी इसे स्वीकार नहीं किया है। उनके लिये यह कामसुख अर्थात् सांसारिक भोगोंका सुख सबसे बढ़कर सुखविशेष नहीं है; परंतु आपकी बातोंसे मुझे ऐसी प्रतीति नहीं होती है। आपने तो यह कहा है कि इस सुखसे बढ़कर दूसरा कोई फल नहीं है। लोकमें ऐसा कहा जाता है कि फलकी उत्पत्ति दो प्रकारकी होती है। पुण्यकर्मसे सुख प्राप्त होता है और पापकर्मसे दुःख ।। १० ।।
भगुजीने कहा--मुने! असत्यसे अज्ञानकी उत्पत्ति हुई है; अतः तमोग्रस्त मनुष्य अधर्मके ही पीछे चलते हैं; धर्मका अनुसरण नहीं करते हैं। जो लोग क्रोध, लोभ, हिंसा और असत्य आदिसे आच्छादित हैं, वे न तो इस लोकमें सुखी होते हैं और न परलोकमें ही। वे नाना प्रकारके रोग, व्याधि और तापसे संतप्त होते रहते हैं। वध और बन्धन आदिके क्लेशोंसे तथा भूख, प्यास और थकावटके कारण होनेवाले संतापोंसे भी पीड़ित होते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें आँधी, पानी, अत्यन्त गर्मी और अधिक सर्दीसे उत्पन्न हुए भयंकर शारीरिक कष्ट भी सहन करने पड़ते हैं। बन्धु-बान्धवोंकी मृत्यु, धनके नाश और प्रेमीजनोंके वियोगके कारण होनेवाले मानसिक शोक भी उन्हें सताते रहते हैं। बुढ़ापा और मृत्युके कारण भी बहुत-से दूसरे-दूसरे क्लेश भी उन्हें पीड़ा देते रहते हैं ।।
जो इन शारीरिक और मानसिक दु:खोंके सम्बन्धसे रहित है, उसीको सुखका अनुभव होता है। स्वर्गलोकमें ये पूर्वोक्त दुःखरूप दोष नहीं उत्पन्न होते हैं। वहाँ निम्नांकित बातें होती हैं | १२ ।।
स्वर्गमें अत्यन्त सुखदायिनी हवा चलती है। मनोहर सुगन्ध छायी रहती है। भूख, प्यास, परिश्रम, बुढ़ापा और पापके फलका कष्ट वहाँ कभी नहीं भोगना पड़ता है || १३ ।।
स्वर्गमें सदा सुख ही होता है। इस मर्त्यलोकमें सुख और दु:ख दोनों होते हैं। नरकमें केवल दुःख-ही-दुःख बताया गया है। वास्तविक सुख तो वह परमपदस्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही है || १४ ।।
पृथ्वी सम्पूर्ण भूतोंकी जननी है। संसारकी स्त्रियाँ भी पृथ्वीके समान ही संतानकी जननी होती हैं। पुरुष ही वहाँ प्रजापतिके समान है। पुरुषका जो वीर्य है, उसे तेज:स्वरूप समझा जाता है ।। १५ ।।
पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इस स्त्री-पुरुषस्वरूप जगत्की सृष्टि की थी। यहाँ समस्त प्रजा अपने-अपने कर्मोंसे आवृत होकर सुख-दुःखका अनुभव करती है || १६ ।।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भगु- भरद्वाजसंवादाविषयक एक सौ नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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